Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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इसलिए
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र काययोगादि (७) भव-तिर्यञ्च एवं मनुष्य का अनुभूयमान भव और (८) आयुष्य-तिर्यञ्च और मनुष्य का आयुष्य। इन ८ कारणों से उदयप्राप्त औदारिकशरीरप्रयोगनामकर्म से औदारिकशरीर-प्रयोगबंध होता है। प्रस्तुत प्रसंग का उत्तर तो यही होना चाहिए—औदारिकशरीरप्रयोगनामकर्म के उदय से यह होता है, किन्तु मूलपाठ में जो ८ कारण बताए हैं, वे इस मुख्य कारण-नामकर्म के सहकारी कारण हैं, जो औदारिकशरीरप्रयोगबंध में आवश्यक है, यही इस सूत्र का आशय है।
औदारिकशरीर-प्रयोगबंध के दो रूप : सर्वबंध, देशबंध—जिस प्रकार घृतादि से भरी हुई एवं अग्नि से तपी हुई कड़ाही में जब मालपूआ डाला जाता है, तो प्रथम समय में वह घृतादि को केवल ग्रहण करता (खींचता) है, तत्पश्चात् शेष समयों में वह घृतादि को ग्रहण भी करता है और छोड़ता भी है, उसी प्रकार यह जीव जब पूर्वशरीर को छोड़कर अन्य शरीर को धारण करता है, तब प्रथम समय में उत्पत्तिस्थान में रहे हुए उस शरीर के योग्य पुद्गलों को केवल ग्रहण करता है। इस प्रकार का यह बंध—'सर्वबंध' है। तत्पश्चात् द्वितीय आदि समयों में शरीरयोग्य पदगलों को ग्रहण भी करता है और छोडता भी है. अत: यह देशबंध है यहाँ कहा गया है कि औदारिकशरीरप्रयोगबंध सर्वबंध भी होता है, देशबंध भी। जो सर्वबंध होता है, वह केवल एक समय का होता है। मालपूए के पूर्वोक्त दृष्टान्तानुसार जब वायुकायिक या मनुष्यादि जीव वैक्रियशरीर करके उसे छोड़ देता है, तब छोड़ने के बाद औदारिकशरीर का एक समय तक सर्वबंध करता है, तत्पश्चात् दूसरे समय में वह देशबंध करता है। दूसरे समय में यदि उसका मरण हो जाए तो इस अपेक्षा से देशबंध जघन्य एक समय का होता है। औदारिकशरीरधारी जीवों की उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति तीन पल्योपम की है। इसमें से जीव प्रथम समय में सर्वबंधक और उसके बाद एक समय कम तीन पल्योपम तक देशबंधक रहता है। इस दृष्टि से समस्त जीवों की अपनी-अपनी उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति के अनुसार एक समय तक वे सर्वबंधक और फिर देशबंधक रहते हैं। जैसे—एकेन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट आयुस्थिति २२ हजार वर्ष की है। उसमें से १ समय तक वे सर्वबंधक और फिर १ समय कम २२ हजार वर्ष तक वे देशबंधक रहते हैं।
उत्कृष्ट देशबंध—जिसकी जितनी उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति होती है, उसका देशबंध उसमें एक समय कम होता है। जैसे—अप्काय की ७००० वर्ष, तेजस्काय की ३ अहोरात्र, वनस्पतिकाय की १०००० वर्ष, द्वीन्द्रिय की १२ वर्ष, त्रीन्द्रिय की ४९ दिन, चतुरिन्द्रिय की ६ मास की उत्कृष्ट आयुस्थिति होती है।
क्षुल्लकभवग्रहण का आशय अपनी-अपनी काय और जाति में जो छोटे-छोटे भव हों, उसे क्षुल्लकभव कहते हैं। एक अन्तमुहूंत में सूक्ष्मनिगोद के ६५५३६ क्षुल्लकभव होते हैं, एक श्वासोच्छ्वास में १७ से कुछ अधिक क्षुल्लकभव होते हैं । पृथ्वीकाय के एक मुहूर्त में १२८२४ क्षुल्लकभव होते हैं। अप्काय से चतुरिन्द्रिय जीवों तक का देशबन्ध जघन्य ३ समय कम क्षुल्लकभवग्रहण तक है। क्योंकि उनमें भी वैक्रियशरीर नहीं होता।
औदारिकशरीर के सर्वबंध और देशबंध का अन्तरकाल-समुच्चय जीवों की अपेक्षा औदारिकशरीरबंध का सामान्य अन्तर-सर्वबंध का अन्तर-तीन समय कम क्षुल्लकभवग्रहण पर्यन्त बताया है, उसका आशय यह है कि कोई जीव तीन समय की विग्रहगति से औदारिकशरीरधारी जीवों में उत्पन्न हुआ तो