Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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अष्टम शतक : उद्देशक-९
३७७ वह विग्रहगति के दो समय में अनाहारक रहता है और तीसरे समय में सर्वबंधक होता है। यदि क्षुल्लकभव तक जीवित रह कर मृत्यु को प्राप्त हो गया और औदारिकशरीरधारी जीवों में उत्पन्न हुआ तो वहाँ पहले समय में वह सर्वबंधक होता है। इस प्रकार सर्वबंध का सर्वबंध के साथ जघन्य अन्तर तीन समय कम क्षुल्लकभवग्रहण होता है। उत्कृष्ट अन्तर समयाधिक पूर्वकोटि और तेतीस सागरोपम का बताया है। उसका आशय यह है कि कोई जीव मनुष्य आदि गति में अविग्रहगति से आकर उत्पन्न हुआ। वहाँ प्रथम समय में वह सर्वबंधक रहा। तत्पश्चात् पूर्वकोटि तक जीवित रहकर मृत्यु को प्राप्त हुआ। वहाँ से वह ३३ सागरोपम की स्थितिवाला नैरयिक हुआ, अथवा अनुत्तरविमानवासी सर्वार्थसिद्ध देव हुआ। वहाँ से च्यव ( या मर) कर वह तीन समय की विग्रहगति द्वारा आकर औदारिकशरीरधारी जीव हुआ। वह जीव विग्रहगति में दो समय तक अनाहारक रहा और तीसरे समय में औदारिकशरीर का सर्वबंधक रहा। विग्रहगति में जो वह अनाहारक दो समय तक रहा था, उनमें से एक समय पूर्वकोटि के सर्वबंधक के स्थान में डाल दिया जाए तो वह पूर्वकोटि पूर्ण हो जाती है, उस पर एक समय अधिक बचा हुआ रहता है। यों सर्वबंध का परस्पर उत्कृष्ट अन्तर एक समयाधिक पूर्वकोटि और तेतीस सागरोपम होता है।
औदारिकशरीर के देशबंध का अन्तर— जघन्य एक समय है, क्योंकि देशबंधक मर कर अविग्रह से प्रथम समय में सर्वबंधक होकर पुनः द्वितीयादि समयों में देशबंधक हो जाता है। इस प्रकार देशबंधक का देशबंधक के साथ अन्तर जघन्यतः एक समय का होता है। उत्कृष्टतः अन्तर तीन समय अधिक ३३ सागरोपम का है। क्योंकि देशबंधक मर कर ३३ सागरोपम की स्थिति के नैरयिकों या देवों में उत्पन्न हुआ। वहाँ से च्यवकर तीन समय की विग्रहगति से औदारिकशरीरधारी जीवों में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार विग्रहगति में दो समय तक अनाहारक रहा. तीसरे समय में सर्वबंधक हआ और फिर देशबंधक हो गया। इस प्रकार देशबंधक का उत्कृष्ट अन्तर ३ समय अधिक ३३ सागरोफ्म का घटित होता है।
आगे के तीन सूत्रों में एकेन्द्रियादि का कथन करते हुए औदारिकशरीरबंध का अन्तर विशेषरूप से बताया गया है।
प्रकारान्तर से औदारिकशरीरबंध का अन्तर—कोई एकेन्द्रिय जीव तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न हुआ, तो वह विग्रहगति में दो समय तक अनाहारक रहा और तीसरे समय में सर्वबंधक हुआ। फिर तीन समय कम क्षुल्लकभव-प्रमाण आयुष्य पूर्ण करके एकेन्द्रिय के सिवाय द्वीन्द्रियादि जाति में उत्पन्न हो जाय तो वहाँ भी क्षुल्लकभव की स्थिति पूर्ण करके अविग्रहगति द्वारा पुनः एकेन्द्रिय जाति में उत्पन्न हो तो प्रथम समय में वह सर्वबंधक रहता है। इस प्रकार सर्वबंध का जघन्य अन्तर तीन समय कम दो क्षुल्लकभव होता है । कोई पृथ्वीकायिक जीव अविग्रहगति द्वारा उत्पन्न हो तो प्रथम समय में वह सर्वबंधक होता है। वहाँ २२,००० वर्ष की उत्कृष्ट स्थिति पूर्ण करके मर कर त्रसकायिक जीरों में उत्पन्न हो और वहाँ भी संख्यातवर्षाधिक दो हजार सागरोपम की उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्ण करके पुनः एकेन्द्रिय जीवों में उत्पन्न हो तो वहाँ प्रथम समय में वह सर्वबंधक होता है। इस प्रकार सर्वबंध का उत्कृष्ट अन्तर संख्यातवर्षाधिक दो हजार सागरोपम होता है।
कोई पृथ्वीकायिक जीव मर कर पृथ्वीकायिक जीवों के सिवाय दूसरे जीवों में उत्पन्न हो जाए और वहाँ