Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [५-२ प्र.] भगवन् ! जब शीलव्रतादि-साधनाकाल में श्रावक की जाया 'अजाया' हो जाती है,) तब आप ऐसा क्यों कहते हैं, कि वह लम्पट उसकी जाया को भोगता है, अजाया को नहीं भोगता।
[५-२ उ.] गौतम ! शीलवतादि को अंगीकार करने वाले उस श्रावक के मन में ऐसे परिणाम होते हैं, कि माता मेरी नहीं है, पिता मेरे नहीं है, भाई मेरा नहीं है, बहन मेरी नहीं है, भार्या मेरी नहीं है, पुत्र मेरे नहीं हैं, पुत्री मेरी नहीं है, पुत्रवधु (स्नुषा) मेरी नहीं है; किन्तु इन सबके प्रति उसका प्रेम (प्रेय) बन्धन टूटा नहीं। (अव्यवच्छिन्न) है। इस कारण हे गौतम ! मैं कहता हूँ कि वह पुरुष उस श्रावक की जाया को भोगता है, अजाया को नहीं भोगता।
विवेचन–सामायिकादि साधना में उपविष्ट श्रावक का सामान या स्त्री आदि स्वकीय न रहने पर भी उसके प्रति स्वममत्व—प्रस्तुत तीन सूत्रों में सामायिक आदि में बैठे हुए श्रमणोपासक का सामान अपना न होते हुए भी अपहृत हो जाने पर ममत्ववश स्वकीय मान कर अन्वेषण करने की वृत्ति सूचित की गई
सामायिकादि साधना में परकीय पदार्थ स्वकीय क्यों ? - सामायिक, पौषधोपवास आदि अंगीकार किये हुए श्रावक ने यद्यपि वस्त्रादि सामान का त्याग कर दिया है, यहाँ तक कि सोना, चांदी, अन्य, धन, घर, दुकान, माता-पिता, स्त्री, पुत्र आदि पदार्थों के प्रति भी उसके मन में यही परिणाम होता है कि ये मेरे नहीं तथापि उसका उनके प्रति ममत्व का त्याग नहीं हुआ है, उनके प्रति प्रेमबन्धन रहा हुआ है, इसलिए वे वस्त्रादि तथा स्त्री आदि उसके कहलाते हैं। श्रावक के प्राणातिपात आदि पापों के प्रतिक्रमण-संवर-प्रत्याख्यान-सम्बन्धी विस्तृत भंगों की प्ररूपणा - ६.[१] समणोवासगस्स णं भंते ! पुव्वामेव थूलए पाणातिवाते अपच्चक्खाए भवइ, से णं भंते ! पच्छा पच्चाइक्खमाणे किं करेति ?
गोयमा ! तीतं पडिक्कमति, पडुप्पन्नं संवरेति, अणागतं पच्चक्खाति।
[६-१ प्र.] भगवन् ! जिस श्रमणोपासक ने (पहले) स्थूल प्राणातिपात का प्रत्याख्यान नहीं किया, वह पीछे उसका प्रत्याख्यान करता हुआ क्या करता है ?
[६-१ उ.] गौतम ! अतीत काल में किए हुए प्राणातिपात का प्रतिक्रमण करता है (उक्त पाप की निन्दा, गर्हा, आलोचनादि करके उससे निवृत्त होता है) तथा वर्तमानकालीन प्राणातिपात का संवर (निरोध) करता है। एवं अनागत (भविष्यत्कालीन) प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता (उसे न करने की प्रतिज्ञा लेता है।) __[२] तीतं पडिक्कममाणे किं तिविहं तिविहेणं पडिक्कमति १, तिविहं दुविहेणं पडिक्कमति २, तिविहं एगविहेणं पडिक्कमति ३, दुविहं तिविहेणं पडिक्कमति ४, दुविहं दुविहेणं पडिक्कमति ५, दुविहं एगविहेणं पडिक्कमति ६, एक्कविहं तिविहेणं पडिक्कमति ७, एक्कविहेणं दुविहेणं १. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ३६८