Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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अष्टम शतक : उद्देशक-६
३१७ शास्त्र में १० विशेषण बताए गए हैं (१) अनापात-असंलोक (जहाँ स्वपक्ष-परपक्ष वाले लोगों में से) किसी का भी आवागमन न हो, न ही दृष्टिपात हो),(२)अनुपघातक (जहाँ संयम की, किसी जीव की एवं आत्मा की विराधना न हो),(३)सम (भूमि ऊवड़खाबड़ न होकर समतल हो),(४) अशुषिर (पोली या थोथी भूमि न हो),(५)अचिरकालकृत (जो भूमि थोड़े ही समय पूर्व दाह आदि से अचित्त हुई हो),(६) विस्तीर्ण (जो भूमि कम से कम एक हाथ लम्बी-चौड़ी हो),(७) दूरावगाढ (जहाँ कम से कम चार अंगुल नीचे तक भूमि अचित्त हो), (८) अनासन्न (जहाँ गाँव या बाग-बगीचा-आदि निकट में न हो) (९)बिलवर्जित (जहाँ चूहे आदि के बिल न हों)(१०)स-प्राण-बीजरहित (जहाँ द्वीन्द्रिय त्रसप्राणी तथा गेहूँ आदि के बीज न हों)। इन दस विशेषणों से युक्त स्थण्डिलभूमि में साधु उच्चार-प्रस्रवण (मल-मूत्र) आदि वस्तु परठे।
विशिष्ट शब्दों की व्याख्या—'पिंडवायपडिवाए'-पिण्ड=भोजन का पात-निपतन मेरे पात्र में हो, इसकी प्रतिज्ञा-बुद्धि से। 'उवनिमंतेज' भिक्षो ! ये दो पिण्ड ग्रहण कीजिए, इस प्रकार कहे । नो अन्नेसिं दावए दूसरों को न दे या दिलाये, क्योंकि गृहस्थ ने वह पिण्ड आदि विवक्षित स्थविर को देने के लिए दिया है, अन्य किसी को देने के लिए नहीं। अन्य साधु को देने या स्वयं उसका उपभोग करने से अदत्तादानदोष लगने की सम्भावना है। अकृत्यसेवी, किन्तु आराधनातत्पर निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी की आराधकता की विभिन्न पहलुओं से सयुक्तिक प्ररूपणा .
___७. [१] निग्गंथेणं य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविढेणं अन्नयरे अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं भवति-इहेव ताव अहं एयस्स ठाणस्स आलोएमि पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि विउट्टामि विसोहेमि अकरणयाए अब्भुढेमि, अहारिहं. पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जामि, तओ पच्छा थेराणं अंतियं आलोएस्सामि जाव तवोकम्मं पडिवजिस्सामि। से ये संपट्ठिए, असंपत्ते, थेरा य अमुहा सिया, से णं भंते ! किं आहाराए विराहए ?
गोयमा ! आराहए, नो विराहए। [७-१ प्र.] गृहस्थ के घर आहार ग्रहण करने की बुद्धि से प्रविष्ट निर्ग्रन्थ द्वारा किसी अकृत्य (मूलगुण
१. (क) अणावायमसंलोए, अणावाए चेव होइ संलोए।
आवायमसंलोए, आवाए चेव होइ संलोए॥१॥ अणावायमसंलोए १ परस्सऽणुवघाइए २। समे ३ अझुसिरे ४ यावि अचिरकालकयम्मि ५ य ॥२॥ वित्थिण्णे ३ दूरमोगाढे ७ णासण्णे ८ बिलवजिए ९।
तसपाण-बीयरहिए, १० उच्चाराईणि वोसिरे ॥३॥ (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक ३७५ २. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ३७४-३७५
-उत्तराध्ययन सूत्र, अ. २४