Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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अष्टम शतक : उद्देशक-६
३२७ नैरयिक जीव जब औदारिकशरीरधारी पृथ्वीकायादि जीवों का स्पर्श करता है, तब उसके तीन क्रियाएँ होती हैं; जब उन्हें परिताप उत्पन्न करता है, तब चार और जब उनका प्राणघात करता है, तब पांच क्रियाएं होती हैं। नैरयिक जीव अक्रिय नहीं होता, क्योंकि वह वीतराग नहीं हो सकता। मनुष्य के सिवाय शेष २३ दण्डकों के जीव अक्रिय नहीं होते।
किस शरीर की अपेक्षा कितने आलापक?- औदारिकशरीर की अपेक्षा चार दण्डक (आलापक)(१) एक जीव को, परकीय एक शरीर की अपेक्षा, (२) एक जीव को बहुत जीवों के शरीरों की अपेक्षा, (३) बहुत जीवों को परकीय एक शरीर की अपेक्षा और (४) बहुत जीवों को, बहुत जीवों के शरीर की अपेक्षा । इसी तरह शेष चार शरीरों के भी प्रत्येक के चार-चार दण्डक-आलापक कहने चाहिए। औदारिकशरीर के अतिरिक्त शेष चार शरीरों का विनाश नहीं हो सकता। इसीलिए वैक्रिय, तैजस, कार्मण और आहारक इन चार शरीरो की अपेक्षा जीव कदाचित् तीन क्रिया वाला और कदाचित् चार क्रिया वाला होता है, किन्तु पांच क्रिया वाला नहीं होता है। अतः वैक्रिय आदि चार शरीरों की अपेक्षा प्रत्येक के चौथे दण्डक में 'कदाचित्' शब्द नहीं कहना चाहिए।
नरकस्थित नैरयिक जीव को मनुष्यलोकस्थित आहारकशरीर की अपेक्षा तीन या चार क्रिया वाला बताया गया है, उसका रहस्य यह है कि नैरयिकजीव ने अपने पूर्वभव के शरीर का विवेक (विरति) के अभाव में व्युत्सृजन नहीं किया (त्याग नहीं किया), इसलिए उस जीव द्वारा बनाया हुआ वह (भूतपूर्व) शरीर जब तक शरीरपरिणाम का सर्वथा त्याग नहीं कर देता, तब अंशरूप में भी शरीरपरिणाम को प्राप्त वह शरीर, पूर्वभावप्रज्ञापना की अपेक्षा 'घृतघट' न्याय से (घी नहीं रखने पर उसे भूतपूर्व घट की अपेक्षा घी का घड़ा' कहा जाता है, तद्वत्) उसी का कहलाता है। अत: उस मनुष्यलोकवर्ती (भूतपूर्व) शरीर के अंशरूप अस्थि (हड्डी) आदि से आहारकशरीर का स्पर्श होता है, अथवा उसे परिताप उत्पन्न होता है, इस अपेक्षा से नैरयिक जीव आहारकशरीर की अपेक्षा तीन या चार क्रिया वाला होता है। इसी प्रकार देव आदि तथा द्वीन्द्रिय आदि जीवों के विषय में भी जान लेना चाहिए।
तैजस, कार्मण शरीर की अपेक्षा जीवों को तीन या चार क्रिया वाला बताया है। वह औदारिकादि शरीराश्रित तैजस-कामर्ण शरीर की अपेक्षा समझना चाहिए, क्योंकि केवल तैजस या कार्मण शरीर को परिताप नहीं पहुँचाया जा सकता।
॥अष्टम शतक : छठा उद्देशक समाप्त।