Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र और अनन्तप्रदेशिक पुद्गल-स्कन्धों का विमात्रा (विषममात्रा) में स्निग्धता से, विमात्रा में रूक्षता से तथा विमात्रा में स्निग्धता-रूक्षता से बंधन-प्रत्ययिक बंध समुत्पन्न होता है। वह जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः असंख्येय काल तक रहता है। यह हुआ बंधन-प्रत्ययिक सादि-विस्रसाबंध का स्वरूप।
१०. से किं तं भायणपच्चइए?
भायणपच्चइए, जणं जुण्णसुरा-जुण्णगुल-जुण्णतंदुलाणं भायणपच्चइएणं बंधे समुप्पज्जइ, जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं संखेजं कालं। सेत्तं भायणपच्चइए।
[१० प्र.] भगवन्! भाजनप्रत्ययिक-सादि-विस्रसाबंध किसे कहते हैं ?
[१० उ.] गौतम! पुरानी सुरा (मदिरा), पुराने गुड़, और पुराने चावलों का भाजन-प्रत्ययिक-सादिविस्रसाबंध समुत्पन्न होता है। वह जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टः संख्यात काल तक रहता है। यह है भाजनप्रत्ययिक-सादि-विस्रसाबंध का स्वरूप।
११. से किं तं परिणामपच्चइए?
परिणामपच्चइए, जं णं अब्भाणं अब्भरुक्खाणं जहा ततियसए (स. ३ उ. ७ सु. ४ [५]) जाव अमोहाणं परिणामपच्चइएणं बंधे समुप्पज्जइ, जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं छम्मासा। से त्तं परिणामपच्चइए। सेत्तं सादीयवीससाबंधे से त्तं वीससाबंधे।
[११ प्र.] भगवन् ! परिणामप्रत्ययिक-सादि-विस्रसाबंध किसे कहते हैं ?
[११ उ.] गौतम! (इसी शास्त्र के तृतीय शतक, उद्देशक ७, सू. ४-५) में जो बादलों (अधों) का, अभ्रवृक्षों का यावत् अमोघों आदि के नाम कहे गए हैं, उन सबका परिणामप्रत्ययिक (सादि-विस्रसा) बंध समुत्पन्न होता है। वह बन्ध जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः छह मास तक रहता है। यह हुआ परिणामप्रत्ययिक-सादि-विस्रसाबंध का स्वरूप और यह है विस्रसाबंध का कथन।
विवेचनविस्रसाबंध के भेद-प्रभेद और उनका स्वरूप-प्रस्तुत दस सूत्रों (सू. २ से ११ तक) में विस्रसाबंध के सादि-अनादिरूप दो भेद, तत्पश्चात् अनादिविस्रसाबंध के तीन और सादिविस्रसाबंध के तीन भेदों के प्रकार और स्वरूप का निरूपण किया गया है।
त्रिविध अनादिविस्त्रसाबंध का स्वरूप-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय की अपेक्षा से अनादिविस्रसाबंध तीन प्रकार का कहा गया है। धर्मास्तिकाय के प्रदेशों का उसी के दूसरे प्रदेशों के साथ सांकल और कड़ी की तरह जो परस्पर एक देश से सम्बन्ध होता है, वह धर्मास्तिकाय-अन्योन्यअनादिविस्रसाबंध कहलाता है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के विस्रसाबंध के विषय में समझना चाहिए। धर्मास्तिकाय के प्रदेशों का परस्पर जो सम्बन्ध होता है. वह देशबंध होता है. नीरक्षीरवत सर्वबंध नहीं। यदि सर्वबंध माना जाएगा तो एक प्रदेश में दूसरे समस्त प्रदेशों का समावेश हो जाने से धर्मास्तिकाय एक प्रदेशरूप ही रह जाएगा, असंख्यप्रदेशरूप नहीं रहेगा, जो कि सिद्धान्त से असंगत है। अतः धर्मास्तिकाय आदि तीनों का परस्पर देशबंध ही होता है, सर्वबंध नहीं।