Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र - सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०।
॥अट्ठमसए : छट्ठो उद्देसओ समत्तो॥ [२९ उ.] जिस प्रकार वैक्रियशरीर का कथन किया गया है, उसी प्रकार आहारक, तैजस और कार्मण शरीर का भी कथन करना चाहिए। इन तीनों के प्रत्येक के चार-चार दण्डक कहने चाहिए कि यावत्-(प्रश्न) 'भगवन् ! बहुत-से वैमानिक देव (परकीय) कामर्णशरीरों की अपेक्षा कितनी क्रिया वाले होते हैं ? गौतम ! तीन क्रिया वाले भी और चार क्रिया वाले भी होते हैं। .
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; (यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरण करते हैं।)
विवेचन—एक जीव या बहुत जीवों के परकीय या बहुत-से शरीरों की अपेक्षा होने वाली क्रियाओं का निरूपण—प्रस्तुत १६ सूत्रों (सू. १४ से २९ तक) में औधिक एक या बहुत जीवों तथा नैरयिक से लेकर वैमानिक तक एक या बहुत जीवों को परकीय एक या बहुत-से औदारिकादि शरीरों की अपेक्षा से होने वाली क्रियाओं का निरूपण किया गया है।
अन्य जीव के औदारिकादि शरीर की अपेक्षा होने वाली क्रिया का आशय-कायिकी आदि पांच क्रियाएं हैं, जिनका स्वरूप पहले बताया जा चुका है। जब एक जीव, दूसरे पृथ्वीकायादि जीव के शरीर की अपेक्षा काया का व्यापार करता है, तब उसे तीन क्रियाएँ होती हैं—कायिकी, आधिकरणिकी और प्राद्वेषिकी। क्योंकि सराग जीव को कायिकक्रिया के सद्भाव में आधिकरणिकी तथा प्राद्वेषिकी क्रिया अवश्य होती है, क्योंकि सराग जीव की काया अधिकरण रूप और प्रद्वेषयुक्त होती है। आधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी और कायिकी, इन तीनों क्रियाओं का अविनाभावसम्बंध है। जिस जीव के कायिकीक्रिया होती है, उसे आधिकरणिकी और प्राद्वेषिकी क्रिया अवश्य होती है, जिस जीव के दो क्रियाएँ होती हैं, उसके कायिकीक्रिया भी अवश्य होती है। पारितापनिकी और प्राणातिपातिकी क्रिया में भजना (विकल्प) है; जब जीव, दूसरे जीव को परिताप पहुँचाता है अथवा दूसरे के प्राणों का घात करता है, तभी क्रमश: पारितापनिकी अथवा प्राणातिपातिकी क्रिया होती है। अत: जब जीव, दूसरे जीव को परिताप उत्पन्न करता है, तब जीव को चार क्रियाएँ होती हैं, क्योंकि पारितापनिकी क्रिया में पहले की तीन क्रियाओं का सद्भाव अवश्य रहता है। जब जीव, दूसरे जीव के प्राणों का घात करता है, तब उसे पांच क्रियाएँ होती हैं; क्योंकि प्राणातिपातिकीक्रिया में पूर्व की चार क्रियाओं का सद्भाव अवश्य होता है। इसीलिए मूलपाठ में जीव को कदाचित् तीन कदाचित् चार और कदाचित् पांच क्रिया वाला कहा गया है। जीव कदाचित् अक्रिय भी होता है, यह बात वीतराग-अवस्था की अपेक्षा से कही गई है, क्योंकि उस अवस्था में पाँचों में से एक भी क्रिया नहीं होती है। १. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ३७७ (ख) “जस्सणं जीवस्स काइया किरिया कजइ, तस्स अहिगरणिया किरिया नियमा कजइ, जस्स अहिगरणिया
किरिया कज्जइ, तस्स वि काइया किरिया नियमा कज्जइ।" "जस्सणं जीवस्स काइया किरिया कजड, तस्स पारियावणिया किरिया सिय कज्जड, सिय नोकजा" इत्यादि। - प्रज्ञापनासूत्र क्रियापद