Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
३३४
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र हुआ) अव्यतिक्रान्त (उल्लंघन नहीं किया) नहीं कहलाता । इसी प्रकार राजगृह नगर को प्राप्त करने की इच्छा वाला व्यक्ति असंप्राप्त नहीं कहलाता। हमारे मत में तो, आर्यो ! गच्छन्"मत'; 'व्यतिक्रम्यमाण"व्यतिक्रान्त'
और राजगृह नगर को प्राप्त करने की इच्छा वाला व्यक्ति सम्प्राप्त कहलाता है। हे आर्यो ! तुम्हारे ही मत में 'गच्छन्' 'अगत', 'व्यतिक्रम्यमाण' 'अव्यतिक्रान्त' और राजगृह नगर को प्राप्त करने की इच्छा वाला असम्प्राप्त कहलाता है।
२४. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिय एवं पडिहणेति, पडिहिणत्ता गइप्पवायं नाममज्झयणं पनवइंसु।
.[२४] तदनन्तर उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीर्थिकों को प्रतिहत (निरुत्तर) किया और निरुत्तर करके उन्होंने गतिप्रपात नामक अध्ययन प्ररूपित किया।
विवेचन स्थविरों पर अन्यतीर्थिकों द्वारा पुनः आक्षेप और स्थविरों द्वारा प्रतिवाद-प्रस्तुत ९ सूत्रों (सू. १६ से २४) में अन्यतीर्थिकों द्वारा पुनः प्रत्याक्षेप से प्रारम्भ होकर यह चर्चा स्थविरों द्वारा भ्रान्तिनिवारणपूर्वक प्रतिवाद में समाप्त होती है।
अन्यतीर्थिकों की भ्रान्ति—पूर्व चर्चा में निरुत्तर अन्यतीर्थिकों ने पुनः भ्रान्तिवश स्थविरों पर आक्षेप किया की आप लोग असंयत यावत् एकान्तबाल हैं, क्योंकि आप गमनागमन करते समय पृथ्वीकायिक जीवों की विविधरूप से हिंसा करते हैं, किन्तु सुलझे हुए विचारों के निर्ग्रन्थ स्थविरों ने धैर्यपूर्वक उनकी इस भ्रान्ति का निराकरण किया कि हम लोग काय, योग और ऋत के लिए बहुत ही यतनापूर्वक गमनागमन करते हैं, किसी भी जीव की किसी भी रूप में हिंसा नहीं करते।
इस पर पुनः अन्यतीर्थिकों ने आक्षेप किया कि आपके मत में गच्छन् अगत, व्यतिक्रम्यमाण अव्यतिक्रान्त और राजगृह को सम्प्राप्त करना चाहने वाला असम्प्राप्त कहलाता है। इसका प्रतिवाद स्थविरों ने किया और आक्षेपक अन्यतीर्थिकों को ही उनकी भ्रान्ति समझा कर निरुत्तर कर दिया।
'देश' और 'प्रदेश' का अर्थ-भूमि का बृहत खण्ड देश है और लघुतर खण्ड प्रदेश है। गतिप्रवाद और उसके पांच भेदों का निरूपण
२५. कइविहे णं भंते ! गइप्पवाए पण्णत्ते ?
गोयमा ! पंचविहे गइप्पवाए पण्णत्ते,तं जहा–पयोगगती ततगती बंधणछेयणगती उववायगती विहायगती। एत्तो आरब्भ पयोगपयं निरवसेसं भाणियव्वं, जाव से त्तं विहायगई। सेवं भंते ! सेवं भंते !त्ति।
॥अट्ठमसए : सत्तमो उद्देसओ समत्तो॥
१. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ३८१