Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
अष्टम शतक : उद्देशक - १
२२३
लिए शास्त्रकार ने नौ दण्डकों द्वारा निरूपण किया है । (१) प्रथम दण्डक में सूक्ष्म एकेन्द्रिय से लेकर सर्वार्थसिद्ध देवों तक जीवों की विशेषता से प्रयोगपरिणत पुद्गलों के भेद-प्रभेदों का कथन है । (२) द्वितीय दण्डक में उन्हीं जीवों में से एकेन्द्रिय जीवों के प्रत्येक के सूक्ष्म और बादर ये दो-दो भेद करके फिर इन सूक्ष्म और बादर के तथा आगे के सब जीवों (यानी सूक्ष्मपृथ्वीकायिक से लेकर सर्वार्थसिद्धदेवों तक) के पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो-दो भेद (अपर्याप्तक भेद वाले सम्मर्च्छिम मनुष्य को छोड़कर) प्रयोग - परिणतपुद्गलों के किए गए हैं। ( ३ ) तृतीय दण्डक में पूर्वोक्त विशेषणयुक्त पृथ्वीकायिक से लेकर सर्वार्थसिद्धपर्यन्त सभी जीवों के औदारिक आदि पांच में से यथायोग्य शरीरों की अपेक्षा से प्रयोगपरिणतपुद्गलों का कथन किया गया है । (४) चतुर्थ दण्डक में पूर्वोक्त शरीरादि विशेषणयुक्त एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय सर्वार्थसिद्ध जीवों तक के यथायोग्य इन्द्रियों की अपेक्षा से प्रयोगपरिणतपुद्गलों का कथन है। (६) छठे दण्डक में वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से पूर्वोक्त समस्त विशेषणयुक्त सर्व जीवों के प्रयोग - परिणतपुद्गलों का कथन है। ( ७ ) सप्तम दण्डक में औदारिक आदि शरीर और वर्णादि की अपेक्षा से पुद्गलों का कथन है । (८) अष्टम दण्डक में इन्द्रिय और वर्णादि की अपेक्षा से पुद्गलों का कथन है और (९) नवम दण्डक में शरीर, इन्द्रिय और वर्णादि की अपेक्षा से जीवों के प्रयोग- परिणतपुद्गलों का कथन किया गया है।
द्वीन्द्रियादि जीवों की अनेकविधता — मूलपाठ में कहा गया है कि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव अनके प्रकार के हैं; जैसे कि द्वीन्द्रिय में लट, गिंडोला, अलसिया, शंख, सीप, कौडी, कृमि आदि अनेक प्रकार के जीव हैं; त्रीन्द्रिय में जू, लीख, चींचड़, माकण (खटमल), चींटी, मकोड़ा आदि अनेक प्रकार के जीव हैं और चतुरिन्द्रिय में मक्खी, मच्छर, भौंरा, भृंगारी आदि अनेकविध जीव हैं; उनको बताने हेतु ही यहाँ अनेकविधता का कथन किया गया है।
पंचेन्द्रियों जीवों के भेद-प्रभेद — मुख्यतया इनके चार भेद हैं— नैरयिक, तिर्यंञ्च, मनुष्य और देव । विवक्षा से इनके अनेक अवान्तर भेद हैं ।
कठिन शब्दों के विशेष अर्थ — सम्मुच्छिम सम्मूर्च्छिम- माता-पिता के संयोग के बिना उत्पन्न होने वाले तिर्यंच और मनुष्य । गब्भवक्कंतिया - गर्भव्युत्क्रान्तिक- गर्भ से उत्पन्न होने वाले । परिसप्पापरिसर्प-रेंग कर चलने वाले जीव । उरपरिसप्प — उरः परिसर्प- पेट से रेंग कर चलने वाले जीव । भुयपरिसप्प — भुजपरिसर्प - भुजा के सहारे रेंगकर चलने वाले । थलचर — स्थलचर भूमि पर चलने वाले जीव । खहयराखेचर-(आकाश में) उड़ने वाले पक्षी । अभिलावेणं - अभिलाप- पाठ से । गेवेज्जग— ग्रैवेयक देव । कप्पोवगा—कल्पोपपन्नक देव = जहाँ इन्द्रादि अधिकारी और उनके अधीनस्थ छोटे-बड़े आदि का व्यवहार है । कप्पातीत—कल्पातीत-जहाँ अधिकारी- अधीनस्थ जैसा कोई भेद नहीं है, सभी स्वतन्त्र एवं अहमिन्द्र हैं। अणुत्तरोववाइय— अनुत्तरोपपातिक - सर्वोत्तम देवलोक में उत्पन्न हुए देव । ओरालिय— औदारिक शरीर । तेया— तैजस शरीर । वेडव्विय—वैक्रिय शरीर । कम्मग— कार्मण शरीर । वट्ट वृत्त - गोल । तंस—यस्त्र१. भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक ३३१-३३२