Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र _ [९ उ.] गौतम ! जो भवसिद्धिक (भव्य) होता है, वह नैरयिक भी होता है और अनैरयिक भी होता है तथा जो नैरयिक होता है, वह भवसिद्धिक भी होता है और अभवसिद्धिक भी होता है।
१०. एवं दंडओ जाव वेमाणियाणं। [१०] इसी प्रकार यावत् वैमानिकपर्यन्त सभी दण्डक (आलापाक) कहने चाहिए।
विवेचन—जीव का निश्चित स्वरूप और उसके सम्बंध में अनेकान्तशैली में प्रश्नोत्तर–प्रस्तुत नौ सूत्रों (सू. २ से १०) में जीव के सम्बंध में निम्नोक्त अंकित किये गए हैं -
१. जीव नियमत: चैतन्यरूप है और चैतन्य भी नियमत: जीव-स्वरूप है। २. नैरयिक नियमत: जीव है, किन्तु जीव कदाचित् नैरयिक और कदाचित् अनैरयिक भी हो सकता है।
३. असुरकुमार से लेकर वैमानिक देव तक नियमतः जीव हैं, किन्तु जीव कदाचित् असुरकुमारादि होता है, कदाचित् नहीं भी होता।
४. जो जीता (प्राण धारण करता) है, वह निश्चय ही जीव है, किन्तु जो जीव होता है, वह (द्रव्य-) प्राण धारण करता है और नहीं भी करता।
५. नैरयिक नियमत: जीता है, किन्तु जो जीता है, वह नैरयिक भी हो सकता है, अनैरयिक भी, यावत् वैमानिक तक यही सिद्धान्त है।
६. जो भवसिद्धिक होता है, वह नैरयिक भी होता है, अनैरयिक भी तथा जो नैरयिक होता है, वह भवसिद्धिक होता है, अभवसिद्धिक भी। ।
दो बार जीव शब्दप्रयोग का तात्पर्य-दूसरे प्रश्न में दो बार जीवशब्द का प्रयोग किया गया है, उसमें से एक जीव शब्द का अर्थ 'जीव' (चेतन-धर्मीद्रव्य) है, जबकि दूसरे जीवशब्द का अर्थ चैतन्य (धर्म) है। जीव और चैतन्य में अविनाभावसम्बंध बताने हेतु यह समाधान दिया गया है। अर्थात जो जीव है. वह चैतन्यरूप है और जो चैतन्यरूप है, वह जीव है।
'जीव' कदाचित् जीता है, कदाचित् नहीं जीता; इसका तात्पर्य—अजीव के तो आयुष्यकर्म न होने से वह प्राणों को धारण नहीं करता, किन्तु जीवों में भी जो संसारी जीव हैं, वे ही प्राणों को धारण करते हैं, किन्तु जो सिद्ध जीव हैं, वे जीव होते हुए भी द्रव्यप्राणों को धारण नहीं करते। इस अपेक्षा से कहा गया हैजो जीव होता है, वह जीता (प्राण धारण करता) भी है, नहीं भी जीता। एकान्तदःखवेदनरूप अन्यतीर्थिकमतनिराकरणपूर्वक अनेकान्तशैली से सुखदुःखादिवेदनप्ररूपणा
११.[१] अन्नउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति जाव परूवेंति-"एवं खलु सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता एगंतदुक्खं वेदणं वेदेति से कहमेतं भंते ! एवं?"
गोतमा ! जंणं अन्नउत्थिया जाव मिच्छं ते एवमाहंसु। अहं पुण गोतमा ! एवमाइक्खामि जाव १. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं [ मूलपाठ टिप्पणयुक्त] भाग १, पृ. २७०-२७१
(ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक २८६
जीत है।