Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
हंता, पभू। से भंते ! किं इहगए पोग्गले परियादिइत्ता जाव (सू. ३) नो अन्नत्थगए पोग्गले परियादिइत्ता विकुव्वइ।
[४ प्र.] इस प्रकार एकवर्ण एकरूप, एकवर्ण अनेकरूप, अनेकवर्ण एकरूप और अनेकवर्ण अनेकरूप, यों चौभंगी का कथन जिस प्रकार छठे शतक के नौवें उद्देशक (सू. ५) में किया गया है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए। किन्तु इतना विशेष है कि यहाँ रहा हुआ मुनि यहाँ रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है। शेष सारा वर्णन उसी के अनुसार यहाँ भी कहना चाहिए, यावत् ‘[प्र.] भगवन् ! क्या रूक्ष पुद्गलों को स्निग्ध पुद्गलों के रूप में परिणत करने में समर्थ है ?' '[उ.] हाँ, गौतम ! समर्थ है। [प्र.] भगवन् ! क्या वह यहाँ रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके यावत् (सू. ३) अन्यत्र रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण किए बिना विकुर्वणा करता है ?' यहाँ तक कहना चाहिए।
विवेचन—असंवृत अनगार के विकुर्वण-सामर्थ्य का निरूपण—प्रस्तुत सूत्रचतुष्टय में असंवृत अनगार के विकुर्वण-सामर्थ्य का छठे शतक के नौवें उद्देशक के अतिदेशपूर्वक निरूपण किया गया है।
निष्कर्ष वैक्रियलब्धिमान् असंवृत अनगार यहाँ रहे हुए बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके ही एकवर्णएकरूप, एकवर्ण-अनेकरूप, अनेकवर्ण-एकरूप या अनेकवर्ण-अनेकरूप की विकुर्वणा करने में समर्थ है, अन्यथा नहीं। इसी प्रकार वह यहाँ रहा हुआ यहाँ रहे हुए बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके विक्रिया करता है, यहाँ तक कि वर्ण की तरह गन्ध, रस, स्पर्श आदि के विविध विकल्प भी उसके विकुर्वणा-सामर्थ्य की सीमा में हैं, जिनका कथन छठे शतक के नौवें उद्देशक की तरह यहाँ भी कर लेना चाहिए। निष्कर्ष यह है कि वर्ण के १०, गंध का १, रस के १० और स्पर्श के चार, यों २५ भंग एवं पहले के चार भंग मिला कर कुल २९ भंग होते हैं।
'इहगत''तत्थगए' एवं 'अन्नत्थगए' का तात्पर्य--प्रश्नकर्ता गौतम स्वामी हैं, अत: उनकी अपेक्षा 'इहगए' का अर्थ मनुष्यलोक में रहा हुआ' ही करना संगत है। तत्थगए' का अर्थ है—वैक्रिय करके वह अनगार जहाँ जाएगा, वह स्थान और 'अन्नत्थगए' का अर्थ है-उपर्युक्त दोनों स्थानों से भिन्न स्थान । तात्पर्य यह है कि जिस स्थान पर रह कर अनगार विक्रिया करता है, वहाँ के पुद्गल 'इहगत' कहलाते हैं। विक्रिया कर जिस स्थान पर जाता है, वहाँ के पुद्गल 'तत्रगत' कहलाते हैं और इन दोनों स्थानों से भिन्न स्थान के पुद्गल ‘अन्यत्रगत' हैं । देव तो तत्रगत' अर्थात्-देवलोकगत पुद्गलों को ग्रहण करके विक्रिया कर सकता है, लेकिन अनगार तो मध्यलोकगत होने के कारण ‘इहगत' अर्थात्—मनुष्यलोकगत पुद्गल को ही ग्रहण करके विक्रिया कर सकता है।
१. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. १, पृ. ३०३
___ (ख) भगवतीसूत्र के थोकड़े, द्वितीय भाग, थोकड़ा नं. ६७, पृ. १२५ २. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ३१५