Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-दुःखी को दुःख स्पृष्टता आदि सिद्धान्तों की प्ररूपणा–प्रस्तुत सूत्रद्वय में दुःखी जीव ही दुःख का स्पर्श, ग्रहण, उदीरण, वेदन और निर्जरण करता है, अदु:खी नहीं, इस सिद्धान्त की मीमांसा की गई है।
दुःखी और अदुःखी की मीमांसा—यहाँ दुःख के कारणभूत कर्म को दुःख कहा गया है। इस दृष्टि से कर्मवान जीव को दु:खी और अकर्मवान् (सिद्ध भगवान्) को अदु:खी कहा गया है। अतः जो दुःखी (कर्मयुक्त) है, वही दुःख (कर्म) से स्पृष्ट-बद्ध होता है, वही दु:ख (कर्म) को ग्रहण (निधत्त) करता है, दुःख (कर्म) की उदीरणा करता है, वेदन भी करता है और वह (कर्मवान्) स्वयं ही स्व-दुःख (कर्म) की निर्जरा करता है। अत: अकर्मवान् (अदु:खी-सिद्ध) में ये ५ बातें नहीं होती। उपयोगरहित गमनादि प्रवृत्ति करने वाले अनगार को साम्परायिकी क्रिया लगने का सयुक्तिक निरूपण
१६.[१] अणगारस्स णं भंते ! अणाउत्तं गच्छमाणस्स वा, चिट्ठमाणस्स वा, निसीयमाणस्स वा, तुयट्टमाणस्स वा; अणाउत्तं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पादपुंछणं गेण्हमाणस्स वा, निक्खिवमाणस्स वा, तस्स णं भंते ! किं इरियावहिया किरिया कजति ? संपराइया किरिया कज्जति ? .
गोयमा ! नो इरियावहिया किरिया कजति, संपराइया किरिया कजति।
[१६-१ प्र.] भगवन् ! उपयोगरहित (अनायुक्त) गमन करते हुए, खड़े होते (ठहरते) हुए, बैठते हुए या सोते (करवट बदलते) हुए और इसी प्रकार बिना उपयोग के वस्त्र, पात्र, कम्बल और पादपोंछन (प्रमार्जनिका या रजोहरण) ग्रहण करते (उठाते) हुए या रखते हुए अनगार को ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है अथवा साम्परायिकी क्रिया लगती है ?
[१६-१ उ.] गौतम ! ऐसे (पूर्वोक्त) अनगार को ऐर्यापथिक क्रिया नहीं लगती, साम्परायिक क्रिया लगती है।
[२] से केणट्टेणं०?
गोयमा ! जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा वोच्छिन्ना भवंति तस्स णं इरियावहिया किरिया कजति, नो संपराइया किरिया कजति। जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा अवोच्छिन्ना भवंति तस्स णं संपराइया किरिया कजति, नो इरियावहिया। अहासुत्तं रियं रीयमाणस्स इरियावाहिया किरिया कजति। उस्सुत्तं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कजति, से णं उस्सुत्तमेव रियति। से तेणढेणं०।
[१६-२ प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है ?
[१६-२ उ.] गौतम ! जिस जीव के क्रोध, मान, माया और लोभ व्युच्छिन (अनुदित–उदयावस्थारहित) १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक २९१