Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र लवणादि असंख्यात-द्वीप-समुद्रों का स्वरूप और प्रमाण
३५. लवणे णं भंते ! समुद्दे किं उस्सिओदए, पत्थडोदए, खुभियजले, अखुभियजले ?
गोयमा ! लवणे णं समुद्दे उस्सिओदए, नो पत्थडोदए; खुभियजले, नो अखुभियजले। एत्तो आढतं जहा जीवाजीवाभिगमे जाव' से तेण० गोयमा ! बाहिरया णं दीव-समुद्दापुण्णा पुण्णप्पमाणा वोलट्टमाणा वोसट्टमाणा समभरघडत्ताए चिटुंति, संठाणतो एगविहिविहाणा, वित्थरओ अणेगविहिविहाणा, दुगुणा दुगुणप्पमाणतो जाव अस्सिं तिरियलोए असंखेजा दीव-समुद्दा सयंभूरमणपजवसाणा पण्णत्ता समणाउसो ! ।
[३५ प्र.] भगवन् ! क्या लवणसमुद्र, उच्छितोदक (उछलते हुए जल वाला) है, प्रस्तृतोदक (सम जल वाला) है, क्षुब्ध जल वाला है अथवा अक्षुब्ध जल वाला है ?
[३५ उ.] गौतम ! लवणसमुद्र उच्छितोदक है, किन्तु प्रस्तृतोदक नहीं है; वह क्षुबध जल वाला है, किन्तु अक्षुब्ध जल वाला नहीं है । यहाँ से प्रारम्भ करके जिस प्रकार जीवाभिगम सूत्र में कहा है, इसी प्रकार से जान लेना चाहिए; यावत् इस कारण, हे गौतम ! बाहर के (द्वीप-) समुद्र पूर्ण, पूर्णप्रमाण वाले, छलाछल भरे हुए, छलकते हुए और समभर घट के रूप में, (अर्थात्—परिपूर्ण भरे हुए घड़े के समान), तथा संस्थान से एक ही तरह के स्वरूप वाले, किन्तु विस्तार की अपेक्षा अनेक प्रकार के स्वरूप वाले, द्विगुण-द्विगुण विस्तार वाले है; (अर्थात्—अपने पूर्ववर्ती द्वीप से दुगुने प्रमाण वाले हैं) यावत् इस तिर्यक्लोक में असंख्येय द्वीप-समुद्र हैं। सबसे अन्त में 'स्वयम्भूरमण-समुद्र' है। हे श्रमणायुष्मन् ! इस प्रकार द्वीप और समुद्र कहे गए हैं।
विवेचन-लवणादि असंख्यात द्वीप-समुद्रों का स्वरूप और प्रमाण–प्रस्तुत सूत्र में लवणसमुद्र से लेकर असंख्य द्वीपों एवं समुद्रों के स्वरूप एवं प्रमाण का निरूपण किया गया है।
लवणसमुद्र का स्वरूप-लवणसमुद्र की जलवृद्धि ऊर्ध्वदिशा में १६००० योजन से कुछ अधिक होती है। इसलिए यह उछलते हुए जल वाला है; समजल वाला (प्रस्तृतोदक) नहीं तथा उसमें महापातालकलशों में रही हुई वायु के क्षोभ से वेला (ज्वार) आती है, इस कारण लवणसमुद्र का पानी क्षुब्ध होता है, अतएव वह अक्षुब्धजल वाला नहीं है।
अढाई द्वीप और दो समुद्रों से बाहर के समुद्र-बाहर के समुद्रों के वर्णन के लिए मूलपाठ में जीवाजीवाभिगमसूत्र का निर्देश किया है। संक्षेप में, वे समुद्र क्षुब्धजल वाले नहीं, अक्षुब्धजल वाले हैं, तथा वे उछलते हुए जल वाले नहीं, अपितु समजल वाले हैं, पूर्ण पूर्णप्रमाण, यावत् पूर्ण भरे हुए घड़े के समान हैं। लवणसमुद्र में महामेघ संस्वेदित, सम्मूर्छित होते हैं, वर्षा बरसाते हैं, किन्तु बाहर के समुद्रों में ऐसा नहीं होता। बाहरी समुदों में बहुत-से उदकयोनि के जीव और पुद्गल उदकरूप में अपक्रमते हैं, व्युत्क्रमते हैं, च्यवते हैं
१. 'जाव' पद से यह पाठ जानना चाहिए-"पवित्थरमाणा २ बहुउप्पलपउमकुमुयनलिणसुभगसोगंधियपुंडरीयमहापुंडरी
यसतपत्तसहस्सपत्तकेसरफुल्लोवइया उब्भासमाणवीइया।" २. भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक २८२