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आत्मार्थिना ततस्त्याज्यो दम्भोऽनर्थनिबन्धनम् । शुद्धिः स्यादृजुभूतस्येत्यागमे प्रतिपादितम् ॥१९॥
भावार्थ : अतः दम्भ को अनर्थ का कारण जानकर आत्मार्थी साधक को उसका त्याग करना चाहिए; क्योंकि आगम में बताया गया है कि 'सरलता से ही आत्मा की शुद्धि होती है। सरलात्मा में ही धर्म टिकता है और वही कल्याण का मार्ग है ॥१९॥ जिनैर्नानुमतं किञ्चिनिषिद्धं वा न सर्वथा । कार्ये भाव्यमदम्भेनेत्येषाऽऽज्ञा पारमेश्वरी ॥२०॥
भावार्थ : श्रीतीर्थंकर परमात्मा ने किसी भी कार्य के विषय में एकान्त विधान या निषेध नहीं किया है, किन्तु जिनेश्वरों की ऐसी आज्ञा है कि 'कोई भी कार्य हो, उसे दम्भरहित होकर सरलतापूर्वक करो ।' इसलिए सर्वप्रथम दम्भत्याग करना अनिवार्य है ॥२०॥ अध्यात्मरतचित्तानां दम्भः स्वल्पोऽपि नोचितः । छिद्रलेशोऽपि पोतस्य सिन्धुं लंघयतामिव ॥२१॥
भावार्थ : जिनका चित्त अध्यात्मभाव में रत है, उनके लिए जरा-सा दम्भ करना उचित नहीं है, क्योंकि समुद्र पार करने वालों के लिए नौका में जरा-सा भी छेद अनर्थकारी होता है ॥२१॥
अधिकार तीसरा
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