Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रतिष्ठासारोद्धार
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
NARRATARRATRAMSAROVAROADCATEGAOBER
पण्डितप्रवर श्रीआशाधर विरचित
प्रतिष्ठासारोद्धार
संक्षिप्त हिंदी भाषाटीकासहित ।
जिसको पालमनिवासी/ पं० मनोहरलाल शास्त्रीने तयारकर अपने श्रीजैनग्रंथ-उद्धारक कार्यालय द्वारा प्रकाशित किया।
(न्योछावर गत्ते
वि० संवत् १९७४. सहित १० STA १००० प्रति ।।
(कपड़ेकी जिल्द २०E
प्रथमवार
100000000000000001%GHP
UR
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
A
aserului
Printed by Chintaman Sakharam Deole, at the Bombay Vaibhav Press, Servants of India Society's Building, Sandhurst Road, Girgaon, Bombay.
AND Published by Pandit Manoharlal Shastri, Malik, Jain Grantha Uddharak
Karyalay, Khattar Lane, Houdwadi, Bombay, No. 4.
AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
| ॐ नमः परमष्ठिभ्यः ।
प्रस्तावना।
उन्न्कल
| प्रिय पाठकगण ! अब मैं श्री जिनेंद्रदेवको कृपासे उस अपूर्व ग्रंथ प्रतिष्ठासारोद्धारको भाषाटीकासहित वनाके आपके सामने उपस्थित करता हूं कि जिसकेलिये आप सब साधर्मीगण उत्कंठित होरहे थे । गृहस्थ श्रावकोंका देवपूजा करना नित्य कोंमेंसे पहला कर्तव्य कहा है, उसकेलिये जिनदेवकी प्रतिमा तथा मंदिरकी स्थापना होना बहुत आवश्यक है। उसी स्थापनाकी पंचकल्याणक आदि विधियां इस महान ग्रंथमें स्पष्ट रीतिसे वर्णनकी गई हैं। इसका फल ग्रंथकारने स्वयं दिखलाया है कि पहले महाराज भरतचक्रवर्ती आदि महान पुरुष भी इसी जिन प्रतिष्ठाके करनेसे निराकुल मोक्षसुखको प्राप्त हुए हैं। परंतु कालकी कुटिलगतिसे आजकल बहुत कुछ विपरीतपना फैल गया है। पहले तो प्रतिष्ठाकरानेवाले धनिक यजमानोंको यही खबर नहीं कि प्रतिष्ठाकरानेका क्या फल है तथा हमको
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रसा० Moप्रतिष्ठाचार्यके साथ कैसा बर्ताव करना चाहिये। दूसरी वात यह है कि प्रतिष्ठाचार्यको भी अत्यंत लोभके वशीभूत प्रस्ता०
होकर इसबातका ध्यान नहीं रहता कि मैं यजमानके साथ अयोग्य वर्ताव तो नहीं करता । वस यजमान और प्रति॥ ३ ॥
छाचार्य इन दोनोंके अयोग्य वर्ताव होनेसे प्रतिष्ठाके समय अनेक विघ्न आकर उपस्थित होजाते हैं तब प्रतिष्ठाका फल निष्फल होजाता है। यही विचारकर मेरा मन संक्षिप्त भाषाटीका सहित इस प्रतिष्ठापाठको प्रकाशित करनेका हुआ है। जिससे सब साधारण भव्यजीवोंको यह वात मालूम होजावे कि प्रतिष्ठा करानेमें किन २ चीजोंकी आवश्यकता है|
और यजमान तथा प्रतिष्ठाचार्यको कैसा बर्ताव रखना चाहिये । | यह महान् ग्रंथ पंडितप्रवर श्री आशाधर गृहस्थाचार्यका बनाया हुआ है। इन्होंने श्री वसुनंदि आचार्यकृत प्रतिष्ठासार संग्रहके विषयका उद्धार करनेके लिये विस्तारसहित पूर्वोक्त प्रतिष्ठासारोद्धार नामका ग्रंथ रचकर
भव्यजीवोंका उपकार किया है। इन्हीं विद्वद्वरने धर्मामृत आदि अनेक अपूर्व ग्रंथोंकी रचना की है, उसका उल्लेख प्रश४ास्तिमें किया गया है। और जीवनचरित्र भी संक्षेपमें प्रशस्तिमें है तथा सागार धर्ममृतमें मुद्रित हो चुका है इसलिये
यहां लिखनेकी विशेष आवश्यकता नहीं है। इस ग्रंथकी भाषाटीका अबतक देखनमें नहीं आई और न मैंने अबतक कोई प्रतिष्ठा करानेका काम ही किया। उसमें भी प्रतिष्ठाकी क्रिया करानेवालोंको लोभकषायके वश चित्तमलिनता होनेके कारण विधि वतलानेमें सहायता देना असंभव समझ उनके पास भी जाना व्यर्थ समझा । इसलिये मूल संस्कृतपरसे ही|| बुद्धिके अनुसार भाषाटीका संक्षेपसे लिखी गई है। __ इस ग्रंथकी एक हस्तलिखित प्रति तो पूर्ण मिली तथा दूसरी अधूरी मिली। ये दोनों प्रतियां लेखकोंकी कृपासे || प्रायः अशुद्ध मिली, इसलिये अर्थकरनेमें वहुत कठिनाई हुई । अस्तु । 'न कुछसे कुछ होना अच्छा' इस कहावतको|
O ॥ ३॥ लेकर यह उद्यम किया गया है।
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
Hone
इस ग्रंथके साथ प्रतिष्ठासारसंग्रहका भी कुछ भाग लगादिया है । तथा समयके अनुकूल विषयसूची, मंत्रसाधनके समय आवश्यक चीजोंका नकशा, और मंत्रव्याकरणके कुछ नियमोंको बतलानेवाले श्लोक भी लगादिये गये हैं कि जिससे कर्णपिशाचिनी आदि विद्याके साधने में सफलता हो । मंत्र सिद्ध करनेकी विस्तारसे विधि मंत्रसंग्रह में बहुत अच्छी तरहसे बतलाई जावेगी ।
इस ग्रंथके उद्धार में श्रीमान् सेठ भैरूंदानजी लाडनूं निवासीने जो पचास रुपये भेजकर सहायता की है, इस अपूर्व उपकारके हम बहुत आभारी होके कोटिशः धन्यवाद देते हैं और आशा करते हैं कि इस तरह की आर्थिक सहायता देकर अन्य सज्जन भी जिनवाणीका प्रचारकर पुण्य उपार्जन करेंगे। अंत मैं यह प्रार्थना है यदि हमारे पाठकोंको इस ग्रंथसे संतोष हुआ और सहायता मिली तो अष्टांग - निमित्तसंग्रह तथा मंत्रसंग्रह आदि अपूर्व ग्रंथ भाषा| टीका सहित प्रकाशित करके उपस्थित करूंगा । शुद्ध प्रति न मिलनेसे कहीं अशुद्धियां रह गई हों तो पाठक महाशय मुझपर क्षमा करें। जब शुद्ध प्रति मिलजावेगी तब शुद्धिपाठ छपाकर भेजदिया जावेगा। इसतरह प्रार्थना करता हुआ इस प्रस्तावनाको समाप्त करता हूं । अलं विज्ञेषु ।
खत्तरगली हौदावाडी
पो. गिरगांव - बंबई
जेठ वदि १३ वीर सं० २४४३
जैनसमाजका सेवक मनोहरलाल पाम (मैंनपुरी) निवासी
000000000000000000
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
म०नि
भन्सा०
॥२॥
GE
लब्न्न्
मंत्रसाधनके समय आवश्यक नियम । शांतिकर्म १ । पौष्टिककर्म २ | वश्यकर्म ३ आकर्षणकर्भ ४ वरुणदिशा
नैऋत्यदिशा कुबेरदिशा यमदिक अर्धरात्रि प्रभातकाल पूवोहकाल
पूर्वाह्नकाल ज्ञानमुद्रा ज्ञानमुद्रा सरोजमुद्रा
अंकुशमुद्रा पंकजासन स्वस्तिकासन पंकजासन
दंडासन (नमः) स्वाहा पल्लव स्वधा पल्लव
वषट् पल्लव
वौषट् पल्लव श्वेतवस्त्र श्वेतवस्त्र रक्त वस्त्र
उदयार्कवस्त्र श्वेतपुष्प श्वेतपुष्प अरुण पुष्प
अरुणपुष्प श्वेतवर्ण श्वेतवर्ण रक्तवर्ण
उदयार्कवर्ण पूरकयोग पूरकयोग
पूरकयोग दीपनआदि नाम
पूरकयोग दीपनआदि संपुट आदि
ग्रंथनवरुण स्फटिकमणि माला मुक्ताफल माला प्रवालमणि
प्रवालमाण मध्यमांगुलि मध्यमांगुलि अनामिका
कनिष्ठिका दक्षिणहस्त दक्षिणहस्त वामहस्त
वामहस्त वामवायु वामवायु वामवायु
वामवायु जलमंडल जलमंडल अग्निमंडल
अग्निमंडल
॥२॥
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्तंभनकर्म ५ | मारणकर्म ६ | विद्वेषणकर्म ७ | उच्चाटनकर्म ८ हपूर्वाभिमुख ईशान दिशा अग्निदिक वायव्यदिशा पूर्वाह्नकाल संध्याकाल
मध्याह्नकाल
अपराह्नकाल शंखमुद्रा वज्रमुद्रा प्रवालमुद्रा
प्रवालमुद्रा वज्रासन भद्रासन
कुर्कुटासन कुर्कुटासन उठ पल्लव घेघे पल्लव हूं पल्लव
फट् पल्लव शापीतवस्त्र कृष्णवस्त्र धूम्रवस्त्र
धूम्रवस्त्र पीतपुष्प कृष्णपुष्प धूम्रपुष्प
धूम्रपुष्प पीतवर्ण कृष्णवर्ण धूम्रवर्ण
धूम्रवर्ण कुंभकयोग रेचकयोग रेचकयोम रेचकयोग विदर्भमध्य रोधनआदि पल्लवांतिनाम पल्लवांतिनाम स्वर्णमणि
पुत्रजीवीमणि पुत्रजीवीमणि पुत्रजीवीमाणि कनिष्ठिका तर्जनी
तर्जनी
तर्जनी दक्षिणहस्त दक्षिणहस्त दक्षिणहस्त
दक्षिणहस्त दक्षिणवायु दक्षिणवायु दक्षिणवायु .दक्षिणवायु पृथ्वीमंडल वायुमंडल वायुमंडल
| वायुमंडल
लन्डन्न्न्
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रन्सा०
॥ ४ ॥
cooneros
॥ मंत्रसाधनविधिके आवश्यक श्लोक ॥
दिक्कालमुद्रासनपल्लवानां भेदं परिज्ञाय जपेत् स मंत्री । न चान्यथा सिद्ध्यति तस्य मंत्रः कुर्वन् सदा तिष्ठतु जाप्यहोमं ॥ १ ॥ स्तंभं विद्वेषमाकृष्टिं पुष्टिं शांतिं प्रचालनम् । वश्यं बधं च तं कुर्यात् पूर्वाभिमुखः क्रमात् २ अन्योन्यवज्रविद्धं पतिं चतुरस्रमवनिबीजयुतम् : कोणेषु रांतयुक्तं भूमंडलसंज्ञकं ज्ञेयम् ॥ ३ ॥ मुखमूलवपोपेतः पद्मपत्रांकितः सितः । पववर्णात्तदिक्कोणः कलशस्तोयमंडलम् ॥ ४ ॥
त्रिस्वास्तिकं त्रिकोणं यांतं कोणेषु वह्निबीजयुतम् । ज्वालायुतमरुणाभं तन्मंडलमाहुराग्नेयम् ५ | बहुविंदुवक्ररेखं वृत्ताकारं चतुर्थकारयुतम् । कृष्णं मारुतबीजं वायव्यं मंडलं प्राहुः ॥ ६ ॥ | चत्वारि मंडलानि च लवरयवर्णैः क्रमेण युक्तानि । पृथ्वीसलिलहुताशनमारुतवीजैः समेतानि ७ मारणाकृष्टिवश्येषु त्र्यत्रं कुंडं प्रशस्यते । विद्वेषोच्चाटयोर्वृत्तमन्येषु चतुरस्रकम् ॥ ८ ॥ | पलाशस्य समिन्मुख्या स्यादमुख्या पयस्तरोः । विधानमेतत् संग्राह्यं विशेषवचनादृते ॥ ९ ॥ वधविद्वेषोच्चाटेष्वष्टौ पुष्टौ मता नव शांतौ । आकृष्टिवशीकृत्योर्द्वादश समिधः प्रमांगुलयः॥ १० शतमष्टोत्तरसंख्या सहस्रमष्टोत्तरं वदंति जपे । होमादिषु संख्या स्यात् दशभागा मूलमंत्रसंख्यायाः जपादविकलो मंत्रः स्वशक्तिं लभते पराम् । हो मार्चनादिभिस्तस्य तृप्ता स्यादधिदेवता १२ एकस्तावद्वह्निः पुनरपि पवनाहतो न किं कुर्यात् । एको मंत्रः पुनरपि जपहोमयुतोस्य किमसाध्यं शिष्यो मंत्रक्रियारंभे स्नातः शुद्धांबरं दधत् । निर्जंतुदेशके पूजाजपहोमान करोत्विति ॥ १४ ॥ पंचाह्वाननस्थापनसाक्षात्करणार्चनाविसर्गाः स्युः । मंत्राधिदेवतानामुपचाराः कीर्तितास्तज्ज्ञैः ॥ सिसाधयिषुणा विद्यामविघ्नेनेष्टसिद्धये । यत्स्वस्य क्रियते रक्षा सा भवेत् सकलीक्रिया ॥१६॥
POCOD0200Dece
०
॥४७
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
ॐनमः परमात्मने। श्रीमत्पंडितप्रवर-आशाधरविरचितः प्रतिष्ठासारोद्धारः।
( जिनयज्ञकल्पापरनामा) जिनान्नमस्कृत्य जिनप्रतिष्ठाशास्त्रोपदेशव्यवहारदृष्टया । श्रीमूलसंघे विधिवत्प्रबुद्धान् भव्यान् प्रवक्ष्ये जिनयज्ञकल्पम् ॥१॥
हिंदी भाषाटीका
___ अब जिनयज्ञ कल्प नामके प्रतिष्ठापाठका व्याख्यान किया जाता है;-मैं (आशाधर) जिनेंद्र भगवानको नमस्कार करके और जिनप्रतिष्ठा शास्त्रोंकी गुरुआम्नायको अच्छीतरह। जानकर श्रीमूलसंघके शास्त्रोंके अनुसार श्रावकधर्मको पालनेवाले भव्योंके वास्ते जिनयज्ञक१ अथातो जिनयज्ञकल्पमनुक्रमिष्यामः । २. जिनस्थापनाधर्मसंहितागुर्वान्नायमुख्यप्रवृत्त्यवलोकनेन ।
POS
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र० सा० साकल्येनैकदेशेन कारातिजितो जिनाः । पंचाईदादयोऽष्टाः श्रुतं चान्यच्च तादृशम् ॥२॥8|भा टी०
|जिनानां यजनं यज्ञस्तस्य कल्पः क्रियाक्रमः। तद्वाचकत्वाच जिन-यज्ञकल्पोऽयमुच्यते ॥३॥ तत्र विश्वोपकारार्थजन्मनां यज्ञमहताम् । प्रागाहुस्तस्य भेदाः स्युः पंच नित्यमहादयः॥४॥
तेषु नित्यमहो नाम स नित्यं यज्जिनोय॑ते । नीतैश्चैत्यालयं स्वीयगेहाद्धाक्षतादिभिः ॥५॥ । अतो नित्यमहोद्युक्तैर्निर्माप्यं सुकृतार्थिभिः । जिनचैत्यग्रहं जीर्णमुद्धार्य च विशेषतः ॥६॥ शल्पका विस्तारसे व्याख्यान करता हूं॥१॥ समस्त अथवा थोडेसे कर्मरूपी वैरियोंको जिसने । जीत लिया है वह जिन कहलाता है इसलिये यहांपर अर्हत सिद्धादि पांच परमेष्टी तथा उनका कहा हुआ द्वादशांग शास्त्र-जिन जानना चाहिए। उन जिन शब्द वाच्य अर्हतादिकका जो पूजन उसे जिनयज्ञ कहते हैं उसकी क्रियाओंके क्रमको कल्प कहते हैं इसलिये जिनपूजाकी क्रियाओंके कमको जो कहे उसीको 'जिनयज्ञकल्प' इस नामसे कहते हैं। यह जिनयज्ञकल्पका अक्षरार्थ हुआ ॥२॥३॥ उनमें सबसे पहले अर्हत की पूजाका क्रम कहा ? जाता है क्योंकि मुख्यतासे उन तीर्थकर अर्हतका ही जन्म जगतजीवोंके उपकारके लिए होता है है। उस पूजाके नित्यमह चतुर्मुख रथावर्त कल्पवृक्ष इंद्रध्वज-ये पांच भेद आचार्योंने कहे : हैं ॥४॥ उन पांचोंमेंसे नित्यमह नामकी पूजा वह है कि जो अपने घरसे चंदन अक्षतादि ॥१॥ अष्टद्रव्यको चैत्यालय (जिनमंदिर ) में लेजाकर उससे जिनेन्द्रका पूजन किया जावे ॥५॥ इसलिये पुण्यके चाहनेवालोंको नित्यमह पूजनमें उद्यमी होके जिनमंदिर वनवाना चाहिये
.
4
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
जिने यज्ञं करिष्याम इत्यध्यवसिताः किल । जित्वा दिशो जिनानिष्ट्वा निर्द्रता भरतादयः॥७॥ शक्यक्रियेष्टफलतां दृष्ट्राष्टांगनिमित्ततः । स्वशत्तया स्वह्नि पृष्ट्राप्तान प्रारभेत जिनालयम्॥८॥ मुनिगोऽश्वेभभूषाढ्ययोषिच्छत्रादिदर्शनम् । तत्पश्ने वेदपाठाहन्नुत्यादिश्रवणं शुभम् ॥९॥ विमूर्धा हसतीस्तोमः सोहं मध्ये स्थितोऽततः । चतुरोंकारयुक् सव्येतरमायाद्वयावृत्तम् ॥१०॥il और जहांतक होसके जीर्ण जिनमंदिरका उद्धार कराना बहुत उत्तम है ॥ ६॥ जिनेन्द्र देवकी पूजा तो अवश्य करेंगे ऐसा दृढनिश्चय रखनेवाले भरत सगर राम पांडव आदिक बडे २ महाराजा जो पूर्वसमयमें होगये हैं वे भी जिनेन्द्रदेवकी पूजाकरनेसे ही सव दिशाओंको जीतकर अंतमें मोक्षके अविनाशीक सुखको प्राप्त हुए ॥ ७ ॥ अपनी शक्ति और इष्ट सिद्धिको विचार कर तथा पिता माता मंत्रीआदिक सज्जनोंको पूछकर अष्टांग निमित्तके द्वारा शुभतिथि आदि पंचांग शुद्ध लग्नमें जिनमंदिर वनबाना शुरू करे ॥८॥ जिनमंदिरके उद्धार करनके संबंधमें पूंछनेके समय दिगंबर मुनि ( साधु ) वछड़ेवाली गाय वा ! बैल घोडा हाथी सधवा स्त्रीछत्र और आदि शब्दसे चमर ध्वजा सिंहासन दही दूध इत्यादिका देखना तथा वीणाका शब्द जैन शास्त्रोंका पाठ अर्हतको नमस्कार आदि शब्दोंका सुनना शुभ| है ॥ ९ ॥अब कर्णपिशाचिनी यंत्र मंत्रका उद्धार बतलाते हैं,-हकार सकार तीकारके ऊपर विंद रख सकार और हकारके बीचमें तीं अक्षरको लिखे उसके चारों कोनों में चार ओंकार
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र० साजोगे मग्गे पदं तच्चे भूदे भव्ये ततः परम् । भविस्से अक्खे पक्खेच जिनपार्वे रमाक्षरम्॥११॥ भाल्टी०
मायाबीजं वधूबीजं तथा कर्णपिशाचिनि । मंत्रेणानेन तच्चके नोंतप्रणवादिना ॥१२॥ ॥२॥
अ०१ जातीपुष्पसहस्राणि जप्त्वा द्वादश शद्दशः। विधिना दत्तहोमस्य विद्या सिद्धयति वार्णिनः१३/ सानाहतामूर्ध्वमुखज्योतिस्तीकारधीरिमाम् । जपन शृणोति वा पश्यत्यपि जाग्रच्छुभाशुभम्१४/81 उपोषितो जपन् सुप्त ओं मायाद्यपराजितम् । दृष्ट्वा मुन्यादिकं ब्रूयाच्छुभं क्षुद्रादि चाशुभम् १५/६ लिखना और दक्षिण वामभागकी तरफ माया बीजनामक व्हीको आलिखे अर्थात् ऐसा यंत्र बनावे । यह कर्णपिशाचिनी यंत्र है॥१०॥जोगे मग्गे तच्चे ही सं ती हं ह्रीं भूदे भविस्से | अक्खे पक्खे जिणपावें श्रीं (रमाक्षर ) -हीं (मायाबीज) स्त्रीओं ओं( बधूबीज ) कर्णीपेशाचिनि-इसके अंतमें नमः लिखे और आदिमें ओं लिखे तो ॐ जोगे मग्गे तच्चे भूदे भविस्से अक्खे पक्खे जिणपार्वे श्री ही स्त्री कपिशाचिनि नमः " ऐसा कर्णपिशाचिनी जामंत्र हुआ। यह मंत्र यंत्रके चारों तरफ लिखे ।१११शफिर ब्रह्मचर्यव्रत धारण करके यंत्रको सामने रखकर बारह हजार चमेलीके फूलोंसे मंत्र जपे पश्चात् रातमें विधिपूर्वक बारह सौ आहूतियां अग्निमें देवे- ऐसा करनेसे उस ब्रह्मचारीको कर्णपिशाचिनी विद्या सिद्ध हो जाती है ॥ १३ ॥ ऊपरको नेत्र किये हुए जो मंत्र साधनेवाला ओंकार रूप अनाहत अक्षरसे वेढी हुई इस विद्याको ध्यानपूर्वक जपता है वह जाग्रत अवस्था और शयनअवस्था
॥२॥ दोनों ही शुभ अशुभ सुनता है और देखता है॥१४॥जो उपवास करके ओं न्हीं आदि पंच
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
भूपातालक्षेत्रपीठवास्तुद्वारशिलार्चनाः। कृत्वा नरं प्रवेश्या- न्यस्यात्रारोपयेद् ध्वजम्॥१६॥ जनं चैत्यालयं चैत्यमुत निर्मापयन् शुभम् । वांछन् स्वस्य नृपादेश्च वास्तुशास्त्रं न लंघयेत् १७| शरम्ये स्निग्धं सुगंधादिदूर्वाद्याढयां स्वतः शुचिम्। जिनजन्मादिना वास्ये स्वीकुर्याद्भूमिमुत्तमाम ।
खात्वा हस्तमधः पूर्णे गर्ने तेनैव पाशुना । तदाधिक्यसमोनत्वे श्रेष्ठा मध्याधमा च भूः॥१९॥ नमस्कार मंत्रका जाप करता हुआ सो जावे और उस सोती हुई अवस्थामें मुनि गाय आदिको देखे तो शुभफल कहे और शकुन शास्त्रमें कही हुई अशुभ वस्तुओंको देखे तो अशुभ फल कहे ॥ १५ ॥ अपनी भूमि पातालभूमि पूरितभूमि चौकी देवगृह शिला--इनकी पूजा करके सोनेके बनाये हुए मनुष्याकार पुंतलेको रख उसकी पूजा करके वाद ध्वजा चढावे ॥ १६ ॥ जो अपना और राजा प्रजाका कल्याण चाहता है उसे वास्तुशास्त्रके अनुसारही जिनमंदिर और जिन प्रतिमाको बनवाना चाहिये ॥१७॥ ऐसी जमीनको मंदिर बनवानेके लिये पसंद करे कि जो चिकनी हो तथा सुंगंधीसे या दूव वगैर: घाससे या तो स्वयं शुद्ध हो या जिनेन्द्र के किसी एक कल्याणकसे पवित्र हो ॥ १८॥ बह भूमि एक हाथ गहरी और एक हाथचौडी खोदे उससमय उसी निकली हुई मट्टीसे गढा भरदे जब खड्डा भरनपरे अधिक ४ अमट्टी मालूम पड़े तव समझना चाहिये कि भूमि उत्तम है, समान होवे तो मध्यम तथा कम ।
..OAwa
इस पुतलेकी विधि आगे कही जावेगी। घर वगैरः वनानेकी विधि वृतलानेवाला शिल्पिशास्त्र ।
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
ne
प्रदोषैः कटसंरुद्धसमीरायां च तद्भुवि । ओहूं फडित्यस्त्रमंत्रत्रातायामामभाजने ॥ २०॥ भाटी० आमकुंभोर्ध्वगे सर्पिःपूर्णे पूर्वादितःसितामारक्तां पीतां शितिं न्यस्य वर्तिसर्वाः प्रबोध्य ताः २१ । अ० १ अनादिसिद्धमंत्रेण मंत्रयेदाघृतक्षयात् । शुद्धं ज्वलंतीषु शुभं विध्यातीष्वशुभं वदेत्॥२२॥ एवं संगृह्य सद्भूमि सुदिनेऽभ्यर्च्य वास्त्वधः। संशोध्याध्यर्धमंभोश्मप्राग्धरावधि वा तथा २३| पातालवास्तु संपूज्य प्रपूर्याधाप्य तां समाम्।प्रासादं लोकशास्त्रज्ञो दिशः संसाध्य सूत्रयेत् २४ होवे-गढा न भर सके तो खराब-अशुम करनेवाली जमीन समझनी चाहिये ॥ १९॥ सूर्य । छिपनेके वाद चटाईके परकोटेसे हवाको रोककर उस जगहकी ओं हूं फट्' इस कुदालादि अस्त्रमंत्रसे रक्षा करे ॥ २०॥ पुनः उसकी पूर्वादि चारों दिशाओंमें कच्चे मट्टीके 8 चार घड़ रक्खे उनपर कच्चे सरवे घीसे भरे हुए रक्खे उनमें सफेद लाल पीली काली बत्ती पूर्वादि दिशाओंके क्रमसे डालै फिर सबको जलावै ॥२१॥ जबतक घी रहै तबतक अनादि सिद्धमंत्रसे मंत्रित करै,। वत्तियां साफ जलती हों तो शुभफल कहना और यदि वुझती हुई। मालूम पड़े तो अशुभ फल कहना चाहिये ॥ २२॥ इसप्रकार उत्तम भूमिको तलाशकर शुभ दिनमें उसकी खोदी हुई नींवकी पूजा करके उसे शुद्ध करे । फिर पत्थर वगैरः के दुकटोंसे भरकर पहली भूमिके बराबर करले इस तरह व्यवहार शास्त्रका जाननेवाला दिशाओंको विचार कर जिन भवनका निर्माण करावे ॥२३॥२४॥
न्मन्-
O
ता
॥३॥
00०
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
|
चतुरस्रे कृते पंचवर्णचूर्णेन मंडल । चतुर्द्वारेष्टपत्राब्जगर्भे न्यस्यांबुजोदरे ।। २५ ।। जिनादीन् मंगले लोकोत्तमैश्च शरणैर्युतान् । अनादिसिद्धमंत्रेण पूजयेद्दिग्दलेष्वनु ॥ २६ ॥ देवीर्जयाद्या जंभाद्या विदिक्पत्रेषु तद्बहिः । लोकपालान् यजेद्दिक्षु स्वस्वमंत्रैस्तथा ग्रहान२७ तत्र संस्थाप्य सत्पीठे जिनाच समहोत्सवाम् । प्रीतः प्रीतेन संघेन संयुक्तो याजकोत्तमः २८ संस्नान्यादाय गंधांबुचरुपुष्पाक्षतादिकम् । दद्याद्वलिं स्वमंत्रेण विश्वविघ्नोपशांतये ॥ २९ ॥ | एवं स्थंडिल पातालवास्तुपूजाद्वयोत्तरम् । विधाप्य मसृणं क्षेत्रमित्थं तद्वास्तु पूजयेत् ||३०|| इति स्थंडिल पातालवास्तुद्वय पूजाविधानम् ।
1
उस जिन मंदिरके चारों दरवाजांके सामने पांच रंगके चूर्ण से चौकान मांडला बनावे और आठ पांखुडीके कमलके आकार तांबेके पात्रमें लोकोत्तम शरणरूप जिन | आदिको अनादि सिद्ध मंत्र से पूजै ॥ २५ ॥ २६ ॥ उसके बाद दिशाओंके चार पत्रोंपर जया आदि देवियांका और विदिशाओंके चार पत्रोंपर जंभा आदि देवियोंका तथा उसके बाहर चार लोकपालांका और नव ग्रहांका अपने २ मंत्रांसे पूजन करे ॥ २७ ॥ फिर उत्तम सिंहासनपर जिन भगवानकी प्रतिमाको विराजमान करके वह उत्तम यजमान ( पूजा करानेवाला) प्रेमयुक्त श्रावकादि समूहसे घिरा हुआ प्रसन्न चित्तसे जिन पूजा करें ॥ २८ ॥ पहले तो सुगंधित जलसे अभिषेक करे पश्चात् जल चंदन अक्षतादि आठ द्रव्य लेकर अपने २ मंत्र से सब विघ्नोंकी शांतिके लिये पूजा करें ॥ २९ ॥ इस प्रकार चबूतरा और
2000
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा० रेखाभिस्तिर्यग्रवाभित्राग्राभिः सुलेखिते । एकाशीत्यष्टपत्राब्जगर्भकोष्ठेऽत्र मंडळे ॥३१॥ भान्टी० यजेन्मध्यांबुजेनादिसिद्धमंत्रेण सद्गुरून् । जयादिदेवीः स्वैर्मत्रैः पछेषु बहिरष्टसु ॥ ३२ ॥
अ०१ षोडशस्वर्चयेद्विद्यादेवीः शासनदेवताः । द्विादशेषु द्वात्रिंशत्पष्चिंद्रानतो बहिः ॥ ३३॥ इंद्रादीन् दिक्षु यज्यांश्च वज्राग्रेषु ततो ग्रहान् । जिना तत्र पीठस्थां संस्नाप्याभ्यर्च्य पूर्ववत्३४ । सर्वोषधीपंचरत्नमिश्रतीर्थीबुपूरितान् । पंचताम्रमयान् कुंभान् दधिदूर्वाक्षतार्चितान् ॥३५॥|| नींवकी भूमि-इन दोनोंकी पूजाकरके चीकनी जगह करावे ॥३०॥इस प्रकार चबूतरा और है। नींवकी भूमि-इन दोनोंकी पूजाका विधान समाप्त हुआ। उसके बाद बृहत्शांति नाम एक | चौकोण मंडल वनावे उसकी विधि इस प्रकार है कि पहले तो उसके चारों तरफ इक्यासी लकीरें अग्रभागमें वज्र चिह्न वालीं खींचे फिर उस कोठेके बीच में आठ पत्तेवाला कमल वनावे ॥ ३१ ॥ उस कमलके मध्यमें पंच परमेष्ठियोंको स्थापन करके अनादि सिद्ध मंत्रसे पूजा करे। उसके वाद आठ कमलपत्रोंपर स्थित जया आदि आठ देवियों की पूजा करे॥३२॥ पश्चात् रोहिणी आदि सोलह विद्या देवियोंके चक्रेश्वरी आदि चौवीस शासन देवताओंके कोठे तथा बत्तीस यक्षोंके कोठे खींचे। उसके वाद चारों दिशाओंमें इंद्र वरुण आदि चार दिक्पालोंको स्थापन करे फिर वज्रके आगेके भागमें नव ग्रह स्थापन करना चाहिये। उस मध्य कमलके ऊपर सिंहासन रखे उसपर जिनप्रतिमा रखकर उसका अभिषेका ॥४॥
पूजन करना चाहिये ॥ ३३॥ ३४॥ उसके वाद चारों कोनोंमें चार शिला तथा एक
ल ललललललwooo
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्रारोप्यकशोनादिसिद्धमंत्रेण मंत्रयेत्। ततस्तन्न्यासदेशेषु मूतश्रीखंडकुंकुमम् ॥ ३६॥ | क्षित्वा प्रागेकमुक्षिप्य क्षेत्रगर्भे न्यसेत्तथा । पृथक्कोणेषु चतुरस्तेतः पंच शिलाः पृथक् ॥३७॥ जिनादिमंत्रैरध्यास्य सुलग्ने तेषु विन्यसेत् । ततः प्रतोष्य शिल्प्यादीन् स्वक्षेत्रे भ्रामयेदलिम् ३८ । पाठबंधेप्यसावेव विधिः कृत्स्नो विधीयताम् । विकुंभो देहलीपद्मशिलयोश्च निवेशने ॥३९॥
इति पाठबंधादित्रयप्रतिष्ठाविधानम् । भीतर (सिंहासनके पास ) इस तरह पांच शिला अथवा पकी हुई इंटे रक्खे । उसके ऊपर शुभ लग्नमें पांच तांवेके कलशोंको क्रमसे रखे उनके अंदर सर्वोषधी, पांच तरहके रत्नोंसे | मिला हुआ नदी या कुएका जल भरा रहना चाहिये और घड़ोंके रखनेके स्थानपर पाराघिसा हुआ चंदन कुंकु रखे और सबको अनादिसिद्ध जिनादि(णमोकार)मंत्रसे मंत्रित करे ।। उसके बाद कारीगरोंको द्रव्यादिसे प्रसन्न करके अपने मंडल के आगे पूजाकरे ॥ ३५ ॥ ३६॥ ४॥ ३७ ॥३८॥ इस प्रकार जिनादि मंत्र तथा शिला रखनेकी विधि पूर्ण हुई । वेदीके बांधनेमें ) (रचनामें ) भी यही विधि करनी चाहिये और देहलीकी शिला तथा वेदीकी कमलाकार : गुमठीकी शिलाके रखनेमें भी पूर्वकथित विधि करनी चाहिये । परंतु देहलीके दरवाजे की तथा गुमठीकी कमलाकार शिलाके पिछले भागमें जया आदिके देवियोंकर सहित
१ ओं हाँ नमोऽईद्भ्यः स्वाहा, ओं ह्रीं नमः सिद्धेभ्यः स्वाहा, ओं हूँ नमः सूरिभ्यः स्वाहा, ओं ह्रौं नमः पाठशकेभ्यः स्वाहा, ओं हः नमः सर्वसाधुभ्यः स्वाहा । जिनादिमंत्राः खरशिलानिवेशनं ।
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
देहल्यब्जशिलापृष्टे जयाद्यष्टदलांबुजम् । संपूज्याप्लवयेच्चाहत्सृतांभस्तीर्थवार्घटैः ॥ ४०॥|||भा०टी० अथ किंचिदपर्याप्त प्रासादे दक्षुणक्षणे । कारापकादिक्षेमार्थ पुरुषं संप्रवेशयेत् ॥४१॥
या अ०१ शुकनासोर्ध्वपर्यंतकेदिकाधस्तलांतरे । गर्भपवरकं कृत्वा वेदिकां तत्र विन्यसेत् ॥ ४२॥ मध्ये ताम्रमयं कुंभ वस्त्रयुग्मेन वेष्टितम् । क्षीराज्यशर्करापूर्ण गंधपुष्पाक्षतार्चितम् ।। ४३ ॥ स्थिरं संस्थाप्य तन्मध्ये प्रक्षिपेद्रत्नपंचकम् । सर्वोषधीश्च धान्यानि पारदं लोहपंचकम्॥४४॥ सौवर्ण वाथवा रौप्यं कारयित्वा नरं ततःासंस्नाप्याज्यादिसद्रव्यैःसमभ्यया॑क्षतादिभिः४५|| आठ पत्रोंवाला कमल पूजकर अहंत देवके अभिषेकके जलसे उन शिलाओंको धोना चाहिये ॥ ३९ ॥ ४० ॥ ६ सप्रकार वेदीबंध आदि तीनोंकी प्रतिष्ठाकी विधि जानना ॥ अब पुतलेके प्रवेश करनेकी विधि कहते हैं, उसके बाद अपने संपूर्ण लक्षणोंसे युक्त जिनमंदिर तयार होनेमें कुछ रह जावे तभीसे शिल्पी वगैरःके कल्याणकेलिये मनुष्याकार पुत लेका प्रवेश करे ॥४१॥ उसकी विधि इस प्रकार है कि तोतेका समान नाकवाली पद्मशिलाके ऊपरके भाग और वेदीके निचले भोगके बीचमें रहनेका स्थान (कमरा) वनाके उसमें प्रतिमा विराजमान होनेकी वेदीको रखे ॥४२॥उसके बीच में तांबेका घडा दो वस्त्रोंसे ढका हुआ रक्खे | उस घड़में दूध घी शक्कर भरदे और चंदन पुष्प अक्षतसे पूजन करे।उस घडेको स्थिर रखकर उसमें , पांच तरहके रत्न, सर्व औषधी सब अनाज पारा लोहा आदि पांच धातुएं भरदे ॥४शा अनंतर सोना अथवा चांदीका मनुष्याकार पुतला वनवाके उसे घी आदि उत्तम द्रव्योंसे स्नान II
AAGउन्न्
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
तूलोपधानयुक्तायां सुशय्यायां निवेश्य च । अनादिसिद्धमंत्रेण सम्यक् तत्राधिवासयेत् ४६ पूर्वोक्तविधिना कृत्वा जिनेंद्रार्चाभिषेचनम् । ततस्तं सम्यगुत्क्षिप्य विलग्नांशोदये शुभ।।४७॥ कृत्वा महोत्सवं तत्र कुंभे तं स्थापयेन्नरम् । एतत्कारापकादीनां विधानं शुभदं भवेत्॥४८॥
इति पुरुषप्रवेशनविधानम् । घाम्नि सिद्धयति सिद्धे वा सेत्स्यत्यर्चाकृते शिलाम्।अन्वेष्टुं सेष्टशिल्पींद्रःसुलग्नशकुने व्रजेत्४९ प्रसिद्धपुण्यदेशोत्था विशाला मटणा हिमा। गुर्वा चार्वा दृढा स्निग्धा सद्धा कठिना घना ५० कराके अक्षतादिसे पूज पटसूत्र (निवाड ) से बुनी हुई रुईके गद्दे तकिये सहित सेज HI(खाट) पर रख अनादि सिद्धमंत्र पढकर लिटावै फिर जिनेद्रदेवका अभिषेक पूर्वक पूजन ] l करके शुभलग्नके भवांशके उदयमें उच्छव सहित उस मनुष्यकार पुतलेको उस घडेमें रखे।
ऐसा विधान करनेसे कारीगरोंको कोई विघ्न नहीं आता शुभफल होता है ॥४५॥ ४६॥2 Piu ४७ । ४८ ॥ उसके पश्चात जिनमंदिर तयार होरहा हो हो गयाहो या कुछ देरी हो । कापूजन करके उत्तम प्रतिष्ठमावनानेवाले कारीगरको साथ लेकर शुभलग्न तथा शुभशकुनमें|| प्रतिमाके लिए शिला लेनेको पहाडपर जाना चाहिये ॥४९॥ अहंत प्रतिमाके लिये बहुत उत्तम मोटी शिला होनी चाहिये । तथा वह शिला प्रसिद्ध पवित्र जगह वाली हो बडी || हो, चिकनी हो, ठंडी हो, मोंटी हो, सुंदर हो, मजबूत हो, अच्छी गंधवाली हो, ठोस हो,
लललललललललललललल
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
भा०टी०
अ०१
प्र० सा० सद्वर्णात्यंततेजस्का विंदुरेखाद्यदूषिता । सुस्वादा सुस्वरा चाईविवाय प्रवरा शिला ॥५१॥
तां प्राप्य भूवत कृत्वार्थी प्रोक्ष्यमंत्रेण पूजिताम् । विभिद्योहूं फट् स्वाहेद्धशस्त्राग्रेणार्चयेत् पुनः५२ ॥ ॥६॥
शागृहमेत्य ततो भूवत्ता शुभामशुभामपि । स्वस्य ज्ञातुं निशारंभे निमित्तमवलोकयेत् ॥५३॥ वास्नात्वैकांते शुचौ देशे लिप्त्वा गंधैः शुभैः करौ। विधाय सिद्धभक्तिं च ध्यायेन्मंत्रमिमं हदि५४|| भाओं नमोस्तु जिनेंद्राय ओं प्रज्ञाश्रवसे नमः । नमः केवलिने तुभ्यं नमोस्तु परमष्टिने ॥ ५५॥
अच्छे रंगवाली हो अधिक चमकवाली हो, विंदुरेखा आदि दोषोंसे रहित हो अच्छा स्वाद जातथा अच्छी ध्वनि जिसमें हो-ऐसी शिला होनी चाहिये॥५०॥५१॥उसको लेकर और उससे
भूमिकी तरह पूजकर प्रोक्षणमंत्रसे उसे धोकर ओं हूं फट् स्वाहा इस शस्त्रमंत्रसे शिला तराशनेके हथियारसे उसे निकालै ॥५२॥ फिर घरपर जाकर जिनमंदिरकी भूमिकी तरह ३|| उस शिलाके शुभ अशुभ जाननेके लिये रात्रिके आरंभमें अष्टांग निमित्तोंको विचारै ॥५३॥ ? स्नान करके एकांत शुद्ध स्थानमें शुभ गंध द्रव्यको हाथपर लगाके सिद्धभक्ति पढकर इस आगे कहेजानेवाले मंत्रश्लोकका मनमें ध्यानकरे ॥५४॥ वह इस प्रकार है-ओं जिनेंद्र । देवको नमस्कार है ओं प्रज्ञाश्रवण केवली परमेष्टिन तुमको नमस्कार है। दिव्य शरीरवाली हे देवी मुझे स्वपमें शुभ अशुभ कार्यको कह । इस दिव्यमंत्रसे उस शिलाको शुभ ( कल्याण
१ ओं झंव हः पः श्वी क्ष्वी स्वाहा । प्रोक्षणमंत्रः। ओं हूं फट् स्वाहा इति शस्त्रमंत्रः।
कलकलडकल
॥६
॥
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
POcान्न्कन्सन्छन्
स्वमे मे देवि दिव्यांगे बूहि कार्य शुभाशुभम् । अनेन दिव्यमंत्रेण शुभां ज्ञात्वा नयेच्च ताम्५६|| प्रातस्तत्र पुनर्गत्वा कृत्वा प्राग्वाद्वीधं रथे । सप्तकृत्वोभिमंत्र्याधिरोपितां तां प्रचालयेत् ॥५७॥ यथा कोटिशिला पूर्व चालिता सर्वविष्णुभिः । चालयामि तथोत्तिष्ठ शीघं चल महाशिले॥५८॥
इति शिलाभिमंत्रणमंत्रः । जिनालयं परीत्य त्रिभवेश्यात्युत्सवेन ताम्। स्वह्नि सिक्त्वा स्वौषधीभिःसिद्धशांतिस्तुती भजेत् क्रमो यथाई योज्योऽयं दारुधात्वादिनापि च । निर्मापयिष्यमाणेऽईदिबे सिद्धथवाऽऽगते॥६०॥
___ इति शिलानयनविधानम् । कारिणी ) जानकर लाना चाहिये ॥ ५५॥ ५६ ॥ प्रातः कालके समम रथको लेजाकर वहां पूजनादिविधि करक सातवार उस शिलाको अनादि सिद्ध मंत्रसे मंत्रित करे। फिर उसको वहांसे आगे कहे हुए मंत्रको पढकर उठावे ॥५७॥ हे महाशिले ! जिस तरह लक्ष्मण कृष्ण आदि । नौ नारायणोंने कोदि ( करोडमन वजनवाली) शिला पूर्वसमयमें उठाई थी। उसी तरह मैं भी। तुझे मूर्ति वनवानके लिये उठाता हूं। सोतू जल्दी उठ,, ऐसा मंत्र कहकर उस शिलाको उठाके रथमें विराजमान करे ॥ ५८ ॥ इस प्रकार शिलाभिमंत्रण मंत्र कहा । वहांसे उत्सवके साथ जिनमंदिरमें लावे और उसकी तीन प्रदक्षिणा देकर शुभ दिनमें उत्तम औषधियोंसे शिलाको ४ धोकर मंदिरमें रक्खे उसके बाद सिद्धस्तुति शांति विधान करे ॥ ५९॥ जैसा क्रम (विधि)
ललललललललल्लर
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
| अ०१
प्र० सा० सुलग्ने शांतिकं कृत्वा सत्कृत्य वरशिल्पिनम् । ता निर्मापयितु जैनं विंबं तस्मै समर्पयेत्॥६१॥ भाटी०
सदृष्टिास्तुशास्त्रज्ञो मद्यादिविरतः शुचिः।पूर्णागो निपुणःशिल्पोजिनार्ध्यायां क्षमादिमान्६२ ।। शतिप्रसन्नमध्यस्थनासाग्रस्थाविकारदृक् । संपूर्णभावरूहानुविद्धांगं लक्षणान्वितम् ॥६१॥ रौद्रादिदोषनिर्मुक्तं प्रातिहाकियक्षयुक् । निर्माप्य विधिना पीठे जिनविंचं निवेशयेत्॥६४॥ पत्थरकी शिलाका कहागया है वैसा ही काष्ठ और धातु वगैरःके अर्हतविंब व सिद्धादिविबोंके तयार करानेमें व तयार होके दूसरे स्थानसे आये हुए विंबमें । जानना इसप्रकार शिला वगैरे के लानेका विधान पूर्ण हुआ ॥६० ॥ उसके वाद शुभलग्नमें शांति विधान करके चतुर कारीगरको आदरपूर्वक लाकर जिनविंब तयार करानके लिये शिलाको उसे ? सुपुर्द करदे ॥६१ ॥ जो अच्छी निगाहवाला हो शिल्प शास्त्रको जानने वाला, मदिरा मांस, आदि निंद्य वस्तुओंका त्यागी हो, मनवचन कायसे शुद्ध हो शरीरके अवयकोसे पूर्ण हो चतु: र हो क्षमा आदि गुणोंवाला हो वह शिल्पी जिन प्रतिमाके वनाने योग्य कहा गया है। K॥ ६२ ॥ जो शांत, प्रसन्न, मध्यस्थ, नासपस्थित अविकारी दृष्टिवाली हो जिसका अंग|| हवीतरागपने सहित हो अनुपम वर्ण हो और शुभ लक्षणों सहित हो । रौद्र आदि बारह
१ उक्तंच-नात्यंतोन्मीलितास्तद्वा न विस्फारितमीलिता । तिर्यगर्ध्वमधोदृष्टि वर्जयित्वा प्रयत्नतः ॥ नासायनिहिता शांता प्रसन्ना निर्विकारिका । वीतरागस्य मध्यस्था कर्तव्या दृष्टिरुत्तमा ॥२ रौद्र, कुशाग, सांक्षप्तांग, चिपिटनासिक.III विरूपकनेत्र, हीनमुख, महोदर, महाहृदय, महाअंस, महाकटी, महापाद, हीनजंघा, शुष्कजंघा-ये दोष हैं।
॥
७॥
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थापितस्याचलस्थाने पीठस्याण लक्ष्मणः । नयेत्समीपं प्रतिमा तत्रागेपयितुं स्थिगम६५/ सौवर्ण राजतं तानं शैलं वा चतुरस्रकम् । रम्यं पत्रं विनिर्माप्य सदलं मसणं तथा ॥६६॥ तिर्यगृ;ष्टरेखाभिर्वत्राग्राभिः समालिवेत् । मंडलं व्येकपंचाशत्कोष्टकं श्लक्ष्णरेखकम्।।६७॥ अकारादि हकारांतं कोप्टेष्वकैकमक्षरम्।बाह्यकोणस्थितात्कोष्टात् पादक्षिण्येन संलिखेत् ॥६॥ मध्यमे कोष्ठके तत्र इंकारं सोयरेफकम् । जयादिदेवताधिष्टपत्रपद्मस्य मध्यगम् ॥ ६९ ॥ वज्राग्रे प्रणवं दद्यात्कामबीजं तदंतरे । त्रिर्मायामात्रयावेष्टय निरंध्यादंकुशेन तु ॥ ७० ॥ दोषोंसे रहित हो अशोक वृक्षादि प्रातिहार्योंसे युक्त हो और दोनों तरफ यक्ष यक्षीले वेष्टित हो ऐसी जिन प्रतिमाको वनवाकर विधि सहित सिंहासनपर विराजमान करे ॥६३।६४॥ वह विधि इसतरह है कि निश्चल स्थान में रखे हुए सिंहासनके ऊपर निर्दोष लक्षणवाली प्रतिमाको स्थिर रूपसे विराजमान करे ॥६५॥ फिर सोना चांदी तांबा पत्थर-इनमें से |किसी एकका चौकोन चिकना पत्र बनवावे उसपर सीधी तिरछी अग्रभागमें वत्र चिन्हवाली आठलकीरें खींचं उसमें उनचास कोठांवाला सीधी रेखाओंकर युक्त एक मंडल खींचे ॥६६ ॥६७॥ उन कोठोंमें अकारसे लेकर हकारतकक एक अक्षरको लिखे ॥६८॥ बीचके कोठेमें है ' लिखकर उसके चारों तरफ आठदलका कमल बनावे उसमें जया आदि आठ देवताओंका स्थापन करे ॥ ६९ ॥ वज्रके अगाडीके भागमें 'ओं' लिखै दो। वज्रोंके मध्यमें ‘ली ' लिदै और ईकारसे तीनवार चारों तरफसे घेरकर ' क्रौं इस अंकु
SC
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
A.
प्र० सा० एवं विलिख्य संस्नाप्य यंत्रं क्षीरेण चांबुना । सुगंधिद्रव्यमिश्रेण चंदनेनानुलेपयेत् ॥७१॥ भाटी० ॥८॥ ||४||सत्पुष्पाक्षतनैवेद्यदीपधूपफलैर्यजेत् । सुगंधिप्रसवैस्तत्र जप्यमष्टोत्तरं शतम् ॥ ७२ ॥ll
| अ०१ संजप्य मातृकावर्णमालामंत्रेण तत्त्वतः । ओं नमोऽहमुखं ही क्लीं क्रौं स्वाहांतेन तत्स्मरेत् ॥७३॥ पत्रमध्ये च यत्पमं पीठे गंधेन तल्लिखेत् । कर्पूरं कुंकुमं गंधं पारदं रत्नपंचकम् ॥ ७४ ॥ क्षिप्त्वातपत्रमारोप्य प्रतिमा स्थापयेत्ततः । स्थिरप्रतिष्ठाविधये दिने लग्ने च शोभने ॥ ७५ ॥ शसे ढक्कन लगावे.॥७० ॥ इस प्रकार यंत्रको लिखकर सुंगधी द्रा से युक्त दू और जलसे ||
यंत्रका अभिषेक कर चंदनका लेप करे ॥ ७१ ॥ अक्षत पुष्प नैवेद्य दीप धूप फल-इन आठ । हद्रव्योंसे यंत्रकी पूजा करे और सुगंध वाले चमेली आदिके फूलोंसे एकसौ आठवार आगे | कहे जाने वाले मंत्रका जाप करे ॥ ७२ ॥ वह मंत्र इस तरह है कि “ओं नमो हैं " इस पदको पहले रक्खे बीचमें अकारादि वर्ण मालाके अक्षरोंको और अंतमें"ह्रीं क्लीं क्रौं स्वाहा"| इस पदको रखे-तव “ओं नमो है अ आ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः क । ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स ह ह्रीं क्रीं क्रीं स्वाहा" ऐसा जपनेका मंत्र हुआ॥७३॥ उस तांवेके पत्रमें लिखा हुआ जो कमल है उसे घिसे हुए चंदनसे सिंहासनपर भी लिखै और कपूर कुंकु चंदन पारा पांचतरoil १ ओं नमोऽहै अ आ इई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः । क ख ग घ ङ । च छ ज झ अ । ट ठ ड
ढ ण त थ द ध न । प फ ब भ म । य र ल व श ष स ह ह्रीं क्लीं क्रौं स्वाहा ॥ इति जपमंत्रः ॥
.ज
र
स
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
.00004
हस्थापयेदर्हतां छत्रत्रयाशोकप्रकीर्णकम् । पीठं भामंडलं भाषां पुष्पवृष्टिं च दुदुभिम् ।। ७६॥ स्थिरेतरार्चयोः पादपीठस्याधो यथायथम् । लांछनं दक्षिणे पार्श्वे यक्षं यक्षीं च वामके॥७७।। गौर्गजोश्वः कपिः कोकः कमलं स्वस्तिकः शशी । मकरः श्रीद्रुमो गंडो महिषः कोलसेधिकौ ॥७८ : वजं मृगोऽजष्टगरं कलशः कूर्य उत्पलम् । शंखो नागाधिपः सिंहो लांछनान्यहता क्रमात् ७९ : सितो चंद्रांकसुविधी श्यामलौ नेमिसुव्रतौ । पद्मप्रभसुपूज्यौ च रक्तौ मरकतप्रभो ।। ८० ॥ हके रत्न उसमें डाले ऊपर छत्र लगावे तव प्रतिमाको सिंहासनपर विराजमान करे। यह शविधि प्रतिष्ठाके निर्विघ्न समाप्तिकेलिये कही गई है । सो इसे शुभदिन और शुभ लग्नमें करे। An७४ ॥ ७५ ॥ इसप्रकार वेदीपर सिंहासनमें प्रतिमा विराजमान करनेकी विधि पूर्ण हुई। फिर अर्हत प्रतिमाको तीन छत्र दो चमर अशोक वृक्ष दुंदुभी बाजा सिंहासन भामंडल दिव्य | भाषा पुष्पवर्षा-इन आठ प्रातिहार्योसे शोभित करे॥७६॥ उसके वाद स्थिर और चल दोनों से प्रतिमाओंमें सिंहासनके नीचे जैसा शास्त्रमें कहा है वैसे ही सीधी वाजूमें भगवानके चिन्हको और वाई तरफ यक्ष और यक्षीको खडा करे ॥ ७७ ॥ अर्हतोंके शरीरके चिन्ह क्रमसे बैल १ हाथी २ घोडा ३ बंदर ४ चकवा ५ कमल ६ साथिया ७ चंद्रमा ८ मगर ९ श्रीवृक्ष १० गैंडा
११ भैसा १२ सूअर १३ सेही १४ वज्र १५ हरिण १६ बकरा १७ मच्छ १८कल श१९कछुआ १२० कमलकी पांखुरी २१ शंख २२ सर्प २३ सिंह २४-ये चौवीस हैं । इनमेंसे जिस
भगवानका जो चिन्ह है उसे सिंहासनके नीचे भागमें खुदाना चाहिये ॥ ७८ ॥ ७९ ॥ ऋष
२
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
ar.
प्र० सा० सुपार्श्वपाश्र्थो स्वर्णाभान् शेषांश्चालेखयेत्स्मरेत् । न वितस्त्यधिको जातु प्रतिमा स्वग्रेहेर्चयेत् ८१ भाल्टी० स्थिरां स्थाने निवेश्यारी चलां वा यागमंडले । प्रतिष्ठाचार्ययष्टारौ स्थापयेतां यथाविधि ८२||
अ०१ ना! श्रितानिष्टरूपां व्यंगितां प्राक् प्रतिष्ठिताम्।पुनर्घटितसंदिग्धांजर्जरांवा प्रतिष्ठयेत् ॥८३॥ भादि चौवीसों तीर्थकरोंका रंग क्रमसे कहते हैं-चंद्रप्रभ, पुष्पदंत-ये दोनों सफेद रंगके हैं | नेमिनाथ, सुव्रतनाथ-ये काले रंगवाल हैं। पद्मप्रभु, वासुपूज्य इनका लालरंग है। सुपार्श्व|| पार्श्वनाथ-नीले रंगवाले हैं और वाकी वचे हुए सोलह तीर्थकरोंका शरीर तपाये हुए। सोनेके रंगवाला है । अपने घरके चैत्यालयमें एक विलस्तसे अधिक परिमाणवाली: प्रतिमा नहीं रखे जैनमंदिरमें ही रखकर पूजनकरे ॥ ८० ॥ ८१॥ स्थिर प्रतिमाको अपने पूज-11 शानस्थानमें चलप्रतिमाको यागमंडलमें रखकर इंद्र और यजमान विधिपूर्वक प्रतिष्ठा करें ||
॥ ८२॥ ऐसी प्रतिमा प्रतिष्ठायोग्य नहीं है कि जो पहले की प्रतिष्ठित हो, जिनलिंगके सिवाय|| दूसरा आकार हो, पहले शिव आदि आकार वना हो फिर फोडके जिनदेवका आकार किया गया हो, अथवा उसके आकारमें संदेह हो कि जिनबिंव है या दूसरा आकार है, और |बिलकुल जीर्ण होगई हो ॥ ८३॥
१ अथातः संप्रवक्ष्यामि गृहविंबस्य लक्षणम् । एकांगुलं भवेच्छ्रेष्ठं द्वयंगुलं धननाशनम् ॥त्र्यंगुले जायते वृद्धिः पीडा स्याच्चतुरंगुले । पंचांगुले तु वृद्धिः स्यादुद्वेगस्तु षडंगुले ॥ सप्तांगुले गवां वृद्धिर्हानिरष्टांगुले मता । नवांगुले पुत्रवृद्धिर्धननाश
॥९॥ दशांगुले ॥ एकादशांगुलं विंबं सर्वकामार्थसाधकम् । एतत्प्रमाणमाख्यातमत ऊर्च न कारयेत् ॥ इति ग्रंथांतरेप्युक्तम् ।
२ द्वादशांगुलपर्यंते यवाष्टांशानतिक्रमात् । स्वगृहे पूजयेटुिंबं न कदाचित्ततोधिकम् ॥
.
.
.
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रुतेन सम्यग्ज्ञातस्य व्यवहारप्रसिद्धये । स्थाप्यस्य कृतनाम्नोंतःस्फुरतो न्यासगोचरे ॥ ८४॥ साकारे वा निराकारे विधिना यो विधीयते।न्यासस्तदिदमित्युत्क्वा प्रतिष्ठा स्थापना च सा८५||२||
इति प्रतिष्ठालक्षणम् ।। स्थाप्यं धर्मानुबंधांग गुणी गौणगुणोथवा । गुणो गौणगुणी तत्र जिनाद्यन्यतमो गुणी ॥८६॥ गुणो निःस्वेदतादिः स्याद्वाह्यो ज्ञानादिरांतरः। सोऽहतां पंचकल्याणद्वारेणादौ प्रपंच्यते।।८७॥ गर्भावतारजन्माभिषेकनिष्क्रमणोत्सवान् । वृत्तान् ज्ञानाशिवोद्धर्षों भाव्यौ विंबेईतोर्पयेत्।।८८॥ कल्याणे प्रथमे झैदी रत्नवृष्टिस्तथोपदा । मातुःश्यादिकृतार्गभशोधनादिरुपासना ॥ ८९ ॥ |जिसकी स्थापना करना हो उसका स्वरूप शास्त्रसे अच्छीतरह जानकर व्यवहारमें प्रसि. |द्धिकेलिये पाषाण आदिमें उसके गुणोंके स्मरण करनेको नाम रखना । चाहे वह उसी । तरहके आकारवाली मूर्ति हो।या निराकार हो उसे ही प्रतिष्ठा अथवा स्थापना कहते हैं॥४॥ ॥ ८५ ॥ जिसकी स्थापना की जावे वह गुणी धर्मका कारण हो । उसमें भी अर्हतके गुण बाह्य निःस्वेदता (पसेव रहितपना) आदि हों तथा अंतरंग ज्ञानादि हों । इसी तरह जिसकी मूर्ति हो उसमें उसीके गुणोंकी स्थापना करनी चाहिये । यहांपर सबसे पहले तीर्थकर प्रभुकी हैं। पंचकल्याणकोंके द्वारा प्रतिष्ठाविधि वर्णन करते हैं।८६८७॥ गर्भावतरण, जन्माभिषेक, तपकल्याणक ज्ञानकल्याणक,और मोक्षकल्याणक-ये पंचकल्याणक अर्हतकी प्रतिमामें स्थापनकरे। अर्थात् अप्रतिष्ठित अर्हत प्रतिमाके पांचों कल्याणउत्सव विधिपूर्वक करे॥ ८८॥ पहले गर्भा
7CMPSC
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
Coo.co
प्र० सा० स्वमानंदानुबंधश्च प्रभूष्णोर्गर्भसंक्रमः । स्वप्मावलोकन मातुस्तत्फलश्रवणं तथा ॥ ९॥ भाण्टी०
गर्भशोधनशुश्रूषे देवीभिर्गर्भसंक्रमः । सांगसर्गक्रमः पित्रोः स्थाप्याचेंद्रेशतक्रिया ॥९१ ॥ ॥१०॥
अ०१ द्वितीये स जगत्क्षोभानंदं जन्म जिनेशिनः । निःस्वेदत्वाद्यतिशया विजयाद्यमरीकृते ॥९२|| जनन्युपासनाजातकर्मणी त्रिदशागमः । शच्याहतोर्पणं पत्युः सुमेरौ नयनं सुरैः ॥ ९३ ॥
स्नपनं चर्चनं भूषा नामकर्म स्तवक्रिया। नृत्यं नगर्यानयनं राजांगणनिवेशनम् ॥ ९४ ॥ || संनिधापनमंबायाः स्तुतिः प्राभृतनर्तने । रक्षादिकं राज्यभोगभुक्तिःस्थाप्येंद्रसेवया ॥९५॥ ४वतरण कल्याणकमें कुबेरकृत रत्नोंकी वर्षा, देवियोंसे की गई माताकी सेवा, श्री आदि षद ||
कुमारिका देवियोंसे की गई गर्भशोधना, स्वप्नोंके देखनेके वाद पतिके पास फल सुनना || उसके सुननेसे माताको आनंद, होनेवाले तीर्थकरका गर्भमें आना और इंद्रकर कीगई माता पिताकी पूजा-इतनी विधियां करनी चाहिये ॥ ८९।९०।९१ ॥ दूसरे कल्याणकमें-जगतमें क्षोभ होना आनंद होना, जिनेन्द्र तीर्थकरका जन्म होना, निःस्वेदता आदि जन्मके|| दश अतिशयोंका प्रगट होना, विजया आदि देवियोंकर माताकी सेवा जातकर्म संस्कार । देवोंका आना, इंद्राणीकर भगवान बालकको इंद्रकी गोदमें सोंपना, भगवान बालकको सुमेरु पर्वतपर लेजाना ॥ ९२२९३ ॥ वहां देवोंकर स्नान कराना, आभूए
। देवाकर स्नान कराना, आभूषण पहराना, नाम:|| हरखना, प्रभुकी स्तुति करना, नृत्य करना नगरीमें लाना राजमहलके आंगनमें पहुंचना|||| ॥१०॥
माताको बालक सुपुर्द करना फिर इंद्रको नृत्य करना प्रभुकी सेवाकेलिये देवोंको छोड।
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थाप्यस्तृतीये निर्वेदस्तत्मशंसा सुरर्षिभिः। दीक्षावृक्षाः सुरैः स्नानाद्युपकारो वनायनम् ९६ दीक्षाग्रहणमिंद्रेण केशप्रत्येषणादिकम् । वस्त्रादित्यजनं ज्ञानचतुष्कोद्भासनं क्रिया ॥९७॥ कार्या कल्याणसंस्कारमालामंत्राधिरोपणम् । प्रियंगु सज्जनादीनि तिलकं चाधिवासना ९८१ श्रीमुखोद्धाटनं तुर्ये नेत्रोन्मीलनमर्हतः।स्थाप्याचांतर्गुणा घातिक्षयजातिशयास्तथा ॥ ९९ ॥2 आस्थानमंडलं देवोपनीतातिशयाः पुनः । प्रतिहार्याष्टकं चिह्नं यक्षः शासनदेवता ॥१०॥ कल्याणपंचकारोपव्यक्तिः कंकणमोक्षणम् । सा जाद्भावकृतिःकृत्या महाघस्यावतारणम्१०१ जाना प्रभुको राज्य भोगना-ये सब विधियां करनी चाहिये ॥ ९४।९५ ॥ तीसरे कल्याणकमें भगवानको वैराग्य होना, लौकांतिक देवोंकर स्तुति, दीक्षावृक्ष, देवताओंकर कराया गया स्नान, पालकी में विठाके वनको लेजाना, भगवानकर स्वयं दीक्षाग्रहण, इंद्रकर लुचितकेशोंको रत्नपिटारी में रखके क्षीरसमुद्र में क्षेपण करना वस्त्रादित्याग, चौथे । ( मनःपर्यय ) ज्ञानका प्रगट होना ॥ ९६ । ९७ ॥ अडतालीस मालामंत्रोंका जाप करना ? इत्यादि ॥ ९८ ॥ चौथे कल्याणकमें-भगवानके मुखका उघाडना नेत्रोन्मीलनक्रिया : घातिया कर्मोके क्षयस उत्पन्न हुए अनंत ज्ञानादिगुणोंका स्थापन समवशरण वनाना। तथा अशोक वृक्षादि अतिशयोंका प्रगट करना आठ प्रातिहार्य यक्ष शासनेदवता-इनको समीप रखना महान अर्घ देना दिव्यध्वनि होना-इत्यादि क्रिया करनी चाहिये ॥ ९९ ॥ ॥ १००१०१॥ पांचवें कल्याणकमें-आठ पत्रोंमें आठ गुणोंको लिखके और पूजके मोक्ष
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र० सा० तत्कल्याणक्रिया चांत्ये मध्येऽज्वस्याभवं गुणान्।पत्रेष्वष्टसु चाभ्यर्य ध्मावार्चायां शिवक्रियाभाल्टी० सपालाद्युत्सवा कार्या ततश्चाभिषवक्रिया । मरुद्विसर्गबल्याशीर्दीक्षामोक्षक्षमापणाः ॥१०३॥
अ०१ 1३ प्रतिष्ठोक्तविधि सम्यग्विधायारोपियेद् ध्वजम्।प्रासादे तेन भात्येष सर्वेषां स्याच्छुभाय च१०४
स्थाप्यं तु विंबे सिद्धानां सम्यक्त्वादिगुणाष्टकम्।रत्नत्रयं च विधिवच्छेषाणां स्वस्वमंत्रतः१०५१ सर्वज्ञवागभिव्यक्तानेकांतात्मार्थसार्थवत् । न्यसेद्वाग्देवतार्चादावंगपूर्वप्रकीर्णकम् ॥ १०६॥ क्रिया करनी चाहिये ॥१०२॥ फिर फूलमालाका उत्सव करके प्रभुका अभिषेक करे । फिर देवताओंका विसर्जन रथयात्रा संघपतिको आशीर्वाद यज्ञ दक्षिाका छोडना और आये हुए सब सज्जनोंसे क्षमावनी करना ॥ १०३ ॥ इस तरह प्रतिष्ठाशास्त्र में कही|| विधिको अच्छी तरह करके जिन मंदिरके ऊपर ध्वजा चढाये । उस ध्वजासे जिन मंदिरकी एक तो शोभा होती है दूसरे राजा प्रजा सबको कल्याण होता है ॥१०४॥ इसप्रकार है अर्हत प्रतिमाकी विधि संक्षेपसे कही गई । इसका विस्तार आगे कहेंगे। अब सिद्ध आदिकी । मूर्तिकी प्रतिष्ठाकाविधान कहते हैं-सिद्धोंकी प्रतिमामें सम्यक्त्व आदि आठ गुणोंका स्थापन करे और वाकी आचार्य आदि परमेष्टियोंकी प्रतिमा विधिपूर्वक अपने २ मंत्रसे सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्र इन तीन रत्नोंका स्थापन करे ॥ १०५ ॥ सर्वज्ञके मुख४ कमलसे निकली हुई, गणधरोंकर प्रगट किया गया है अनेकांत स्वरूप पदार्थोंका समूह है।
१ शक्तिके माफिक द्रव्य देकर भगवानके नामसे फूलमाला लेकर चढाना ।
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनंताक्षरात्मानं पुस्तकार्थमनुस्मरन् । संशोध्य पुस्तकं तच्च वाग्मंत्रण प्रतिष्ठयेत्॥१०७॥ ध्यात्वा यथास्वं गुर्वादीन्न्यस्येत्तत्पादुकायुगे।निषेधिकायां संन्याससमाधिमरणादि च १०८ यक्षादिप्रतिविवेषु यंत्रं प्राय॑ च विन्यसेत्।ग्रहे तार्कोदये ध्यायन् जात्यादीन् यक्षकर्दमम्१०९ सिद्धचक्रादिपत्रादिप्रतिष्ठाप्येवमूह्यताम् । ग्राह्यः प्राणो ग्रहश्चेदोः शांते क्रूरे च भास्वतः॥११०॥
इति प्रतिष्टेयलक्षणम् । जिसका ऐसी सरस्वती देवीकी पूजामें अंग, पूर्व (चौदह पूर्व ) प्रकीर्णक ( बाह्य अंग ) स्वरूप अनंत अर्थ अक्षर स्वरूप शास्त्राकार रचना कराके और उस शास्त्रको सुधवाके सरस्वतीमंत्रसे उसकी प्रतिष्ठा करे । यह शास्त्रप्रतिष्ठा हुई ॥ १०६।१०७ ॥ अब गुरुकी || प्रतिमाकी प्रतिष्ठा विधि कहते हैं;-निर्ग्रथादि गुरुओंका ध्यान करके और उनके संन्यास
माधि) मरणकी छतरी ( एक तरहका मट) वनवाके उनके चरण युगल (दो ) वनावे ॥१०८॥यक्षांदिप्रतिमाओंकी प्रतिष्ठामें पंचवर्णके चूर्णसे लिखे यंत्रको सूर्योदयमें चमेली आदिके पुष्पोंसे पूजे और ध्यावे ॥१०९॥ पत्रपर लिखे हुए सिद्धचक्र यंत्र तथा आदि शब्दसे जंबूद्वीप त्रैलोक्य श्रुतस्कंध नंदीश्वर आदि लिखे यंत्रोंकी भी प्रतिष्ठा इसी तरह जानना चाहिये।
१ कर्पूरमगुरुश्चैव कस्तूरी चंदनं तथा । ककोलं च भवेदभिः पंचभिर्यक्षकर्दमम् ॥ २ अनावृतादि यक्ष पद्मावती || यक्षीकी प्रतिमा । ३. कपुर अगुरु कस्तूरी चंदन कंकोल-इन पांचोंको पीसके बनाया गया चूर्ण ।
कन्स
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
भ० सा०
॥ १२ ॥
6222
| देशजातिकुलाचारैः श्रेष्ठो दक्षः सुलक्षणः त्यागी वाग्मी शुचिः शुद्धसम्यक्त्वःसद्वतो युवा ॥ १११ | श्रावकाध्ययनज्योतिर्वास्तुशास्त्रपुराणंवित । निश्चयव्यवहारज्ञः प्रतिष्ठा विधिवित्प्रभुः ॥ ११२ ॥ | विनीतः सुभगो मंदकषायो विजितेंद्रियः । जिनेज्यादिक्रियानिष्ठो भूरि सत्त्वार्थबांधवः ।। ११३ ।। शांत देवताकी प्रतिष्ठा में चंद्रप्राण ( वांया नाकका स्वर ) लेना और क्रूर देवताकी प्रतिष्ठामें | सूर्यप्राण ( सीधा नाकका स्वर ) लेना । चंद्रप्राण और सूर्यप्राणको ही वामनाडी, दक्षिण नाडी कहते हैं ॥ ११० ॥ इसप्रकार प्रतिष्ठायोग्यका लक्षण कहा। अब प्रतिष्ठा करनेवाले प्रतिष्ठा|चार्यका लक्षण कहते हैं; -प्रतिष्ठा करनेवालेको सौधर्म इंद्र समझना चाहिये । वह कैसा होवे । यह कहते हैं । जिन धर्मकी प्रभावनावाले देशमें उत्पन्न हुआ हो. मातापक्ष और पितापक्ष दोनों जिसके उत्तम हों, शास्त्राचार लोकाचार दोनोंको पालने वाला हो, दूसरे का अंतरंग जाननेमें चतुर हो, सामुद्रिक शास्त्र में कहे गये शरीर के शुभ चिन्होंवाला हो, दानी हो । मिष्ट बोलनेवाला, मन वचन कायसे शुद्ध. निर्दोष सम्यक्त्ववाला. निर्दोष पांच अणुव्रत पालनेवाला और सोलह वर्ष से अधिक उमरवाला जवान हो ॥ १११ ॥ श्रावकाचार, चंद्रप्रज्ञप्ति आदि ज्योतिषशास्त्र, स्थलगतचूलिका में कहेगये महल आदि बनानेके विधानवाले शिल्पिशास्त्र और पुराण (इतिहास) शास्त्रोंका जाननेवाला हो, निश्चयनय व्यवहार इन दोनों को जाननेवाला, प्रतिष्ठा विधिका जाननेवाला और तेजस्वी हो ॥ ११२ ॥ आयु तप विद्या कुलाचारादिसे अधिक जनोंकी विनय करनेवाला, सबको १ लोको देशः पुरं राज्यं तीर्थं दानं तपोद्वयं । पुराणस्याष्टधाख्येयं गतयः फलमित्यपि ॥
भा०डी०
अ० १
॥ १२ ॥
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
POG
.
.
दृष्टसृष्टक्रियो वार्तः संपूर्णांगः परार्थकृत् । वर्णी गृही वा सद्वृत्तिरशूद्रो याजको युराट्॥११४॥ गुणिनोप्यगुणे व्यर्था गुणवत्यगुणा अपि।याजकेऽन्ये कृतार्थाः स्युस्तन्मृग्योसौ स्फुरद्गुणः११५ प्यारा, मंद क्रोध मान माया लोभरूप कषायोंवाला अर्थात् शांत स्वभाववाला, खोटे विषयोंसे) इंद्रियोंको रोकनेवाला जितेंद्री, जिनपूजा आदि छह आवश्यक गृहस्थके कर्मोंका करनेवाला, दृढ प्रतिज्ञावाला महान् धनवान बहुत कुटुंबवाला हो ॥११३॥ जिसने प्रतिष्ठाविधि, जाननेवालोंसे कराई गई प्रतिष्ठा देखी हो अथवा आप अपने हाथसे की हो, शिल्प आदि विद्यासे जीविका नहीं करनेवाला, हीन अधिक शरीरके अवयवोंसे रहित संपूर्ण अंगवाला हो,? उत्तम प्रयोजन अथवा पराया उपकार करनेवाला हो, आठमूल गुण और बारह उत्तर गुणवाला पहले-ब्रह्मचर्य आश्रमवाला हो या गृहस्थाश्रमवाला हो, ग्रहणकरने योग्य वस्तुको ग्रहण करनेवाला सदाचारी हो शूद्र वर्ण न हो ब्राह्मणादि तीन उत्तम वर्णोंका धारक हो । ऐसा प्रतिष्ठा करनेवाला इंद्रसमान प्रतिष्ठाचार्य कहा गया है ॥ ११४ ॥ प्रतिष्ठाविधि करने-४ वाला आचार्य यदि अपने पूर्वोक्त गुणसहित न हो तो गुणवान यजमानका भी सर्व नाश कर देता है और पूर्वोक्तगुणोंवाला हो तो गुणरहित-निर्गुणी, प्रतिष्ठामें धन खर्च करनेवाले यजमानको भी कृतार्थ करदेता है-उसके प्रयोजनोंको सिद्ध करदेता है। इसलिए
१ वानप्रस्थ और भिक्षुको प्रतिष्ठा करानेका निषेध है दूसरी जगह ऐसा भी कहा है कि चौथी प्रतिमासे आठवीं प्रतिमा तक पांच प्रतिमावालोंमें कोई हो वही अधिकारी है।
-22
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
॥ १३ ॥
| पाक्षिकाचारसंपन्नो धीसंपद्वंधुबंधुरः । राजमान्यो वदन्यश्च यजमानो मतः प्रभुः ॥ ऐदंयुगीनश्रुतधृद्धुरीणो गणपालकः । पंचाचारपरो दीक्षाप्रवेशाय तयोर्गुरुः ॥ इति इंद्रादिलक्षणम् ।
११६ ॥ ११७ ॥
निश्चित्य लग्नमासन्नं दिवसेषु कियत्स्वपि । सुमुहूर्ते प्रतिष्ठार्थ दातेद्रं स्वग्रहं नयेत् ॥ ११८ ॥ प्रतिष्ठाचार्य उत्तम गुणोंवाला ढूंढना चाहिये और उसीसे प्रतिष्ठा कराना चाहिये अयोग्योंसे कभी नहीं कराना ॥ ११५ ॥ अब प्रतिष्ठामें धन खर्चनेवाले यजमानका लक्षण कहते हैंपांच पाप तीन मदिरा आदि मकार- इन आठोंको त्यागरूप आठमूलगुण स्वरूप पाक्षिक आचारका धारण करनेवाला हो ज्ञानवैराग्य सहित हो बहुतधन और बंधुजन जिसके अधिकारमें हों लोकमान्य हो राजासे जिसने संमान ( इज्जत) पाया हो उदार चित्तवाला दानी हो - ऐसा यजमान होना चाहिए ॥ ११६ ॥ अब दक्षिा देनेवाले आचार्यका स्वरूप कहते हैं - व्यवहार शास्त्रको जानने वाला, श्रुतज्ञानियों में मुख्य, साधुसंघका पालनेवाला दर्शनाचार आदि पांच आचारोंके पालनेमें लीन-ऐसा आचार्य; यजमान और प्रतिष्ठाचार्य को | इस प्रतिष्ठा कराने की दीक्षा देनेवाला गुरु कहा गया है ॥११७॥ इस प्रकार इंद्र ( प्रतिष्ठाचार्य ) यजमान (प्रतिष्ठा में धन खर्चनेवाला) और इस प्रतिष्ठाकार्य करने की दीक्षा देनेवाले आचार्यका
१ प्रियवाग् दानशीलश्च वदान्यः परिकीर्तितः ।
भा०टी०
अ० १
॥ १३ ॥
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुरोगाक्षतपात्रोद्धययोषित्साधार्मिकान्वितःोगत्वा गृहं महेंद्रस्य नत्वेदं पौर्तिको वदेत् ।११९।। न्यायेनोपाय॑ संरक्ष्य संवर्ध्याहन्महे धनम् ।विनियुज्य परं श्रेयः प्राप्तुमिच्छामि संप्रति १२० कैतच्च सुमहत्साध्यं क चायं स्वल्पको जनः।तथाप्यत्र यते योग्या यदि स्युः सहकारिणः १२१ योग्यता चासकृद् दृष्टकर्मणां वोत्र गम्यते। किं पराबैंककार्यान् वः प्रत्यन्यद्वाच्यमस्त्यतः१२२|| स्वरूप वर्णन किया । अब इंद्रप्रतिष्ठाकी विधि कहते हैं-प्रतिमा आदिकी प्रतिष्ठा कराने में है धन खर्च करनेवाला यजमान, प्रतिष्ठाके सात आठ दिन वाकी रहनेपर जल्दी आनेवाली शुभ लग्नका निश्चय करके प्रतिष्ठाकी विधि करानेकेलिये शुभ मुहूर्तमें प्रतिष्ठाचार्य-इंद्रके घरको
के लिये जावे ॥११८ ॥ उससमय ऐसे ठाठसे जावे कि स्त्रियां तो अक्षत भरे हुए पात्र हाथमें लिये गाती हुई आगे जा रही हों और साथमें साधर्मी भाई हों। इसप्रकार यजमान प्रतिष्ठाचार्य-इंद्रके घर जाके उसे प्रणाम कर ऐसी प्रार्थना (वीनती ) करे॥११९॥|| हे जितेंद्रिय ! मैंने न्यायसे धन पैदाकर इकट्ठा किया है और उसकी अच्छीतरह रक्षा की है|2||
अब मैं उसे अहंतविंब प्रतिष्ठाके उत्सवमें लगाकर उत्तम सुख प्राप्त करना चाहता हूं H॥ १२० ॥ कहां तो महान कठिन यह कार्य और कहां तुच्छ शक्तिवाला मैं, सुमेरु सरसोंका
सा फरक है तो भी आप सरीखे योग्य सत्पुरुष सहायक मिल जायगे तो वांछित कार्य अवश्य सिद्ध हो जाइगा ॥ १२१ ॥ आपका कईवार यह प्रतिष्ठाकार्य देखा है
१ वापीकूपतडागदेवतागहअन्नपानआराम इत्यादिकं पूर्त तत्र नियुक्तः पौर्तिकः यजमानः ।
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
लन्कन्स
प्र० सा० इत्यभ्यर्थनया कार्यमंगीकार्य तमालयम् । स्वमानीय चतुष्कोणज्वलद्दीपे सुपूरिते ॥ १२३ ॥ भाण्टी० ॥१४॥ चतुष्के रक्तसतस्त्रप्रच्छादितसुविष्टरे । उपवेश्य नदद्वाद्यनादसंगीतमंगलैः ॥ १२४ ॥
अ०१ कुल्याभी रक्तवस्त्रस्रग्भूषाकाश्मीरचारुभिः । युवतीभिश्चतसृभिश्चंदनं तस्य वर्धयेत्॥ १२५ ॥ ततः स तैलमारोप्य पीतोद्वर्तनपूर्वकम् । तीर्थमालापाठजिनाद्याशीर्वादरवाकुलम् ॥ १२६ ॥ पीतखल्यापोह्य तैलं परिषेच्य सुखांबुभिः।सुभोज्यावर्षी भूषाम्रग्वस्त्रचंदनवंदनैः॥ १२७ ॥ जाना हुआ है इसलिये आपकी ही योग्यता बहुत अच्छी है। दूसरी बात यह है कि आप दूसरोंका वांछित प्रयोजन सिद्ध कर देते हैं इसलिये हम आपको अधिक क्या कह सकते। हैं ॥ १२२ ॥ ऐसी प्रार्थना करके प्रतिष्ठाकार्य करनेकी स्वीकारता (मंजूरी ) कराके प्रतिष्ठाचार्य (इंद्र ) को अपने घर लाये । वहां चौकी विछाकर उसपर सिंहासन रक्खे और ४ चौमुखी दीपक जलावे । सिंहासनपर लाल वस्त्र विछावे उसपर इंद्रको बिठाकर गीत नृत्य वाजोंके साथ लालवस्त्र माला आभूषण चंदनसे शोभायमान चार सधवा जवान स्त्रियांसे चंदन अंगपर लगवावे ॥१२३३१२४॥१२५॥ फिर जिन आदिकी आशीवाद बुलवाता हुआ उस इंद्रके अंगमें पीले उवटने सहित तैल लगवावे फिर पीली खलिसे अंगका तेल दूरकर प्रासुक जलसे स्नान करावे । पुनः स्वादिष्ट भोजन कराके आभूषण कपड़े चंदन माला आदिसे सजावे । पश्चात् प्रतींद्र सहित उस इंद्रको हाथी या घोडेपर चढाकर जैनमंदिरमें
॥१४॥ लेजावे । उस समय 'निसिहि' ऐसा उच्चारण करके जिनमंदिर में प्रवेश करे(घुसे) और
न्सmona
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
Dear 2
समतीद्रं तमारोप्य द्विपं चैत्यालयं नयेत् । निसिहीत्युच्चरन्नेष तं प्रविश्य जिनेश्वरम् ॥। १२८ ।। । दर्शनस्तोत्रपाठेन त्रिःपरीत्य त्रिरानतः । कृतेर्यापथशुद्धिस्तं श्रुतं सूरिं समर्च्य च ।। १२९ ॥ | साधर्मिकैः परिवृतः सर्वसंघसमक्षतः । जिनाग्रे याजकतया सौधर्मेन्द्रोसि सोधुना ॥ १३० ॥ | इत्युच्चैर्वदता दत्तान् समंत्रान् गुरुणाक्षतान्। स्वीकृत्यांजलिनोपांशु मंत्रमुच्चार्य नामितः१३१ स्वमूर्ध्नि विन्यसेत्सोहं सौधर्मेन्द्रं इति ब्रुवन् । प्रतिपद्येत चाष्टाहं सैकभक्तं सुनिर्मलम् ॥ १३२ ॥ ब्रह्मचर्यं विविक्ते च सुप्यात्सद्भावनारतः । शलाका पुरुषाख्यानध्यानस्वाध्यायभाग्भवेत् १३३ जिनेंद्र देवकी दर्शन स्तुतिपाठ पूर्वक तीन परिक्रमा देवे और तीनवार नमस्कार करे । फिर ईर्यापथशुद्धि करके शास्त्र और आचार्यकी पूजाकर साधर्मियोंकर घिरा हुआ सब संघके आगे जिनेंद्रदेव के सामने पूजकपनेसे इंद्रको ऐसा कहे कि तुम अब सौधर्म इंद्र हो ऐसा ऊंचेस्वर से बोले । उस समय इंद्र भी दीक्षागुरुले दिये गये मंत्रित हुए अक्षतोंको अंजलिमें लेके फिर आप ओं नहीं आदि मंत्र पढके मैं वही सौधर्म इन्द्र हूं ऐसा कहता हुआ उन अक्षतोंको अपने मस्तकपर रखे ॥ १२६ । १२७ । १२८ | १२९ | १३० ॥ | ॥ १३१ ॥ १३२ ॥ वह इंद्र आठदिनतक एकवार भोजन करे, निर्दोष ब्रह्मचर्य पाले और श्रेष्ठ
१ औं ह्रींऽई असिआउसा णमो अरहंताणं अनाहतपराक्रमस्ते भवतु ह्रीं नमः स्वाहा । एष मंत्रो गुरुणा प्रयोज्यः । २ इंद्रेण पुनरत्रैव ते स्थाने मे इति प्रयोज्यम् ।
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र० सा०
॥ १५ ॥
परमेष्टिश्रुतगुरूनेव वंदेत वर्जयेत् । साधर्मिक सजातीयैरपि पंक्तिं च भोजने ॥ १३४ ॥ तदा प्रभृति यष्टापि ब्रह्मयाजकवच्चरेत् । आयज्ञांतं विशेषेण तदाज्ञां च न लंघयेत् ॥ १३५ ॥ | प्रतिष्ठासूचकैर्लेखैः संघ देशांतरादपि । आकारयेद् व्रजेद् द्रष्टुं तां संघोपि यथाबलम्॥। १३६ ।। | वेदीनिवेशादारभ्य यावद्यज्ञांतमात्मवान् । धर्मकारी गुणौचित्यकृपादानपरो भवेत् ॥ १३७॥ | गर्भरूपो विनेयोस्मीत्याक्षिप्तो गुरुभिर्वदेत् । आक्रुष्टो याचकैश्चेष्टदाने वोस्मि कियानिति ।। १३८|| भावनाओंमे ( विचारोंमें ) लीन हुआ एकांत जगह में सोवे और त्रेसठ शलाका पुरुषोंके | चरित्रका स्वाध्याय तथा शुभ ध्यानमें लीन रहे ॥ १३३॥ पंच परमेष्ठी जैन शास्त्र जैन गुरुओंको ही नमस्कार करे । और अपनी जातिके साधर्मियोंके साथ भी एक पंक्ति में बैठकर भोजन न करे॥ १३४ ॥ उसी समय से वह यजमान भी प्रतिष्ठाचार्यकी तरह एकवार भोजन ब्रह्मचर्यादिका आचरण करे और पूजाके उत्सवकी समाप्ति तक नियमसे इंद्रकी आज्ञाको पाले, उलंघन नहीं करे ॥ १३५ ॥ वह यजमान प्रतिष्ठाको जाहिर करनेवाले लेखोंसे ( कुंकुम पत्रिकाओंसे ) दूसरे देशोंसे भी सब साधर्मी भाइयोंको बुलावे । पत्रीके पहुंचते समय वे साधर्मी भाई भी अर्हतप्रतिष्ठा देखनेकेलिये शक्तिके माफिक अवश्य जावें ॥ १३६ ॥ वह यजमान वेदी प्रतिष्ठा से लेकर विंबप्रतिष्ठा तक आत्मज्ञानी होके धर्मके कार्य करता रहे और गुणी जनोंको यथायोग्य दानादि देता रहे और दुःखितोंको करुनादान दे ॥ १३७ ॥ गुरुओंके सामने ऐसा कहे कि मैं नया ही चेला हूं जो कुछ भूल हो
Gore Gene
| भा०टी०
अ० १
॥ १५ ॥
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
Ka याजका यष्टवत्सर्वे श्रावकैरपरैरपि। संभाव्या भक्तितः संघोप्याराथ्यो धर्मकाम्यया॥१३९॥
दातृसंघनृपादीनां शांत्य स्नात्वा समाहिताः।शांतिमंत्रैर्जपं होमं कुर्युरिंद्रा दिने दिने ॥१४०॥ देशकालानुसारेण व्यासतो वा समासतः । कुर्वन् कृत्स्ना क्रियां शक्रो दातुश्चित्तं न दूषयेत् ।। यथोक्तनिगदद्रव्यैः प्रयुक्तैर्षासतः क्रिया । मंत्रमात्रयथाप्राप्तद्रव्यैश्चेष्टा समासतः ॥१४२॥
इति इंद्रप्रतिष्टा। वह क्षमा करें और याचकों ( मांगनेवाले ) से ऐसा कहे कि तुमको इच्छित दान देनेकी | मुझमें शक्ति नहीं है ॥ १३८॥ अन्य श्रावक भी उस यजमानकी प्रशंसा करें कि तुमने बहुत अच्छा किया और यह यजमान भी धर्मकी इच्छा रखता हुआ आये हुए सव साधर्मियोंका भक्तिपूर्वक सत्कार करे ॥ १३९ ॥ वे इंद्र प्रतींद्र भी दाता, श्रावकसंघ और राजा आदिको शांति ( सुख ) मिलनेके लिये प्रतिदिन स्नानकरके शांतिमंत्रोंसे जप और होम अवश्य करें । ॥ १४० ॥ वह इंद्र देश और कालका विचार करके विस्तारसे या संक्षेपसे सब प्रतिष्ठाकी क्रियाओंको इसतरह करे कि जिसमें दाता (यजमान) का दिल न दुःखी हो अर्थात् दाताका
उत्साह नष्ट न हो और न क्रोध ( गुस्सा ) उत्पन्न हो ॥१४१॥ यदि शास्त्रमें विस्तारसे हकही हुई सब चीजोंके लानेमें खर्च करनेकी सामर्थ्य हो तब तो विस्तारसे प्रतिष्ठाविधि करे||३|
अगर उसमें अधिक खर्च करनेकी शक्ति न हो तो शक्तिके माफिक जितना खर्च करसके ?
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥१६॥
अ०१
प्र०सा० सज्जयित्वोपकरणान्याचार्यः कार्यसिद्धये। कृत्वा शांतिविधानं च सूत्रयेन्मंडपादिकम्॥१४३॥
खोतेऽधःशोधिते पूर्णे समीकृत्य पवित्रिते। भूभागेऽहन्मृजांभोभिश्चारुक्षीरदुदारुभिः ॥१४४॥ शुभह्नि मंडपं चित्रवस्त्रच्छन्नं विधापयेत् । व्यादित्रिवद्धिष्णुचतुर्विंशत्यंतकरप्रमम् ॥ १४५॥ प्रोल्लसच्छल्लकीरंभास्तंभध्वजदलस्रजम् । चतुर्दारोलकोणस्थशुभ्रकुंभाष्टकोद्भटम् ॥ १४६॥ है उसके अनुसार ही संक्षेपसे प्रतिष्ठाविधि करनी चाहिये ॥ १४२ ॥ इसप्रकार इंद्रप्रतिष्ठाविधि समाप्त हुई । अब मंडप आदि वनानेकी विधि कहते हैं-प्रतिष्ठाचार्य सब सामग्री|| तयार करके मंडपादिकी निर्विघ्न रचना समाप्तिके लिये लघु या वृहत् शांतिविधान करके मंडप वेदी आदिकी रचना करावे ॥ १४३ ॥ वह इसतरह है कि पहले तो जमीन खुदावे पीछे उसे सोधकर मट्टीसे भरके समतल करे फिर अहंत प्रतिमाके गंधोदकसे छिडके। उसके बाद । सुंदर-ऊपरसे सूखा कीडे आदिसे नहीं खाया हुआ ऐसा जो उदुम्बर पीपल आदि क्षीरवृक्ष ?
उसकी लकडीसे तथा पांचरंगोंवाले वस्त्रसे शुभ मुहूर्तमें मंडफ तयार करावे और कमसे कम तीन हाथका मंडप होना चाहिये और एक हाथकी वेदी वननी चाहिये । यह संक्षेप विधि करनेमें जानना । और अधिक विधि करनी हो तो तीन तीन हाथ वढाते जाना अर्थात छह हाथका मंडप और दो हाथकी वेदी करना । इसतरह सबसे अधिक चौवीस हाथका मंडफ
और आठ हाथकी वेदी बनाना चाहिये। ग्रह विस्तार विधि करनेके समय जानना ॥१४४॥|2| ॥१४५॥ उस मंडफमें सल्लकी वृक्ष और केलाके वृक्षके खंभे हों, धुजा हरे पत्तोंकी माला
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
तोरणोदारसौंदर्यं नानारत्नांशुकांचितम् । प्रलंबिमुक्तालंचूषहारस्रक्तारिकोज्ज्वलम् ॥१४७॥ चंदनच्छटया सिक्तं पुष्पप्रकरदंतुरम् । मुक्तास्वस्तिकविन्यासरंगावलिमनोहरम् ।। १४८ ॥ कलशादर्श गारयावारादिरमाकुलम् । संधृपधूमगंधांध गझंकारकोमलम् ॥ १४९ ॥
इति मंडपनिर्मापणम् । पूते नवमतन्मध्यभागेऽर्हत्सवनांबुना । एकाद्यष्टांतहस्तासु नंदाद्याख्यासु वेदिषु ॥ १५० ॥ जायें चकचकाट कर रही हों चार दरवाजे हों उन दरवाजोंके ऊपर की चोटीपर चूनासे लेप किये गये आठ घड़े रक्खे गये हों ॥१४६॥ वह मंडप शोभायमान चंदनवारोंसे रमणीक हो, माणिक्य आदि पांचरत्नोंसे जड़े हुए कपड़ेसे पूजित हो यानी जरी ( सलमासितारा ) के बने हुए चंदोएसे चमक रहा हो, मोतियोंके झूमका-हार-मालाओंसे तथा कांसे आदिकी | बनी हुई घंटरियोंसे बहुत प्रकाशमान हो । घिसे हुए चंदनकी छींटोंसे युक्त, पुष्पोंसे || शोभायमान, मोतियोंके सांतियोंकी रचनासे तथा अनेक रंगोंकी रचनाओंसे शोभित हो। कलश (घडा ) दर्पण, झाडी, बोये हुए जौके अंकुर, छत्र चमर आदि सामग्रीसे सुंदर हो,
काले अगर आदिकी बनी हुई दशांग धूपके धुंआंकी सुगंधीसे मस्त हुए भ्रमरोंकी झंका-18 ॥रध्वनीसे रमणीक होना चाहिये ॥१४७ ॥१४८ ॥१४९॥
___ इस प्रकार मंडप वनाने की विधि समाप्त हुई। आगे वेदी बनानेकी विधि बतलाते हैं-अर्हतविंबके गंधोदकसे नौमा मंडपको
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
26
गायथास्वमामेष्टिकाभिः कार्या व्याससमायतिः। वेदीव्यासपडंशोच्चा चतुरस्रेशदिकालवा।।१५१ml प्र०स०
भाल्टी ||शिलान्यासवदत्रार्थी कृत्वा पंचाममृद्धटान् । आक्रमंतीष्टिकाभिर्यद्गतानुगतिकैव सा॥१५२॥ इति वेदीनिवर्तनम्।
अ०१ हापूतमृद्गोमयक्षीरवृक्षत्वकाथहस्तया। समाय॑ प्रोक्ष्य लेप्यासौ स्नातालंकृतकन्यया ॥१५३॥
इति वेदीलेपनविधानम् । मध्यका भाग पवित्र करके उसकी आठों दिशाओंमें नंदा १ सुनंदा २ प्रभा ३ सुप्रभा || ४ मंगला ५ कुमुदा ६ पुंडरीका ७ इंद्रावेदी ८-इस तरह आठ वेदी एक हाथ चौड़ाईस लेकर आठहाथ तक मंडपके अनुसार कच्ची ईटोंसे वनवावे, चौड़ाई के समान लंबाई रक्खे,
चौड़ाईसे छठे भाग उंचाई रक्खे तथा ईशानकोणमें कुछ नीची रक्खे-इस प्रकार चौकौंन । हवेदीं वनवावे ॥१५० ॥१५१ ॥ यहांपर शिला रखनेकी तरह पूजा करे और पांच कच्चे ॥ मिट्टीके घड़े रक्खे ॥ यह पांच घड़े रखनेकी रीति परंपरासे जानना ॥१५२ ॥ इस प्रकार । मावदी वनानेकी विधि पूर्ण हुई । अब वेदीके लीपनेकी विधि कहते हैं-नदीके किनारेकी W/वामी आदिकी पवित्र मट्टी, पृथ्वीपर नहीं गिरा हुआ पवित्र गोवर और ऊमर आदि वृक्षोंकी छालका वनाया काढा-इन तीनोंको हाथमें लियें स्नान आभूषणसे तयार ऐसी कन्याओंसे उस वेदीको झड़वाकर और प्रोक्षणमंत्रपूर्वक जलसे छिड़कवाकर लिपवाना || १ ओं क्षा क्षीं छू ा क्षः प्रोक्षणजलाभिमंत्रणम् ।
॥१७॥
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
984
त्रयोदशांगुलोद्देशे तुर्यवेद्यास्तु कारयेत् । हस्तमात्राणि पीठानि दिवन्यासां यथोचितम् १५४ प्राग्मंडपसमं वेदीकणिमात्राध्वसंगतम् । ईशानदिशि निर्माप्य मंडपं तत्र कारयेत् ॥ १५५ ॥ वेदीं तस्यैव चार्धेन त्रिभागेणाथवा मिताम् । भांडद्धास्तोरणाद्यैश्च भूषयेन्मूलवेदिवत् १५६ इति उत्तरवेदीनिवर्तनं ।
चाहिये ॥ १५३ ॥ ओं क्ष्रां इत्यादि टिप्पणीमें मंत्र देखलेना । इस प्रकार वेदी लेपनकी विधि | जानना | ईशानकोणकी वेदीको छोड़कर सातवेदियोंके आगे तेरह २ अंगुल जमीन छोड़के पूर्वादि चारों दिशाओंमें जयादि आठ देवियोंके पूजनके लिये चार छोटीं वेदीं वनावे | और वीचकी वेदीसे ईशान दिशाकी तरफ छोटा मंडप वनवावे, और उस मंडपके तीसरे भाग प्रमाण उत्तर वेदी वनवावे और उसे मूलवेदी की तरह ध्वजा छत्र तोरण आदिसे सजावे ॥ १५४ ॥ १५५ ॥ १५६ ॥ इस तरह उत्तरवेदाकी रचना हुई । इसके बाद वह इंद्र स्वच्छ क पड़े माला आभूषण और चंदनका लेप-इन वस्तुओंसे सजा हुआ प्रतींद्र और प्रतिष्ठा | करानेवाले दाताके साथ हाथी या घोड़े की सवारीपर चढके प्रतिष्ठाके पहले दिन सरोवर | पर जावे। जिसके साथमें, श्रेष्ठ पत्तोंसे ढके हुए दूव दही अक्षत से पूजित फलसे भरे हुए कंठमें मालायें डाले हुए मजबूत नवीन ऐसे घडोंको ऊपर रखनेवालीं सजीं हुईं प्रसन्नचित्त ऐसीं कुलीन स्त्रियां जा रहीं हो । और सब साधर्मी भाई तथा छत्र वाजे धुजा वगैरः से घिरा हुआ जगतको आश्चर्य करता वह इंद्र शांतिके लिये जौ और सरसोंको मंत्रसे मंत्रित करके
1
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
प्र० साल अथेद्रो दिव्यवस्त्रसग्भूषागोशीर्षसंस्कृतः । प्रतींद्रदातृयुग्धुर्यं गजं वाश्वमधिष्ठितः॥ १५७ ॥मा०टी० सत्पल्लवच्छन्नमुखान दूर्वादध्यक्षतांचितान्। फलगर्भानवान् कुंभान दृढान कंठलुठत्स्रजः१५८॥
अ०१ बिभ्रतीभिः सुवेशाभिः सहर्षाभिः पुरंधिभिः । सर्वसंघेन च वृत्तश्छत्रतौर्यत्रिकध्वजैः१५९ है विश्वं विस्मापयन् शांत्यै सर्वतो यवसर्षपान् । मंत्राभ्यस्तान किरन् गत्वा प्रतिष्ठामाग्दिने सरः ।।
तस्मै दत्तार्घमाधाय तत्तीरे वास्तुवद्विधिम्। आह्वाननादिविधिना प्रसाद्य जलदेवताम्॥१६१॥ पूरयित्वा जलैरास्यस्थापितश्यादिदेवतान् । ताभिरेव पुरंध्रीभिर्महाभूत्या तथैव तान १६२॥ | कुंभानानाय्य संस्थाप्य चैत्यगेहे सुरक्षितान् । तथैवोत्तरकृत्याय दातृमंदिरमाश्रयेत्॥१६३॥
इति जलयात्राव्यावर्णनम् । चारों तरफ वखेर रहा हो ॥१५७। १५८॥१५९ । १६० ॥ उस सरोवरको अर्घ देकर उसके किनारे पहलेकी तरह आह्वानादि विधिसे जलदेवताको प्रसन्न करे॥१६१॥ उसके वाद उन घडोंको जलसे भरकर उनके मुखमें श्रीआदि देवियोंका स्थापनकर उन्हीं कुलीन स्त्रियोंके ऊपर | रक्खे और उन घड़ोंको लाकर जिनमंदिरमें अच्छी तरह स्थापन करे। उसके बाद आगेकी | क्रिया करनेके लिये यजमानके घरपर आवे ॥ १६२ । १६३॥ इस प्रकार जलयात्राविधि पूर्ण । हुई । उसके वाद यजमान और वे इंद्र स्नान तथा पूजा करके साधर्मी भाइयोंको स्वादिष्ट
१ओं ढूंडूं फट् किरिटि घातय २ परविन्नान् स्फोटय २ सहस्रखंडान् कुरु २ परमुद्राणिछद २ परमंत्रान् भिंद |२क्षः क्षःहूं फट् स्वाहा । इति मंत्रः ।
लन्कन्छन्
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्रेद्रा यजमानश्च स्नात्वाभ्यार्हतोखिलम् । लोकं संतj भुक्त्वेष्टं सुस्वाद्वन्नं हितं मितमा कृतारात्रिकमांगल्याः स्वारूढवरवाहनाः । तां यागभूमि गच्छेयुः सयज्ञांगपरिच्छदाः १६५४ अभीष्टसिद्धिरस्त्वेवं वादिन्याः पथि सुस्त्रियाः। पाणिपात्रात्फलादींद्रो गृह्णीयाच्छकुनेच्छया। चैत्यालयप्रवेशादिविधि प्राग्वद्विधाय ते । कृत्वा गुरोबृहत्सिद्धयोगभक्ती तदाज्ञया ॥१६७॥ विधोपवासमादाय बृहदाचार्यभक्तितः। प्रणम्य चरणद्वन्द्वं तस्य गृह्णीयुराशिषः ॥१६८ ॥
इति उपवासादानविधानम् । हितकारी भोजन करावें तथा आप भी जीमें ॥१६४॥ पुनः मंगलदीपकसे आरती किये | हे गये तथा अपनी २ उत्तम हाथी घोडा आदि सवारियोंपर बैठे हुए यज्ञांग और परिवार ||
सहित वे इंद्रादिक उस यज्ञभूमिके पास जावें ॥१६५॥ मनो वांछित अर्थकी सिद्धि हो ऐसा रस्तेमें कहतीं हुई सौभाग्यवती स्त्रियोंके हाथसे शुभ शकुन होनेकी इच्छा करके फल लेवें । ॥१६६ ॥ वे इंद्रादिक चैत्यालयप्रवेश, परिक्रमा देना, ईयापथ शोधन, स्तुति पूजा इत्यादि विधि पहलेकी तरह करके गुरुकी आज्ञासे वृहत् सिद्ध भक्ति योग भक्ति करें ॥ १६७ ॥ फिर जलके छोडनेके सिवाय तीन प्रकार त्यागरूप उपवास करके तथा वृहत् आचार्य भक्ति करके गुरूके चरणकमलोंको नमस्कार करें और उनका आशीर्वाद ग्रहण करें ॥१६८॥ इस प्रकार उपवास ग्रहणविधि कही । इस प्रकार वे इंद्रादिक अपनी शुद्धिके लिये एकांतमें ? मंत्रस्नानादि करके पंच नमस्कार मंत्र एकसौ आठ वार जपें। उसके ॐ ह्रां आदि निसीही
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथो रहः पुरा कर्म कृत्वा जप्त्वापराजितम् । स्वशुद्धयेष्टाग्रशतं निगदंतो निषेधिकाम् ॥१६९॥ भाण्टी. प्र०सा० हयागभूमि प्रविश्येंद्रा जिनानभ्यर्च्य भक्तितः। सिद्धानत्वा महर्षीणां विदध्युः पर्युपासनम्॥
अ०१ ततो याजकयष्टारो दध्युश्चंदनचर्चिताः । वराः सजो नवाऽस्यूतशुचिवस्त्राण्यलंकृतीः१७१॥ यज्ञदीक्षाध्वजं विभ्रत्सौधर्मेंद्रोऽथ मंडपम् । प्रतिष्ठयेत् सपतींद्रो वेदी चोद्धृत्य मंडलम् १७२॥
इति प्रतिष्ठामहोद्योगः। वेद्यामालिख्य चूर्णेन पंचवर्णेन कार्णकाम् । बहिःषोडशपत्राणि चतुर्विंशतिमन्वतः ॥१७३॥ मंत्रको तीनवार बोलें ॥ १६९ ॥ फिर वे इंद्र यागस्थानमें प्रविष्ट होकर भक्ति सहित अर्ह ||६||
तकी पूजा करके व सिद्धोंको नमस्कार करके आचायोंकी पूजा करें ॥ १७० ॥ उसके वाद। ६ इंद्र और यजमान चंदनसे छांटी हुई उत्तम चंपा चमेली आदिकी पुष्पमालायें विना सिले ४ नये शुद्ध कपडे और आभूषण धारण करें ॥ १७१ ॥ अनंतर सौधर्म इंद्र प्रतींद्र सहित यज्ञ-18 दीक्षाके चिन्ह मौंजी बंधन आदिको धारण करके वेदीपर मांडला बनाके मंडपकी प्रतिष्ठा करे ॥ १७२ ॥ इस प्रकार प्रतिष्ठाका महान उद्योग करे । उस वेदीमें पांच रंगके चूर्णसे वीचमें कर्णिका बनाकर बाहर सोलह पत्तोंवाला आकार बनावे। उसके चारों तरफ पत्तोंवाला उसके वाद बतीस कमल पत्रोंवाला आकार खींचे और बाहर वज्रके चिन्ह || वनावे तथा चार कोनोंमें चार दरवाजे हों ऐसी वेदीकी रचना करे ॥ १७३ । १७४ ॥ कई
ओं ह्रीं ह्रीं ह्रौं हः अहे णमो अरहंताणं णिसिहिए स्वाहा । इति णिसीहीमंत्रः ।
ललन्छन्
॥१९॥
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
७००००
1
द्वात्रिंशतमतः पद्मान वहिर्वज्रांकितैर्युताम् । कोणैश्चतुर्भिः सचतुर्दिग्द्वारां वेदिमा लिखेत् ॥ १७४॥ | जयाद्यष्टदलान्येके कर्णिकावल याद्बहिः । मन्यंते वसुनंयुक्तसूत्रज्ञैस्तदुपेक्ष्यते ॥ १७५ ॥ | काश्मीरादिशुभ द्रव्यलिखिताखंडमंडलम् । नवं चंद्रोपकं चोर्ध्वं तयोर्वेद्योर्वितानयेत् ॥ १७६ ।। | हेमापामार्गदर्भान्यतमकृप्तशलाकया । चूर्णाकीर्णे वेदिपृष्टे वर्तयेद्यागमंडलम् || १७७ ॥ भूर्जे गंधेन चालिख्य क्ष्मा पीठाक्षरं तथा । प्रणवं दक्षिणे भागे वामे सं सविसर्गकम् १७८ विद्वानोंका ऐसा कहना है कि कर्णिकाकी गोलाईके बाहर जया आदिके आठ पत्र बनावे परंतु वसुनंदि आचार्य कथित प्रतिष्ठा सिद्धांतके जाननेवाले उस वचनको नहीं स्वीकार करते। क्योंकि उनका मानना अज्ञानताको लिये हुए है ॥ १७५ ॥ यागमंडल और ईशान वेदी- इन दोनोंके ऊपर नया चंदोआ बांधै । उस चंदोवेमें केशर आदि शुभ द्रव्योंसे यागमं - डल अभिषेकमंडल लिखा हो ॥ १७६ ॥ उस वेदीके पिछाड़ीके भागपर सोना अपामार्ग और डाभ इनमेंसे किसी एककी सलाई बनाकर उसमें रंग भर के वेदीके पृष्ठभागमें यागमंडलको लिखै ॥ १७७ ॥ फिर भोजपत्रपर घिसे हुए चंदन कपूर मिश्रित उस सलाईसे क्ष्माह ऐसा मध्यबीज लिखे, दाहिने भाग में ओं लिखे वाएं भागमें सः लिखे उसके ऊपर भागमें अहं लिखे उसे ओं णमो अरहंताणं ह्रौं स्वाहा इस मूलमंत्रसे घेर दे । उसके बाद ओं अहं आदिमें तथा स्वाहा अंतमें है जिसके ऐसे केवलिमंत्रको अर्थात् ओं अर्ह अर्हत्सिद्धसयोगिकेवालभ्यः स्वाहा इस मंत्र को लिखै ॥ उसके चारों तरफ नंद्यावर्तचक्र, यवचक्र और ओं आदिमें
2500000.00 100000peec
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
-CE
८
प्र०सा०
॥२०॥
तस्याहं बीजमूर्ध्वं च मूलमंत्रेण वेष्टयेत् । ततः केवलिमंत्रेण स्वाहांतोमर्हमादिना ॥ १७९॥ भान्टी० चक्रेण नंद्यावर्तानां यवानां चोंमुखेन च । चत्तारीत्यादिना स्वाहांतेनाब्जांतश्च तन्न्यसेत् १८०
अथ यागमंडलोद्धरणम् । यथार्हवर्णचूर्णीधैर्यस्याने क्षेत्रपं दिशि । ईशस्य वास्तुदेवादीन् न्यस्यातःकोणशो द्विशः १८१ स्वाहा अंतमें ऐसे चत्तारि इत्यादि टिप्पणीमेंसे देखकर लिखै। उस लिखे यंत्रको कमलके मध्यभागमें रक्खे ॥१७ । १७९ । १८०॥ अब यागमंडलका उद्धार बतलाते हैं। यथायोग्य रंगके अनुसार चूर्णसे आग्नेय दिशामें क्षेत्रपालका स्थापन करे, ईशानकोणमें वास्तुदेवका 9 पुंज रखे, चारों कोनोंमें वायुकुमार मेघकुमार अग्निकुमार आदिके पुंज रखे और कोंनोंके 8 |आगे दो २ वज्र बनावे । तथा अपने २ मंत्रोंसे कमलके मध्यमें स्थित पंचपरमष्टी आदिकी|| पूजा करे। उसके बाद सोलह विद्यादेवी चौवीस जिनमाता बत्तीस इंद्रादिकोंका पत्रमें
१ओं नमो अरहंताणं ह्रौं स्वाहा । मूलमंत्रः। ओं ह्रीं अर्ह अहत्सिद्धसयोगिकेवलिभ्यः स्वाहा । केवलिमंत्रः। ओं अर्ह नंद्यावर्तवलयाय स्वाहा । नंद्यावर्तवलयस्थापनं । ओं अहं यववलयाय स्वाहा । यववलयस्थापनम् । ओं चत्वारि मंगल अरहंतमंगलं सिद्धमंगलं साहुमंगलं केवलिषण्णत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगात्तमा अरहंतलोगोत्तमा सिद्धलोगोत्तमा साहुलोगोत्तमा केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा । चत्तारि सरणं पव्व जामि अरहंत सरणं पव्वजामि सिद्धसरणं पव्बज्जामि साहुसरण पव्वज्जामि केवलिपण्णत्ता धम्मो सरणं पव्वजामि स्वाहा। इति मंगललोकोत्तमशरणमंत्रः २ वास्तुदेवका सफेद, वायुकुमारका हरा, मेघकुमारका काला, अग्निकुमारका लाल पुंज होता है । ईशाम दिशासे
6 ॥२०॥ आरंभ करे।
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
वज्रान् स्वमंत्रैः पद्मातः परब्रह्मादिकान् यजेत् । ततश्च विद्यादेव्यादीन् नस्य पत्रादिषु क्रमात् १८२ चत्वारि मंगलादीने वाणादित्रितयं शिला । भट्टासनं च संस्थाप्यं ततो वेद्यां यथोचितम् १८३ | पीठेषूत्तरवेद्यां च वर्तयित्वा यथायथम् । मंडलानि विधानेन वक्ष्यामाणेन चार्चयेत् १८४
इति मंडलार्चनम् ।
इति सूत्रितमाध्यायन विधिं सम्यक्कृतक्रियः । श्रद्दधानो यथाशास्त्रं जिनविंवं प्रतिष्ठयेत् १८५ ।। या त्रिसंध्यं दिने द्वे वा चत्वारीष्टाधिवासना । यथात्मविभवं कार्या सादेशाद्यनुरोधत: १८६ | स्थापन करके क्रमसे पूजे ॥ १८१ । १८२ ॥ पुनः यागमंडलकी वेदीमें यथायोग्य छत्रादि आठ, आयुधादि आठ, पताका आठ और कलश आठ - इस तरह चार मंगलादि; वाण | सरसों जौके अंकुर - ये तीन चारों कोनोंमें तथा चंदनादि घिसनेकी शिला और सोने चांदी | चंदन पीपल आदि क्षीरवृक्षका काठ इत्यादिका बनाया हुआ पट्टारूप गर्भावतार कल्याणके | लिये भद्रासन - ये सब वस्तुएं रक्खे ॥ १८३ ॥ उत्तर वेदी ( ईशान वेदी ) व जन्माभिषेक | वेदीपर मांडला खींचकर आगे कहे जानेवाली विधिसे पूजा करे ॥ १८४ ॥ इस प्रकार मंडलकी पूजा कही गई । इस तरह याजकाचार्य शास्त्रमें कही गई विधिको विचारता हुआ गर्भ जन्मादि संबंधी क्रिया अच्छी तरह करता हुआ शास्त्रानुसार श्रद्धान करता हुआ। | जिनप्रतिमाको प्रतिष्ठित करे ॥ १८५ ॥ गुरुके उपदेशके अनुसार तीनों संध्या व एक दिन दो दिन चार दिनतक पूजा होम जपादिक क्रिया शक्तिके मार्फिक करे ॥ १८६ ॥ जिन
POGO 000
DODODO.00POGO-GO
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
रुकन्छन्
प्र०साततः कृत्वाभिषेकादि यज्ञदीक्षां विसृज्य च । मूलदीक्षास्थितः कुर्यादाचार्योऽवभूथक्रियाम्॥ | भा०टी० देवे क्षेत्रादितीर्थे च नियुज्यार्थं स्वशक्तितः। नत्वेन्द्रं स्वं समास्मै दातागंतूंश्च संवदेत् १८८|2|| ०१
इति जिनप्रतिष्ठाविधानम् । सिद्धचक्रं गणधरवलयं प्राय॑ तदिशा। सारस्वतादियंत्रं च सिद्धार्चादि प्रतिष्ठयेत् ॥ १८९॥ जीर्णचैत्यालयोद्धारे प्राक्तने चैत्यमंदिरे । अपूर्वा प्रवेशे च यथाई शांतिमावहेत् ॥१९॥
___ इति शेषप्रतिष्ठाविधानम् । बिंब प्रतिष्ठाके वाद प्रतिष्ठाचार्य अभिषेकादि यज्ञकी दीक्षा ( वेश) को छोड़कर श्रावक |व्रतरूप मूल दीक्षामें स्थित हुआ पंचगुरु भक्ति शांतिपाठ विसर्जनादि क्रियाको करे|| ४॥ १८७ ॥ वह दाता यजमाम अपनी सामर्थ्यके अनुसार जिनविंबके निमित्त, क्षेत्र घर कुआ वगीचा आदि धर्मसाधनोंके निमित्त धनको लगाकर और इंद्र (प्रतिष्ठाचार्य ) को नम-10 स्कारपूर्वक शक्तिके अनुसार धन देकर आये हुए सज्जनोंको यथायोग्य संतोषित करे१८८॥ |इसप्रकार जिनविंब प्रतिष्ठाविधि पूर्ण हुई । उसके बाद जिनप्रतिष्ठाशास्त्रोंमें कथित रीतिसे सिद्धचक्र गणधरवलयकी पूजा करके तथा सारस्वत श्रुतस्कंध आदि यंत्रको पूजकर |सिद्ध आचार्य आदिकी प्रतिमाको प्रतिष्ठित करे ॥ १८९॥ जीर्ण (पुराने ) जिनमंदिरकेश उद्धारमें अथवा पुराने जैनमंदिरमें अपूर्व प्रतिमाके आगमनमें यथायोग्य शांतिविधान करे ॥१९०॥ इस प्रकार शेष सिद्धादि प्रतिमाकी प्रतिष्ठाविधि जानना। मैंने (आशाधरने)
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
एतत्सूत्रं हब्धमैतिबदृष्टया ग्रंयार्थाभ्यां धारयन् यः सुधीमान् ।
निर्मातीन्द्रः कर्म निर्देक्ष्यमाणं सार्हस्थाशाधरैः पूज्यतेसौ ॥ १९१ ॥ इत्याशाधरविरचिते प्रतिष्ठासारोद्धारे जिनयज्ञकल्पापरनाम्नि सूत्रस्थापनीयो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥१॥ अनादि सिद्धांतोंको जानकर इस सूत्ररूप प्रतिष्ठाविधिको रचा है। जो अति बुद्धिमान इस ग्रंथके शब्द और अर्थको धारणकर याजकाचार्य हुआ आगे कहे जानेवाली प्रतिष्ठाविधिको करता है वह इंद्र दानपूजादिकर्मवाले उत्तमगृहस्थपनेको चाहनेवाले सवृहस्थोंसे नमहस्कारादिद्वारा आदरणीय होता है ॥ १९१ ॥
इसप्रकार पंडितवर आशाधरविरचित जिनयज्ञकल्प द्वितीयनामवाले प्रतिष्ठासारोद्धारमें सूत्रस्थापनीय नामा पहला अध्याय समाप्त हुआ ॥१॥
-
-
१ दानपूजाप्रतिष्ठाजिनयात्रादिकर्मनिष्ठः सदृहस्थः तस्य भावः कर्म ना ।
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र० सा०
॥ २२ ॥
X22
द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
अथातस्तीर्थोदकादानविधानमनुवर्णयिष्यामः -
दत्वा पद्माकराया वास्तुदेवाय चावनीम् । संमा वायुभिर्मेधैः प्रोक्ष्य पूत्वाग्निनोरगान् ॥ १ ॥ इष्टोद्धतार्चिते साष्टदलाब्जे मंडलेथवा । सैकाशीतिपदे न्यस्य शांत्यै संस्नापयेऽर्हतः।। २ ।।
दूसरा अध्याय ॥ २॥
इस सूत्रस्थापनके वाद जलयात्राविधि अनुवादरूपसे कहते हैं; --सरोवरको और वास्तुदेवको अर्घ देकर वायुकुमार देवोंके आह्वाननसे भूमिको साफकर मेघकुमार देवोंके आह्वाननसे छिड़ककर अभिकुमार देवोंके आह्वाननसे अग्नि जलाकर साठ हजार नागोंको पूजकर अष्टकमल पत्रवाले मांडलेमें लघुशांतिकर्म करके तथा इक्यासी कोठोंवाले मांडलेमें वृहत्शांतिविधान करके मैं अर्हतका अभिषेक करता हूं ऐसा कहता हुआ अर्हतका अभिषेक करे ॥ १ ॥ २ ॥ फिर शांतिकर्म आरंभ करनेके लिये सरोवर के किनारे पुष्पांजलि
भा०टी०
अ० २
॥ २२ ॥
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
शांतिकर्मोपक्रमाय सरस्तीरे पुष्पांजलिं क्षिपेत् । यत्पद्मामृतलंभनासुमनसां मान्योसि दिक्चंक्रमत् कल्लोलोस सदा यदाश्रितवतां संतापहंतासि यत् । लोके यद्यपि तावतैव वदसे क्षीरोदवत्त्वं जिनस्नानीयेन तथापि तद्वदुदकेनायोसि कासार नः॥३॥
ॐ हीं पद्माकरायाधै निर्वपामीति स्वाहा । वास्तुदेवाद्यभ्रमंत्रा वक्ष्यते । मध्ये दिक्ष्वहतोन्यान् प्रदधदधिविदिक् तांत्रिशो मंगलादीन्
संसारात्यक्षणाप्तस्फुटमहिमभरं धर्ममूर्ध्वं शिवानाम् । ||कैंके और आगे कहे जानेवाले यत्पद्मामृत इत्यादि श्लोकको पढकर ॐ ह्रीं बोलकर सरोवर ( तालाव ) को जलसे अर्घ देवे ॥ वास्तुदेवादिके अर्थमंत्र आगे कहेंगे ॥३॥ उस मंडलकी ४ पूर्वादि चार दिशाओंमें सिद्ध आचार्य उपाध्याय सर्व साधुओंका स्थापन करे, विदिशाओंमें 2 मंगल लोकोत्तम शरण इन तीनोंको लिखे, सिद्धोंके ऊपर अत्यंत महिमावाले धर्मको स्थापन करे और आठ पत्रोंपर जयादि आठ देवियोंका स्थापन करे और दश दिशाओं में दश ६ विकस्वामियोंको रक्खे, सोमद्वारपालके ऊपर भागमें सूर्यादि नौग्रह स्थापन करे । वह मंडलचौकोन और चार दरवाजेवाला होना चाहिये ऐसा मंडल कल्याणकारी है। ऐसा
कसलन्स
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
॥२३॥
अ०२
लन्डन्न्लन्टन्छ
Poona
भाण्टी० पत्रेष्वष्टौ जयाया दशसु दिगधिपान दिक्षु सोमस्य चोर्चे सूर्यादीन साश्रिसद्वारहमिह शुभदं मंडलं वर्तयामि ॥४॥
इति पुष्पांजलिः। अष्टाविंद्रादिपीगनि यथास्वं दिक्षु कल्पयेत् । शेषसोमासने चेन्द्रपाशि दक्षिणपार्श्वयोः ॥५॥ अथवा-मध्ये मध्यवदंबुजेष्टसु बहिः पूर्वस्य पत्रस्थवद्रोहिण्याचमरीधिरष्टसु दधद्यक्षीस्त्रिरष्टस्वपि देवेंद्रश्चितुरष्टसु मतिदिशं दिक्पालकानगुनकान वनाग्रेषुततोग्रहानपि लिखाम्यत्रेष्टकृन्मंडलम् || कहकर पुष्पांजलि क्षेपै ॥ ४ ॥ अब शांति विधानके लिये द्वितीय मंडल कहते हैं-आठ दिशाओंमें आठ इंद्रादिकोंके आसन यथायोग्य कल्पना करे और धरणेंद्र व सोम इन दोनों के आसन इंद्र और वरुणकी दाहिनी तरफ कल्पना करे ॥ ५॥ अथवा वृहत् शांतिक मांडलेका विधान कहते हैं-मांडलेके मध्यभागमें पहलेकी तरह अष्टदल कमल बनावे उनमें पंच परमेष्टी, मंगल, लोकोत्तम, शरण,ये आठ लिखै। उसके वाद सोलह पत्रोंपर रोहिणी आदि सोलह विद्या देवता स्थापन करे । चौवीसपत्रापर चक्रेश्वरी आदि चौवीस शासन देवता ( यक्षी ) ओंको, बत्तीस कोठोंमें देवेंद्रोंको (यक्षोंको) स्थापन करे । हर एक दिशामें , दिपालोंको और वज्रोंके अग्रभागमें सूर्यादि नवग्रह लिखे-इस तरह इस सरोवरकेर X ॥२३॥ किनारे वृहत शांतिक मंडलका स्थापन करता हूं जोकि इष्टका देनेवाला है ऐसा कहकर । पुष्पांजलि क्षेपण करे॥६॥ पूजा करने में हर्षित हुआ नागेंद्र इत्यादि श्लोकसे पिसे हुए
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुष्पांजलि: ।
नागेंद्रचूर्णेन सितेन रैदपीतेन नीलप्रभनीलकेन ।
भक्ताभरक्तेन लिखासिताभकृष्णेन सन्मंडलामष्टिहृष्टः ॥ ७ ॥
चूर्णपंचकस्थापनं ।
| अथाधिवास्य चिद्रूपमित्यादिविधिना परम् । ब्रह्मार्हदादीन धर्म च मध्ये मंडलमर्चयेत् ॥ ८ ॥ पुष्पांजलिः ।
प्रत्यर्थिव्रजनिर्जयानिशलसद्धीवीर्यदृक्शर्मणो लोकेषु त्रिषु मंगलोत्तमविपत्राणोल्बणानात्यवत्धर्मचब्रुवतोभिदावदधतो यानुत्किरत्यात्मनो लोकेशानहमर्हितानघभिदेभ्यहमि तानर्हतः॥ ९ ॥ | | ॐ ह्रीँ अरिप्रमथनाद्रजोरहस्यनिरसनाच्च समुहिन्नानंतज्ञानादिचतुष्टयतया शक्रादिकृतामनन्यसंभ| विनीमर्हणामर्हतां मंगललोकोत्तमशरणभूतानामर्हत्परमेोष्टिनामष्टतयीमिष्टिं करोमीति स्वाहा ॥ १ ॥
पांच रंगोंको स्थापन करे। यह चूर्ण पांचका स्थापन जानना ॥ ७ ॥ उसके वाद निश्चयनयसे ( अभेद बुद्धिसे ) " चिद्रूपं ” इत्यादि आगे कहे जानेवाले श्लोकको पढकर कर्णि - कामें पुष्पांजलि क्षेपै और " स्वामिन् संवौषट् " इत्यादि आगे कहे जानेवाले श्लोकको | पढकर आह्वानन स्थापन सन्निधीकरण- इन तीनोंको करके अर्हतादिकी पूजा करे ॥ ८ ॥ उन अर्हतादिकोंकी पूजाके अर्ध कहते हैं । " प्रत्यर्थि " इत्यादि नवमां श्लोक पढकर फिर
1
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
भसा०
भाण्टी
अ०२
9000000000000000
सामोदैः स्वच्छतोयैरुपहिततुहिनश्चंदनैः स्वर्गलक्ष्मी लीला(रक्षतौधैर्मिलदलिसुगमरुद्गमैनित्यहृयैः । नैवेधैर्नव्यजावूनदमदमकैर्दीपकैः काम्यधूमस्तूपै पैमनोक्षग्रहिभिरपि फलैः पूजयेत्राईदीशान् ॥ १० ॥ प्रत्येकार्पितसप्तभंग्युपहतैर्धभैरनंतैर्विधिधाच्याभेदतदत्ययैरनुगते न्यक्षेपि लक्ष्ये सदा । तुल्येऽस्मिन् बहिरेतदुद्यतमचिद्रूपं विधातन् समं
भोक्षन् मंगललोकवर्यशरणान्येतर्हि सिद्धान् यजे ॥११॥ ओं ह्रीं सामग्रीविशेषविश्लेषिताशेषकर्ममलकलंकतया संसिद्धिकात्यंतिकविशुद्धविशेषाविर्भावादभिन्यक्तपरमोत्कृष्टसम्यक्त्वादिगुणाष्टकविशिष्टां उदितोदितस्वपरप्रकाशात्मकचिच्चमत्कारमात्रपरमंत्रपरमानंदैकमयीं निष्पीतानंतपर्यायतयैकं किंचिदनवरतास्वाद्यमानलोकोत्तरपरममधुरस्वरसभरनिर्भरं कौटस्थामओं ह्रीं कहकर पुष्प चढावै। फिर “ सामोदैः' इत्यादि श्लोक पढकर अर्हतको जलादि अष्ट द्रव्य चढावै ॥९॥१०॥ फिर “प्रत्येकार्पित" यह श्लोक कहकर ओं ह्रीं इत्यादि पढकर पुष्प चढावै। उसके वाद"सामोदैः" यह कहकर सिद्धपरमेष्टीको अर्घ चढावे॥११॥१२॥
बालकन्सन्स
॥२४॥
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामोदैः....
न्छन् छलछलका
हाधिष्ठितां परमात्मनामासंसारमनासादितपूर्वामपुनरावृत्याधितिष्ठतां मंगललोकोत्तमशरणभूतानां सिद्धपरमेष्ठिनामष्टतयामिष्टिं करोमीति स्वाहा ।।
....................फलैः पूजये सिद्धनाथान् ॥ १२ ॥ व्यक्ताशेषश्रुतोपस्कृतिकाषितमस्कांडगंभीरधीरस्वांताः षट्त्रिंशदुच्चैः स्फुरदसमगुणाः पंच मुक्त्यै स्वयं ये । आचारानाचरंतः परमकरुणया चारयंते मुमुक्षून्
लोकाग्रण्यः शरण्यान् गणधरवृषभान् मंगलं तान्महामि ॥ १३ ॥
ओं हूं व्यवहाररत्नत्रयावधानसमुद्भिद्यमाननिश्चयरत्नत्रयैकलोलीभावमनुभवंतमानंदसाद | शुद्धस्वात्मानमभिनिविशमानानामपि स्वस्वरूपोपलब्धिप्रेयसीदृढतरपरिरंभसुखाभिलाषुकमुमुक्षुवर्गानुग्रहैकसर्गायमाणांतःकरणानां मंगललोकोत्तमशरणभूतानामाचार्यपरमेष्ठिनामष्टतयामिष्टिं करोमीति स्वाहा । सामोदैः.
.................... पूजये धर्मसूरीन् ॥ १४ ॥ उसके वाद " व्यक्ताशेष" इत्यादि श्लोक पढकर " ॐ हूं" इत्यादिसे आचार्यपरमेष्ठीको हा पुष्पांजलि क्षेपण करे फिर “सामोदैः" इस श्लोकको बोलकर आचार्यपरमेष्टीको जलादि अष्ट द्रव्यसे अर्घ चढावे ॥१३॥१४॥ फिर " सांगोपांग" इस श्लोकको पढकर “ओं ह्रौं"
जन्मन्छन्
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
अ०२
..
.
प्र०सा० सांगोपांगागमज्ञाः सुविहितमहिताः सूक्तियुक्तिमपंच
भा०टी० विद्यानिष्पंदतृष्णावरलितमनसः प्रीणयंतो विनेयान् । ॥२५॥
कीर्ति धर्माय लोकोत्तरगतिकृपणायासकृत्कोपयंतः
ख्याता मांगल्यलोकोत्तमशरणतया येर्चयेऽध्यापकांस्तान् ॥ १५॥
ॐ हौं निरंतरघोरदुःखावर्तविवर्तनचतुर्गतिपरिवर्तनार्णवतूर्णनिस्तीर्णमनोरथरथमहारथमनस्कारविJAI नेयवारप्रवचनानुशासनव्यसनानामपि योगसुधारसायनाभ्याससन्निकृष्यमाणाजरामरत्वपर्यायमहिम्नां मंग-2
ललोकोत्तमशरणभूतानामुपाध्यायपरमेष्ठिनामष्टतयीमिष्टिं करोमीति स्वाहा । सामोदैः.
......................पूजये पाठकेन्द्रान् ॥ १६ ॥ सर्वज्ञो यज्ञविद्याहृदयपरिचयपोच्छलनिर्विकल्प
प्रत्यग्ज्योतिः प्रतिष्ठान्यदुरधिगमयुद्गमोद्गारनिष्ठान् । अन्योन्यस्पर्धमानत्रिदि शिवपदश्रीकटाक्षच्छटैनी
चिन्मूर्तिं बिभ्रतोत्र्यान् शरणमिह यजे मंगलसर्वसाधुन् ॥१७॥ इत्यादिसे उपाध्याय परमेष्ठीको पुष्पांजलि क्षेपै पुनः “ सामोदैः” इस श्लोकको बोलकर उपाध्यायपरमेष्ठीको जलादि अष्ट द्रव्य चढावे ॥१५॥१६ ॥ उसके वाद “ सर्वज्ञो" यह हैं| ॥२५॥ श्लाक बोलकर “ओं हः" इत्यादिसे सर्वसाधुपरमेष्ठीको पुष्पांजलि अर्पण करे फिर ॥
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
ॐ ह्रः वैस्रसिकपरमाचिन्मयविश्वैश्वर्यपदापहारकठोर कर्मदुष्कर्मशात्रवशक्तिशातनोत्सिक्तचिच्छक्तिव्यंजकप्रकाम
दुर्लक्षव्यतिरेकक्षेत्रज्ञाशांतरप्रवेशदुर्ललितबुद्धयनुबंधप्रवर्धमानसद्ध्यानसमिद्ध सहजानंदा
| मृतरसास्वादनावधीरितपरममुक्तिसंपत्प्रियासमागमोत्कंठानां मंगललोकोत्तमशरणभूतानां सर्वसाधुपरमेष्ठि - | नामष्टतयीमिष्टिं करोमीति स्वाहा ।
सामोदैः.
.. पूजये साधुसिंहान् ॥ १८ ॥
एवं मध्येऽर्हतो दिक्षु च चतुरः सिद्धादीनभ्यर्च्य विदिक्षु भित्वा कर्मगिरीनित्यादिमत्रैश्चत्वारि मंगलानि लोकोत्तमान् शरणानि चार्थैः संभाव्य सिद्धोपरि धर्मस्येत्थं पूजां कुर्यात् । अत्रांत प्रतिबंधकव्यपगमैकांत स्फुटञ्चित्कलारूपेणापि जगत्यचिंत्यचरितस्तंतन्यते येन ना ।
“ सामोदैः " इसे पढकर सर्वसाधुपरमेष्ठीको जलादि अष्ट द्रव्य चढावे ॥ १७१८ ॥ इस प्रकार मांडलेके बीचमें अर्हतको, चार दिशाओंमें सिद्धादि चार परमेष्ठियोंको पूजै और विदिशाओं में " भित्वा कर्मगिरीन् " इस आगे कहे जानेवाले श्लोकमंत्र से चार मंगल चार लोकोत्तम चार शरणको असे पूजकर सिद्ध परमेष्ठीके ऊपर स्थापित धर्मकी इस प्रकार पूजा करै । वह इस तरह है कि पहले “ अश्रांत " इत्यादि श्लोक पढै उसके बाद ओं ह्रीं " से धर्मको पुष्प क्षेपण करे फिर " सामोदैः " इस श्लोक से जिन धर्मकी जलादि
66
1121
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र० सा०
॥ २६ ॥
ness Co
यत्सर्वस्वरसाय योगिपत यो प्याशासतें त्यक्षणं
तच्छ्रेयो यदनुग्रहश्च वृषमप्यचामि तं तद्गुणम् ॥ १९ ॥
ॐ ह्रीं भेदभावना नियतिनिर्मितां प्रादेशिकीमप्यभेदरूपतां योगविशेषसौष्ठवटंकेन विष्वद्रीचीमुत्कीर्य विश्रांतस्य मंगललोकोत्तमशरणभूतस्य केवलिप्रज्ञप्तधर्मस्याष्टतयीमिष्टिं करोमीति स्वाहा । | सामोद :.... ....... पूजये जैनधर्मम् ॥ २० ॥
एष व्यासेन पूजाविधिः, समासेनात्र पुनमैगलाद्यर्घान् पृथक् न दयात् ॥ एवमर्हदादीनभ्यर्च्य शरच्चंद्रमरीचिरोचिषतश्चेतसि चिंतयन्ननादिसिद्धमंत्राभिमंत्रित कर्पूर हरिचंदनद्रवाभिलुलितसुरभिशुभ्रपुष्पांज| लिभिरेकविंशतिवारानधिवास्य पूर्णार्घदानेन बहुमानयेत् ।
मी पंच जिनेन्द्रसिद्धगणभृत सिद्धांत दिसाधवो मांगल्यं भुवनोत्तमाश्च शरणं तद्वज्जिनोक्तो वृषः ।
अष्ट द्रव्यसे पूजा करे ॥ १९/२० ॥ यह विस्तारसे पूजाविधि कही गई है । यदि संक्षेपमें करना हो तो मंगलादिकके अधैँको जुदा न चढावे । इस प्रकार अर्हतादिकोंको पूजकर निर्मल चंद्रमाकी किरणके समान प्रकाशमान अर्हतका अपने मनमें ध्यानकर ( मेरा आत्मा भी अद्वैत स्वरूप है ऐसा चितवनकर) अनादि सिद्धमंत्र से मंत्रित कपूर मिले हुए घिसे हुए मलयागिरिचंदनसे छांटे गये सुगंधित पुष्पोंकी अंजलि लेकर इक्कीसवार पूर्णार्घ देकर
भा०टी०
अ० २
॥ २६ ॥
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
जन्न्न्न्कन्सन्कन्छन्
अस्माभिः परिपूज्य भक्तिभरतः पूर्णार्घमापादिताः संघस्य क्षितिपस्य देशपुरयोरप्यासतां शांतये ॥ २१ ॥
___ पूर्णार्धम् । ४ इत्यार्चिताः परब्रह्मप्रमुखाः कर्णिकार्पिताः। संतु सप्तदशाप्येते सभ्यानां शमशर्मणे ॥२२॥ 2 ततश्च जयादिदेवतागणान् वक्ष्यमाणक्रमेणोपचर्य सूर्यादिग्रहान् सोमदिक्पालोपरि व्यवस्थाप्य विधिवत् पूजयेत् । तथाहि
रक्तस्तुल्यरुगंबरादियुगिनः श्वेतः शशी लोहितो
भौमो हेमनिभौ बुधामरगुरू गौरः सितश्चासिताः। मंडलकी पूजा करे । उस समय “तेमी" इत्यादि श्लोक पढे ॥ २१ ॥ उसके बाद " इत्यचिंता" यह आशीर्वाद श्लोक पढे ॥ २२॥ उसके वाद जया आदि देवताओंको कहेजानवाले क्रमसे पूज करके सूर्यादि नवग्रहोंको सोमदिक्पालके ऊपरभागमें स्थापन करके विधिपूर्वक पूजे । उसीको वतलाते हैं-सूर्यका रंग लाल है और वस्त्र चमर छत्रविमान भी लाल हैं, चंद्रमाका वर्ण सफेद है, मंगलका लाल वर्ण है, बुध और बृहस्पतका रंग सुवर्णके ? समान है, शुक्रका रंग सफेद है, शनि, राहु और केतु-ये तीनों काले रंगके हैं। इन ग्रहोंको
१सूर्यादि राहुपर्यंत ग्रहोंको आठ दिशाओंमें स्थापन करे बुध और बृहस्पतिके मध्यमें केतुका आसन स्थापित करे
कन्ज्ज्जन्मन्ब्न्लान्लन्छन्
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
भाण्टी०
॥
२७॥
अ०२
कोणस्थातनुकेतवो जिनमहे हुत्वेह पूर्वादितः
सोमोर्धेधिकुशं निवेश्यमुदमाप्यते सवर्णार्चनैः ॥ २३ ॥ पूर्वादिदिक्षु सवर्णाक्षतपुंजान् स्थापयित्वा तदुपरि सूर्यादीनां क्रमेण कुंकुमाद्यक्तदर्भासनानि विन्यसेत् -
इति दर्भन्यासविधानम् । प्रारब्धाः फणियक्षभूतक्रतुभिर्देहार्तिवित्तक्षतिः
स्थानभ्रंशरसाद्यसाम्यविपदस्तत्कल्पनाकल्पतः । जिन प्रतिष्ठोत्सवमें आह्वानन कर सोम दिक्पालके ऊपरभागमें दर्भ रखकर पूर्वावि दिशा-15
ओंमें स्थापन कर समान वर्णकी पूजन द्रव्यसे पूजे तो आनंदमंगल प्राप्त होते हैं ॥२३॥ है उनके समान रंगवाले अक्षतके पुंजोंको रखकर उनके ऊपर सूर्यादिके क्रमसे कुंकुमादि रंगे-हा हुए दर्भ ( दाभ ) के आसनोंको रखे । भावार्थ-सूर्यके लिये उत्तम केसरसे दाभको रंगे,||| चंद्रमाके लिये चंदनसे, मंगलके लिये सिंदूरसे, वुध वृहस्पतके लिये हलदीसे, शुक्रके लिये चंदनसे और शनि राहु केतुके लिये कस्तूरसेि रंगे । इस प्रकार दर्भ रखनेकी विधि वर्ण-15) नकी गई ॥ नागकुमारदेव शरीरपीडा करते हैं, यक्षदेव धन हरते हैं. भूतदेव स्थानभृष्ट | करते हैं, राक्षसदेव धातुवैषम्य करते हैं इसलिये नागकुमारादिकी स्थापना करके पूजनेसे पूर्वोक्त सब विघ्न दूर हो जाते हैं तथा सूर्यादिग्रहोंकी पूजा करनेसे कापालिक भिक्षु वर्णी ||
लन्छन्
॥२७॥
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
Sornन्छन्झन्जकल
येष्विष्टेषु च तापसादिषु शमं यांत्याशयित्वार्चिते
ध्वातन्वंतु गुरुप्रसादवरदास्तेर्कादयो वः शिवम् ॥ २४ ॥ कुमारदीक्षितेष्वेकतममर्चयतां रुजः । कुजः कुष्याद् ग्रहाः शेषाः सवर्णेषु जिनेषु वः ॥२५॥ आदित्यादीनां सपर्याविध्यनुवादमुखेन प्रभावख्यापनाय प्रतिदिशं पुष्पोदकाक्षतं क्षिपेत् ।
ग्रहाः संशब्दाये युष्मानायात सपरिच्छदाः।।
अत्रोपविशतैतान् वो यजे प्रत्येकमादरात् ॥ २६ ॥ आवाहनादिपुरस्सरं प्रत्येकजोपक्रमाय पुष्पांजलिं क्षिपेत् । संन्यासी आदिकर किये गये उपद्रव शांत होते हैं । ऐसे गुरूके प्रसादसे वर देनेवाले है। सूर्यादि ग्रह तुम भव्योंका कल्याण करें ॥ २४ ॥ अथवा बाल ब्रह्मचारी वासुपूज्य मल्लि नेमि पार्श्व महावीर-इन पांचोंमें किसी एकको पूजनेसे मंगल ग्रह रोग शांत करता है। और ग्रहोंके समान वर्णवाले तीर्थंकरोंमेंसे किसी एकको पूजनेसे वाकी अन्य ग्रह भी। रोगोंका नाश करते हैं ॥ २५ ॥ सूर्यादि ग्रहोंकी पूजाविधिके द्वारा प्रभाव वतलानके लिये शासव दिशाओं में पुष्प जल अक्षतोंको क्षेपण करे। अब आह्वानादि पांच उपचारोंसे उनकी । पूजा दिखलाते हैं-हे सूर्यादि ग्रहो! हम तुमको बुलाते हैं, तुम सपरिवार आओ, यहां तिष्ठो, तुम सबको हम आदरसे पूजते हैं । यहां पर आह्वानन स्थापन सनिधीकरण पूजन
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
до ато
.
अ०
सम्रन्छन्डन्न्डन्सन्स
ऊर्ध्वं विस्तीर्णमंशान् वसुजलधिमितान् योजनस्यैकषष्ठान्
भाधी० मुक्त्वाष्टौ तच्छतानि क्षितिमनिलधृतं खेसृहस्तैश्चतुर्भिः । पूर्वाद्याशानुपूर्व्या पृथगिभभिदिमोक्षार्वदेवैर्विमानं स्वारूढो नीयमानं दशशतशरदन्वीतपल्योत्तमायुः ॥ २७ ॥ त्वं तोष्टा तापसेष्टया कमलकरहरिद्वाहनेता ग्रहाणां नैवेद्यैः सानुगोर्केधनगृतपरमानोधसर्पिगुंडायैः । गंधैः पुष्पैः फलैश्चोत्तमघुमृणजपापकनारंगपूर्वै
स्ताक्षश्चाक्षताद्यैरिह हरिहरिति प्रीणितः प्रीणयास्मान् ॥ २८॥ ये चार उपचार कहे गये हैं विसर्जन पूजाके वाद होता है। इस तरह पांच उपचार पूजाके सब जगह जानना चाहिये ॥ २६ ॥ इस प्रकार हर एककी पूजाके आरंभमें आह्वा-12 ननादि करनेके समय पुष्पांजलिका क्षेपण करना चाहिये । अब सूर्यादिकी पूजाविधि कहते हैं-पहले “ ऊर्व " इत्यादि और “ त्वं तोष्टा" इत्यादि-ये दो श्लोक पढकर “ हे ||आदित्य" कहकर आह्वानन स्थापन सन्निधीकरण करे, उसके वाद “ओं आदित्याय "|
इत्यादि बोलकर जलादि आठ द्रव्य चढावे । आकके ईधनसे पकाई हुई खीर ताजा गौका || ॥२८॥ माघी गुड लाडू वगैरः नैवेद्यसे पूजै तथा अग्निमें आहूतियां दे जिसके लिये यह पूजाकर्म
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
जन्न्न्न्न्न
| हे आदित्य आगच्छ आदित्याय स्वाहा आदित्यानुचराय स्वाहा आदित्यमहत्तराय स्वाहा अग्नये| हास्वाहा अनिलाय स्वाहा वरुणाय स्वाहा सोमाय स्वाहा प्रजापतये स्वाहा ओं स्वाहा भूः स्वाहा भुवः । स्वाहा स्वः स्वाहा ओं भूर्भुवः स्वः स्वधा स्वाहा ओं आदित्याय स्वगणपरिवृताय इदमय पाद्यं गंधं || पुष्पं धूपं दीपं चरुं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतामिति ? स्वाहा । इत्यादित्याह्वाननं । “यस्यार्थे क्रियते कर्म स प्रीतो नित्यमस्तु मे । शांतिकं इत्यादि ।
तद्धिबादुरुविंबमष्टभिरितो भागैश्चरद्योजनाशीत्योर्ध्व तदिवाब्दलक्षयुतपल्लयोकायुरग्नेर्दिशि। शीतांशो सरलायकिंशुकसमित्सिद्धान्नदुग्धादिभि
स्त्वं कापालिकसत्क्रियाप्रिय इह घाय ग्रहाग्रप्रभो ॥२९॥ हे सोम आगच्छ सोमाय स्वाहा । करता हूं वह देवता मेरे ऊपर हमेशा प्रसन्न रहे । ऐसा अंतमें सव जगह कहना चाहिये ॥ २॥२८॥ इस प्रकार सूर्यकी पूजाविधि हुई । " तद्विंबादुरु' इत्यादि श्लोक पढकर हा“ हे सोम" इत्यादिसे आह्वानादि करे फिर पूर्व कही ओह्रींमें “ आदित्याय" की जगह
“ सोमाय " बोलकर जलादि आठ द्रव्य चढावे ॥ देवदारुकी लकडीका चूरा घी ढाककी लकडीसे पकाया अन्न दूध-इन सबको मिलाकर आहूतियां अग्निमें दे, यह सोमकी पूजा
ड
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
भान्टी०
॥१९॥
अ०२
ब्यूने विंबमितोंकयोजनशते क्रोशार्धमात्रं क्षितेबर्बाह्यं द्विद्विसहस्रकेसरिमुखैभिक्षुप्रियः शूलभूत् । पल्यार्धायुरपाक्कुजात्र खदिराभृष्टैर्गुडाजोत्कटैः
संतुष्टो यवसक्तुभिघृतयुतदुर्गादिभिधूप्यसे ॥३०॥ हे अंगारक आगच्छ अंगारकाय स्वाहा ।
विंचं खं शशिनोष्टयोजनमतीत्योर्ध्वव्रजजवत्
क्रोशार्धप्रमितं कुजस्थितिरितो वर्णीष्टिमुत्पुस्तकम् । हुई । २९ ॥ “ न्यूने” इत्यादि श्लोक पढ़कर “हे अंगारक" इत्यादिसे आह्वाननादि तीन || करे फिर ओं ह्रींमें “ अंगारकाय” लगाकर जलादि आठ द्रव्य चढावे । इसमें खैरकी लकड़ीसे भुने हुए गुड घीसे मिले हुए जौके सत्तुओंसे तथा गूगुलं घी राल इलाइची अगुरु आदिकी धूपसे दक्षिण दिशामें आहूतियां दे। इससे मंगलदेव प्रसन्न होता है ॥ ३०॥ यह मंगलकी पूजा हुई । “ विंबं" इत्यादि श्लोक पढकर “हे बुध" इत्यादिसे आह्वाननादि । करे फिर ओह्रींमें “बुधाय" लगाकर जलादि अष्ट द्रव्य चढावे। इसकी पूजामें ब्रह्मचारीको | अष्ट सिद्धि मिलती है। अपामार्गकी लकडीसे भातको बनाकर उसमें दूध डाले ऐसा नैवेद्य बनावे तथा राल घीकी धूपसे पश्चिमदिशामें आहूतियां दे यह बुधकी पूजा हुई
॥२९॥
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
लन्डन्न्लन्टन्छ
बिभ्र त्वं विधुजोपवीतयुगपामार्गंधसिद्धौदन
क्षीरं सर्ज रसाज्यधूपमजगो रक्षोदिशि स्वीकुरु ॥ ३१॥ हे बुध आगच्छ बुधाय स्वाहा । तच्चाराद्रसयोजनैरुपरि या तद्वद्विमानं मनागूनकोशमितः सपुस्तककमंडल्वक्षसूत्रोब्जगः। पल्यैकायुरिहोपवीतरुचिरोरस्कःपरिवाडतः प्रत्यक् पिप्पलपकपायसहविधूपैर्गुरोऽभ्यर्च्यसे३२ हे बृहस्पते आगच्छ बृहस्पतये स्वाहा ।
सौम्याश्वेध्युषितस्त्रियोजनमतिक्रांतेभ्रयानं तथा प्रेर्य क्रोशततं त्रिसूत्रफणभृत्पाशाक्षसूत्रैः स्फुरन् । प्रीतः पाशुपते सवर्षशतपल्यायुः प्लवस्थो मरुत
काष्ठायां गुडफल्गुपाचितयवानाज्यैः कवे पूज्यसे ॥ ३३ ॥ हे शुक्र आगच्छ शुक्राय स्वाहा । ॥ ३१ ॥ “ तच्चारा” इत्यादि श्लोक पढकर " हे बृहस्पते” इत्यादिसे आह्वानादि करे फिर ओंडीमें "वहस्पतये"लगाकर जलादि द्रव्य चढावे यहांपर पश्चिमदिशामें पीपलकी लकडीसे बनी हुई खीरमें गौके घीसे मिश्रित धूप डाले उससे आहूतियां देवे । यह वृहस्पतकी पूजा || हुई ॥ ३२ ॥“सौम्याश्वे" इत्यादि श्लोक बोलकर “हे शुक्र इत्यादिसे आह्वानादि करे फिर
न्
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
O
TO
लन्डन्न्छ
माष्टी.
॥३०॥
अ०२
क्रोशा पृथुयोजनैखिमिरुपर्यभैः कुजान्मंडळ तद्नंतृगतोईपल्यपरमायुष्कत्रिसूत्रीयुतः। नीतस्तृप्तिमुदकशमींधनशृतैर्मास्तिलैस्तदुलै
रालाज्यागुरुणेज्यसे श्रवणमुझेपालपूज्यः शने ॥ ३४ ॥ हे शनैश्चर आगच्छ शनैश्चराय स्वाहा ।
त्यक्तारिष्टदरोनयोजनततस्वव्योमपानध्वज
चत्वारि व्रजदंगुलान्यहरहः षष्ठे च मास्दवम् । |ओह्रींमें "शुक्राय' जोडकर जलादि द्रव्य चढावे । यहां वायव्यविशामें फल्गुकाष्ठसे भुने || हुए जौ गुड घी मिलाकर अग्निमें आहुति दे। यह शुक्रकी पूजा हुई ॥ ३३॥ “क्रोशार्द्ध " इत्यादि श्लोकको पढकर “हे शनैश्चर" इत्यादिसे आह्वानादि करे फिर ओह्रींमें “शनैश्चराय"|| लगाकर जलादि अष्ट द्रव्य चढावे । यहांपर शमीकी लकडी उरद तिल चांवल | तथा राल घी अगुरुकी धूपसे आहूतियां दे। इस प्रकार शनैश्चरकी पूजा हुई ॥३४॥ " त्यक्त्वा " इत्यादि श्लोक पढकर “ हे राहो" इत्यादिसे आह्वानादि करे फिर ओह्रींमें || “ राहवे" लगाकर जलादि अष्ट द्रव्य चढावे। यहां दूवके ईधनसे पकाया गया काला किया गया गेहूं आदिका चून तथा दूध घी लाख इनकी धूपसे अग्निमें आहूतियां दे॥
न्
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंबं छादयिता तदंशुनिवहै राहो द्विजा महो
दूर्वापिष्टपयोघृताक्तजतुधूपेनेशदिश्यय॑से ।। ३५॥ हे राहो आगच्छ राहवे स्वाहा।।
षष्ठे षष्ठ उपेत्य मासि तपनस्येंदोस्तमोविंबवद्विबादिबमधश्चरन्मलिनयत्रंशद्धमैस्तद्वियत् । दर्शातेधिवसनिहोर्ध्वदिशि तत्केतो सकुल्माषकं
स्फूर्जत्केतुसहस्रदेह सकुशं विल्वाड्यधूपं भज ॥ ३६॥ हे केतो आगच्छ केतवे स्वाहा।
एते सप्तधनुःप्रमाणवपुरुत्सेधा नवापि प्रहाः
शश्वञ्चंद्रबलाबलाप्यसदसदानस्फुरद्विक्रमाः । यह राहुकी पूजा हुई ॥३५॥ “षष्ठे " इत्यादि श्लोक पढकर “हे केतो" इत्यादिसे आह्ना
नादि करे फिर ओह्रींमें " केतवे" लगाकर जलादि अष्ट द्रव्य चढावे । यहां कुल्माष (कुहालथी) के चूनको दर्भके ईधनसे पकावे तथा घी मिले हुए कच्चे वेलकी धूपसे आहूतियां दे।
यह केतु ग्रहकी पूजा दुई ॥३६ । उसके वाद " पते "इत्यादि श्लोक पढकर “ओं ह्रीं"IRI
उन्न्न्न्क न्सन्छन्द
-
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
भा०टी०
अ०२
सत्कृत्योपहृतामिमामिह महे पूर्णाहुतिं मामुत
प्रीतिं व्यक्त च यष्ट्रयाजकनृपादीष्टप्रदानाद् द्रुतम् ॥ ३७॥
पूर्णाहुतिः । ओं ह्रीं ह्रः फटू आदित्यमहाग्रह अमुकस्य शिवं कुरु २ स्वाहा । एवं सोमाशादिष्वपि योज्यम् ।
हुत्वा स्वमंत्रचितमंबुनि सप्तसप्तमुष्टिप्रमाणतिलशालियवं प्रसत्तिम् । नीता घृतप्लुतसमिद्भिरथामिकुंडे एकादशस्थवदवंतु सदा ग्रहा कः ॥ ३८॥
आशीर्वादः । इति ग्रहपूजाविधानम् । अथात्र मंडले स्नपनपीठे निवेश्य जिनचतुर्विशतिं प्रागुक्तविधिना स्नपयेत् । लध्वेषोष्टदळे शांतिकर्मैकाशीतिके वृहत् । मंडले ख्याप्यतां कल्पो यथा ध्यानं तु तत्फलम्॥३९॥ इत्यादिसे पूर्ण आहूति दे। हर एक ओहीमें ग्रहोंके नाम तथा यजमानका नाम अवश्य लगाना चाहिये ॥३७॥ फिर 'हुत्वा' इत्यादि आशीर्वाद श्लोक पढे फिर सात सात मुठी प्रमाण तिल शालिचांवल जौ इन तीन धान्योंको जलमें क्षेपणकर घृतसे लिपटी हुई लकडीसे अग्निमें | आहूतियां दे ॥ ३८॥ इस प्रकार नव ग्रहकी पूजा जानना ॥ उसके वाद उस मांडलेमें ? अभिषेकके सिंहासनपर चौवीस तीर्थकरोंका स्थापन करके पहले कही हुई विधिसे अभि-॥३१ क करे ॥ लघुशांतिकर्म आठपत्रके मंडलपर और वृहत् शांतिकर्म इक्यासी कोठोंके ।
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
72222
Dodecore
ते मंत्रविद्यथानात मुक्तेनुक्ते तु कर्मणि । युंज्याद्यथार्ह विज्ञानामनुत्पत्त्यै शमाय च ॥ ४० ॥
इति शांतिकर्मविधानं । अथातो जलाशयमुपसद्य सुपवित्रपात्रे वर काश्मीरकर्पूरादिना कार्णिकायां ॐ ह्रीं अर्ह श्रीपरब्रह्मणेनंतानंतज्ञानशक्तये नमः इति लिखित्वा पूर्वाद्यष्टदलेषु क्रमेण ओं ह्रीं श्रीप्रभृतिदेवताभ्यः स्वाहा १ ओं ह्रीं गंगादिदेवीभ्यः स्वाहा २ ओं ह्रीं सीताविद्धमहाह ददेवेभ्यः स्वाहा ३ ओं ह्रीं सीतोदाविद्धमहाहददेवेभ्यः स्वाहा ४ ओं ह्रीं लवणोदकालोदमागधादितीर्थदेवेभ्यः स्वाहा ५ ओं ह्रीं सीतासीतोदामागधादितीर्थदेवेभ्यः स्वाहा ६ ॐ ह्रीं संख्यातीत समुद्रदेवेभ्यः स्वाहा ७ ॐ ह्रीं माफिक मिलता है अर्थात महाफल देता है और बड़ा देता है ॥ ३९ ॥ वह
| मंडलपर यथायोग्य करे । उसका फल: ध्यानके लघुशांतिकर्म भी सम्यक ध्यान से कियाजाय तो शांतिविधान भी थोडे ध्यानसे किये जानेपर थोडा फल बुद्धिमान इंद्र शास्त्रकथित रीतिले तीर्थोदकादानविधिमें कहे गये लघु वृहत् शांतिविधान कर्मोंको अग्रिम विघ्नोंकी अनुत्पत्ति और पूर्वविघ्नोंकी शांतिके लिये यथायोग्य करे ॥ ४० ॥ इस प्रकार शांतिकर्मका विधान कहा गया । अब उसके वाद जलाशय ( सरोवर नदी ) के किनारे जाकर धोये हुए नवे थालमें उत्तम केशर कपूरसे अष्टपत्रकमलकी कर्णिका ( वीचभाग ) में " ओं ह्रीं अर्ह " इत्यादि लिखकर पूर्वादि आठ पत्रोंपर क्रमसे “ओं ह्रीं श्री " इत्यादि आठ मंत्र लिखकर तीनवार मायाबीजकी ईकारमात्रासे वेष्टितकर क्रोंकार अंतमें
८०९
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा० लोकाभिमततीर्थदेवेभ्यः स्वाहा ८ ॥ इति विलिख्य निर्मायामात्रया परिक्षिप्य कोंकारेण निरुध्य बहिः भाल्टी
21 मुखमूलवपोपेतपत्रपद्मांकितः सितः । पववर्णाकदिक्कोणः कलशस्तोयमंडलम्" ।। इत्येवं लक्षणं । ॥३२॥
IN अ०२ वरुणमंडलं चालिख्य परब्रह्मार्चनपुरस्सरं पत्रेषु जलदेवताः स्वस्वमंत्रपूतजलादिभिरुपचरेत् । तद्यथा ।
तब्रह्मचिन्मयसुधारसपूरभोक्तृ वाक्यामृताछुतजगद्विधिपूर्वमेतत् ।
- अगंधतंदुललतांतचरुपदीपधूपप्रसूनकुसुसजलिभियजेस्मिन् ॥ ४१ ॥ I ॐ ह्रीं अर्ह श्रीपरमब्रह्मणेऽनंतानंतज्ञानशक्तये इदं जलं गंधमक्षतान् पुष्पाणि चरुं दीपं धूपं || फलं पुष्पांजलिं च निर्वपामीति स्वाहा । लिखे । उसके बाहर जलमंडल लिखकर श्री परब्रह्म अर्हतका पूजन करे, फिर आठ पत्रोंपर आठ प्रकारके जलदेवताओंका पूजन अपने २ मंत्रसे मंत्रित पवित्र जलादि द्रव्योंसे करे ॥ जलमंडलकी विधि इसतरह है कि पहले आठ पत्रका कमल बनावे उसके आगे कलशका ४ आकार लिखे उसके मुखभागपर कमल खींचे उसके मध्यभागमें पत्रके ऊपर वकार लिखे उसके वाद कलशके नीचे भागपर कमल बनावे उसके मध्यपत्रमें पकार लिखे । कलशका वर्ण सफेद है, उस कलशकी चारों दिशाओं में पकार लिखे, बाहरके भागमें चारकोनोंमें वकार लिखे-इस प्रकार वरुणमंडल (जलमंडल) जानना। अब अष्टदल कमलपत्रकी पूजाविधि कहते हैं-" तद्ब्रह्म " इत्यादि श्लोक पढकर “ओं ह्रीं" इत्यादिसे
॥३२॥ परम ब्रह्म अर्हत देवकी जलादि अष्ट द्रव्यसे पूजा करे॥४१॥"पद्मादि" इत्यादि श्लोक पढकर
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
पद्मादिदिव्यहृदवारिविभूतीभोत्री श्रीपूर्वदिव्ययुवतीर्विधिपूर्वमेताः
॥ ४२ ॥
अब्रूगंध ...... ओं ह्रीं श्रीप्रभृतिदेवताभ्यः इदं ..
..................
********.......
........
गंगादिदिव्यसरिदंबुविभृतिभोत्री गंगादिदैवतवधूर्विधिपूर्वमेताः ।
॥ ४३ ॥
अब् ..
ओं ह्रीं गंगादिदेवीभ्यः इदं .........
.... ****........
I
1
सीत्तातदुत्तरसरित्प्रणयि हृदांभो भोक्षन्महाहदसुरान् विधिपूर्वमेतान् ।
॥ ४४ ॥
अंब्...
ओं ह्रीं सीताविद्धमहाहृददेवेभ्यः इदं .........
............
I
सीतातदुत्तरसरित्प्रणयि हृदांभो भोक्षन्महाहदसुरान् विधिपूर्वमेतान् ।
.................. ॥ ४५ ॥
अबू.......
"ओं ह्रीं श्रीप्रभृति " इत्यादिसे पहले पत्रके ऊपर जलादि अष्टद्रव्य चढावे ॥ ४२ ॥ " गंगादि ” इत्यादि श्लोक पढकर "ओं ह्रीं गंगादि " इत्यादिसे जलादि अष्ट द्रव्य दूसरे पत्रपर चढावे ॥ ४३ ॥ “ सीता " इत्यादि श्लोक पढकर " ओं ह्रीं सीताविद्ध " इत्यादिसे तीसरे पत्रपर जलादि अष्टद्रव्य चढावे ॥ ४४ ॥ " सीता तदुत्तर " इत्यादि श्लोक पढकर
500005 20
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र० सा०
भा टी०
कन्कन्छन्
अ०२
अना
___ओं ही सीतोदाविद्धमहाह्रददेवेभ्य इदं............... ।
सिंधुप्रवेशपथतोयविभूति भोक्ष्यन् श्रीमागधादिविबुधान विधिपूर्वमेतान् ।
अब्................................................ ॥ ४६॥ __ओं ही लवणोदकालोदमागधादितीर्थदेवेभ्यः इदं ........ । सिंधुप्रवेशपथतोयविभूतिमोक्ष्यन् श्रीभागधादिविवुधान विधिपूर्वमेतान् ।
.................. ॥४७॥ ओं ह्रीं सीतासीतोदामागधादितीर्थदेवेभ्यः इदं...........।
संख्यातिगांबुनिधिनीरविभूति भोक्ष्यन् क्षारादिवारिधिसुरान विधिपूर्वमेतान्।
अब्................................................ ॥४८॥ ओं ह्रीं संख्यातीतसमुद्रदेवेभ्यः इदं ... ................ । “ओं ह्रीं सीतोदाविद्ध" इत्यादिसे चौथे पत्रपर जलादि अष्ट द्रव्य चढावे ॥ ४५ ॥
सिंधुप्रवेश" इत्यादि श्लोक पढकर “ओं ह्रीं लवणोद" इत्यादिसे पांचवें पत्रपर जलादि अष्ट द्रव्य चढावे ॥४६॥ " सिंधुप्रवेश" इत्यादि श्लोक पढकर “ओं ह्रीं सीतासीतोदा" इत्यादिसे छठे पत्र पर जलादि अष्टद्रव्य चढावे ॥४७॥ “ संख्यातिगां" इत्यादि श्लोक पढकर "ओं ही संख्या" इत्यादिसे सातवें पत्रपर जलादि अष्टद्रव्य चढावे ॥४८॥
कन्न्लन्छन्न्न्कन्सन्न्कन्सन्छन्
mastami
e
॥ ३३ ॥
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोकमसिद्धपुरतीर्थजलार्द्ध भोक्ष्यन् लोकेष्टतीर्थमरुतो विधिपूर्वमेतान् ।
अब्.................... ................... ॥४९॥ ओं ह्रीं लोकाभिमततीर्थदेवेम्य इदं...........स्वाहा । ___ एवं जलदेवताः प्रसाद्य तत्पूजां जलाशयमध्ये प्रविश्य मंत्रमिमं पठित्वा प्लावयेत् ।
ॐ" एतां भोक्योंबुभारानुरुहदसरितां श्यादिगंगादिदेव्यस्तीर्थानां मामधाद्या इम उदधिसुरास्तोयधीनामिमेमी । अन्येषां चार्पितार्घा निजनिजसलिलश्रीविलासैजिनेंदोभ-12 शक्तिपहाः प्रतिष्ठाभिषवमहकृते सारयंत्वेतदर्णः " ॥ ५० ॥
इति पूजाप्लावनमंत्रः । ततः शक्रास्तज्जलेन कलशान् पूरं पूरं तीरे प्रस्तीर्य चंदनस्रदूर्वादर्भादिमिरभ्यर्च्य तन्मुखेषु ,यादिमंत्रपूतं पल्लवफलं विन्यस्य कृतकलशोद्धारमंत्रोपहारोपस्कारानेतानेकशः स्वयमुद्धृत्योद्धृत्य तत्क्षणसंमानितपुरंध्रीपाणिपछेषु समर्प्य शेषकलशान्निजकरकमलैरुद्वहतो | Dil लोकप्रसिद्ध” इत्यादि श्लोक पढकर “ओं ह्रीं लोकाभिमत " इत्यादि कहकर ।
आठवें पत्रपर स्थित देवताकी जलादि अष्ट द्रव्यसे पूजा करे ॥४९॥ इसप्रकार जलदेवताओंको पूजासे प्रसन्न करके जलाशयमें घुसकर इस आगेके “ओं एतां " इत्यादि श्लोकमंत्रसे उस लिखित कमलपत्रका विसर्जन कर दे (छोड़ दे)॥५० ॥ उसके बाद वे इंद्र उस
Receneeeeeeeeeeee
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र० सा०
॥३४॥
गजादिवाहनान्यधिरुह्य महोत्सवेनाभिचैत्यालयमागच्छेयुः । ओं श्री ही धृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्मीशांति- ५) मा०टी० पुष्टयः श्रमद्दिकुमार्यो जिनेन्द्रमहाभिषेककलशमुखेष्येतेषु नित्यनिविष्टा भवत भवतेति स्वाहा । इति श्रयादिमंत्रः ।
अ० २
ॐ “ क्षीराब्धि सर्वतीर्थोदकमयवपुषा स्वैरमाक्रोशतोस्य क्षीरैः पद्माकरस्य प्रणयमुपगतान् शातकुंभीय कुंभान् । सानंदं श्रयादिदेवीनिचयपरिच योज्जृंभमाणप्रभावानेतानभ्युद्धरामो भगवदभिषवश्रीविधानाय हर्षात् ॥ ५१ ॥
इति कलशोद्धारमंत्रः । एतत्पठित्वा पुष्पाक्षतेनोपहार्य कलशानुद्धरेत् । इति तीर्थोदकादानविधानम् । अथ जिनयज्ञादिविधानान्यभिधास्यामः -
जलसे कलशोंको भरकर किनारेपर रक्खे फिर उनको चंदन; पुष्पमाला- दूव-दर्भ- अक्षत सरसोंसे पूजकर उनके मुखपर 'श्री आदि' मंत्रसे पवित्रित पत्ता व फल रखके कलशोद्धार मंत्र से पूजित कर एक एकको उठावे । फिर उसी समय सौभाग्यवती स्त्रियोंके हस्तकमलोंमें रखे और बचे हुए कलशोंको आप हाथमें लेकर हाथी आदिकी सवारीपर चढके महान उच्छवके साथ चैत्यालय ( जिनमंदिर) में आवैं ॥ " ओं श्री ” इत्यादि श्री आदि मंत्र है । " ओं क्षीराब्धि ” इत्यादि कलशोद्धार मंत्र श्लोक हैं ॥ ५१ ॥ ऐसा पढकर पुष्प अक्षतादि
"
0000000000
॥ ३४ ॥
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
4
.
.4
4
इंद्रश्चैत्यालयं गत्वा वीक्ष्य यज्ञांगसज्जनान् । योगमंडलपूजार्थं परिकर्माचरेदिदम् ॥५२॥ स्नानानुस्नानभागात्तधौतवस्त्रो रहः स्थितः । कृतेर्यापथसंशुद्धिः पर्यकस्थोऽमृतीक्षितः।।५३॥ दहनप्लावने कृत्वा दिव्यस्वांगेषु दिक्षु च । न्यस्य पंचनमस्कारान् प्रयुक्तगुरुमुद्रकः ।।५४॥ व्युत्सृज्यांग पूरकेण व्याप्ताशेषजगत्रयम् । शुद्धस्फटिकसंकाशं प्रातिहार्यादिभूषितम् ॥५५॥ अपादाश्रोनं नमद्विश्वं स्फूर्जतं ज्ञानतेजसा ! परमात्मानमात्मानं ध्यायन जम्वापराजितम्॥५६॥
क्षेपण कर कलशोंको उठाना चाहिये । इस प्रकार जलयात्राविधान वर्णन किया ॥ अब ३ जिनयज्ञादि विधियोंको कहते हैं-प्रतिष्ठाचार्य इंद्र चैत्यालयमें जाकर पूजा सामग्री और 2 श्रावकोंको देखकर यागमंडलकी पूजा करनेके लिये इस कहे जानेवाले अंगसंस्कारको करे । ॥ ५२ ॥ पहले तो जलसे स्नान करे; उसके बाद मंत्रस्नान करे; पुनः धुले हुए धोती डुपट्टे || का पहरे। उसके बाद एकांतमें स्थित होकर ईर्यापथशुद्धि करके पद्मासन लगाकर अमृतमंत्रसे ,
मंत्रित जलको अपने ऊपर छिड़के ॥ ५३॥ आगे कहे जानेवाली दहन प्लावन क्रियाओंको शकरके अपने अंगोंमें और दिशाओंमें पंच नमस्कारका न्यास करके पंचगुरुमुद्राको धारण करे ॥ ५४॥ पूरकवायुसे कायोत्सर्ग करके परमात्माके समान अपना ध्यान करे और नम-10 स्कार मंत्रको जपे। इसप्रकार परिणामोंकी शुद्धिसे पापोंका नाश कर पुण्यात्मा हुआ।
१ एते श्लोकाः वसुनंदिसैद्धांतिकाचार्यविरचितप्रतिष्ठासारसंग्रहेपि संति इति तद्रीतिमनुसृत्यात्रापि उद्धृता इति प्रतीयते।
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाण्टी.
अ०१
१० सालपरिणामविशुद्धयास्तपाप्मौषः पुण्यपुंजभाक् । ध्वस्तापायचयः कुर्याजिनयज्ञादिसंविधीन् ५७ ॥३५॥झं वं स्वरावृतं तोयमंडलद्वयवेष्टिवम् । तोये न्यस्याग्रतर्जन्या तेनानुस्नानमावहेव ॥ ५८॥
अर्धचंद्रपुटीरूपं पंचपत्रांबुजाननम् । नांतलांताप्तादिक्कोणं धवलं जलमंडलम् ॥ ५९ ॥ पृथग्विद्वयेकवाक्यांतमुक्तोच्छ्वासं जपेन्नव। वारान् गाथां प्रतिक्रम्य निषद्यालोचयेर्ततः॥६०॥
गुरुमुद्राग्रभू झं वं ह्रः पोहोभ्योमृतैः स्वके । स्रवद्भिःसिच्यमानं स्वं ध्यायन मंत्रमिमं पठेत् ॥६॥ हा विघ्नोंको दूर कर जिनेन्द्रदेवकी पूजादि क्रियाओंको करे ॥५५ । ५६।५७॥अब अनुस्नाना||दि क्रियाओंको कहते हैं-झं वं इन दो अक्षरोंको जलमंडलमें लिखकर उसको जलमें रखे। फिर तर्जनी अंगुलीसे जल लेकर अपने ऊपर डाले–यह मंत्रस्नान है ॥ ५८ ॥ जो अर्ध-18 चंद्रपुटी स्वरूप हो जिसका मुख पांचकमल पत्ररूप हो जिसके, दिशाओंके कोने “पव"IIA इन दो अक्षरोंसे व्याप्त हों और श्वेतवर्ण हो, वह जलमंडल है ॥ ५९॥ एक उच्छासमें तीन हवार इस तरह तीन उच्छासोमें नौवार मंत्रको जपकर "ईर्यापथे".इत्यादि श्लोक पढे ॥६॥
यह ईर्यापथशोधन किया है । गुरुमुद्राके अग्रभागकी भूमिमें 'झं वं ह्वः पोहः-'इन अमृत अक्षजारोंसे अपनेको सींचा हुआ समझ ध्यान करे । फिर इस “ ओं ह्रीं अमृते” इत्यादि मंत्रको INIपढता हुआ जलको शरीरपर छांट ॥६१ ॥ यह अमृतस्नान है ॥ त्रिकोण यत्रके कोनोंमें| Inaun
१ मंत्रस्नानम् । २ इयापथेशार्धनम् ।
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
ॐ हीं अमृते अमृतोद्भवे अमृतवर्षिणि अमृतं स्रावय स्रावय सं सं क्लीं २ ब्लू २ द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय २ सं हं इवीं क्ष्वी हं सः स्वाहा । इति अमृतस्नानम् । स्वस्तिकाग्रत्रिकोणांतर्गतरेफशिखावृतम् । अग्निमंडलमोकारगर्भ रक्ताभमास्थितम् ॥ ६२ ॥ सप्तधातुमयं देहं दहेद्रेफार्चिषां चयैः । सर्वांगदेशगैर्विष्वग्धूयमानैर्नभस्वता ॥ ६३॥ नाभिस्थसस्वरयष्टपत्राब्जांतरह रतः । दहेच्छिखौघैरुद्यद्भिरष्टकर्ममयं वपुः ॥६४ ॥ वृत्तात्सविंदोर्दिक्कोणस्वायागोमूत्रिकाकृतेः । कृष्णाद्वायुपुराद्वातैः प्रापद्भिःप्रेर्य भस्म तत्॥६५॥ ? व्योमव्यापिघनासारैः स्वमाप्लाव्यामृतस्रुतम् । खेहं ध्यायन् सृजेदेहममृतैरन्यपिदुंवत् ॥६६॥ सांथिया वनावे । उस यंत्रके अंदर रेफशिखासे वेष्टित ओंकारसहित लालवणेवाल, अग्निमंडलका चिंतन करे । फिर सात धातुमई देहको रेफकी ज्वालासे भस्म|| करे । नाभिमें स्थित सोलह कमलपत्रोंके मध्यमें स्थित अर्हके रेफकी शिखासे अष्टकर्म-R मयी शरीरको भस्म करे । यह दहनक्रिया है ॥ ६२ । ६३ । ६४॥ फिर गोलाकार बिंदुसहित वायुमंडलसे उस भस्मको दूर करे। उसके बाद “खे हं" इन दो अक्षररूपी
तजलसे अपनेको शुद्ध करके कायोत्सर्ग करे ॥६५॥६६॥ यह प्लावनक्रिया है। अब अंगन्यासीक्रया कहते हैं-दोनों हाथोंकी कनिष्ठा आदि अंगुलियोंमे 'ओं हां' आदि नम
१ दहनम् । २ प्लावनं ।
5
5
5
-47...
.
.
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
हा०
शाहस्तद्वये कनीयस्या द्वयंगुलीनां यथाक्रमम् । मूलं रेखात्रयस्योर्ध्वमग्रे च युगपत्सुधीः॥६॥मा०टी० न्यस्योंह्रामादिहोमाढयान्नमस्कारान् करौ मिथः। संयुज्यांगुष्ठयुग्मेन द्विस्तान् स्वांगेष्विति न्यसेत् || अ०२
___ओं हां णमो अरहंताणं स्वाहा हृदये १ ओं ह्रीं णमो सिद्धाणं स्वाहा ललाटे २ ॐ णमो ? आइरियाणं स्वाहा शिरसि दक्षिणे ३ ओं ह्रौं णमो उवज्झायाणं स्वाहा पश्चिमे ४ ओं हः णमो लोए सव-2 साहूणं स्वाहा वामे ५ पुनस्तानेव मंत्रान् शिरःप्राग्भागे शिरसि दक्षिणे पश्चिमे उत्तरे च क्रमेण विन्यसेत्।। तथा वामप्रदेशिन्यां न्यस्य पंचनमस्कृतीः। पूर्वादिदिक्षु रक्षार्थं दशस्वपि निवेशयत् ॥६९॥2
क्षांक्षी शं क्षे झै क्षों सौं क्ष क्षः क्षः कूटबीजानि रक्षार्थम् । वर्मितोऽनेन सकलीकरणेन महामनाः । कुर्वन्निष्टानि कर्माणि केनापि न विहन्यते ॥ ७० ॥ स्कार मंत्रको स्थापन कर दोनों हाथोंको जोड़कर दोनों अंगूठोंसे “ओं हां" इत्यादि । बोलकर हृदय आदि स्थानोंमें न्यास करे। यह अंगन्यास है ॥ ६७ । ६८ ॥ अब दिग्बंधन|क्रिया कहते हैं-उसके वाद बाएँ हाथकी तर्जनी उंगलीमें पंचनमस्कार मंत्रका न्यास (स्थापन ) कर रक्षाके लिये पूर्व आदि दिशाओंमें क्रमसे उसी उंगलीसे “क्षां" आदि दर्श अक्षरोंका न्यास करे ॥६९ ॥ इस सकलीकरणरूपी वख्तरको पहरे हुए जो मंत्रवाला||2||
॥३६॥ १'क्षा' आदि कूटाक्षरोंसे अथवा 'हां' आदि शून्य बीजसे दोनोंही प्रकारसे न्यास होता है । २ वामतर्जन्या दिशाबंधो विधेयः। प्रतिष्ठासारसंग्रहे हामित्यादिना शन्यबीजेनापि दिग्बंधो भवतीति लिखितमास्ते ।
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
ओं नमोऽर्हते सर्व रक्ष रक्ष हूं फट् स्वाहा । अनेन पुष्पाक्षतं सप्तवारान् प्रजप्य परिचारकाणां शीर्षेषु प्रक्षिपेत् ॥ इति परिचारकरक्षा । ओ हं फट् किरिटि २ घातय २ परविघ्नान् स्फोटय स्फोटय सहस्रखंडान् कुरु २ परमुद्रां छिंद२ परमंत्रान् भिंद २ क्षः क्षः हूं फट् स्वाहा। अनेन श्वेत-|| सिद्धार्थानभिमंत्र्य सर्वविघ्नोपशमनार्थ सर्वदिक्षु क्षिपेत् ॥ इति सकलीकरणविधानम् । इतो जिनय-2 ज्ञादिविधानं ।
व्योमीपगाद्युत्तमतीर्थवारां धारा वरांभोजपरागसारा ।
तीर्थकराणामियमंघ्रिपीठे स्वैरं लुठित्वा त्रिजगत् पुनातु ॥ ७१ ॥ इष्ट कर्मीको करता है, उसके कोइ विघ्न नहीं आता ॥ ७० ॥ “ओं नमो" इत्यादिसे पुष्पअक्षतोंको सात वार पढकर पूजाके सहायकोंके ऊपर क्षेपण करनेसे उनको कोई भी विघ्न नहीं होताहै । इस प्रकार परिचारकोंकी रक्षा वर्णनकी।“ओं हूं" इत्यादि मंत्रसे सफेद सरसोंको
१ इतः पूर्व प्रतिष्ठोसाराक्तपाठः क्षिप्यते-णमोअरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं ॥१॥ चत्तारि मंगलं अरहंतमंगलं सिद्धमंगलं साहुमंगलं केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं ॥२॥ चत्तारि लोगोत्तमा अरहंतलोगोत्तमा सिद्धलोगोत्तमा साहुलोगोत्तमा केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा ॥३॥ शचत्तार सरणं पव्वजामि · अरहतसरणं पव्वज्जामि सिद्धसरणं पव्वज्जामि साहुसरणं पव्वज्जामि केवलिपण्णत्तो धम्मो मरणं पव्वज्जामि ॥ ४ ॥ ओं नमो अईते स्वाहा । अपवित्रः पवित्रो वा सुस्थितो दुःस्थितोऽपि वा। ध्यायेत् पंच
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र० सा० ॥ ३७ ॥
ओं ह्रीं अर्हं श्रीपरब्रह्मणेऽनंतानंतज्ञानशक्तये जलं निर्वपामीति स्वाहा । तीर्थोदकधारा । काश्मीरकृष्णा गुरुगंधसारकर्पूर पौरस्त्यविलेपनेन । निसर्गसौरभ्यगुणोल्बणानां संचर्चयाम्यंघ्रियुगं जिनानाम् ॥ ७२ ॥ ओं ह्रीं ..... गंधं निर्व० ।
मंत्रित कर सब दिशाओंमें फैंके । इसप्रकार सकलीकरण विधि समाप्त हुई । अब जिनयज्ञादि विधान कहते हैं - प्रतिष्ठासारमें “ णमो अरिहंताणं ” इत्यादि टिप्पणी में लिखे हुए पाठको पढे उसके बाद जलादि चढानेके श्लोक बोले || " व्योमा ” इत्यादि श्लोक पढकर " ओं ह्रीं " बोलकर जलधारा चढावे ॥ ७१ ॥ “ काश्मीर " और " ओं ह्रीं " बोलकर चंदन चढावे नमस्कारान् सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ५ ॥ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थांगतोऽपि वा । यः स्मरेत्परमात्मानं स बाह्याभ्यंतरे शुचिः ॥ ६ ॥ अद्य मे क्षालितं गात्रं नेत्रे च विमलीकृते । स्नातोहं धर्मतीर्थेषु जिनेंद्र तव दर्शनात् ॥ ७ ॥ श्रीमज्जिने न्द्रमभिवन्द्य जगत्रयैशं स्याद्वादनायकमनंतचतुष्टयाईम् । श्रीमूलसंघसुदृशां सुकृतैकहेतुर्जिनेंद्रयज्ञविधिरेष मयाभ्यधायि ॥ ८ ॥ स्वस्ति त्रिलोकगुरवे जिनपुंगवाय स्वस्ति स्वभावमहिमोदय सुस्थिताय । स्वस्ति प्रकाशसह जोर्जितदृग्मयाय स्वस्ति प्रसन्नललिताद्भुतवैभवाय ॥ ९ ॥ स्वस्त्युच्छलद्विमलबोधसुधाप्लवाय स्वस्ति स्वभावपरभावावभासकाय । स्वस्ति त्रिलोकविततै कचिदुद्गमाय स्वस्ति त्रिकालसकलायतिविस्तृताय ॥ १० ॥ अर्हन् पुराणपुरुषोऽर्हति पावनानि वस्तूनि नूनमखिलान्ययमेक एव । अस्मिन् ज्वलद्विमल केवलबोधवहौ पुण्यं समग्रमहमेकमना जुहोमि ॥ ११ ॥ द्रव्यस्य शुद्धिमधिगम्य यथानुरूपं भावस्य शुद्धिमवि कामधिगंतुकामः । आलंबनानि विविधान्यलंव्य वल्गन् भूतार्थयज्ञपुरुषस्य करोमि
262
भा०टी०
अ० २
॥ ३७
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
SASTOASere
आमोदमाधुर्यनिधान कुंद सौंदर्यशुंभत्कलमाक्षतानाम् । पुजैः समक्षैरिव पुण्यपुंजैर्विभूषयाम्यग्रभुवं विभूनाम् ॥ ७३ ॥ ओं ह्रीं ....
अक्षतं निर्व० ।
सुजातजातीकुमुदाजकुंदमंदारमली बकुलादिपुष्पैः । मत्ता लिमाला मुखरैर्जिनेंद्रपादारविंदद्वयमचयामि ॥ ७४ ॥ ओं ह्रीं .....
पुष्पं निर्व०
नानारस व्यंजन दुग्ध सर्पिपक्कान्नशाल्यन्नदधीक्षुभक्षम् । यथार्हमादिसुभाजनस्थं जिनक्रमाग्रे चरुमर्पयामि ॥ ७५ ॥
""
॥ ७२ ॥ “ आमोद " और " ओं ह्रीं " कहकर अक्षत चढावे ॥ ७३ ॥ सुजात और " ओं ह्रीं " पढकर पुष्प चढावे ॥ ७४ ॥ “ नानारस " और "ओं ह्रीं " बोलकर नैवेद्य चढावे | यज्ञम् ॥ १२ ॥ ( ओं विधियज्ञप्रतिज्ञानाय प्रतिमाग्रे पुष्पांजलिं क्षिपेत् ॥ ) चिद्रूपं विश्वरूपव्यतिकरितमनाद्यंतमानंदसांद्रं यत्प्राक्तैर्विवर्तेर्व्यवृतदतिपतददुःखसौख्याभिमानैः । कर्मोद्रेकात्तदात्मप्रतिघमलाभिदोद्भिन्ननिस्सीम तेजः प्रत्यासी| दत्परौजः स्फुरदिह परमब्रह्म यक्षेमाम् ॥ १३ ॥ ( ओं परमब्रह्मयज्ञप्रतिज्ञानाय प्रतिमोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् । ) खामिन् संवौषट् कृतावाहनस्य द्विष्टां तेनो कितस्थापनस्य । खं निर्नेक्तुं ते वषट्कारजाप्रत्सांनिध्यस्य प्रारभेयाष्टधेष्टिम् ॥ १४ ॥ ओं ह्रीं अर्ह श्रीपरब्रह्म अत्रावतरावतर संवौषट् । अनेनावाहयेत् । ओं ह्रीं अर्ह श्रीपरब्रह्म अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ । अनेन तत्प्रतिष्ठापयेत् । ओं ह्रीं अहे श्रीपरब्रह्म मम संनिहितं भव वषट् । अनेन तद्वत् संनिधापयेत् ॥ )
| ०१
27
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
५० सा०
॥ ३८ ॥
नैवेद्यं निर्व० ।
ओं ह्रीं .....
ओं लोकानामर्हतां भूर्भुवः स्वर्लोकाने कीकुर्वतां ज्ञानधाना । दीपत्रातैः प्रज्वलत्की जालैः पादां भोजद्वंद्वमुद्योतयामि ॥ ७६ ॥ आरार्तिकं निर्व० ।
ओ ह्रीं ...
श्रीखंडादिद्रव्यसंदर्भगर्भैरुद्यद्धम्यामोदितस्वर्गिवर्णैः । धूपैः पापन्यापदुच्छेदहतांनंत्री नईत्स्वामिनां धूपयामि ॥ ७७ ॥ ओं ह्रीं ..... धूपं निर्व० । फलोत्तमादाडिममातुलिंगनारिंग पुंगा म्रकपित्थपूर्वैः । हृद्ब्राणनेत्रोत्सवमुद्गिरद्भिः फलैर्भजेत्पदपद्मयुग्मम् ॥ ७८ ॥
फलं निर्व० ।
ओं ह्रीं .....
वार्गेधादिद्रव्यसिद्धार्थदूर्वानंद्यावर्तस्वस्तिकाद्यैरनिंद्यैः । हमे पात्रे प्रस्तुतं विश्वनाथात् प्रत्यानंदादर्घमुत्तारयामि ॥ ७९ ॥
॥ ७५ ॥ “ ओं लोकाना " और " ओं ह्रीं " बोलकर दीप चढावे ॥ ७६ ॥ “ श्रीखंडादि " और " ओं " बोलकर धूप चढावे ॥ ७७ ॥ “ फलोत्तमा " और " ओं ह्रीं " बोलकर | फल चढावे ॥ ७८ ॥ “ वार्गेधादि " और " ओं ह्रीं " बोलकर अर्ध चढावे ॥ ७९ ॥ फिर
500
मा०टी०
अ० २
॥ ३८ ॥
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
का
ओं ही...
अर्धे निर्व० । वृषभो वृषलक्ष्मीवानजितो जितदुष्कृतः। शंभवः संभवत्कीर्तिः साभिनंदोभिनंदनः ॥८०॥ सुमतिः सुमतिः पद्मप्रभः पद्यप्रभः प्रभुः। सुपार्श्वः पावरोचिष्णुश्चंद्रश्चंद्रप्रभः सताम् ॥ ८१॥ पुष्पदंतोस्तपुष्पेषुः शीतलः शीतलोदितः। श्रेयान् श्रेयस्विनां श्रेयान सुपूज्यः पूज्यपूजितः ८२ । विमलो विमलोऽनन्तज्ञानशक्तिरनंतजित् । धर्मो धर्मोदयादित्यः शांतिः शांतिक्रियाग्रणीः।८३॥ कुंथुः कुंथ्वादिसदयः सुरप्रीतिररप्रभुः । मल्लिमल्लिजये मल्लः सुव्रतो मुनिसुव्रतः॥ ८४ ॥ नमिर्नमत्सुरासारो नेमिर्नेमिस्तपोरथे । पार्श्वः पार्श्वस्फुरद्रोचिः सन्मतिः सन्मतिप्रियः॥८५॥ एते तीर्थकृतोनंतैर्भूतसद्भाविभिः समम् । पुष्पांजलिप्रदानेन सत्कृताः संतु शांतये ॥८६॥ पुष्पांजलिः । इति जिनयज्ञविधानं । अथातः सिद्धभक्तिविधानम् ।
प्रक्षीणे मणिवन्मले स्वमहसि स्वार्थप्रकाशात्मके
निर्मग्ना निरुपाख्यमोघचिदमोक्षार्थितीर्थक्षिपः । ४|| वृषभो" इत्यादि सात श्लोक पढकर आशीर्वादके लिये पुष्पांजलि क्षेपण करे ॥ ८० ॥
॥ ८१ । ८२ । ८३ । ८४ । ८५ । ८६ ॥ इसप्रकार जिन ( अर्हत ) पूजाविधान हुआ। अब हा सिद्ध भक्तिकी विधि कहते हैं-"प्रक्षीणे " इत्यादि श्लोक पढकर अहंतकी प्रतिमाके आगे
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
'प्र०सा०
भान्टी०
९
॥
अ०२
न्छन्झन्छन्
कृत्वाऽनाधपि जन्म सांतममृतं साद्यप्यनंतं श्रितान् ।
सद्दग्धीनयवृत्तसंयमतपः सिद्धान् भजेर्येण वः ॥ ८७ ॥ oil अनेनाहत्प्रतिमाग्रे सिद्धानामधं दत्वा भक्त्या स्तुवीत। तथाहि ।अर्हत्प्रतिष्ठारंभक्रियायां पूर्वाचार्या
नुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थ भावपूजावंदनास्तवसमेतं सिद्धभक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहं । इत्युच्चार्य णमो अहरहताणमित्यादि दंडकं पठित्वा थोस्सामीत्यादिस्तवं चाधीत्य सिद्धभक्तिमिमा पठेत् ।
यस्यानुग्रहतो दुराग्रहपरित्यक्त्वात्मरूपात्मनः सद्व्यचिदचित्रिकालविषयं स्वैः स्वैरभीक्ष्णं गुणैः । सार्थव्यंजनपर्ययैः समवययज्जानाति बोधः समं तत्सम्यक्त्वमशेषकर्मभिदुरं सिद्धान् परं नौमि वः॥ ८८ ॥ यत्सामान्यविशेषयोः सह पृथक् स्वान्यस्थयोर्दीपवचित्तं द्योतकमुनिरन्मुदमरं नो रज्यति द्वेष्टि न । घारावापि तत्प्रतिक्षणनवीभावोद्धराार्पित
मामाण्यं प्रणमामि वः फलितहग्ज्ञप्त्युक्तिमुक्तिश्रिये ॥ ८९ ॥ सिद्धोंको अर्घ देवे ॥ ८७ ॥ उसके बाद भक्तिसहित स्तुति करे । वह इस तरह है-प्रथम तो
O
॥३९॥
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्तालोचनमात्रमित्यपि निराकारं मतं दर्शनं साकारं च विशेषगोचरमिति ज्ञानं प्रमादीच्छया । ते नेत्रे क्रमवर्तिनी सरजसा प्रादेशके सर्वतः स्फूर्जती युगपत्पुनर्विरजसा युष्माकमंगोतिगाः ॥९॥ शक्तिव्यक्तिविभक्तविश्वविविधाकारौघकिर्मीरितानंतानंतभवस्थमुक्तपुरुषोत्पादण्यध्रौव्यव्ययात् । स्वं स्वं तत्त्वमसंकरव्यतिकरं कर्तृन् क्षणं प्रत्ययो भोत्क्षणमन्वयतः स्मरामि परमाश्चर्यस्य वीर्यस्य वः ॥ ९१ ॥ यद्याहंति न जातु किंचिदपि न व्याहन्यते केनचि. घनिष्पीतसमस्तवस्त्वपि सदा केनापि न स्पृश्यते । यव सर्वज्ञसमक्षमप्यविषयं तस्यापि चार्थाद्रािं तद्वः सूक्ष्मतमं स्वतत्त्वमभि वा भाव्यं भवोच्छित्तये ॥ ९२॥ गत्वा लोकशिरस्य धर्मवशतश्चंद्रोपमे सन्मुख
प्राग्भाराख्यशिलातलोपरि मनागूनैकगयतिके । " अर्हत्प्रतिष्ठा" इत्यादि बोलकर " णमो अरहंताणं " इत्यादि दंडक पढकर “थोस्सामि"
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
४०॥
ब्लन्डन्न्कन्कन्सन्छन्डर
योगोज्झांगदरो न मित्यपि मिथो संबाधमेकत्र य
माष्टी ल्लब्ध्यानंतमितोपि तिष्ठथ स वः पुण्योवगाहो गुणः ॥९३ ॥
|अ०२ सिद्धाश्चेद्रवो निराश्रयतया भ्रश्यंत्ययःपिंडवतेऽधश्चेल्लघवोर्कतूलवदितश्चेतश्च चंडेन तत् । क्षिप्यते तनुवातवातवलयेनेत्युक्ति युत्कुद्धतैनोप्तोपज्ञमपीष्यते गुरुलघुः क्षुदैः कथं वो गुणः ॥ ९४ ॥ यत्तापत्रयहेतिभैरवभवोदर्चिः शमाय श्रमो युष्माभिर्विदधे व्यपच्यत तदव्यावाधमेतध्रुवम् । येनोवेलसुखामृतार्णवनिरातकाभिषेकोल्लसचित्कायान् कळयापि वः कलयितुं श्राम्यति योगीश्वराः ॥ ९५ ॥ एतेनंतगुणाद्गुणाः स्फुटमयोद्धृत्याष्ट दिष्टा भव
त्तत्वा भावयितुं सतां व्यवहृतिप्राधान्यतस्ताविकैः । हा इत्यादि स्तुति कहकर इसे कहे जानेवाली स्तुतिको पढै जो कि "यस्यानुग्रहतो" इत्यादिसे लेकर 21 ९६ श्लोक तक नौ श्लोकोंमें कही गई है।८८॥८९।९० । ९१।९२१९३।९४।९५१९६॥ जो
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
100400
एतद्भावनया निरंतरगलद्विकल्पजालस्य मे
स्तादत्यंतलयः सनातनचिदानंदात्मनि स्वात्मनि ॥ ९६ ॥ उत्कीर्णामिव वर्ततामिव हृदि न्यस्तामिवालोकयनेता सिद्धगुणस्तुतिं पठति यः शश्वच्छिवाशाधरः । रूपातीतसमाधिसाधितवपुः पातः पतदुष्कृत
व्रातः सोभ्युदयोपभुक्तसुकृतः सिद्धेन तृतीये भवे ॥ ९७ ॥
इति सिद्धूभक्तिविधानम् । अथातो महर्षिपर्युपासनविधानम् ।
1
वृषं वृषभसेनाद्याः सिंहसेनादयोऽजितम् । संभवं चारुषेणाद्या वज्रनाभिपुरस्सराः ॥ ९८ ॥ कपिध्वजं चामराद्याः सुमतिं पद्मलांछनम् । ये वज्रचमरप्रष्टाः सुपार्श्व बलपूर्वकाः ।। ९९ ॥ चंद्रप्रभं दत्तमुखाः पुष्पदंतं समाश्रिताः । विदर्भाद्याः शीतले शमनगा पुरोगमाः ॥ १०० ॥ कुंथुप्रधानाः श्रेयांसं धर्माद्या द्वादशं जिनम् । विमलं मेरुपौरस्त्या जयाद्याचर्तुदशम् ॥ १० ॥ धर्मं त्वरिष्टसेनाद्याः शांतिं चक्रायुधादयः । स्वयंभूप्रमुखाः कुंथुं कुंभार्याद्यास्त्वरप्रभम् ॥ १०२ कोई भव्य जीव इस सिद्धगुणस्तुतिको शुद्ध-मन-वचन कायले करता है वह तसिरे भवमें अवश्य अनंत सुखका स्थान मोक्षको पा सकता है ॥ ९७ ॥ इस प्रकार सिद्धभक्तिकी विधि वर्णन की गई है । अब महर्षियोंकी पूजाविधि कहते हैं-" वृषं " इत्यादि श्लोकसे लेकर
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा० मल्लिं:विशाखप्रमुखा मल्लयाद्या मुनिसुव्रतम् । नमीशं सुप्रभासाद्या वरदत्ताग्रतः सराः॥१०३ भाटी
नेमि पाच स्वयंभ्वाद्या गौतमाद्याश्च सन्मातिमातेम्योगणधरेशेभ्यो दत्तो?ऽयं पुनातुनः१०४/०२ ॥४१॥
ये सन्मतेरिन्द्रभूतिर्वायुभूत्यग्निभूतिको । सुधर्ममौौँ मौंड्याख्यः पुत्रमैत्रेयसंज्ञितौ ॥१०५॥ अकंपनो धवेलाख्यः प्रभासश्च गणाधिपाः । एकादशैदयुगीनमुन्यादींस्तानुपास्महे ॥१०६॥ श्रीगौतमसुधर्माबजंब्याख्यान केवलेक्षणान् । श्रुतकेवलिनो विष्णुनंदिमित्रापराजितान् ।१०७ गोवर्धनं भद्रबाहुं दशपूर्वधरान् पुनः। विशाखपौष्टिलाचार्यों क्षत्रियं जयसाह्वयम् ॥१०८॥ नागसेनं च सिद्धार्थ धृतिषणसमाह्वयम् । विजयं बुद्धिलं गंगदेवाओं धर्मसेनकम् ॥१०९॥ एकादशांगनिष्णातान्नक्षत्रजलपालको। पांडं च ध्रुवसेनं च कंसं चाथाग्रिमांगिनः॥११०॥
सुभद्रं च यशोभद्रं भद्रबाहुमनुक्रमात् । लोहाचार्य यजामोत्र जिनसेनादिकानपि ॥१११॥ हायजेद्वलिमुक्तांगं पूर्वाशं घनं दिनम् । धरसेनगुरुं पुष्पदंतं भूतबलिं तथा ॥११२ ॥ जिनचंद्रकुंदकुंदाचार्योमास्वातिवाचकौ । समंतभद्रस्वाम्यार्य शिवकोटिं शिवायनम् ॥११३॥ ४ एकसौ सत्रहवें श्लोकतक पाठ पढकर वृषभसेन आदि आचार्योंको जलादि अष्टद्रव्यसे अर्घ है। देवे ॥ ९८ से ११७ तक । सिद्धोंके बाद पुष्पांजलि देकर अर्घ चढाकर पंचांग प्रणाम करे | इस प्रकार महर्षियोंका पूजाका विधान समाप्त हुआ। अब यहांसे यज्ञदीक्षाकी विधि कहते । हैं-"न्यस्येह" इत्यादि श्लोक बोलकर भगवानके सिंहासनके आगे चंदन पुष्प वस्त्रादिको
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूज्यपादं चैलाचार्य वीरसेनं श्रुतेक्षणम् । जिनसेनं नेमिचंद्र रामसेनं सुतार्किकान्॥११४॥ अकलंकानंतविद्यानंदिमाणिक्यनंदिनः । प्रभाचंद्रं रामचंद्र वासुवेंदुमवाससम् ॥ ११५॥ गुणभद्रादिकानन्यानपि श्रुततपःपरान् । वीरांगजातानर्पण सर्वान् संभावयाम्यहम् ॥११६
निग्रंथाः शुद्धमूलोत्तरगुणमणिभिर्येऽनगारा इतीयुः संज्ञा ब्रह्मादिधर्मैऋषय इति च ये बुद्धिलब्ध्यादिसिदैः। श्रेण्योश्वारोहणैर्ये यतय इति समग्रेतराध्यक्षबोधै
र्ये मुन्याख्यां च सर्वान् प्रभुमह इहतानयामो मुमुक्षून ॥ ११७ ॥ सिद्धानुत्तरेण पुष्पाजलिं वितीर्य पंचांग प्रणामं कुर्यात् ॥ इति महर्षिपर्युपासनविधानम् ।। अथातो यज्ञदीक्षाविधानम् । न्यस्येह भगवत्पादपीठे दिव्यं प्रसाधनम् । कृत्त्वेदमाददेऽनादिसिद्धमंत्राभिमंत्रितम्।११८॥ पूज्यपूजावशेषेण गोशीर्षेणाहतालिना । देवाधिदेवसेवायै स्ववपुश्चार्चयेमुना ॥ ११९ ॥ जिनांघिस्पर्शमात्रेण त्रैलोक्यानुग्रहक्षमाः । इमाः स्वर्गरमादूतीररियामि वरस्रजः॥१२०॥
मंत्रित कर रखे। यह चंदनादिका अभिमंत्रण हुआ। ११८ ॥ “पूज्य" इत्यादि श्लोक पढकर है अपने अंगपर चंदनका लेप करे। यह चंदनलेपविधि हुई ॥ ११९॥ “जिनांघ्रि " इत्यादि
१ श्रीचंदनाद्यभिमंत्रणम् । २ श्रीचंदनानुलेपन । ३ स्रग्धारणं ।
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
म.सा०
माध्वी
४२॥
ISTO
शुंभत्पुष्पतिकादशे शुचिरुची भ्राजिष्णुमैत्रीभरं सच्छालापतिना गुणौ नव विशोद्गीणरिवासूत्रिते । एकद्रव्यवदार्षदग्भिरपि चोद्देश्ये प्रवेश्ये नखच्छिद्रेपीह महे प्रभोरहमिमे दिव्ये दधे वाससी ॥ १२१ ॥ मुक्ताशेखरपट्टयोनिजकरैराक्रम्य चूलालिके राजो जित्वरवत्कमप्यतिकरं रोद्धं बलाद् दृष्यतोः । स्फूर्जत्कुंडलकर्णपूररचितोपांतेंद्रचापश्रमे मूः तन्मुकुट जितार्यमजयत्यहपणामोद्धरें ॥ १२२ ॥ पालंबसूत्रजिनसूत्रविराजिहार सद्दर्शनस्फुरितात्मतेजः ।
अवेयकं चरणचारु भजन जिनेज्या सज्जस्तनोम्यमलचिद्रुचियः ॥१२३॥ कहकर माला पहरे । यह मालाधारणविधि है ॥ १२० ॥ " शुंभत्" इत्यादि पढकर देवांगवस्त्रोंको पहरे । यह वस्त्रधारण हुआ ॥ १२१ "मुक्ताशेखर” इत्यादि पढकर मुकुट धारण करना चाहिये । यह मुकुटधारणविधि जानना ॥ १२२ ॥“ प्रालंबसूत्र" इत्यादि पढकर यज्ञोपवीत (जनेऊ ) धारण करे । यह यज्ञोपवीतविधि हुई ॥ १२३ ॥2॥४२
१देवांगवस्त्रपरिग्रहः । २ शेखरादिविशिष्टमुकुटोपयोगः । ३ प्रालवसूत्राद्युपतयज्ञोपवीतग्रहीतिः।
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
Perotoch
0000000
केयूरांगदकटकैलास्तंभो जिनेन्द्रमख लक्ष्म्याः । सत्कृत्य भुजौ तद्रसमुन्मुद्रयितुं करेये मुद्राम् ॥ १२४ ॥ छुरिकाछविविच्छुरितं रूपरुचि चुंबनोत्कदाममुखम् । सारसनं वद्धांघी सकनकमुद्रौ जिनाध्वरे देधे ।। १२५ ।। इदममलिनसम्यग्दर्शनज्ञानदेशव्रतमय चरितात्माकर्मिकब्रह्मचर्यम् । स्फुरदरमुपवासेनाद्य रत्नत्रयं मे भवतु भगवदर्हद्यज्ञदीक्षाविशिष्टम् ॥ १२६ ॥ नन्वन हृद्युपवीतमर्जुनरुचिप्रव्यक्तरत्नत्रयं ख्याताणुव्रतशक्तिपंचवसुमद्धी भूत्करे कंकणम् ।
ज्या श्रोणियुजा जिनक्रतुमिति ब्रह्मव्रतं द्योतयन्
यज्ञेस्मिन् खलु दीक्षितोहमधुना मान्योस्मि शत्रैरपि ॥ १२७ ॥
"
"
'केयूरांगद ” इत्यादि श्लोक पढकर वाजू अंगूठी कडे पहरने चाहिये | यह कडे अंगूठी आदि पहरनेका विधान जानना ॥ १२४ ॥ " छुरिका ” इत्यादि श्लोक पढकर करधनी व चरणमुद्रिका पहरे । यह कटिसूत्रादिविधि हुई ॥ १२५ ॥ “ इदममलिन ” इत्यादि श्लोक पढकर अर्हत्पूजाकी दीक्षाको स्वीकार करे ॥ १२६ ॥ " नन्वनह " इत्यादि श्लोक बोलकर १ केयूरादियुकमुद्रिकास्वीकारः । २ कटिसूत्रादिसमेतचरणोर्मिंकाधारणं । ३ अर्हद्देवयज्ञदीक्षांगीकारः । ४ दीक्षा चिह्नोद्वहनं
Con
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
कन्सन्छ
TO
ITO
to ito
॥४३॥
अ०२
ब्ब्सलललललललन्डन्सलन्सन्सक
ओं वज्राधिपतये आं हां अः ऐं ह्रौं हः सं सं क्षः इंद्राय संवौषट् । अनेनैकविंशतिवाराना-12 त्मानमधिवासयेत् ॥ इति यज्ञदीक्षाविधानम् । ओं परमब्रह्मणे नमो नमः स्वस्ति स्वस्ति जीव जीव || नंद नंद वर्चस्व वर्द्धस्व विजयस्व विजयस्व अनुशाधि अनुशाधि पुनीहि पुनीहि पुण्याहं पुण्याहं |मांगल्यं मांगल्यं । पुष्पांजलिः । क्षेत्रपालाय यज्ञेस्मिन्नेतत्क्षेत्राधिरक्षिणे। बलिं दिशामि दिश्यग्नेर्वेद्यां विघ्नविघातिने ॥१२८॥
ओं ह्रीं को अवस्थक्षेत्रपालाय इदं................स्वाहा। उत्खातपूरितसमीकृततत्कृतायां पुण्यात्मनीह भगवन्मखमंडपोाम् । वास्त्वर्चनादिविधिलब्धमखाभिभागं वेद्यां यजामि शशिभृद्दिशि वास्तुदेवम्॥१२९॥
पुष्पांजलिः। श्रीवास्तुदेववास्तूनामधिष्टातृतयानिशम् । कुर्वननुग्रहं कस्य मान्यो नास्तीति मान्यसे॥१३०॥ दीक्षाके चिह्न मौंजीबंधन ब्रह्मचर्यादिको धारण करे ॥ १२७ ॥ “ओं वज्राधिपतये......... संवौषट् ” इसको बोलकर इक्कीस वार अपनेको मंत्रित करे ॥ इस प्रकार यज्ञदीक्षाविधि जानना । अब मंडफकी प्रतिष्ठाविधि कहते हैं। “ओं परम " इत्यादि कहकर पुष्पोंको ? क्षेपण करे। “क्षेत्रपालाय" इत्यादि कहकर “ओं ह्रीं" इत्यादि पढकर क्षेत्रपालको जलादि चढावे ॥ १२८ ॥ “ उत्खात " इत्यादि श्लोक पढकर पुष्पांजलि दे ॥ १२९ ॥ " श्रीवास्तु "
न्
॥४
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
ओं ह्रीं क्रों वास्तुदेवाय इदमित्यादि..................."स्वाहा ।
आयात भो वातकुमारदेवाः प्रभोर्विहारावसराप्तसेवाः।
यज्ञांशमभ्येत सुगंधिशीतमृद्धात्मना शोथयताध्वरोर्वीम् ।। १३१॥ 'ओं ह्रीं वायुकुमाराय सर्वविघ्नविनाशनाय महीं पूतां कुरु कुरु हूं फट् स्वाहा। दर्भपूलेन भूमिका संमार्जयेत् ।
आयात भो मेघकुमारदेवाः प्रभोर्विहारावसराप्तसेवाः ।
गृह्णीत यज्ञांशमुदीणशंपा गंधोदकैः प्रोक्षत यज्ञभूमिम् ॥ १३२॥ ओं ह्रीं मेघकुमाराय धरां प्रक्षालय प्रक्षालय अं हं सं वं झं यः क्षः फट् स्वाहा । दर्भपूलोपात्तजलेन भूमिं सिंचेत् ।
आयात भो वह्निकुमारदेवा आधानविध्यादिविधेयसेवाः ।
भजध्वमिज्यांशमिमा मखोवीं ज्वालाकलापेन परं पुनीत॥ १३३ ॥ इत्यादि श्लोक तथा “ओं ह्रीं” बोलकर वास्तुदेवको जल आदि आठ द्रव्य चढावे ॥१३०॥ “ आयात भोः" इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर वायुकुमारको जलादि चढावे । दर्भकी वुहारीसे भूमिको शुद्ध करे ॥ १३१ ॥ “ आयात भो " इत्यादि और 'ओं ह्रीं' इत्यादि कहकर मेघकुमारको बुलावे; फिर दर्भके पूलेसे जल लेकर छिडके ॥ १३२ ॥ " आयातभोः वह्नि"
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रसा०
ओं रं अग्निकुमागय भूमिं ज्वलय २ अ हं सं वं झं ठं यः क्षः फट् स्वाहा ज्वलद्दर्भपूलानलेन | भाटी० भूमिं ज्वलयेत् । प्राचीमैशानी चां रा बातकुम रादिस्थापनं ।
अ०२ उद्भात भो षष्टिसहस्रनागाः क्ष्माकामचारस्फुटवीर्यदर्पाः ।
प्रतृप्यतानेन जिनाध्वरोवी सेकात्सुधागबमृजामृतेन ॥ १३४ ॥ ओं ह्रीं क्रौं षष्टिसहस्रसंख्येभ्यो नागेभ्यः स्वाहा । नागतर्पणार्थमैशान्यां दिशि जलं क्षिपेत् ।
ब्रह्मस्थाने मघोनः ककुभि हुतभुजो धर्मराजस्य रक्षोराजस्याहीन्द्रपाणे खनिरुहभृतः शंभुमित्रस्य शंभो नागेंद्रस्यामृतांशोरपि सदकलसत्पुष्पदूर्वादिगर्भान्
दर्भान् वेद्यो न्यसामि न्यसितुमिह जिनाद्यासनानि क्रमेण ॥ १३५॥ ___दर्भन्यासविधानम् । “ आभिः पुण्याभिरद्भिरेभिरर्चामि भूमिम्" । भूमिशुद्धिः। और “ओं रं” इत्यादि पढकर अग्निकुमारका आह्वानन करे । फिर जलते हुए दर्भके पूलेकी आगसे भूमिको तपावे ॥ पूर्व तथा ऐशानदिशामें वातकुमार आदिका स्थापन करे ॥१३३ ॥ 2" उद्भात" इत्यादि “ओं ह्रीं" इत्यादि पढकर नागकुमारको संतुष्ट करे । नागकुमारकेतृप्त ।।
करनेके लिये ईशान दिशामें जलको क्षेपण करे ॥१३४॥" ब्रह्मस्थाने " इत्यादि पढकर शादर्भको स्थापन करे ॥ १३५॥"आभिः पुण्याभिः” इत्यादि पढकर मंडपके भीतर चारों तरफ
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
साष्टारत्निशदिवेदिरुचिरं शक्रः कुवेरेण यं ज्यायांसं मणिमंडपं विरचयत्यहत्पतिष्ठाकृते । अंतर्निर्मितदिविलक्ष्मीकटाक्षोद्भटा
सोयं मंगलमंडपो विजयते जैनेंद्रतिष्ठोत्सवे ॥ १३६ ॥ मंडपांतः समंतात् कुंकुमाक्तपुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।
पुण्या एतेन भूषा प्रवचनपठितस्तंभयज्ञांगपात्र द्वार्भावद्रव्यवीजध्वजकलशदलत्स्रग्वितानादिभावाः । स्तोत्राशीर्गीतवाद्यध्वनिनिचितदिशो भक्तिकौघास्तथैते
त्रिसूत्रैः पंचवहिरहमवसूत्र्यैनमर्पण युंजे ॥ १३७ ॥ भूषणादिवस्तुषु पृथक् पुष्पाक्षतं प्रक्षिथ बहिः पंचवर्णसूत्रेण त्रीन् वारान् वेष्टयित्वा अर्घ दद्यात् ।। कुंकूसे ( केशरसे ) मिले हुए पुष्प-अक्षतका क्षेपण करे॥१३६ ॥ " पुण्या एतेन " इत्यादि पढकर आभूषण आदि वस्तुओंमें पुष्प अक्षत क्षेपण करके बाहर पांच रंगके डोरेको तिहरा || लपेटकर अर्घ दे ॥१३७॥ " मंडपस्यास्य" इत्यादि बोलकर तोरणके पास दाहिनी तरफ
१" इंद्रवेद्यपि हस्तानां विज्ञेयाष्टोत्तरं शतम् । शतेंद्रो जिनविंबानां प्रतिष्ठा कुरुते स्वयम् "॥ तथाहि-द्वादशारलिविस्तारं पंचाधिकदशप्रमं । अष्टादशकरायाम सैकविंशतिहस्तकम् । चतुर्विशतिहस्तं वा दृढसूत्रेण सूत्रयेत् ॥
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
५० सा०
॥४५॥
मंडपस्यास्य रक्षार्थ कुमुदांजनवामनान् । पुष्पदंतं च पूर्वादिद्वारेषु स्थापयाम्यहम् ॥ १३८ ॥ तोरणोपांताय सव्यदेशेषु कुंकुमाक्तपुष्पाक्षतं क्षिपेत् । मुक्तास्वस्तिकमास्थितं नवसुधाधातं मुखैः पंचाभिभतिं नव्ययवप्ररोहरुचिरैः कुंभं दृशा लालयन् । रंभास्तंभरुचाश्मगर्भखचितं सौवर्णदंडं दधत् प्राग्द्वाराधिकृत प्रतीच्छ कुमुद स्वं पूतमेत बलिम् ॥
१३९ ॥
ह्रीं कुमुदप्रतीहार निजद्वारि तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ इदं अर्घ्यं पाद्यं गंधं इत्यादि स्वाहा ।
मुक्ता
.... I
...
लाहि त्वं बलिमंजनाजनरुचे द्वारे स्थितो दक्षिणे ॥ १४० ॥
स्वाहा ।
ॐ ह्रीं अंजनप्रतीहार
मुक्ता.
....
10.00
....
.....
334
....
....
1
१४१ ॥
प्रत्यग्द्वारनियुक्त वामन बलिं कुंदद्युत स्वीकुरु ॥ कुंकुसे मिले हुए पुष्प अक्षतोंको क्षेपण करे ॥ १३८ ॥ " मुक्ता" इत्यादि "ओं ह्रीं " इत्यादिसे कुमुदप्रतीहारको जलादि अष्ट द्रव्य चढावे ॥ १३९ ॥ मुक्तका लाहि त्वं " इत्यादि बोलकर " ओं ह्रीं " पढकर अंजनद्वारपालको जलादिसे संतुष्ट करे ॥ १४० ॥ "( मुक्ता- प्रत्य
66
तथा
भा०वी०
अ० २
॥ ४५ ॥
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
ओं ह्रीं वामनप्रतीहार.................................स्वाहा । मक्ता ....................................................... ।
स्रपुष्पोज्ज्वलपुष्पदंत बलिना तृप्योत्तरद्वाः स्थितः ॥ १४२ ॥ ओं ह्रीं पुष्पदंतप्रतीहार...............................स्वाहा ।
इति मंडलप्रतिष्ठाविधानं । अथातो वेदिमतिष्ठविधानं । आदेशावहितान्यवासवपरीवारो विनिर्माप्य यां दृक्शुद्धिप्रतिवृद्धये प्रयजते सौधर्मपोऽहत्मभुम् । सोयं वेदिमतल्लिकापरिकरश्चंद्रोपकायोप्ययं सोत्र स्फूर्जति मंगलादिवदिमे ते भांति भांडोच्चयाः ॥ १४३॥ वेद्या चंद्रोपकादिषु च कुंकुमाक्तं पुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।
प्रोक्ष्य प्रोक्षणमंत्रपूतपयसा वेदी वरायैः समा रद्वार" इत्यादि और "ओं ह्रीं" इत्यादि बोलकर वामनद्वारपालको प्रसन्न करे ॥१४१॥ "मुक्ता
स्रक पुष्प " इत्यादि “ओह्रीं" इत्यादि बोलकर पुष्पदंत द्वारपालको अनुकूल करे ॥१४२॥४| इस प्रकार मंडलप्रतिष्ठाकी विधि पूर्ण हुई । अब वेदीप्रतिष्ठाकी विधि कहते हैं । “आदेश शा" इत्यादि बोलकर वेदीके चंदोए आदिमें कुंकुंसे रंगे हुए पुष्प अक्षत क्षेपै ॥ १४३ ॥
न्सलन्डन्न्न्न्न्
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा
॥४६॥
लभ्याभ्यर्च्य चरुस्रगादिभिरमूं नीराजयाम्योजसे । लावण्योद्गतयेवतार्य लवणस्ताम पवित्रार्णसा
संपूर्णानवतारयामि कलशानस्या महिम्नेष्ट च ॥ १४४ ॥ प्रोक्षणादिविधिः । इति वेदिकास्थापनं । अथातो यागमंडलवर्तनाविधानम् ।
नागेंद्रार्थपते हरित्पभजपा भासासिताभप्रिया युक्ता एत्य सवर्णचूर्णनिचयैः प्रीतेंद्रवेद्यामिव । वेद्यां द्वित्रिचतुर्गुणाष्टदलयुक्पग्रं चतुर्धाश्चतु
कोणं वर्तयतात्र मंडलमथो वज्राल्लिखेंद्राश्रिषु ॥ १४५ ॥ ओं ह्रीं क्लीं श्वेतपीतहरितारुणकृष्णमणिचूर्ण स्थापयापि स्वाहा । चूर्णस्थापनमंत्रः ।
चंद्राभचंद्राभविमानमाल्यभूषांगरागा वरनागराज ।
हस्तांबुजस्थार्जुनरत्नचूर्णैर्वेदी लिखागत्य जिनेंद्रयज्ञे ॥ १४६ ॥ ओं ह्रीं नागराजायामिततेजसे स्वाहा । श्वेतचूर्णस्थापनम् । "प्रोक्ष्य" इत्यादि कहकर वेदीपर जल छिडके ॥ १४४॥ यह प्रोक्षणादिविधि हुई । इसप्रकार वेदीका स्थापन जानना। अब यागमंडलकी विधि कहते हैं । “ नागेंद्रा" इत्यादि । ओं ह्रीं" कहकर पांचों रंगका चूर्ण स्थापन करे॥१४५ ॥“ चंद्राभ" इत्यादि “ओं ह्रीं"|४६ ॥ इत्यादि बोलकर नागराजकेलिये सफेद चूर्ण स्थापन करे ॥ १४६ ॥ " हेमाभ" इत्यादि
न्छन्
ह
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
उन्ल
न्टन्
हेमाभ हेभामविलेपनस्रग्विमानभूषांशुकयक्षराज ।
हस्तार्पिता रत्नसुवर्णचूणैर्वेदी लिखागत्य जिनेन्द्रयज्ञे ॥ १४७ ॥ ओं ह्रीं हेमप्रभाय धनदाय ठ ठ स्वाहा । पीतचूर्णस्थापनम् ।
हरित्प्रभामर्त हरित्मभस्रग्वासोविमानाभरणांगराग ।
करात्तगारुत्मतरत्नचूर्णैवेदी लिखागत्य जिनेंद्रयज्ञे ॥ १४८ ॥ ओं ह्रीं हरित्प्रभाय शत्रुमथनाय स्वाहा । हरितचूर्णस्थापनम् ।
रक्तप्रभामर्त्य जपाभभूषास्रग्वर्णकालंकरणाभ्रमाय । ___ कराब्जराज कुरुविंदचूर्णैवेदी लिखागत्य जिनेंद्रयज्ञे ॥ १४९ ॥ ओं ह्रीं रक्तप्रभाय सर्ववशंकराय वषटू वौषट् स्वाहा । अरुणचूर्णस्थापनं ।
भुंगाभळंदारककृष्णवस्त्रविलेपनाकल्पविमानदामन् ।
पाणिप्रणीतासितरत्नचूर्णैर्वेदी लिखागत्य जिनेंद्रयज्ञे ॥ १५०॥ ____ओं ह्रीं कृष्णप्रभाय मम शत्रुविनाशनाय फट् २ घे घे स्वाहा । कृष्णचूर्णस्थापनम् । “ओं ह्रीं" इत्यादि बोलकर कुबेरके वास्ते पीले चूर्णको चढावे ॥१४७ ॥ “हरिप्रभा " “ओं ह्रीं" इत्यादिसे हरिप्रभदेवको हराचूर्ण चढावे ॥ १४८॥ “ रक्तप्रभा " “ओं ह्रीं" बोलकर रक्तप्रभदेवको लाल चूर्णका स्थापन करे ॥ १४९ ॥ “भंगाभ" ‘ओं ह्रीं” इत्यादि | जा कहकर कृष्णप्रभदेवको शत्रुनाशनकेलिये काले चूर्णका स्थापन करे ॥ १५० ॥ “शची"
कन्कन्छन्
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा
भाटी
अ०२
00000000000
शचीकटाक्षेषु शरव्यशक त्वमेत्य विघ्नौघविघातहेतो
करस्फुरद्वजरजोभरेण कोणेषु वज्राणि लिखाद्य वेद्याः ॥ १५१ ॥ वेदाकोणेषु प्रत्येकं हीरकं न्यसेत् । वज्रस्थापनम् । इति यागमंडलवर्तनविधानम् ।।
इत्याम्नायनिरस्तमोहतिमिरः सम्यग्जिनेज्यादिभिः काचिद्भावविशुद्धिमाप्य विधिभिः सौधर्मभावं भजन । कृत्वा मंडलपूजनं वितनुते योत्पतिष्ठाविधिः
सोत्रामुत्र च मोदते शुभनिधिः स्तुत्यः शिवाशाधरैः॥१५२ ॥ इत्याशाधरविरचिते प्रतिष्ठासारोद्धारे जिनयज्ञकल्पापरनान्न तीर्थोदकादानादिविधानीयो
___ नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥ इत्यादि बोलकर वेदीके कोनोंमें हीरे रत्नका स्थापन करे ॥ १५१ ॥ इस तरह यागमंडल हाविधान कहा है। इस प्रकार गुरुआम्नायसे सब जानकर भावोंको निर्मल कर अपनेको
सौधर्म समझता हुआ जो प्रतिष्ठाचार्य मंडल पूजन आदिसे अहंतकी प्रतिष्ठाविधिका सब जगह प्रचार करता है वह पुण्यका खजाना प्रतिष्ठाचार्य दोनों लोकमें सुख पाता है और मोक्षके चाहनेवाले भव्योंसे अथवा मुझ आशाधरसे पूजित होता है ॥ १५२ ॥ इस प्रकार पं० आशाधरविरचित प्रतिष्ठासारोद्धारमें तीर्थोदक लाने आदिको
कहनेवाला दूसरा अध्याय समाप्त हुआ ॥ २॥
॥४७॥
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयोऽध्यायः ॥३॥ अथातो यागमंडलपूजाविधानमभिधास्यामः
निर्ग्रन्थार्याः प्रसादं कुरुत पदमिहायज्ञसद्धर्मदीप्त्यै देवाः सर्वेच्युतांता विकुरुत सुतनुं मामिमामेत शत्यैि । क्षप्त्वा कर्मारिचक्रं किमयित दसमस्फूर्जदावर्य तेजः
सोद्यायं शासदीशस्त्रिजगदिह पशन स्थाप्यतेनुग्रहीतुम् ॥ १॥ प्रभावकसिंहसान्निध्यविधानाय समंतात् पुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।
एते वर्षत्विहाशीमृतमृषिगणाः साधु हूत्वाभिराद्धा विश्वदेवाश्च शास्त्रव्रजनपरिजना नंतु विघ्नानिहैते । स्थानस्था एव चैनं सह सुरमुनयस्तेऽहमिंद्राः सुघंतु
श्रद्धत्तायोमयाय जिनयजनविधिः प्रस्तुतोधीत्य सिद्धान् ॥२॥ अब याग मंडलकी पूजाकी विधि कहते हैं;-"निर्ग्रथा" इत्यादि कहकर जिनम-18 तकी प्रभावना करनेवालोंको निकट करके यज्ञमंडपके चारों तरफ पुष्प अक्षत क्षेपै ॥१॥2 “ एते वर्ष " इत्यादि श्लोक बोलकर साधर्मी भाइयोंके ऊपर पुष्प अक्षतकी वर्षा करे ॥२॥
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
माष्टी०
लन्डन्न्
॥४८॥
|अ०३
त्रिभुवनसधर्मिकामध्येषणाय समंतात्पुष्पाक्षतं विकिरेत् ।
दृग्शुद्धयादिसमिद्धशक्तिपरमब्रह्मप्रकाशोद्धुरं शब्दब्रह्मशरीरमीरितविपद्यन्मूलमंत्रादिभिः। इंद्रायैरभिराध्यते तदभितो दीमाग्नि सः क्ष्मासने
न्यस्यार्चामि सुभुक्तिदमहब्रह्माईमित्यक्षरम् ॥ ३॥ शब्दब्रह्मावर्जनाय कर्णिकामध्ये पुष्पांजलिं विसृजेत् ।
चिद्रूपं विश्वरूपव्यतिकरितमनायतमानंदसांद्र यत्माक् तैस्तैर्विवतैय॑तदतिपतदुःखसौख्याभिमानैः। कर्मोद्रेकात्तदात्मप्रतिघमलाभदोद्भिननिःसीमतेजः
प्रत्यासीदत्परौजः स्फुरदिह परमब्रह्म यक्षेईमाह्वम् ॥ ४ ॥ परमब्रह्मयज्ञप्रतिज्ञानाय कर्णिकांतः कुसुमांजलिमावपेत् । इति प्रस्तावना ।। |"दृग्शुध्या" इत्यादि कहकर शब्द ब्रह्मके नामसे कर्णिकाके बीचमें पुष्पांजलि क्षेपण करे॥३॥ “चिद्रूपं" इत्यादि पढकर परब्रह्म अर्हतकी पूजाके अभिप्रायसे कर्णिकाकेमध्यमें पुष्पोंको क्षेपण करे ॥४॥" स्वामिन् ” इत्यादि"ओं ह्रीं"इत्यादि बोलकर आह्वानन स्थापन सनिधीकरण
000000
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
न्छ
.
स्वामिन् संवौषट् कृतावाहनस्य द्विष्टांतेनोटंकितस्थापनस्य ।
स्वं निर्नेक्तुं ते वषट्कार जाग्रत् सान्निध्यस्य प्रारभेयाष्टधेष्टिम् ॥ ५॥ ओं ह्रीं अर्ह श्रीपरमब्रह्म अत्रावतरावतर संवौषट् । अनेन कर्णिकामध्ये पुष्पांजलिं प्रयुज्या-51 वाहयेत् । ओं ही अर्ह श्री परमब्रह्म अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ । अनेन तद्वत् प्रतिष्ठयेत् । ओं इत्यादि। मम सन्निहितं भव भव वषट् । अनेन तद्वत्संनिधापयेत् । आह्वानादिपुरस्सरपूजावप्सरप्रार्थना ।
अथ पूजा। चंचद्रनमरीचिकांचनकनगंगारनालश्रुतश्रीखंडस्फुटिकादिवासितमहातीर्थीबुधाराश्रिया। इंतं दुःकृतमेतया स्वसमयाभ्यासोद्यतैराश्रिता
सत्कुर्वीय मुदा पुराणपुरुष त्वत्पादपीठस्थलीम् ॥ ६ ॥ ओं ह्रीं अर्ह श्री परब्रह्म.. ...........................नीरधारा ।
इमैः संतापार्चिः सपदि जयदृप्तः परिमल
प्रथामूर्च्छद्घाणैरनिषदृगंशुव्यतिकरात् । करे फिर पूजा करना आरंभ करे ॥५॥" चंचद्रत्न " इत्यादि और 'ओं ह्रीं' कहकर जलधारा चढावे ॥६॥ “ इमैः” इत्यादि तथा 'ओं ह्रीं पढकर चंदन चढावे ॥७॥" सुगंधि"
सन्न
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
नि
स्फुरत्पीतच्छायैरिव शमनिधे चंदनरसै
हाभाटी० विलिंपेयं पेयं शतमखदृशां त्वत्पदयुगम् ॥ ७॥
अ०३ ओं ह्रीं................................................गंधं । सुगंधिमधुरो जूसकलतंदुलछद्मना सुभक्तिसलिलोक्षितैरिव निरीय पुण्याकुरैः। | सुपुंजरचनाजित प्रणयपंचकल्याणकैर्भवांतकभवत्क्रमावुप हरेयमेभिः श्रियै ॥८॥
ओं ह्री...............................................अक्षतं । हृदयकमलमन्वंचद्भिरामोदयोगाद्रसविसरविलासाल्लोचनाब्जे हसद्भिः।। विशदिमजितबोधैर्बुद्धभावत्कमेतैश्चरणयुगमनूनैः प्रार्चयेयं प्रसूनैः ॥९॥
ओं ह्री................................................पुष्पं । सुस्पर्शातिरसगंधशुद्धिभंगी वैचित्री हतहृदयेंद्रियरमीभिः। भूतार्थक्रतुपुरुष त्वदंघ्रियुग्मं सान्नाय्यैरमृतसखैर्यजेय मुख्यैः ॥ १० ॥
ओं ह्रीं................................................नैवेद्यं । इत्यादि और 'ओह्रीं' कहकर अक्षत चढावे ॥८॥ " हृदय " इत्यादि तथा 'ओह्रीं' बोलकर ॥४९॥ पुष्प चढावे ॥९॥ “ सुस्पर्श' इत्यादि और 'ओं ह्रीं' बोलकर नैवेद्य चढावे॥१०॥"जाड्या"
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
9020
one
जाड्याधायित्ववैरादिव शशिनमपि स्नेहयुक्तं दहद्भिः सोदर्य स्वर्णयोगात् पटुतररुचिभिः सोदरत्वादिवाक्ष्णाम् । प्रेयोभिस्तत्प्रतापापहतिमिर हरैर्विश्वलोकैकदीपः श्राद्धचद्भिरेभिस्तव पदकमले दीपयेयं प्रदीपैः ॥ ११ ॥ ... आर्तिकं ।
ओं ह्रीं ..
*********.......
धूपानि मानसकृदुद्यदुदीरधूम स्तोमोल्लसद्भून यनहृद्गल नेत्रनासान् । दुष्कर्मगर्मुदचिरोद्धृतये धुताद्य त्वत्पादपद्मयुगमभ्यहमुत्क्षिपेयम् ॥ १२ ॥ ओं ह्रीं..................
धूपं ।
शाखा पाकप्रणय विलसद्वर्णगंधर्द्धिसिद्धध्वस्तद्रव्यांतरमधुरसास्वादरज्यद्रसज्ञैः । एभिवोचक्रमुकरुचक श्रीफलाम्रातकाम्र
प्रायैः श्रेयः सुखफलफलैः पूजयेयं त्वंदीन् ॥ १३ ॥
......... फलम् ।
ओं ह्रीं .....
*******....
"
इत्यादि तथा 'ओह्रीं' कहकर दीप चढावे ॥ ११ ॥ " धूपा ” इत्यादि और 'ह्रीं' कहकर धूप चढावे ॥ १२ ॥ शाखा ” इत्यादि तथा 'ओह्रीं' कहकर फल चढावे ॥ १३ ॥ (6 जलगंधा
66
1000006
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
अ०३
न्सन्छन्
जळगंधाक्षतप्रसूनचरुदीपधृपफलोत्तमै
भाण्टी दैघिदादिमंगलयुतैः पृथुकांचनभाजनार्पितैः ।
रचितमिमं विचित्रतौर्यत्रिककीर्तनजयजयस्वन शा
स्वस्त्ययनेद्धसभ्यमुदमर्घमनयँ परिक्षिपेय ते ॥१४॥ ___ओं ह्रीं अर्ह श्री परब्रह्मणे अनंतानंतज्ञानशक्तये इदं जलं गंधमक्षतान् पुष्पाणि चरुं दीपं । धूपं फलं अर्धे च निर्वपामीति स्वाहा । इमान् मंत्रान् हृद्युच्चारयन् पूजां दद्यात् । एवं सर्वत्र । इति । परमपुरुषार्चनविधानम् । ।
तद्वीजं परमं सर्वान् विघ्नान येनाधिवासितं । निहंति मूलमंत्राय तस्मै पुष्पांजलिं क्षिपेत्१५ ____ओं नमो अरहंताणं ह्रौं स्वाहा । मूलमंत्रपूजा । ऋषमः केवलज्योतिरुन्मेषाय स्मरंति यम् । तस्मै केवलिमंत्राय ददामि कुसुमांजलिम् १६ । ___ओं ह्रीं है अर्हत्सिद्धसयेगिकेवलिभ्यः स्वाहा । केवलि मंत्रपूजा । क्षत" इत्यादि तथा “ ओह्रीं” इत्यादि बोलकर अर्घ चढावे ॥ १४ ॥ इसतरह परम पुरुष श्री अर्हतदेवका पूजन हुआ। “ तद्बीजं" इत्यादि तथा “ओं नमो” इत्यादि बोलकर मूलमंत्रको पुष्पांजलि चढावे ॥ १५ ॥ “ ऋषयः” इत्यादि तथा " ओं ह्रीं” इत्यादि बोलकर केवलिमंत्रको पुष्प चढावे ॥१६॥ " पुण्यश्रेणी" इत्यादि तथा "ओं अर्ह" इत्यादि पढ- |
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
22222
22222
पुण्यश्रेणिशुद्धदृग्वत्त सेवारागाद्वद्धास्तत्तदैश्वर्यभुक्ता । या संहार्याभ्यर्णयत्युद्यबोधिं पुंसो नंद्यावर्तमालां यजे तं ॥ १७ ॥ ओं अर्ह नंद्यावर्तवलयाय स्वाहा । नंद्यावर्तमालार्चनम् । शिवपथमनुबन्नतः समाधि प्रशमवतः सुखपर्वणां प्रबंधम् । यवबलयमनल्पबुद्धिकाम्यं वरकुसुमांजलिनांजसार्चयामि ॥ १८ ॥ अ अ यववलयाय स्वाहा । यववलयार्चनम् ।
भित्वा कर्मगिरीन् प्रबुद्धसकलज्ञेयादिसंतः शिवः पुंसां शुद्धिविशेषतोच्छमनसा सेवाविधौ यस्य ताम् । सौख्यं लांति वृषार्पणादघहृतेर्ये वा मलं गालयं - त्यर्घेणोपचरामि मंगलमहत्तानईतोभ्यर्हितान् ॥ १९ ॥ ओं अर्हन्मंगलार्घम् ।
कर नद्यावर्तमालाको पुष्पोंसे पूजे ॥ १७ ॥ “ शिवपथ " इत्यादि तथा ओं अहं इत्यादि कहकर यववलयकी पूजा पुष्पोंसे करे ॥ १८ ॥ “ भित्वा कर्मगिरी " इत्यादि पढकर अर्हत मंगलको अर्घ चढावे ॥ १९ ॥ “ नामध्वंसा ” इत्यादि पढकर सिद्धमंगलको अर्ध चढावे
"
938
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
भान्टी०
०३
प्र०सा०
नामध्वंसा तैजसादायुरंतादुत्क्रम्यांगादुत्तमौदारिकाच्च । ॥५१॥
ये भक्षणां मंगलं लोकमाधि प्रद्योतते तान् भजेऽर्पण सिद्धान् ॥२०॥ ओं सिद्धमंगलाघम् ।
ये मार्गस्याचारका देशका ये ये चासक्रं ध्यायकाः साधयति ।
सिद्धिं साधून मंगलं भावुकानां तान सर्वानप्युयभक्त्यार्पयामि ॥ २१॥ ओं साधुमंगलार्घम् ।
दृग्बोधवर्धिष्णुदयाप्रभूष्णोः क्षात्यादिदोष्णो जगदेकजिष्णो ।
सन्मंगलस्योपहरामि केवलिप्रज्ञप्तधर्मस्य सुवर्मणोऽर्घम् ॥ २२ ॥ ओं केवलिप्रज्ञप्तधर्ममंगलार्घम् । निश्चित्य श्रुत्या नैगमेनानुचिंतन् न्यस्याद्वा नामस्थापनाद्रव्यभावैः। भव्यैः सेव्यते ये सदा मुक्तिकामस्तेभ्योऽहयोऽोस्त्वेष लोकोत्तमेभ्यः ॥२३॥
अर्हल्लोकोत्तमाघे । ४॥२०॥"ये मार्ग" इत्यादि पढकर साधु मंगलको अर्घ चढावे ॥२१॥“ग्बोध"
इत्यादि पढकर केवलिकथित धर्ममंगलको अर्घ चढावे ॥ २२॥ " निश्चित्य " इत्यादि पढकर अहल्लोकोत्तमको अर्घ चढावे ॥ २३ ॥" नामादिभि" इत्यादि पढकर सिद्ध लोको
॥५१॥
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
नामादिभिर्येष्टभिरण्यदुष्टरिष्टाय संति प्रणिधीयमानाः । विन्यस्य नो आगमभावतस्ताल्लोकोत्तमान् साधु यजेत्र सिद्धान् ॥ २४॥ सिद्धलोकोत्तमाघम् ।
यूना कोट्योनगारर्षियतिमुनिभिदो ये नवोत्कर्षवृत्त्या नानादेशान् नृलोके शिवपथमनिशं साधयंतः पुनंति । घस्रे घने सनीडी भवदमृतरमासंगमा साधवस्ते
भूता भव्या भवांतो विधिवदपचिताः पातु लोकोत्तमा नः ॥ २५ ॥ साधुलोकोत्तमाघम् ।
श्रद्धाय व्यवहारतत्त्वरुचिधी चर्थात्मरत्नत्रय प्रादुःष्यतत्परमार्थतत्रयमयस्वात्मस्वरूपं बुधाः । सद्युक्तागमचक्षुषो विदधते लोकोत्तमः केवलि
प्रज्ञप्तोभ्युदयापवर्गफलदः सोयेंत धर्मोऽनघः ॥ २६ ॥ केवलिप्रज्ञप्तधर्मलोकोत्तमाघम् । |त्तमको अर्घ चढावे ॥२४॥"यूनाः" इत्यादि पढकर साधुलोकोत्तमको अर्घ चढावे ॥ २५ ॥" श्रद्धाय " इत्यादि पढकर केवलिप्रणीतधर्म लोकोत्तमको अर्घ चढावे ॥ २६ ॥
-
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रसा०
भाधी०
॥५२॥
सर्वप्राणिदयामयेन मनसा शुद्धात्मसंवित्सुधाश्रोतस्यात्मनि सन्निपत्य महसा शश्वत्तपंतः परम् । ये भव्यानिजभक्तिभावितधियो रक्षति पापात् सदा
तानावय॑ सपर्ययात्र शरणं सर्वान् प्रपद्यर्हतः ॥ २७ ॥ अर्हच्छरणार्घम् ।
सांद्रानंदचिदात्मनि स्वमहसि स्फारं स्फुरंतः स्फुटं
पश्यंतो युगपत्रिकालविषयानंताति पातान्वयाम् । षड्द्रव्यी स्वपदाधिपत्यमचिराद्यच्छति ये ध्यायतां
तानपेण यजामहे भगवतः सिद्धान् शरण्यानिह ॥ २८ ॥ सिद्धशरणार्घम् ।
आचारं पंचधा ये भवचकितधियश्चारयंतश्चरंति
व्याख्याति द्वादशांगी सुचरितनिरता ये च शुश्रूषकाणाम् । सर्वप्राणी " इत्यादि पढकर अहंतशरणको अर्घ चढावे ॥ ७॥ “ सांद्रा" इत्यादि पढकर- सिद्धशरणको अर्घ चढावे ॥ २८ ॥ “आचारं" इत्यादि पढकर साधुशरणको अर्घ चढावे
॥५२॥
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
मन्न्क
लन्स
साम्याभ्यासोधदात्मानुभवघनमुदो गिनां नंति वैरं
ते सर्वेप्यर्षिता मे त्रिभुवनशरणं साधवः संतु सिद्धथै ॥ २९ ॥ साधुशरणार्घम् ।
सच्छ्रद्धोपग्रहीतमर्तिमथनाहार्यवैराग्यकृत् सम्यग्ज्ञानमसंगसंगवदधिष्ठानं यदात्मा द्विधा । सिद्धः संवरनिर्जराभवशिवाह्लादावहः केवलि
प्रज्ञप्तः शरणं सतामनुमतः सोर्पण धर्मोच्यते ॥ ३०॥ केवलिप्रज्ञप्तधर्मशरणार्धम् । ओं चत्तारिमंगलमित्यादिना स्वाहांतेन पूर्ववदत्राप्यधिवासयेत् । इत्यर्चिताः परब्रह्मप्रमुखाः कर्णिकार्पिताः । संतु सप्तदशाप्यते सभ्यानां शमशणे ३१ __ पूर्णार्धम् । इति द्वासप्ततिदलकमलकर्णिकाभ्यर्चनविधानं । अथ षोडशपत्रस्थापितविद्यादेवतार्चनम्।। ॥ २९ ॥ “सद्धो " इत्यादि पढकर केवलिकथितधर्मशरणको अर्घ चढावे ॥३०॥ “ओंचत्तारि मंगलं " यहांसे लेकर स्वाहातक पहलेकी तरह पाठ करे । “ इत्यर्चिता" ? इत्यादि श्लोक बोलकर पूर्णार्घ चढावे ॥ ३१ ॥ इस प्रकार बहत्तरि पत्तोंवाले कमलके कर्णिका भागका पूजन हुआ । अब सोलह पत्तोंपर स्थित विद्यादेवियोंका पूजनविधान
न्छन्
...
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
भासा०
कन्छ
न्
विद्या प्रियाः षोडश दृग्विशुद्धि-पुरोगमाईत्यकृदर्थरागाः ।
माष्टी० यथायथं साधु निवेश्य विद्या-देवीर्यजे दुर्जयदोश्चतुष्काः ॥ ३२॥ विद्यादेवीसमुदायपूजाविधानाय समस्तहव्यद्रव्यपूर्णपात्रपरमपुरुषचरणकमलयोरवतार्य पार्श्वतो ) निवेशयेत् । एवं सर्वत्रापि विधेयम् ।
विद्याः संशब्दये युष्मानायात सपरिच्छदाः। अत्रोपविशतैता वो यजे प्रत्येकमादरात् ॥ ३३ ॥ भगवति रोहिणि महति प्रज्ञप्ते वज्रशृंखले स्वलिते । वज्रांकुशे कुशलिके जांबूनदिकेस्तदुर्मदिके ॥ ३४ ॥ पुरुधानि पुरुषदत्ते कालि कलाढ्ये कले महाकालि ।
गौरि वरदे गुणर्दै गांधारि ज्वालिनि ज्वलज्ज्वाले ॥ ३५॥ कहते हैं । “विद्याप्रियाः" इत्यादि पढकर विद्यादेवियोंके समूहकी पूजाके लिये सब पूजासामग्रीको अर्हतके चरणकमलोंमें आरतीरूप करके समीपमें रक्खे ॥ ३२ ॥ “ विद्याः संशब्द" इत्यादि पढकर आह्वाननादि करे ॥३३॥"भगवति" इत्यादि तीन श्लोक बोलकर आवाहनआदिपूर्वक हर एककी पूजाके लिये पत्रोंमें पुष्प अक्षत क्षेपण करे ॥ ३४॥३५॥३६॥"विशोध्य" इत्यादि तथा “ ओं ह्रीं रोहिणि " इत्यादि बोलकर
॥५३॥
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानवि देवि शिखंडिनि खंडिनि वैरौटि शुक्च्युतेऽच्युतिके।
मानास मनस्विनि रते यशसि महामानसीदमुचितं वः ॥ ३६ ॥ आवाहनादिपुरस्सरं प्रत्येकपूजाप्रतिज्ञानीय पत्रेषु पुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।
अथ प्रत्येकपूजा । विशोध्य यो चेष्टगुणैः सरागो दृष्टिं चिरागश्च परां प्रचक्रे ।
स कुंभशंखाब्जफलांबुजस्था-श्रिताय॑से रोहिणि रुक्मरुक्तम् ॥ ३७॥
ओं ह्रीं रोहिणि इदं गंधं पुष्पं धूपं दीपं चरुं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृ-12 शिवतां प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतामिति स्वाहा।
हग्ज्ञानचारित्रतपस्सु सुरिपुरस्सरेष्वप्यकृतादरो यः।
तद्भाक्तिकां त्वाश्वगतेलिनीलां प्रज्ञाप्तिकेामि सचक्रखनाम् ॥ ३८ ॥ ओं ह्रीं प्रज्ञप्ते इदं........................................................... स्वाहा । रोहिणीको जलादि अष्ट द्रव्य चढावे ॥ ३७॥ " हग्ज्ञान " इत्यादि और ओहीं इत्यादि बोलकर प्रज्ञप्तिको जलादि आठ द्रव्य चढावे ॥ ३८ ॥ “व्रतानि" इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर वज्रशृंखलाको जलादि आठ द्रव्य चढावे ॥३९॥ " ज्ञानोपयोगं " इत्यादि, “ओह्रीं"
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
अ०३
व्रतानि शीलानि च जातु योतर्वृत्त्याभनग्नो बहिरीहया वा।
माटी० तद्भगिभ स्थापविशृंखलाना पीता च तृप्तिं पविशृंखलेस्मिन् ॥ ३९ ॥ ओं ह्रीं वज्रशेखले........................................ ।
ज्ञानोपयोग व्यदधादभीक्ष्णं यस्तं भजंतं श्रितपुष्पयानाम् ।
वज्रांकुशे त्वा सृणिपाणिमुद्यद्वीणारसा मंजु यजे जनाभाम् ॥ ४०॥ ओं ह्रीं वज्रांकुशे...............
धर्मे रजद्धर्मफलेक्षणे च योजन्मभीस्तस्य मखे शिखिस्था ।
जांबूनदाभा धृतखड़कुंता जांबूनदे स्वीकुरु यज्ञभागम् ॥ ४१ ॥ ओं ह्रीं जांबूनदे......................................... ।
शक्त्यार्थिनां बोधनसंयमांग यस्त्यागमाधत्त तमानमंतीम् ।
कोकश्रितां वज्रसरोजहस्तां यजे सितां पूरुषदत्तिके त्वाम् ॥ ४२ ॥ ___ओं ह्रीं पुरुषदत्ते..................... इत्यादि बोलकर वज्रांकुशाको जलादि आठ द्रव्य चढावे ॥४०॥" धर्मे " इत्यादि तथा |"ओह्रीं" कहकर जांबूनदाको जलादि आठ द्रव्य चढावे ॥ ४१ ॥ "शक्त्यार्थिनां" इत्यादि ना॥ ५४॥ तथा "ओह्रीं” बोलकर पुरुषदत्ताको जलादि आठ द्रव्य चढावे ॥४२॥ " तपांसि " इत्यादि ।
।
पुरुप५त...............................................।
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
तपांसि कष्टान्यनिगूढवीर्यश्वरन जगत्रैधमधश्चकार ।
यस्तन्नताच भज कालि भर्मप्रभा मृगस्था मुशलासिहता ॥ ४३ ॥ ओं ह्रीं कालि....
1
चक्रे धिकसाधुषु यः समाधिं तं सेवमाना शरमाधिरूढा । श्यामाधनुः खङ्गफलास्त्रहस्ता बलिं महाकालि जुषस्व शांत्यै ॥ ४४ ॥ ओं ह्रीं महाकालि .....
1
Ber
****** ME...
तपस्विना संयमबाधवर्ज प्रतिबधतात्मवदापदो यः । गोधागता हेमरुगब्जहस्ता गौरि प्रमोदस्व तदर्चनांशैः ॥ ४५ ॥
..... ... .... 1
तेने शिवश्रीसचिवाय योईत्, भक्ति स्थिरां क्षायिकदर्शनाय । चक्रासिभ्रत्कूर्मगनीलमूर्ते गृहाण गांधारि तदंधिगंधम् ॥ ४६ ॥
...............................
"
तथा " ओं ह्रीं" बोलकर कालीको अर्घ चढावे ॥ ४३ ॥ “ चक्रेधिक ” इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर महाकालीको अर्घ चढावे ॥ ४४ ॥ " तपस्विना " इत्यादि तथा " ओं ह्रीं” बोलकर गौरीको अर्घ चढावे ॥४५॥ “ तेने" इत्यादि तथा "ओं ह्रीं" बोलकर गांधारीको अर्घ चढाव
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
पळसा
भाटी०
....
....
अ०३
लन्डन्न्कन्छन्
ओं ह्रीं गांधारि...............
सत्सरिभक्तिं प्रतिदेवता यो भेजे यजे ज्वालिनि तन्महे त्वाम् । ___ शुभ्रां धनुः खेटकखगचक्रायुग्राष्टबाहुं महिषाधिरूढाम् ॥ ४७॥ ओं ह्रीं ज्वालामालिनि.......................................।
शुद्धोपयोगैकफलश्रुतार्थ यो भक्तिमभ्यासबहुश्रुतेषु । स्वं धिन्वतो मानवि केकिकण्ठनीलाकिटिस्थासझपत्रिशूला ॥४८॥ ओं ह्रीं मानवि शिखंडिनि.................................. ।
यो स्पृष्टदृष्टेष्टविरोधमईदुपज्ञमन्वागममन्वरज्यत् । ___ त्वां सिंहगामात्तदर्पसा यज्ञेस्य वैरोटि यजेभ्रनीलाम् ॥ ४९॥
ओं ह्रीं वैरोटि....... ॥ ४६॥ " सत्सूरि " इत्यादि तथा “ओं ह्रीं" कहकर ज्वालामालिनीको अर्घ चढावे ॥४७॥ " शुद्धोप" इत्यादि तथा “ओं ह्रीं" कहकर मानवीको अर्घ चढावे ॥४८॥ “यो स्पष्ट " इत्यादि तथा" ओं ह्रीं" कहकर वैरोटीको अर्घ चढावे ॥४९॥ "बोढौ" इत्यादि तथा “ओं हीं" बोलकर अच्युताको अर्घ चढावे ॥५०॥मार्ग " इत्यादि तथा “ओं ह्रीं" बोलकर
Sarब्ल
.
....
....
....
....
...
॥५५॥
न्छ
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
rane..
.C
षोढी नयी व्याधिवशोप्यवश्यं नावश्यकं यः सपथाद्यपेक्षम् ।
धौतासिहस्तां हयगेच्युते त्वां हेमप्रभातं प्रणतां प्रणौमि ॥ ५० ॥ ओं ह्रीं अच्युते........................................ ।
मार्ग वृषे निश्चलयन विनेयान् प्राभावयद्यः सुतपः श्रुताद्यैः ।
रक्ताहिगा तत्पणताप्रणाममुद्रीन्विता मानसि मेसि मान्या ॥५१॥ ओं ह्रीं मानसि. ........................................ ।
योधात्सधर्मस्वतिवत्सलत्वं रक्ता महामानसि तत्मणांमे ।
रक्ता महाहंसगतेक्षसूत्रवरांकुशस्रक्सहितां यजे त्वाम् ॥ ५२ ॥ ओं ह्रीं महामानसि........................................।
सत्पूजावलिदानलालितमनाः स्फारस्फूरद्वत्सलीभावावेशवशीकृताः कृतधियामिष्टाश्च पूर्णाहुतिम् । विद्यादेव्य इमां प्रतीच्छत जिनज्येष्ठाप्रतिष्ठांजसा
निष्ठा मुख्यमनोरथान फलवतः कर्तुं यतध्वं मम ॥ ५३॥ मानसीको अर्घ चढावे ॥५१॥ “ योधात् " इत्यादि तथा “ओं ह्रीं" बोलकर महामानसीको अर्घ चढावे ॥५२॥ “ सत्पूजा" इत्यादि बोलकर सबको पूर्णाहुति दे ॥ ५३ ॥ “एवं
O NOCOM
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
अ०३
प्र०सा पूर्णाहुतिः।
भा०टी० एवं विद्यादेवताश्चंदनाद्यै रोहिण्याद्याः प्रीणिता मंत्रयुक्तैः।
निनंतोईद्यागविघ्नानशेषान् प्रीत्युत्कर्ष तज्जुषां पोषयंतु ॥ ५४॥ इष्टप्रार्थनाय पुष्पांजलिं क्षिपेत् । इति विद्यादेवतार्चनविधानं । अथ चतुर्विंशतिदलन्यस्तजिनमात्रिकार्चनम् ।
यासां गर्भगृहे हरिप्रणिहित,यादिक्रिया संस्कृते दिव्येभोरुहविष्टरे किल निजामाधाय शक्तिं पराम् । उद्भूता वृषभादयो जिनषा विश्वेश्वरा निष्कला
स्तश्चिाये जिनमातृकाः कजलन्यस्ताश्चतुर्विंशतिः ॥ ५५ ॥ जिनमातृसमुदायपूजाविधानाय पूर्वविधि विदध्यात् । विद्या" इत्यादि बोलकर इष्ट प्रार्थनाके लिये पुष्पांजलि चढावे ॥ ५४ ॥ इस प्रकार || विद्यादेवियोंकी पूजाविधि हुई। अब चौवीस पत्रोंपर स्थित चौवीस जिनमाताओंकी , हापूजा कहते हैं । “ यासां" इत्यादि श्लोक बोलकर जिनमाताओंकी पूजाके लिये पहलेकी ॥५६॥
तरह पूजाद्रव्यको समीप रखे ॥ ५५ ॥ "अंवा " इत्यादि बोलकर आवाहनादिपूर्वक प्रत्य
कान्लन्छ
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
अंबाः संशब्दये युष्मानायात सपरिच्छदाः । अत्रोपविशतैता वो यजे प्रत्येकमादरात् ५६ । आवाहनादिपुरस्सरं प्रत्येकपूजाप्रतिज्ञानाय पत्रेषु पुष्पाक्षतं क्षिपेत् । अथ प्रत्येकपूजा ।
साकेताधिपमन्वनूकतिलक-श्रीनाभिराजप्रिये सद्वृत्ते पुरदेवसंभवभवद्देवेंद्रसेवोत्सवे । त्रैलोक्याग्रपितामहि स्तुतगुणे स्तुत्यैरपीहाभिदा
देवि श्रीमरुदेवि भावयमहं दृष्टिप्रसादेन मे ॥ ५७ ॥ ओं मरुदेव्यै इदं.......................................।
मन्विक्ष्वाकुमहोनुबद्धदिनकृदंशस्फुरत्कोशलास्वामिश्रीजितशत्रुपार्थिवमनोरोलंबराजीविनि । विष्वग्बंधुजयप्रदा जितजिनाधीशोद्भवन्यक्कृत---
न्यक्षस्त्रीप्रसवस्मयेंब विजये त्वार्चनधिस्याजये ॥ ५८ ॥ ओं विजयसेनायै.
...................... । पूजाकी प्रतिज्ञा करनेकेलिये पत्रोंमें पुष्प अक्षतोंको क्षेपण करे ॥५६ ॥ “साकेता" इत्या-3 लादि तथा 'ओं मरुदेव्यै' इत्यादि बोलकर मरुदेवीको जलादि आठ द्रव्य चढावे ॥५७॥"मन्वि-|| क्ष्विाकु" इत्यादि तथा 'ओं ह्रीं' बोलकर विजयसेनाको अर्घ चढावे॥५८॥"स्वावस्ति" इत्यादि।
-
.............
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
TO ATO
भाटी०
॥५७॥
अ०३
स्वावस्तिपुरेश्वर पुरवंशज दृढराज दृढतम प्रणयाम् ।
शंभवजिनरत्नखानं सुखिनि सुषेणे महन्महीये त्वाम् ।। ५९ ॥ ओं सुषेणायै..........................................।
साकेतपतौ भवतीमिक्ष्वाकुवरे स्वयंवरे निरताम् ।
अभिनंदनजिनजननी सिद्धार्थेामि सिद्धार्थाम् ॥ ६ ॥ ओं सिद्धार्थायै.............................। नाभेयवंशनिषधाद्रिखेरयोध्यानाथस्य मेघरथभूमिपतेः सुपरिन ।
सेवाप्रपन्नसुमतेः सुमतेः सवित्रि त्वां मंगले भुवनमंगलमर्चयामि ॥ ६१॥ ओं सुमंगलायै........................................... । मनुकुलजलधींदोर्देवि कौशांब्यधीश-प्रणयिनि धरणस्य क्ष्माविपद्वारणस्य । भवदपचितिसज्जेकानपद्मप्रभार्हन्-मणिधरणि सुसीमेस्यान्मयि श्रीरभीमे ॥६२॥
ओं सुसीमायै............................................ । MRI“ओं ह्रीं” बोलकर सुषेणाको अर्घ चढावे॥५९॥ “साकेतपतौ" इत्यादि तथा “ओं ह्रीं” बोल
कर सिद्धार्थाको अर्घ चढावे ॥६०॥ "नाभेय" इत्यादि तथा “ओं ह्रीं" बोलकर सुमंगलाको अर्घ चढावे ॥ ६१ "मनुकुल" इत्यादि तथा “ओं ह्रीं बोलकर सुसीमाको अर्घ चढावे ॥२॥
॥ ५७॥
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
..................।
कन्सन्छन्
इक्ष्वाकुमुख्यकाशीशसुमतिष्ठनृपप्रियाम् । त्वां यजे पृथिवीषेणे सुपार्श्वजिनमातरम्६३ ओं वसुंधरायै....................... मूर्यान्वयं चंद्रपुराध्विचंद्रं श्रिता महासेनमभेदवृत्त्या ।
चंद्रप्रभेशप्रभवप्रभावात् कस्य प्रतीक्षासि न लक्ष्मणेस्मिन् ॥ ६४ ॥ ओं लक्ष्मणायै............ काकंद्यधीशे पुरुदेववंश्ये सुग्रविराजे निरुपाधिरागाम् ।
त्वा पुष्पदंतप्रसवाभिरामे यजामि यज्ञे जय रामिकेस्मिन् ॥ ६५ ॥ ओं रामायै..
त्वां राजभद्र पुरनृप वृषभान्वयदृढरथानुरागस्था। __शीतलजिनाभिनंद्ये वंदे वंद्ये सतां सुनंद्येद्य ॥ ६६ ॥
ओं सुनंदायै............................................ । "इक्ष्वाकु" इत्यादि तथा “ओं ह्रीं” बोलकर वसुंधराको अर्घ चढावे ॥६३॥ "सूर्यान्वयं इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर लक्ष्मणाको अर्घ चढावे ॥६४ ॥“काकंद्यधीशे " इत्यादि । तथा “ओं ह्रीं" बोलकर रामाको अर्घ चढावे॥६५॥"त्वां राजभद्र" इत्यादि तथा"ओं ह्रीं बोलकर सुनंदाको अर्घ चढावे ॥६६॥“प्राणप्रियां" इत्यादि तथा “ओं ह्रीं” बोलकर
जा रामाय............
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
भान्टी
प्रसा०
अ०३
कन्काउन्लन्छन्दकन्कन्छन्
माणप्रिया सिंहपुरारिजिष्णोः प्रकाशितेक्ष्वाकुकुलस्य विष्णोः।
त्वां देवि नंदेर्चयतायधन्यं श्रेयोजनन्यस्य जनस्य जन्म ॥ ६७॥ ओं विष्णुश्रियै...
...........। यथाईमिक्ष्वाकुविभक्तसंपञ्चंपाधिपश्रीवसुपूज्यवश्याम् । ___ श्रीवासुपूज्यभजनोपजातजगज्जयेर्चामि जयावति त्वाम् ॥ ६८॥
ओं नयायै........................................... । कांता कांपिल्पनाथार्ककुल्यश्रीकृतवर्मणः । जय श्यासे यजामि त्वां जननी विमलेशिनः ६९ | ओं सुशर्मलक्ष्म्यै ........................................ । साकेतनायकैक्ष्वाकुसिंहसेन नमः सुधाम् । पूजयामि जयश्यामे त्वामनंतजिताबकाम् ॥७० | ओं सुव्रतायै................. .....................। देवी भानुमहाराजनानो रत्नपुरेशिनः । कुरुवर्यस्य धर्मापाची त्वार्चामि सुप्रभे ॥७१॥ विष्णुश्रीको अर्ध चढावे ॥ ६७ ॥ " तथाई ” इत्यादि तथा “ओं ह्रीं" बोलकर जयाको अर्घ चढावे ॥ ६८ ॥ “कांता कांपिल्य" इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर सुशर्मलक्ष्मको अर्थ
चढावे ॥ “साकेतनाय" इत्यादि तथा ओं हृीं बोलकर सुव्रताको अर्घ चढावे ॥ ७० ॥ RI देवीं मानु" इत्यादि तथा ओं ह्रीं वोलकर ऐरणीको अर्घ चढावे ॥ ७१ ॥ "हस्तिनाग |
५४॥
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
ओं ऐरण्यै.
हस्तिनागनगरे कुरुवंशे विश्वसेननृपतेर्दयितायाः।
शांतिकल्पतरुभोगभुवस्ते प्रार्चयामि चरणद्वयमैरे ॥ ७२ ॥ ओं कमलायै............................................ ।
कुरुकुलशशांकहास्तिनपुरपरिदृढशूरसेननृपकांताम् ।
श्रीकांते कुंथुजिनप्रसवित्री पूजयामि त्वाम् ॥ ७३ ।। ओं सुमित्रायै................... ...................... ।
श्रीहास्तिसेनकुरुपस्य पत्नी सुदर्शनाद्यस्य सुदर्शनस्य । ___ मातः सवित्रीमरतीर्थकर्तुस्त्वां मित्रसेनेत्र महे महामि ॥ ७४ ॥ ___ओं प्रभावत्यै.......................................... । मिथिलारक्षकक्ष्वाकुप्रभुकंभारवल्लभाम् । प्रजापति यजे मल्लिजिने त्वां प्रजापतिं ॥ ७५॥ इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर कमलाको अर्घ चढावे ॥ ७२ ॥ “ कुरुकुल" इत्यादि तथा ? ओं ह्रीं बोलकर सुमित्राको अर्घ चढावे ॥ ७३ ॥ " श्रीहास्तिसेनः" इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर प्रभावतीको अर्घ चढावे ॥७॥ "मिथिलार " इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर पपावती को अर्घ चढावे ॥ ७५॥
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
१० सा०
॥ ५९ ॥
ओं पद्मावत्यै..
66
हरिवंशवंशसुमणे राजग्रहेशमियां सुमित्रस्य । मुनिसुव्रत जिनजननीं सोमे सौम्यां यजामि त्वाम् ॥ ७६ ॥
ओं वप्रायै...
***...*
मिथिलानाथवृषान्वयविजयमहाराजसंज्ञनृपराज्ञीम् । संपूजयामि नमिजिनजनयित्रीं वप्पिले भवति ॥ ७७ ॥ ओं विनीतायै................
.......
द्वारवतीपरमेश्वर हरिवंशोत्तर समुद्रविजयवशाम् । मातरमरिष्टनेमेः शिवदेवि यजे शिवाय त्वाम् ॥ ७८ ॥ ओं शिवदेव्यै ......
...................
काशीश्रियस्यायिनि विश्वसेने प्रेमाकुलामुग्रकुलां वरार्के । पार्श्वप्रसूत्युद्धृतविश्वलोकां ब्रह्मयाह्वये देवि महाम्यहं त्वाम् ॥
हरिवंश " इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर वप्राको अर्घ चढावे ॥ ७६ ॥ इत्यादि तथा ओं ह्रीं कहकर विनीताको अर्घ चढावे ॥ ७७ ॥ 26 द्वारवती " ओं ह्रीं पढकर शिवदेवीको अर्ध चढावे ॥ ७८ ॥ แ काशीश्रिय " इत्यादि
७९ ॥
" मिथिला "
इत्यादि और तथा ओं ह्रीं
भा०वी०
अ० ३
॥ ५९ ॥
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
..
..
.
....
....
.
.
कन्सन्छन्
ओं देवदत्तायै........
स्वर्लक्ष्मीमदखंडिकुंडनगरश्रीकाममाविधो नाथानुकविशेषकस्य माहपी सिद्धार्थधात्रीपतेः । अंबां दुर्दमदुःषमासहचरद्धर्मश्रुतेः सन्मते
योयज्मि प्रियकारिण प्रियकरी त्वास्मिन् प्रतिष्ठोत्सवे ।। ८०॥ ओं प्रियकारिण्यै इदं..............................................
नाभेयाधर्हदेवाः स्वभिहितमरुदेव्यादयः कोशलादि क्ष्माभून्नाभ्यादिदिव्यो हृदयसरसिजे भासमानाःसमये । पूर्णा प्राप्यमाणा निजतनुजगुणग्रामगाढानुरागैः प्रत्याहृत्यांतरायान् प्रथयत जगतां यमुच्चैः प्रमोदम् ॥ ८१॥
इति पूर्णार्घम् । इत्येता जिनमातरः सुदृगनुस्यूताखिलश्रीघना
श्लेषानंदनिदानपुण्यरचना चाय॑श्चतुर्विशतिः । बोलकर देवत्ताको अर्घ चढावे ॥ ७९ ॥ "स्वर्लक्ष्मी " इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर प्रियकारिणीको अर्घ चढावे ॥ ८० ॥ “ नाभेया " इत्यादि पढकर पूर्णार्घ चढावे ॥ ८१ ॥
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
TOITO
॥६०॥
|अ०३
भा०टी० भक्त्यास्मिन्नखिलज्ञयज्ञसमयेऽस्माभिः समभ्यर्चिताः
प्रत्यूहानपहत्य विष्टपहितां तसिद्धिमातन्वताम् ॥ ८२ ॥ एतद्वंदनामुद्रया पठित्वा भक्त्या पंचांगप्रणामं कुर्यात् । इति जिनमातृपूजनविधानम् । अथ द्वात्रिंशत्पुत्रारोपितशक्रार्चनम् ।
तत्तादृक्सुतपोनुषंगजपृथक् पुण्यानुभावोद्भव स्वज्ञैश्वर्यपराभिमानिकरसश्रोतोवगाहोत्सवान् । हृत्वान्यस्य यस्य मत्रविहिता सतीन् कराब्जोल्लस
द्यांगोल्बणितावीन् सुरपतीन द्वात्रिंशतं संयजे ॥ ८३ ॥ त्रिभुवनपतियज्ञे व्यापूतानां व्यवायान् खरमृदुकुदृशां तु द्वेषमस्पष्टतां च ।
प्रतिनियतनियोगव्यक्तदुरिशक्तीन व्युपशमयितुमिंद्रानद्य समानयामः॥८४॥
द्वात्रिंशदिंद्रसमुदायपूजाविधानाय पूर्वविधिं विदध्यात् " इत्येता" इत्यादि श्लोक पढकर वंदनामुद्रासे पंचांग नमस्कार करे ॥ ८२॥ इसप्रकार जिनमाताओंकी पूजाविधि कही गई है। अब बत्तीस इंद्रोंकी पूजा कहते हैं-" तत्तादृक् || इत्यादि दो श्लोकोंसे बत्तीस इंद्रोंकी समुच्चयपूजा करने के लिये पूर्वकी तरह कही हुई विधि । करे ॥८३॥८४॥"इंद्रा" इत्यादि श्लोक पढकर आवाहन आदि पूर्वक हर एककी पूजा
॥६०॥
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
इंद्राःसंशब्दये युष्मानायात सपरिच्छदाः । अत्रोपविशतैतान् वो यजे प्रत्येकमादरात ॥८५४ आवाहनादिपुरस्सरं प्रत्येकपूजाप्रतिज्ञानाय पत्रेषु पुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।
___ अथासुरेन्द्रादीनां पृथक् पूजा। कोणस्थमग्न्यादिदिगुद्यसप्त कोणाधनीकं दृढमुद्रास्त्रम् ।
विशेषपादांबुजसख्याप्यच्चूडामणिं चारु यजेऽसुरेंद्रम् ॥८६॥ ओं ह्रीं असुरकुमारेन्द्राय इदं जलं गंध.....................
कूर्मश्रितं सप्तदिगाश्रिनोरु नावादिसैन्यं फणिपाशपाणिम् ।
जिनांघ्रिपुष्पांकफलांकमौलिं नागेंद्रमुनिद्रमुदर्चयामि ॥ ८७ ॥ ओं ह्रीं नागकुमारेंद्रीय इदं...-.....
तायादिकक्षाकुलसप्तदिकं धौतासिदंड द्विरदाधिरूढम् ।
यजे सुपर्णेन्द्रमपास्तमोहविचंद्रपादाप्तशिरः सुपर्णम् ॥ ८८ ॥ करनेके नियमके लिये पत्तोंपर पुष्प अक्षत क्षेपण करे ॥ ८५ ॥ अब सुरेंद्रोंकी जुदी २ पूजा है कहते हैं । “कोणस्थ " इत्यादि तथा “ओं ह्रीं" इत्यादि बोलकर असुरेंद्रको जल आदि आठ द्रव्य चढावे ॥ ८६ ॥ “कूर्मश्रितं " इत्यादि तथा ओं ह्रीं” बोलकर नागकुमारेंद्रको अर्थ चढावे ॥ ८७ ॥ “ताादिकक्षा" इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर सुपर्णकुमार इंद्रको
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
सा०
मा०टी०
॥६१।
ओं ह्रीं सुपर्णकुमारेंद्राय इदं........................ सप्तासनसप्तगजादिसप्त सप्तेष्टथट्टोत्कटसप्तकाष्टम् ।
अ०३ द्वीपेंद्रमाम्यहपहेदंघ्रिनखेंदुलक्ष्मीकृतमौलिपीलुम् ॥ ८९ ॥ ओं ह्रीं द्वीपकुमारेंद्राय इदं..............................
जलेभयात्रो मकरादिचक्रव्याकीर्ण दिक्को वडिदंडचंडः ।
ईष्टां मदिष्टेरुदधीश्वरोईक्रमांशुरज्यन्मकरांकमूर्द्धा ॥ ५० ॥ ओं ह्रीं उदधिकुमारेंद्राय इदं........................................
सिंहाधिरूढं धृतधौतखङ्गं खड्गायधिष्ठातृसुरैः परीतम् ।
अर्हत्पदाधीकृतमौलिवज्रं संभावयामि स्तनितामरेंद्रम् ॥ ९१ ॥ ओं ह्रीं स्तनितकुमारेद्राय इदं.......... ............
वराहवाहं फरभादिदंडचंडं तडिदंडकरालहस्तम ।
छायाछलस्वस्तिका त्कृताईत्पादासनं विद्युदिनं धिनोमि ॥ ९२ ॥ ६ अर्घ चढावे ॥ ८८ ॥ “ सप्तासन " इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर द्वीपकुमारंद्रको अर्घ
चढावे ॥ ८९ ॥ “जलेभपात्रो" इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर उदधिकुमारेंद्रको अर्घ चढावे | ॥ ९० ॥“ सिंहाधिरूढं" इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर स्तनितकुमारको अर्घ चढावे ॥९१॥ "वराहवाहं " इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर विद्युत्कुमारको अर्घ चढावे ॥ ९२॥ “दिसुं।
॥६
॥
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
जन्न्न्कन्कन्सन्क
ओं ही विद्युत्कुमारेंद्राय इवं...............
दिक्कुंजरस्थं परिघच्छतारिं सिंहाधनेंद्रीचरसप्रचक्रम् ।
नतिक्षणाईच्चरणांकशंकाकरांकासहं प्रयजे दिगेंद्रम् ॥१३॥ ओं ह्रीं दिक्कमारेंद्राय इदं..............................................
स्तंभाधिरोहं शिविकादिसैन्यव्याप्ताशमुल्कायुधमनिमौलि ।
अग्नींद्रमर्चामि जिनक्रमाग्रश्रीकुंभलालायितमौलिकुंभम् ।। ९४ ॥ ओं ह्रीं अग्निकुमारेंद्राय इदं........................
कुरंगयुग्यं नगहतिमश्व प्रष्टामरानीकपरीतमूर्तिम् ।
चायेनिलेंद्रं नतमस्तकाश्वछायैर्जिनांनिस्थलमंकयंतम् ॥ ९५ ॥ ओं ह्रीं वातकुमारेद्राय इदं...................................
सैन्यैरश्वरथेभपत्तिकलवाग्नद्यादिमै कौणनौ
ताक्ष्ये भास्वरंगंडकोष्टकरटिद्विक्याप्ययानार्वगैः । जरस्थं" इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर दिक्कुमारेंद्रको अर्घ चढावे ॥९३ ॥“ स्तंभादिरोह || इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर अग्निकुमारेंद्रको अर्घ चढावे ॥ ९४ ॥ “ कुरंगयुग्यं " इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर वातकुमारेंद्रको अर्घ चढावे ॥९५॥ सैन्यै” इत्यादि दो श्लाक बोल-15
MORPOO.
.
.
ल
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
भावी०
॥३२॥
सप्ता प्राक्तनसप्तकक्रमवृताश्थूडाश्मदीखगेन्द्रंत्यन्जष्वरुवर्द्धमानकमृगेटकुंभाश्वमौलिध्वजाः ॥ ९६ ॥
अ०३ असुरफणिसुपर्णद्वीपवाय॑विद्युद्दिगनलपवनांना भावनानामधीशाः।
दशविधपरिवर्गापंकरत्नाढयधर्माभरणभवनभाजामस्तु पूर्णाहुतिर्वः ॥ ९७ ॥ पूर्णाहुतिः । इति भावनेंद्रार्चनम् ।।
अथेह सर्वज्ञपदारविंदद्विरेफमभ्युद्यदरेफवेषम् ।
नागायुधं किंनरशक्रमिष्टिमष्टापदाधिष्ठितमर्पयामि ॥ ९८ ॥ ओं ह्रीं किंनरेंद्राय इदं............................................
नेतुं स्वसंज्ञार्थमिवान्यथात्वं शुश्रूषमाणं पुरुषोत्तमांध्री ।
आलापये किं पुरुषेन्द्रमुधज्जयश्रियसायकमुद्रहंतम् ॥ ९९ ॥ ओं ह्रीं किंपुरुषेद्राय इदं....................................... कर पूर्णाहुति दे ॥ ९६ ॥ ९७ ॥ इसप्रकार भवनवासी इंद्रोंकी पूजाविधि हुई। “ अथेह " इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर किंनरेंद्रको अर्घ चढावे ॥९८ ॥ “नेतुं" इत्यादि तथा ओं ॥१९॥ ही बोलकर किंपुरुषेत्रको अर्घ चढावे ॥ ९९ ॥ " मुमुक्षु" इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर हा
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुमुक्षुशार्दूलमदूरमुक्ति श्रीप्रेयसी प्रश्रयतः श्रयंतम् ।।
शार्दूलमारूढमयोग्रपिष्ट द्विष्टं महामहोरगेंद्रम् ॥ १० ॥ ओं ह्रीं महोरगेंद्राय इदं................................
गंधर्वदारकगीयमानशुभ्रोरुकीर्तिश्रितमहंदीशम् ।
प्रीणामि गंधर्वहरिं मराललीलागतिक्लिष्टमरालपत्र ॥ १०१॥ ओं ह्रीं गन्धर्वेन्द्राय इदं........................................
आरादवज्ञातनिधिव्रजाईदेवक्रमारब्धसशंकसेवम् ।
यक्षामि यक्षेद्रमधिष्ठिताहिपृष्टफणिश्लिष्टनिधीद्वदप्यम् ॥१०२॥ ओं ह्रीं यक्षेन्द्राय इदं....
आनंक्ष्यमाणं क्षपिताक्षरक्षः रक्षः परं पूरुषमाश्रिताय ।
श्रितोग्रहस्ताय हरिश्रिताय रक्षोधिराजाय बलिं ददामि ॥ १०३ ॥
ओं ह्रीं राक्षसेंद्राय इदं .......................................................... महोरगेद्रको अर्घ चढावे ॥ १०॥ “गंधर्व " इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर गंधर्वेन्द्रको है। अर्घ चढावे॥१०१॥"आराध्य" इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर यक्षंद्रको अर्घ ॥ १०२ ॥ “आनक्ष्य" इत्यादि तथा ओं ह्रीं कहकर राक्षसेंद्रको अर्घ चढावे ॥१०३ ॥
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
मा टा०
कन्लन्छन्डन्न्न्लन्छन्
भूतशिने भूतदयामयाय भूतार्थनिष्ठायमुहुर्नमंतम् ।
भूतेंद्रमाक्रांततुरंगराज वलिप्रदानेन सुखाकरोमि ॥१०४ ॥ ओं ह्रीं भूतेंद्राय इदं ..................... ... ... ..................
ध्येयं सतां मोहपिशाचशात्यै शांतैकनेतारमुपासितारम् ।
हेमांडकोदुग्मरदंडचंडं पिशाचशक्रं बलिना घिनोमि ॥ १०५॥ ओं ह्रीं पिशाचंद्राय इदं....................
किन्नराकिंपुरुषगरुडगंधर्वनिधिपनिशाटभूतापशाचैः। प्रतिपन्नशासनानां जिनशासन महिमभासनव्यसनानाम् ॥ १०६ ॥ ताभ्या द्वाभ्यां प्रियाभ्यामपहृतमनसां द्विद्विदेवीसहस्रप्रेमाार्दाक्षिभाजा पुरनिकरतताष्टांजनादिक्षितीनाम् नित्योत्पादादिभौमवजविनयसूजा लोकरक्षकदोष्णां
पूर्णापत्योत्सवानां युगपतिभिरसावस्तु पूर्णाहुतिर्वः ॥ १०७ ॥ " भूतेशिने" आदि तथा ओं ह्रीं बोलकर भूतेंद्रको अर्घ चढावे॥१०४॥ " ध्येयं सतां" इत्यादि तथा ओं ह्रीं कहकर पिशाचेंद्रको अर्घ चढावे ॥१०५॥ “किन्नर" इत्यादि दो श्लोक पढकर पूर्णाहुति दे ॥ १०६ ॥ १०७॥ इस प्रकार व्यंतरेंद्रका पूजन हुआ। “साई
जान्न्कन्सन्न
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
.........................
.
...
...
....
.
.
.
कन्कन्सन्मन्छन्
द्वाभ्यां पूर्णाहुतिः । इति व्यंतरेन्द्रार्चनम् ।
साच्चैत्यग्रहांकरम्यनगरोत्तानार्धगोलाकृतिप्रव्यासांकमणीद्धमंडलकरवातामृतैः प्लावयन् । भूलोकं हरिवाहनः परिवृतो भोडुग्रहोपग्रह
वृद्धैः कुंतकरश्वरस्थिरविधूपेतोथ सोमोऽच्यते ॥१०८॥ ओं ह्रीं सोमेंद्राय इदं....................
हित्वाधो दश योजनानि गगने तारा सदैकाध्वगा मार्गेनित्यनवैश्वरनिह करोति हां निशां यः स्थितिः । तप्तस्वर्णभलोहिताक्षपुरभृद्रिवः स सूर्यश्चरै
लोकैरपरैः स्थिरैश्च रविभिः सत्राते, जिनम् ॥ १०९॥ ओं ह्रीं सूर्येद्राय इदं....................................
विंशत्येकयुतानि योजनशतान्येकादशादीश्वरं
मुक्त्वा मामपि तच्छतानि विदशान्यष्टौ धिमानानि खे । चैत्य " इत्यादि तथा ओं ह्रीं कहकर सोमेंद्रको अर्ध चढावे ॥१०८॥ “हित्वाधो" इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर सूर्यद्रको अर्घ चढावे ॥१०९॥ “विंशत्येक" इत्यादि तथा ओं ह्रीं
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
- R
अ०३
उच्चतच्छतमाघनोदधिदशोपेतं ततान्याश्रितान्
भाटी० ज्योतिष्काननुगृह्णतोब्जरवयः पूर्णाहुतिंवोर्पये ॥११० ॥ पूर्णाहुतिः । इति ज्योतिरिंद्रार्चनम् ।।
एकत्रिंशधुपटलमितेष्टादशे यास्कनाम्नि श्रेणीबद्धे सततवसतिः पंचवर्णैर्विमानैः। तिस्रः श्रेणीर्वसुगुणचतुर्लक्षसंख्यैरवंतं
सौधर्म प्राक् स्वरुकमिहा_म्यथैरावणस्थम् ॥ १११ ॥ ओं ह्रीं सौधर्मेद्राय इदं......
तद्वच्छ्रेणीबद्धमाय्योदगेकश्रेणींद्रोष्टाविंशति पंचवर्णाः।
यक्षाः पाति स्वःपुरीयर्यो जिनांनिस्रक्चुलं तं यष्टमीशानमीशे ॥ ११२ ॥ ओं ह्रीं ईशानेंद्राय इदं........ बोलकर पूर्णार्घ चढावे ॥ ११० ॥ इसतरह ज्योतिष्कदेवेंद्रका पूजन हुआ। “एकत्रिंश"||६४॥ इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर सौधर्मेन्द्रको अर्घ चढावे ॥११॥"तनुच्छेणी" इत्यादि। तथा ओं ह्रीं बोलकर ईशानेंद्रको अर्घ चढावे ॥ ११२॥ “ सप्तस्वपाक' इत्यादि तथा ओं
SA
........... ।
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
लन्डन्न्कन्सन्छन्
सप्तस्वपाकघुपटळेषु सभामंत्ये श्रेणीनिबद्धमधितिष्ठति षोडशं यः। त्रिश्रेणिगद्विषविकृष्णविमानलक्ष-सार्ची नमन् जिनमुपैतु सनत्कुमारः॥११३॥ १॥ ओं ह्रीं सनत्कुमारेद्राय इदं................
एकाष्टकृष्णोनविमानलक्षश्रेणीशमहत्यभुमाभजंतम् ।
महामि माहेंद्र मुदा वसंतं दिव्यास्पदः षोडश एव तद्वतः ॥ ११४ ॥ ओं ह्रीं माहेंद्राय इदं................
पात्या स्थितोऽपाक्पटले चतुर्थे चतुर्दशं ब्रह्मपदं चतस्रः ।
यः कृष्णनीलोनविमानकक्षा ब्रीद्रमर्चामि तमाप्तभक्तम् ।। ११५ ॥ ओं ह्रीं ब्रह्मेद्राय इदं.........................................
द्वैतायैके द्वादशं लांतवाख्यं श्रेणीबद्धं यः श्रितो माधुचक्रे ।
लक्षार्ध प्राग्भानि सुंक्त विमानान्यहद्भक्तं तं यजे लांतवेंद्रम् ।। ११६ ॥ ह्रीं बोलकर सनत्कुमारेद्रको अर्घ चढावे ॥ ११३ ॥ “ एकाष्ट" इत्यादि तथा ओं ह्रीं । बोलकर माहेंद्रको अर्घ चढावे ॥ ११४ ॥ “पात्या स्थितो" इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर | बोंद्रको अर्घ चढावे ॥ ११५ ॥ “ दैतीयैके " इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर लांतवेंद्रको अर्थ बढाबे ॥११६ ॥“शुकेंद्र" इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर शुक्रंद्रको अर्थ चढावे
AMPOOGन्सन्सल
-
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
भान्टी
अ०३
ओं ह्रीं लांतवेन्द्राय इदं.....
शुक्रेद्रपैकपटलिक चत्वारिंशत्सहस्रपीतसितद्याम् ।
दशममहाशुक्रोदकश्रेणीबद्धास्पदं यजे जिनभक्तम् ॥ ११७ ॥ ओं ह्रीं शुक्रन्द्राय इदं................................................ ।
पीतार्जुनैकेंद्रकषट्सहस्रविमानभुक्तिं जिनपूजनोक्तम् ।
यजे शतारेन्द्रमिहाष्टमेहं स्थितं सहस्रार उदग्विमाने ॥ ११८ ।। ओं ह्रीं शतारेंद्राय इदं ....
....................। सप्तश्वेतौकः शतै : षट् पटल्यां षष्ठयां अकश्रेणिपाये पटल्याम् । षष्टे तिष्ठंत्यादे दक्षिणोदश्रेण्योश्चाये तांश्चतु:कल्पशकान् ।। ११९ ॥ तत्रानतेंद्रं जिनमाग्रहस्य संस्कारविद्रावितमोहतंद्रम् ।
अप्यद्भुतैर्भोगसुखैरलुप्तश्रापण्यशर्मस्मृतिमर्चयामि ॥ १२० ॥ ओं ह्रीं आनतेंद्राय इदं........ .......................................... । ॥ ११७ ॥ “पीतार्जुन " इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर शतारेंद्रको अर्घ चढावे ॥ ११८॥ सप्तश्वेतौ” इत्यादि दो श्लोक और ओं ह्रीं बोलकर आनतंद्रको अर्घ चढावे ॥११९॥१२०॥
॥६५॥
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्व गवर्गप्रस्ताक्षवर्गोप्युदीच्यदेहाक्षसुखैः पसक्तः।
अहत्पभो व्यक्तविचित्रभावो भजत्विमा प्राणतजिष्णुरिज्याम् ॥ १२१॥ ओं ही प्राणतेंद्राय इदं...................
............। स्थितोपि मौले वपुषि प्रदेशस्तनूमुदीचीमनुसंदधानः।
भजत्यनंतर्हिनवनिनं यस्तं प्रीणम्यईणयारणेद्रम् ॥ १२२ ॥ ओं ही आरणेद्राय इवं..........
कदाचिदप्यच्युतमुच्यतेशभक्तेश्चतेर्दुथुरितात्परीतम् ।
एकात्रषष्टयग्रशतं विमानान्यधीशितारं प्रयतेच्युतेंद्रम् ॥ १२३ ॥ ओ ही अच्युतेंद्राय इदं................................
सौधर्मेंशानसानत्कुमारमाहेंद्रवासवब्रीद्रा
लांतवशुक्रतारानतशक्रा प्राणतारणाच्युतशक्राः । " स्वभोगवर्ग" इत्यादि तथा ओं ही बोलकर प्राणतेंद्रको अर्घ चढावे ॥ १२१ ॥“स्थितो: पि" इत्यादि और ओं ह्रीं बोलकर आरणेद्रको अर्घ चढावे ॥ १२२ ॥ “ कदाचिद " इत्यादि । तथा ओं ह्रीं बोलकर अच्युतेंद्रको अर्घ चढावे ॥१२३ ॥ " सौधमैं " इत्यादि दो श्लोक बोलकर पूर्णार्थ. चहावे ॥ १२४ ॥ १२५ ॥ " इत्थं " इत्यादि श्लोक कहकर इष्टप्रार्थनाके
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाधी
प्र०सा०
अ०३
-
बालापातरमेरुचूकिकषयोवायभयोलभूतिभूषागनाः । कल्पेंद्राः प्रददामि बोर्षितजिना यक्षेत्र पूर्णाहुतिम् ॥ १२४ ॥ ये चत्वारिंशतेर्भवनदिविषदां व्यंतराणां द्वियुक्तत्रिंशत्संख्यैर्युधान्ना त्रिगुणवमुतैः सिंहसम्राट शशीनः । अप्यय॑ते चतुर्मिः समवमृतिषितैस्तन्मखारंभमुख्या दयां पूर्णाहुतिं वो भवनवनसुरज्योतिरुद्धामरेंद्राः ॥ १२५ ॥
। हात्रिंशत्पूर्णाहुतिः।। इत्यं यथोचितविधिमतिपसिपूर्वयांशदानभृशदीपितपक्षपाताः सर्वश्यज्ञपरिपूर्तिदुरीहितं मे मुख्यानुषंगिकफलैः प्रथयंतु शक्राः ॥ १२६ ॥
इष्टप्रार्थ नाय पुण्यांजलिंक्षिपेत्। इति द्वात्रिंज्ञादिद्रार्चनविधानं अथ पत्रांतरालस्थापितचतुर्विशतियक्षार्चनम् !
नाभेयाद्यपसव्यपार्श्वविहितन्यासांस्तदाराधका अव्युत्पत्रदृशः सदैहिकफलप्राप्तीच्छयाति यान् । आमध्य क्रमशो निवेश्य विधिवत्पत्रांतराळेषु तान्
कृत्वारादधुना घिनोमि बलिभिर्यशाचर्तुविंशतिम् ॥ १२७॥ लिये पुष्पांजलिको क्षेपण करे ॥ १२६ ॥ इस तरह बत्तीस इंद्रोंकी पूजाविधि हुई। अब
-
ब्ल न्सन्सन्सन्लब्स
॥६
॥
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
गोमुखादिचतुर्विंशतियक्षसमुदायपूजाविधानाय पूर्वविधिं विदध्यात् । यक्षाः संशब्दये युष्मानायात सपरिच्छदाः अत्रोपविशतैतान् वो यजे प्रत्येकमादरात् १२८ आवाहनादिपुरस्सरप्रत्येकपूजाप्रतिज्ञानाय पत्रांतरालेषु पुष्पांजलिं क्षिपेत् । अथ प्रत्येकपूजा ।।
सव्येतरोर्ध्वकरदीप्रपरश्वधाक्षसूत्रं तथा धरकरांकफलेष्टदानम् ।
प्राग्गोमुखं वृषमुखं वृषगं वृषांकभक्तं यजे कनकभं वृषचक्रशीर्षम् ॥ १२९॥ ओं ह्रीं गोमुखयक्षाय इदं................
चक्रत्रिशूलकमलाकुशवामहस्तो निस्त्रिंशदंडपरशुधवराण्यपाणिः ।
चामीकरद्युतिरिभाकनतो महादियक्षोर्यतो जगतश्चतुराननोऽसौ ॥ १३० ॥ पत्रके मध्यमें स्थापन किये गये चौवीस यक्षोंकी पूजाविधि कहते हैं। “ नाभेयाद्य” इत्यादि ४ श्लोक बोलकर गोमुखादि चौवीस यक्षोंकी समुच्चयपूजामें पहलेकी तरह विधि करे ॥ १२७॥ श" यक्षाः सं" इत्यादि श्लोक बोलकर आवहनादि पूर्वक हरएककी पूजा करनेकी प्रतिज्ञा करनेके लिये पत्रके मध्यमें पुष्प अक्षतोंको डाले ॥ १२८ ॥ अब हरएककी पूजा कहते हैं" सब्येतरो" इत्यादि तथा ओं ही बोलकर गोमुख यक्षको अर्घ चढावे ॥ १२९ ॥ " चक्र निशुल" इत्यादि ओं हृीं बोलकर महायक्षको अर्ध चढावे ॥१३०॥" चक्रासि" इत्यादि
लन्कन्सन्छन्
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रसा०
॥
७
॥
___ओं ह्रीं महायक्षाय इदं.............. चक्रासिशृण्युपगसव्यसयोन्यहस्तैर्दैडत्रिशूलमुपयन् शितकार्तिकाच । वाजिध्वजप्रभुनतः शिखिगोंजनाभ-रुयक्षः प्रतीक्षतु बलि त्रिमुखाख्ययक्षः ॥ १३१ ॥ ओं ह्रीं त्रिमुखाख्याय इदं................................... ।
खद्धनुःखेटकवामपाणिं सकंकपत्रास्यपसव्यहस्तम् ।
श्यामं करिस्थं कपिकेतुभक्तं यक्षेश्वरं यक्षमिहार्चयामि ॥ १३२ ॥ ओं ह्रीं यक्षेश्वरयक्षाय इदं.
सर्पोपवीतं द्विषपभगोर्दकरं स्फुरदानफलान्यहस्तम् ।
कोकांकनम्र गरुडाधिरूढं श्रीतुम्बरं श्मामरुचिं यजामि ।। १३३ ॥ ओं ही तुम्बरयक्षाय इदं...
.................... । तथा ओं ह्रीं बोलकर त्रिमुखयक्षको अर्घ चढावे ॥१३१ ॥ " प्रेखद्धनुः" इत्यादि तथा ll. Sओं ही बोलकर यक्षेश्वरयक्षको अर्थ चढावे ॥ १३२ ॥ “ सर्पोपवीत " इत्यादि तथा ओं ह्रीं
बोलकर तुंबरयक्षको अर्घ चढावे ॥ १३३॥ “मृगारुहं ' इत्यादि तथा ओं ह्रौं बोलकर
.... ।
॥६७॥
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
मृगारुहं कुंतकरापसव्यकरं सखेटा भयसव्यहस्तम् ।
श्यामांगमब्जध्वजदेवसेव्यं पुष्पाख्य यक्षं परितर्पयामि ।। १३४ ॥ ओं ह्रीं पुष्पयक्षाय इदं..
.... । सिंहादिरोहस्य सदंडशूलसव्यान्यपाणेः कुटिलाननस्य ।
कृष्णत्विषः स्वस्तिककेतुभक्तर्मातंगयक्षस्य करोमि पूजाम् ॥ १३५॥ ओं ही मातंगयक्षाय इदं.......................
यजे स्वधित्युद्यफलाक्षमाला वरांकवामान्यकरं त्रिनेत्रम् ।
कपोतपत्रं प्रभयाख्यया च श्यामं कृतेंदुध्वजदेवसेवम् ।। १३६ ॥ ओं ह्रीं श्यामयक्षाय इदं.....
सहाक्षमाला वरदानशक्तिफलाय सव्यापरपाणियुग्मः ।
स्वारूढकूमों मकरांकभक्तो गृह्णातु पूजामजितः सिताभः ।। १३७ ॥ पुष्पयक्षको अर्घ चढावे ॥ १३४ ॥ “ सिंहादि इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर मातंगयक्षको
अर्घ चढावे ॥ १३५ ॥ ' यजेस्वधि" इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर श्यामयक्षको अर्घ 5||चढावे ॥ १३६ ॥ सहाक्षमाला " इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर अजितयक्षको अर्घ चढावे ॥ १३७ ॥ " श्रीवृक्ष" इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर ब्रह्म यक्षको अर्घ चढावे ॥१३८ ॥
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
भाटी०
.
....
॥६८॥
अ०३
ओं ह्रीं अजितयक्षाय इदं.........
श्रीवृक्षकेतननतो धनुदंडखेटवज्ञाब्यसव्यसय इंदुसितोंषुजस्थः।
ब्रह्मासरश्वधितिखड्गवरप्रदानव्यग्रान्यपाणिरुपयातु चतुर्मुखोर्चाम् ॥१३८॥ ओं ह्रीं ब्रह्मयक्षाय इदं........................................ ।
त्रिशुलदंडान्वितवामहस्तः करेक्षसूत्रं त्वपरे फले च ।
बिभ्रत्सितो गंडककेतुभक्तो लात्वीश्वरोच! वृषगस्त्रिनेत्रः ॥ १३९ ॥ ओं ह्रीं ईश्वरयक्षाय इदं............................
शुभ्रो धनुर्बभ्रुफलाढयसव्यहस्तोन्यहस्तेषु गदेष्टदानः ।
लुलायलक्ष्मप्रणतस्त्रिवत्रः प्रमोदता हंसचरः कुमारः ।। १४०॥ ओं ह्रीं कुमारयक्षाय इदं.......
यक्षो हरित्सपरशूपरिमाष्टपाणिः कौख्यकाक्षमणिखेटकदंडमुद्राः ।
बिभ्रच्चतुर्भिरपरैः शिखिगः किरांकनम्रः प्रतृप्यतु यथार्थचतुर्मुखाख्यः १४१||H 2“ त्रिशूलदंड " इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर ईश्वर यक्षको अर्घ चढावे ॥ १३९ ॥ “ शुभ्रो-: धनु" इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर कुमारयक्षको अर्घ चढावे ॥१४० ॥ “ यक्षो हरित " इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर चतुर्मुख यक्षको अर्घ चढावे ॥ १४१ ॥“पातालकः"
newल
॥६८॥
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
pooone20000209
८०८
ओं ह्रीं चतुर्मुखयक्षाय इदं ...
1
पातालकः सशृणिशूलक जापसव्यहस्तः कषाइलफलांकितसव्यपाणिः । मेधाध्वजैकशरणो मकराधिरूढो
रक्तोर्व्यतां त्रिफणनागशिरास्त्रिवक्रम् ।। १४२ ॥
1
सचक्रवज्रांकुशवामपाणिः समुद्गराक्षालिवरान्यहस्तः । प्रवालवर्णस्त्रिमुखो झषस्थो वनांकभक्तोंचतु किंनरोऽर्थ्याम् ।। १४३ ।।
1
ओं नहीं पातालयक्षाय इदं ...
ओं ह्रीं किंनरयक्षाय इदं ..
वक्रानधोऽधस्तनहस्तपद्मफलोन्यहस्तार्पितवज्रचक्रः ।
मृगध्वजात्प्रणतः सपर्या श्यामः किटिस्थो गरुडोभ्युपैतु ॥ १४४ ॥ ओ ह्रीं गरुडयक्षाय इदं .....
1
66
इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर पातालयक्षको अर्घ चढावे ॥ १४२ ॥ ओं ह्रीं बोलकर किन्नरयक्षको अर्घ चढावे बोलकर गरुडयक्षको अर्ध चढावे ॥ १४४ ॥
॥
१४३ ॥ 66 सनाग
सचक्र " इत्यादि तथा
“ वक्रान " इत्यादि तथा ओं ह्रीं तथा ओं ह्रीं बोलकर गंधर्वयक्षको
"
0000000000000000
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सान
अ०
सनागपाशोर्ध्वकरद्वयोधः करद्वयात्तेषु धनुः सुनीलः।
KI भाण्टी. गंधर्वयंक्षः स्तभकेतुभक्तः पूजामुपैतु श्रितपक्षियानः ॥ १४५ ॥ ओं ह्रीं गंधर्वयक्षाय इदं.........
.... । आरम्योपरिमात्करेषु कलयन् वामेषु चापं पविं पाशं मुद्गरमंकुशं च वरदः षष्ठेन युजन् परैः। वाणाभोजफलस्रगच्छपटलीलीलाविलासास्त्रिक्
षड़ऋष्टगरांकभक्तिरसितः खेद्रोर्च्यते शंखगः ॥ १४६ ॥ ओं ह्रीं खेन्द्रयक्षाय इदं........
सफलकधनुर्दडपद्म खगपदरसुपाशवरप्रदाष्टपाणिम् ।
गजगमनचतुर्मुखेन्द्रचापद्युति कलशांकनतं यजे कुबेरम् ॥ १४७ ॥ ओं ह्रीं कुबेरयक्षाय इदं...
जटाकिरीटोष्ठमुखत्रिनेत्रो वामान्यखेटासिफलेष्टदानः ।
कूर्माकनम्रो वरुणो वृषस्थः श्वेतो महाकाय उपैतु तृप्तिम् ॥ १४८॥ अर्घ चढावे ॥ १४५॥ " आरभ्यो” इत्यादि तथा ओं ह्रीं पढकर खेद्रयक्षको अर्घ चढावे
॥६९॥ ॥ १४६ ॥ “ सफलक " इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर कुबेरयक्षको अर्घ चढाये ॥ १४७॥ “जटाकिरीटो" इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर वरुणयक्षको अर्घ चढावे ॥१४८॥ “खेटा
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
ओं ह्रीं वरुणयक्षाय इदं.................................. |
खेटासिकोदंडशरांकुशाब्ज-चक्रेष्टदानोल्लसिताष्टहस्तम् ।
चतुर्मुखं नंदिगमुत्पलांकभक्तं जपानं भकुटिं यजामि ॥ १४९ ॥ ओं ही भृकुटियक्षाय इदं................. .......................।
श्यामस्त्रिवक्रो दुघणं कुठारं दंडं फलं वज्रवरौ च विभ्रत् ।
गोमेदयक्षः क्षितशंखलक्ष्मा पूजां नृवाहोऽहंतु पुष्पयानः ॥ १५० ॥ ओं ही गोमेदयक्षाय इदं.................................... ।
ऊर्ध्वद्विहस्तधृतवासुकिरुद्भटाधः सव्यान्यपाणिफणिपाशवरप्रणंता ।
श्रीनागराजककुदं धरणाभ्रनीलः कूर्मश्रितो भजतु वासुकिमौलिरिज्याम्१५१ ओं ही धरणयक्षाय इदं.................................... ।
मुद्गमभो मूर्धनि धर्मचक्रं बिभ्रत्फलं वामकरेथ यच्छन् ।
वरं करिस्थो हरिकेतुभक्तो मातंगयक्षोंगतु तुष्टिमिष्टया ॥ १५२ ॥ सि" इत्यादि तथा ओं ह्रीं बोलकर भृकुटि यक्षको अर्ध चढावे ॥ १४९ ॥ " श्यामस्त्रि" इत्यादि तथा ओं ह्रीं पढकर गोमेदयक्षको अर्घ चढावे ॥ १५० ॥ “ऊर्ध्वद्विहस्त " इत्यादि |तथा ओं ही वोलकर धरणयक्षको अर्घ चढावे ॥ १५१ ॥ “ मुद्गप्रभो" इत्यादि तथा ओं ही
सललललललल
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
भासा०
माली
.७
॥
-
-
कन्सन्कलन्कलन्लन्छन्डन्न्
ऑम्ही मातंगयक्षाय इदं................................. ।
इत्थं योग्योपचारव्यतिकरपरमो जागरान गृहाग्रव्यापाराः शश्वदर्हत्प्रभुसमयमहस्तायिनो यक्षमुख्याः। तद्भक्तोद्धर्षहर्षाष्टतजलधिनिरुच्छासलीलाघगाह
प्रत्यूहापोहङ्ग्यः सृजतु परमसौपर्चपूर्णाहुतिः ।। १५३ ॥ पूर्णाहुतिः । इति चतुर्विशतियक्षार्चनविधानम् । अथ चतुर्विशतिपत्राग्रस्थापितशासनदेवतार्चनम् । संभावयंति वृषभादिजिनानुपास्य तद्वामपार्थनिहिता वरलिप्सवो याः। चक्रेश्वरीप्रभूतिशासनदेवतास्ताः द्विादशादलमुखेषु यजे निवेश्य ॥ १५४ ॥
चतुर्विंशतिशासनदेवतासमुदायपूजाविधानाय पूर्वविधि विदध्यात् ।। यक्ष्यः संशब्दये युष्मानायात सपरिच्छदाः । अत्रापविशतता वो यजे प्रत्येकमादरात् १५५ | बोलकर मातंगयक्षको अर्घ चढावे ॥ १५२ ॥ " इत्थं योग्यो” इत्यादि श्लोक पढकर पूर्णार्घ दे॥१५३॥ इसप्रकार चौवीस यक्षोंकी पूजाका विधान हुआ।अब चौवीस पत्रोंके अग्रभागमें 81 | स्थापित शासनदेवताओंकी पूजा कहते हैं । “संभावयन्ति” इत्यादि श्लोक पढकर चौवीस ॥७॥ शासनदेवताओंकी समुदायपूजाकेलिये पूर्व कही हुई विधि करे ॥१५४॥ “ यक्ष्यः" इत्यादि
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
कालस
भावहनादिपुरस्सरप्रत्येकपूजाप्रतिज्ञानाय पत्राग्रेषु पुष्पाक्षतं क्षिपेत् । अथ प्रत्येकपूजा ।
भाभाद्य करदयालकुलिशा चक्रांकहस्ताष्टका सव्यासव्यशयोल्लसत्फलवरा यन्मूर्तिरास्तेंबुजे । ताक्ष्ये वा सह चक्रयुग्मरुचकत्यागैश्चतुर्भिः करैः
पंचेष्वास शतोत्रतप्रभुनतां चक्रेश्वरी तां यजे ॥ १५६ ।। ओं ही अप्रतिहतचके देवि इदं.................................... |
स्वर्णधुतिशंखरयोगशस्त्रा लोहासनस्थाभयदानहस्ता ।
देवं धनुः सार्धचतुःशतोचं वंदारुष्टिामिह रोहिणीष्टेः ॥ १५७ ॥ भों ही अजितदेवि इदं.................. पक्षिस्थादुपरशुफलासीढीवरैः सिता । चतुश्चापशतोच्चाईद्भक्ता प्रज्ञप्तिरिज्यते ॥ १५८ ॥ ॥ श्लोक बोलकर आवाहन आदि पूर्वक हरएककी पूजा करनेकी प्रतिज्ञाके लिये पत्रके अग्रभागमें ४ पुष्प अक्षत क्षेपण करे ।। १५५ ॥ अब प्रत्येककी पूजा कहते हैं-" भर्मा" इत्यादि तथा
“ओं ह्रीं” बोलकर चक्रेश्वरी देवीको जल आदि आठ द्रव्य चढावे ॥१५६ ॥ “स्वर्णयुति" इत्यादितथा “ओं ह्रीं" बोलकर अजितादेवीको जलादि द्रव्य चढावे॥१५७॥ "पक्षिस्था"
...................
।
१
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
५० सा०
७१ ॥
ओं. ह्रीं नो देवि इदं ..
1
सनागपाशोरुफलाक्षसूत्रा हंसाधिरूढा वरदानुभुंक्ता । हेमप्रभार्धत्रिधनुः शत्तोच्चतीर्थेशनम्रा पविशृंखलार्चाम् ॥ १५९ ॥
२००० ...
ओ ही दुरितारि देवि इदं .......
*****....
1
गजेंद्र गावज्र फलोद्य चक्रवरांगहस्ता कनकोज्ज्वलांगी । गृह्णानुदंडत्रिशतोन्नतान्नतार्चनां खङ्गवरार्च्यते त्वम् ।। १६० ॥
................ |
ओ ह्रीं मोहिनि देवि इदं ..... सिता गोवृषगा घंटां फळशूलवराहृताम् । यजे काळीं द्विको दंडशतोच्छ्रायाजिनाश्रयाम् ॥
............................
ओं ह्रीं मानेवेदावं इद.................
............. I
चंद्रोज्ज्वळां चक्रशरासपाश चर्मत्रिशूलेषुझषासिहस्ताम् ।
66 सनाग
"
"
इत्यादि तथा " ओं ह्रीं " बोलकर नम्रादेवीको जलादि द्रव्य चढावे ॥ १५८ ॥ इत्यादि तथा " ओं ह्रीं " बोलकर दुरितारि देवीको अर्ध चढावे ॥ १५९ ॥ इत्यादि तथा "ओं ह्रीं " बोलकर मोहिनी देवीको जलादि चढावे ॥ १६० ॥ इत्यादि तथा “ ओं ह्रीं" बोलकर मानव देवीको जलादि चढावे ॥ १६९ ॥ " चंद्रो" इत्यादि
गजेंद्र "
“ सिता ”
भा०डी०
अ० ३
७६ ॥
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीज्वालिनी सोर्धधनुःशतोच्च जिनानतां कोणगतां यजामि ॥ १६२ ॥
ओं ह्री ज्वालामालिनीदेवि इदं ......
......... 1
| कृष्णा कूर्मासनाधन्वशतोन्नतजिनानता । महाकालीज्यते वज्रफलमुद्गरदानयुक् ॥ १६३ ॥
ओं ह्रीं भृकुटि देवि इदं ....
1
झषदामरुचकदानोचितहस्तां कृष्णकालगां हरिताम् । नवतिधनुस्रुगजिनमणतामिह मानवीं प्रयजे ।।
१६४ ॥
ओं ह्रीं चामुंडे देवि इदं.....
.... i
समुद्गराब्जकलशां वरदां कनकप्रभाम् । गौरीं यजेशीतिधनुः प्राशु देवीं मृगोपगाम १६५
1
......
46
तथा “ ओह्रीं " बोलकर ज्वालामालिनीदेवीको जलादि द्रव्य चढांवे ॥ १६२ ॥ इत्यादि तथा " ओं ह्रीं " पढकर भृकुटि देवीको जलादि चढावे ॥ तथा " ओं ह्रीं " कहकर चामुंडा देवीको जलादि चढावे ॥ १६४ तथा ओ ह्रीं कहकर गोमेधकिदेवीको जलादि अष्टद्रव्य चढावे ॥ १६५ ॥
(2
तृष्णा
१६३ " झष " इत्यादि
॥
-" इत्यादि
LL
י
समुद्र
सपद्म " इत्यादि
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रसा०
भान्टी०
अ०३
...ओं ही गोमधकि देवि इदं............................ । सपषमुशलाभोजदाना मकरगा हरित् । गांधारी सप्ततीवास तुंगमधुनतार्यते ॥ १६६ ॥
ओं ह्रीं विद्युन्मालिनि देवि इदं................. पपिदंडोच्चतीर्थेशनता गोनसवाहना । ससर्पचापसषुर्वैरोटी हरितार्यते ॥ १६७॥ | ओं ह्रीं विद्यादेवि इदं................................ । हेमामा हंसगा चापफलबाणवरोधता । पंचशश्चापतुंगाईद्भक्ता नतमतीज्यते ॥ १६८ ॥ ओं ह्रीं कुंभिणि देवि इदं...............................।
सांबुनधनुदानांकुशशरोत्पला व्याघ्रगा प्रबालानिमा। नवपंचकचापोच्छ्रितजिननम्रा मानसीह मान्येत ॥ १६९॥
कन्कन्सन्छन्काउन्सलन्छ
॥
७
॥
तथा “ओह्रीं” कहकर विद्युन्मालिनीदेवीको जलादि चढावे ॥ १६६॥ षष्ठि" इत्यादि तथा ओही" बोलकर विद्यादेवीको जलादि द्रव्य चढावे ॥१६७ ॥ "हेमामा" तथा ओहीं"21 बोलकर कुंभिणिदेवीको जलादि द्रव्य चढावे ॥ १६८॥"सांबुज" इत्यादि तथा “ओह्रीं"
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
ओं ह्रीं परभृते देवि इदं..................
चक्रफलेढिवरांकितकरां महामानसीं सुवर्णाभाम् ।
शिखिगां चत्वारि पद्धनुरुबतजिनमतां प्रयजे ॥ १७० ॥ __ओं ह्रीं कंदर्पदेवि इंद.............................। सचक्रशंखासिवरां रुक्माभों कृष्णकोलगाम् । पंचत्रिंशद्धनुमुग जिननम्रो यजे जयाम्॥१७१
ओं ह्रीं गांधारिणी देवि इदं...................... स्वर्णाभां हंसगां सर्पमृगवज्रवरोदुराम् । चाये तारावतीं त्रिंशच्चापोच्चमभुभाक्तिकाम्॥१७२॥ 2 ओं ही कालिदेवि इदं...............................। पंचविंशतिचापोचदेवसेवापराजिता । शरभस्थाय॑ते खेटफलासिवरयुक् हरित् ॥ १७३॥
ओं ह्रीं मननातदेवि इदं................................। बोलकर परभृतादेवीको जल आदि चढावे ॥ १६९ ॥ “चक्रफले" इत्यादि तथा "ओहीं" बोलकर कंदर्पदेवीको जल आदि चढावे ॥ १७० ॥ “सचक" इत्यादि तथा " ओह्रीं"|| बोलकर गांधारिणी देवीको जल आदि चढावे ॥ १७१ ॥ " स्वर्णाभां" इत्यादि तथा “ओहीं बोलकर काली देवीको जल आदि चढावे ।। १७२ ॥ " पंचविंशति" इत्यादि तथा "ओहीं" बोलकर मनजातदेवीको जल आदि चढावे ॥ १७३ ॥ “पीतां" इत्यादि तथा
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
०सा०
शापीता विंशतिचापोच्चस्वामिका बहुरूपिणीम् । यजे कृष्माहिगां खेटफलखगवरोत्तराम १७४||भाटा ॥७३॥ ओं ही सुगंधिनि देवि इदं.......................... ।
अ०३ चामुंडा यष्टिखेटाक्षसूत्रखड्डोत्कटा हरिन् । मकरस्थाय॑ते पंचदशदंडोनतेशभाक् ॥१७५॥ ओं ह्रीं कुसुममालिनि देवि इदं.......
सव्यंकयुपगप्रियंकर सुतुक् प्रीत्यै करे विभ्रती दिव्याघ्रस्तबर्क शुभंकरकरश्लिष्टान्यहस्तांगुलिम् । सिंहे भर्तृचरे स्थितां हरितभामा द्रुमच्छायगां
वंदारु दशकामुकोच्छ्यजिनं देवीमिहाभ्रा यजे ॥१७६ ॥ ओं ह्रीं कूष्मांडिनि देवि इदं............................. ।
येष्टं कुकटसर्पगात्रिफणकोत्तंसा द्विषो यात षट् पाशादिः सदसत्कृते च धृतशंखास्पादिदो अष्टका। तां शांतामरुणां स्फुरच्छणिसरोजन्माक्षव्यालांवरां
पद्मस्थां नवहरू भुनता यायज्मि पद्मावतीम् ॥ १७७ ॥ "ओह्रीं' बोलकर सुगंधिनिदेवीको जल आदि चढावे ॥१७४॥"चामुंडा' इत्यादि तथा ॥७३॥ 'ओन्हीं बोलकर कुसुममालिनीको जल आदि चढावे॥ १७५ ॥ “सव्ये" इत्यादि तथा 'ओन्हीं बोलकर कूष्मांडिनी देवीको जल आदि द्रव्य चढावे ॥ १७६ ॥ “येष्टुं" इत्यादि
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
ओं ही पद्मावतीदेवि इंद...................
सिद्धायिका सप्तकरोछितांगजिनाश्रयां पुस्तकदानहस्ताम् ।
श्रितां सुभद्रासनमत्र यज्ञे हेमथुर्ति सिंहगतिं यजेहम् ॥ १७८ ॥ ओं ह्रीं सिद्धायिनि देवि इदं...........................
इत्यावर्जितचेतसः समुचितैः सन्मानदानैः स्फुरन् स्यात्कारध्वजशासन द्विपदपक्षेपोच्छलद्युक्तयः । यक्ष्यं संघनृपादिलोकविपदुच्छेदादिहाहन्महे
कुर्वाणाः सहकारितां सममिमां गृहंतु पूर्णाहुतिम् ॥ १७९ ॥ पूर्णाहुतिः । इति शासनदेवतार्चनविधानम् । अथ द्वारपालानुकूलनम् ।
सोमयमवरुणधनदा जिनदेवीद्वारपालननियुक्ताः। स्वं स्वमिहैत्य नियोगं कुर्वद्भयः को न कः स्पृहयेत् ॥ १८०॥
सोमादिद्वारपालसामुख्यविधानाय दिक्षु पुष्पाक्षतं क्षिपेत् । तथा “ओंन्हीं" बोलकर पद्मावती देवीको जल आदि द्रव्य चढावे ॥१७७॥ "सिद्धायिका , इत्यादि तथा “ओह्रीं” बोलकर सिद्धायिनी देवीको जल आदि आठ द्रव्य चढावे १७८॥९॥ |" इत्यावर्जित" इत्यादि श्लोक कहकर आठ द्रव्यसे सबको पूर्णार्घ दे ॥ १७९ ॥ इस प्रकार
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा० कोदंडकांडस्टदृष्टिमुष्टिमरुद्भटोद्भव्यकथानुरक्तम् ।
माधी वेद्याः पुरो द्वारमिमामवंतं सोमोपगृहाम्युचितैर्भवंतम् ॥ १८१॥ ओं धनुर्धराय अर अर त्वर त्वर हूं सोम आगच्छागच्छ इदं जलं............ !
द्विवर्गदंडोद्यतचंडदंड प्रचंडसामाजिकसंकथास्थम् ।।
वेदिप्रतीहारमपाच्यमेतं पतिं यम त्वामनुकूलयामि ॥ १८२ ॥ ओं दंडधराय अर २ त्वर २ हूं यम आगच्छागच्छ इदं....................!
विषाक्तजिह्वायुगलीढसकस्फुलिंगांत्युग्रभुजंगरज्जुः ।
प्रतीच्यवेदीमुखप्तभृत्यवृतः प्रचेतः कुरु चारुचेतः ॥ १८३ ॥ ओं पाशधराय अर २ त्वर २ हूं वरुण आगच्छागच्छ इदं............ । शासनदेवताओंका पूजन समाप्त हुआ । अब द्वारपालोंको अनुकूल करते हैं । “सोम
इत्यादि श्लोक बोलकर उन सोम आदिको सन्मुख करनेके लिये दिशाओंमें पुष्प अक्षतकोश हवखेरै ॥१८० ॥ “ कोदंड" इत्यादि तथा “ओंधनु" इत्यादि वोलकर सोमको जल आदि
आठ द्रव्य चढावे ॥१८१ ॥ "द्विवर्ग" इत्यादि तथा “ओं दंड" इत्यादि बोलकर यमको जल आदि चढावे ॥ १८२ ॥ “विषाक्त" इत्यादि तथा “ओं पाश" इत्यादि बोलकर वरुणको जल आदि चढावे ॥ १८३ ॥ “इतस्ततो" इत्यादि तथा “ओं गदा " इत्यादि बोलकर |
लन्डन्न्कन्सन्कलन
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
CPCDO Pe De
इतस्ततो नाभिगिरेः सगर्भा गदां सलीला भ्रमयनुदीच्ये । द्वारे निषण्णोनुचरैर्वितर्देः कुबेर वीरानुसरोपचार ॥ १८४ ॥ भों गदाधराय अर २ त्वर २ हूं कुवेर आगच्छागच्छ इदं
।
एवं प्रियाकृताः सोमप्रमुखा द्वास्थकुंजराः । क्षुद्रान् क्षिपतो विशतः सलुनु मन्वताम् ॥ १८५ ॥ पुष्पांजलिः । इति द्वारपालानुकूलनविधानम् । अथ दिक्पालानुकूलनम । इंद्रानिश्राद्धदेवाः शरपतिवरुणस्पर्शन श्रीदरुद्राः पूर्वाद्याशासु वेद्यात्रिजगदधिपतेः प्राप्तरक्षाधिकाराः । तद्यज्ञेस्मिन्नवात्मप्रयति विहरतामेत्य पल्यादियुक्ता
विनंती यथास्वं वितनुत समयोद्योतमौचित्य कृभ्याः ॥ १८६ ।। इंद्रादिदिक्पालानामावाहनादिपुरस्सराध्येषणाय दिक्षु पुष्पाक्षतं क्षिपेत् । अथ पृथगिष्टिः । रूप्याद्रिस्पर्द्धिघंटा युगप टुकटुटंकास्ननानिशुंभ-द्भूषासख्यातिचित्रोज्ज्वलविलसल्लक्ष्मवद्वयस्थं ।
कुबेरको जल आदि चढावे ॥ १८४ ॥ “ एवं प्रिया ? इत्यादि बोलकर पुष्पोंको क्षेपण करे | ॥ १८५ ॥ इसतरह द्वारपालोंको अनुकूलकरनेकी विधि हुई । अब विकूपालोंको प्रसन्न करनेकी विधि कहते हैं । इंद्रादि " इत्यादि श्लोक बोलकर इंद्र आदि दिक्पालोंका आवाहन आदि करनेके लिये चारोंतरफ पुष्प अक्षत क्षेपण करे ॥ १८६ ॥ अब इनकी जुड़ी जुड़ी पूजा
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥
प्र०सा०
धी०
॥७
॥
दृप्यत्सामानिकादित्रिदशपरिवृतं रुच्यसंच्यादि देवी
लोलाक्षं वज्रभूपोद्भटसुभगरुचं भागिहेंद्रं यजामि ॥ १८७ ॥ ओं ही इन्द्र आगच्छागच्छ इंद्राय स्वाहा..................
रुक्मारुग्घुघुरस्रग्गलचटुलपृथुप्राय गाभतुंगस्थं रौद्रपिंगेक्षणयुगममलं ब्रह्मसूत्रं शिखास्त्रम् । कुंदी वामप्रकोष्ठे दधतमितरपाण्यात पुण्याक्षसूत्रं
स्वाहान्वीतं धिनोमि श्रुतिमुखरसभं प्राच्यपाच्यंतरेगिम् ॥ १८८ ॥ ओं ह्रीं अग्ने आगच्छागच्छ अग्नये स्वाहा ।
कल्पांताब्दोघजेत त्रिगुणफणिगुणोद्ाहितग्रैवघंटा टंकारात्युप्रशृंगक्रमहतभधरवातरक्ताक्षसंस्थं
चंडार्चिः कांडदंडोहुमरकरमतिरदारादिलोक
__ कार्योद्रेकं नृशंस प्रथममथ यम दिश्यपाच्यां यजामि ॥ १८९ ॥ कहते हैं । “रूप्याद्रि" इत्यादि तथा “ओह्रीं" बोलकर इंद्रको पूजाद्रव्य चढावे ॥१८७॥ रुक्मा" इत्यादि तथा “ओही" इत्यादि बोलकर अग्निको पूजाद्रव्य चढावे ॥१८८ ॥ "कल्पांता" इत्यादि तथा “ओंआं" इत्यादि बोलकर यमको पूजाद्रव्य चढावे ॥१८९।।
बन्लन्टल कलर
॥७५॥
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
ओं आं क्रों ह्रीं यमागच्छागच्छ यमाय स्वाहा ।
आरूढं धूमधूम्रायतविकटसटास्ताग्रदिक्क्ष रूक्ष्मा लक्षाक्षावशिष्टास्फुटरुदितकला योद्रमाभांगमृक्षम् । क्रूरक्रव्यात्परीतं तिमिरचयरुचं मुद्गरक्षुण्णरौद्र
क्षुद्रौघं त्रात याम्या परहरतमहं नैर्ऋतं तर्पयामि ॥ १९० ओं आं क्रौं ह्रीं नैर्ऋत्यागच्छागछ नैर्ऋत्याय स्वाहा ।
नित्यांभः कोलिपाडूत्कटकपिलविशच्छेदसोदर्यदंतप्रोत्फुल्यत्पनखेलत्करकरिमकरव्योमयानाधिरूढम् ।
खन्मुक्तापवालाभरणभरमुपस्थादारादृताक्षं स्फूर्जद्भीमाहिपासं वरुणमपरदिग्रक्षणं प्रीणयामि ॥ १९१ ॥ ओं आं क्रों ह्रीं वरुणागच्छागच्छ वरुणाय स्वाहा ।
वल्गच्छंगाग्रभिन्नांबुदपटलगलत्तोयपीतश्रमाभ्र
प्लुत्यस्तस्वातरंहः खुरकषितकुलग्रावसारंगयुग्यम् । "आरूढं" इत्यादि तथा “ओं" इत्यादि बोलकर नैर्ऋत्यको अर्घ चढावे ॥ १९०॥ नित्यांभ" इत्यादि तथा” ओं आं" इत्यादि पढकर वरुणको अर्घ चढावे ॥ १९१ ॥" बला"
प्रकटलरललल्लन्छeowe04
-
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
॥
७
॥
अ०३
जब्ब्न्लान्लन्जरज्मन्सन्लन्छन्
ज्यालोलद्गात्रयंत्रं त्रिजगदतिव्यग्र ग्रदुमास्त्रं
शाभाटी० सर्वार्थानर्थसर्गप्रभुमानलमुदक् प्रत्यतिः प्रणौमि ॥ १९२॥ ओं आं को ह्रीं अनिलागच्छागच्छ अनिलाय स्वाहा ।
हांसोघो नाह्यमानं पवननरिनृतत्केतुपंक्ति विमानं स्वारूढः पुष्पकाख्यं क्रमसखरसनादायमुक्ताकलापः । अग्राम्योद्दामवेषः सुललितधनदेव्यादिवत्राब्ज,गः
शक्तीभिन्नारिमर्मा भजतु बलिमुदग्भुक्तिवीरः कुबेरः ॥ १९३ ॥ ओं आं क्रों ह्रीं कुबेरागच्छागच्छ कुबेराय स्वाहा ।
सानावाचालकिंकिण्यनणुरणनझणत्कारमंजीरसिंजा रम्योच्छंगहेलाविहरदुरुशरच्चंद्रशुभ्रर्षभस्थम् । भास्वद्भूषाभुजंगभुजगसितजटाकेतकाइँदुचूलं
दधत्शलं कपालं सगणवमिहा_मि पूर्वोत्तरेशम् ॥ १९४ ॥ ओं आं को ही ईशानागच्छागच्छ ईशानाय स्वाहा । इत्यादि तथा “ओं आं” इत्यादि बोलकर वायुको अर्घ चढावे॥१९२॥ "हांसो' इत्यादि तथा "ओं" इत्यादि पढकर कुवेरको अर्घ चढावे ॥ १९३ ॥ “सास्ना" इत्यादि तथा “ओं" इ.
कन्छन्
n
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
इत्यहन्मदुसामवायिकनयाह्नानादियोग्यक्रमदिक्पालाः कृततुष्टयः परिजनोत्कृष्टश्रियोष्टाप्यमू । द्रष्टा कामदमहंदध्वरमरं दिक्चक्रमाक्रामतो.
भव्यान संदधतः शुभैः सह भजंत्वेतर्हि पूर्णाहुतिम् ॥ १९५॥ पूर्णाहुतिः । इति दिक्पालार्चनविधानम् । अथ दिक्चतुष्टयानविष्टप्रभावनोद्भटयक्षानुकूलनम् ।। प्रभुं भक्तुमिहागत्य प्राची चिन्वन्निजश्रिया । बलिं विजययक्षेश मंत्रपूर्ता स्वसाकुरु॥१९६॥
ओं झलन्यू विं विजययक्ष बलिं गृहाण गृह गृह्ण स्वाहा । अत्रापाचीमलंकृत्य भजमानो जगत्पतिम् । यथार्हबलिसंतुष्टो वैजयंत जयंत नु ॥१९७॥
ओं झलव्यू मैं वैजयंत बलिं.........................। देवाधिदेवसेवाय प्रतीची दिशमास्थितः । बलिदानेन संप्रीतो जयंत जय दुर्जयान् ॥ १९८॥
ॐ मलयं जं जयंत बलि..................................... । त्यावि कहकर ईशानको अर्घ चढावे ॥ १९४ ॥ "इत्यह” इत्यादि बोलकर पूर्णार्घ चढावे ॥ १९५ ॥ इसतरह दिक्पालोंकी पूजाविधि पूर्ण हुई । अब चारों दिशाओंके यक्षोंका सत्कार ) करते हैं। "प्रभु" इत्यादि तथा “ओं” इत्यादि बोलकर विजययक्षको अर्घ चढावे ॥ १९६॥ "अत्रापा" इत्यादि तथा “ओं" इत्यादि बोलकर वैजयंतको अर्घ चढावे ॥ १९७ ॥ "देवाधि इत्यादि तथा "ओं" इत्यादि बोलकर जयंतको अर्घ चढावे ॥ १९८ ॥ " उदीची" इत्यादि
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा
अ०३
उदीची भूषयन् भूत्या सर्वज्ञोपासनोत्सुकः। अपराजित यक्ष त्वं प्रीयस्व बलिनामुना।।१९९॥ भान्टी
ॐ झम्लव्यू अं अपराजित बलिं.................................... । एवं संमानिताययं जिनेंद्रसमये रताः । प्रतिष्ठासमयेऽमुष्मिन् यतध्वं विश्वशांतये ॥२०॥ पूर्णाहुतिः । इति विनयादियक्षानुकूलनविधानम् । अथथैशानदिश्यनावृतार्चनम् ।
जंबूवृक्षस्य नानामणिमयवपुषः प्राज्यजंबूतस्य । प्राक्शाखामावसंतं नवजलदरुचं पक्षिराजाधिरूढम् । कुंडीशंखाक्षमालारथचरणकरं त्राणनिःशेषजंबू
द्वीपश्रीकं यजेस्मिन् विधुरविधुतयेनावृतं व्यंतरेंद्रम् ॥ २०१॥ ओं दशदिशाधिनाथं त्रैलोक्यदंडनायकं जंबूद्वीपाधिपतिं गरुडपृष्ठमारूढं स्निग्धभिन्नांजनाभमक्षसूत्रकमंडलुव्यग्रहस्तं चतुर्भुनं शंखचक्रविधृतभुजादंडं यक्षिणीसहितं सपरिजनं सपरिवारमनावृतं । देवं समाह्वयामीह स्वाहा हे अनावृतागच्छागच्छ अनावृताय स्वाहा अनावृतपरिजनाय स्वाहा ।। तथा “ओं” इत्यादि बोलकर अपराजितको अर्ध चढ़ावे ॥१९९ ॥ “एवं संमा” इत्यादि श्लोक बोलकर पूर्णार्घ चढावे ॥ २०० ॥ इस प्रकार विजयादि यक्षोंका सत्कार हुआ । अब ईशानदिशाके अनावृत यक्षकी पूजा कहते हैं । " जंबूवृक्ष' इत्यादि तथा "ओं दश' इत्यादि पढकर जल आदि अष्ट द्रव्य चढावे ॥२०१॥ "ब्रह्मांते" इत्यादि तथा “ओं ह्रीं” बोलकर
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
लललललललललललल
ब्रह्मांते दिक्षु रुद्रायधिपतिषु समाग्न्यामसूर्याभपूर्वद्विद्विस्वर्भूगणैकोचरभृतिषु वसंत्यष्ट सारस्वताद्याः। यद्वर्गास्ते स्वतंत्राः क्षतविषयतृषो भाविजन्माप्यमोक्षाः
पूर्वज्ञा मेद्य लोकांतिकसुरमुनयस्तीर्थकृच्छंसिनोऽयोः ॥ २०२॥ भों ह्रीं लौकांतिकदेवेभ्यः पुष्पांजलि निर्वपामीति स्वाहा । ब्रह्मेद्रोपरि देवर्षिपुष्पांजलिः । मुख्योपचारिकचरित्रचितोरुपुण्यपाकाप्तखस्थसितरत्नविमानवासान् ।
अहमतिष्ठितिमिमामनुमोदमानान् संमानयामि कुसुमांजलिनाहमिंद्रान् ॥२०३॥ | ओं ह्रीं अहमिंद्रदेवेभ्यः पुष्पांजलिं निर्वपामीति स्वाहा । अच्युतेंद्रोपरि अहमिंद्रपुष्पांजलिः । अथ विधिशेषम् ।
पूर्वादिदिक्षु वेद्या मंगलशांतिकजयेष्टसिद्धयर्थम् ।
मंगलशस्त्रपताकाकलशानथ योजयेष्टशः क्रमशः।। २०४॥ मंगलादिस्थापनाप्रतिज्ञानाय दिक्षु पुष्पाक्षतं क्षिपेत् । लौकांतिक देवोंके लिये पुष्पोंको चढाये ॥ २०२॥ "मुख्यो” इत्यादि तथा “ओं हीं" बोलकर अहमिन्द्र देवोंके लिये पुष्पांजलि चढावे ॥ २०३ ॥ अब शेष विधान कहते हैं । "पूर्वादि" इत्यादि श्लोक पढकर मंगल आदि आठ द्रव्योंकी स्थापनाके लिये दिशाओंमें पुष्प अ
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
म.सा०
STO
सलललललललकरकडन्टर
छत्राब्दध्वजचामरयुगतोरणताल→तनंद्यावर्तम् ।
दीपं च प्रणवमुखं न्यसामि मंत्रार्पित श्रियै स्वाहांतम् ॥ २०५॥ ॐ श्वेतछत्राश्रयै स्वाहा । एवमन्येष्वपि मंगल्यष्टकस्थापनम् ।
दधती पविमिंद्राणी चक्रं वैष्णव्यासिं च कौमारी। सीरं वाराही मुशलं ब्रह्माणी गदां महालक्ष्मी ॥ २०६ ॥ शक्तिं चामुंडायिनि माहेशी भिंडमालमानंतु ।
विघ्नान् प्रणवमुखाख्या गर्भस्वाहांतमंत्रविन्यस्ताः ॥ २०७ ॥
ओं इंद्राण्यै स्वाहा । एवमन्यास्वपि आयुधाष्टकस्थापनम् । पीता प्रभारुणा पद्मा कृष्णाभा मेघमालिनी । हरिन्मनोहरा श्वेता चंद्रमाळेंद्रनीलभा॥२०८॥ सुप्रभाख्या जया श्यामा विजया पंचवर्णमा। दिक्षु तिष्ठत्विमा देव्यः सवर्णध्वनपाणयः२०९
ओं प्रभायै स्वाहा । एवमन्यास्वपि पताकाष्टकस्थापनम् । क्षत वखैरे ॥२०४॥ "छत्र" इत्यादि तथा “ओं' इत्यादि पढकर श्वेतछत्रादि आठ मंगल द्रव्योंको जलादि चढावे ॥२०५॥ "दधती" इत्यादि दो श्लोक तथा “ओं" इत्यादि बोलकर आठ आयुध (हथियार) स्थापना करे ॥२०६ ॥ २०७॥ “पीता" इत्यादि दो श्लोक तथा "ओं" इत्यादि बोलकर आठ पताकाओंका स्थापना करे ॥ २०८ ॥ २०९॥"शुभ्रान्" इ-13
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुभ्रान् प्रकुप्तशरणोत्तममंगलार्थान् कुंभान मुखार्पितसुपलवमातुलिंगान् । स्रक्चंदनाक्षररुचोंबुभृतानिवेश्य मूत्रेण पंचरुचिना त्रिगुणं वृणोमि ॥ २१० ॥
कळशाष्टकस्थापनम् । बाणैर्जयाय सिद्धार्थैरर्थसिद्धथै यवारकैः। संतानवृद्धयै च चतुर्वेदीकोणान विभूषणः२११ वाणचतुष्टयादिस्थापनम् ।
सगुडलवणां सलोष्टी पांडुशिलासोदरेसु सूत्रताम् ।
भोगोपभोगसंपत्मथनी वेद्यां पुरः शिलां निदधे ॥ २१२ ॥ ओं सर्वजनानंदकारिणि सौभाग्यवति तिष्ठ २ स्वाहा । शिलास्थापनम् ।
हैमं रूप्यं चांदनमाहोस्वित् क्षीरवृक्षजं पट्टम् । __ धौतसितवस्त्रपिहितं प्रभुमधिकर्तुं न्यसामि वेद्यतः ॥ २१३ ॥ ओं भद्रासनश्रियै स्वाहा । पट्टस्थापनम् । अथ पीठचतुष्टयार्चनम् । ___ तद्वेदीचतुरंतसांगुलवितस्त्युद्देशशुंभत्कर--
व्यासायामयुतासनेषु कमलान्यालख्य तत्कर्णिकाः । त्यादि श्लोक बोलकर आठ कलशोंका स्थापन करे ।। २१० ॥ "वाणै" इत्यादि श्लोक पढकर वाण आदि चार द्रव्योंको स्थापन करे ॥ २११ ॥ "सगुढ" इत्यादि तथा “ओं" इत्या-2 दिबोलकर शिलाकी स्थापना करे ॥२१२॥ "हेमं" इत्यादितथा “ओं" इत्यादि बोलकर
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
SO TO प्राग्वत् प्राय॑ तथा दलेष्वनुदिशं देवीजयाद्याः पृथक्--
prošle जंभाद्याश्च विदिग्दलेषु धिनुयां दिग्द्वाररैरक्षिणः ॥ २१४ ॥
अ०३ बहिर्मेडलपूजाप्रतिज्ञानाय पुष्पांजलिं क्षिपेत् । अत्रापि पूर्ववत् कर्णिकाः परब्रह्मादिपदैः पूरयित्वा तत्पद्मदलेषु पूर्वादिदिक्षु ओं जये स्वाहा, ओं विजये स्वाहा, ओं अजिते स्वाहा, ओं अपरा-१ जिते स्वाहा । आग्नेय्यादिविदिक्षु च ओं जंभे स्वाहा, ओं मोहे स्वाहा, ओं स्तंभे स्वाहा, ओं स्तं-12 मिनि स्वाहा इति लिखित्वा बहिश्चतुरचतुष्कोणमंडलं विलिख्य तद्वहिः पूर्वद्दिक्पालान् द्वारपालान् । यक्षदेवांश्च संस्थाथ चिद्रूपं विश्वरूपेत्यादिविधिना कर्णिकार्चनं संक्षेपेण कृत्वा जयादिदेवीदिक्पालान् द्वारपालान् यक्षांश्च पूजयेत् । अथ जयादिदेवतार्चनम् । जयाद्याः शब्दये युष्मानायात सपरिच्छदाः । अत्रोपविशतैता वो यजे प्रत्येकमादराव२१५
काष्ठासन (पट्टा) स्थापित करे ॥ २१३ ॥ अब चार पीठोंकी पूजा कहते हैं। "तद्वेदी" इहत्यादि श्लोक कहकर बाह्यमंडलकी पूजाके लिये पुष्पोंको क्षेपण करे ॥२१४ ॥ यहांपरभी हा पहलेकी तरह कर्णिकामें अरहंत आदि पदाको लिखकर उस कमलपत्रपर पूर्व आदि दिशा-2 ओंमें “ओं जये' इत्यादि चार पद लिखे। फिर आग्नेयी आदि विदिशाओंके पत्तोंपर “ओं| जंभे" इत्यादि चार पद लिखे । उसके बाद बाहरके चार दरवाजोंपर चौकोन मंडल लि. खकर उसके बाहर पहलेकी तरह दिकपाल, द्वारपाल और यक्षदेवोंको स्थापन करके । "चिद्रूपं" इत्यादि कही हुई विधिसे कर्णिकाकी संक्षेपसे पूजा करे । फिर जयादि देवी, दि
न्छन्000000000
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
लन्डन्सलर
आवाहनादिपुरस्सरप्रत्यकपूजाप्रतिज्ञानाय पुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।
जये जयाये विजये विजैनि जैने जितेपराजितस्मिन् ।
जंभेवमोहनस्ति भाः स्तंभिनि रक्ष रक्षास्मान् ॥ २१६ ॥ स्वोपग्रहाय पत्रेषु पुष्पाक्षतानि क्षिपेत् । अथ प्रत्येकपूजा ।
इहाईतो विश्वजनीनवृत्तेः कृतौ कृतारातिजये जये त्वाम् ।
सद्धपुष्पाक्षतदीपधूपफलादिसंपादनया घिनोमि ॥ २१७ ।। ओं ही जये देवि आगच्छागच्छ इदं.... ............................ ।
जिनाधिराजे विजयैकविद्ये जगद्विजेतुः कुसुमायुधस्य ।
विजेतरि स्फारितभूरिभक्ति त्वामत्र यज्ञे विजये यजेहम् ।। २१८॥
ओं ही विजये देवि............................................ ... । क्पाल, द्वारपाल, और यक्षोंको पूजे ॥ अब जया आदि देवताओंकी पूजा कहते हैं । जया इत्यादि श्लोक बोलकर आवाहनादिपूर्वक हर एककी पूजा करनेकी प्रतिज्ञाके लिये पुष्पअक्षतोंको क्षेपण करे॥२१५॥ “जये” इत्यादि श्लोक बोलकर अपने उपकारके लिये पत्रोंपर पुष्प अक्षतको क्षेपण करे ॥ २१६ ॥ अब प्रत्येककी पूजा कहते हैं। "इहा" इत्यादि तथा “ओं ह्रीं" बोलकर जया देवीको जलादि आठ द्रव्य चढावे ॥ २१७ ॥ “जिना" इत्यादि तथा "ओं ह्रीं” बोलकर विजयाको अर्घ चढावे ॥२१८॥ "जग" इत्यादि तथा “ओं ह्रीं"
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र० सा०
UCon
जगज्जयोज्जागरिणां कषायद्विषां न केनापि जितं जिनेंद्रम् । आवर्जयंतामृजितार्जितोजामूर्जाप्तये त्वामजितेर्चयामि ॥ २१९ ॥
I
ओं ह्रीं अजिते ........
.........
पराजितारेर पराजितास्त्रैरप्याश्रितस्यारिपराजयाय । जगत्प्रभोरत्र महे महामि पराजिते त्वामपराजिते ॥ २२० ॥ ओं ह्रीं अपराजिते .....
...ess
।
व्यामोहनिद्रां भुवनानि जंभ विशंत्युद्धरतो जिनस्य ।
वितन्वतां यज्ञमजन्यहंत्रीं त्वा देवि जंभे परिपूजयामि ।। २२१ ॥ ओं ह्रीं जंभे .....
।
चिरं जगन्मोहविषेणसुप्तं स्याद्वादमंत्रेण विबोधयंतम् । श्रीबुद्धमाराधयतां हि मोहे त्वां मोहयंतीमहितान्महामि ॥ २२२ ॥ ओं ह्रीं मोहे.....
.......... ............ ...
।
बोलकर अजिताको जलादि चढावे ॥ २१९ ॥ “ पराजि" इत्यादि तथा "ओं ह्रीं" बोलकर | अपराजिताको जलादि आठ द्रव्य चढावे ॥ २२० ॥ “ व्यामोह" इत्यादि तथा "ओं ह्रीं" | बोलकर जंभा देवी पर जलादि चढावे ॥ २२१ ॥ “ चिरं" इत्यादि तथा "ओं ह्रीं” बोलकर
मा०वी०
अ० ३
॥ ८० ॥
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
११
500mocxx
जिनं महाभव्यविशुद्धिभावप्रासादसुस्तंभमुपास्ति यस्तम् । प्रकुर्वतं स्तंभयतां स्तभंतं स्तंभे सृजंतीं भवतीं यजामि ॥ २२३ ॥ ओं ह्रीं स्तंभे देवि .....
I
.............
प्रवादिनां स्तंभयतोत्र मानस्तंभेन दूरादपि मंक्षु मानम् ।
जिनेस्य यज्ञेचनया सपनधीस्तंभिनि स्तंभिनि संस्तुवे त्वाम् || २२४ ॥ ओं ह्रीं स्तंभिनि देवि .........
I
इत्येताः पृथुयशसो जयादिदेव्यो देशामभिरुचिते जिनेंद्रयज्ञे । पूर्णाहुतिमिह लंभिताः प्रपूज्य श्रेयांसि प्रददतु भव्यभाक्तिकेभ्यः।। १२५ ।।
पूर्णाहुतिः ।
| प्राच्याद्याग्नेयकोणादिपत्रेष्विष्टाः क्रमादिमाः। अष्टौ जयादिजंभादिदेव्यः शांतिं वितन्वताम् ॥ इष्टप्रार्थना । इति जयादिदेवतार्चनविधानम् । अथ दिक्पालान् द्वारपालान् यक्षांश्च संक्षेपेण सत्कुर्यात् । इति बहिर्मेडलचतुष्टयार्चनविधानम् ।
66
मोहा देवीको जल आदि द्रव्य चढावे ॥ २२२ ॥ "जिनं" इत्यादि तथा “ ओं ह्रीं" बोलकर स्तंभादेवीको जल आदि द्रव्य चढावे ॥ २२३ ॥ “ प्रवादि" इत्यादि तथा "ओं ह्रीं” बोलकर स्तंभिनीको जल आदि द्रव्य चढावे ॥ २२४ ॥ " इत्येताः" इत्यादि श्लोक बोलकर स
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा० इत्यं निष्ठितपूज्यपूजनविधिः शक्रो महापेण तां
मा०टी० त्रिवेदीमवतार्य भूतिभरतो भक्त्या परित्यानतः ।
| अ०३ सद्भूषाश्चतुरोष्ट वा सुकुसुमैस्तं जापयन् प्रतस
दूपं मंत्रमनादिसिद्धमुरुधीरीशानवेदी यजेत् ॥ २२७ ॥ णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं । । ४चत्तारि मंगलं अरहंतमंगलं सिद्धमंगलं साहुमंगलं केवलीपण्णत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगोत्तमा ।
अरहंतलोगोत्तमा सिद्धलोगोत्तमा साहुलोगोत्तमा केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा । चत्तारिसरणं पव्वजामि । अरहंतसरणं पन्वज्जामि सिद्धसरणं पव्वज्जामि साहुसरणं पव्वज्जामि केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि ह्रौं स्वाहा । अनादिसिद्धमंत्रः । इति मूलवेदिकार्चनविधानम् । अथोत्तरवेदिकार्चनम् ।।
वेद्यां चाा सुरगिरिशिलादिवत्कार्णकायां
प्राग्वन्मंत्रानथ कजदलेष्वष्टसु श्यादिदेवीः ।। बको पूर्णार्घ देवे. ॥ २२५ ॥ “प्राच्या" इत्यादि श्लोक बोलकर इष्टवस्तुकी प्रार्थना करे, &॥ २२६ ॥ इसतरह जया आदि देवताओंकी पूजा हुई । इसके बाद दिक्पाल, द्वारपाल है और यक्षोंका संक्षेपसे सत्कार करे ॥ इसप्रकार बाह्य मंडलचतुष्ककी पूजाविधि जानना । ।
16॥८१॥ " इसप्रकार " वह इंद्र पूजाविधि करके अनादि सिद्ध मंत्रको जपता हुआ ईशानवेदीको पूजे ॥२२७॥ “णमो" इत्यादि स्वाहातक अनादिसिद्ध मंत्र जानना। इसतरह मूलवेदी
ब्लन्डन्सलन्डन्न्न्लन्कलन्छन्
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
ब्ल
... अष्टंद्रादीन् क्षितिपुरबहिर्दिक्षु देवीजयाद्या
न्यस्य द्वारेष्वनु च चतुरो यक्षदेवान् यजामि ।। २२८ ॥ ईशानवेद्यां यागमंडलपूजाप्रतिज्ञानाय पुष्पांजलिं क्षिपेत् । अथ पूर्वविधिना कर्णिकांतःस्थापितां परब्रह्मादिपूजां विधाय पद्मदलेष्वष्टौ श्यादिदेवीः पूजयेत् । तथाहि ।
याः सामानिकपर्षदंबुनपरीवारान्वया यूप्रभू पद्मादिहदपुष्करेंदुविशदप्रासादवासा मुदा । सेवंते बहुधा जिनेंद्रजननी यादीनयंत्यो गुणान्
भांती पुष्पमुखैः करात्तकलशैस्ताः श्यादिदेवीर्यजे ॥ २२९ ॥ श्यादिदेवीसमुदायपूजाविधानाय पत्राष्टके कुंकुमालुलितपुष्पाक्षतं क्षिपेत् । अथ पृथगिष्टिः । । की पूजाविधि हुई । अब उत्तरवेदीकी पूजा कहते हैं । “वेद्यां” इत्यादि श्लोक पढकर ई-16 शानवेडीमें यागमंडलकी पूजा करनेके लिये पुष्पोंको क्षेपण केर ॥ २२८ ॥ अब पहले कही हुई विधिके अनुसार कर्णिकाके मध्यमें स्थापित अरहंत आदि परमेष्ठीकी पूजा करके आठ 2 कमलपत्रोंपर श्री आदि आठ देवियोंकी पूजा करे। उसीको कहते हैं । "याःसामा" इत्यादि श्लोक बोलकर श्रीआदि देवीयोंके समूहकी पूजा करनके लिये आठ पत्तोंपर केशरसे। लेपे हुए पुष्पअक्षताको क्षेपण करे ॥ २२९ ॥ अब जुदी जुदी पूजा कहते हैं। "यायाः"
कन्सन्लन्डन्न्कन्सन्न
-
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
मसा०
अ०३
भ्यायाः संशब्दये युष्मानायात सपरिच्छदारामत्रोपविशतता वो यजे प्रत्येकमादरात्॥२३०॥ मा०टी० आवाहनादिपुरस्सरप्रत्येकजाप्रतिज्ञानाय पत्रेषु पुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।
लोण्या पार्श्वततेंद्रकामुकताडदंडद्युतिं तन्वतो हिम्याद्रेरुपरित्यमुज्ज्वलयतः पद्महदं पुष्करात् । यत्यद्रव्यवरैः सुरालहृदतैगर्भ विशोध्य श्रियं
तन्वाना जिनमातरं भजति या सा श्रीस्तडिद्भाय॑ते ।। २३१॥ ओं सुवर्णवर्णे चतुर्भुजे पुष्पमुखकलशहस्ते श्रीदेवि आगच्छागच्छ इदं जलं........ ।
नानारत्नमयूखपार्श्वखचितक्षीरादवेलाक्षिपो मूर्द्धन्युल्लसतो महाहिमवतः पद्यान् महापाबिके। संविद्वालसखीमुपेत्य विनयाल्लज्जां दृशोव्यंजती
याईन्मातुरुपासनां वितनुते सा हीर्जपाभार्यते ॥ २३२ ॥ इत्यादि श्लोक बोलकर आवाहनादिपूर्वक हरएककी पूजा करनेकी प्रतिज्ञा करनेके लिये तापत्तोंपर पुष्प और अक्षत क्षेपण करे ।। २३०॥"क्षोण्या" इत्यादि तथा “ओं सुवर्ण" || बोलकर श्रीदेवीको जल आदि आठ द्रव्य चढावे॥ २३१॥"नानारत्न" इत्यादि तर “ओं रक्त" इत्यादि बोलकर ही देवीको अर्घ चढावे ॥ २३२ ॥ "उचंत” इत्यादि तथा “ओं
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
ओं रक्तवर्णे चतुभुजे पुष्पमुखकलशहस्ते ह्रीदेवि इदं..................
उद्यंतं सहतोभितो हरिधनुष्की रविं सीकरैमोवी निषधस्य चुंबति महापद्मादपि ज्यायसी । कंजादेत्य तिगिंछ एधितरुचे(यें परं पुष्यतीं।
या जैनां भजतेंबिकामुपहरे तां चीनवर्णी धृतिम् ॥ २३३॥ ओं सुवर्णवर्णे चतुर्भुजे पुष्पमुखकलशहस्ते धृति देवि इदं.................... ।
पाश्र्वोद्भासिविचित्ररत्नरुचिरां वैडूर्यगात्री गदा द्वीपेनेव धृतां पुनात्युपरिमे नीलाचलं नीरजात् । भातः केसरािण श्रियैत्य विधिवद्या सज्जयंती स्तुती
रुक्माभा वरिवस्यतीशजननी तां कीर्तिमाम्यहम् ॥ २३४ ॥ ओं सुवर्णवणे चतुर्भुने पुष्पमुखकलशहस्ते कीर्तिदेवि इदं.............
भास्वद्भक्तिविचित्रितोभयवपुर्भागेंद्रनागपती--
क्षिष्णो रुक्मिागिरेमहांतमुपरित्यं पुंडरीकं श्रितात् । स" त्यादि बोलकर धृति देवीको जलादि चढाये ॥२३३, “पावो" इत्यादि तथा “ओं? स" इत्यादि बोलकर कीर्ति देवीको अर्घ चढावे ॥२३४॥ "भास्वद्भ" इत्यादि तथा “ओं| स" इत्यादि बोलकर बुद्धिदेवीको जलादि चढावे ॥ २३५ ॥ "रत्ना" इत्यादि तथा "ओं
कन्छन्
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
GTO
माधी
14॥
जब्सन्छन्
याब्जादेत्य हिरण्यरुक्परिचरत्यईत्सवित्री जग
द्रोधं कंदलयंत्यलं बलिमहं तस्यै ददे बुद्धये ॥ २३५ ॥ ओं सुवर्णवर्णे चतुर्भुजे पुष्पमुखकलशहस्ते बुद्धिदीव इदं.................... ।
रत्नांशुच्छरितोभयांतकनकश्रोणीध्रशृंगस्निहः रक्कुर्वाणमधित्यकां शिखरिणो यत्पुंडरीकं श्रिया । आवघ्नाति ततोंबुजादुपरतावायै भवोद्भासिनी
भाभा जुषतेविका जिनपतेर्लक्ष्मी यजे तामहम् ॥ २३६ ॥ ओं सुवर्णवणे चतुर्भुजे पुष्पमुखकलशहस्ते लक्ष्मी देवि इदं.... ........।
दृश्यादृश्यवपुर्भिरस्फुटशची साक्षात्सुखं श्यादिभि- . स्तत्तन्मंगलधारणादिविधिभिर्देव्या यदुद्भाव्यते तत्पत्यूहबहिष्कृतं विदधती तस्या मनोनिर्वृति
कांचित्कांचनकांतिरुत्किरति या शांतिर्मया सार्च्यते ॥ २३७॥ ओं सुवर्णवर्णे चतुर्भुने पुष्पमुखकलशहस्ते शांति देवि इदं............। सु" इत्यादि बोलकर लक्ष्मीदेवीको अर्घ चढावे ॥२३६ ॥ "दृश्यादृश्य" इत्यादि तथा “ओं सु" इत्यादि बोलकर शांतिदेवीको जलादि चढावे ॥ २३७ ॥ “संक्रांते" इत्यादि तथा “ओं
.ooo
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
कलजन्मन्छन्
संक्रांतेंदु यथामुखीनवलवकुक्षि जिनाध्यासितं विभ्रत्यावपुषीश्वरे गुणगणे भोगेषु भक्तेषु च । देव्याः पुष्टिमनुक्षणं प्रगुणयंत्यन्यासु या स्तभ्यते
गांगेयांगरुगर्हतोर्हति महे सा पुष्टिरिष्टिं न काम् ।। २३८ ॥ ओं सुवर्णवर्णे चतुर्भुजे पुष्पमुखकलशहस्ते पुष्टिदेवि इदं........... । इत्यष्टता दिकुमारीर्जिनांचापरिचारिकाः। प्रसाद्य हविषां पूर्णाः पूर्णाहुत्यो विदध्महे ॥२३९॥
पूर्णाहुतिः। एवं संभाविताः कर्तुर्जिनजन्ममहोत्सवम् । श्रीमुख्यदेवतास्वष्टास्तुष्टये संतु यज्वनाम् ॥२४॥ | इष्टप्रार्थनाय पुष्पांजलिं क्षिपेत् । एवं श्यादिदेवीरभ्यर्च्य दिक्पालादीन् पूर्ववत्क्रमेण पूजयेत् । इत्युत्तरवेदिकार्चनविधानम् ।
ऐतियादिति यागमंडलमहं निर्वर्त्य वेदीविधि
चित्यं शुभभावसंपतिपरां निर्माप्य भव्यात्मनाम् । सु" इत्यादि बोलकर पुष्टि देविको जलादि चढावे ॥ २३८ ॥ "इत्यष्टै" इत्यादि श्लोक बोलकर पूर्णार्घ चढावे ॥ २३९ ॥ “एवं" इत्यादि श्लोक बोलकर इष्ट वस्तुकी प्रार्थनाकेलिये। पुष्पोंका क्षेपण करे ॥ २४ ॥ इसप्रकार श्री आदि देवियोंको पूजकर दिक् पालोंको पूर्व क
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
॥ ८४ ॥
दृष्ट्वामृश्य च सर्वशः प्रतिकृतीराशाधरोंतश्वरत्
कीर्तिः सोत्तरसाधकोनुरहसं गच्छेत्पुरा कर्मणे ॥ २४१ ॥
इत्याशाधरविरचिते प्रतिष्ठासारोद्धारे जिनयज्ञकल्पापरनाम्नि यागमंडलपूजाविधानीयो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
हे हुए क्रमसे पूजे । इस तरह उत्तर वेदीकी पूजा विधि हुई । मैंने ( आशाधरने ) यह वेदी - का विधान शास्त्र के अनुसार कहा है । जो कोई इस विधीको जानकर और विचार कर क रेगा वह मुमुक्षु भव्यजीव उत्तम सुखको अवश्य प्राप्त होगा ॥ २४१ ॥
इसप्रकार पं० आशाधर विरचित जिनयज्ञकल्प द्वितीय नामवाले प्रतिष्ठासारोद्धारमें यागमंडलकी पूजाविधी कहनेवाला तीसरा अध्याय समाप्त हुआ ॥ ३ ॥
20260020290
मा०टी०
अ० ३
॥४॥
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
P
॥ चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
C
अथो विविक्तदेशस्थः प्रतिष्ठाचार्यकुंजरः । प्रतिष्ठाविधये कुर्यात् परिकर्मेदमादृतः ॥ १॥ प्रागेकां सुखसंचार्या प्रातिहार्यादिशालिनीम् । पुरोधाय सुरम्यार्थ्यां प्रतिष्ठेयं निरूपयेत्॥२॥
शस्ताशस्तात्मभावार्जितषजिनच्छेददृप्यत्परा यः स्वर्गाच्छभ्रादथैत्य त्रिजगदुपकृतिव्यक्तिमाहात्म्यसंपत् । शक्राद्यैर्योतिरागादहमहमिकया सेव्यते सियधीशः पश्यंत्यज्ञास्तदर्चा स्वचितमिह नये स्थाप्यतेर्हत्स तेभ्यः ॥३॥
-
अब चौथा अध्याय कहते हैं। याग मंडलकी पूजाके वाद उत्तम प्रतिष्ठाचार्य एकाहतस्थानमें प्रतिष्ठा विधिके लिये इस आगे कहेजानेवाली क्रियाको करे ॥१॥ सबसे पहले
एक प्रतिमाको लावे। जोकि अच्छीतरह अपनेपर चल सके, प्रातिहार्य आदि सहित हो :
और देखनेमें बहुत अच्छी हो ॥२॥"शस्ता" आदि श्लोकोंमें जैसा प्रतिमाका वर्णन किजाया है वैसी प्रतिमाको न्यायपूर्वक पैदा किये हुए द्रव्यसे वनवाकर प्रतिष्ठा कराते हैं वे
Gra
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रसा०
मा०टी०
कल्याणैः श्रितभूतभाविसुनयत्रित्वौभयेः पंचभिश्चित्तं वित्तमशेषमोहमथनाद्भासत्यविद्याभिदि ।
अ०४ प्रत्यग्ज्योतिषि तीर्थकृत्वनियतं निर्बीजयोगे स्फुरद् ध्यात्वार्चा स्थिरचित्क्षणाष्टकपदे यो क्षेत्रबीजाक्षरम् ॥४॥ द्रव्यैः स्वैः सुनयाजितैर्जिनपतेर्विम्बं स्थिरं वा चलं ये निर्माप्य यथागमं सुदृषदाद्यात्मात्मनान्येन वा। लग्ने वाल्गुनि लंभयंति तिलकं पश्यति भक्या च ये
ते सर्वेपि महोदयांतमुदयभव्यां लभंतेऽद्भुतम् ॥ ५ ॥ प्रतिष्ठेयनिरूपणा । अथ सकलीकरणम् । अत्रादावनेन मंत्रेण स्वहस्तौ पवित्रयेत् । ओं णमो अरहंताणं णमो केवलिणे सुअंगदेवि पसत्थ हत्थेहिं हुं फट् स्वाहा । हस्तद्वयपवित्रकरणमंत्रः । ततः। भव्यजीव उत्तमपदको पाते हैं ॥३।४।५। यह प्रतिमाका वर्णन हुआ । अब सकलीकरण क्रिया कहते हैं । उसमें पहले “ओं णमो” इत्यादि मंत्रसे अपने हाथ पवित्र करे। उसके वाद सुरभिमुद्रा धारण करके इस आगेकी पवित्र विद्याको सात वार चिंतवन करे। वह विद्या “ओं णमो" से लेकर स्वाहा तक कही है। उसके बाद अंगन्यास करे वह इसप्रकार
उन्डन्सलन्डन्न्न्लन्जन
है
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
लन्डन्न्ल
है सुरभिमुद्रां धृत्वा इमां शुचिविद्यां सप्तवारान् न्यसेत्।ओं णमो अरहताणं णमो सिद्धाणं णमो आगा
सगामीणं णमो विझायाणं णमो सव्वोसाहिपत्ताणं णमो सयं बुद्धाणं णमो केवलिणे स्वाहा । इमा च ।। शाओं अर्हन्मुखकमलवासिनि पापात्मक्षयंकरि श्रुतज्वालासहस्रप्रज्वलिते सरस्वति मम पापं हन हन क्षाशा
क्षी क्षु क्षौं क्षः क्षीरधवले अमृतसंभवे वं वं हूं स्वाहा । शचीकरणमंत्रौ । ततः सकलीकुर्यात् । ओं जअं नमः सुहृदये, ओं सिं स्वाहा शिरसि, ओं आं वषट् शिखायां, ओं ओं घे घे कवचं, ओं सां-!
हूं फट् स्वाहा अस्त्रं, ओ हौं वषट् नयनयोः । पुनः ओं हां णमो अरहंताणं स्वाहा हृदये, ओं ह्रीं णमो सिद्धाणं स्वाहा ललाटे, ओं हूं णमो आइरियाणं स्वाहा शिरोदाक्षणे, ओं ह्रौं णमो उवज्झायाणं स्वाहा पश्चिमे, ओं हः णमो लोए सव्वसाहणं स्वाहा वामे । पुनस्तान्येव पदानि ललाटे हा मूनि दक्षिणे पश्चिमे वामे चेति न्यसेत् । सकलीकरणमंत्रः । ततः ।।
ओं “ उसहाइजिणं पणमामि सया अमलो विरजो वरकप्पतरू ।
सवकामदुहा मम रक्ख सदा पुरु विजणही पुरु विजणिही ॥६॥ “ओं" इत्यादि पहला मंत्र बोलकर हृदय स्थानको स्पर्श करे। दूसरेसे मस्तकको, तीसरेसे चोटीको चौथेसे कवचको पांचवेंसे अस्त्रको. और छठेमंत्रसे नेत्रोंको छए। अथवा “ओहीं" इत्यादि पहले मंत्रसे हृदयका स्पर्श करे, दूसरेसे मस्तकका, तीसरेसे शिरके दाहिनी तरफका, चौथेसे पश्चिमकी तरफका, पांचवेसे बांई तरफका स्पर्श करे । इन्हीं पदोंको बोलकर मस्त
न्लन्छन्
न्छन्
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
प.सा०
.८६॥
ओं “ अहेव य असया अटुसहस्सा य अट्ठकोडीओ।
माटी० रक्खंतु ते सरीरं देवासुरपणमिया सिद्धा ॥ ७॥ स्वाहा ।
अ०३ अनेन स्वस्यांगप्रत्यंगपरामर्शः कार्यः । ततः ओं धनु धनु महाधनु । स्वाहा । इमां धनुर्विद्यां । वामकरांगुलिपर्वसु विन्यस्थ प्रतिमाग्रे वामपादांगुष्ठेन सरेफागपुरस्सरं धनुरालिख्य वामपादेनाक्रम्य कायोत्सर्गेण स्थितः सन् ओं णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए । सल्बसाहूणं थंभेइ नल जलण चिंतियमित्तेण पंचणमोकारो अरि मारि चोर राउल घोरुवसम्गं हां ही हूं ह्रौं हः विणासेइ स्वाहा । इदं सप्तवारान् हृद्युच्चार्य अष्टोत्तरशतं धनुर्विद्यामावर्तयेत् । इति सकलीकरण विधानं । अथ प्रतिष्ठा । कके दक्षिण पश्चिम और वांयें भागमें स्थापन करे ॥ यह सकलीकरण मंत्रकी क्रिया हुई ||| उसके बाद छठे सातवें दो श्लोकमंत्र पढकर अपने अंग उपांगोंको छुए ॥६॥७॥ उसके 3|| पीछे “ओंधनु" इत्यादि धनुषविद्याको वायें हाथकी उंगलियोंके पोरुओंमें स्थापनकर प्रतिमाके आगे वायें पैरके अंगूठेसे रेफ सहित वाणयुक्त धनुषको लिखकर वांये पैरसे आच्छादितकर खड़ासनसे "ओं णमो" इत्यादि स्वाहा पर्यंत मंत्रको सातवार मनमें बोलकर एकसौ आठवार धनुषमंत्रको जपै । इसतरह सकलीकरण क्रियाका कथन किया। अब प्रतिष्ठा करनेकी विधि कहते है;-सकलीकरणादि कर्म करनेके वाद प्रतिष्ठाचार्य वेदीके पूर्वसिंहासनके|||
000000
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
कृतकर्माधुनावेदी प्राच्यपीठाग्रभूतले । इह गंधांबुसंसेक सत्पुष्पप्रकारांचिते ॥ ८ ॥ भद्रासनं निवेश्यात्र विश्वकर्मसमक्षतः । गर्भावतार कल्याणं स्थापयापीदमर्हताम् ॥ ९ ॥ ओं मूलवेद्याः पूर्वस्यां दिशि जयादिपीठस्य पुरस्ताद्भद्रासनं निवेशयामीति स्वाहा भद्रासननिवेशनम् ।
वंशक्षायिकदृक्समिद्धसुधियां योस्मिन्मनूनामभूद्ये चक्ष्वाकुकुरुग्रनाथ हरियुग्वंशाः पुरोवेधसा | आधानादिविधिप्रबंध महिताः सृष्टास्तदुत्थार्यभूभर्तृस्वामिकजीविता सुकुलजा जैन्यो जयंत्यंबिकाः ॥ १० ॥ मृत्यादित्रय दृग्विशुद्ध यनुगचित्सत्कर्मणो आगमद्रव्यो गोतमगोत्र भाग भिजनो नेभिस्तथा सुव्रतः । तद्वत्काश्यपगोत्रिणस्तदितरे णोकर्मनो आगम द्रव्योद्येष्वभवन स्वयं यदुदरेष्वंबाः प्रसदिंतु ताः ॥ ११ ॥
आगेकी जगहको गंधोदकसे छिड़ककर पुष्पोंको क्षेपण कर उस जगह पर कारीगरके सामने | उत्तम सिंहासन रखे और "मैं अर्हत्प्रभुका गर्भकल्याणक स्थापन करता हूं " ऐसा कहै । उस समय " ओं मूल " इत्यादि मंत्र बोलना चाहिये ॥ ८ ॥ ९ " वंश ” इत्यादि दो श्लोक | बोलकर जिनमाताओंकी स्तुती करे ॥ १० ॥ ११ ॥ अब जिनमाताओंके नाम कहते है ;
GooneeeeDOG
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
.८७
स्जद
अ०४
प्र०सा०
मरुदेवीं वृषस्यांचा विजयामजितस्य च । सुषेणां संभवेशस्य सिद्धार्थी नंदनप्रभोः ॥१२॥MAGटी. सुमंगलाहां सुमतेः सुसीमां पद्मरोचिषः । वसुंधरां सुपार्श्वस्य लक्ष्मणां चंद्रलक्ष्मणः॥१३॥ रामां श्रीपुष्पदंतस्य सुनंदां शीतलाईतः । विष्णुश्रियं श्रेयसश्च वासुपूज्यप्रभोर्जयाम् ॥१४॥ सुशर्मलक्ष्मी विमलाईतोऽनंतस्थ सुव्रताम् । ऐरिणी धर्मनाथस्य कमलां शांत्यधीशिनः १५ सुमित्रां कुंथुनाथस्य अरभर्तुः प्रभावतीम् । मल्लेः पद्मावती वां सुव्रतस्य मुनीशिनः॥१६॥ विनता नमिनाथस्य शिवां नेमिजिनेशिनः। देवदत्तां च पार्श्वस्य वीरस्य प्रियकारिणीम्॥१७॥
चतुर्विशतिमप्येताः सवित्रीस्तीर्थकारिणाम् । स्थापयामीह तद्गर्भपवित्रितजगत्रयाः॥१८॥ Kऋषभनाथकी मरुदेवी अजितकी विजया, संभव नाथकी सुषेणा, अभिनदनकी सिद्धर्था, है सुमतिजिनकी सुमंगला, पद्मप्रभकी सुसीमा, सुपार्श्वकी वसुंधरा, चंद्रप्रभकी लक्ष्मणा, पुष्पदंत- है। है कीरामा, शीपलनाथकी सुनंदा, श्रेयांसनाथकी विष्णुश्री और वासुपूज्य प्रभुकी जया है ॥१२॥ ॥१३॥१४॥ विमलनाथकी सुशर्मलक्ष्मी, अनंतनाथकी सुव्रता, धर्मनाथकी ऐरिणी, शांतिनाथकी कमला, कुंथुनाथकी सुमित्रा, अरनाथकी प्रभावती, मल्लिनाथकी पद्मावती, सुव्रतप्रभुकी देवदत्ता और महावीरप्रभुकी प्रियकारिणी-इन चौवीस जिनमाताओंकी स्थापना इस जगह करता हूं । इन्हींके गर्भसे तीन जगत पवित्र होता है । १५१६॥१७॥१८॥ “ओं"
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
कन्कन्कन्छन्
ओं मरुदेव्यादिनिनेंद्रमातरोत्र सुप्रतिष्ठिता भवंत्विति स्वाहा । जिनमातृस्थापनार्थ भद्रपीठस्योपरि पुष्पांजाल क्षिपेत् ।
षण्मासान् भुवमेष्यतां नवदिवश्चाजग्मुषामहतां पित्रोः सौधमपीद्धमुत्सृजति या रैदो महेंद्राज्ञया । स्वर्णा गावधुतामरद्रुमफलासारभ्रम कुर्वतीं।
व्यक्तुं तामिहर त्नदृष्टिमुचितं मुंचामि पुष्पोच्चयम् ॥ १९ ॥ ओं धनाधिपते अर्हत्पितासौधे रत्नवृष्टिं मुंच मुंचेति स्वाहा । कनकशलाका रत्नपंचकविमिश्रचित्रकुसमांजलिं भद्रपीठस्याग्रतः प्रकिरेत् । रत्नवृष्टिस्थापनं ।।
सर्वर्तुकामिवरवस्त्रफलप्रसूनशय्यासनाशनविलेपनमंडनानि ।
तत्तत्क्रियोपकरणानि तथेप्सितानि तीर्थेमशातुरुपदीकुरुतां धनेशः ॥ २०॥ इत्यादि बोलकर जिनमाताओंकी स्थापनाके लिये सिंहासनके ऊपर पुष्पोंको क्षेपण करै। "षण्मासान्" इत्यादि तथा “ओं" इत्यादि बोलकर सोंनेकी सलाई पांच तरहके रत्नइनसे मिले हुए पुष्पोंको सिंहासनके आगे वस्खेरै । इस तरह रत्नवर्षाका स्थापन हुआ॥१९॥ “ सर्वर्तु" इत्यादि तथा “ओं" इत्यादि बोलकर उत्तम कपड़े अंगूठी हार फल पत्र पुष्प आदिको सिंहासनके आगे रखे । इन सब वस्तुओंको शिल्पी ग्रहणकरे ॥२०॥ उसके बाद
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
ucc॥
अ०४
ओं निधीश्वर जिनेश्वरमात्रे भोगोपभोगांगान्युपनयोपनयेति स्वाहा । चारुवस्त्रमुद्रिकाहारफलपत्रपुष्पादिकं पीठाग्रे प्रतिष्ठयेत् । तच्च सर्व विश्वकर्मा गृह्णीयात् । माताको सोलह स्वप्नोंका देखना।गर्जताहुआ सफेद ऐरावत हाथी १ बैल २ सिंह ३देव हस्तियोसे स्नान कराई गई लक्ष्मी ४ लटकतीं दो फूलोंकी मालायें ५ चांदनीयुक्त पूर्णचंद्रमा ६ ऊगता हुआ सूर्य७ कमलोंसे ढके हुए सुवर्णमई कलशे ८ सरोवरमें क्रीडा करता मछलियोंका जोड़ा ९ दिव्य सरोवर १० चंचल लहरोंवाला समुद्र ११ रत्नजड़ा सिंहासन १२ मणियोंसे जटित । विमान १३ नागेंद्रका भवन १४ प्रकाशमानरत्नोंकी राशि १५ धूमरहित जलती हुए आमि १६-ये सोलह स्वम हैं इनको देखकर माताको जगना । उसके बाद अपने पतिसे स्वप्नोंका | फल सुनना । वह इस तरह है--पहले स्वप्नमें सफेद ऐरावत हाथी देखनसे उत्तम पुत्रका होना, बैलके देखनेसे तीन लोकका गुरु होना, सिंह देखनेसे अनंत बलसहित होना, स्नान || कराई गई लक्ष्मीके देखनेसे इंद्रोंकर सुमेरु पर्वतपर आभिषेक होना, पुष्पमाला देखनेसे : धर्मतीर्थका प्रवर्तक होना, पूर्णचंद्रमा देखनेसे संसारको आनंदित करना, सूर्यके देखनेसे तेजस्वी होना, दो सुवर्णके घड़े देखनेसे रत्नादिकी खानिका स्वामी होना, मछलियोंका जोड़ा देखनेसे बहुत सुखी होना, सरोवर ( तालाव ) देखनेसे शुभलक्षणों सहित होना, समुद्रके देखनेसे केवलज्ञानी होना, सिंहासनके देखनेसे बड़े भारी राज्यका अधिकारी | होना, विमान देखनेसे स्वर्गसे आकर जन्म होना, नागेंद्रका भवन देखनेसे अवधिज्ञानी,
॥
८
॥
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
मंद्रं गर्जतमैन्द्रं द्विपमुडुपशयं तत्सगं, गवेंद्र सिंह शैलेन दंतं जलरुहि कमलां स्नाप्यमानां सुरेभैः। दानी खे लंबमाने भ्रमदलिपटले चंद्रिकाकीर्णदिकं । चंद्र प्रधोतमः सरसि झषयुगं क्रीडदन्योन्यरक्तम् ॥ २१ ।। कुंभौ हेमौ सुधाचौ स्फुटकमलमुखौ छन्नमच्छाप्सरोब्जैथंचद्रत्नोमिमत्रि तडिदुचितमरुच्चापजित्सिंहपीठम् । कांत्यान्योन्यं हसंत्या सुरफाणसदने द्यां करै रंजयंतं रत्नौघं प्रज्वलंतं ज्वलनमपि निशातुर्ययामे द्विरष्टौ ॥ २२ ॥ स्वमान् दृष्ट्वा प्रबुद्धा झटिति घटितमुच्छृण्वती तुर्यनादान् पत्युः प्रीतात्तदुक्त्या सुतनु सुतमिभस्तै स तादृग्महांतम् । ब्रूते विश्वाग्रिमं गौः करिकुलकषितानंतवीर्य रमेंद्रेमेरौ स्नाप्य द्विमालं वृषसमयकरग्लीः प्रजाह्लादहेतुम् ॥ २३ ॥ भास्वान् दीपं विशारिद्वयमतिसुखिनं कुंभयुग्मं निधीशं
कासारो लक्ष्मसारं परविदमुदधिष्टिरं प्राज्यराज्यम् । होना, रत्नराशिके देखनेसे अनेक गुणोंका खजाना होना, निघूम अग्निके देखनेसे कर्मरूपी १२३धनका जलाना-ये स्वोंको फल है ॥२१ । २२ । २३ । २४ ॥ स्वप्नोंको देखना स्थापन
लन्डन्न्कन्सन्स
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
कन्छन्
घरेतारं सुरौकः फणिगृहमवधिज्ञानिनं सद्गुणाधि
भाष्टी० रत्नौघोहोनमग्निः स्तमितिविदितसतत्फलैपाहदंबा ॥२४॥
अ०४ षोडश सत्पुष्पाणि तावत्येव च सत्फलानि परिवर्त्य पीठाग्रतः स्थापयेत् । स्वप्नावलोकनस्थापनम् ।
श्री ही धृते कीर्तिमती च लक्ष्मि शांते च पुष्टे च सहैत्य जिष्णोः । आज्ञानियोगेन तथा स्वभक्त्या पित्रे निवेद्यात्ततदभ्यनुज्ञाः॥ २५ ॥ विशोध्य गर्भ सुपवित्रदिव्यद्रव्यैर्यथास्थाननियोगमेनाम् । सुभक्तया गूढमुपास्यमानां शच्या भजध्वं पुरुदिक्कुमार्यः ॥ २६ ॥
ओं दिक्कुमार्यो जिनमातरमुपेत्य परिचरत परिचरतेति म्वाहा । सद्वस्त्रालंकारा अष्टौ वरकुमारीमिंगलतांबूलहस्ताः संनिधाप्य पीठं पारतः सकुंकुमरंजितपुष्पाक्षतं क्षिपेत् । गर्भशोधनपूर्ववद्दिक्कुमारी-18 परिचर्यास्थापनं । करनेकेलिये सोलह उत्तम पुष्पोंको तथा सोलह उत्तम फलोंको सिंहासनके आगे स्थापन है। करे । श्री ही धृति कीर्ति बुद्धि लक्ष्मी शांति पुष्टि-इन देवियोंकर गर्भ शोधन करना । २५ । २६ ॥ आठ कुमारी कन्यायें स्वच्छ वस्त्र आभूषणोंकों पहनके हाथमें फल आदि मंगलीक द्रव्य लेकर सिंहासनके पास आके केशर मिले हुए पुष्प अक्षतोंको क्षेपण करे। य.
IN८९॥
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
सौंषधिचंदनपंचमृद्भिर्विलिप्य तीर्थोदकपंचकेन ।
विशोध्य पीठं जिनमज्जगर्भे गर्नोपमेस्मिन्नवतारयामि ॥२७॥ तामेव रहसि पुरा निरूपितप्रतिष्ठेयामहत्प्रतिमां नूतनसितनसितसद्वस्वप्रच्छादितां पुरस्सरटंकिकाकरविश्वकर्मसौधर्मेन्द्रौ महोत्सवेनानीय सुविशुद्धभद्रासनगर्मपद्मे निवेशयेतां ।
यो गंगांबुसुरत्नपुष्पकृतभूपस्कारामंद्रासनद्रकूपं प्रमदाकुलीकृतजगद्गर्भ प्रविश्योत्तमे । लगे वामतिरंजयन् रविरिह प्राची परानुग्रह
ग्राहोद्यवृतिवर्द्धतेस्म सुदृशां सोऽयं जिनस्तन्मुदे ॥२८॥ ओं णमोहते केवलिने परमयोगिने शुक्लध्यानग्निनिर्दग्धकर्मेन्धनाय सौम्याय शांताय वरदाय ह गर्मशोधन और दिकुमारियोंकी सेवाविधि स्थापन कीजाती है । सर्वोषधि चंदन । आदिसे सिंहासनको पवित्रं करके कारीगर और सौधर्मेंद्र दोनों उत्तम वस्त्रसे ढकी हुई है। प्रतिष्ठेय प्रतिमाको महान उच्छवके साथ लाकरं शुद्ध सिंहासनके भीतर कमलपत्रमें 2 स्थापित करें ॥ २७ ॥ उसके वाद “ यो गंगां" इत्यादि तथा “ ओंणमो " इत्यादि बोलकर कुंकुसे रंगे हुए चमेलीके पुष्प तथा अक्षतोंको मूलनायक और दूसरी प्रतिमाओंके ९ ऊपर क्षेपण करे ॥ २८ ॥ गर्भावतार विधि कहते हैं । "दृक् " इत्यादि दो श्लोक बोलकर है
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
ब
TO ENTO
॥९
॥
-
-
अष्टादशदोषविवर्जिताय स्वाहा । जात्यकुंकुमपिंजारतजातिपुष्पाक्षतं तस्या अन्यासा च प्रतिष्ठेयमाना-भाण्टी नामुपरि क्षिपेत् । गर्भावतारणं ।
अ०४ दृक्शुद्धयादिविशेषवद्धसुकृतस्कंधेग्रसांगिकस्फूर्जच्छुष्मणि विश्वकर्माण निजव्यापारयोग्यं वपुः । स्रष्टुमस्तभरस्त्रिबोधरुचिभागास्यन योर्काब्दवद् गर्भ मातुरिभाकृतिर्वसति वै सोत्रावतीर्णः प्रभुः ॥ २९ ॥ इत्युक्त्वा प्रणतामहत्तरिकया निर्दिश्यमाना पृथक स्थानाख्यादिभिदा जिनेंद्रजननीमभ्यर्च्य नुत्वा स्फुटं । नाचं पत्रमुदाभिनीय पितरं चापृच्छय जग्मुः पदं
स्वं शक्राः स जयत्ययं जिनपतेर्गर्भावतारोत्सवः ॥ ३०॥ जिनमातृपूजनार्थ भद्रासनगर्भनिवेशितप्रतिमाग्रे पुष्पांजलिं क्षिपेत् । अट्टैः सिद्धचारित्रशांतिभक्तिभिरादरात् । गर्भावतारकल्याणक्रिया तत्यास सूरिभिः॥३१॥ जिनमाताके पूजनके लिये सिंहासन ( भद्रासन ) में स्थापित प्रतिमाके आगे पुष्पांजलि क्षेपण करे ॥ २९॥३०॥ उसके बाद वे इंद्र सिद्धभक्ति चारित्रभक्ति शांतिभक्ति-इन तीनोंको 21॥१०॥ करके गर्भावतार कल्याणकी समाप्ति करें॥३१॥ इस तरह गर्भावतार कल्याणककी विधि
-
न्छन्
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
न्डन्न्कन्छन्
इति गर्भावतारकल्याणस्थापना । अथ जन्मकल्याणस्थापना ।
देवानां नमयन् शिरांसि समनांस्याकंपयन्नासनान्यभ्रं निर्मलयन् सदिकसुमनसो देवद्रुमैवषयन् । जन्यन् शीतसुगंधिमंदमनिलं यः सिंधुमुढेल
माधुन्वन् स धराधरां च निरगाव कुक्षेः शुभेहोषसः॥ ३२ ॥ वनापनयनम् ।
किं तां सवित्रीमिह वर्णयामि किं चर्चये लग्नमथास्पदं तत् । . यदेष देवो भुवनत्रयैकगुरुः स्वयं स्वमसवेधिचक्रे ॥ ३३ ॥ पुण्याहमद्याध मनोरथा नः पूर्णा जगंत्यद्य सनायकानि ।
प्रमोदते कोद्य न चेतनोस्मिबृजेपि जन्मांत्यमिदं प्रपन्ने ॥३४॥ जिनजन्मस्थापनाय तस्या अन्यासां च प्रतिष्ठेयप्रतिमानामुपरि पुष्पाक्षतं क्षिपेत् । पूर्ण हुई। अब जन्मकल्याणककी स्थापना कहते हैं । “ देवानां ” इत्यादि श्लोक पढकर वस्त्रको अलग कर देना ॥ ३२ ॥ " किं तां" इत्यादि दो श्लोक बोलकर जिन भगवानके जन्मकी स्थापना करनेके लिये मलप्रतिमा तथा अन्य प्रतिष्ठेय प्रतिमाओंके ऊपर पुष्प अक्षतोंको क्षेपण करे ॥ ३३॥३४॥ पसेवरहित शरीर १ मलरहित शरीर २ सम चतुरस्र
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
५० सा०
॥ ९१ ॥
Coe
निःस्वेदत्वमनारतं विमलता संस्थानमाद्यं शुभं तद्वत्संहननं भृशं सुरभिता सौरूप्यमुच्चैः परम् । सौलक्षण्यमनंतवीर्यमुदितिः पथ्याप्रियासृक्य यः शुभ्रं चातिशया दशेह सहजाः सत्वर्हदंगानुगाः || ३५ ॥ सनवव्यंजनशतैरष्टाग्रशतलक्षणैः । विचित्रं जगदानंद यज्जिनांगं तदस्त्विर्द ॥ ३६ ॥ सहजदशातिशयस्थापनार्थं प्रतिमोपरि दशपुष्पीमावयेत् । भृंगाराब्दातपत्रोज्ज्वलचमररुहाण्युद्वहंत्योष्टशो या द्वात्रिंशद्दिकुमार्यो जिनजनुषि भजंत्यंबिकायाश्चतस्रः ।
संस्थान ३ वज्रवृषभनाराच संहनन ४ सुगंधमय शरीर ५ अत्यंत सुंदर शरीर ६ शुभ एक हजार आठ लक्षणवाला शरीर ७ अतुल बल ८ हितमित वचन ९ दूधके समान सफेद लोहू १० ये दश अतिशय जन्मके साथ स्वभावसे ही उत्पन्न होते हैं ॥ ३५ ॥ जिनेंद्रका शरीर नौसौ व्यंजन और एकसौ आठ लक्षण सहित होता है वह यही है ॥ ३६ ॥ ऐसा कहकर | स्वभावसे उत्पन्न दश अतिशयोंकी स्थापनाकेलिये प्रतिमाके ऊपर दस पुष्प रखे । “ भृंगारा' | इत्यादि तथा “ ओं रुचक " इत्यादि कहकर भद्रासनपर विराजमान प्रतिमाके चारों तरफ कुंकुसे रंगे हुए पुष्प अक्षतोंको वखेरै ॥ ३७॥ यह विजयादि देवताओंका सत्कार स्थापन
0
मा०वी०
अ० ४
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
गेहं विद्युत्कुमार्यो रुचकवरनगाग्रास्पदा द्योतयंते
या चाष्टौ जातकर्मा दधति तदनुगास्ताः स्फुरत्वत्र धरन्याः ॥ ३७ ॥ ओं रुचकवरगिरींद्रशिखरनिवासिन्यो विजयादिदेव्यो यथास्वमहत्प्रभुमिहेदानीं परिचरंत्विति | स्वाहा । पीठस्थप्रतिमां सर्वतः कुंकुमरंजितपुष्पाक्षतं विकिरेत् । विजयादिदैवतोपास्तिस्थापनं ।
दिव्यद्रव्यविशुद्ध एव जवरे यो रत्नवृष्टिं क्षणप्रीतायाः पयसीव पव्यमवसन्मातुः स्वयं शुद्धिमान् । यन्नामापि विशुद्धयेस्ति जगतो ध्यायति यं योगिन
स्तस्याप्याकरशुद्धिमेष विधिरित्यातन्वतां देवताः ॥ ३८॥ आकरशुद्धिविधानख्यापनार्थ तीर्थोदकाप्लुतपुष्पाणि प्रतिमोपरि निध्यात् ।
घंटासिंहासनकजलरुहां निःस्वनैरदेयोने
ख़त्वातुल्यजिनजनिमुपेत्योच्चकैः स्वस्वभूत्या । किया। “ दिव्य " इत्यादि श्लोक पढकर आकरशुद्धिकी विधि दिखलनेकोलिए तीर्थ जलसे धोये हुए पुष्पोंको प्रतिमाके ऊपर क्षेपण करे ॥ ३८ ॥ “ घंटा " इत्यादि श्लोक बोलकर इंद्र और यजमान आदिकोंके ऊपर उन अमुक नामवाले इंद्रादि भावोंको स्थापनकेलिए सौधर्म प्रतिष्ठाचार्य पुष्प और अक्षतोंको क्षेपण करे ॥ ३९ ॥ उसके वाद " अयं "
C-CGC7
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रसा०
अ०४
.
.
.
॥
जन्मन्छन्
कल्पज्योतिर्वनभवनगीर्वाणनाथाः स्वयं यत् ।
भा०टी० तत्कल्याणं यधुराभिनयत्यत्रतं -म तेमी ॥ ३९ ॥ इंद्रयजमानादिषु तत्तदिंद्रादिभावस्थायनाय साधर्मः पुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।
अयं शच्या गुप्तं कृतवति नुर्ति छद्मशयना-- निमील्यांबा मायातन यमुपहृत्याहति ते । समांगल्ययादिब्रजमनुव्रत्याक्षिकरणी:
शिरो निधानाद्यैः सफलयति सेंद्रोभ्रगगजः ॥४०॥ इंद्राण्या भद्रासनादुद्धृत्य समर्थमाणां प्रतिमां जय जयेति वदन् प्रणतिशिराः करकमलाभ्यां । गृहीत्वा सर्वसंघसमन्वित इमानि वृत्तानि पठन्नुत्तरवेदी नीत्वा जन्माभिषेकोत्सवाय स्नपनपीठे निवेशयेत् ।
यः श्रीमदैरावणवाहनेन निवेशितोके विधृतातपत्रः ।
ईशानशक्रेण सनत्कुमारमाहेंद्रसञ्चामरवीज्यमानः ॥४१॥ इत्यादि श्लोक बोलकर इंद्राणी भद्रासनसे प्रतिमाको उठाकर जय जय शब्द करती हुई हैं। मस्तक नवाकर हस्तकमलोंपर रखती हुई सब जनसंघके साथ आगे कहे जानेवाले
॥९२॥ श्लोकोंको पढती हुई उत्तर वेदीपर ले जाकर जन्माभिषेक उत्सव करनेके लिए स्नान करनेके आसनपर रखे ॥४०॥फिर " यः श्री” इत्यादि आठ श्लोकोंको तथा“ओं ह्रीं" इत्यादिको
....0000.00000...
..
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
शच्यादिभिः श्यादिभिरप्युदारं देवीभिरातोज्ज्वलमंगलाभिः । पुरस्सरंतीभिरिवाप्सरोभिरग्रे नटंतीभिरुपास्यमानः ॥ ४२ ॥ शेषैस्तु शऊर्जय जीव नंद प्रसीद श्वश्वत्पतप क्षिपारीन् ।। इत्यादि वागुल्वणितप्रमोहैर्मुहुः प्रमनैरुपहार्यमाणः ॥ ४३ ॥ सुरैः स्फुटास्फोटितगीतनृत्यवादित्रहास्योलुतवालितानि ।। समंगलाशीर्धवलस्तुतीनि स्वैरं सृजद्भिः परिचार्यमाणा ॥ ४४ ॥ अहो प्रभावस्तपसा सुदूरमपि वजित्वा प्रतिमास्वपीक्ष्यः । यः सैष साक्षाद्धृवमीक्षितोहनभेद्यनादिः स्वयमात्मबंधः ॥ ४५ ॥ सविस्मयानंदमिति ब्रुवाणैरालोक्यमानोभिमुखागतैः खे । देवर्षिभिः स्पर्धितदेवयुग्मं नभोगयुग्मैरपि सेव्यमानः ॥ ४६॥ प्रदाक्षिणाध्वव्रजनेन नीत्वा पूर्वोत्तरस्यां दिशि मेरुशृंगम् । निवेश्य तत्रत्यशिलोद्यपीठे क्षीरोदनीरैः स्नपितः सुरेन्द्रः ॥ ४७॥ तं देवदेवं जिनमद्य जातं शय्यास्थितं लोकपितामहत्वम् ।
इमं निवेश्योत्तरवेदिपीठे माग्वक्रमस्मिन् विधिनाभिषिचे ॥४८॥ बोलकर पांडुकशिलाके ऊपर सिंहासनपर विराजमान करे ॥ ४१।४।४२४४४५४६४७७ ४८ ॥ उसके वाद आकर शुद्धिके अभिषेक स्वरूप जन्मभिषेकको दिखलाते हैं । “ रत्न"
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
॥१३॥llo
ओं ह्रीं अर्ह श्रीधर्मतीर्थाधिनाथ भगवानिह पांडुकशिलापीठे तिष्ठ तिष्ठेति स्वाहा । उत्तरवे-माष्टी. दिकास्नपनपीठे प्रतिमानिवेशनमंत्रः । अथातः आकरशुद्ध्यमिषेकरूपेण जन्माभिषेकमनुक्रमिष्यामः। He
रत्नस्वर्णमयोत्तरीयरसनासंव्यानमौलिप्रभै-- मेरु ति वनैः सहस्ररहितं यो योजनान्युच्छ्रितः । लक्षं सोयमियं च पांडुकशिला दीर्घा शतं स्फाटिकी साष्टौ चार्धशतं तात्र सुरभिः श्रेष्टार्द्धचंद्राकृतिः ॥ ४९ ॥ सोत्रायं पृथुमंडपोधुपकृतो देव्योर्घहस्ता इमास्तास्तान्याप्सरसाममूनि नटितान्यास्येतता योजनम् । निम्नाश्चाष्ट सुरैः पयोर्णवजलै त्वार्णमाणा इमे
ते कुंभाः स जिनोऽयमस्मि स हरिस्तत्काप्यहो संभृतिः॥५०॥ अभिषेकप्रकरणसज्नीकरणाय समंतात्पुष्पाक्षतं विकिरेत् । प्रस्तावना। ओं ऋषभादीदव्यदेहाय सद्योजाताय महाप्रज्ञाय अनंतचतुष्टयाय परमसुखप्रतिष्ठिताय निर्मलाय स्वयंभुवे अजरामरपदप्राप्ताय चतुर्मुखपरमेष्टिने अर्हते त्रैलोक्यनाथाय त्रैलोक्यपूज्याय अष्टदिव्यनागप्रपूजिताय देवाधिदे-16 इत्यादि दो श्लोक कहकर अभिषेक आरंभकी तयारी करनेके लिये चारों तरफ पुष्प अक्षत वखरे ॥४९।५० ॥ “ओं ऋषभा" इत्यादि " स्वाहा" तक मंत्र वोलकर प्रतिमाके अंग
1.In
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
10
खन्छन् लन्डन्न्
वार्य परमार्थसन्निहितोस्मि स्वाहा । अनेन प्रतिमाया अंगप्रत्यंगानि परमामृशन् सप्तवारानभिमंत्र्य सकली कुर्यात् । ततो दशापि लोकपालानावाहनादिविधिनोपचरेत् । तथाहि ।
इंद्रा मिश्राद्धदेवा शरपतिवरुणाधाररै देशनाग्रे धिष्णोशा दिक्षु वेद्या ? ॥५१॥ इंद्रादिदिक्पालानामावाहनादिपुरस्सराध्यषणाय समस्तहव्यद्रव्यं जुहोमीति स्वाहा ।
___ अथ पृथगिष्टिः। |दिगीशाः शब्दये युष्मानायात सपरिच्छदाः। अत्रोपविशतैतान्वो यजे प्रत्येकमादरात्॥५२॥
दिक्षु पुष्पाक्षतं क्षिपेत् । अत्र रूप्याद्रिस्पीत्यादि वृत्ताष्टकं प्रागुक्तमेव वक्ष्यमाणमंत्रोपेतं प्रयुजीत । तथाहि ।
कन्कन्द
उपांगोंको छकर सातवार मंत्रितकर सकलीकरण क्रिया करे। उसके बाद दश लोकपालोंका आवाहन आदि विधिसे सत्कार करे । वह इस तरहसे है-" इंद्रा" इत्यादि तथा “इंद्रादि बोलकर हवन करनेकी सामग्रीसे अवाहनादि पूर्वक इंद्रादिका सत्कार करे ॥ ५१ ॥ अब वेदीपूजा कहते हैं। “ दिगीशा " इत्यादि श्लोक बोलकर विशाओंमें पुष्प अक्षत|४| क्षेपण करे ॥ ५२ ॥ यहांपर " रूप्याद्रि” इत्यादि पहले कहे हुए आठ श्लोकोंका मंत्री पूर्वक प्रयोग करे । वह इस प्रकार है । “रूप्याद्रि " इत्यादि तथा “ हे इंद्र " इत्यादि
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
७-
TO
TO?
माधी
रूप्याद्रि................................ ॥ ५३ ।। हे इंद्र आगच्छागच्छ इंद्राय स्वाहा, इंद्रपरिजनाय स्वाहा, इंद्रानुचराय स्वाहा, अग्नये -
अ०५ स्वाहा, अनिलाय स्वाहा, वरुणाय स्वाहा, सौमाय स्वाहा, प्रजापतये स्वाहा ओं स्वाहा भूः स्वाहा स्वः स्वाहा, ओं इंद्राय स्वगणपरिवृताय इदमय पाद्यं गंधं पुष्पं दीपं धूपं चरुं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतामिति स्वाहा।
रुक्मारु.................................... ॥ ५४॥ हे अग्ने आगच्छगच्छ अग्नये स्वाहा.............. ।
........... ॥५५॥ हे यम आगच्छागच्छ यमाय स्वाहा................ । आरूढं..
............॥५६॥ हे नैऋत्य आगच्छागच्छ नैऋत्या स्वाहा........... । मंत्र बोलकर इंद्रको जल आदि अष्ट द्रव्य चढावे ॥ ५३॥ “रुक्मारु " इत्यादि तथा “ हे अग्ने” इत्यादि बोलकर अग्निकुमारदेवोंको जल आदि द्रव्य चढावे ॥ ५४॥ “ कल्पांता " इत्यादि तथा " हे यम" इत्यादि बोलकर यमदेवको जल आदि चढावे॥५५॥ “आरूढं" । इत्यादि तथा “हे नैर्ऋत्य " इत्यादि बोलकर नैर्ऋत्य दिक्पालको अर्घ चढावे ॥ ५६ ॥
कल्पांताः ............
७कन्छन्
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
नित्यांभ...................................॥५७॥ हे वरुण आगच्छागच्छ वरुणाय स्वाहा................ । वल्गच्छ ................................... ॥५८॥ हे पवन आगच्छागच्छा पवनाय स्वाहा............... । इंसोघे................................... ॥ ५९॥ हे धनदागच्छागच्छ धनदाय स्वाहा................... । साश्नावा.............................. ॥६ ॥ हे ईशान आगच्छागच्छ ईशानाय स्वाहा............ । वक्षौजस्तर्जिपृष्टश्वसनसमतरः कूर्मराजाधिरूढं
क्षुद्रछीवेभकुंभाक्रमणचणसृणिस्फारणव्यग्रपाणिम् । नित्यांभ" इत्यादि श्लोक तथा "हे वरुण " बोलकर वरुणको जल आदि द्रव्य । चढावे ॥ ५७ ॥ " वल्गच्छं" इत्यादि तथा “ हे पवन" इत्यादि बोलकर पवन कुमारको जल आदि द्रव्य चढावे ॥ ५८ ॥ “ हंसौघे" इत्यादि तथा “ हे धनद" इत्यादि बोलकर || कुवेरको अर्घ चढावे ॥ ५९ ॥ “सास्त्रावा" इत्यादि तथा " हे ईशान " इत्यादि बोलकर | ईशानको जलआदि आठ द्रव्य चढावे ॥६० ॥ " वक्षौज" इत्यादि तथा “ हे धरणेंद्र "
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०स०
भान्टी०
.
५॥
अ०४
संश्लिष्टं हक्सहस्रावितव्यघृणिफणारत्नरुक्तृप्तवाल
अनौद्यापीडमईच्छ्रितमहि यमधौमि पनासमेतम् ॥ ६१॥ हे धरणेंद्र आगच्छागच्छ धरणेद्राय स्वाहा........................ ।
वैरिस्तंवेरमास्रोल्लसदरुणसटाटोपशुभ्रांगभीकृ-- द्वालेंदुस्पर्द्धिदंष्टोत्क्रमखरनखरारक्तहक सिंहसंस्थम् । कुंतास्त्रं रोहिणीष्टं कुवलयसुमनः स्रक श्रितां शंभयुक्तं
ज्योत्स्ना पीयूषवर्ष यज यजनपरं सोममधैं महामि ॥ ६२ ॥ हे सोम आगच्छागच्छ सोमाय स्वाहा.................................... । एवं सत्कृत्य दिक्पालानेभ्यो मंत्रैः पुनर्ददे । अकुंडे सप्तशः सप्तधान्यमुष्टिभिराहुतिः ॥६३॥
ओं क्रौं इंद्राय स्वाहा । अनेन जलपूर्णकुंडे सप्तमे सप्तधान्यमुष्टिमिरिंद्राहुतिं दद्यात् ।। इत्यादि बोलकर धरणेद्रको अर्घ चढावे ॥६१ ॥ “ वैरिस्तं " इत्यादि तथा “ हे सोम II इत्यादि बोलकर सोम दिक्पालको जलआदि अष्ट द्रव्य चढावे ॥ ६२ ॥ “ एवं " इत्यादि। तथा “ ओं आं" इत्यादि बोलकर
" इत्यादि बोलकर जलसे भरे हुए कुंडमें सातवार सात धान्योंकी मुठी ॥९५॥ भरकर आहूतियां दे ॥ ६३॥ इसीतरह अग्नि आदिके कुंडमेंभी जानना। उसके बाद फिर हा
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
लन्डन्न्लन्कन्छन्
एवमग्न्यादिभ्योपि । अथ पुनस्तामेव प्रतिमां जिनमंत्रेण सप्तवारानभिमंत्र्याकरशुद्धिं विदध्यात् । जिन-2 मंत्रो यथा । ओं अर्हद्भयो नमः, पादानुसारिभ्यो नमः, कोष्ठबुद्धिभ्यो नमः, बीजबुद्धिभ्यो नमः । सावधानिभ्यो नमः,परमावधिभ्यो नमः, ओं ह्रौं वल्गु २ निवल्गु २ महाश्रवण । ओं ऋषभादिव|र्धमानेभ्यो वषट् वौषट् स्वाहा ॥ अथाभिषेकः ।
पूरं पूरमयस्तटावधिपयः सिंघोपसत्यामरैईस्ताहस्तिकयार्पितैगेललुलन्मुक्ताफलस्रग्भरैः । श्रीखंडवचर्चितैः परिदिनश्रीकर्मणा भर्मणात् कृष्णैः साष्टसहस्रमानकलितैः कुभैः सिताब्जाननैः ॥ ६४ ॥ आतोयध्वनिगीतमंगलरवैः सहर्षहर्षाता देवानां नटदप्सरोगणवपुः श्रीभिश्च कीर्णेवरे । पार्श्वेन्द्रासनभास पांडुकशिलासिंहासने प्राङ्मुखं
सौधर्मप्रमुखा निवेश्य जिनपं जन्मन्यसिंचत् किल ॥ ६५॥ उसी प्रतिमाको जिनमंत्रसे सातवार मंत्रित करके आकरशुद्धि करे। वह जिनमंत्र “ओं ? अर्ह " यहांसे लेकर " स्वाहा" तक है । अब अभिषेक वर्णन करते हैं । " पूरं " इत्यादि तीन श्लोक पढकर कलशोंपर पुष्प अक्षत और नलको क्षेपण करे ॥६४।६५६६ ॥ “गोवृl"
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रसा०
धूलीपल्लवमंगलौषधिफलत्वग्मूलसर्वोषधी
भाटी संपृक्ताखिलतीर्थवारिसुभृतैमैत्रातिपूतैः कुटैः ।
अ०४ अष्टाभिः स्वपदे स्थितं स्थिर मुदा वेद्यांचलं चारु तद् विंबं चाकरशुद्धिसेचनमिदं तज्जातकर्मार्पये ॥ ६६ ॥ एतत्रयं पठित्वा कलशेषु पुष्पाक्षतोदकं क्षिपेत् । गोठंदशृंगतो गजपतेर्दतान्महातीर्थतः शैलेंद्रा नृपतोरणादुरुसरित्तीराच्च पद्माकरात् । आनीताभिरुपस्कृतेन शुचिभिर्मुद्भिः सुतीर्थाभसा
पूर्णेन स्नपयामि हेमकलशेनाा जिनाचा मुदा ॥ ६७ ॥ शिल्प्यादीन् संमान्य सूत्रधारेण धूलीकलशाभिषेकः । कुल्याभिषेकः ।
कुल्याभिः शुचिभिः सतोः स्वसुरपो पित्रोश्च पत्यात्मजैः
संयुक्ताभिरशल्पिकाभिरनिशं सक्ताभिरहन्मते । इत्यादि बोलकर कारीगर आदिका सत्कार करके शुद्धवालू आदिसे अभिषेक करे ॥ ६७ ॥४॥ " कुल्यामिः " इत्यादि बोलकर उत्तम कुलकी स्त्रियोंसे प्रोक्षण (जलसे अभिषेक) करावे ॥१६॥ ॥६८॥ इन्हीं स्त्रियोंसे प्रतिष्ठा योग्य उवटना करावे । वेल, ऊमर, चंपा, आम, वकुल,
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३
सिद्धार्थाक्षतसत्फलोद्गमनिशा दूर्वादिमैत्रीधुघा
कांडमुखोद्धृतेन जिन संप्रोक्षयामि श्रियै ॥ ६८ ॥ प्रोक्षणकप्रणयनम् । एताभिरेव च स्त्रीभिः प्रतिष्ठायोग्यमूलादिवर्तनं कारयेत् । बिल्वोदुंबर चंपकास्त्र बकुलन्यग्रोधनीषार्जुनपृक्षाशोक पलाशपिप्पलदलमच्छादितश्रीमुखैः । पुण्या शोष्य सरितडाग सरसी पूर्वोरुतीर्थंबुभिः पूर्णै: पूर्णमनोरथैरिव कुटैः कुर्वे निषेकं विभोः ।। ६९ । ओं णमो अरहंताणं सव्वसरीरावच्छिदे महाभूप आय ३ गिव्ह ३ स्वाहा । एष मंत्र उत्तरत्रापि योज्यः । द्वादशपलवाभिषेकः ।
दूर्वापद्मकदनागुरुयवश्रीखंड बर्हिस्तिलै—
द्यावर्तकजातिकुंदकुसुमैः स्वर्णार्जुनव्रीहिभिः । भूम्य प्राप्त पवित्र गोमयनदीकूलोद्यमृद्रोचना
सिद्धार्थैश्व समं भृतैः सुपयसा कुंभैः प्रभुं स्नापये ॥ ७० ॥
वड़, कदंब, अर्जुन, पाकर, अशोक, ढाक, पीपल इन बारह वृक्षोंके पत्तोंसे ढके हुए जलके कलशोंसे " ओं णमो ” इत्यादि मंत्र बोलकर अभिषेक करे ॥ ६९ ॥ यह द्वादश पल्लवका
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा० अष्टादशमंगलद्रव्याभिषेकः ।
भान्टी० श्यामाशमींदीवरभंगविष्णुक्रांतागुडूची सह देविकाभिः । ॥९ ॥
अ०४ मित्रैः पवित्रैः सलिलैः संपूर्णैरौप्यैर्जिना! स्नपयामि कुंभैः ॥ ७१ ।। सप्तौषधस्नपनम् ।
लवंगभल्लातकबिल्वजातीफलाम्रकमामलवारिपूर्णैः ।
शुभैर्घटैरिष्टफलाप्तिहेतोः संस्नापये स्नातकनाथविंबम् ॥ ७२ ॥ फलपंचकस्नपनम् ।
उदुम्बराश्वत्थशमीपलाशन्यग्रोधकल्कव्यतिकीर्णमर्णः ।
तैर्थे वहद्भिः कलशैवलर्भक्त्याभिषिचामि जिनेंद्रमूर्तिम् ॥ ७३ ॥ अभिषेक हुआ। “ दूर्वा " आदि बोलकर दूव आदि अठारह मंगलीक वस्तुओंसे मिले हुए जलके घड़ोंसे अभिषेक करे ॥ ७० ॥ यह मंगल द्रव्याभिषेक हुआ। “ श्यामा ” इत्यादि बोलकर उसमें कथित श्यामा आदि सात वनस्पतियोंसे मिले हुए जलपूर्णकलशोंसे अभिषेक । करे ॥ ७१ ॥ “ लवंग" इत्यादि बोलकर उसमें कहे हुए लवंग, भल्लातक, वेल, जायफल,
इन पांच उत्तम फलोंसे मिश्रित निर्मल जलसे भरे हए घडोंसे प्रतिमाका अभिषेक IS करे ॥ ७२ ॥ यह फलपंचक स्नपन हुआ ॥ “ उदुंबरा " इत्यादि बोलकर उसमें कथित
॥९७॥
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
पिंचकस्नपनम् ।
व्याघ्री गुडूची सहदेव सिंही वरी कुमारी शतमूलिकानाम् । मूलैर्बलायाश्च युतेन सर्वैः कुंभांभसाहं स्नपये जिनार्चाम् ॥ ७४ ॥ दिव्यौषधिमूलाष्टकस्नपनम् ।
कल्कूलैला जातिपत्रलवंग श्री खंडोग्रा कुष्ठसिद्धार्थमय्या | सर्वौषध्यावासितैस्तर्थितौयैः कुंभोद्गीर्णैः स्नापयाम्यर्हदर्चाम् ॥ ७५ ॥ सर्वौषधिस्नपनम् । एवं जन्मामिषेकस्थानीयमाकरशुद्ध्याभिषेकं विधायानेन मंत्रेण जिनार्चामधिवासयेत् । ओं णमा भयवदो वढमाणस्स रिस्सहस्स जस्स चक्कुजलंतं गच्छत् आयासं पायालं लोयाणं भूयाणं जूए वा विवादे वा रणांगणे वा गयंगणे वा थंभणे वा मोहणे वा सव्वजीवसत्ताणं अपराजिदो भवदु मे रक्ख रक्ख रक्ख स्वाहा । श्रीवर्धमानमंत्रः ।
ऊमर, पीपल, शमी, ढाक, वड़-इन पांचोंकी छालसे मिश्रित जलसे पूर्ण कलशोंसे स्नपन करे ॥ ७३ ॥ “ व्याघ्री ” इत्यादि बोलकर उसमें कथित व्याघ्री ( एरंड ) गिलोइ, आदि आठ उत्तम औषधियोंके मूलसे मिश्रित जलसे पूर्ण कलशोंसे अभिषेक करे ॥ ७४ ॥ " कल्कूलै " इत्यादि बोलकर उसमें कही गई औषधियोंसे मिश्रित जलसे पूर्ण कलशोंसे
2000ra
50000
DODOD
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
म० सा०
: ९८ ॥
यस्यान्माल्य निसर्गजे श्रवणयोर्वज्रेण रंध्रे हरिः शच्यासेचनकं वपुत्रिजगतां भक्त्याभिसंस्कारयेत् । त्रैवयज्ज्वलसूत्रदृब्धयवमत्सिद्धार्थरत्नश्रिय-
चर्चा चारुभुजेस्य भूषणमयं बध्नंतु ताः कंकणम् ॥ ७६ ॥ इंद्रकरहीरककृतकर्णवेधाद नंतरं प्रोक्षणकाधिकृतनारीभिर्जात्यकुंकुमश्रीखंडागरुकर्पूरचचनपूर्वकं दक्षिणभुजे षोडशाभरणात्मककंकणविधानम् ।
गृह्णति यस्य समयामृतधौतचित्ता नामानि कोटिमृषयः कलुषक्षयाय । मेरौ महेंद्र इव संव्यवहारहेतास्तं व्याहरेहमिह यष्टमतेन नाम्ना ।। ७७ ।। अभिषेक करे । यह सर्वोषधिस्नपन विधि हुई ॥ ७५ ॥ इसीप्रकार जन्माभिषेक के स्थानरूप आकार शुद्धिका भी अभिषेक करके आगे कहे जानेवाले मंत्रसे जिन प्रतिमाका संस्कार करे ॥ " ओं णमो " इत्यादि “ स्वाहा " तक श्रीवर्धमानमंत्र है । " यस्यो ” इत्यादि बोलकर कर्णवेध करके स्त्रियोंसे केशर चंदन अगुरु कपूरकर लेप किये गये सोलह आभूषणोंके साध दाहिनी भुजाकी तरफ कंकण बांधे ॥ ७६ ॥ “ गृह्णति " इत्यादि बोलकर प्रभुका नाम रखनेके लिये कुंकुसे रंगे हुए पुष्प अक्षतोंको प्रतिमाके ऊपर क्षेपण करे ॥७७॥
भा०टी०
अ० ४
॥ ९८ ॥
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
नामकरणार्थ कुंकुमाक्तपुष्पाक्षतं प्रतिमोपरि क्षिपेत् । अथानंदस्तवः । जय देव प्रासद्धेन स्वनाम्ना गांपुनीहि मे । जय शुद्ध नय स्वांत स्वभक्त्या मेऽनुरंजय ७८ जय दिव्यांगगात्राणि स्वनत्या मे कृतार्थय । जय तेजोनिधे स्वामिन नेत्राब्जे मे विनिद्रय ७९ यद्दर्शनविशुद्धयादिभावना दैवतं विभो । तपस्तप्त्वा जगज्ज्योतिस्तज्ज्योतिस्ते तनिष्यति८० यात्वयज्ञा हतैः पुण्यैस्तद्रागद्वारसंगतैः । त्वयि प्रयुज्यते कोपालक्ष्मीस्तान्येव इंति सा॥८॥ सा चेयं च विभूतिस्ते कापीश जगतां दृशः। लब्धा विशुद्धया तदृद्धया स्वस्याहान्वयशुद्धताम्।। भुंजानोभ्युदयं चाहन् जनैर्भोगीव लक्ष्यते । बुधैर्योगीव तत्त्वं तु जानाति त्वाहगेव ते॥८३॥ नमस्तेऽचिंत्यचरित नमस्ते त्रिजगद्गुरो । नमस्ते त्रिजगन्नाथ नमस्तेत्यंतनिस्पृह ॥ ८४ ॥ नमस्ते केवलज्ञान नमस्ते केवलेक्षण । नमस्ते परमानंद नमस्तेऽनंतविक्रम ॥ ८५॥ एवमानंदतः स्तुत्वा शक्रः पूर्ववदादरात् । जन्माभिषेककल्याणक्रियां कृत्वा स्फुटं नटेत् ॥८६॥६
लन्छन्
उसके वाद आनंदस्तुतिका पाठ "जय देव” इत्यादिसे लेकर पचासीवें श्लोकतक पढे ॥७॥ |७९।८०1८११८२२८३।८४८५॥ इसप्रकार वह इंद्र आनंदसे भाक्तिपूर्वक स्तुतिकरके और जन्माभिषेक कल्याणकी क्रिया करके अच्छीतरह तांडवनृत्य करे ॥ ८६ ॥ यह जन्माभिषेककी
न्छन्
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
इति जन्माभिषेकविधानम् ।
मा०टी० अथोद्धृत्य निजस्कंधे तामहमतिमा मुदा । आरोप्य व्यंजयन्निंद्रस्तमैंनें परमोत्सवम् ।।८७॥ संघेन महता युक्तः प्राप्य तां मूळवेदिकाम् । त्रिःपरीत्य पठन्मंत्रमिमं न्यस्येत्तदासने ॥४८॥||४||
ओं “ एतद्राजांगणं तत्सुरकृतसुषमं सिंहपीठं तदेतत् देवोयं जातकर्मोद्यत इयममरीसेव्यमाना प्रबोध्य । देवी साचोपनीता प्रमदवरवशा सेवमानास्तथैते
देवाः सर्वेर्हतीमं परिकरमयमेवेत्यमुं स्थापयेऽस्मिन् ।। ८९ ॥ ओं नमोर्हते केवलिने परमयोगिने अनंतविशुद्धपरिणामपरिस्फुरच्छुक्लध्यानाग्निनिर्दग्धकर्मबीजाय प्राप्तानंतचतुष्टयाय सौम्याय शांताय मंगलाय वरदाय अष्टादशदोषरहिताय स्वाहा । मूलवेदीमध्यस्थापितभद्रासने प्रतिमानिवेशनमंत्रः । अथ जिनमातृस्नपनम् । विधि हुई। उसके बाद इंद्र उस अर्हत्प्रभुकी प्रतिमाको हर्षके साथ अपने कंधेपर रख परम ? उत्सवको दिखाता हुआ बहुत साधर्मियों सहित उस मूलवेदीमें लेजाकर तीन परिक्रमा देके । इस आगे कहे जानेवाले मंत्रको पढता हुआ उस सिंहासन पर विराजमान करे ॥८॥८॥ वह मंत्र “ओं पतद्रा" इत्यादि श्लोकसे लेकर स्वाहा तक है । इससे मूलवेदीके भद्रासनपर
॥
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
अंब प्रसीद दृशमेषु चतुर्निकायगीर्वाणभर्तण निधेहि सनम्रवत्सु। एतास्वपींद्रदयितासु ललाटघृष्टपादाग्रभूषु मुदमुल्बणयस्मितेन ॥९॥ नित्यश्रियेभ्युदयदुर्मदिनां त्वयीशे त्वज्योतिरेतदपि नः परमक्तवत्याम् । कर्मस्विहाभ्युदयिकेषु मतेति कोद्य पाच्याशयोस्तमयपाक्युदयार्कसूतेः॥११॥ मनाः निमज्जति जगत्यमूनि मंक्ष्यंति वा मोहार्णवे कः।। इहोपगृाह्नति भवादृशीक् सर्वज्ञबीजं यदि न प्रसूते ॥ ९२ ॥ त्वं कल्याणी त्रिभुवनजनन्येकसूरय्यास त्वं । कीर्तिर्योत्स्ना किरयति सदा क्षालयंती जगत्ते । स्त्रीसोंग्रे गणयति शिवांगेष्वपि स्वं त्वमेव त्वत्पूताः स्मो नियतमधुना विश्वमान्ये नमस्ते ॥ ९३ ॥
पीठिकायां कुंकुमाक्तकुसुमानि क्षिप्त्वा प्रणमेत् । जिनदेवीं जिनाभ्यां स्तुत्वा दिव्यांवरादिभिः। प्रसाद्यानंदनाटयेन स्वयं चाराध्य तं पुनः९४|| प्रतिमाको रखा जाता है ॥ ८९ ॥ अब जिनमाताके अभिषेककी विधि कहते हैं- “अब प्रसीद " इत्यादिसे लेकर तिरानवै तक श्लोक बोलकर वेदीमें कुंकुमसे मिले हुए फूलोंको डालकर प्रणाम करे ॥९०।९११९२१९३॥ उसके वाद जिनदेवीको उत्तम वस्त्रादिसे पूज तथा
-
-
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०साल
॥१००॥
1
रक्षायां तस्य दिशाथान देवताः परिकर्मणि । भोगसंपादने श्रीदं क्रीडने शक्रपुत्रकान् ९५ अंगुष्ठे चामृतं स्तन्यलौल्यच्छेदाय वासवः । यद्वदस्थापयत्तद्वदर्चायां स्थापयाम्यहम् ॥ ९६ ॥ दिव्यवस्त्रगंधभूषणस्त्रस्तिकशाल्यभक्षीरान्नविचित्र-भक्षपक्वान्न दुग्धदधिघृतशर्करा चारुपुष्पफलपत्रदीपधूपादि भोज्यवस्तुजातं कांचनभाजने विरचय्य शिलायां निवेशयेत् ।
सिद्धयुद्धाह महोत्सुकोपि तदलंकर्माणकालाप्तये निर्ग्रथं परपर्वनृत्यविधिना धर्मेण शासद्धराम् ।
यः सम्राडिति लक्ष्यते त्रिजगतीनाथोसतीवेश्वरं
यो भक्तेति कुमार एव च भजन् भोगान्न्यसाम्यत्र तम् ॥ ९७ ॥
स्तुतिकर प्रभुकी रक्षाके लिये दिक्पालोंको, देवताओंको सेवाके लिये, भोगादि सामग्रीकेलिये कुवेरको, खेलने केलिये इंद्रपुत्रोंको, दूध पीनेकी लालसाको दूर करनेकेलिये अंगूठेमें अमृतको जैसे पहले इंद्रने प्रभुके पास रखा था उसी तरह मैं भी इस प्रभुकी प्रतिमाके सामने स्थापित करता हूं ॥ ९४ ९५ ९६ ॥ ऐसा कहकर उत्तम वस्त्र सुगंधित पदार्थ आभूषण (गहने) सातिया खीर अनेक पक्वान्न दूध दही घी मिश्री उत्तम फूल फल पत्ते दीप धूप आदि भोगोंकी सामग्री सोंनेके पात्रमें रखकर शिलापर रखे । “ सिद्ध्यु " इत्यादि बोलकर पुण्यके उदयसे प्राप्त राज्य संपदा आदि उपभोगोंकी स्थापना करनेके
भा०टी०
अ० ४
॥१००॥
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
पुण्यविपाकसंपादितसौराज्यसंपदुपभोगस्थापनाय कुंकुमारुणितपुष्पाणि प्रतिमोपरि विकिरेत् ।
एवं वैषयिकैः सुखैः सुरनराधीशामपि पार्थितैः शश्वत्तीतमनाः सुराधिपतृपैः राज्ञार्थिभिः सेवितः । कालैकक्षपणीयमोहमहिमाव्याधृतिसंसूचक
प्रेक्षातंकिततीर्थकृच्छिवरतोप्यास्ते द्वितीयाश्रमे ॥ ९८॥ देवोपनीतभोगोपभोगानुभवनाय प्रतिमोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् । इति जन्मकल्याणस्थापना ॥ २॥ अथ निष्क्रमणकल्याणं ।
प्राप्ते सामज्वरवदणुता वृत्तमोहे विवेक-- ज्योतिष्युद्यत्यथ किमपि तत्कारणं वीक्ष्य मंक्षु । निर्विष्णोर्हत्समरससुधास्वादनौकः सहैत्य
प्रीत्यानत्य सततदुपर्धानम्यनंदत्सुरींन ॥ ९९ ॥ लिये केशरसे रंगे हुए पुष्पोंको प्रतिमाके ऊपर वखेरै ॥ ९७॥ “ एवं " इत्यादि श्लोक
बोलकर देवोंसे लाये गये भोग उपभोगोंका अनुभव दिखानेके लिये प्रतिमाके ऊपर पुष्पोंको शाक्षेपण करे ॥ ९८॥ इस प्रकार जन्मकल्याणकी स्थापना हुई ॥ (२)॥अब तपकल्याणकका वर्णन करते हैं । " प्राप्ते " इत्यादि श्लोक बोलकर शमसुखके एक स्वादी होनेकी स्थापनाके
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
५० सा०
॥१०१॥
20
प्रशमसुखैकर सिकत्वस्थापनार्थे जिनोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
विजयस्व जिनाधीश स्वयंभूरद्य खल्वसि । वक्ति स्वायंभुवं ज्योतिः शिवप्रस्थानमेव नः१०० दुग्धां कामामयं चित्तं सुद्रव्यादिचतुष्टयी । एनामेवेयमन्येतु सुष्टुत्साहोयमेधताम् ।। १०१ ॥ कुंभतां तत्परं ज्योतिः प्रीयंतां प्राणिनोऽखिलाः । भव्यात्मानः प्रबुध्यतां छिद्यतां कर्मशृंखलाः निर्मलोन्मुद्रितानंतशक्तिचेतयितृत्वतः । ज्ञानं निःसीमशर्मात्मन् बिंदन प्रतपत्पदे ॥ १०३ ॥ इमं विधिं नियोगेन साधर्मप्रणयेन वा । वाचाल्येमहि कृत्ये तु त्वादृशो जाग्रयुः स्वयम् १०४ इति स्तुतो शिवोद्योगं लौकांतिकसुरैः सुरैः । कृतनिःक्रमकल्याणं स्थापयाम्यत्र तं प्रभुम् १०५ निःक्रमणकल्याणोपक्रमस्थापनाय चंदनालुलितपुष्पाक्षतं प्रतिमोपरि क्षिपेत् ।
न्यग्रोधो मदगंध सर्जमुशनश्यामे शिरीषोईता - मेते ते किल नागसर्जजटिनः श्रीतिंदुकः पाटलः । जंब्बश्वत्थकपित्थनंदक विठाम्रावंजुलश्चंपको
जीयासु बकुलोत्र वांशिकंधव शालश्च दीक्षाद्रुमाः ॥ १०६ ॥
लिये भगवानके ऊपर पुष्पोंकी अंजलि क्षेपण करे । ९९ ॥ उसके वाद प्रभुके वैराग्य होनेके समय लौकांतिक देवोंकर “ विजयस्व " इत्यादि छह श्लोकोंसे स्तुति करना । १०० । १०१ | १०२ १०३।१०४ । १०५ ॥ फिर तपकल्याणका आरंभ स्थापन करनेके लिये चंदनसे मिश्रित
CGOODCC00000000
मा०दी ●
अ० ४
॥१०१॥
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
22
ओं णमो अरहंताणं निनदीक्षावनवृक्षा अत्रावतरंत्विति स्वाहा । जिनदीक्षावनवृक्षस्थापनाय मूलवेद्या प्रत्यग्निवेशिताया: प्रतिष्ठेयमहाप्रतिमायाः पुरस्तात्पुष्पाणि प्रकिरेत् । कल्पांतार्णववीचिविभ्रमनिपानाक्रांतदिकं प्रभुः शत्रैरेत्य कृता स्तवादिकावधिः स्वं वर्गमापृच्छयमां । त्यक्ता भूपखगामरोढशिविकामारुह्य गत्वा वनं पर्यकस्य उदग्मुखो नतशिवो वा प्राङ्मुखः प्रव्रजेत् ॥ १०७ ॥ सोयं मुक्तिपुरीं प्रयान् विजयतां स्तादस्य पंथाः शिवो नद्यादस्य मनो विशुद्धिरैनिशं सैद्धा गुणाः पत्वमुम् । क्रोधादिप्रतिरोधिनोस्य सुतपःशस्त्रैः पतंतु क्षताः संतश्चैनमनारतं परिचरत्वेतत्पदं प्रेप्सवः ॥ १०८ ॥
पुष्प अक्षतोंको प्रतिमाके ऊपर क्षेपण करे । “ न्यग्रोधो " इत्यादि तथा " ओं णमो | इत्यादि बोलकर भगवानके बड़ सप्तपर्ण आदि दीक्षावनवृक्ष स्थापन करनेकेलिये मूलवे|दीके पश्चिमकी तरफ स्थापित प्रतिष्ठेय महाप्रतिमाके आगे पुष्पोंको क्षेपण करे ॥ १०६ ॥
66
"
कल्पांता ” इत्यादि श्लोक बोलकर मूलवेदक सिंहासनसे प्रतिमाको उठाकर उत्तम पालकी में बैठाकर महान उच्छवके साथ लेजाकर पहले स्थापनकिये गये दीक्षावन वृक्षके
904000
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
प.सा एतत्पठन् मूलवेदीपीठात् प्रतिमामुत्क्षिप्य दिव्यशिविकामारोप्य महोत्सवेन नीत्वा पूर्वस्थापितदीक्षाव- माजी POIIIनवृक्षतले निवेशयन्निमं मंत्रं पठेत् । ओं नमो सिद्धाणं भगवान् स्वयंभू रत्न सुनिविष्टो भवत्विति स्वा
०४ हा । अनेनैव मंत्रेण शेषप्रतिमास्वपि निष्क्रमणकल्याणस्थापनाय पुष्पाणि क्षिपेत् ।
स्वस्त्यस्मै वनशाखिने दृषदियं स्ताच्चांद्रकांती मुदे । ये दीक्षांगमिनो व्यधान्नम इमान् राज्ञः समं दीक्षितान् । शक्रः सतस्वधियोधिरत्नपटलौ प्रत्यग्रहीत्तत्कचांस्तीर्थेषु प्रतपत्वलं तदुपदा दृप्तोणेवः पंचमः॥ १०९ ॥ ममेदमहमस्येति मतिं भित्वाहतोज्झिताः । पुनंतु विश्वस्रग्वस्त्रभूषाः संपूजिताः सुरैः ॥ ११० ॥
ओं नमो भगवतेर्हते सद्यः सामायिकप्रपन्नाय कंकणमपनयामीति स्वाहा । कंकणमपनीय दीक्षादिस्थापनाय प्रतिमादिषु पुष्पाणि क्षिपेत् । वनप्रस्थानप्रव्रज्याग्रहणादिस्थापनं ।। नीचे स्थापन करे और उस समय “ ओं णमो” इत्यादि स्थापनमंत्र वोले ॥१०७४१०८ ॥ इसी मंत्रसे अन्य प्रतिमाओंमें भी तपकल्याण स्थापन करनेकेलिये पुष्पों को क्षेपण करे । “ स्वस्त्यस्मै" इत्यादि दो श्लोक तथा “ओं नमो” इत्यादि बोलकर कंकणादिको उतार
॥१०॥ कर दीक्षास्थापनकेलिये प्रतिमाके ऊपर पुष्पोंको क्षेपण करे । इस तरह वनमें जाना,
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वामीसिद्धप्रमुगुणरतः सर्वसावद्ययोगव्यावृत्तात्मा स्खलितविमुखस्तत्क्षणादुद्गतेन । तप्तं बोधत्रय इव मनःपर्ययेणोपगूढो
व्युत्कृष्टांगः स्वरसविलसद्भावनो देदिवीति ॥ १११ ॥ मतिश्रुतावधिमनःपर्ययाख्यसम्यग्ज्ञानचतुष्टयख्यापनाय चतुर्तिदीपावतारणं विदध्यात् । अद्राः सिद्धचारित्रयोगशातशिभाक्तिभिः। जिननिष्क्रमणकल्याणाक्रियां कुर्युः ससूरयः११२
स्वं विंदन स्वतया परंपरतया तीब्रैस्तपोभिर्भवान् कृष्ट्वा पाकमवाप कष्टव्यनिशं कर्मांशतः शातयन् । आकैवल्यपदाद्ययोत्तरविशुद्धयुद्भिद्यमानात्मवित् सांद्रानंदरसं स्वयं पिवति यः सोयं जगत्रायताम् ॥ ११३ ॥
-
ग्रहण करना, केशलोच करना आदिका स्थापन हआ॥१०९।११०॥" स्वामी | इत्यादि बोलकर मतिश्रुत अवधि मनःपर्यय-इन चार ज्ञानोंको वतलानेके लिये चार वत्तियोंवाला दीपक जलावे ॥ १११ ॥ उसके बाद वे इंद्र सिद्ध चारित्र शांति आदि भक्तिको करके भगवानके तपकल्याणकी क्रियाको करें ॥ ११२॥ " स्वं विदन् " इत्यादि बोलकर
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
पळसा०
११०॥
अ०४
विशिष्टतपोनुष्ठानप्रतिष्ठाथै प्रतिमोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
मान्टी ततो! तां पुर्वेदी नीत्वाताभिः सहजसाध्यानावतारितजिनां योजयेत् तिलकादिना ११४ एष क्रमश्चलार्चानां विस्तरेण प्ररूपितः। स्थिराणांतु यथास्थाने सर्वमेन प्रकल्पयेत्॥११५॥
किंच-गर्भावतारादिविधिः समस्तं स्थानस्थिता चाल्याजनेन्द्रविंबे। संकल्प्य सिंहासनपादपीठमध्येस्य हैमीं निदधे शलाकाम् ॥ ११६ ॥ श्रीपादपीठसिंहपीठयोर्मध्ये सुवर्णशलाकानिवेशनम् । इति निःक्रमणकल्याणस्थापना अथातस्तिलकदानविधानं । तत्रादौ तावकल्याणपंचकरोपणमनुवर्णायष्यामः ।
यद्गर्भावतरे गृहे जनयितुः प्रागेव शक्राज्ञया
षण्मासान्नव चानु रत्नकनकं वित्तेश्वरो वर्षेति । विशेषतपस्या स्थापन करनेकेलिये प्रतिमाके ऊपर पुष्पांजलि क्षेपण करें ॥ ११३॥ उसके । वाद उस प्रतिमाको वेदीपर लेजाकर तिलकादि क्रियासे युक्त करे॥११४॥ यह क्रम चल प्रतिमाओंका विस्तारसे कहा गया है परंतु स्थिर प्रतिमाओंका उसी स्थात पर कल्पना करे ॥ ११५॥ “ गर्भाव " इत्यादि बोलकर भद्रासनोंके मध्यमें सोंनेकी सलाई रखे। यह निष्क्रमण कल्याणकी स्थापना हुई ॥ ११६॥ अब तिलकदानविधि कहते हैं । उसमें||१०३॥ सवसे पहले पांच कल्याणोंका स्थापन कहते हैं। जिस प्रभुके गर्भ में आनेके पहलेही छह है
न्छन्व
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
भत्युर्वी माणगार्भिणी सुरसरित्रीरोक्षिता षोडशस्वनेक्षामुदितां भजति जननीं श्रीदिक्कुमार्योसि सः ॥ ११७ ॥ प्रच्छन्नं जननीमुपास्य शयनादानीय शच्यार्पितं यं तत्वास चतुर्णिकायविबुधः श्रीमत्करींद्रश्रितः । सौधर्मीकनिवेशितं सुरगिरिं नीत्वाभिषिच्यावया संयोज्योपचरत्यजस्रमसमैर्भोगैः स भास्येष नः ॥ ११८ ॥ किं कुर्वाण सुरेंद्ररुद्रविषयानंदाद्विरक्तस्तुतो यो लोकांतिकनाकिभिः शिविकया निःक्रम्य गेहान्महैः । दिव्यैः सिद्धनतीद्वयावनतरुं पूत्वा परादीक्षया
भुंक्त शुद्धनिजात्मसंविदमृतं स त्वं स्फुरस्येष नः ॥ ११९ ॥ महिने तथा आनेके वाद नौ महीने इस तरह पंद्रह महीने इंद्रकी आज्ञासे कुवेरने पिताके | घर रत्न आदिकी वर्षा की तथा सोलह उत्तम स्वमोंके देखनेसे हर्षित जिनमाताकी दिकुमारियां सेवा करती हुई ॥ ११७ ॥ जिसके जन्म कल्याणकमें इंद्राणीने माताको निद्रामें मग्न करके प्रभु वालकको लाकर इंद्रको सौंप दिया, फिर उसे ऐरावत हाथी-? पर विठाके सुमेरु पर ले जाकर इन्द्रादिने अभिषेक किया, उसके बाद राज्यसंपदा । आदि भोगोपभोगकी दिव्य सामग्रीसे शोभायमान हुए ॥११८॥ उसके बाद किसी
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र.सा.
माष्टी०
॥१०४॥
अ०४
सम्यग्दृष्टिकशाकृशव्रतशुभोत्साहेषु तिष्ठन् कचित् धर्मध्यानवलादयत्नगलिताभायुस्त्रयः सप्त यः । दृष्टि प्रप्रकृती समातपचतुर्जातित्रिनिद्रा द्विधा श्वभ्रस्थावरसूक्ष्मतिर्यगुभयोद्योतान् कषायाष्टकम् ॥ १२० ॥ क्लैव्यं स्त्रैणमथादिमेन नवमे हास्यादिषटुं नृतां क्षिप्त्वोदीचि पृथक्क्रुधादिदशमे लोभं कषायाष्टकं । निद्रा समचलामुपांत्यसमये दृग्धीविनाश्चतु
दिः पंच क्षिपते परेण चरमे शुक्लेन सोहनसि ॥ १२१ ॥ निमित्तको पाकर भोगोंसे वैराग्यरूप हुए, उससमय लौकांतिक देवोंने आकर स्तुति की फिर दिव्य पालकीमें बैठाकर वनमें लेगये वहां पर दीक्षावृक्षके नीचे वैठके प्रभुने 24 सिद्धोंको नमस्कार कर आप ही दीक्षा धारण की, केशलौंच करके ध्यानमें मग्न शुद्ध निजस्वभावामृतका स्वाद लेते हुए। ऐसे प्रभु हमारे कल्याण कर्ता हो ॥ ११९ ॥ जिस प्रभुने धर्मध्यान और शुल्कध्यानके बलसे अनायासमें ही गुणस्थान क्रमसे कर्म ||
॥१४॥ प्रकृतियोंका क्षय किया। वह क्रम कर्मकांडमें विस्तारसे लिखाहुआ है। विस्तारके भयसे | यहां नहीं लिखा।क्षयके क्रमसे चार घातिया कौका नाशकर केवलज्ञान आदि अनंतच
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
कन्छ
द्रव्यं भावमथातिसूक्ष्ममधियन्युक्ता वितर्के स्फुरबर्थव्यंजनमंगगीरपि पृथक्त्वेनापि संक्रामता। कर्माशानव स्थितेन मनसा मोढार्भकोत्साहवत् कुंठेन द्रुमिवाणुशः परशुना छिंदन यतिष्वध्यसि ॥ १२२ ।। क्षुण्णे मोहरिपो भजन्नुरुयथाख्याताधिराज्यश्रियं शुद्धस्वात्मनि निर्विचारविलसत्पूर्वोदितार्थश्रुतः । स्वच्छंदो छळदुत्कलोज्ज्वलचिदानंदैकभावो लसच्छेषारिव्रजवैभवः स्फुटमसि त्वं नाथ निग्रंथराट् ॥ १२३ ॥ विश्वैश्वर्यविघातिघातिदितिजो छेदो गतानंतहक् संविद्वीर्यसुखात्मिकां त्रिजगदाकीणे सदस्या स्थितः । जीवन्मुक्तिमृषींद्रचक्रमहितस्तीर्थ चतुस्त्रिंशता
कुर्वाणोतिशयैः पुनात्यपि पशून् संपातिहार्याष्टकैः ॥ १२४ ॥ शावष्टय पाकर सयोगकेवली हुए । उससमय इंद्रने समयसरणकी रचना की। उसी समय :
अतिशय आठ प्रतिहार्य तथा प्रर्वोक्त अनंतज्ञानादिचार--इसतरह छचालीस गणा मंडित हुए दिव्यध्वनिद्वारा तिर्यचों आदि जीवोंका कल्याण करते हुए ॥ १२०। १२१।१२२|| १४|१२३ । १२४ ॥ उसके बाद प्रभुने योगोंको रोककर शुक्लभ्यानके बलसे मोक्षअवस्थाके||
073
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
॥१०५॥
देवव्यक्ति विशेष संव्यवहृतिव्यक्त्युल्लसल्लांछनश्रीमत्त्वत्क्रमपद्मयुग्मसततोपास्तौ नियुक्तं शुभैः । यक्षद्वंद्वमवश्यमेतदुचितैः प्राच्चैरिदानींतनैदेवेंद्रैरपि मान्यते शिवमुदोप्येष्यद्भिरीशिष्यते ॥ १२५ ॥ द्वौ गंधौ रसवर्णबंधनवपुः घातकान पंचशः षट् षट् संहननाकृतीः शुभगतिः स्वस्वानुपूर्व्यामुभे । खत्रज्ये परघातकागुरुलघुच्छ्रासापघाता यशो नादेयं शुभसुस्वरस्थिरयुगैः स्पर्शाष्टकं निर्मितम् ॥ १२६ ॥ यांगोपांगमपूर्ण दुर्भगयुगे प्रत्येक नीचैः कुले वेद्यं चान्यतरद्विसप्ततिमुपांत्ये मूरयोगं क्षणे । आदेयं सनिजानुपूर्व्यनृगतिं पंचाक्षयोतिंशयः पर्याप्तत्रसबादराणि सुभगं मर्त्यायुरुचैः कुलम् ॥ १२७ ॥.
अंतके दो समयों में से पहले समय में पचासी कर्म प्रकृतियोंमेंसे बहत्तर प्रकृतियोंका क्षय किया और अंतसमय में अवशेष तेरह प्रकृतियोंका नाशकर कर्मोंसे मुक्त हुए तीन लोकके शिखरपर जा विराजे ॥। १२५ । १२६ । १२७ । १२८ । १२९ ॥ इसप्रकार पूर्वोक्त श्लोकोंको
भा०टी०
अ० ४
॥१०५॥
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
वेधेनान्यतरेण तीर्थक्रमारअग्रादशाप्यंतिमे निष्कृत्यप्रकृतरिनुत्तरसमुच्छिन्नक्रियध्यानतः । यः प्राप्तो जगदग्रमेकसमयेनोर्ध्वगमात्माष्टभिः सम्यक्त्वादिगुणैर्विभाति स भवानत्रार्थितोया॑ज्जगत् ।। १२८ ॥ मुक्तिश्रीपरिरंभनिर्भरचिदानन्देन येनोज्झितं देहं द्राक स्वयमस्तसंहतितडिहामेव मायामयम् । कृत्वानींद्रकिरीटपावकयुतैः श्रीचन्दनात्तैर्मुदा
संस्कृत्याभ्युपयंति भस्म भुवनाधीशाः स जीयात् प्रथः ॥ १२९ ॥ एतत्पठित्वा प्रतिमोपरि पुष्पांजलिमापयेत् । इति कल्याणपंचकारोपणविधानं । अब संस्कारमालाधिरोपणम्। न्यस्यामयेह विंबेष्ट चत्वारिंशतमहतः । संस्कारान् दृष्टिलाभादिशिवांतपदगोचरान्॥१३०॥ पढकर प्रतिमाके ऊपर पुष्पोंकी अंजलि क्षेपण करे । यह कल्याणपंचककी आरोपणाविधि हुई । अब संस्कारमालाकी आरोपण विधि कहते हैं । “न्यस्या" इत्यादि श्लोक बोलकर सम्यग्दर्शनप्राप्तिके संस्कारसे लेकर मोक्षप्राप्तितक संस्कार स्थापनेकी प्रतिज्ञा करे ॥ १३०॥
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
अ०५
२०६॥
सदर्शनस्य संस्कारः स्फुरत्वयमिहार्हति । संज्ञानस्यैव सद्वृत्तस्यैष सत्तपसोप्ययम्॥१३१॥ भाटी एष वीर्यचतुष्कस्य मात्रष्टतयमंडले । प्रवेशस्यायमेषोष्टशुद्धयवष्टंभनिष्टिते ।। १३२ ॥ परीषहजयस्यायं त्रियोगासंयमच्युतेः । शीलमस्यायमेष त्रिकरणासंयमारतेः ॥ १३३ ॥ अयं दशा संयमोपरमस्यैषोक्षनिर्जितेः । अयं संज्ञानिग्रहस्य दशधर्मधृतेरयम् ॥ १३४ ॥ अष्टादशसहस्राणां शीलानामयमेषकः । चतुरभ्यधिकाशीतिगुणलक्षसमाश्रयः ॥ १३५ ।। । विशिष्टधर्मध्यानस्य अयमेषोतिशायिनः । अप्रमत्तयमस्यायं सुदृढश्रुततेजसः ॥ १३६ ॥ अकंपप्रकरणश्रेण्यारोहणस्यामुकोसको । अनंतगुणशुद्धेश्वाप्याप्रवृत्तकृतेरयम् ॥ १३७॥ अयं पृथक्त्ववीतकवीचारप्रणिधेरयम् । अपूर्वकरणस्यैषो निवृत्तिकरणस्य च ॥ १३८॥ बादराणां कषायाणामयं किट्टिकृतेरयम् । सूक्ष्माणामेष पूर्वेषां किट्टिनिर्लेपनस्य च॥१३९॥ एषोन्येषामयं सूक्ष्मकषायचरणस्य च । प्रक्षीणमोहनस्यायं यथाख्यातविधेरयम् ।। १४० ॥ अयमेकत्ववीतर्कवीचारध्यानभूरयम् । घातिघातस्य कैवल्यज्ञानदृष्टयुद्यतेरयम् ॥१४१॥ तीर्थप्रवर्तनस्यायमेष सूक्ष्मक्रियस्य च । शैलेशीकरणस्यायं परसंवरवयंसौ ॥ १४२॥ योगकिट्टिकृतेरेष तन्निर्लेपनगाम्यसौ समुच्छिन्नक्रियस्यायं श्रितोयं निर्जरां पराम् ॥१४३॥ ४॥ "सद्दर्शन' इत्यादि एकसौ पैंतालीस तक श्लोक बोलकर अभिप्राय मनमें धारण करके प्रति-2|| ॥१०६॥ माके ऊपर पुष्पांजली क्षेपण करे ॥१३१ से १४५॥ इसप्रकार अडतालीस संस्कारोंकी
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
Recen
0000000000000
सर्वकर्मक्षयस्यायमनादिभवपर्ययः । विनाशस्याशुकोनं तसिद्धत्वादिगतेरयम् ॥ १४४ ॥ आदेय सहजज्ञानोपयोगैश्वर्यचार्यसौ । एष देहसाहात्येक्षोपयोगैश्वर्यगोचरः ॥ १४५ ॥ एतदर्थारोपणपरायणांतःकरणः पठित्वा प्रतिमोपरि पुष्पाजलिं क्षिपेत् । इत्यष्टचत्वारिंशत्सं|स्कारमालारोपणविधानम् । अथ मंत्रन्यासविधानम् ।
| विश्वोद्भासि परब्रह्मव्यंजकं स्यात्पदांकितम् । शब्दब्रह्मेति मंत्रालीं न्यस्यामीह जिनेशिनः १४६ मंत्रन्यासप्रतिज्ञानाय प्रतिमोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
| भालनेत्रश्रवोनासाकपोलरदपंक्तिषु । स्कंधयोर्मूर्ध्नि जिह्वाग्रे ओमायाई रमोत्तरान् ॥ १४७ ॥ | स्थापनाका विधान हुआ । अव मंत्रन्यास विधि कहते हैं- मैं स्यात्पदसे चिन्हित, जगतका प्रकाशक और परब्रह्मको कहनेवाले ऐसे शब्दब्रह्म इस मंत्रको अर्थात् ब्रह्म नामको जिनेश्वर में स्थापित करता हूं ऐसा कहकर मंत्रन्यासकी प्रतिज्ञा प्रगट करनेकेलिये प्रतिमाके ऊपर पुष्पोंकी अंजलि चढावे ॥ १४६ ॥
उसके बाद “ भाल" इत्यादि चार श्लोक बोलकर ओं ह्रीं अ श्रपूर्वक अकारादि वर्णोंको शरदऋतुके निर्मल चंद्रमाके समान चिंतवन करे तथा प्रतिष्ठेय प्रतिमामें हाथसे स्थापन करे । वह इसतरह हैं- "ओं" इत्यादिको ललाटमें दाहिनी वांईं तरफ स्थापन करे, इसीप्रकार 'इई' को नेत्रोंमें, उऊको कानोंमें, ऋऋ को नाकमें, लुलुको गालों पर, एऐ को दांतोंमें, ओ औ को कंधेके दोनों भागोंमें, अं को मस्तकमें, अःको जीभके अगाड़ीके भागपर, कवर्गको दाहिनी
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र० सा०स्वरान् द्विशः पृथक्तद्वाहोदक्षिणवामयोः। कचवौं तथा कुक्ष्यष्टतवर्गी पृथक् पफौ ॥१४८ ॥माटी. noon| ऊर्वो गुपके नाम्यां भं मं मांसलतापदे । देहे य मूर्धा रं लं पृष्टेघिसंधि वं ॥ १४९ ॥
अ०४ शं जानुनोर्गुल्फयोः पादयोः संनिवेश्य है। सर्वप्राणपदे साक्षाजिनमेषोवतारये॥१५० ॥ | ओं ह्रीं अहं श्रीं एतत्पूर्वकानकारादिवर्णान शरश्चंद्रगौरान् यथोक्तस्थानेषु मनसा ध्यात्वा प्रतिष्ठेयप्रतिमासु करेण विन्यसेत् । तथाहि । ओं ह्रीं अर्ह श्री अ आ ललाटे दाक्षिणतः प्रभृति
न्यसेत्, ओं ह्रीं अहं श्रीं इई दक्षिणेतरनेत्रयोः । एवं सर्वत्र । उऊ कर्णयोः ऋ ऋ नासापुटयोः, ताल लू गंडयोः, ए ऐ ऊर्ध्वाधो दंतपंक्त्योः , ओ औ स्कंधयोः, अं मस्तके, अ: जिह्वाग्रे, क ख ग
व दक्षिणभुने, च छ ज झ ञ वामभुजे, ट ठ ड ढ ण दक्षिणकुक्षौ, त थ द ध न वामकुक्षौ, Iप दक्षिणोरी, फ वामोरी, ब गुह्ये, भ नाभिमंडले, म स्फिजोः, य शरीरस्थाने उदरे, र ऊर्ध्वरोमांचे हैं
मस्तकादिकेशेष्वित्यर्थः, ल पृष्टे, व ग्रीवाकक्षादिसंधिषु, श जानुयुग्मे, ष गुल्फमूलयोः, स पदयोः है। सह सर्वप्राणस्थाने हृदये । इति मंत्रन्यासविधानं । अथ प्रतिष्ठातिलकदानं ।
भुजामें, चवर्गको वाई बांहमें, टवर्गको दाहिनी कूखमें, तवर्गको वाई कूखमें, पदाहिनी जां-18 धमें, फ वाई जांघमें, ब गुह्यस्थानमें 'भ नाभिस्थानमें, म चूतड़ोंमें, य उदरमें, र शिरके के-12
Oil॥१०॥ शाशोंमें, ल पीठमें, व गले कांख आदिकी संधिओंमें, श घुटनोंमें, पैरोंमें, हकारको हृदय
स्थानमें, स्थापन करे ॥ १४७ । १४८ । १४९ । १५०॥ यह मंत्रन्यास विधि हुई । अब प्रति-18
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रीत्यै पिंगा प्रियंगुफलमचिरफलं मंगलार्थ दधि स्यात् सिद्धार्था वांछितार्थान् ददति सुमनसः सौमनस्यं महायुः । दूर्वा श्रीखंडलोहप्रभृतिसुरभितामृद्धिमृद्धिश्च वृद्धिं वृद्धिः शैत्यं तुषारो क्षतविशदयशांस्यक्षताश्चेत्यमीभिः ॥१५१ ॥ शुच्या कौसुंभवस्त्राभरणघुसृणसन्माल्यभाजा चतुष्के तिष्ठंत्या भर्तृवस्त्रांचलयुतवसनप्रांतया यब्दपल्या । कोणोद्भासि प्रदीपामलजलपविताभ्यर्चितायां शिलायां
पिष्टैर्दत्वा गुडादीस्तिलकयतु कृतावाहनादिर्जिनार्चाम् ॥ १५२ ॥ चत्वारि मंगलं स्वाहेत्यंतेन प्रणवादिना । प्रियंगुः स्थापकैर्जप्त्वा धार्या हैमादिपात्रगा॥१५३
तिलकद्रव्यसज्जीकरणं । अत्र स्थापनानिक्षेपेण यमाश्रित्यावाहनादिमंत्राः कथ्यते तद्यथा । ओं हां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः असिआउसा एहि २ संवौषट् आवाहनं, ओं ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं हः असि आउसा तिष्ठ २ ठ ठ स्थापनं, ओं ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः असिआउसा अत्र सन्निहितो भव २ वषट् सन्निधीकरणं, छातिलकदानकी विधी कहते हैं ॥ हरताल आदि तिलक द्रव्य सोनेके पात्रमें रखकर “सिद्धार्था" इत्यादि तीन श्लोक तथा “ओं" इत्यादिसे आवाहनादि करके जिन प्रतिमामें तिलक लगावे अथवा उसके आगे तिलक द्रव्य चढावे ॥ १५१ ।१५२। १५३ ॥ इसप्रकार वह इंद्र
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
Поете
॥१०८॥
कृत्वैवं कर्म शक्रोच पूरकेण जिनं स्मरन् । सुलग्ने रेचकेनांतः प्रियां वा तत्पदं न्यसेत् ॥ १५४ ॥ तिलकमंत्रः । इति तिलकदानविधानं । अथाधिवासनाविधानं । गंधाक्षतस्रग्वस्त्रान्नयवाली कंकणेषुभिः । चरुधूपारार्तिकफलैर्विरूढ कयवारकैः ।। १५५ ।। सवर्णपूरेक्षुवलिवर्तिभृंगार कैरिमैः । मंत्राभिमंत्रितैश्चित्तैः सार्धस्वस्त्ययनैः क्रमात् ॥ १५६ ॥ एष निष्प्रतिघो देष्यत्केवलज्ञाननिर्वृतिम् । प्रतिष्ठितमहार्चायां जिनेंद्रमधिवासये ।। १५७ ।। स्वासन्नीकृतचंदन द्यधिवासनद्रव्येषु पुष्पाक्षतं प्रक्षिप्य तत्कालप्रतिष्ठितार्हत्प्रतिमां नमस्कुर्यात् । कर्पूरगकलवंग एला कररंवितं चंदनौघेः ।
दूरं स्फुरत्परिमलैर्जिनभर्तुरारात् विद्राणसौरभमदैरपि चर्चयेीन् ॥ १५८ ॥ ॐ नमोर्हते सर्वशरीरावस्थिताय पृथु २ गंधं गृहाण स्वाहा ।
पूरक प्राणायामसे जिनेंद्र देवका स्मरण करता हुआ रेचक प्राणायामसे चरणकमलों में तिलकद्रव्य चढावे ॥ १५४ ॥ यह तिलकदान विधि हुई । अब अधिवासनाविधि कहते हैं| केवलज्ञान कल्याणसे प्रतिष्ठित हुई महान् अर्हत प्रतिमामें अर्हत्प्रभुको स्थापित करके चंदन अक्षत आदिसे पूजा करे ॥ १५५ । १५६ । १५७ ॥ वह पूजा इसप्रकार से है - पहले आवाहन - नादि करके पुष्प अक्षत क्षेपण करे । फिर “कर्पूर" इत्यादि श्लोक तथा " ओं नमो" इत्यादि | बोलकर चंदन चढावे ॥ १५८ ॥ “ शुंभत् " इत्यादि तथा " ओं " इत्यादि बोलकर अक्षत
भा०टी०
अ० ४
॥१०८॥
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुभच्छारदपार्विकेंदुसुहृदामामोदनर्मोल्वणघ्राणमाणितचेतसां द्युतटिनीतोयाभिषिक्तात्मनाम् । अच्छेदार्जितसाधुशीलयशसां शाल्यक्षतानां चयै
राचारैरिव पंचभिः सुरचनैरहत्पदाब्जे यजे ॥ १५९ ॥ ओं नमोर्हते सर्वशरीरावस्थिताय पृथु २ अक्षतानि गृहाण २ स्वाहा ।
सौरभ्यसांद्रमकरंदपरागजाती मंदारमल्लिकमलादिमयेन दाना । कल्याणपंचकरुचिं शरपंचकेन प्रव्यंजता जिनपते रचयामि पूजाम् ॥ १६० ॥ ओं नमोर्हते जय सर्वतो मेदिनीपुष्प वरपुष्पाणि गृहाण २ स्वाहा । पंचशरमालारोपणम् ।
जल्पच्छुक्लतया परां विमलतां तात्कालिकी लभ्यतां नव्यत्वेन लसद्दशापरिचयेनोत्कर्षपयोप्तता। माहार्पण महर्घतां च परमध्यानस्य दुर्लक्ष्यता
सूक्ष्मत्वेन ददे जिनस्य वदने वस्त्रं प्रनष्टाहते ॥ १६१॥ चढावे ॥१५९ ॥ “सौरभ्य" इत्यादि तथा “ओं" इत्यादि बोलकर पुष्प चढावे ॥१६० ॥ "जल्प" इत्यादि दो श्लोक तथा “ओं नमो' इत्यादि बोलकर वस्त्र और जौमाला सहित सात
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रसा०
भान्टी.
.१०९॥
अ.
लन्ड
भक्तर्दिवृद्धिकृदनुक्षणभाविशर्म सम्यक् फलामितगुणावलिमुद्रिंत्या । रावर्द्धिवृद्धियवमालिकयार्चितोईन् गां सप्तधान्यकमदोर्हतु सप्तभंगी ॥ १६२ ॥
ओं नमोर्हते सर्वशरीरावस्थिताय समदनफलं सर्वधान्ययुतं मुखवस्त्रं ददामि स्वाहा । मुखवस्त्रदानपूर्वकं यवमालामारोप्य जिनस्य पादाग्रतः सप्तधान्यान्युपहरेत् ।
सूत्रे रूप्यमयेथ पट्टरचिते प्रोतं विविक्तात्मचिदीव्यदर्शनबोधवृत्तककुदं रत्नत्रयं स्वात्म यत् । रागात् क्षिप्तवरस्रजः शिवरमासंगोत्सुकस्य प्रभोः
जीवनमुक्तिरमाविवाहविधये बनाम्यदः कंकणम् ॥ १६३ ॥ ओं " अट्ठविहकम्ममुत्तो तिलोयपुज्जो य संथुओ भयवं । अमरणरणाहमहिओ अणाइणिहणो सिवं दिसओ " स्वाहा । कंकणबंधनम् ।
पंचोन्मादनमोहने स्मृतिभुवः संतापनं शोषणं
वाणान् मारणमप्यपार्थितवत चत्वारि विमच्छिदे । अनाजोंको भगवानके चरणकमलोंके आगे चढावे ॥ १६१ । १६२॥ “सूत्रे" इत्यादि तथा “ओं" इत्यादि बोलकर कंकणबंधन करे ॥ १६३ ॥ "पंचो' इत्यादि बोलकर धनुषका स्था
न्जन्छन्
8॥१०॥
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुक्लध्यानविकल्पना निवसनमांतेषुकांडान्यमू
न्युयरपंखमयूखते जिन फलान्यारोपयाम्यहंतः ॥ १६४ ॥ कांडस्थापनमंत्रः।
प्राज्याज्यं परमानमुत्कटसितं पकानवर्ग वरभक्षानक्षसुखान् शशांककिरणमष्ठान् समं शालनैः। शाल्यनं सुरसैः सुगंधिविशदं पेयं पयःपूर्वक
सामाय्यं कनकादिपात्रविततं श्रीरोचिभर्ने ददे ॥ १६५ ॥ ओं नमोऽर्हते सहभूतायानंतसुखतृप्तायाग्रे चरुं विस्तारयामि स्वाहा ।
धूपैयौगिकगंधसारविधिद्रव्याव्यायविर्भवत् सौरभ्यातिशयैः शिखिव्यतिकरामायमानैर्मुहुः । सयानानलदधमानतनुकैरिवाधिष्ठित
क्रोडान् साधुजनाशयान् प्रतिदिशं न्यस्यामि कुंभान प्रभोः ॥ १६६ ॥ पन करे ॥ १६४॥ “प्राज्य" इत्यादि तथा “ओं" इत्यादि बोलकर नैवेद्य (पक्काम ) चढावे IS १६५ ॥ "धूपै" इत्यादि तथा “ओं" इत्यादि बोलकर आठों दिशाओंमें आठ धूपदान रखे
ज़्न्ललललललललललल्द
A
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र० सा०
॥११०॥
Post Co00209e
700000006ete
ओं नमो असर्वतो दह २ तेजोधिपतये सहभूताय धूपं गृहाण गृहाण स्वाहा । अष्ठासु दिक्षु धूपघटाष्टकनिवेशनम् ।
स्फुर्जज्जोतिः सज्जितैः कज्जलांहो दाहं दाहं स्नेहमे भिर्वहद्भिः । दीपैः शुद्धज्ञानरोचिः कलापप्रख्यैरर्ह देवमाराधयामः ॥ १६७ ॥ ओं नमोर्हते सर्वतः प्रज्वल २ अमिततेजसे दीपं गृहाण स्वाहा । श्रीमद्दाडिममोचचोचरुचका क्षौटा प्रघोटा शिवा जंबूजंभलनागरंगपनसद्राक्षाकपित्थादिजैः । छायागंधरसप्रमाकृतिदशाभेदैर्मनोहारिभिः साक्षात्पुण्यफलैर्जिनेंद्रचरणावभ्यर्चयामः फलैः ।। १६८ ।। ओं नमोर्हते सहभूताय फलानि गृहाण गृहाण स्वाहा । मुद्गाद्यशेषाद्विदलप्रसूतैर्वालांकुराक्षिप्तगुणप्ररोहैः ।
विरूढकैः प्रौढविशुद्धभावं यजे जिनं भव्यशुभोद्भवाय ॥ १६९ ॥
॥ १६६ ॥ " स्फूर्ज" इत्यादि तथा "ओं" इत्यादि बोलकर दीपक चढावे ॥ १६७ ॥" श्रीमद्दा” इत्यादि तथा "ओं" इत्यादि बोलकर फल चढावे ॥ १६८ ॥ " मुद्रा" इत्यादि बोलकर दो दलवाले धान्यके अंकूरे शुभउदय होनेके लिये चढावे ॥ १६९ ॥ “ यवादि" बोलकर जौका
200
मा०वी०
अ० ४
॥११०॥
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
1998 CACA
विरूढकस्थापनम् ।
यवादिजैमंगलदानदृप्तैर्यावारकैः कांतिजिताश्मगर्भैः । . जगत्पतेः सिद्धवधुविवाह वेदीमिमां भूमिमलंकरोमि ॥ १७० ॥
यवारकस्थापनम् ।
सहानवस्थानहतान स्वपंचवर्णोच्चयेन द्युविमानबर्णान् । आक्षिप्यतोभि प्रभु वर्णपूरान स्वर्वासिपुण्याय निवेशयामि ॥ १७१ ॥ वर्णपूरकस्थापनम् ।
व्याहारान् जिनवाक्यवन्मधुरताशैत्यप्रसादोद्धुरैरिक्षन स्वादुविपाकवद्भिरितरान् प्रत्यादिशुद्धी रसैः । स्थूलैरा यतिशालिभिः कलयुतं कोदंडकृप्त्यै ! ग्रारिष्टसोन्मुखं जिन पतिः पुंड्रेक्षुभिः प्रार्चये ॥ १७२ ॥ इक्षुस्थापनम् ।
वस्तुं सभाभुवि मनोज्ञफलमवाल पुष्पावलीरूपहृता ध्रुवनश्रिये वा । चित्रामपिष्टमय पुष्पफलप्रवालरूपास्तनोमि वलिबर्तित तीर्जिनाग्रे ॥ १७३॥
आटा स्थापन करे ॥ १७० ॥ " सहान" इत्यादि बोलकर पांच रंगोंको चढावे ॥ १७१ ॥ "व्याहारान्" इत्यादि बोलकर पोंढा चढावे ॥ १७२ ॥ " वस्तु" इत्यादि बोलकर घीकी बत्ती
20609:
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र० स०
●१११ ॥
Dece
वलिवर्तिकास्थापनम् ।
सूत्रार्थैरिव निर्मलैर्मतिफलैराह्लादिभिः शीतलैः पीयूषैरिव जीवनादिकगुणग्राम स्फुरगौरवैः । पूर्ण तीर्थजलैः सुपल्लवमुखं क्षं सदूर्वाक्षतं दिव्यांगं दधतं न्यसामि धृतये भृंगारग्रेईतः । १७४ ॥ भृंगारस्थापनम् ।
एवं देवे विश्वदेवात्तसेत्रे न्यस्तेर्चायां चारुवस्तूपचारैः । व्यक्तात्यंतोदात्तशस्तानुभावे प्रातुंकामानर्धमभ्युद्धरामः ॥ १७५ ॥
पूर्णाम् ।
आदिनाथस्तु नः स्वस्ति स्वस्ति स्तादजितेश्वरः । शंभवो भवतु स्वस्ति भूयात्स्वस्त्यभिनंदनः || १७६ ॥ अस्तु वः सुमतिः स्वस्ति पद्माभः स्वस्ति जायताम् । सुपार्श्वः स्वस्ति भवतात् स्वस्ति स्ताच्चंद्रलांछनः ॥ १७७ ॥ प्रकाशित करके चढावे ॥ १७३ ॥ “ सूत्रार्थे” इत्यादि बोलकर जलसे भराहुआ सोंनेका छोटा कलश चढावे ॥ १७४ ॥ “ एवं देवे " इत्यादि बोलकर पूर्णार्थ चढाये ॥ १७५ ॥ " आदि
0006
भा०टी०
अ० ४
॥ १११ ॥
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
कन्क
सतां स्वस्त्यस्तु सुविधिर्भवतु स्वस्ति शीतलः। श्रेयान् संपवतां स्वस्ति स्वस्त्यस्तु वसुपूज्यजः ॥ १७८ ॥ राज्ञोस्तु बिमलः स्वस्ति स्वस्ति भूयादनंतचित् । भूयाद्धर्मचितः स्वस्ति शांतीशः स्वस्ति जायताम् ॥ १७९ ॥ संघस्य कुंथुः स्वस्त्यस्तु भवतु स्वस्त्यरप्रभुः। स्वस्ति मल्लिजिनेंद्रोस्तु स्वस्त्यस्तु मुनिसुव्रतः ॥ १८०॥ जगतोस्तु नमिः स्वस्ति स्वस्ति स्तान्नेमिनायकः । स्वस्ति पार्श्वजिनो भूयात् स्वस्ति सन्मतिरस्त्विति ॥ १८१ ॥ अस्मिभिमे स्वस्त्ययने भक्तिरागादघातिनाम् ।
स्वस्तिमंतः स्वयं शश्वत्संतु स्वस्त्ययनं जिनाः॥१८२ ॥ एतत्सप्तकं पठित्वा पुष्पांजलि क्षिपेत् । स्वस्त्ययनविधानं ।
... अथ केवलज्ञानकल्याणस्थापनम् । इत्यक्षुण्णकृताधिवासनविधेः शक्त्या निधायाईतः
कोशे नित्यमहार्थमर्थमुचितं यष्टा निधायार्पितं । नाथो" इत्यादि सात श्लोक बोलकर पुष्पोंकी अंजलि चढावे ॥१७६ से १८२॥ यह स्वस्ति
न्छन्
कन्सन्कलन्डर
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
कन्छन्
॥११२॥
अ०४
स्वीकार्यापि शिवाय सद्वृतमिमे कुर्मोवतार्यार्तिकं
भान्ट्री तस्योक्षिप्य च धूपमध्वमघहत्तच्छ्रीमुखोद्घाटनम् ॥ १८३ ॥
ॐ उसहादिवढमाणाणं पंचमहाकल्लाणसंपण्णाणं महइ महावीरवड्डमाणसामीणं सिझउ मे है। है। महइ महाविज्जा अड्डमहापाडिहेरसहियाणं सयलकलाधराणं सज्जोनादरूवाणं चउतीसातिमयविसे-21
ससंजुत्ताणं वत्तीसदेविंदमणिमउडमत्थयमहियाणं सयललोयस्स संतिपुटिकल्लाणाओ आरोगाकराणं बलदेववासुदेवचक्कहररिसिमुणिजदिअणागारोवगूढाणं उहयलोयसुहयफलयराणं थुइसयसहस्सणिलयाणं परापरपरमप्पाणं अणाइणिहणाणं वलिवाहुवलिसहिदाणं वीरवीरे ओं हां क्षां सेणवीरे वड्डमाणवीरे हंस जयंत वराइएवज्जसिथलंभमयाणं सस्सदवंभपइट्टियाणं उसहाइवीरमंगलमहापुरिसाणं णिच्चकालपइट्ठियाणं इत्थ सण्णिहिदा मे भवंतु मे भवंतु ठ ठ क्ष क्ष स्वाहा । श्रीमुखोद्धाटनमंत्रः ।
येनोन्मील्य समस्तवस्तुविशदोद्भासोद्भटं केवलज्ञानं नेत्रमदर्शिमुक्तिपदवी भव्यात्मनामृव्यथा । तस्यात्रार्जुनभाजनार्पितसिता क्षीराज्यकर्परयुक्
वक्रस्वर्णशलाकया प्रतिकृतौ कुर्वे दृगुन्मीलनम् ॥ १८४ ॥ वाचन विधि हुई । अब केवलज्ञान कल्याणका स्थापन करते हैं-" इत्यक्षु” इत्यादि श्लोक | तथा ओं उसहा" इत्यादि श्रीमुखोद्धाटन मंत्र बोलकर भगवानके मुखको उघाड़े ॥१८३॥
16 ॥११२० “येनो" इत्यादि तथा “ओं नमो” इत्यादि नेत्रोन्मीलनमंत्र बोलकर नेत्रोंको उघाड़े ॥१८४॥
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
ओं नमो अरहताणं अमियरसायणं विमलतेयाणं संति तुढि पुट्टि वरद सम्मादिट्टीणं वृषभ अमयवरसणं स्वाहा । नेत्रोन्मीलनमंत्रः । अथ गुणाध्यारोपणं ।
यत्सामान्यविशेषयोः सह पृथक् स्वान्यत्वयोर्दीपवञ्चित्तं द्योतकमर्हतः समुदभूत्ते दृक् चिदो ये च यत् । तद्व्यापारनिबंधि वीर्यमपि यत्सौख्यं तदव्याकुली
भावोऽनंतचतुष्टयं तदिह तदिबे न्यसाम्यांतरम् ॥ १८५॥ अनंतज्ञानादिचतुष्टयप्रतिष्ठाथै प्रतिमोत्तमांगे चतुःपुष्पीमारोपयेत् ।
सौभिक्षं भवतिस्म योजनशतं यत्संसदं सर्वतः साधकोशयुगोज्झितक्षितितलं यश्वे स्पृहं सद्गतम् । यश्चेष्टास्वसितांगसंगवशतोप्यप्राणघातोंगिनां या तावत्यपि विग्रहस्य कवलाहारं विनैव स्थितिः॥ १८६ ॥ हुंडामप्यवसर्पिणी प्रतिवदन् यो नोपसर्गोद्भव
स्तैजोवैभवतश्चतुर्मुखतया वीक्ष्यैकमुख्यपि या। अब गुणोंकी आरोपणविधि कहते हैं-"यत्सामान्य" इत्यादि बोलकर अनंतज्ञान आदि अनंत चतुष्टयकी स्थापनाकेलिये प्रतिमाके मस्तकके ऊपर चार पुष्प चढावे ॥१८५ ॥ "सौ
डन्न्लन्डन
-
4
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
११३॥
विद्यास्वप्यखिलासु यः परिवृढीभावो दृढः सर्वदा
मान्टी० यच्छायाविरहस्तिरश्वरदिनेऽप्यंगे क्षिपेयेपि च ॥ १८७ ॥ पक्षस्पंदविपर्ययोऽनिशमृत व्याधेः प्रयत्नाच्च यो यो मूर्तेनेखकेशद्धयुपरमो मर्त्यप्रकृत्यत्ययात् । ते घातिक्षयजा दशाप्यतिशया बाह्याश्च चेतश्चमत्
कारोद्रेककृतो जिनस्य निहिता विंबे मयात्राधुना ॥ १८८ ॥ घातिक्षयजदशातिशयस्थापनार्थ पीठिकायां दश पुष्पाणि क्षिपेत् । धूलीशालोऽतः क्षितौ चैत्यगेहप्रासादाल्यो नाट्यशालाः सरांसि । मानस्तंभाश्चाधिदिग्वीथ्यतोर्णः पूर्ण खेयं वेदिरम्यं विदिक्षु ॥ १८९ ।।
वेदीभूषा पुष्पवाट्यस्ततोतो नाट्याशोकाद्यायमूर्हेमशाला ।
वेदीरुद्धावेध्वजोर्वीशतारमाकारांतो नाट्यकल्पद्रुमोर्वी ॥ १९ ॥ वेदीद्धातः स्तूपदिव्यालयोवीयत्पाद्युतिः सनाद्यार्कशाला। तन्मध्येऽर्हन्गंधकुव्यासने भाद्यत्रास्थानी तामिह स्थापयामि ॥ १९१ ॥
॥११३॥ भिक्ष' इत्यादि तीन श्लोक बोलकर केवलज्ञानके समय होने वाले दस अतिशयोंके स्थाप-15 जान करनेके दस फूलोंको वेदीपर चढावे १८६ । १८७ । १८८ ॥ “धूली' इत्यादि तीन
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
समवसरणस्थापनार्थ प्रतिमायाः समंतात् पुष्पाक्षतं क्षिपेत् । इति समवसरणस्थापनम् । उपानीयं यतोदैवैर्देवदेवातिशायिनः । चतुर्दशाद्भुता भावाः स्थापयामीह तानपि ॥१९२॥ ब्रुवतो र्द्धसागि मागधोक्तिमयी प्रभोः । सभायामन्धकार्यंत मागधैर्वागिहास्तु सा॥१९३ १. जातिकारणवैरेकघस्मरेप्याश्रमे पुष्यन् । यया प्रीतिकरा भर्तृभक्तान मैत्रीह भातु सा॥१९४ । सर्वर्तुसंपद्धाजिष्णु द्रुमा रत्नमयी युवत्। या जिवाव्दतलासर्जि प्रभुभक्त्यास्तु सा प्रभुः १९५॥ यो विस्रसा विहरति प्रभौ मृद्धतिलोन्ववात् । यश्चाभूत्परमानंदः सर्वेषां तामिहापि तौ॥१९६॥ संमार्जनं योजनं यद्गोर्जिनाग्रेनिलैः कृतम् । या गंधोदककृष्टिश्च मेघैस्ते भवतामिह ॥१९॥ यांतं तं सर्वतः पद्माः पंक्तिद्वात्रिंशता तताः । सप्तसोधपदोश्चैको यत्तत्पद्मायनं त्विदम् १९० विभुवैभवनिध्यानहपिता पुलकानि च । फलभारानतव्रीहिव्याजाळूया सा विह ॥१९९ ॥ है प्रभार्दिशावसंहर्षायनैर्मल्यं दधुर्दिशः । तद्योगादिव यत्खं च प्रसन्नं तद्भवत्विह ॥२०॥ वरमदं विभुभक्तुमेतैतेत्यभितो व्यधुः । यद्भावनाः समस्तान्यदेवाज्वनं तदस्त्विह ॥ २०१॥ रत्नरुक् चक्रदीपारसहस्रेण रवि क्षिपन् । धर्मचक्रं चचाराग्रे यत्मभोस्तत्स्फुरत्विदम्॥२०२॥ छत्रचामरभंगारकुंभाब्दव्यजनध्वजान् । स्वसुप्रतिष्ठान् यानिंद्रो भर्तुस्तेनेत्र संतु तो ॥२०॥ श्लोक बोलकर समवसरण स्थापन करनेके लिये प्रतिमाके चारोंतरफ पुष्प और अक्षत फेंके ॥ १८९ । १९० । १९१ ॥ “ उपानीयं '' इत्यादि बारह श्लोक बोलकर देवक्रत अतिशयोंके स्थापन करनेकेलिये वेदीपर चौदह पुष्प चढावे ॥ १९२ से २०३॥
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
न्छ
प्र०सा०
gul
न्
चतुर्दशदेवोपनीतातिशयस्थापनार्थ पीठिकायां चतुर्दश पुष्पाणि क्षिपेत् । इति दिव्यातिशय-भाटी स्थापनम् ।
अ०४ स्पृश्याः स्पृशंतो नापद्भिर्यन्नामापि तथापि तम् । येनेंद्रो यष्टभक्त्या तव मातिहार्याष्टकं त्विदम्।।
अष्टमहाप्रातिहार्यस्थापनाय पीठिकायामष्टपुष्पी क्षिपेत् । रत्नांशुवर्षेन्द्रधनुर्ध्यातास्या हरिवाहनम् । यच्चक्रे धर्फकात्मा सिंहपीठं तदस्त्वदः ॥२०५॥ | ओं सिंहासनश्रियै स्वाहा । सिंहासने पुष्पांजलिं क्षिपेत् । प्रवाद्यभेद्यो मेघौघध्वनिजिद्योजनं सद। व्यामुवन् यो न केनापि व्यधाय्येष सतध्वनिः ।।
ओं ध्वनिश्रियै स्वाहा । सरस्वत्यां पुष्पांजलिं क्षिपेत् । यक्षैर्दोधूयमानार्हदेहं छायाछलाश्रिता। या चामरचतुःषष्टि नटीतिस्म सास्त्वियम्॥२०७॥ | ओं चतुःषष्टिचामरश्रियै स्वाहा । चामरधारियक्षयोः पुष्पांजलिं क्षिपेत् । चक्षुष्ये पश्यतां सप्त भासयत्यनिशं भवान् । भामंडले बुडन् यत्र विश्वतेजास्यदोस्तु तत् ॥ " स्पृश्याः ” इत्यादि बोलकर आठ प्रातिहार्य स्थापन करनेकेलिये वेदीमें आठ पुष्प चढावे ॥२०४॥ " रत्ना" इत्यादि तथा “ ओं" इत्यादि बोलकर सिंहासनके आगे पुष्प चढावे ॥२०५॥"प्रवाद्य " इत्यादि तथा ' ओं" इत्यादि बोलकर सरस्वतीके आगे पुष्प
चढावे ॥२०६॥"य" इत्यादि तथा “ओं" इत्यादि बोलकर चमर धारण करनेवाले शयक्षोंके आगे पुष्पांजलि चढावे ॥२०७॥" चक्षुष्ये" इत्यादि तथा"ओं" बोलकर भा
क
॥११४॥
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
POSGharwa00न्छ न्
ओं भामंडलश्रियै स्वाहा । भामण्डले पुष्पांजलि क्षिपेत् । रत्नचि नदश्रृंगखगोवातचलल्लतः । विश्वाशोकीकृते व्यक्तं योऽशोको नटदेष सः२०९
औं रत्नाशोकाश्रयै स्वाहा । रक्ताशोके पुष्पांजलि क्षिपेत् । मुक्तमारोहमालंबि मुक्त्वा लंवूष लक्षणः । छत्रत्रयं स्मावत् श्रीनिधिं यन् ब्यात्यदोस्तु तत् ॥
ओं छत्रत्रयश्रियै स्वाहा । छत्रत्रये पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।। सभ्याः शृण्वंत्वसभ्योक्तीर्मतीवातीव योध्वनत् । सार्धद्वादशकोटयुद्यद्वादिकोयं स दुंदुभिः॥
___ओं दुंदुभिश्रियै स्वाहा । दुंदुभौ पुष्पांजलिं क्षिपेत् । / गंगांभः सुभगे गुंजदूंगौघा सुमनस्तमे । सुमनोभिः सुमनसां वृष्टिर्या सर्ज सास्त्वसौ २१२
ओं पुष्पवृष्टिश्रियै स्वाहा । मालाविद्याधरयोः पुष्पांजलिं क्षिपेत् । इत्यष्टौ प्रातिहार्याणि प्रतिमायां जिनेशिनः । स्थापितानि च निघ्नंतु भाक्तिकानां सदापदः॥ मंडलके आगे पुष्पांजलि चढावे ॥ २०८ " रत्न” इत्यादि तथा “ओं" इत्यादि बोलकर लाल अशोकके आगे पुष्पांजलि क्षेपण करे ॥ २०९ ॥ “ मुक्त" इत्यादि तथा “ओं " इ-IIti त्यादि बोलकर तीन छत्रोंकेलिये पुष्पांजलि क्षेपण करे ॥ २१० ॥ “ सभ्या" इत्यादि तथा
“ ओं" इत्यादि बोलकर दुंदुभिवाजेकेलिये पुष्पोंको क्षेपण करे ॥ २११ ॥ “ गंगांभ" आइत्यादि तथा “ओं" इत्यादि बोलकर पुष्पमाला धारण करनेवालोंके आगे पुष्पोंको क्षेपण करे ॥ २१२ ॥ " इत्यष्टौ" इत्यादि बोलकर प्रतिमाके आगे आठ पुष्पोंको चढावे ॥
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
प्रतिमागेष्टपुष्पी क्षिपेत् । इत्यष्टमहाप्रातिहार्यस्थापनम् ।
Frodita ॥११५॥
वंशे जगत्पूज्यतमे प्रतीतं पृथग्विधं तीर्थकृतां यदत्र ।
तल्लांछनं संव्यवहारसिद्धयै विबे जिनस्येदमिहोल्लिखामि ॥२१४ ॥ लांछने पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
शक्रेण सत्कृत्य सुभाक्तिकत्वात् त्रातुं नियुक्तो जिनशासनं यः।
कामान दुहन्नीश जुषां यथास्वं प्रतिष्ठितस्तिष्ठतु सैष यक्षः ॥ २१५॥ यक्षोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।
तद्वत्स्वपथेष्वतिवत्सलत्वानिवारयंती दुरितानि नित्यम् ।
यथोचितं शासनदेवतेति न्यस्तात्र यक्षी प्रतपत्वसह्यम् ॥२१६ ॥ शासनदेवतोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् । येनेह दर्शनविशुद्धपधिदैवतेन विश्वोपकाररसिकेन दिवीव गर्भम् ।
न्यूषे प्रमोदरसवर्षणपर्वणैव सर्वाणि सैष निहताद् दुरितानि नोऽईन् । २१७ ॥ M॥ २१३ ॥ “वशे” इत्यादि बोलकर चिन्हके आगे पुष्पांजलि क्षेपण करे ॥ २१४ ॥ “श-8
कण" इत्यादि वोलकर यक्षके ऊपर पुष्पांजलि क्षेपण करे ॥ २१५ ॥ “ तद्वव" इत्यादि || ११॥ बोलकर शासनदेवताके ऊपर पुष्पांजलि चढावे ॥ २१६॥" येने" इत्यादि पांच श्लोक
-
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
आधीभिराधिभिरवाविषयीकृताया निर्गत्य मातुरुदराजनयन् मुदं यः। लोकोत्तराणि बुभुजेत्र सुखान्यजस्रं श्रेयांसि स जयतु न सदायम् ॥ २१८ ॥
समयाधिगमास्तमोहतंद्रे स्वयमुद्दध्य झटित्यपास्तसंगम् । प्रशमैकरसो चरत्तपो यः स जिनोयं हरतां भवज्वरं नः।। २१९ ॥ यः सम्यक्त्वरमावगाढहगुपष्टंभात्समं वेदिता द्रष्टा विश्वमुपेक्षिताप्तपरमानंदोध्यतिष्ठद्गिरम् । स्फूर्जत्तीर्थकरत्वनामसुकृतोद्रेकादनुपाणतीं दिव्यां सभ्यसमीहितार्थकथनी नस्तत् स्फुरत्वेष नः॥ २२० ॥ योष्टादशशीलसहस्रसंयुक्तैश्चतुरशीतिगुणलक्षैः ।
परिणम्य कृत्स्नकर्मच्युतोष्ट भजते गुणान् सचेहास्ताम् ॥ २२१॥ एतत्पंचकं पठित्वा कल्याणपंचकस्थापनाभिव्यक्तये प्रतिमायां पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
इति सिद्धामरसाक्षाज्जीवन् मुक्तिश्रियं स्वसात्कृत्य ।।
भजतो जगतो पत्युः कंकणमिह मोक्षयाम्येषः ॥ २२२ ।। बोलकर पांचकल्याणोंके प्रगट करनेकेलिये प्रतिमाके आगे पुष्पांजलि चढावे ॥२१७ से २२१ ॥ " इति" इत्यादि श्लोक तथा “ओं" इत्यादि बोलकर प्रतिमाके आगे पुष्प क्षेपण
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
Toate
॥११६॥
ओं “ सत्तक्खरसक्कार अरहताणं णमोत्ति भावेण । जो कुणइ अणण्णमणो सो गच्छइ ।। उत्तमं ठाणं " ॥ कंकणमोक्षणं । ॐ "केवलणाणदिवायरकिरणकलावप्पणासियण्णाणो । णव केव- भाण्टी० ललझुग्गमसुजणियपरमप्पववएसो" असहायणाणदंसणसहिओ इदि केवली हु जोएण। जुत्तोत्ति सजोगि-2
अ०४ जिणो अणाइणिहणारिसे उत्तो" । इत्येषोऽर्हत्साक्षादत्रावतीर्णो विश्वं पात्विति स्वाहा। प्रतिमोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् । अर्हद्देवसाक्षात्करणविधानम् । ओं "खवियघणघाइकम्मा चउतीसातिसयपंचकल्लाणा । अटवरपाडिहेरा अरहंता मंगलं मज्झ" भूयासुरिति स्वाहा ॥ परमोत्सवेन महाघमवतारयेत् ।। सिद्धश्रुतचरित्रर्षिशांतिभक्तिभिरन्विताः। केवलज्ञानकल्याणक्रियां कुर्वतु याजकाः ॥२२३|| । इति केवलज्ञानकल्याणकस्थापनविधानम् । न्यस्यनिर्वाणकल्याणं सूत्रोक्तविधिना ततः। सिद्धश्रुतचरित्रर्षिशिवशांतीन स्तुवंतु ते॥२२४॥
इति निर्वाणकल्याणस्थापनम् । करे ॥ २२२॥ यह अर्हत प्रभुका साक्षात्करण हुआ।" ओं" इत्यादि स्वाहातक बोलकर बहुत उच्छवके साथ महार्घ चढावे। इसप्रकार प्रतिष्ठा करनेवाले सिद्ध श्रुत चारित्र ऋषि शांति भक्तियों सहित केवलज्ञानकल्याणकी क्रिया करें।। २२३ ॥ इसतरह केवलज्ञानकल्याणकी स्थापना विधि हुई। उसके बाद वे इंद्र शास्त्रकथित विधिसे निर्वाण कल्याणका स्थापन करके सिद्ध श्रुत चारित्र ऋषि शिव शांति स्तुतिका पाठ करें॥२२४॥ जिसतरह ११६॥
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
तथा सामान्यतीविवे गुणाधारोप्यमहताम् । यथास्वं च पृथकल्यं स्वर्गावतरणादिकम् २२५
अध्यंगुष्टमितामनेन विधिना जैनी प्रतिष्ठाप्यं ये शास्त्रोक्ता प्रतिमा भजति विधिवन्नित्याभिषेकादिभिः । तेऽद्भक्तिढानुरंजितधियो भुक्त्वा शिवाधर
ग्रामण्योम्युदयावलीरनुभवंत्यात्यंतिकी नितिम् ॥ २२६॥ इत्याशाधरविचित प्रतिष्ठासारोद्धारे जिनयज्ञकल्पापरनाम्न जिनप्रतिष्ठाविधानीयो
नाम चतुर्योध्यायः ॥ ४ ॥
स्वर्गसे अवतार लेना आदि क्रियायें हुई हैं उसीतरह अहतके प्रतिबिंबमें गुणादिकी स्थाप-2 वाना करनी चाहिये ॥ २२५ ॥ इसतरह निर्वाण कल्याणकी स्थापनाका विधान हुआ । जो
अंगुष्ठप्रमाण शास्त्रोक्त जिन प्रतिमाको भी इसी पूर्वकथित विधिसे प्रतिष्ठित करके हमेशा अभिषेकादि विधिसे पूजते हैं वे मुमुक्षु इस लोकमें उत्कृष्ट भोगोंको भोगकर वादमें अनंतसुखरूप मोक्षको पाते हैं ॥ २२६॥ इसप्रकार पं० आशोधर विरचित जिनयज्ञकल्प द्वितीय नामवाले प्रतिष्ठासारोद्धारमें
अर्हतप्रतिष्ठाकी विधिको कहनेवाला चौथा अध्याय पूर्ण हुआ ॥४॥
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रसा०
पंचमोऽध्यायः॥५॥
भाटी.
॥११७॥
अ०
अथातो अभिषेकादिविधानान्यनुसूत्रयिष्यामः । तद्यथा
आश्रुत्य स्नपनं विशोध्य तदिला लब्धां चतुःकुंभयुक कोणायां सकुशश्रियां जिनपतिं न्यस्ता तमाप्येष्टदिक् । नीराज्यांबुरसाज्यदुग्धदधिभिः सिक्त्वा कृतोद्वतनं
सिक्तं कुंभजलैश्च गंधसलिलैः संपूज्य नुत्वा स्मरेत् ॥ १॥ इत्यभिषेकविधानं । अथ चलजिनेंद्रप्रीतविंबप्रतिष्ठाचतुर्थदिनस्नपनक्रिया। तत्रेयं कृत्यप्रतिज्ञा भगवन्नमोस्तु ते एषोऽहं चलजिनेन्द्रप्रीतींववप्रतिष्ठाचतुर्थदिनस्नपनक्रियां कुर्यामिति । शेष समानम् । अथ चलजिनेंद्रप्रीतीवंबप्रतिष्ठाचतुर्थीदनस्नपनक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थी भावपूजावंदनास्तवसमेतं सिद्धभक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहं इत्युच्चार्य सामायिकदंडचतुर्विंशतिस्तवौ पठित्वा । । अब अभिषेक आदिकी विधि कहते हैं । वह इसतरह है-वेदीके चारों कोनोमें जलसे भरे हुए घड़े रखकर भूमिको पवित्रकर वीचमें सिंहासनपर जिन प्रतिमाको विराजमान कर | पंचामृताभिषेक करे । उसके बाद उन जलपूर्ण घड़ोंसे अभिषेक करके पूजा करे ॥ यह अ
॥११७॥
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
Sasooree
100000
सिद्धभक्ति प्रयुंजीत । एवं चैत्यपंचगुरुशांतिसमाधिभक्तिरपि विदध्यात् । अथ स्थिरे तं सिद्धभक्ति कायोत्सर्ग करोम्यहमित्युच्चार्य सामायिकादिविधिं विधाय सिद्धचारित्रशांतिसमाधिभक्तीः प्रयुंजीत । अत्र केचिच्चारित्रभक्त्यनंतरं चैत्यपंचगुरुभक्ती अपि प्रयुंजते । इति क्रियाप्रयोगविधानं । "" ओं जिनपूजामाहूता देवाः सर्वे विहितमहामहाः स्वस्थानं गच्छत २ जः जः " इति विसर्जनमंत्रोच्चारणेन यागमंडले पुष्पांजलिं वितीर्य देवान् विसर्जयेत् ।
इह बहिरवतारप्रत्ययेन बुधानां मखविधिपरिपाट्या भावशुद्धिं विधाय । बहिरिव रविवित्रं ध्वांतमध्यात्मस्यत्सु स्फुरत पुनरखंडं तत्परं ब्रह्म नोद्य ॥ २ ॥ अनेन परब्रह्माध्यात्ममध्यासयेत् । इति देवताविसर्जनाविधानम् ।
भिषेकविधि हुई ॥ १ ॥ जिनेंद्रकी चल प्रतिमाकी प्रतिष्ठाके चौथे दिन स्नान क्रिया होती है । वहां ऐसी करनेकी प्रतिज्ञा होती है । हे भगवन् आपको नमस्कार है यह मैं चल जिन प्र|तिमाकी प्रतिष्ठाके चौथे दिन स्नपन क्रिया करता हूं । अन्य सबविधि समान है । "चल " इत्यादि “ करोम्यहं " तक बोलकर सामायिक, चौवीसजिनस्तुति पढकर सिद्धभक्ति करे । इसीतरह चौत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति, शांति समाधिभक्ति भी करे । और स्थिर प्रतिमा में "तं” इत्यादि " करोम्यहं तक बोलकर सामायकआदि विधि करके सिद्ध चारित्र शांति समा| धिभक्तियोंको करे । यह क्रियाओंका प्रयोग कहा । " ओं ” इत्यादि विसर्जनमंत्र बोलकर पूजाके मांडलेपर पुष्पांजलि चढाकर देवोंका विसर्जन करे। " इह " इत्यादि श्लोक बोल
"
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
माome
प्र०सा .१९८॥
शश्वचेतयते यदुत्सवमिमं ध्यायति यथोगिनो येन प्राणिति विश्वमिंद्रनिकरा यस्मै नमस्कुर्वते । वैचित्री जगतो यतोस्ति पदवी यस्यांतरप्रत्ययो
मुक्तिर्यत्र लयस्तनोतु जगतां शांति परं ब्रह्म तत् ॥ ३॥ अनेन जिनाग्रे शांतिधारा प्रकल्प्यत्यं बलिं दद्यात् । ओं अर्हद्भ्यो नमः सिद्धेभ्यो नमः सूरिभ्यो नमः पाठकेभ्यो नमः सर्वसाधुभ्यो नमः । अतीतानागतवर्तमानत्रिकालगोचरानंतद्रव्यगुण-: पर्यायात्मकवस्तुपरिच्छेदकसम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञानचारित्राद्यनेकगुणगणाधारपंचपरमेष्ठिभ्यो नमः । ओं: पुण्याहं ३ प्रीयंतां ६ ऋषभादि महति महावीर वर्धमानपर्यंतपरमतीर्थकरदेवान् तत्समयपालिन्योSप्रतिहतचक्रचक्रेश्वरीप्रभृतिचतुर्विंशतिशासनदेवताः गोमुखयक्षप्रभृतिचतुर्विशतियक्षा आदित्यचंद्रमंगलबुधबृहस्पतिशुकशनिराहुकेतुप्रभृत्यष्टाशीतिग्रहाः वासुकिशंखपालकोट पद्मकुलिकानंततक्षकमहा || पद्मजयविजयनागाः देवनागयक्षगंधर्वब्रह्मराक्षसभूतव्यतरप्रभृतिभूताश्च सर्वेप्येते जिनशासनवत्सलाः कर परब्रह्मका मनमें ध्यान करे ॥२॥ यह देवताविसर्जनकी विधि हुई। " शश्व” इत्यादि बोलकर जिनदेवके आगे शांतिधारा छोड़के इसप्रकार पूजन करे ॥ ३॥ “ओं अर्ह" इत्यादि बोलकर पुष्प क्षेपण करे । इसमें राजा प्रजा कुटुंब आदि सब जीवोंके कल्याण होनेका चितवन किया जाता है। इसीको पुण्याहवाचन भी कहते हैं “ये सामग्री"इत्यादिसें अर्हतसे
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
C
.
-
-
ऋष्यार्यिकाश्रावकश्राविकायष्ट्रयाजकराजमंत्रिपुरोहितसामंतारक्षिकप्रभृतिसमस्तलोकसमूहस्य शांतिवृद्धिपुष्टितुष्टिक्षेमकल्याणम्वायुरारोग्यप्रदा भवंतु । सर्वसौख्यप्रदाश्च संतु । देशे राष्ट्रे पुरे च सर्वदैव ।। चौरारिमारीतिदुर्भिक्षावग्रहविघ्नौघदुष्टग्रहभूतशाकिनीप्रभृत्यशेषानिष्टानि प्रलयं प्रयांतु, राजा विनयी ११ १ भवतु प्रजासौख्यं भवतु, राजप्रभृतिसमस्तलोकाः सततं जिनधर्मवत्सलाः पूजादानव्रतशीलमहामहोत्सव
प्रभृतिषूद्यता भवंतु, चिरकालं नंदतु । यत्र स्थिता भव्यप्राणिनः संसारसागरं लीलयोत्तीर्यानुपम सिद्धिसौख्यमनंतकालमनुभवंति तच्चाशेषप्राणिगणशरणभूतं जिनशासनं नंदत्विति स्वाहा ।
ये सामग्रीविशेषढिमभरहवाक्षिप्त रवैरिव्रातप्रेष्यत्पताकासततपरिचितज्ञानसाम्राज्यलीलाः। भूतार्थोद्भेदकंदव्यवहरणघटोद्भिद्यपृक्कोक्तियुक्तिक्षिप्तासं मन्यमाना जगदतिपुनते ते जिनाः पातु विश्वम् ॥ ४ ॥ स्फूर्जच्छलश्युदर्चिर्भरमसितदशासाकृतैनःपतंगाः स्वांगाकाराक्षरैकक्षणसमरनिराकारसाकारचित्काः। व्योम्नो विश्वकधाम्नः कृततिलकरुचा प्रष्टमात्मभरीणां
व्याअंतः स्वं सदान्यज्जिवसमयजुमाः संतु सिद्धाः शिकाय॥५॥ कल्याण होनेका तिवम है ॥ ४ ॥"स्कूर्ज” इत्यादि चोलकर सिद्धोंसे कल्याण प्रार्थना॥५॥
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
до что
११९॥
श्रुतष्टतिबलसिंद्धाः पंचधाचारमुचैः शिवसुखमनसो ये चारयंतश्चरति । | शमरसभर संविद्धरयः सूरयस्ते विदधतु जिनधर्माराधनाशिष्टसिद्धिम् ॥ ६ ॥ येऽगमविष्टबहिरंगजिनागमाब्धिपारंगमा निरतिचारचरित्रसाराः । धर्म यथावदनुशासति शिष्यवर्गान पुष्णंतु पाठकवृषा जगतां नमस्ते ॥ ७ ॥ बुढ्ढा ध्यानात्परमपुरुषं तत्त्वतः श्रद्धधानाः ये विद्वांसः स्वयमुपरतप्रत्यनीकप्रतापम् । एकीकुर्वेत्युदयदशयानंदनिष्पतिर्चितास्ते भव्यानां दुरितमनिशं साधवः संहरंतु ॥ ८ ॥ ये मंगललोकोत्तमशरणात्मानं समृद्धमहिमानः |
पांतु जगत्यर्हत्सिद्धसाधु केवल्युपज्ञधर्मास्ते ॥ ९ ॥
सूते भेदाभेदरत्नत्रयात्मानाद्यंतायंतार्थोदितौ भुक्तिमुक्ती ।
| सोस्मिन् राजामात्यपौगदिलोकान् धर्मस्तन्वन शर्म पायादपायात् ॥ १० ॥
""
66
66
श्रुत ” इत्यादि बोलकर आचार्यसे इष्टसिद्धिकी प्रार्थना ॥ ६ ॥ येंग " इत्यादि बोलकर उपाध्यायोंसे प्रार्थना ॥ ७ ॥ बुद्धया " इत्यादि बोलकर साधुपरमेष्टीसे इष्टप्रार्थना ॥८॥ “ ये मंगल " इत्यादि बोलकर अरहंत सिद्ध साधु धर्म-इन चार मंगल लोकोत्तम शरणसे इष्टप्रार्थना करे ॥ ९ ॥ " सृते " इत्यादि बोलकर धर्मसे इष्टप्रार्थना करे ॥ १० ॥ " यास्ती -
भाटी
॥ ११९ ॥
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
यास्तीयकृत्वपदतत्फलतनिमित्तनित्यानुरक्तमतयः प्रभुमाभजति । ता रोहिणीप्रभृतयो दश षट् च विद्यादेव्यः सधर्मनिवहस्य दुइंतु कामान् ॥ ११ ॥
पुरैत्नौद्भूतिपूते निखकरचतुर्वणसर्वप्रणूते संभूताः क्षत्रवंशे नु परम परमब्रह्मालिप्सा प्रशस्याः। पूज्यंते स्वामिभक्त्या त्रिदशपरद्वैर्गर्भजन्मोत्सवे याः
सद्भयो द्विादशाः शं प्रददतु मरुदेव्यादयास्ता जिनांबाः ॥ १२ ॥ लोके यथेष्टमणिमादिगुणाष्टकेन कीडंति ये प्रमुदितप्रमदासहायाः। ऐंद्रध्वजादिजिनयज्ञविधावतंद्रा द्वात्रिंशदादधतु ते सुकृतांशमिद्राः ॥ १३ ॥ ये गोमुखप्रमुखयक्षवृषा वृषादितीर्थकरक्रमसरोरुहचंचरीकाः। तब्रह्मवर्चसमजस्रमुदग्रयंति ते षट्चतुष्कमितयः सुरद ? भव्यान् ॥ १४ ॥ स्फुरत्प्रभावा जिनशासनं याः प्रभावयंत्यो विलसंति लोके ।
‘यक्ष्यश्चतुर्विंशतिराईतानां चक्रेश्वराद्या द्युनता रुजस्ताः ।। १५ ॥ र्थ" इत्यादि बोलकर सोलह विद्यादेवीयोंसे इष्टप्रार्थना करे ॥ ११ ॥ " पुरै" इत्यादि श्लोक बोलकर चौवीस जिनमाताओंसे इष्ट वस्तुकी प्रार्थना करे ॥ १२ ॥ " लोके" इत्यादि । बालकर बत्तीस इंद्रोंसे इष्टप्रार्थना करे ॥१३॥ “ये गोमु" इत्यादि बोलकर चौवीस यक्षोंसे इष्ट प्रार्थना करे ॥ १४ " स्फुरत्प्र” इत्यादि बोलकर चक्रेश्वरी आदि चौवीस यक्षि
-2000
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
|भाण्टी०
॥१२०॥
अ०५
भ्राजिष्णुशक्तिविभवा भवसिंधुसेतुसर्वज्ञशासनविभासनवद्धकक्षाः । याः पूजयंति विविधाद्भुतसिद्धिकामास्ताश्चाष्टविष्टपमबंतु जयादिदेव्यः ॥१६॥ शक्रादेशातीर्थकृद्देवमातृर्याः सेवंते स्वस्वयोग्यनियोगः । ताः सर्वज्ञाराधनातत्पराणां संत्वष्टपि श्रेयसे श्यादिदेव्यः ॥ १७ ॥
। अन्येपि दौवारिकलोकपालग्रहोरगानाहतयक्षमुख्याः ।। - देवा यथास्वं प्रतिपत्तिदृष्टा निघ्नंतु विघ्नान जिनभाक्तिकानाम् ॥ १८ ॥ तद्रव्यमव्ययमुदेतु शुभः प्रदेशः संतन्यता प्रतपतु प्रततं स कालः । भावः स नंदतु सदा यदनुग्रहेण प्रस्तौति तत्त्वरुचिमाप्तगवी नरस्य ॥ १९ ॥ किं बहुना।
शांतिः स तनुतां समस्तजगति संगत्वतां धार्मिकैः
श्रेय:श्री परिवर्द्धतां नयधुराधुर्यो धरित्रीपतिः । योंसे इष्ट प्रार्थना करे ॥ १५ ॥ “भ्राजिष्णु" इत्यादि बोलकर जया आदि आठ देवियोंसे इष्ट प्रार्थना करे ॥१६॥ “ शका " इत्यादि बोलकर श्री आदि आठ देवियोंसे इष्ट प्रार्थना करे ॥१७॥" अन्योप" इत्यादि बोलकर इनके सिवाय अन्य देवताओंसे प्रार्थना ॥१८॥ "तहव्य" इत्यादि बोलकर द्रव्य क्षेत्र काल भावोंके शुभ मिलनकी प्रार्थना॥१९॥ बहुत कहनेसेक्या,सब जगतमें शांति रहे, धर्मात्माओंकी संगति मिले, कल्याण करनेवाली लक्ष्मी
॥१२०॥
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६
0000
सद्विधारसमुद्गिरंतु कवयो नामाप्यधः स्यात्तु मा
प्रार्थ्यं वा कियदेक एव शिवकृद्धर्मो जयत्वईताम् ॥ २० ॥ एतेत्मार्थपरा शक्राः छत्रचामरशालिनीम् । भृंगारहस्ता मुक्तांबुधारापूतपुरो धराम् ॥ २१ ॥ जिनाचमनुयांतोग्रे प्रनृत्यत्कलशांगनाः । महान् तूर्यस्वनैर्भव्यजयकोलाहलोल्वणैः ।। २२ ।। | पूरयंतो दिशः सप्तधान्यपुष्पाक्षतादिभिः । कल्पयंतो बाल शांत्यै त्रिःपरीयुर्जिनालयम् २३ इति बलिविधानम् ।
1
| अथाचार्योऽभिषेक्तव्यः फलपुष्पाक्षतद्युतः । जिनगंधांबुकुंभेन यष्ट्रे दद्यात्तदाशिषम् ||२४||
तद्यथा ।
आयुस्तन्वंतु तुष्टिं विदधतु विधुनंत्वापदो मंतु विधान कुवैत्वारोग्यमुर्वी बलया विलासितां कीर्तिवल्लीं सृजंतु ।
वढे, न्याय मार्ग पर चलनेवाला राजा हो, कविजन उत्तम विद्यारसको प्रगट करें, पापका नाम भी न रहे, अन्य विशेष प्रार्थना क्या करें संसारमें एक मोक्षको दाता जैनधर्मकी ही जय हो । | ॥ २० ॥ आत्मकल्याण करनेमें लीन, छत्र चमर लिये हुए, स्वच्छ जलसे भरी झाड़ीको हाथमें लिए हुए, जिनमूर्तिके आगे नृत्य करते हुए इंद्र, सात तरहके धान्य पुष्प अक्षत आदि पूजा द्रव्यसे पूजा करते हुए जिनमंदिरकी तीन परिक्रमा दें ॥ २१ २२ २३ ॥ यह वलिविधान हुआ । उसके बाद प्रतिष्ठाचार्य गंधोदक अक्षत पुष्प फल दीप धूपसे प्रतिष्ठाविधि करनेवाले
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
मास्टी०
॥१२॥
अ०५
धर्म संवर्धयंतु श्रियमभिरमयंवर्पयंत्विष्टकामान् कैवल्यश्रीकटाक्षानपि जिनचरणाः संजयंतु सदा वै ।। २५ ॥ आज्ञैश्वर्यमकार्यकार्यविचयैः संतानवद्धिर्जयः सौभाग्यं धनधान्याद्धिरभयं निःशेषशत्रुक्षयः । पांडित्यं कविता परार्थपरता कार्तज्ञमोजस्विता मानित्वं विनयो जयश्च भवतादर्हत्प्रसादेन कः ॥ २६ ॥ कांताः कांतिकलानुरागमधुराः पुण्यास्त्रिवर्णोद्धुरा भृत्याः स्वाम्यनुरक्तिशक्तिरुचिरा इच्योतन्मदाः कुंजराः । वाहास्तर्जितशक्रसूर्यतुरगाः शौर्योद्धताः पत्तयो भूयासुर्भवतां जिनेंद्रचरणांभोजप्रसादात्सदा ॥ २७ ॥ गांभीर्यपौदार्यमजर्यमार्यशौर्य सशौंडीर्यमवार्यवीर्यम् ।
धैर्य विपद्यार्जवमार्यभक्तिः संपद्यतां श्रीजिनपूजनाद्वः ॥२८॥ इंद्रको आशीर्वाद दे ॥ २४॥ वह एसे ह कि “ आयु" इत्यादि ग्यारह आशीर्वाचक श्लोक
कर यष्टाके शिरपर अक्षत आदिका क्षेपण करे ॥ २५ से ३५॥ यह आशीर्वाद विधि हुई । उसके बाद यष्टा “ यज्ञोचितं " इत्यादि बोलकर जनेऊ आदिक यज्ञदीक्षाके
॥१२॥
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
भवतु भवतामहद्भक्त्या सदा मुदितं मनो ग्रहमुपचिता चौरौचित्यं प्रदासेन परस्परः । प्रणयविवशैः स्वैसंवौसौदयागयमीहितं स्थितिरपि चिचे प्रज्ञापराधपराहतिः ॥ २९ ॥ स्वसंशुद्धिरतोन्यतोस्तु भवतामहत्पतिष्ठाविधे। जातु कृष्टि कथंचिदीषदपि मा शीलं व्रतं म्लायतु । दूरादेव शिरस्यधीरमरयो बभंतु देवांजलि प्रेम्णा सगुणसंपदा च सुहृदःश्लिष्यंतु पुष्णंतु च ॥ ३० ॥ यष्टणां याजकानां प्रतिनुतिकृतामभ्यनुज्ञायकानां भूयस्यांतःपुरस्य क्षितिपतनुभुवां मंत्रिसेनापतीनाम् । सामंतानां पुरोधः पुरविषयवनादिस्थवर्णाश्रमाणां सर्वेषाभस्तु शांत्यै सततमयमिह स्थापितो विश्वनाथः ॥ ३१॥ विचित्रैः स्वैर्द्रव्यं प्रतिसमयमुद्यद्विपदपि
स्वरूपादुल्लोलेर्जलमिव मनागप्यविचलम् । शचिन्होंको गुरु ( आचार्य ) के चरण कमलोंके आगे रखकर नमस्कार करे। यह यज्ञदीक्ष
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
॥१२२॥
अनेहो माहात्म्याहितनवनवभावमखिलं प्रणिण्वाणाः स्पष्टं युगपदिह ते पांतु जिनपाः ॥ ३२ ॥ ज्यार्थिभिः संविभज्य च यथाविध्येवमेवाथवा निर्विण्णास्तृणवद्विसृज्य कमलां एवं स्वं स्वयं केऽपि ये । संवेद्यामल के वलाचळचिदानंदे सदैवासते
ते सिद्धाः प्रथयंतु वः प्रति शिवश्रीसद्विलासान् सदा ॥ ३३ ॥ ज्ञात्वा श्रद्धाय तत्त्वं भजति समरसास्वादमानान्यनीहा - वृत्त्या घाणानुसर्पन्मरुदनु च कचानष्टमे ब्रह्मरंध्रे । भृश्यत्यह्नाय मोहौ मृतिमयति मनः केवलं चापि भायासन्ध्यानेन येषां प्रमदभरमिमे योगिनस्तन्वर्ता वः ॥ ३४ ॥ नात्यान विस्मयांतर्हितपतनरुजौ दत्तशंपान्वितन्वन् निःश्रेणीकृत्य भोगं वलयितपृथुतन्मूळ पार्द्राहितांत्रि । श्रीकुंड द्रंगगृह्य । वनितरुशिखरा द्यौवतीर्णः स्ववर्ण
व्यासंगं संगमस्य व्यत्रितबहुमहाः वीरनाथः स वोव्यात् ॥ ३५ ॥ विसर्जनकी विधि हुई ॥ ३६ ॥ उसके बाद गुरुकी आज्ञासे शांति पाठ करके कार्यको
भा०वी०
अ० ५
॥ १२२ ॥
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
एता आशिषः पठित्वा यष्टुः शिरस्यक्षतान् क्षिपेत् । इत्याशीर्वादविधानम् । यज्ञोचितं व्रतविशेषवृतो प्रतिष्ठन् यष्टा प्रतींद्रसहितः स्वयमे पुरावत् ।। एतानि तानि भगवन्जिनयज्ञदीक्षाचिन्हान्यथैष विसृजामि गुरोः पदाने ॥ ३६ ॥
एतत्पठित्वा यज्ञोपवीतादियज्ञदक्षिाचिन्हानि गुरुपादमूले संन्यस्य नमस्येत् । इति यज्ञदीक्षा विसर्जनम् । ततो गुर्वनुज्ञया शांतिभक्त्या निष्ठापयेत् । अथ जिनप्रतिष्ठानिष्ठापनक्रियायां पूर्वाचार्यान-16 क्रमेण सकलकर्मक्षयार्थ भावपूजावंदनास्तवसमेतं शांतिभक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहं । शेषं पूर्ववत् । ततश्चैशान्यदिशमष्टदलकमलमालिख्य चैत्याभिमुखमेतत्पठित्वा पंचागं प्रणामादिक्पालेभ्यो निजनि-12 जमंत्रपूतयज्ञांगशेषेण सर्वशः पूजां दत्वा जिनगंधोदकतीर्थोदककलशैः सर्वशांतयेम्भः संप्लावयेत् ।। ज्ञानतोऽज्ञानतो वाथ शास्त्रोक्तं न कृतं मया तत्सर्व पूर्णमेवास्तु त्वत्मसादाजिनप्रभोः॥३७॥
___ततश्च क्षमापणविधिमिममनुतिष्ठेत् । । समाप्त करे। वह ऐसे है कि-" अथ जिन " इत्यादि “करोम्यहं" तक बोलकर समाप्ति विधि करे । उसके वाद समाधि भक्ति करे । उसके वाद ईशान दिशामें आठ पत्रोंवाला || कमल बनाकर प्रतिमाके सामने “ ज्ञानतो " इत्यादि श्लोक पढकर पंचांग प्रणाम करे। फिर पूजाकी बची हुई सामग्री सवको चढानेकेलिये देकर कलशोंसे जलधारा सब विघ्नोंकी शांतिके लिये चढावे । “ज्ञानतो' इत्यादिका अर्थ-हे जिनेंद्र मैंने जानकर अथवा|| अज्ञानसे शास्त्रकथितरीतिसे जो क्रिया नहीं की है वह सब आपके प्रसादसे समाप्त ही हो
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रसा० चतुर्विधमहासंघ संतप्याहारभेषजैः । योग्योपकरणं दत्वा यष्टा संपूजयेत्स्वयम् ।। ३८ ॥ भाटी० Mil अत्र ये द्रष्टुमायाता प्रतिष्ठान्यापूताश्च ये । तांबूलगंधपुष्पाद्यैस्तान संमान्य विसर्जयेत् ।। ३९ ॥
अ० प्रतिष्ठाचार्यमानम्य तस्यात्मानं समर्प्य च । वस्त्रैराभरणाद्यैश्च संपूज्य क्षमयेत्ततः ॥ ४० ॥ समान्य सूत्रधारादीन् स्वर्णवस्त्रानभूषणैः । गांधवनर्तकादींश्च यथार्ह तत्समर्पयेत् ॥ ४१॥ सार्वकालिकपूजार्थं भूसुवर्णापणादिकम् । वित्तानुसारतो दद्यात्पूजोपकरणानि च ॥ ४२ ॥
इति क्षमापना। M॥३७॥ उसके बाद क्षमा करानेकी विधि करे। वह इस तरह है-प्रतिष्ठा करानेवाला यजमान जिनकल्याणक महोत्सवके वाद आहार औषध दानसे मुनि अर्जिका श्रावक श्राविका-इन चारों संघोंको संतुष्ट करके और उनके योग्य धर्मसाधनके उपकरण ( शास्त्र वगैरः ) देकर ? आप उनकी पूजा करे ॥ ३८ ॥ उसके वाद जो प्रतिष्ठा देखनेकेलिये आये हों अथवा प्रतिमाको प्रतिष्ठा करानके अभिप्रायसे आय हा उन सबका पान सुपारी फूलोको माला आदिसे सत्कार करके जानेको कह ॥ ३९ ॥ उसके वाद प्रतिष्ठाचार्यको नमस्कार कर उसका कुछ भेंट देकर कपड़े और आभूषण आदिसे संमानकर क्षमा करावे ॥४०॥ प्रतिष्ठाके सहायक तथा गंधर्व व नृत्यकरनेवालोंको वस्त्र अन्न आभूषण और कुछ धन योग्यताके अनुसार दे ॥2 ४१॥ उसके वाद जिनप्रतिमाकी हमेशा पूजा होनेके लिये जमीन रुपया या कुछ जायदाद आमदनीके अनुसार किजिसमें मंदिर पूजा हमेशा होती रहे और पूजाके उपकरण (वर्तन आदिक)
॥१२॥
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
| इत्य ईत्प्रतिमान्यासविधिव्यासेन वर्णितः । तादृक् सामग्रयभावे सौ मध्यवर्त्यपि कल्पितः ४३
तद्यथा ।
कृत्वा पुराकर्म कृतमंडपादिप्रतिष्ठितिः । मंत्रैरेवार्चयित्वा च मंडलान्यखिलान्यपि ॥ ४४ ॥ प्रतिष्ठेयां निरूप्याच प्रयुक्तसकलक्रियः । संस्कृत्याकरशुद्धयाथ वेदीपीठे निवेशयेत् ||४५ || | कृत्वा कल्याण संस्कारमालामंत्रादिरोहणम् । दत्वा तिलकमंत्राधिवासना संप्रकाशने ॥४६॥ | सन्नेोन्मीलने कृत्वा कृत्वा चाभिषवादिकम् । संक्षेपेणाथ शक्तिश्वेद्युभक्तः स्थापयेत्प्रभुम् ४७ तत्रैकमेव सज्जायाद्यर्चयेद्यागमंडलम् । द्वास्थानंतरमंत्रैव यजेच्च श्रयादिदेवताः ॥ ४८ ॥
वनवाके दे ॥ ४२ ॥ दह क्षमावनीकी विधि समात हुई । इसप्रकार अर्हतकी प्रतिमाकी स्थापना विधि विस्तार से वर्णन की गई है। यदि उतनी सामग्री न हो तो मध्यमरीति से भी स्थापना होसकती है ॥ ४३ ॥ वह इसतरह है । मंडपादि वनवाकर मंडलादिकी रचना कर उन सबको केवल मंत्रोंसे ही पूजकर प्रतिष्ठा होनेवाली जिन प्रतिमाको आकर शुद्धि आदि कही गई विधिसे संस्कारित करके वेदीके सिंहासन पर विराजमान करे ॥ ४४ । ४५ । ४६ ॥ फिर पांच कल्याण संस्कारमालारोपण तिलक अभिषेकादि करे ॥ यह मध्यमरीति है । जिसकी थोड़ी शक्ति हो वह दो बार भोजनकी प्रतिज्ञा कर प्रभुकी स्थापना करे ॥ ४७ ॥ उस
वाद एक यागमंडल की पूजा करे फिर द्वारपाल और श्री आदि देवताओंकी पूजा करके | मंडप के बाहर शुद्ध स्थानमें ऊंचे आसनपर मूर्तिको विराजमान करके अभिषेक करे ।
3000
acco
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
भा०टी०
अ०५
ततो मंडपबायकोदेशेर्चाया सुसंस्कृते । कुर्यादाकरशुद्धिं तां शेषं मध्यवदाचरेत् ॥ ४९ ॥ प्र०सा०
इति मध्यमसंक्षिप्तप्रतिष्ठानुष्ठानविधानम् ।। ॥१४॥
प्रासादस्य ध्वजं चिन्हं तेनासौ शोभते यतः। शुभप्रदश्च सर्वेषां तस्मात्तमधिरोपयेत् ॥ ५०॥ हस्तत्रिभागविस्तीर्णरर्धहस्तायतैः । वस्त्रोत्तमसुसंश्लिष्टैर्ध्वजं निर्मापयेच्छुभम् ॥ ५१ ॥ है सितं रक्तं सितं पीतं सितं कृष्णं पुनः पुनः । यावत्मासाददीर्घत्वं तावत्संघट्टयेत् क्रमात् ५२
चंद्रार्धचंद्रमुक्तासक्किंकिणीतारकादिभिः । नाना सद्रपयुग्मैश्च चित्र पत्रर्विचित्रयेत् ॥५३।। अधश्छत्रत्रयं मूर्धस्तस्याधः पद्मवाहनम् । तस्याधः कलशं पूर्ण पार्श्वयोः स्वस्तिकं लिखेत् ५४ दीपदंडौ लिखेत्स्वस्ति शिखायाः पार्श्वयोस्तथा । पार्श्वयोरातपत्रस्य श्वेतचामरयुग्मकम् ॥५५।। और वाकी क्रियाको अर्थात् क्षमावनी आदिको पूर्वकथित रीतिसे करे ॥ ४८ : ४९ ॥ यह मध्यम और संक्षेपीतसे प्रतिष्ठाकी विधि कही गई है ॥ उसके वाद जिन मंदिरके शिखरपर धुजाको चढावे उससे मंदिरकी शोभा होती है और सबको कल्याण ह होता है ॥ ५० ॥ बारह अंगुल लंबी और आठ अंगुल चौड़ी मजबूत उत्सम कप. सड़की धुजा वनवावे ॥ ५१ ॥ धुजाका कपड़ा सफेद लाल सफेद पीला सफेद काला फिर इसी क्रमसे रंगवाला तयार करावे ॥ ॥२॥ धुजामें चंद्रमा माला घंटरियां तारे इत्यादि अनेक चिन्ह वनाके चित्रित करे ॥५३॥ कलश सातिया दीपदंड छत्र चमर धर्मचक लिखकर धुजाके ऊपर जिनविबका आकार बनावे। उसमें एक छत्र लगावे। उस धुजामें
॥९२४॥
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
442
मूर्धांधो धवलच्छत्रे ध्वजे वा यक्षमालिखेत् । श्यामं चतुर्भुजं हस्तयुग्मेन रचितांजलिम् ५६ पराम्यां दधतं मूर्ध्नि धर्मचक्रमृजुस्थितम् । जिनविंबोर्धमूर्धाने छत्रसमन्वितम् ॥ ५७ ॥ दीपदंडादिसंयुक्तं नानालंकरणान्वितम् । हस्तिपृष्टसमारूढं सर्वज्ञाख्याममुं लिखेत् ॥ ५८ ॥ अशोकासननिर्यासचंपकाम्रकदंबकाः । पूगवंशादयोन्येपि दंडस्य भवभूरुहाः ॥ ५९ ॥ सादायायाममानार्थं त्रिभागं वा चतुर्थकम् । ध्वजदंडस्य मानं तद्यथाशोभं प्रकल्पयेत् ॥ ६०॥ प्रासादस्योर्ध्वतुर्याशे वेदिका वेदिकस्थितम् । आधारं धनदंडस्य यथोक्तं परिकल्पयेत् ॥ ६१ ॥ अथ मंडलमभ्यर्च्य संक्षेपाद् ध्वजदेवता । प्रतिमाप्यानादिसिद्धमंत्रेणाष्टोत्तरं शतम् ॥ ६२ ॥ स्वधिवास्य ध्वजं स्तुत्वा तन्मंत्रेण घृतादिभिः । अशोकाश्वत्थवत्राद्यदर्भमालाभिवेष्टितम् ६३ ध्वजदंडं समभ्यर्च्य ध्यात्वा रत्नत्रयात्मकम् । तच्चूलिकां तथैवाभिषिच्य घीशक्तिरूपिणीं६४ संचिंत्य मंडपपुरो गर्ते शाल्यादिपूरिते । पूजिते दधिदूर्वाद्यैस्तदूर्ध्वं स्थापयेद् दृढम् || ६५ ॥ अशोक चंपा आम कदंब सुपारी वंश आदिके वृक्ष चिन्हित करे ॥ ५४ ५९ ॥ धजाके दंडेका प्रमाण शोभाके अनुसार होना चाहिये ॥ ६० वह प्रमाण मंदिरकी ऊंचाईसे चौथाई हो तो अच्छा है । और वेदीके ऊपर भी धुजा चढाना चाहिये ॥ ६१ ॥ उसके बाद धुजाके मंडल और प्रतिमाकी स्तुतिकरके अनादिमंत्र ( णमोकार मंत्र ) को एकसौ आठवार जपकर धुजाको दंडमें लगाके “ ओं नमो " इत्यादि ध्वजारोपणमंत्रको बोल शुभ लग्रमें शिखर में
1
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रसाIN
.११५॥
अ०५
ध्वजश्च तुर्यसर्घषु तत्र संयोज्य संध्वजम् । ध्यात्वा सर्वगतज्ञानरूपमर्पण मानयेत् ।। ६६ ॥ तस्तं दंडमुद्धृत्य प्रासादं परितःश्रिया । महत्या भ्रमीयत्वा त्रिः सुलग्ने मंत्रमुच्चरन् ॥ ६७॥
ओं नमो अरहंताणं स्वस्ति भद्रं भक्तु सर्वलोकस्य शांतिर्भवतु स्वाहा । ध्वजारोपणमंत्रः ॥ हिरण्यपयसाकर्णेि तस्याधारे समय॑ च । प्रतिपर्व ध्वजं मुंचेत् तैर्मत्राभिमंत्रितैः ॥ ६८ ।। प्रासाद्यं सप्तधान्यौघविरूढकफलोत्करैः । स्नपयित्वार्चितं नव्यैः सहस्त्रैः परिधापयेत् ॥६९ । यावंतः प्राणिनः केतौ लग्नाः कुर्युः प्रदक्षिणाम् । तावंतः प्राप्नुवंत्यत्र क्रमेण विमलं पदम् ७० मुक्ते प्राची गते केतौ सर्वकामानवाप्नुयात् । उत्तराशा गते तस्मिन् स्वस्यारोग्यं च संपदः७१||
यदि पश्चिमतो याति वायव्ये वा दिशाश्रये। ऐशाने वा ततो वृष्टिः कुर्यात्केतुः शुभानि सा७२ | । अन्यस्मिन् दिग्विभागे तु गते केतौ मरुद्वशात् । शांतिकं तत्र कर्तव्यं दानपूजाविधानतः७३ | सांधे ॥ ६२ से ६७ ॥ उस धुजामें यक्षकी मूर्ति बनाके उसका फलआदिसे सत्कार करे। ४फिर धुजाकी परिक्रमा दे। धुजाके कार्य करने में जितने प्राणी सहायता करते हैं वे सब
परंपरासे निर्दोष पदवीको पाते हैं ॥ ६८। ६९ । ७० ॥ धुजा छाड़ने पर पूर्व दिशाकी तरफ जावे तो वह धुजा सब इष्ट कार्योको सिद्ध करती है ॥ ७१॥ पश्चिमादिशामें, तथा वायव्य व ईशानदिशामें फहरानेसे वह धुजा कल्याण करने वाली होती है ॥ ७२ ॥ अथवा हवाके
॥११५॥ निमित्तसे अन्य वची हुई दिशाओंमें लहरानेसे दान पूजा विधिसे शांति कर्म करना चा-18
000न्जन्छन्
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
लन्सलब्लक
कलशादुच्छिते हस्तं ध्वजे नीरोगता भवेत् । द्विहस्तमुच्छिते तस्मात्पुत्रर्द्धिर्जायते परा ।।७४॥ त्रिहस्तं सस्यसंपत्तिर्नृपवृद्धिश्चतुःकरम् । पंचहस्तं सुभिक्षं स्याद्राष्ट्रद्धिश्च जायते ॥ ७५॥
अंवरेण कृतो यः स्याद् ध्वजः सम्यक् समंततः । सोतिलक्ष्मीप्रदो राज्ये यश कीर्तिप्रतापदः । शाभूपालबालगोपालललनानां समृद्धिकृत् । राज्ञां सुखार्थदायी च धान्यैश्वर्यजयावहः ॥७६ ॥ a अत्र विधिपूजितस्य यागमंडलम्याग्रतो वेदिकातले पूवस्यां दिशि ध्वजमवस्थाप्य तद्देवतामित्यं ।
प्रतिष्ठयेत् । ओं ह्रीं सर्वाह्न यक्ष एहि २ संवौषट् । अनेन पुष्पांजलिं क्षिप्त्वा आवाहयेत् । ओं ह्रीं । सर्वाहयक्ष अत्र तिष्ठ २ ठ ठ । अनेन तद्वत्स्थापयेत् । ओं ह्रीं सर्वाह्नयक्ष अत्र सन्निहितो भव भव । वषट् । अनेन तद्वत्संनिधापयेत् । ततः सर्वौषधिविमिश्रतीर्थोदकपूर्णान् कलशान् पुरः संस्थाप्यामृतादि. |मंत्रेण तज्जलमभिमंत्र्य ध्वजालिखितयथाभिमुखं पर्ण स्थापयित्वा गंधाक्षतपुष्पादीन् मंगलोपकरणानि । चाने व्यवस्थाप्य ओं ह्रीं सर्वाह्नयक्ष इदं स्नपनमर्चनं च गृहाण । ओं स्वस्ति भद्रं भवतु स्वाहेति । हिये ॥ ७३ ॥ मंदिरकी शिखरके कलशोंसे एक हाथ ऊंची धुजा आरोग्यताको करती है, दो हाथ ऊंची पुत्रादि संपत्तिको, तीन हाथ ऊंची धान्यसंपत्तिको चार हाथ ऊंची राजाकी वृद्धि, पांच हाथ ऊंची सुभिक्षको तथा राज्यवृद्धिको करती है ॥ ७४।७५ ॥ अब रखकी वनाई धुजा अत्यंत लक्ष्मीकी देनेवाली तथा राज्यमें यशको फैलानेवाली होती है| और राजा प्रजा सबको सुखदाई है ॥ ७६ । ७७ ॥ यहांपर विधिसे पूजित यागमंडलके आगे
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
भान्धी
मंत्रमुच्चार्य तं दर्पणप्रतिबिंबितयक्ष तज्जलैरभिषिच्य गंधादिभिश्चार्चयित्वा मुखवस्त्रं दत्वा नयनोन्मीलनं सुमुहर्ते कुर्यात् । इति ध्वजदेवताप्रतिष्ठाविधानम् । एवं कृत्वा ध्वजारोहं पुण्यं प्राप्याद्भुतं कृती। भुक्त्वा तथादिसुभगः श्रेयोनिर्वृतिमश्नुते ॥७८॥
इति ध्वजारोपणविधानम् । प्रासादप्रतिमे अनेन विधिना ये कारयित्वाहतां भक्त्यानिहुतशक्तयो विदधते नित्याभिषेकादिकान् ।
|वेदीके नीचे पूर्व दिशामें धुजाको रख उसमें चिन्हित यक्ष देवको इसप्रकार प्रतिष्ठित करे। “ओं"ST
इत्यादि षोलकर आवाहन स्थापन सन्निधीकरण करे । उसके वाद सर्वोषधीसे मिलहुए जला-III है|शयके जलसे भरे कलशोंको आगे रख अमृतादि पूर्व कथितमंत्रसे उस जलको मंत्रितकर धुजाके ||
आगे लिखे हुए पत्तेको रख चंदन अक्षत पुष्पोंसे“ओं ह्रीं" इत्यादि मंत्र बोलताहुआ दर्पण|में स्थित यक्षके आकारकी पूजा शुभ मुहूर्तमें करे । यह धुजाकी प्रतिष्ठाविधि कही गई|
॥ इस रीतिसे धुजारोहण करता हुआ बुद्धिमान पुरुष महान पुण्यका उपार्जन करके तथा पुण्यफल भोगके मोक्षसुखको पाता है ॥७८ ॥ यह धुजा चढानेकी विधि पूर्ण हुई ||1|| मोक्षके इच्छुक जो भव्यजीव अर्हत जिनका मंदिर और प्रतिमाको तयार कराके अपनी
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूजाज्ञा विभवाधिपत्यमहिमोदनाः शिवाशापरा
स्ते भुक्त्वा पदवीर्भजति परमानंदैकसद्रिं पदम् ॥ ७९ ॥ इत्याशाधरविरचिते प्रतिष्ठासारोद्धारे जिनयज्ञकल्पापरनानि अभिषेकादिक्षिानीयो नाम पंचमोध्यायः ॥५॥
शक्तिको न छिपाकर भक्तिसहित प्रतिदिन अभिषेक पूजा करते हैं वे उत्तम मोंगोंको भो||गकर परमानंद स्वरूप मोक्ष पदको पाते हैं ॥ ७९ ॥ . इसप्रकार पं० आशाधर विरचित प्रतिष्ठासारोवारमें अभिषेकादि
विधिको कहनेवाला पांचवां अध्याय समाप्त हुआ ॥५॥
ब्लककककन्सन्छन्
-
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रसा
१२७॥
षष्ठोऽध्यायः ॥६॥
भा०टी०
अ०६ अथ सिद्धप्रतिमादिप्रतिष्ठाविधानान्यभिधास्यामःआचार्यों मंडपे रम्ये सद्वद्यां चूर्णसत्तमैः । स्वस्वमंडलमालिख्य संपूज्य तिककद्रवैः॥१॥ हेमादिपाने हेमादिलेखन्या यंत्रमुद्भुतम् । तन्मध्ये न्यस्य जात्यादिपुष्पैरष्टोत्तरं शतम् ॥२॥ |स्वस्वमंत्रेण संजप्य निविश्योत्तरमंडपे । वेद्यास्नपनपीठे! धूलीकुंभेन पूर्ववत् ॥ ३ ॥ स्नपयित्वा मंगळादिद्रव्यसंदर्भगर्भितेः । तीर्थाबुसंभृतैः कुंभ ? पल्लवैः ॥४॥ दघिदूर्वाक्षतकुशस्त्रकूचित्रमत्रसंस्कृतैः . प्रापय्याकरशुद्धिं प्राक् यंत्रस्योपरि विष्टरे ॥ ५॥ ...........कीर्त्य तस्यांमारोप्य तद्गुणान् । आवाहनादिकं कृत्वा तां युज्यात्तन्मयीं स्मरन्। अब सिद्ध आदिकी प्रतिमाकी प्रतिष्ठाविधिको कहते हैं । प्रतिष्ठाचार्य सुंदर मंडपकी सुंदर म वेदीमें उत्तम चूर्णसे अपने २ मांडले लिखकर पूजे। फिर घिसे हुए चंदन या कुंकुसे सोनें|४| आदिके पात्रमें सोने आदिकी सलाईसे यंत्र लिखकर उसमें एकसौ आठ चमेलीके पुष्पोंको रख अपने २ मंत्रसे मंत्रित करे । फिर उत्तर मंडपमें वेदीके अभिषेकके। सिंहासनपर प्रतिमाको रख जलादिसे अभिषेक पहलेकी तरह करे।॥१२।३।४।५॥ उसके बाद उस प्रतिमामें उसके गुणोंका स्थापनकर तन्मयी स्मरण करता हुआ आवाहना-16
॥१२॥
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
20Soब्लकन
तिळकेन सुलग्नेधिवास्य व्यक्तास्यलोचनं । ततोऽभिषिच्य चाम्यर्चेत्ततः कुर्यात् क्रियाधिकम् ।
ततो विशेषः। शस्नानादिविधिमाधाय सिद्धचक्रं यथागमम् । उद्धृत्य वेदिकापीठे न्यस्य श्रीचंदनादिभिः ॥॥ls संपूज्य सिद्धमात्मानं ध्यायनष्टोत्तरं शतम् । जातीपुष्पैर्जपेन्मूलमंत्रेण ज्ञानमुद्रया ॥ ९॥
ओंकाराधो श्रिभागी वलयनन्यस्तम निमद्वं ही पिंडात्मादितौनाहतममृतपृषत्स्यदिनालं लिखित्वा । अस्यौसेत्यौ नयो युक् सकलशशिकृतं तद्वहिस्तद्वहिस्तु संज्ञानालोकचर्या बलतप इति चानादिसंसिद्धमंत्रः ॥१०॥ तद्वचाथ स्वरोयं वसुदलकमलं चांतरे तद्दलाना
मों ह्रीं श्रीं है मुखात्यानिलवियदमुखा शेषवर्गश्च युक्तम् । दि करे ॥ ६ ॥ फिर शुभ लग्नमें तिलकविधि मुखोद्घाटन नेत्रोन्मीलन आदि पूर्वोक्त क्रिया करके अभिषेकपूर्वक पूजा करे ॥७॥ यहां एक क्रिया विशेष है कि स्नानादिविधि करके शास्त्रके अनुसार सिद्धचक्रको चंदनादिसे वेदीपर लिखकर पूजके सिद्ध आत्माका ध्यान र करता हुआ ज्ञानमुद्रासे एकसौ आठ चमेलीके फूलोंसे जाप करे ॥ ८॥९॥ “ ओंकारा" इत्यादि तीन श्लोकोंमें कही गई विधिके अनुसार सिद्धचक्र वनावे ॥१०।११ । १२॥
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
कन्छन्
भान्टी०
१९८॥
अ०६
विन्यस्यानाहतेंते शिरसि विरहितं चांतरालेषु चाचं पंचानां सतायनां बलयतु कुशलः कोरुधामा ययात्रिः ॥११॥ पत्रांतर्मत्रपूर्वजिनवितनुचतुस्तीर्थसंमेधचक्रपादू वाक्यैणे...ततनुमयानाहतग्रंथनाचैः । स्वस्वस्थानस्थिताशेषमुपरि दधतं सप्तकं वारकं वा रवर्णा ब्रह्माणं च स नग्रहमवनिवृतं सत् करि रं करोति ॥ १२॥
इति वृहत्सिद्धचक्रोद्धरणम् । सानी सार्धेदुीर्ष अ....................................... ।
पेतोद्यसारं विनयमुखगुरूद्दिष्टवर्णाविशिष्टं .
मंत्रेद्धां सैद्धचक्रं विदधतु सुधियोध्यात्ममध्यात्मवुद्धांम् ।। १३ ॥ ओं ह्रीं श्रीं अहे असि आ उ सा इदं वारि गंध................ ।
ऊवधिो रयुतं सविंदु सपरं ब्रह्मस्वरावेष्टितं
वर्गापूरितदिग्गतांबुजदलं तत्संघितत्त्वान्वितम् । यह वृहत्सिद्धचक्रका उद्धार हुआ। “सानी" इत्यादि श्लोकमें कथित रीतिसे लघु सिद्धचक्र वनाके “ओं " इत्यादि बोलकर जलादि चढावे ॥१३॥ "ऊर्ध्वाधो" इत्यादिमें
|॥१२॥
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥
अंतःपत्रतटेष्वनाहतयुतं हीकारसंवेष्टितं
देवं ध्यायति यः स मुक्तिसुभगो वैरीभकंठीरवः ॥ १४ ॥ इति लघुसिद्धचक्रोद्धरणं । अत्रायं मंत्रः । ओं अर्ह अ सि आ उ सा ही अर्ह स्वाहा । शेषं पूर्ववत् । ततोभिषिच्य तीर्थी धाकुंभैःमागुक्तकल्पनैः। गुणैरिवार्चामष्टाभिः सिद्धस्तोत्रं पुरो हितम्॥१५॥ पठित्वा तद्गुणागेपप्रभ्टत्यापाद्य ता स्परन् । साक्षात्सिद्धं तिलकयेच्चंदनेन सहेदुना ।।१६॥ आकारशुद्धिं कृत्वा यस्यानुग्रहेत्यादि सिद्धस्तोत्रमधीत्य प्रतिमोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् । ततः
आकारैवियुतं युतं च युगपन्निध्यातवोद्धस्फुटं विश्व स्वाभिनिवेशसौम्यमसमानदैकसंवेदनं । स्वस्वादक्षसमक्षमाक्षयतमस्थामावगाहोत्तमं ।
भात्वत्रागुरुलध्वनंतगुणमप्यष्टात्मसैद्धं वपुः ॥१७॥ कहे गये सिद्धचक्रका उद्धार करके " ओं" इत्यादि मंत्रका जाप करे ॥ १४॥ यह लघुसिद्धचक्रका उद्धार हुआ। शेष विधि पहले की तरह करे । फिर सिद्ध प्रतिमाका जलसे || भरे हुए घड़ोंसे आभषेक कर आठ गुणोंको स्मरण करता हुआ तिलक विधि करे॥१५॥१६॥ आकारशुद्धि करके “ यस्यानुग्रह " इत्यादि पूर्व कथित सिद्ध स्तोत्रका पाठ करके प्रति
१७
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
॥ १२९ ॥
एतत्पठन्नच समंतात् परामृशेत् । गुणारोपणम् । ओं ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरिमेष्टिभ्यो 1 नमः अत्रागच्छ । ओं ह्रीं तिष्ठ २ ठ ठ स्वाहा । ह्रीं मम सन्निहितो भव २ वषट् स्वाहा । आवाहनादिमंत्रः । असि आ उ सा सिद्धाधिपतये नमः । तिलकमंत्रः ।
ततश्च मुखवस्त्रादिविधीन कृत्वावहेत् क्रियाम् । सिद्धभत्तयैवमाचार्याद्यचन्यासेपि कल्पयेत्।। ओं ह्रीं सिद्धाधिपतये मुखवस्त्रं ददामीति स्वाहा । मुखखस्त्रमंत्र । ओं ह्रीं सिद्धाधिपतये || मुखवस्त्रमपनयामीति स्वाहा । श्रीमुखोद्घाटनमंत्रः । ओं ह्रीं सिद्धाधिपतये प्रबुध्यस्व २ ध्यातृजनमनांसि पुनीहि पुनीहीति स्वाहा | नेत्रोन्मीलनमंत्रः । ओं ह्रीं सिद्धाधिपतिं तीर्थोदकेनाभिषिंचामीति स्वाहा । तीर्थोदकस्नपनम् । ओं ह्रीं पुंड्रेक्षु प्रमुख र सैराभिषिंचामीति स्वाहा । रसस्नपनं । ओं ह्रीं हैयंI गवनघृतेन स्नपयामीति स्वाहा । वृतस्नपनम् । अह्रीं धारोष्णगव्यक्षीरपूरेणाभिषुणोमीति स्वाहा । दुग्धस्नपनं । ओं ह्रीं जगन्मंगलेन दना स्नपयामीति स्वाहा । दधिस्नंपनं । अह्रीं दिव्यप्रभूतसुरभिकपायद्रव्यकल्कक्काथ चूर्णैरुपस्करोमीति स्वाहा । उद्वर्तनादिविधानम् । ओं ह्रीं विचित्र पवित्रमनोरमफलैरमाके ऊपर पुष्पांजलि क्षेपण करे। उसके बाद “ आकारै " इत्यादि बोलकर प्रतिमाका चारों तरफसे स्पर्श करे ॥ १७ ॥ “ ओं ह्रीं " इत्यादि मंत्रसे आवाहनादि करे “ असि ” | इत्यादि तिलकमंत्रसे तिलकदान विधि करे । उसके बाद मुखोद्घाटन नेत्रोन्मीलन सिद्ध| भक्ति आदि विधी करे । इसीतरह आचार्य आदिकी भी प्रतिमास्थापनामें पूर्वकथित
1
Genrece
भा०टी०
अ० ६
॥ १२९ ॥
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
वतारयामीति स्वाहा । फलावतारणं । ओं परमसुरभिद्रव्यसंदर्भपरिमलगर्भतीर्थीबुसंपूर्णसुवर्णकुमाष्टकतो
येन परिषेचयामीति स्वाहा । कलशाष्टकाभिषेकः । एष मंत्र आकरशुद्धयभिषेकेपि योज्यः । ओं ह्रीं | सापरमसौमनस्यनिबंधनगंधोदकपूरेणाप्लावयामीति स्वाहा । गंधोदकस्नपनमंत्रः । ओं ह्रीं असि आ|
उ सा सिद्धाधिपतिं लोकोत्तरनारधाराभिः परिचरीमीति स्वाहा । तीर्थोदकमंत्रः । एवं हरिचंदनप्यूह्यं भी मंत्राष्टकम् । हरिचंदन इव कलमक्षतपुंजाष्टकमंदारप्रमुखकुसुमदामर्द्धि विविधसान्नायाधनसारदशामुखप्रदीपितदीपकाष्टकसुगंधद्रव्यसंयोजनादिशेषसंभूतध्वजधूपघटाष्टकबंधुरगंर्धवणरसप्रीणितबहिरंतःकरणम-18 हाफलस्तवकाष्टकजलादियज्ञां दूर्वादर्भदधिसिद्धार्थादिमंगमद्रव्यावनिर्तितमहाघसत्कारापेचारैः परिचरा-21 |मीति स्वाहा । जलाद्यर्घातसपर्याविधानम् । ततः क्रियां कृत्वाभिमतप्रार्थनार्थमिदं पठित्वा पुष्पांजलि प्रकल्पयेत् ।
आयुर्दाघयतु व्रतं द्रढयतु व्याधीन् व्यपोहत्वयं श्रेयांसि प्रगुणीकरोतु वितनोत्वासिंधु शुनं यशः। शत्रून् शातयतु श्रियोभिरमयत्वश्रांतमुन्मुद्रय
त्वानंदं भजतां प्रतिष्टित इह श्रीसिद्धनाथः सताम् ॥ १९॥ क्रिया कर ॥ १८ ॥ “ओं" इत्यादि मंत्र बोलकर मुखोद्धाटन नेत्रोन्मीलन जलादि मि-18 षेक पूजा आदि क्रिया करनी चाहिये । उसके वाद इष्ट प्रार्थनाके लिये “ आयु" इत्यादि
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
॥१३॥
ततश्च पूर्ववाद्विसर्जनादिकमनुतिष्ठेत् इति सिद्धप्रतिष्ठाविधानम् । अथाचार्यप्रतिष्ठाविधानम् । भा० गणभृद्वलयं वेद्यामम्यर्च्य स्लपयेच्च तम्। पंचाचारान् स्मरेत्पंच कलशांश्चतुरः पुनः॥२०॥ चतुरोत्रानुयोगांश्च............नित्रीणि तन्मनाः ॥ २१ ॥ ततो महर्षिस्तवनं पठित्वा चतुरो विधीन् । कृत्वा तिलकयेत्साक्षात्सूर्यादीन् प्रतिमा स्मरन्॥२२|| मुखवस्त्रादिकर्माणि विधाय च विधि ततः। क्रियाकांडोदितां कृत्वा यथावद्विधिमाचरेत् ॥२३॥
अथ गणधरवलयमनुशिष्यते । पूर्व षट्कोणचक्रेक्ष्माबीजाक्षरं लिखेत् तदुपरि अर्ह इति न्यसेत् || तस्य दक्षिणतो वामतश्च ह्रीं विन्यसेत् पीठादधः श्री न्यसेत् । ततः ओं अ सि आ उ सा स्वाहेत्यनेन । श्रीकारस्य दक्षिणतः प्रभृत्युत्तरतो यावत्प्रादक्षिण्येन वेष्टयेत् । ततः कोणेषु षट्स्वपि मध्ये अप्रतिचक्रे । फडिति सव्येन स्थापयेत् । तथा कोणांतरालेषु विचक्राय स्वाहेति षड्डीजानि झौंकारोत्तराणि अपसव्ये । श्लोक पढकर पुष्पांजलि क्षेपण करे ॥ १९ ॥ फिर पर्वकी रीतिसे विसर्जन आदि करे । यह सिद्धप्रतिमाकी प्रतिष्ठा विधि कही गई ॥ अब आचार्यप्रतिष्ठाकी विधि कहते हैं । बुद्धि मान् गणधर वलय (चक्र) को वेदीमें स्थापन कर पांच कलशोंसे स्वपन करे और दर्शनाचार आदि पांच आचारोंको स्मरण करता हुआ उस चक्रकी पूजा करे ॥२०॥ फिर चार अनुयोगोंका चितवन करके महर्षिस्तवन पढके तिलकादि क्रिया करे ॥ २१।२२ २३ ॥
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
साविन्यसेत् । तद्वहिर्वलयं कृत्वाष्टसु पत्रेषु णमो निणाण, णमो, ओहिजिणाणं णमो कुट्टबुद्धीणं, णमो | बीजबुद्धीणं, णमो पदाणुसारीणं-इत्यष्टौ पदानि क्रमेण लिखेत् । ततस्तद्वहिस्तद्वत् षोडशपत्रेषु णमो संभिण्णसोदाराणं, णमो पत्तेयबुद्धाणं, णमो सयं बुद्धाणं, णमो वोहियवुद्धाणं, णमो उजुमदीणं, णमो || विउलमदीणं, णमो दसपुवीणं, णमो अटुंगमहाणिमित्तकुसलाणं, णमो विउव्वणइड्डिपत्ताणं, णमो |||| मासिज्जाहराणं, णमो चारणाणं, णमो समणाणं, णमो आगासगामीणं, णमो आसिविसाणं, णमो दिट्ठिविसाणं-इति षोडशपदानि विलिखेत् । ततस्तद्वहिस्तद्वच्चतुर्विंशतिपत्रेषु णमो घोरगुणपरक्कमाणं, णमो घोरगुणवंभयारीणं, णमो आमोसहिपत्ताणं, णमो खेल्लोसहिपत्ताणं, णमो जल्लोसहिपत्ताणं, णमो ? विडोसहिपत्ताणं, णमो सव्वोसहिपत्ताणं, णमो मणवलीणं, णमो वचिवलीणं, णमो कायवलीणं, णमो || स्वीरसवर्वाणं, णमो सप्पिसवीणं, णमो महुरसवीणं, णमो अमियसवीणं, णमो अक्खीणमहाणसाणं, णमो वड्डमाणाणं, णमो लोए सब सिद्धायदणाणं, णमो भयवदो महदि महावीर वड्डमाण बुद्धिरिसीणं । चतुर्विशतिपदान्यालिख्य ह्रींकारमात्रया त्रिगुणं वेष्टयित्वा क्रौंकारेण निरुद्धय बहिः पृथ्वीमेडलं ह्रीं श्रीं अर्ह असि आउसा अप्रतिचक्रे फट् विचक्राय झौं झौं स्वाहा । अनेन मध्यपूजां ||
विदध्यात् । णमो अरहताणं णमो जिणाणं इत्यादि ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः असि आउसा अप्रतिचक्रे झौं । Al" अथ " इत्यादिसे कहे गये गणधरचक्रको वनावे । और पूर्वकी तरह आकरशुद्धि आदि
क्रिया करके " निर्वेद " इत्यादि महर्षि स्तवन पढता हुआ आचार्य आदिकी प्रतिमाको
0न्सलल
.
.
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
म० सा०
॥१३१॥
नौं स्वाहा । एतेष्ट चत्वारः । अथ पूर्ववदाकरशुद्धयादिकं कृत्वा निर्वेदत्यादि महर्षिस्तवनं पठनच समंतात्परामृष्य गुणारोपणं कुर्यात् । ओं हूं णमो आइरियाणं आचार्यपरमेष्ठिन्नत्र एहि २ संवौषट् ओं हूं तिष्ठ २२, ओं हूं मम सन्निहितो भव २ वषट् । तथा ओं ह्रीं णमो उवज्झायाणं | उपाध्यायपरमेष्टिन्नत्र एहि २ संवौषट् ओं ह्रौं तिष्ठ २ ठ ठ ओं ह्रौं सन्निहितो भव भव वपट् । तथा ओं हः णमो लोए सव्वसाहूणं साधुपरमेष्ठिन्नत्र एहि २ संवौषट् । ओं ह्रः तिष्ठ २ ठ ठ, ओं हः सन्निहितो भव २ वषट् । इत्याचार्यादीनामावाहनादिमंत्राः । ततश्च ओं हूं णमो आइरियाणं धर्माचाराधिपतये नमः इत्यादिमंत्रैः सिद्धप्रतिमावात्तलकादिविधीन् विदध्यात् । एवमुपाध्याय साधुपरमेष्टिनोरपि कल्पः कल्पयेत् ॥ इत्याचार्यादिप्रतिष्ठाविधानम् । अथ श्रुतदेवतादिप्रतिष्ठाविधानम् ।
आ ह
वेद्यां सारस्वत्यं यंत्रं विलिख्य तस्य शोधनम् । अनुयोगैरिवाचार्यश्चतुर्भिस्तीर्थवार्घटैः।। २४ यंत्रेच न्यस्य गां स्तुत्वा कृत्वा कर्मचतुष्टयम् । ........त यन्मूलमंत्रेणान्यं विधिं सृजेत् २५ स्पर्श करके उसमें गुणोंका स्थापन करे । फिर " ओं हं " इत्यादि बोलकर आचार्य | उपाध्याय सर्वसाधुका आवाहन आदि करें । उसके बाद " इत्यादि मंत्र से सिद्ध प्रतिमाकी तरह तिलक आदि विधि करे । यह आचार्य आदि धर्मगुरूकी प्रतिष्ठाविधि हुई | | अब सरस्वतीकी प्रतिष्ठा विधि करते हैं । प्रतिष्टाचार्य वेदीमें सारस्वत यंत्र लिखकर उसको | सामनेके दर्पण में प्रतिबिंबित कर चार जलके घड़ोंसे अभिषेक करे । उस यंत्रमें सरस्वतीकी मूर्तिको रख स्तुतिपूर्वक पूजा करे तथा सरस्वतीमंत्र का जाप करे ॥ ॥ २४:२५ ॥
0000000
मा०टी०
अ० ६
॥१३१
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
__ अथ सारस्वतमंत्रमनुशिष्येत् । पूर्व कर्णिकायां ह्रींकारमालिखेवाह्ये हंकारं सविसर्गसकारं || च लिखित्वा ओं ह्रीं श्रीं वद २ वाग्वादिनि भगवति सरस्वति ही नमः इत्यनेन मूलमंत्रण वेष्टयेत् । तद्वहिः पूर्वादिक्रमेण चतुर्पु ओं वाग्वादिन्यै नमः, ओं भगवत्यै नमः, ओं सरस्वत्यै नमः, ओं श्रुतदेव्यै नमः । इति चतुराख्या लिखेत् । तद्वहिरष्टसु पत्रेषु ओं नंदायै नमः, ओ स्तंभिन्यै नमः इत्यादि चाष्टौ देवीलिखेत् । तद्वहिश्च षोडशपत्रेषु ओं रोहिण्यै नमः इत्यादि मंत्रैः षोडश विद्यादेवीः स्थापयेत् । ततः पूर्वाद्यष्टदिक्षु इंद्राय स्वाहेत्यादिमंत्ररंष्टौ दिक्पालान् विन्यसेत् । पूर्वेशानदिशोश्चांतराले ओं अधोनागेभ्यः स्वाहेति नागान् विन्यसेत् ।। पश्चिमदिक्पालस्योपरिष्टाच्च ओं ऊर्ध्वब्रह्मणे नमः इति परमब्रह्म प्रतिष्ठयेत् । इंद्रादधश्च ओं ह्रीं मयूरवाहिन्यै नमः इति वागधिदेवतां स्थापयेत् । ततस्त्रिायामात्रया क्रौंकारेण निरुध्य तदावेष्टय : बहिः पृथ्वीमंडलं विलिखेत् इति । अथ ओं ह्रीं श्रुतदेव्यः कलशस्नपनं करोमीति स्वाहा । इत्यनेन । कलशानभिमव्याकरं शोधयेत् । ततो बोधेनेत्यादि श्रुतदेवीस्तवनं पठित्वा प्रतिमोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
बारह अंगं गिज्जा दंसणतिलया चरित्तवच्छहरा ।
चोदसपुत्वहराणं ठावे दव्याय सुयदेवा ॥ २६ ॥ अब सरस्वतीयंत्रका उद्धार दिखलाते हैं। पहले कार्णका ( वीचके भाग ) में : " ह्रीं" लिखे उसके बाहर " हं सः " लिखकर “ओं ह्रीं श्रीं वद २ वाग्वादिनि भग-1.
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
॥१३२॥
आचारं शिरसि सूत्रकृत् वक्रासु के ठेका । स्थानेन समवायागव्याख्याप्रज्ञप्तिदोलताम्।। २७ वाग्देवतां ज्ञातृकथोपासकाध्ययनस्तनी । अंतकृद्दशसन्नः भिन्नुत्तरदृशां गतः ॥ २८ ॥ सुनितंबा सुजघना प्रष्णव्याकरणश्रुतात् । विपाकसूत्रग्वादचरणांवरां ? ॥ २९ ॥ सम्यक्त्वतिलकां पूर्वचतुर्दश विभूषणाम् । तावत्यकीर्णको दीर्णचारुपत्रांकुरश्रियम् ॥ ३० ॥ आप्तदृढप्रवाह वद्रव्यभावाधिदेवताम् । परब्रह्म प्रथादृशां स्वादुक्ति भुक्तिमुक्तिदाम् ||३१|| | | सर्वदर्शन पाखंडदेवदैत्यं खगार्चिता । जगन्मातरमुद्धर्तुं जगदत्रावतारयेत् ॥ ३२ ॥ विति सरस्वति ह्रीं नमः " इस सरस्वतीमंत्रको चारों तरफ वेढें । उसके बाहर पूर्व आदि दिशाके क्रमसे चार पत्तोंपर " ओं वाग्वादिन्यै नमः " इत्यादि चारोंको लिखे । उसके बाहर आठों पत्तोंपर " ओं नंदायै नमः " इत्यादि आठ देवियोंको लिखे । उसके बाहर सोलह पत्तोंपर " ओं रोहिण्यै नमः " इत्यादि सोलह विद्यादेवियों को लिखे । उसके बाद पूर्व आदि आठ दिशाओं में " इंद्राय स्वाहा ” इत्यादि मंत्रोंसे आठ दिक्पालों को स्थापन करे । पूर्व और ईशान्य दिशाओंके वीचमें " ओं अधो नागेभ्यः स्वाहा | लिखकर नागकुमारकी स्थापना करे । पश्चिम दिशा के दिक्पालके ऊपर " ओं ऊर्ध्वब्रह्मणे | नमः " ऐसा लिखकर परमब्रह्मकी स्थापना करे। इंद्रक नीचे ओं ह्रीं मयूरवाहिन्यै नमः लिखकर सरस्वती देवीकी स्थापना करे । उसके बाद तीनवार ईकारसे तथा क्रों | से बेढकर बाहर पृथ्वीमंडल लिखे ॥ फिर " ओं हीं " इत्यादि मंत्रसे कलशोंको मंत्रितकर
""
(6
"
भा०टी०
अ० ६
| ॥१३२॥
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
____ओं अर्हन्मुखकमलवासिनि पापानि क्षयं कर श्रुतज्वालासहस्रप्रज्वलिते सरस्वति मम पापं । शहन २ क्षां क्षी तं सौं क्षः क्षीरवरधवले अमृतसंभवे वं वं हुं स्वाहा । एतत्पठन् प्रतिमायां अंग-2
प्रत्यंगपरामर्श कुर्यात् । गुणारोपणं । ओं ह्रीं श्रीं अत्र एहि २ संवौषट् , ओं ह्रीं तिष्ट २ ठ ठ, ओं ह्रीं सन्निहितो भव वषट् । आवाहनादिमंत्रः । ततो मूलमंत्रेण तिलकं दत्वा पूर्ववदधिवासनाविधीन् । विदध्यात्। |शुभे शिलादावुत्कीर्य श्रुतस्कंधमपि न्यसेत् । ब्राह्मीन्यासविधानेन श्रुतस्कंधमिह स्तुयात् ३३ || सुलेखकेन संलिख्य परमागमपुस्तकम् । ब्राह्मी वा श्रुतपंचम्यां सुलग्ने वा प्रतिष्ठयेत् ३४ आकरशुद्धि करे। उसके बाद “बोधेन ” इत्यादि श्रुतदेवीका स्तवन पढकर प्रतिमाह ऊपर पुष्पांजलि क्षेपण करे । उसके बाद “ बारह " इत्यादि सात श्लोक तथा “ओं अर्ह " ? इत्यादि मंत्र बोलकर सरस्वतीप्रतिमाके अंगोंका स्पर्श करें ॥ २६ ते ३२ तक ॥ फिर
गुणोंका स्थापन करे । उसके वाद “ओं" इत्यादि मंत्र बोलकर आवाहन आदि करे । & उसके बाद मूलमंत्रसे तिलक देकर पूर्वरीतिके अनुसार अधिवासना आदि क्रियाओंको करे । उत्तम शिला आदिमें सरस्वतीकी मूर्ति खुदवाकर स्थापना करके स्तुति करे ॥३३॥ अथवा परमागमके शास्त्रोंको अच्छे विद्वान् लेखकसे लिखवाकर श्रुतपंचमीके दिन शुभ|||| लग्नमें सरस्वतीप्रतिष्ठा करे ॥ ३४॥
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रसा०
अत्र त्वाकारशुद्धयादिविधिमादर्शविंघिते । कुर्यादिति श्रुतस्कंधं स्तुयात्सूत्रोदितं स्मरेत ॥३५॥ भाण्टी० ॥१३॥
आचार्यादिगुणान् शस्य सतां वीक्ष्य यथायुगम्।गुर्वादेःपादुके भक्त्या तन्नयासविधिना न्यसेत् । घटयित्वा जिनगृहे तत्प्रतिष्ठामहोत्सबे । निषेधिकां प्रतिष्ठाय रक्षकांगो जनाननौ ॥ ३७॥ नीत्वा निवेशयेदत्र पठित्वाराधनास्तवम् । ध्यायेत् प्रसिद्धं संन्यासं समाधिमरणादिषु॥३८३ बहिरेवाथ निर्माप्य तां स्वस्थाने निवेशिताम् । स्वयं जप्त्वा प्रियं वाहत्प्रतिष्ठातिलकक्षणे॥३९/१ प्रापय्य तिलकं तत्र गत्वा शेषविधि स्वयम् । कुर्यादिंद्रः सः ततः संघः कुर्यायथागमम् ४० :
तत्रैव वा प्रतिष्ठोक्तविधि सर्व समासतः । कृत्वा प्रतिष्ठयेल्लग्ने तां वा वीरशिवक्षणे ॥४१॥ 15 इति श्रुतदेवतादिप्रतिष्ठाविधानम् । अथ यक्षादिप्रतिष्ठा ।
यहां पर अभिषेक आदि क्रिया दर्पणमें प्रतिबिंबित करके करनी चाहिये । इस प्रकार : जिनसूत्रकथित रीतिसे श्रुतस्कंधकी पूजा करे ॥ ३५ ॥ आचार्य आदिके गुणोंकी स्तुति करके गुरुकी पादुका ( चरणयुगल ) वनवाके उनकी स्थापना करे ॥ ३६॥ जिनमंदिरमें एक समाधिकी जगह वनावे वहां गुरुकी पादुकाओंको स्थापन करके ? उनके गुणोंका तथा समाधिमरणका चितवन करे ॥ ३७॥ ३८ ॥ ३९ ॥ वहांपरं तिलक आदि विधि वह इंद्र आप भी करे तथा अन्य श्रावकोंसे शास्त्रानुसार करावे ॥४०॥ उस जगह यदि संक्षेप विधि करनी हो तो आगमके अनुसार सरस्वती आदिकी प्रतिष्ठा गुरुप्रतिष्ठाके समय तथा महावीर प्रभुके मोक्षकल्याणके दिन
॥१३३॥
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
यक्षादयो जिनार्चाकमस्तकास्तत्मतिष्ठया । प्रतिष्ठेयास्ततोन्येषां प्रतिष्ठाविधिरुच्यते ॥४२॥ अव्युत्पन्नशां शांतकूरैहिकफलांश्च ते। त............प्रकाशार्थ मंत्रवादे स दर्शितः॥४३॥ सत्पुष्पमंडपे रात्री पंचतीर्थजलोक्षिते । यक्षादिप्रतिविवे........धिवासयेत् ॥ ४४ ॥ अथौं ही क्रों मुखं स्थाप्यमावाहनादिगर्भितम् । संवौषट् होमपर्यंतमंत्रं पद्मवरे लिखेत्४५/५ प्रकीर्णचूर्णे दर्भेण वेदिपृष्टे तथाष्टसु । आदिदेवीतले ओकारेषु चतुर्वतः ॥ ४६॥ तेजोमायादिहोमातान् लिखेरपंचदश क्रमात् । तिथिदेवान् ग्रह ............पुरान् ॥ ४७॥ आयुधान्यष्ट तुर्ये तु पंचमं भूपरे लिखेत् । पत्रमंडलमभ्यर्च्य विधिवत्तं प्रतिष्ठयेत् ॥ ४८ ॥ | ओं ह्रीं क्रौं सुवर्णवर्णवृषभवाहनपरशुफलाक्षमालावरदानांकितचतुर्भुनवृषचक्रधर्मचक्रालंकृतमस्तकगोमुखयक्षाय संवौषट् स्वाहेति मंत्र कर्णिकायामालिख्य तद्वहिरष्टसु पत्रेषु ओं ह्रीं क्रौं श्रियै ।। शुभलग्नमें करे ॥ ४१ ॥ इसतरह श्रुतदेवताकी प्रतिष्ठा विधि समाप्त हुई । अब यक्ष : आदिकी प्रतिष्ठा कहते हैं । यक्ष आदिक देव भगवानकी प्रतिमाके रक्षक होते हैं इसलिये उनकी मूर्तिकी भी प्रतिष्ठा करे ॥ ४२ ॥ जो अज्ञानी हैं वे “शांत कर इस लोकके फलके देनेवाले हैं " ऐसा समझकर उनकी पूजा प्रतिष्ठा करते हैं। यह कथन मंत्रवाद शास्त्रोंमें दिखाया गया है ॥ ४३ ॥ यक्षादि देवोंकी प्रतिष्ठा पांच स्थानोंके जलसे प्रतिबिंबका अभिषेककर रात्रिमें करनी चाहिये ॥४४॥ " अथौं " इत्यादि चार श्लोकोंमें कथित कियासे आवाहन आदि करे ॥ ४५ से ४८॥"ओं"|
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
लन्छन्
प्र०सा० संवौषट् स्वाहेत्यादि दिक्कुमारीमंत्रानष्टौ तद्वहिर्वलयांतः, ओं ह्रीं क्रौं यक्षवैश्वानररक्षो नहतपन्नगासुर | भाण्टी०
* कुमारसंविश्वविद्यमालिचमरवैरोचनमहाविद्यमारेवियेश्वरपिंडभुगभिधानपंचदशतिथिदेवान् संस्थापयामि अ०६ १३४॥
स्वाहेति तिथिदेवाः पंचदश तबहिर्वलयांतः, ओं ह्रीं क्रौं सूर्यसोमांगारकसौम्यगुरुभार्गवशनिराहुकेतून् । संस्थापयामि स्वाहेति ग्रहदेवान्नव तद्वहिर्मडलांतः, ओं ही क्रौं किंनरेंद्रकिंपुरुषंद्रमहोरगेंद्रगंधवेंद्रयझेंद्रराक्षसेंद्रभूतेंद्रपिशाचेंद्रान् संस्थापयामि स्वाहेति विलिखेत् । एवंमंडलं वर्तयित्वा स्वस्वमंत्रैर्यक्षादि । देवान् जलगंधादिभिरभ्यर्च्य कलशाष्टकादिभिर्वेदी भूषयेत् । अथ स्नपनमंडपे:तां प्रतिमामानीय दर्भप्रस्तरे । धान्यप्रस्तरे वा स्थापयित्वा क्रमेण स्नापयेत् । ततस्तत्रैव वेदिकायां नवकलशान् सर्वालंकारोपेतान् ।। सर्वोषधिसंमिश्रशुद्धयंत्रमंत्रान्विततीर्थजलपरिपूर्णान् शालिप्रस्तरोपरि लिखितमायावीजां संलेख्य | तत्पश्चिमभागे स्नपनपीठ स्थापयित्वा प्रक्षाल्यालंकृत्य तदुपरि भुवनाधिपतिं लिखित्वा अक्षतपुष्प-2 दर्भान् विरचय्य तत्तत्प्रतिनां तत्र संस्थापयित्वा पंचोपचारविधिनाभ्यर्च्य वाहनाष्टकलशैमत्रपूर्वकम ||१| भिषिच्य चतुर्नीराजनं कृत्वा पुष्पांजलिपूर्वकमेकादशमभिषेकं मध्यकलेशनामृतमंत्रेण कुर्यात् । तेजोमायादिकाख्यानं क्रियान्वितम् । तत्तत्पल्लवसंयुक्तं करोम्यंतपदं स्मरेत् ॥ ४९ ॥
॥१३४॥ इत्यादिमें कथित विधिसे पूजा करे । अमृतमंत्रसे यक्षप्रतिमाका अभिषेक करे। “ तेजो" इत्यादि बोलकर “ अथैव" इत्यादिसे कही हुई विधिसे स्थापना करे ॥४९॥ इसीप्रकार
-
-...
.
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
.
.
अथैवमाकारशुद्धिं विधाय मूलवेद्या नवधीतवस्त्रसदर्भाक्षतपुष्पं प्रस्तीर्य तत्र तत्प्रतिमां निवेश्याभ्यर्च्य कांडाप्रदूर्वाग्रेण प्रोक्षणं विधाय शांतिहोमं यक्षमंत्रेण कृत्वा पुण्याहं घोषयित्वा पूर्वोक्तविधिना सुमुहूर्ते तिलकं दद्यात् ततोधिमानादिविधि विधाय वस्त्राभरणमाल्यादिभिरभ्यर्च्य विसर्जनादिकं कुर्यात् । ततः प्रभृति च तानि संपूजयेत् ।। एप एव च शेषाणां यक्षाणां स्थापनाविधिः । यक्षीणां च मितः....... भेदाश्रयौ भवेत'५० क्षेत्रपालं कर्णिकायां मंत्रपत्रायुधादिभिः । सचूर्णवेद्यामालिख्य पत्रेष्वष्टसु संलिखेत् ॥५१॥81 समंत्रान् दिक्पतीनिंद्रादधोभागानुपर्यपि । वरुणस्य लिखेत्सोमं मायोर्वीभ्यां च वेष्टयेत् ५२|| तत्पमं पूजयेद्धपुष्पधूपाक्षतादिभिः । अथ तत्पतिमां रात्रिमुषितां दर्भसंस्तरे ॥ ५३॥ ॥ तीर्थांबुस्नपितां तत्र निवेश्यारोप्य तद्गुणान् । आवाहनादि कृत्वा च सूत्रयुक्त्या प्रतिष्ठयेत् ५४|| | ओं हां क्रौं घोरांधकारसप्रभमंडलगदाधारणव्यग्रोग्रचतुर्भुज अत्र क्षेत्रपालाय संवौषट् स्वाहेति ।
कर्णिकायामालिख्य पूर्वादिदलेष्वष्टसु । ओं हीं इंद्राय स्वाहेत्यादिक्रमेण दिक्पालान् संस्थाप्य इंद्राधः Maओं ही नागेभ्यः स्वाहेति वरुणादूर्ध्व च ओं ही सोमाय स्वाहेति विन्यस्य बहिर्मायामात्रया त्रिःप-||
रिक्षिप्य क्रौंकारेण निरुध्य भूमंडलेन वेष्टयेदिति मंडलवर्तनम् । यक्षी क्षेत्रपाल वरुण आदिकी प्रतिष्ठा “ एष" इत्यादि पांच श्लोकोंमें कथित रीतिसे
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
॥१३५॥
नुर्ध्वा धृतासिफलकः सव्येन राह्वासितं श्वानं सिंहसमं करेण भयदामन्येन विभ्रद्रदाम् । नागालंकरण: किलाशु डमरुकारावेोल्वणांत्रिकसेखतर्धरमत्रयोस्त्यधिकृतः क्षेत्रे स साक्षादयं ॥ ५५ ॥
ओं ह्रीं नियुक्त क्षेत्रपाल अत्रावतरावतर संवौषट् आवाहनं, ओं ह्रीं अत्र तिष्ठ २ ठ २ स्थापनं, ओं ह्रीं मम संनिहितो भव २ वषट् सन्निधापनम् । ततः सूत्रोक्तविधिना तिलकं दत्वा | धिवासनादिकं कृत्वा सद्वस्त्रभूषादिभिः सत्कुर्यात् । इति यक्षादिप्रतिष्ठाविधानम् । अथ पत्रादिप्रतिष्ठा । श्रीचंदनादिवेद्यां तु पट्टादौ सम्यगुद्धृतम् । सिद्धचक्रादि संपूज्य तत्पत्रं पुष्पमंडपे ॥ ५६ ॥ मंगलद्रव्य सर्वोषध्पुन्मिश्रतर्थिवारिणि । निशामुषितमानयं निवेश्य स्त्रपनमंडपे ॥ ५७ ॥ आप्लाव्य दुग्धदध्याज्यैः प्राग्वन्मंत्राभिमंत्रितैः । प्रक्षाल्य मृत्स्ना श्रीखंड तीर्थपाक्षौभिरादरात् करे ॥ ५० से ५४ ॥ " ओं ह्रां " इत्यादि कथित रीतिसे मांडला बनावे | "हृप्य" इत्यादि श्लोक तथा " ओं ह्रीं " बोलकर क्षेत्रपालका आवाहन आदि करे ॥ ५५ ॥ उसके वाद जिनशास्त्र कथित विधिसे तिलक देकर अधिवासना करके उत्तम वस्त्र आभूषणादिकांसे सत्कार करे | यह यक्षादि प्रतिष्ठाकी विधि हुई । अब तांवे आदिके खुदे हुए पत्रोंकी प्रति - ष्ठाविधी कहते हैं। चंदन आदिकी बनी हुई वेदीमें पटे पर सिद्धचक्र आदिकी पूजा करे ॥ ॥ ५६ ॥ फिर मंगलद्रव्य सर्वोषधिसे मिले हुए जलाशयके जलसे अभिषेक करे ॥ ५७/५८ ॥
भा०टी०
अ०६
॥१३२॥
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
.
-
-
पूर्वपूजितचक्राग्रे न्यस्य ध्यात्वा च तन्मयम् । तत्पक्षालनमादाय तत्स्थाने न्यस्य तेन तत५९४ संस्नाप्य सुमुहुर्तेतर्भूतत्वे विस्तीडया । मूलमंत्रं प्रजपते स्थापयेच्चंदनगुना ॥ ६ ॥ ततोऽभिषिच्य संपूज्य महार्पणाभिराध्य तत् । कुर्याच्छेषविधिनित्यं पूजयेच्च तदादि तत् । ६१।। चित्रादिर्वा प्रतिष्ठायामपि योज्योल्पशो विधिः। स एवाकरशुद्धयादिविधिः कुर्यात्तु दर्पणे६२॥ अक्षादिस्थापना त्वद्य जिनादीनां न कारयेत् । प्रायो लोकः कलौ क्षुद्रः कल्पयत्यन्यथा हि ताम् एकाशीतिपदं पार्च्य स्थाप्यमहत्स्वभाद्यपि । लोकं जिनादि तचैत्यं निचितांशत्तु संस्मरेत्॥६४|
एवं व्याससमासदर्शनपरं स्वोपज्ञधर्मामृत
ग्रंथांगं जिनयज्ञकल्पमकरोदाशाधरः श्रेयसे । उसके वाद जिसका यंत्र हो उसके मूलमंत्रका जाप करे । जाप करनेके वाद अभिषेक पूर्वक उस यंत्रकी पूजा करे । इसतरह प्रतिदिन पूजा करनी चाहिये ॥ ५९ । ६०।६१॥ चिबाम आदिकी अभिषेकविधि दर्पणमें प्रतिविबिंत करके करनी चाहिये ॥ ६२ अर्हत आदि ।
मूर्तिकी तदाकार स्थापना करनी चाहिये । क्योंकि कलियुगमें मिथ्याती पुरुष विपरीत यही कल्पना कर डालते हैं । इसलिये चौपड़की तरह मूर्तिकी अतदाकार स्थापनाका ! निषेध किया गया है ॥ ६३ ॥ पूर्वकथित इक्यासी पत्रोंका यंत्र पूजाकर प्रतिमाकी स्थापना करनी योग्य है ॥ ६४ ॥ इसप्रकार विस्तारसे तथा संक्षेपसे जिनप्रतिष्ठा आदिकी
ब्लन्कन्छ
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
॥१३६॥
crorre
एनं सम्यगधीत्य ये गुरुमुखानुध्वा तदर्थं क्रिया निर्मास्यति सुमेधसो बुधनताः प्राप्स्यति ते निर्वृत्तिम् ।। ६५ ।। इत्याशाधरविरचिते प्रतिष्ठासारोद्धारे जिनयज्ञकल्पापरनाम्नि सिद्धादिप्रतिष्ठा विधानयो नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
| विधिको कहनेवाले जिनयज्ञकल्प द्वितीय नामवाले प्रतिष्ठासारोद्धार ग्रंथको "C मुझ आशाधरने " कल्याण होनेकेलिये किया है। जो भव्यजीव गुरुके मुखसे इसको पढकर इसकी क्रियायें करेंगे वे बुद्धिमान देवोंसे पूजित हुए परंपरासे मोक्षको पायेंगे ॥ ६५ ॥ इसप्रकार पं० आशाधर विरचित जिनयज्ञकल्प दूसरे नामवाले प्रतिष्ठासारोद्धार में सिद्ध आदिकी मूर्तिप्रतिष्ठाको कहनेवाला छठा अध्याय समाप्त हुआ ॥ ६ ॥
भा०टी०
अ० ६
॥१३६॥
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
GOOGOee
ग्रंथकर्तुः प्रशस्तिः ।
फ
श्रीमानस्ति सपादलक्षविषयः शांकभरीभूषणस्तत्र श्रीरतिधाम मंडलकरं नामास्ति दुर्गे महत् । श्रीरत्न्यामुदपादि तत्र विमलव्याघेरवालान्वयाच्छ्री सल्लक्षणतो जिनेंद्रसमय श्रद्धालुराशाधरः ॥ १ ॥
| सरस्वत्यामिवात्मानं सरस्वत्यामजीजनत् । यः पुत्रं छाहडं गुण्यं रंजितार्जुनभूपतिम् ||२|| | व्याघेर बाल वरवंशस रोजहंसः काव्यामृतौघरसपानसुतृप्तगात्रः ।
| सल्लक्षणस्य तनयो नयविश्वचक्षुराशाधरो विजयतां कलिकालिदासः ॥ ३॥ इत्युदय सेन मुनिना कविसुहृदा योभिनंदितः प्रीत्या । प्रज्ञा पुंजोसीति च योभिमतो मदनकीर्तियतिपतिना ॥ ४ ॥ म्लेच्छेशेन सपादलक्षविषये व्याप्ते सुवृत्तक्षति - त्रासाद्विध्यनरेंद्रदोः परिमलस्फूर्जचिवर्गोजसि । प्राप्तो मालवमंडळे बहुपरीवारः पुरीमा वसन् यो धारामपठज्जिनप्रमितिवाक्शास्त्रे महावीरतः ॥ ५ ॥
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा
॥१३७॥
आशापरत्वं मयि विद्धि सिद्धं निसर्गसौंदर्यमजयमार्य ।
सरस्वतीपुत्रतया यदेतदर्थे परं वाच्यमयं प्रपंचः ॥ ६ ॥ इत्युपश्लोकितो विद्वद्विल्हणेन. कवीशिना । श्रीविंध्यभूपतिमहासांधिविग्रहिकेण यः ॥७॥ श्रीमदर्जुनभूपालराज्ये श्रावकसंकुले । जिनधर्मोदयार्थ यो नलकच्छपुरेऽवसत् ॥ ८॥
यो द्राग्व्याकरणाब्धिपारमनयच्छुश्रूषमाणान्न कान् सतर्के परमास्त्रमाप्य नयतः प्रत्यर्थिनः कौक्षिपत् । चेरुः के स्खलितं न येन जिनवाग्दीपं पथि ग्राहिताः पीत्वा काव्यसुधा मतश्च रसिकेष्वापुः प्रतिष्ठा न के ॥९॥ स्याद्वादविद्याविशदप्रसादः प्रमेयरवाकरनामधेयाः। तर्कप्रबंधो निरवद्यविद्यापीयूषपुरे वहतिस्म यस्मात् ॥ १० ॥ सिद्धयकं भरतेश्वराभ्युदयसत्काव्यं निबंधोज्ज्वलं यस्रविद्यकवींद्रमोहनमयं स्वश्रेयसेऽरीरचत् । योऽईद्वाक्यरसं निबंधरुचिरं शास्त्रं च धर्मामृतं
निर्माय न्यदधात मुमुक्षुविदुषामानंदसांद्रे हृदि ॥११॥ आयुर्वेदविदामिष्टां व्यक्त वाग्भटसंहिताम् । अष्टांगहृदयोद्योतं निबंधमसृजच्च यः॥१२॥
*
D॥१३७॥
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
--
मा
यो मूलाराधनेष्टोपदेशादिषु निबंधनम् । व्यधत्तामरकोशे च क्रियाकलापमुज्जगौ ॥१३॥ रौटस्य व्यधात्काव्यालंकारस्य निबंधनम् । सहस्रनामस्तवनं सनिबंध च योईताम् ।१४।। अर्हन्महाभिषेका विधि मोहतमोरविम् । चक्रे नित्यमहोद्योतं स्नानशास्त्रं जिनेशिनाम् ॥१५॥ रत्नत्रयविधानस्य पूजामाहात्म्यवर्णनम् । रत्नत्रयविधानाख्यं शास्त्रं वितनुतेस्म यः॥१६॥
प्राच्यानि संचर्च्य जिनप्रतिष्ठाशास्त्राणि दृष्टा व्यवहारमैद्रं । आम्नायविच्छेदतमाश्छिदेयं ग्रंथः कृतस्तेन युगानुरूपः ॥ १८॥
खांडिल्यान्वयभूषणाल्हणसुतः सागारधर्मे रतो वास्तव्यो नलकच्छचारुनगरे कर्ता परोपक्रियाम् । सर्वज्ञार्चनपात्रदानसमयोद्योतप्रतिष्ठाग्रणी पापात्साधुरकारयत्पुनरिमं कृत्वोपरोधं मुहुः॥१९॥ विक्रमवर्षसपंचाशीति द्वादशशतेष्वतीतेषु । आश्विनसितांत्यदिवसे साहसमल्लापराक्षस्य ॥१९॥ श्रीदेवपालनृपतेः प्रमारकुलशेखरस्य सौराज्ये ।
नलकच्छपुरे सिद्धो ग्रंथोऽयं नेमिनाथचैत्यगृहे ॥२०॥ अनेकाईप्रतिष्ठाप्तप्रतिष्ठैः केल्हणादिभिः । सद्यः सूक्तानुरागेण पंठित्वायं प्रचारितः ॥२१॥
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
॥१३८॥
अलमतिप्रसंगेन । यावत्रिलोक्यां जिनमंदिरा स्तिष्ठति शक्रादिभिरर्व्यमानाः । तावज्जिनादिप्रतिमाप्रतिष्ठाः शिवार्थिनोऽनेन विधापयंतु ॥ २२ ॥
किंच। नंद्यात्खाडिल्यवंशोत्यः केल्हणो न्यासक्त्तिरः।
लिखितो येन पाठार्थमस्य प्रथमपुस्तकम् ॥ २३ ॥ इति प्रशस्तिः ।
इत्याशाधरविरचितो जिनयज्ञकल्ापरनामा प्रतिष्ठासारोद्धारः समाप्तः । अब ग्रंथकारकी प्रशस्ति कहते हैं-“ श्रीमान् " इत्यादि श्लोकसे लेकर २३ तक पं० आशाधरका वक्तव्य दिखलाया गया है ॥ १ से २३ ॥ इति पं० आशाधर विरचित जिनयज्ञकल्प द्वितीम नामवाला प्रतिष्ठासारोद्धार समाप्त हुआ ॥
8 समाप्तोऽयं प्रतिष्ठापाठः । * १" सनिबंधं यश्च जिनयज्ञकल्पमरीरचत् । त्रिषष्ठिस्मृतिशास्त्रं यो निवन्धालंकृतं व्यधात् ॥१॥
यह श्लोक सागारधर्मामृतकी प्रशस्तीमें है।
कलकलन्कन्सन्कन्सर
॥१८॥
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रतिष्ठासारोद्धारका परिशिष्ट ।
+se+ मित्यात्मावृतिहानिमूलविभवं लब्ध्यक्षराद्यागमग्रामोद्दामवपुः प्रकांडमुचिताचारादिशाखोच्चयम् । बाह्यश्रुत्युपशाखमुक्तिसुदलं सद्युक्तिपुष्पश्रुतस्कंधं स्वर्थफलाकुलं घनशमच्छायं भजेच्छिदे ॥ १॥ पट्त्रिंशत्रिशतैरवग्रहमुखैः स्मृत्यादिभिः सोजसा मत्यै स्वावरणक्षयोपशमस्वस्वांतोत्थयात्मा यया ।
देशेनेहसि संकरव्यतिकरापोहेन वस्तूचिते योग्यं द्वादशधा बहुप्रभृतिभिर्विद्यात्पुरश्चारुदृक् ॥ २॥ हा एतद्वयं पठित्वा श्रुतस्कंधस्थापनार्थ पुस्तकोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् । लोकालोकदृशः सदस्यसुकृतैरास्याद्यदर्थश्रुतं निर्यात ग्रथितं गणेश्वरवृषेणांतर्मुहूर्तेन यत् । आरातीयमुनिप्रवाहपतितं यत्पुस्तकेष्वर्पितं तज्जैनेंद्रमिहार्पयामि विधिना यष्टुं श्रुतं शाश्वतम् ॥ या विधियज्ञप्रतिज्ञानाय पुस्तकोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् । सर्पच्छीकरवारवारितपतद्धांधभंगवजं निर्यत्या कनकाद्रिशंगसवयोभंगारनालाननात् । स्वर्गगाद्युपनीतपूतसुरभिद्रव्याढ्यवार्धारया स्यात्कारजननी जगद्विजयिनी जैनी यजे भारतीम् ॥४॥जलं।
१. यहांसे सरस्वतीदेवीकी पूजाका आरंभ है । इससे पहलेका " इंद्र " इत्यादि पाठ दूसरे अध्यायमें आगया है।
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र० सा०
॥१३९
50005006
| अंतस्तापनिवर्हिणां बहु बहिस्तापच्छिदा शालिना मंदामोदविधायिनीमनुपदामादानुलानालिना । स्याद्वादामृतगर्भिणीं परिणमत्कर्पूररेणुश्रिणा श्रीखंडेन महाम्यखंडमहिमब्रह्माप्तयेर्हरिम् ॥ ५ ॥ गंध । घ्राणाप्रीणनचातुरीचणगुणोत्कर्षाविशेषोन्मिषज्जिघ्रासापरिबद्धधारणिरणत्सारंगगानोन्मदान् | प्रत्याख्यातमघामदान्मधुरिमोद्गारौघवल्गद्रसान् । वाग्देवीमभिपुंजयामि ललितान् शाल्यक्षतानक्षतान् ॥ ६ ॥ अक्षतं ।
।
मंदारादिसुरगुजैः सरसिजैर्जातीजयापाटलामल्लीचं पकनीप कुंदवकुलाशोकादिजैश्च स्मितैः । सत्पुष्पैर्मकरंदमेदुररजः किंजल्कगुंजमद्भृगैः कांचनपुष्पकादिभिरपि प्राचमि जैनीं गिरम् ||७|| पुष्पम् शाल्यन्नं शुचिहेमपात्रनिचितं बाष्पायमाणं मुहुः पक्वान्नं घृतपाकखंड तुहिनव्योषादिसंस्कारवत् । नानाव्यंजन जातमुत्कटरसं रोचिष्णुपुष्यद्रुचे रुच्यै चारु चरूकरोमि भगवद्वाग्देवतायाः पुरः || ८ || नैवेद्यम् | | विश्वोद्योत परंपराकृतहरिच्चक्रांधकारोदयैर्नित्यानंदसुधास्रुतं नयनमुत्पीयूषवर्षक्रियैः ।
स्वस्त्याशीःस्तुतिगीतमंगलमिलद्वादित्रनादोल्बणं श्रीवाणीं मणिदीपकैरुपचराम्या रूढभा क्तिग्रहः || ९ || दीपम् || धूपैर्योग विशेष सज्जित जगद्बाणैकपेयस्फुरत्पर्यायांतर चारुगंधलहरीरज्यन्निलिंपव्रजैः ।
नासा हृद्गलनेत्रतर्पणतपन्मृद्वग्निसंगाच्छलद्धूमव्याप्तककुन्मुखैर्भगवतीं गां धूपयाम्याहतीम् ॥ १० ॥ धूपं आम्रैर्लुबिमनोरमैरुपचितैश्चोचैर्गुलुछो चितैर्मोचै जैबुभिरम्बुदोदयमुदैरन्यैरपीदृग्विधैः । ईषत्पक्कसुपक्वपाकविहितैौत्सुक्यामवाने तर वक्त्युद्यद्र सवर्णगंधसुभगैश्वाये जिनोक्तिं फलैः ॥
११ ॥ फलं ।
Decor
प०शि०
॥१३९॥
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
उन्न्न्न्न्छ
सांविग्नप्रियधर्मभक्तिरसिका मेधाविनेयात्मनां कर्तुं सूरिवरैरनुग्रहमिमां सर्वज्ञवाक्पद्धतिम् । तां न्यस्तामिह पुस्तकेष्वधिकृतश्रीदेवतांगेषु वा सद्वस्त्रैः परिधापयामि विविधैः सद्बोधसंसिद्धये॥१२॥वस्त्रं । गंधाढ्योदकधारया हृदयहृद्धैर्विशुद्धाक्षतै रोचिष्णुप्रसवैर्विचित्रचरुभिः स्फारस्फुरद्दीपकैः । गीर्वाणस्पृहणीयधूमविलसद्धूपैः सुधारुकफलस्तोमैः स्वस्तिकपूर्वकैश्च रचितं श्रुत्यै ददे विभोः ॥ १३ ॥ | पुष्पांजलिः । नमोस्तु श्रुतज्ञानभक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहम् णमो अरहंताणमित्यादि। * देवि श्रीचतुराननप्रभुमुखांभोजाधिवासोत्सवे ब्राह्मि ब्रह्मकलाविकाशिनि जगन्मातस्तमोनाशिनि । शएतानस्खलितस्वभक्तिनटितानध्यास्य शश्वद्यशोविद्यायुवसुविक्रमैरुपचिनु ब्रह्मादियज्ञे धिनु ॥ १४ ॥ एतत्पठित्वा प्रणमेत् । इति श्रुतपूजाविधानम् ।
अथ गुरुपूजा। सदा सम्यक्त्वार्के प्रतपति विधूतांधतमसं लसद्विश्वालोकं विलसति विताकनयने । भजते ये वृत्तामृतमृषिजने संविभजते घटत्पुष्टिं तेषामिह गणभृतां भानुचरणाः ॥ १५ ॥ | पादुकास्थापनम् । इमास्तिस्रो गुप्तीरिव शमयितुं कल्मषरजश्चरंती चिऽछक्तीरिव बहिरुतान्वेष्टुमहितान् । सुवर्णालूनालात्सुरभिवपुराप्तानुपतिता लुठंतीरब्धाराः क्रमभुवि गुरूणां प्रणिदधे ॥ १६ ॥ जसधारा ।
१ अब गुरु पूजा कहते हैं।
न्
-
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र०सा०
॥ ४०॥
मुमुक्षूणां प्रेखन्नखमणिमयूखव्यतिकरादर्भीक्ष्णं शीर्षाणि प्रणतिषु पुनः शेखरयतः । भवांभोधेः सेतूनृषिवृषभपादान् वृषसृजः सृजामः श्रीखंडद्रवतिलकलक्ष्मीविलसितान् ॥ १७ ॥ गंधं । गुणग्राम प्रेमगुणन परिणामोल्बणमनोवचः कायोपायार्जित सुकृतपुंजप्रतिभटैः । शरण्यत्रैगुण्यप्रणयनमनाचार्यचरणानुपस्कुर्मोऽमीभिस्त्रिभिरमलशाल्यक्षतचयैः ॥ १८ ॥ अक्षतं । | दृढ म्युद्यद्भक्तिप्रणतमुमनोमौलिसुमनः समागच्छद्भृगोन्मदनमकरंदैकाचभिः । परागोद्गाराभिः प्रवरसुमनोभिः सुमनसां नमस्या नमो मुनिपरिवृढांघी नघहृतः ॥ १९ ॥ पुष्पं । | विचित्रैस्त्वग्नासानयनरसनाह्लादनगुणैर्यथास्वं रुक्मादिप्रकृतिषु सुपात्रेषु निचितैः । परब्रह्मास्वादप्रमद्भरनिर्वाणमनसां क्रमेणाचार्याणां वयमुपचरामश्चरुवरैः || २० || चरुं । | विसर्पत्कर्पूरप्रणयमधुरा मोदनयनप्रियार्चिः संदोह प्रमथिततमः स्तोमसुभगैः । प्रदीपैरुद्दीपीकृतसुकृतपाथेयसुपथां स्फुरच्छायीकुर्मश्चरणकमलान्यार्यमहताम् ॥ २१ ॥ दीपं । इमैर्धूमैर्धूमध्वजमुखपतद्धूपपटलाद्विसर्पद्भिः स्वैरं प्रतिदिशमुपास्तिव्यसनिनाम् । मनांसि प्रीणद्भिः सुसितमनसाचारचतुरैः स्वयं धूपायामश्चरणवरधौरेयचरणान् ॥ २२ ॥ धृपं । | जगल्लक्ष्मीलीलातरलघवलापांगसुभगस्मितच्छायैः श्रेयश्चयमुदयदोजः फलयितुम् । सुरभ्यैश्चोचाम्रक्रमुकफलपूरप्रभृतिभिः फलैः स्फारीकुर्मो गणिचरणपीठाग्रधरणीम् ॥ २३ ॥ फलं ।
0000000
प०शि०
॥१४०॥
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
| पयोधारात्रय्यामलयजरसैरक्षतचयैः प्रसूनैर्नैवेद्यैः प्रमदभरतो दीपनिकरैः । वरैर्धूपोद्गारैः फलचयकुशाद्यैश्च रचितं विदध्मोर्चे सूरिक्रमसरसिजोत्ताररुचिरम् ॥ २४ ॥ अर्धे । पंचाचाराचरणसचिवाचारणैकक्रियाणां स्फारस्फूर्जद्गुणचितयशःशुभ्रिताशाधराणाम् । | सेत्सूरीणामिति विधिकृताराधनाः पादपद्माः श्रेयोस्मभ्यं ददतु परमानंदनिःस्वंदसांद्रम् ॥ २५ ॥ एतत्पठित्वा पंचांगप्रणामं कुर्यात् । गुरवः पांत्वित्यादिः ।
अथ प्रतिष्ठासारसंग्रहस्य श्लोकाः ।
1
शुद्धं शुद्धात्मसद्भावं सिद्धसंज्ञानदर्शनम् । सिद्धं शुद्धप्रमाणाप्तिनिरस्तपरदर्शनम् ॥ १ ॥ | विश्वकर्मा थिंलोकस्य विश्वकर्मे । पदेशकम् । विश्वकर्मक्षयार्थिभ्यो विश्वकर्मक्षयप्रदम् ॥ २ ॥ आदिदेवं जिनं नौमि विश्वकर्मजयं प्रभुम् । शेषांश्च वर्धमानांतजिनान् प्रवचनं गुरून् ॥ ३ ॥ | विद्यानुवादसत्सूत्राद्वाग्देवी कल्पतस्ततः । चंद्रप्रज्ञप्तिसंज्ञायाः सूर्यप्रज्ञप्तिसंज्ञिकात् ॥ ४ ॥ तथा महापुराणार्थात् श्रावकाध्ययनश्रुतात् । सारं संगृह्य वक्ष्यहं प्रतिष्ठासारसंग्रहम् ॥ ५ ॥ तत्र तावत्प्रवक्ष्यामि प्रतिष्ठाचार्यलक्षणम् । तस्योपदेशतो वक्ष्ये विश्वकर्मप्रवर्तनम् ॥ ६ ॥ शरण्यं सर्वभूतानां वरांगगुणभूषणम् । नत्वा जिनेश्वरं वीरं वच्म्याचार्येद्रयोर्गुणम् ॥ ७ ॥
१ यहसि वसुनंदि आचार्यकृत प्रतिष्ठासारसंग्रहका आरंभ है।
Cootsee0000 eac
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रसा०
एन्कन्छ
प०शि०
॥१४॥
आचारादिगुणाधारो रागद्वेषविवर्जितः । पक्षपातोझितः शांतः साधुवर्गाग्रणीगणी ॥ ८ ॥ अशेषशास्त्रविच्चक्षुः प्रव्यक्तं लौकिकस्थितिः । गंभीरो मृदुभाषी च स सूरिः परिकीर्तितः ॥ ९ ॥ कुलीनो जातिसंपन्नः कुत्साहीनः सुदेशनः । कल्याणांगो रुजाहीनः प्रसन्नः सकलेंद्रियः ॥ १० ॥ शुभलक्षणसंपन्नः सौम्यरूपः सुदर्शनः । विप्रो वा क्षत्रियो वैश्यो विकर्मकरणोज्झितः ॥ ११॥ ब्रह्मचारी गृहस्थो वा सम्यग्दृष्टिनितेंद्रियः । निःकषायः प्रशांतात्मा वेश्यादिव्यसनोज्झितः ॥१२॥ उपासकव्रताचार्यों दृष्टसृष्टक्रियोऽसकृत् । श्रद्धालुभक्तिसंपन्नः कृतज्ञो विनयान्वितः ॥ १३ ॥ व्रतशीलतपोदानजिनपूजासमुद्यतः । जिनवदनकर्मादिष्वनुष्ठानपरः शुचिः ॥ १४ ॥ श्रावकाध्ययने दक्षः प्रतिष्ठाविधिविन्सुधीः । महापुराणशास्त्रज्ञो वास्तुविद्याविशारदः ॥ १५ ॥ एवंगुणो महासत्त्वः प्रतिष्ठाचार्य इष्यते । नचार्थार्थी न च द्वेषी भ्रष्टलिंगी कलंकवान् ॥ १६ ॥ नैव पाखंडिपुत्रो वा देवद्रव्योपजीविकः । नाधिकांगो न हीनांगो नातिदीघों न वामनः ॥ १७ ॥ न निकृष्टक्रियावृत्ति तिवृद्धो न बालकः । गीतवाद्योपजीवी नो भांडो वैतालिको नटः ॥ १८ ॥ उन्मत्तो ग्रहग्रस्तो वा भोजने पक्तिवर्जितः । गर्भाधानादिसंस्कारैविहीनो नातिमाहवान् ॥ १९ ॥ ज्ञाता उपासकाद्यते न त्रयो न महाव्रती । शास्त्रज्ञः कुलजातोपि वर्ननीयस्तथाविधः ॥ २०॥ एवं समासतः प्रोक्तं प्रतिष्ठाचार्यलक्षणम् । प्रतिष्ठालग्नसंशुद्धिं भणिष्यामो यथागमम् ॥ २१ ॥
न्
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
शायदि मोहात्तथाभूतः प्रतिष्ठा कुरुते तदा । पुरं राष्ट्रं नरेंद्रश्च प्रजा सर्वा विनश्यति ॥ २२ ॥ शान कर्ता फलमाप्नोति नापि कारयिता स्वकम् । अथोक्तलक्षणापेतो यदि पूजयते त्वमुम् ॥ ११॥
प्रशस्तलक्ष्मा यदि पूजयेत् पुमान् । जिनेंद्रचंद्रार्चितपादपंकजम् । पुरं च राष्ट्रं च नृपश्च वर्धते स्वयं जनः कारयितानुषंगतः ॥ २४ ॥ अयोक्तलक्षणोपेतः प्रतिष्ठाचार्यसत्तमः । जलमंत्रव्रतस्नानं त्रिसंध्यं वंदनां भजेत् ॥ २५ ॥
कन्स
इति श्री वसुनंदिसैद्धांतविरचित-प्रतिष्ठासारसंग्रहे प्रथमः परिच्छेदः ।
उल्ललललललललललललल
न्छन्
१. यहांतक ही लिखी पुस्तकोंमें मिलता है इसलिये आवश्यक समझकर अंतमें लगाया गया है।
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रसा०
श्रीप्रतिष्ठासारोडारकी विषयसूची।
#BYRN
विषय. पृ. सं. विषय.
पृ.सं. All मंगलाचरण और ग्रंथप्रतिज्ञा ... ... १ प्रतिष्ठाविधि करनेवाले इंद्र (प्रतिष्ठाचार्य )का स्वरूप १२| पहला अध्याय ॥१॥
दीक्षागुरुका लक्षण ... ... जिनमंदिर व जीर्णमंदिरोंके उद्धार करानेका फल १ प्रतिष्ठा करानेवाले दाता ( यजमान ) का लक्षण १३ तीनोंकालका शुभ अशुभ जाननेकेलिये कर्णपिशाचिनी इंद्रको सत्कार होनेकी विधि ... _ मंत्र यंत्रसहित तथा उसके साधनकी विधि... २ मंडप बनानेकी विधि जैनमंदिरके लिये योग्य जगह ... ... ३
वेदीबनानेकी विधि उस जगहके पवित्र करनेकी विधि
जलयात्रावर्णन मंदिर थोड़ा बन जाने पर कारीगरोंका कुशलसे काम उपवास आदि विधि | समाप्त होनेकेलिये पुतळेकी विधि ... ५ यागमंडलका उद्धार |उस मंदिरमें मूर्तिबनवानेके लिए शुभ मुहूर्तमें कारी- यागमंडलकी पूजा तथा जिन प्रतिष्ठा आदिकी | गरके साथ पाषाण आदिकी खानिमें जाना... ६ विधिका क्रम ... ... शिला आदि लानेकी विधि मंत्रसहित ... ७
दूसरा अध्याय ॥२॥ स्थापनाका स्वरूप ... ... . ...
तार्थजल लानेकी विधि प्रतिष्ठा होनेयोग्य मूर्तिका लक्षण
१० । पांच रंगका पूर्ण स्थापन तथा पंचपरमेष्टीकी पूना २४
30000७न्छन्डल्छन्द
...
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
ख
-
2
.
विषय. अन्यदेवताओंकी पूजा ( सत्कार) जिनयज्ञादि विधि ... ... उसमें सकलीकरण किया जिनदेवकी पूजा ... सिद्ध भफिका कथन महर्षियों की पूजा ... यज्ञदीक्षा लेनेकी विधि मंडफकी प्रतिष्ठाविधि |वेदीप्रतिष्ठा ...
तीसरा अध्याय ॥३॥ याग मंडलकी पूजाविधि उसमेंसे सोलहविद्यादेवियोंका पूर जिन माताओंकी पूजा बत्तीस इंद्रोंकी पूजा चौवीसयक्षोंकी पूजा चक्रेश्वरी आदि शासन देवियोंका पूजन द्वारपालदिक्पालोंको अनुकूल करनेकी विधि शेषविधि
विषय. जयादि देवताओं की पूजाविधि मूलवेदीकी पूजा समाप्त उत्तर वेदीकी पूजा...
चौथा अध्याय ॥४॥ प्रतिष्ठेय प्रतिमाका स्वरूप ... सकलीकरण क्रिया समंत्र ... अहंत प्रतिमाकी प्रतिष्ठाकी विधि जिनमाताओंका स्थापन रनवृष्टि स्थापन ... स्वप्नदर्शनकी स्थापना गर्भशोधन तथा दिकुमारियोंसे कीगई सेवाका स्थापन ८९ गर्भावतार कल्याणकी क्रियायें जन्मकल्याणकी स्थापना ... ... ९१ जन्मके दस अतिशयोंकी स्थापना इंद्राणीकर लाये । ___ गये प्रभुको गोदमें लेकर ऐरावती हाथी पर विठाके सुमेरु पर्वतपर गमन ... ... अभिषेक वर्णन वस्त्र आभूषणादि धारण करना और सुमेरुपर्वतसे नगरमें लाकर माताको सौंपना ...
.
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
भन्सा
वि० सू०
१४॥
११५
विषय.
पृ. सं. इंवकर स्तुतिपूर्वक किया गया तांडव नृत्य ९९ मूलवेदीमें प्रतिमाका निवेशन तथा जिनमातृस्नपन ९९ प्रभुकेलिये भोग उपभोगकी सामग्रीका इंद्रकर किया।
गया प्रबंध ... ... ... १०० तपकल्याणका विधान, उसमें कारण वश भगवानको वैराग्य होना तथा लोकांतिक देवोंको आकर स्तुतिकरना ...
... १.१ पालकीमें बैठाकर दीक्षाकेलिये वनको लेजाना १०२ वापर दीक्षावृक्षोंका स्थापन तथा स्वयं दीक्षा | ग्रहण करना ...
... १०२ केश लोंच आदि क्रिया और उसी समय चौथे ज्ञानको । प्रगट होनेका विधान
१०३ तिलकदानविधि
१०३ संस्कारमालारोपण विधि
१०६ मंत्रन्यासविधि अधिवासनाविधि
१०८ स्वस्तिवाचन
१११ केवलज्ञान कल्याणका स्थापन
११२ श्रीमुखोद्घाटन ...
११२
विषय.
पृ. सं. नेत्रोन्मीलन क्रिया गुणों का आरोपण... ... ... केवल ज्ञानके समय होनेवाले दस अतिशयोंका स्थापन११३ समवसरणकी स्थापनाका विधान
११४ देवकृत चौदह अतिशयोंका स्थापन ... ११४ आठ महाप्रातिहााँका स्थापन अहेतदेवका साक्षात्करण। मोक्षकल्याणककी स्थापना ...
पांचवा अध्याय ॥५॥ अभिषेकविधि ... ... ... सब देवोंके विसर्जनका विधान ... परब्रह्म श्रीअर्हतदेवका ध्यान शांतिधारा.... पुणयाहवाचन अर्थात् राजा आदिक सबके कल्याण होनकी प्रार्थना
... ...
११८ जिनालयकी प्रदक्षिणा ..
१२१ यजमानको प्रतिष्ठाचार्यका सत्कार करना १२१ प्रतिष्ठाचार्यको आशीर्वाद देना
१२१| प्रतिष्ठाचार्यको गुरुके पास यज्ञदीक्षाका छोड़ना १२३ क्षमावनीकी विधि यजमानको करना ...
११७
१८
॥१४३॥
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
उन्न्न्न्न्न्ल
विषय.
पु. सं. विषय.
पृ. सं. मुनि अर्जिका श्रावक श्राविका इन चारों संघोंका। तिलकदान आदिविधान
१२९ सत्कार ... ... ... १२३ अभिषेक विधि प्रतिष्ठाचार्य ( इंद्र ) को भेंट देके संतोषितकर वस्त्र
बिसर्जनविधि, इष्टप्रार्थना ...
१३० आभूषण भोजन आदिसे सत्कारपूर्वक क्षमा कराके
आचार्य (गुरु) प्रतिष्ठाविधि ... विदा करना ... ... ... १२३
गणधर वलयका स्वरूप ...
१३० हा प्रतिष्ठा देखनेकेलिये आये हुए साधर्मियोंका भोजन श्रुतदेवता ( सरस्वती ) की प्रतिष्ठा सरस्वती यंत्र । Dil आदिसे सत्कारकर विदा करना ... १२३ वनानेकी विधि तथा सरस्वतीमंत्रका जप १३१ Mगंधर्व नृत्यकार आदिका भी योग्य सत्कार करके। सरस्वती स्तोत्रका पाठ ... ... १३२ | इनाम देकर रवाना करना ... १२३ यक्षादिकी प्रतिष्ठा
१३३ फिर प्रतिमाको वेदीपर लेजाकर विराजमान करना १२४ तावें आदिपर खुदे हुए यंत्रोंकी प्रतिष्ठा मध्यम संक्षिप्त प्रतिष्ठाकी विधिका वर्णन १२४ प्रतिष्ठाविधि योग्यरीतिसे करनेका फल जिनमंदिर पर धुजा चढानेकी विधि ... १२५ ग्रंथकारकी प्रशस्ति जिनमंदिर और जिनप्रतिमाकी प्रतिष्ठाका फल १२.६ प्रतिष्ठासारोद्धारका परिशिष्ट । छठा अध्याय ॥६॥
श्रुत ( सरस्वती) पूजाका विधान ... सिद्ध प्रतिमाकी प्रतिष्ठा विधिका वर्णन १२७ गुरुपूजाका बिधान बहत्सिद्धचक्रका उद्धार ... ...
वसुनंदि आचार्यकृत प्रतिष्ठासारसंग्रहके उपयोगी लघुसिद्धचक्रका उद्धार १२८ श्लोक ...
... १४१ सिद्धस्तुतिपाठ तथा गुणारोपणका विधान १२९ । प्रतिष्ठासार संग्रहका पहला परिच्छेद समाप्त १४२|
१४०
१२८
का उद्धार
...
न्कन्छन्
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
(
पण्डितप्रवर श्रीआशाधर विरचित प्रतिष्ठासारोद्धार (संक्षिप्त भाषाटीकासहित)
समाप्त ।
किरिखORAGES
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
_