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प्र०सा०
इति जन्माभिषेकविधानम् ।
मा०टी० अथोद्धृत्य निजस्कंधे तामहमतिमा मुदा । आरोप्य व्यंजयन्निंद्रस्तमैंनें परमोत्सवम् ।।८७॥ संघेन महता युक्तः प्राप्य तां मूळवेदिकाम् । त्रिःपरीत्य पठन्मंत्रमिमं न्यस्येत्तदासने ॥४८॥||४||
ओं “ एतद्राजांगणं तत्सुरकृतसुषमं सिंहपीठं तदेतत् देवोयं जातकर्मोद्यत इयममरीसेव्यमाना प्रबोध्य । देवी साचोपनीता प्रमदवरवशा सेवमानास्तथैते
देवाः सर्वेर्हतीमं परिकरमयमेवेत्यमुं स्थापयेऽस्मिन् ।। ८९ ॥ ओं नमोर्हते केवलिने परमयोगिने अनंतविशुद्धपरिणामपरिस्फुरच्छुक्लध्यानाग्निनिर्दग्धकर्मबीजाय प्राप्तानंतचतुष्टयाय सौम्याय शांताय मंगलाय वरदाय अष्टादशदोषरहिताय स्वाहा । मूलवेदीमध्यस्थापितभद्रासने प्रतिमानिवेशनमंत्रः । अथ जिनमातृस्नपनम् । विधि हुई। उसके बाद इंद्र उस अर्हत्प्रभुकी प्रतिमाको हर्षके साथ अपने कंधेपर रख परम ? उत्सवको दिखाता हुआ बहुत साधर्मियों सहित उस मूलवेदीमें लेजाकर तीन परिक्रमा देके । इस आगे कहे जानेवाले मंत्रको पढता हुआ उस सिंहासन पर विराजमान करे ॥८॥८॥ वह मंत्र “ओं पतद्रा" इत्यादि श्लोकसे लेकर स्वाहा तक है । इससे मूलवेदीके भद्रासनपर
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