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सिद्धभक्ति प्रयुंजीत । एवं चैत्यपंचगुरुशांतिसमाधिभक्तिरपि विदध्यात् । अथ स्थिरे तं सिद्धभक्ति कायोत्सर्ग करोम्यहमित्युच्चार्य सामायिकादिविधिं विधाय सिद्धचारित्रशांतिसमाधिभक्तीः प्रयुंजीत । अत्र केचिच्चारित्रभक्त्यनंतरं चैत्यपंचगुरुभक्ती अपि प्रयुंजते । इति क्रियाप्रयोगविधानं । "" ओं जिनपूजामाहूता देवाः सर्वे विहितमहामहाः स्वस्थानं गच्छत २ जः जः " इति विसर्जनमंत्रोच्चारणेन यागमंडले पुष्पांजलिं वितीर्य देवान् विसर्जयेत् ।
इह बहिरवतारप्रत्ययेन बुधानां मखविधिपरिपाट्या भावशुद्धिं विधाय । बहिरिव रविवित्रं ध्वांतमध्यात्मस्यत्सु स्फुरत पुनरखंडं तत्परं ब्रह्म नोद्य ॥ २ ॥ अनेन परब्रह्माध्यात्ममध्यासयेत् । इति देवताविसर्जनाविधानम् ।
भिषेकविधि हुई ॥ १ ॥ जिनेंद्रकी चल प्रतिमाकी प्रतिष्ठाके चौथे दिन स्नान क्रिया होती है । वहां ऐसी करनेकी प्रतिज्ञा होती है । हे भगवन् आपको नमस्कार है यह मैं चल जिन प्र|तिमाकी प्रतिष्ठाके चौथे दिन स्नपन क्रिया करता हूं । अन्य सबविधि समान है । "चल " इत्यादि “ करोम्यहं " तक बोलकर सामायिक, चौवीसजिनस्तुति पढकर सिद्धभक्ति करे । इसीतरह चौत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति, शांति समाधिभक्ति भी करे । और स्थिर प्रतिमा में "तं” इत्यादि " करोम्यहं तक बोलकर सामायकआदि विधि करके सिद्ध चारित्र शांति समा| धिभक्तियोंको करे । यह क्रियाओंका प्रयोग कहा । " ओं ” इत्यादि विसर्जनमंत्र बोलकर पूजाके मांडलेपर पुष्पांजलि चढाकर देवोंका विसर्जन करे। " इह " इत्यादि श्लोक बोल
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