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प्र० सा० सद्वर्णात्यंततेजस्का विंदुरेखाद्यदूषिता । सुस्वादा सुस्वरा चाईविवाय प्रवरा शिला ॥५१॥
तां प्राप्य भूवत कृत्वार्थी प्रोक्ष्यमंत्रेण पूजिताम् । विभिद्योहूं फट् स्वाहेद्धशस्त्राग्रेणार्चयेत् पुनः५२ ॥ ॥६॥
शागृहमेत्य ततो भूवत्ता शुभामशुभामपि । स्वस्य ज्ञातुं निशारंभे निमित्तमवलोकयेत् ॥५३॥ वास्नात्वैकांते शुचौ देशे लिप्त्वा गंधैः शुभैः करौ। विधाय सिद्धभक्तिं च ध्यायेन्मंत्रमिमं हदि५४|| भाओं नमोस्तु जिनेंद्राय ओं प्रज्ञाश्रवसे नमः । नमः केवलिने तुभ्यं नमोस्तु परमष्टिने ॥ ५५॥
अच्छे रंगवाली हो अधिक चमकवाली हो, विंदुरेखा आदि दोषोंसे रहित हो अच्छा स्वाद जातथा अच्छी ध्वनि जिसमें हो-ऐसी शिला होनी चाहिये॥५०॥५१॥उसको लेकर और उससे
भूमिकी तरह पूजकर प्रोक्षणमंत्रसे उसे धोकर ओं हूं फट् स्वाहा इस शस्त्रमंत्रसे शिला तराशनेके हथियारसे उसे निकालै ॥५२॥ फिर घरपर जाकर जिनमंदिरकी भूमिकी तरह ३|| उस शिलाके शुभ अशुभ जाननेके लिये रात्रिके आरंभमें अष्टांग निमित्तोंको विचारै ॥५३॥ ? स्नान करके एकांत शुद्ध स्थानमें शुभ गंध द्रव्यको हाथपर लगाके सिद्धभक्ति पढकर इस आगे कहेजानेवाले मंत्रश्लोकका मनमें ध्यानकरे ॥५४॥ वह इस प्रकार है-ओं जिनेंद्र । देवको नमस्कार है ओं प्रज्ञाश्रवण केवली परमेष्टिन तुमको नमस्कार है। दिव्य शरीरवाली हे देवी मुझे स्वपमें शुभ अशुभ कार्यको कह । इस दिव्यमंत्रसे उस शिलाको शुभ ( कल्याण
१ ओं झंव हः पः श्वी क्ष्वी स्वाहा । प्रोक्षणमंत्रः। ओं हूं फट् स्वाहा इति शस्त्रमंत्रः।
कलकलडकल
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