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________________ प्र०सा० ॥१०५॥ देवव्यक्ति विशेष संव्यवहृतिव्यक्त्युल्लसल्लांछनश्रीमत्त्वत्क्रमपद्मयुग्मसततोपास्तौ नियुक्तं शुभैः । यक्षद्वंद्वमवश्यमेतदुचितैः प्राच्चैरिदानींतनैदेवेंद्रैरपि मान्यते शिवमुदोप्येष्यद्भिरीशिष्यते ॥ १२५ ॥ द्वौ गंधौ रसवर्णबंधनवपुः घातकान पंचशः षट् षट् संहननाकृतीः शुभगतिः स्वस्वानुपूर्व्यामुभे । खत्रज्ये परघातकागुरुलघुच्छ्रासापघाता यशो नादेयं शुभसुस्वरस्थिरयुगैः स्पर्शाष्टकं निर्मितम् ॥ १२६ ॥ यांगोपांगमपूर्ण दुर्भगयुगे प्रत्येक नीचैः कुले वेद्यं चान्यतरद्विसप्ततिमुपांत्ये मूरयोगं क्षणे । आदेयं सनिजानुपूर्व्यनृगतिं पंचाक्षयोतिंशयः पर्याप्तत्रसबादराणि सुभगं मर्त्यायुरुचैः कुलम् ॥ १२७ ॥. अंतके दो समयों में से पहले समय में पचासी कर्म प्रकृतियोंमेंसे बहत्तर प्रकृतियोंका क्षय किया और अंतसमय में अवशेष तेरह प्रकृतियोंका नाशकर कर्मोंसे मुक्त हुए तीन लोकके शिखरपर जा विराजे ॥। १२५ । १२६ । १२७ । १२८ । १२९ ॥ इसप्रकार पूर्वोक्त श्लोकोंको भा०टी० अ० ४ ॥१०५॥
SR No.022357
Book TitlePratishtha Saroddhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Manharlal Pandit
PublisherJain Granth Uddharak Karyalay
Publication Year1918
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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