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दृष्टसृष्टक्रियो वार्तः संपूर्णांगः परार्थकृत् । वर्णी गृही वा सद्वृत्तिरशूद्रो याजको युराट्॥११४॥ गुणिनोप्यगुणे व्यर्था गुणवत्यगुणा अपि।याजकेऽन्ये कृतार्थाः स्युस्तन्मृग्योसौ स्फुरद्गुणः११५ प्यारा, मंद क्रोध मान माया लोभरूप कषायोंवाला अर्थात् शांत स्वभाववाला, खोटे विषयोंसे) इंद्रियोंको रोकनेवाला जितेंद्री, जिनपूजा आदि छह आवश्यक गृहस्थके कर्मोंका करनेवाला, दृढ प्रतिज्ञावाला महान् धनवान बहुत कुटुंबवाला हो ॥११३॥ जिसने प्रतिष्ठाविधि, जाननेवालोंसे कराई गई प्रतिष्ठा देखी हो अथवा आप अपने हाथसे की हो, शिल्प आदि विद्यासे जीविका नहीं करनेवाला, हीन अधिक शरीरके अवयवोंसे रहित संपूर्ण अंगवाला हो,? उत्तम प्रयोजन अथवा पराया उपकार करनेवाला हो, आठमूल गुण और बारह उत्तर गुणवाला पहले-ब्रह्मचर्य आश्रमवाला हो या गृहस्थाश्रमवाला हो, ग्रहणकरने योग्य वस्तुको ग्रहण करनेवाला सदाचारी हो शूद्र वर्ण न हो ब्राह्मणादि तीन उत्तम वर्णोंका धारक हो । ऐसा प्रतिष्ठा करनेवाला इंद्रसमान प्रतिष्ठाचार्य कहा गया है ॥ ११४ ॥ प्रतिष्ठाविधि करने-४ वाला आचार्य यदि अपने पूर्वोक्त गुणसहित न हो तो गुणवान यजमानका भी सर्व नाश कर देता है और पूर्वोक्तगुणोंवाला हो तो गुणरहित-निर्गुणी, प्रतिष्ठामें धन खर्च करनेवाले यजमानको भी कृतार्थ करदेता है-उसके प्रयोजनोंको सिद्ध करदेता है। इसलिए
१ वानप्रस्थ और भिक्षुको प्रतिष्ठा करानेका निषेध है दूसरी जगह ऐसा भी कहा है कि चौथी प्रतिमासे आठवीं प्रतिमा तक पांच प्रतिमावालोंमें कोई हो वही अधिकारी है।
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