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रुकन्छन्
प्र०साततः कृत्वाभिषेकादि यज्ञदीक्षां विसृज्य च । मूलदीक्षास्थितः कुर्यादाचार्योऽवभूथक्रियाम्॥ | भा०टी० देवे क्षेत्रादितीर्थे च नियुज्यार्थं स्वशक्तितः। नत्वेन्द्रं स्वं समास्मै दातागंतूंश्च संवदेत् १८८|2|| ०१
इति जिनप्रतिष्ठाविधानम् । सिद्धचक्रं गणधरवलयं प्राय॑ तदिशा। सारस्वतादियंत्रं च सिद्धार्चादि प्रतिष्ठयेत् ॥ १८९॥ जीर्णचैत्यालयोद्धारे प्राक्तने चैत्यमंदिरे । अपूर्वा प्रवेशे च यथाई शांतिमावहेत् ॥१९॥
___ इति शेषप्रतिष्ठाविधानम् । बिंब प्रतिष्ठाके वाद प्रतिष्ठाचार्य अभिषेकादि यज्ञकी दीक्षा ( वेश) को छोड़कर श्रावक |व्रतरूप मूल दीक्षामें स्थित हुआ पंचगुरु भक्ति शांतिपाठ विसर्जनादि क्रियाको करे|| ४॥ १८७ ॥ वह दाता यजमाम अपनी सामर्थ्यके अनुसार जिनविंबके निमित्त, क्षेत्र घर कुआ वगीचा आदि धर्मसाधनोंके निमित्त धनको लगाकर और इंद्र (प्रतिष्ठाचार्य ) को नम-10 स्कारपूर्वक शक्तिके अनुसार धन देकर आये हुए सज्जनोंको यथायोग्य संतोषित करे१८८॥ |इसप्रकार जिनविंब प्रतिष्ठाविधि पूर्ण हुई । उसके बाद जिनप्रतिष्ठाशास्त्रोंमें कथित रीतिसे सिद्धचक्र गणधरवलयकी पूजा करके तथा सारस्वत श्रुतस्कंध आदि यंत्रको पूजकर |सिद्ध आचार्य आदिकी प्रतिमाको प्रतिष्ठित करे ॥ १८९॥ जीर्ण (पुराने ) जिनमंदिरकेश उद्धारमें अथवा पुराने जैनमंदिरमें अपूर्व प्रतिमाके आगमनमें यथायोग्य शांतिविधान करे ॥१९०॥ इस प्रकार शेष सिद्धादि प्रतिमाकी प्रतिष्ठाविधि जानना। मैंने (आशाधरने)