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प्र० सा० सुपार्श्वपाश्र्थो स्वर्णाभान् शेषांश्चालेखयेत्स्मरेत् । न वितस्त्यधिको जातु प्रतिमा स्वग्रेहेर्चयेत् ८१ भाल्टी० स्थिरां स्थाने निवेश्यारी चलां वा यागमंडले । प्रतिष्ठाचार्ययष्टारौ स्थापयेतां यथाविधि ८२||
अ०१ ना! श्रितानिष्टरूपां व्यंगितां प्राक् प्रतिष्ठिताम्।पुनर्घटितसंदिग्धांजर्जरांवा प्रतिष्ठयेत् ॥८३॥ भादि चौवीसों तीर्थकरोंका रंग क्रमसे कहते हैं-चंद्रप्रभ, पुष्पदंत-ये दोनों सफेद रंगके हैं | नेमिनाथ, सुव्रतनाथ-ये काले रंगवाल हैं। पद्मप्रभु, वासुपूज्य इनका लालरंग है। सुपार्श्व|| पार्श्वनाथ-नीले रंगवाले हैं और वाकी वचे हुए सोलह तीर्थकरोंका शरीर तपाये हुए। सोनेके रंगवाला है । अपने घरके चैत्यालयमें एक विलस्तसे अधिक परिमाणवाली: प्रतिमा नहीं रखे जैनमंदिरमें ही रखकर पूजनकरे ॥ ८० ॥ ८१॥ स्थिर प्रतिमाको अपने पूज-11 शानस्थानमें चलप्रतिमाको यागमंडलमें रखकर इंद्र और यजमान विधिपूर्वक प्रतिष्ठा करें ||
॥ ८२॥ ऐसी प्रतिमा प्रतिष्ठायोग्य नहीं है कि जो पहले की प्रतिष्ठित हो, जिनलिंगके सिवाय|| दूसरा आकार हो, पहले शिव आदि आकार वना हो फिर फोडके जिनदेवका आकार किया गया हो, अथवा उसके आकारमें संदेह हो कि जिनबिंव है या दूसरा आकार है, और |बिलकुल जीर्ण होगई हो ॥ ८३॥
१ अथातः संप्रवक्ष्यामि गृहविंबस्य लक्षणम् । एकांगुलं भवेच्छ्रेष्ठं द्वयंगुलं धननाशनम् ॥त्र्यंगुले जायते वृद्धिः पीडा स्याच्चतुरंगुले । पंचांगुले तु वृद्धिः स्यादुद्वेगस्तु षडंगुले ॥ सप्तांगुले गवां वृद्धिर्हानिरष्टांगुले मता । नवांगुले पुत्रवृद्धिर्धननाश
॥९॥ दशांगुले ॥ एकादशांगुलं विंबं सर्वकामार्थसाधकम् । एतत्प्रमाणमाख्यातमत ऊर्च न कारयेत् ॥ इति ग्रंथांतरेप्युक्तम् ।
२ द्वादशांगुलपर्यंते यवाष्टांशानतिक्रमात् । स्वगृहे पूजयेटुिंबं न कदाचित्ततोधिकम् ॥
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