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प्रसा
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षष्ठोऽध्यायः ॥६॥
भा०टी०
अ०६ अथ सिद्धप्रतिमादिप्रतिष्ठाविधानान्यभिधास्यामःआचार्यों मंडपे रम्ये सद्वद्यां चूर्णसत्तमैः । स्वस्वमंडलमालिख्य संपूज्य तिककद्रवैः॥१॥ हेमादिपाने हेमादिलेखन्या यंत्रमुद्भुतम् । तन्मध्ये न्यस्य जात्यादिपुष्पैरष्टोत्तरं शतम् ॥२॥ |स्वस्वमंत्रेण संजप्य निविश्योत्तरमंडपे । वेद्यास्नपनपीठे! धूलीकुंभेन पूर्ववत् ॥ ३ ॥ स्नपयित्वा मंगळादिद्रव्यसंदर्भगर्भितेः । तीर्थाबुसंभृतैः कुंभ ? पल्लवैः ॥४॥ दघिदूर्वाक्षतकुशस्त्रकूचित्रमत्रसंस्कृतैः . प्रापय्याकरशुद्धिं प्राक् यंत्रस्योपरि विष्टरे ॥ ५॥ ...........कीर्त्य तस्यांमारोप्य तद्गुणान् । आवाहनादिकं कृत्वा तां युज्यात्तन्मयीं स्मरन्। अब सिद्ध आदिकी प्रतिमाकी प्रतिष्ठाविधिको कहते हैं । प्रतिष्ठाचार्य सुंदर मंडपकी सुंदर म वेदीमें उत्तम चूर्णसे अपने २ मांडले लिखकर पूजे। फिर घिसे हुए चंदन या कुंकुसे सोनें|४| आदिके पात्रमें सोने आदिकी सलाईसे यंत्र लिखकर उसमें एकसौ आठ चमेलीके पुष्पोंको रख अपने २ मंत्रसे मंत्रित करे । फिर उत्तर मंडपमें वेदीके अभिषेकके। सिंहासनपर प्रतिमाको रख जलादिसे अभिषेक पहलेकी तरह करे।॥१२।३।४।५॥ उसके बाद उस प्रतिमामें उसके गुणोंका स्थापनकर तन्मयी स्मरण करता हुआ आवाहना-16
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