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ॐ हीं अमृते अमृतोद्भवे अमृतवर्षिणि अमृतं स्रावय स्रावय सं सं क्लीं २ ब्लू २ द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय २ सं हं इवीं क्ष्वी हं सः स्वाहा । इति अमृतस्नानम् । स्वस्तिकाग्रत्रिकोणांतर्गतरेफशिखावृतम् । अग्निमंडलमोकारगर्भ रक्ताभमास्थितम् ॥ ६२ ॥ सप्तधातुमयं देहं दहेद्रेफार्चिषां चयैः । सर्वांगदेशगैर्विष्वग्धूयमानैर्नभस्वता ॥ ६३॥ नाभिस्थसस्वरयष्टपत्राब्जांतरह रतः । दहेच्छिखौघैरुद्यद्भिरष्टकर्ममयं वपुः ॥६४ ॥ वृत्तात्सविंदोर्दिक्कोणस्वायागोमूत्रिकाकृतेः । कृष्णाद्वायुपुराद्वातैः प्रापद्भिःप्रेर्य भस्म तत्॥६५॥ ? व्योमव्यापिघनासारैः स्वमाप्लाव्यामृतस्रुतम् । खेहं ध्यायन् सृजेदेहममृतैरन्यपिदुंवत् ॥६६॥ सांथिया वनावे । उस यंत्रके अंदर रेफशिखासे वेष्टित ओंकारसहित लालवणेवाल, अग्निमंडलका चिंतन करे । फिर सात धातुमई देहको रेफकी ज्वालासे भस्म|| करे । नाभिमें स्थित सोलह कमलपत्रोंके मध्यमें स्थित अर्हके रेफकी शिखासे अष्टकर्म-R मयी शरीरको भस्म करे । यह दहनक्रिया है ॥ ६२ । ६३ । ६४॥ फिर गोलाकार बिंदुसहित वायुमंडलसे उस भस्मको दूर करे। उसके बाद “खे हं" इन दो अक्षररूपी
तजलसे अपनेको शुद्ध करके कायोत्सर्ग करे ॥६५॥६६॥ यह प्लावनक्रिया है। अब अंगन्यासीक्रया कहते हैं-दोनों हाथोंकी कनिष्ठा आदि अंगुलियोंमे 'ओं हां' आदि नम
१ दहनम् । २ प्लावनं ।
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