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________________ प्र०सा० |भाण्टी० ॥१२०॥ अ०५ भ्राजिष्णुशक्तिविभवा भवसिंधुसेतुसर्वज्ञशासनविभासनवद्धकक्षाः । याः पूजयंति विविधाद्भुतसिद्धिकामास्ताश्चाष्टविष्टपमबंतु जयादिदेव्यः ॥१६॥ शक्रादेशातीर्थकृद्देवमातृर्याः सेवंते स्वस्वयोग्यनियोगः । ताः सर्वज्ञाराधनातत्पराणां संत्वष्टपि श्रेयसे श्यादिदेव्यः ॥ १७ ॥ । अन्येपि दौवारिकलोकपालग्रहोरगानाहतयक्षमुख्याः ।। - देवा यथास्वं प्रतिपत्तिदृष्टा निघ्नंतु विघ्नान जिनभाक्तिकानाम् ॥ १८ ॥ तद्रव्यमव्ययमुदेतु शुभः प्रदेशः संतन्यता प्रतपतु प्रततं स कालः । भावः स नंदतु सदा यदनुग्रहेण प्रस्तौति तत्त्वरुचिमाप्तगवी नरस्य ॥ १९ ॥ किं बहुना। शांतिः स तनुतां समस्तजगति संगत्वतां धार्मिकैः श्रेय:श्री परिवर्द्धतां नयधुराधुर्यो धरित्रीपतिः । योंसे इष्ट प्रार्थना करे ॥ १५ ॥ “भ्राजिष्णु" इत्यादि बोलकर जया आदि आठ देवियोंसे इष्ट प्रार्थना करे ॥१६॥ “ शका " इत्यादि बोलकर श्री आदि आठ देवियोंसे इष्ट प्रार्थना करे ॥१७॥" अन्योप" इत्यादि बोलकर इनके सिवाय अन्य देवताओंसे प्रार्थना ॥१८॥ "तहव्य" इत्यादि बोलकर द्रव्य क्षेत्र काल भावोंके शुभ मिलनकी प्रार्थना॥१९॥ बहुत कहनेसेक्या,सब जगतमें शांति रहे, धर्मात्माओंकी संगति मिले, कल्याण करनेवाली लक्ष्मी ॥१२०॥
SR No.022357
Book TitlePratishtha Saroddhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Manharlal Pandit
PublisherJain Granth Uddharak Karyalay
Publication Year1918
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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