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________________ प्र०साल ॥१००॥ 1 रक्षायां तस्य दिशाथान देवताः परिकर्मणि । भोगसंपादने श्रीदं क्रीडने शक्रपुत्रकान् ९५ अंगुष्ठे चामृतं स्तन्यलौल्यच्छेदाय वासवः । यद्वदस्थापयत्तद्वदर्चायां स्थापयाम्यहम् ॥ ९६ ॥ दिव्यवस्त्रगंधभूषणस्त्रस्तिकशाल्यभक्षीरान्नविचित्र-भक्षपक्वान्न दुग्धदधिघृतशर्करा चारुपुष्पफलपत्रदीपधूपादि भोज्यवस्तुजातं कांचनभाजने विरचय्य शिलायां निवेशयेत् । सिद्धयुद्धाह महोत्सुकोपि तदलंकर्माणकालाप्तये निर्ग्रथं परपर्वनृत्यविधिना धर्मेण शासद्धराम् । यः सम्राडिति लक्ष्यते त्रिजगतीनाथोसतीवेश्वरं यो भक्तेति कुमार एव च भजन् भोगान्न्यसाम्यत्र तम् ॥ ९७ ॥ स्तुतिकर प्रभुकी रक्षाके लिये दिक्पालोंको, देवताओंको सेवाके लिये, भोगादि सामग्रीकेलिये कुवेरको, खेलने केलिये इंद्रपुत्रोंको, दूध पीनेकी लालसाको दूर करनेकेलिये अंगूठेमें अमृतको जैसे पहले इंद्रने प्रभुके पास रखा था उसी तरह मैं भी इस प्रभुकी प्रतिमाके सामने स्थापित करता हूं ॥ ९४ ९५ ९६ ॥ ऐसा कहकर उत्तम वस्त्र सुगंधित पदार्थ आभूषण (गहने) सातिया खीर अनेक पक्वान्न दूध दही घी मिश्री उत्तम फूल फल पत्ते दीप धूप आदि भोगोंकी सामग्री सोंनेके पात्रमें रखकर शिलापर रखे । “ सिद्ध्यु " इत्यादि बोलकर पुण्यके उदयसे प्राप्त राज्य संपदा आदि उपभोगोंकी स्थापना करनेके भा०टी० अ० ४ ॥१००॥
SR No.022357
Book TitlePratishtha Saroddhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Manharlal Pandit
PublisherJain Granth Uddharak Karyalay
Publication Year1918
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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