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________________ प्र०सा० भाण्टी० ॥ २७॥ अ०२ कोणस्थातनुकेतवो जिनमहे हुत्वेह पूर्वादितः सोमोर्धेधिकुशं निवेश्यमुदमाप्यते सवर्णार्चनैः ॥ २३ ॥ पूर्वादिदिक्षु सवर्णाक्षतपुंजान् स्थापयित्वा तदुपरि सूर्यादीनां क्रमेण कुंकुमाद्यक्तदर्भासनानि विन्यसेत् - इति दर्भन्यासविधानम् । प्रारब्धाः फणियक्षभूतक्रतुभिर्देहार्तिवित्तक्षतिः स्थानभ्रंशरसाद्यसाम्यविपदस्तत्कल्पनाकल्पतः । जिन प्रतिष्ठोत्सवमें आह्वानन कर सोम दिक्पालके ऊपरभागमें दर्भ रखकर पूर्वावि दिशा-15 ओंमें स्थापन कर समान वर्णकी पूजन द्रव्यसे पूजे तो आनंदमंगल प्राप्त होते हैं ॥२३॥ है उनके समान रंगवाले अक्षतके पुंजोंको रखकर उनके ऊपर सूर्यादिके क्रमसे कुंकुमादि रंगे-हा हुए दर्भ ( दाभ ) के आसनोंको रखे । भावार्थ-सूर्यके लिये उत्तम केसरसे दाभको रंगे,||| चंद्रमाके लिये चंदनसे, मंगलके लिये सिंदूरसे, वुध वृहस्पतके लिये हलदीसे, शुक्रके लिये चंदनसे और शनि राहु केतुके लिये कस्तूरसेि रंगे । इस प्रकार दर्भ रखनेकी विधि वर्ण-15) नकी गई ॥ नागकुमारदेव शरीरपीडा करते हैं, यक्षदेव धन हरते हैं. भूतदेव स्थानभृष्ट | करते हैं, राक्षसदेव धातुवैषम्य करते हैं इसलिये नागकुमारादिकी स्थापना करके पूजनेसे पूर्वोक्त सब विघ्न दूर हो जाते हैं तथा सूर्यादिग्रहोंकी पूजा करनेसे कापालिक भिक्षु वर्णी || लन्छन् ॥२७॥
SR No.022357
Book TitlePratishtha Saroddhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Manharlal Pandit
PublisherJain Granth Uddharak Karyalay
Publication Year1918
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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