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________________ ॥ अंतःपत्रतटेष्वनाहतयुतं हीकारसंवेष्टितं देवं ध्यायति यः स मुक्तिसुभगो वैरीभकंठीरवः ॥ १४ ॥ इति लघुसिद्धचक्रोद्धरणं । अत्रायं मंत्रः । ओं अर्ह अ सि आ उ सा ही अर्ह स्वाहा । शेषं पूर्ववत् । ततोभिषिच्य तीर्थी धाकुंभैःमागुक्तकल्पनैः। गुणैरिवार्चामष्टाभिः सिद्धस्तोत्रं पुरो हितम्॥१५॥ पठित्वा तद्गुणागेपप्रभ्टत्यापाद्य ता स्परन् । साक्षात्सिद्धं तिलकयेच्चंदनेन सहेदुना ।।१६॥ आकारशुद्धिं कृत्वा यस्यानुग्रहेत्यादि सिद्धस्तोत्रमधीत्य प्रतिमोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् । ततः आकारैवियुतं युतं च युगपन्निध्यातवोद्धस्फुटं विश्व स्वाभिनिवेशसौम्यमसमानदैकसंवेदनं । स्वस्वादक्षसमक्षमाक्षयतमस्थामावगाहोत्तमं । भात्वत्रागुरुलध्वनंतगुणमप्यष्टात्मसैद्धं वपुः ॥१७॥ कहे गये सिद्धचक्रका उद्धार करके " ओं" इत्यादि मंत्रका जाप करे ॥ १४॥ यह लघुसिद्धचक्रका उद्धार हुआ। शेष विधि पहले की तरह करे । फिर सिद्ध प्रतिमाका जलसे || भरे हुए घड़ोंसे आभषेक कर आठ गुणोंको स्मरण करता हुआ तिलक विधि करे॥१५॥१६॥ आकारशुद्धि करके “ यस्यानुग्रह " इत्यादि पूर्व कथित सिद्ध स्तोत्रका पाठ करके प्रति १७
SR No.022357
Book TitlePratishtha Saroddhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Manharlal Pandit
PublisherJain Granth Uddharak Karyalay
Publication Year1918
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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