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________________ प्र.सा. माष्टी० ॥१०४॥ अ०४ सम्यग्दृष्टिकशाकृशव्रतशुभोत्साहेषु तिष्ठन् कचित् धर्मध्यानवलादयत्नगलिताभायुस्त्रयः सप्त यः । दृष्टि प्रप्रकृती समातपचतुर्जातित्रिनिद्रा द्विधा श्वभ्रस्थावरसूक्ष्मतिर्यगुभयोद्योतान् कषायाष्टकम् ॥ १२० ॥ क्लैव्यं स्त्रैणमथादिमेन नवमे हास्यादिषटुं नृतां क्षिप्त्वोदीचि पृथक्क्रुधादिदशमे लोभं कषायाष्टकं । निद्रा समचलामुपांत्यसमये दृग्धीविनाश्चतु दिः पंच क्षिपते परेण चरमे शुक्लेन सोहनसि ॥ १२१ ॥ निमित्तको पाकर भोगोंसे वैराग्यरूप हुए, उससमय लौकांतिक देवोंने आकर स्तुति की फिर दिव्य पालकीमें बैठाकर वनमें लेगये वहां पर दीक्षावृक्षके नीचे वैठके प्रभुने 24 सिद्धोंको नमस्कार कर आप ही दीक्षा धारण की, केशलौंच करके ध्यानमें मग्न शुद्ध निजस्वभावामृतका स्वाद लेते हुए। ऐसे प्रभु हमारे कल्याण कर्ता हो ॥ ११९ ॥ जिस प्रभुने धर्मध्यान और शुल्कध्यानके बलसे अनायासमें ही गुणस्थान क्रमसे कर्म || ॥१४॥ प्रकृतियोंका क्षय किया। वह क्रम कर्मकांडमें विस्तारसे लिखाहुआ है। विस्तारके भयसे | यहां नहीं लिखा।क्षयके क्रमसे चार घातिया कौका नाशकर केवलज्ञान आदि अनंतच
SR No.022357
Book TitlePratishtha Saroddhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Manharlal Pandit
PublisherJain Granth Uddharak Karyalay
Publication Year1918
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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