________________
स्थाप्यस्तृतीये निर्वेदस्तत्मशंसा सुरर्षिभिः। दीक्षावृक्षाः सुरैः स्नानाद्युपकारो वनायनम् ९६ दीक्षाग्रहणमिंद्रेण केशप्रत्येषणादिकम् । वस्त्रादित्यजनं ज्ञानचतुष्कोद्भासनं क्रिया ॥९७॥ कार्या कल्याणसंस्कारमालामंत्राधिरोपणम् । प्रियंगु सज्जनादीनि तिलकं चाधिवासना ९८१ श्रीमुखोद्धाटनं तुर्ये नेत्रोन्मीलनमर्हतः।स्थाप्याचांतर्गुणा घातिक्षयजातिशयास्तथा ॥ ९९ ॥2 आस्थानमंडलं देवोपनीतातिशयाः पुनः । प्रतिहार्याष्टकं चिह्नं यक्षः शासनदेवता ॥१०॥ कल्याणपंचकारोपव्यक्तिः कंकणमोक्षणम् । सा जाद्भावकृतिःकृत्या महाघस्यावतारणम्१०१ जाना प्रभुको राज्य भोगना-ये सब विधियां करनी चाहिये ॥ ९४।९५ ॥ तीसरे कल्याणकमें भगवानको वैराग्य होना, लौकांतिक देवोंकर स्तुति, दीक्षावृक्ष, देवताओंकर कराया गया स्नान, पालकी में विठाके वनको लेजाना, भगवानकर स्वयं दीक्षाग्रहण, इंद्रकर लुचितकेशोंको रत्नपिटारी में रखके क्षीरसमुद्र में क्षेपण करना वस्त्रादित्याग, चौथे । ( मनःपर्यय ) ज्ञानका प्रगट होना ॥ ९६ । ९७ ॥ अडतालीस मालामंत्रोंका जाप करना ? इत्यादि ॥ ९८ ॥ चौथे कल्याणकमें-भगवानके मुखका उघाडना नेत्रोन्मीलनक्रिया : घातिया कर्मोके क्षयस उत्पन्न हुए अनंत ज्ञानादिगुणोंका स्थापन समवशरण वनाना। तथा अशोक वृक्षादि अतिशयोंका प्रगट करना आठ प्रातिहार्य यक्ष शासनेदवता-इनको समीप रखना महान अर्घ देना दिव्यध्वनि होना-इत्यादि क्रिया करनी चाहिये ॥ ९९ ॥ ॥ १००१०१॥ पांचवें कल्याणकमें-आठ पत्रोंमें आठ गुणोंको लिखके और पूजके मोक्ष