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भा. दि. जैन-संध-ग्रन्थमालायाः प्रथमपुष्पस्य षोडशमो दलः
श्रीयतिवृषभाचार्यरचितचूर्णिमूत्रसमन्वितम् श्रीभगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीतम्
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भाग १६
स्व. प. फूलचन्द्रः जी
सिद्धान्नशास्त्री, सिद्धान्ताचार्यः वाराणसी
वि. सं. २०४५ )
श्रीवीरसेनाचार्यविरचिता जयधवला टीका
(पंचमदशमाधिकारे चारित्र मोहक्षपणानुयोगद्वारम् )
महावन्धस्य सम्पादक:. धवलाया: सहसम्पादक: धवला (प्र. सं.) आदि
नयोश्च
सम्पादन
स्व. प. कैलाशचन्द्रः जी
सिद्धान्तशास्त्री, सिद्धान्ताचार्यः स्याद्वाद महाविद्यालयस्य प्राचार्य वाराणसी
द्वितीय संस्करण
प्रकाशक :
भा. दिगम्बर जैन संघस्य, चौरासी मथुरा-२८,१००४
वीरनिर्वाणाब्द : २५१४
मूल्य रुप्यकपंश्चविंशातिकम
( ई. सं. १६८८
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| भारतवर्षीय दि० जैन संघ चौरासी मथुरा द्वारा प्रकाशित श्रीयतिवृषभाचार्यरचितचूर्णिसूत्रसमन्वित्
श्रीभगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीतम्
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(जयधवल, महाधवल)
तयोश्च श्रीवीरसेनाचार्यविरचिता जयधवला टीका
[पञ्चमदशमाधिकारे चारित्रमोहक्षपणानुयोगद्वारम् ]
भाग-16
सम्पादकौ :
विद्वतरत्न स्व०श्री पं० फूलचन्द्रः सिद्धान्तशास्त्री, सिद्धान्ताचार्य सम्पादक महाबन्ध, सह सम्पादक
धवला आदि
विद्वतरत्न स्व० श्री पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्तरत्न, सिद्धान्ताचार्य सिद्धान्तशास्त्री, न्यायतीर्थ, प्रधानाचार्य स्याद्वाद महाविद्यालय
काशी
| द्वितीय संस्करण
प्रकाशक
5 भारतवर्षीय दि० जैन संघ, चौरासी-मथुरा (उत्तरप्रदेश) Cl
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प्रकाशक:
भारतवर्षीय दि० जैन संघ
चौरासी - मथुरा (उत्तरप्रदेश)
कार्यालय दूरभाष :
0565-2420711
प्रथम संस्करण : 1988 (वीर निर्वाण ) : 2515 द्वितीय संस्करण : 2004 (वीर निर्वाण ) : 2530
मुद्रक :
नरूला ऑफसेट प्रिन्टर्स शाहदरा,
दिल्ली
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मूल्यं संशोधित मूल्य 250/- रूपये
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जिनवाणी के प्राचीन शास्त्र जयधवला जी के प्रकाशन में आर्थिक सहयोग दीजिए
हमारे महान पुण्योदय से मूढविद्री (दक्षिण) के शास्त्र भण्डार से बड़ी कठिनाई से प्राप्त द्वादशांग श्रुत के मूल अंश 'कषाय पाहुड' की आचार्य वीरसेनकृत विशाल टीका जय धवला के लगभग १६ भागों में जैन संघ मथुरा द्वारा प्रकाशित किया गया था जिसके धीरे-धीरे सभी भाग समाप्त हो गये । गत् ३ वर्ष पूर्व १२ भागों को पुनः प्रकाशित कराया और अब शेष ४ भागों १, १४, १५, १६ को प्रकाशन हेतु प्रेस को भेज दिये हैं । भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ मथुरा ने अपने अनेक महत्वपूर्ण सेवा कार्यों में जैन धर्म आदि सर्वोपयोगी ग्रन्थों के साथ जयधवला के सम्पूर्ण लगभग १६ भागों में से कुछ बचे हुए भागों के एवं कुछ पूर्ण प्रकाशित भागों के पुनः प्रकाशन का भार सम्हाले रखा है। संघ की इस जिम्मेदारी को पूर्ण करने हेतु उदार दानदाताओं के आर्थिक सहयोग की महती आवश्यकता
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ग्रायणी पूर्व के मूल अंश षटखंडागम् की धवल महाधवल टीकाओं का दो बार प्रकाशन हो चुका है। यह षटखंडागम् आचार्य धरसैन की रचना है जिसकी टीका आचार्य वीरसैन ने की है। आचार्य धरसैन से कुछ पूर्ववर्ती उक्त कषाय पाहुड के ज्ञात आचार्य गुण थे। इसी के आधार पर आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार आदि दृव्य दृष्टि प्रधान ग्रन्थों की रचना की है। संघ के संस्थापक समाज के वरिष्ठ विद्वान स्व० पं० राजेन्द्र कुमार जी सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचंद जी, पं० फूलचंद जी ने ही उक्त जयधवला टीका का हिन्दी अनुवाद किया है। संघ के पूर्व प्रधान मंत्री प्रो० खुशालचंद जी गोरा वाला, जगन्मोहन लाल जी शास्त्री रहे हैं। वर्तमान में अखिल भारतीय स्तर के समाजसेवी श्री ताराचंद जी प्रेमी, उक्त सभी क्रियाशील विद्वान समर्पित भाव से संघ समाज और साहित्य सेवाओं में संलग्न हैं ।
पं०
अंत में जिस प्रकार समाज में पंचकल्याणकों एवं मंदिर निर्माण में उदार दानदाता अपना आर्थिक सहयोग देते हैं, उसी प्रकार उन्हें इस प्राचीन शास्त्र जयधवला जी के
प्रकाशन में अपना आर्थिक सहयोग प्रदान करना चाहिए ।
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- पं० नाथूलाल जैन शास्त्री, इन्दौर
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भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ संक्षिप्त इतिहास
सन् 1933 में महामनीषी विद्वान स्व० पं० राजेन्द्र कुमार जी न्यायतीर्थ के अदम्य उत्साह और विलक्षण सूझ-बूझ ने एक नयी संस्था को जन्म दिया। नाम था शास्त्रार्थ संघ । इस संघ में स्व० लाला सिब्बामल जैन का सहयोग था। 1933 में अम्बाला में स्थापित इस संस्था के द्वारा देश के अनेक नगरों में धर्म-संरक्षण की भावना से जैन धर्म के आलोचकों से सार्वजनिक शास्त्रार्थ किये गये । उसका परिणाम यह हुआ कि आलोचकों ने जैन धर्म की आलोचना बन्द कर दी ।
शास्त्रार्थ संघ को सबसे बड़ी विजय तब मिली, जब आलोचकों के प्रमुख सन्यासी स्वामी कर्मानन्द जी ने जैन धर्म को स्वीकार कर लिया और जैन धर्म की प्रमाणिकता में "ईश्वर मीमांसा" नाम की एक पुस्तक लिखी, जिसका प्रकाशन संघ ने किया है।
सन् 1940 के लगभग, संघ का स्थान अम्बाला की जगह मथुरा में हो गया। चौरासी स्थित भगवान् जम्बूस्वामी की निर्वाण स्थली के समीप पं० राजेन्द्र कुमार जी और उनके सहयोगियों के द्वारा भव्य - भवन का निर्माण किया गया और संघ का नाम "शास्त्रार्थ- संघ" के स्थान पर " भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ" रखा गया। अब संघ का कार्य धर्म प्रचार था ।
उस समय संघ भवन में हर समय 10-12 विद्वान रहा करते थे और पूरे देश में होने वाले सामाजिक, धार्मिक उत्सवों में उन विद्वानों को आमंत्रित किया जाता था। उन्हीं दिनों संघ में एक प्रकाशन विभाग की स्थापना हुई, जिसके द्वारा अनेक समाजोपयोगी एवं धार्मिक पुस्तकों का प्रकाशन हुआ, जिनमें कैलाश चन्द्र जी शास्त्री द्वारा लिखा गया "जैन-धर्म" नाम का ग्रन्थ अब सातवें संस्करण के रूप में छप गया है। इन्हीं के द्वारा "तत्वार्थ सूत्र" की गौरवपूर्ण हिन्दी टीका लिखी है, जिसका तीसरा संस्करण प्रकाशित हो चुका है।
सन् 1950 के आस-पास संघ ने स्व० पंडित हीरालाल जी शास्त्री, अमरावती (महाराष्ट्र) ए.एन. उपाध्ये की प्रेरणा से " कसायपाहुडं" (जयधवल, महाधवल) ग्रंथराज के प्रकाशन की योजना बनायी । आर्थिक अभावों के होते हुए भी स्वर्गीय पं० फूलचन्द्र जी और पं० कैलाश चन्द्र जी शास्त्री के श्रम और सूझ-बूझ से मूल ग्रन्थ का हिन्दी में सरलीकरण किया गया। जिसे संघ ने 16 भागों में प्रकाशित कराया है। उपरोक्त महाग्रन्थ के 12 भागों का द्वितीय संस्करण पूर्व में प्रकाशित कर चुके हैं एवं शेष चार भागों का द्वितीय संस्करण अब प्रकाशित करा रहे हैं। हमारे वर्तमान अध्यक्ष श्री स्वरूप चन्द्र जी मारसंस, आगरा का इन प्रकाशनों में हमें भरपूर सहयोग मिला है। हमारे अन्य दातारों का भी हमें आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ है। आज संघ संस्थापक पं० राजेन्द्र कुमार जी तथा उनके सहयोगी पं० फूलचन्द्र जी, पं० कैलाश चन्द्र जी, पं० जगमोहन लाल जी नहीं हैं और अब संस्थानों के संचालन में वो उत्साह भी नहीं रहा, फिर भी हमारी भावना है कि संघ - भवन और उसके प्रकाशन विभाग को किसी न किसी प्रकार संचालित रखा जाये। संघ का मुख पत्र "जैन सन्देश " पिछले 6 दशक से निरन्तर प्रकाशित हो रहा है। हमारी भावना है कि समाज के उत्साहीजनों का निरन्तर सहयोग मिलता रहे और संघ भवन से यह आलोक निरन्तर प्रकाशमान होता रहे।
प्रधानमंत्री ताराचन्द जैन 'प्रेमी'
भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ
चौरासी, मथुरा
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-: आभार :
श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ, चौरासी, मथुरा को प्रमुख आर्ष ग्रन्थ " कसायपाहुडं" जयधवल महाधवल को सोलह भागों में प्रकाशित करने का गौरव प्राप्त हुआ है। इसके प्रकाशन का शुभारंभ 6 दशक पूर्व हो गया था, जिसके अन्तिम दो भाग 15 और 16 को प्रकाशित करवाने में अर्थाभाव की कमी महसूस की गई। बाद में सोलहवां भाग का प्रकाशन ब्र० श्री हीरालाल खुशालचन्द दोशी, मांडवे (सोलापुर) के आर्थिक सहयोग से किया गया। 16 भागों का वितरण क्रमशः न होने के कारण प्रथम दो और चार भाग को मथुरा में ही पुनर्प्रकाशन कराना पड़ा। जयधवला के 14 भागों का प्रकाशन अनिवार्य समझ कर श्री रतनलाल जी जैन, वन्दना पब्लिशिंग हाउस, अलवर (राज.) के सहयोग और परामर्श से इनका पुनर्प्रकाशन वर्ष 2000 में किया गया। शेष भाग 1, 14, 15 एवं 16 का पुनर्प्रकाशन अब किया जा रहा है। इनके प्रकाशन में आर्थिक योगदान के लिये हमारे निम्न दानदाताओं ने उदारतापूर्वक दान देकर इस कार्य में अपना अमूल्य सहयोग दिया है। इसके लिए संघ इन सभी सधर्मी बन्धुओं का आभार प्रकट करता है।
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श्री बलवंत राय जैन, भिलाई (म. प्र.)
श्री स्वरूप चन्द जैन (मारसंस), आगरा (उ. प्र.)
श्री रतन लाल जैन, (वन्दना प्रकाशन) अलवर (राज.) श्री ताराचन्द जैन, अलवर (राज.)
श्री ओमप्रकाश जैन, कोसीकलाँ (उ. प्र.)
श्री भोलानाथ जैन, आगरा (उ. प्र.)
श्री निर्मल कुमार जैन, आगरा (उ. प्र.)
श्री प्रदीप कुमार जैन, आगरा (उ. प्र.)
श्री ज्ञानचन्द जी खिन्दूका, जयपुर (राज.) कान्ता बहन मनुभाई शाह, सोजीत्रा (गुजरात) श्री मनुभाई छगन लाल शाह, सोजीत्रा (गुजरात)
अब भाग 1, 14, 15 एवं 16 के पुनः प्रकाशन में जैन संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री स्वरुप चन्द जी जैन, मारसंस आगरा के समर्पित सहयोग से निम्न दानदातारों से आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ। इसके लिए संघ परिवार इन सभी दानदातारों का आभार व्यक्त करता है।
62,000/- श्री स्वरूप चन्द जी जैन (मारसन्स), आगरा
62,000/- श्री भोलानाथ जी जैन, आगरा
32,000/- श्री प्रदीप कुमार जी जैन, आगरा 11,000/- श्री निर्मल कुमार जी जैन, आगरा 15,000/- श्री शाह मगनीराम पन्नालाल जी जैन, उदयपुर
1,100/1,000/
श्री गुलजारी लाल जैन, फर्म- मुरलीधर गुलजारीलाल जैन, रफीगंज (बिहार) श्रीमती कुसुमलता, धर्मपत्नी डॉ० श्री के० सी० भारिल्ल, सिवनी
प्रधानमंत्री ताराचन्द जैन 'प्रेमी'
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श्री बालब्रह्मचारी हीरालाल खुशालचन्द्र दोशी
भा० दि० जैन संघ के संस्थापक प्रधानमंत्री स्व० शार्दूल पंडित राजेन्द्र 'कुमार जी द्वारा आरब्ध जयधवला प्रकाशन की पूर्णता (अर्थात् सोलहवें खण्ड में हमारे आर्थिक सहयोगी बालब्रह्मचारी श्री हीरालाल खुशालचन्द्र दोशी का जन्म वारबरी ( फलटन ) के श्रीमान् सेठ रामचन्द्र रेवाजी दोशी के धार्मिक एवं उदार परिवार में २३-८-१९२८ को सेठ खुशालचन्द्र के पुत्र रूप से हुआ था । यह परिवार दि० जैन मूलसंधी, सरस्वती गच्छी एवं बलात्कार गणी बीसाहूमड़ कुलीन मंत्रेश्वर गोत्री था । फलतः हीरालाल जी को बालहिते व्रत-शील से चाव था । इनके सहोदर फूलचन्द तथा सहोदराएं सो० सोनूबाई कान्तिलाल गांधी (लसुर्डे) तथा सौ० मथुराबाई रतनचन्द दोशी (मांडवी) को भी श्रावक के रत्नत्रय ( देवदर्शन, जलगालन तथा निशिभोजनत्याग ) माता माणिकबाई दूध के साथ मिले थे ।
तत्कालीन वाणिज्य प्रधान कुलों की परम्परा के अनुसार हीरालाल जी की लौकिक शिक्षा सातवीं कक्षा तक ही हुई थी किन्तु फलटन की पाठशाला की धार्मिक शिक्षा का ओंकार ऐसा हुआ था कि वह कभी समाप्त ही नहीं हुई । स्वाध्याय इनका स्वभाव बन गया । तथा 'णाणं पयासयं' भावना का ही यह सुफल है कि उन्होंने पेज्जदोसपाहुड़ की पूर्णता के लिए सानन्द अर्थभार उठाया है । ज्ञानाराधक एवं निसर्गज विरत हीरालाल जी ने सोलह वर्ष की वयमें ही श्री १०८ नेमिसागर महाराज का समागम प्राप्त होते ही विधिवत् अष्ट मूलगुण ग्रहण किये थे तथा ६ वर्ष बाद (वि० नि० २४७६) धर्मसागर महासागर से दर्शन प्रतिमा की प्रतिज्ञा की थी । पूर्ण वयस्क हो जाने पर पितरों के आग्रह करने पर भी आपने विवाह को टाला और अपने आपको पुंवेदके आक्रमणों से बचा कर चलते रहे । तथा दो वर्ष बाद ( वी० नि० २४७८) युगाचार्य श्री १०८ शान्तिसागर महाराज का समागम होते ही गुरू आज्ञा को मानते हुए ५ वर्ष के लिए ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया। तथा इसकी समाप्ति पर २९ वर्ष की वयमें आजीवन ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारण की ।
बालब्रह्मचारी जी ने किशोर अवस्था से ही अपने जीवन को तीर्थबन्दना, सद्गुरु-समागम और अन्तर्मुखता की ओर मोड़ दिया था । तीथंबंदना के क्रम में १९६५ ई० में माता-पिता के साथ पूरे भारत की तीर्थयात्रा में तीन मास तक रहे । १६-६-१९६६ को माताजी का स्वर्गवास हो जाने के बाद इन्होंने पैत्रिक तथा स्वोपार्जित सम्पत्ति का दान आ० शान्तिसागर जिनवाणी प्रकाशक संस्थान, सन्मतिनसिंग होम, बाढ़पीडित सहायक संस्थान (माढ़ा), गोरक्षकमंडल ( करमाल), महावीर ज्ञानोपासना समिति (कारंजा) आदि १६ धार्मिक संस्थानों को लगभग आधा लाख रुपया देकर गृहस्थ के आवश्यक दान का उत्तम पालन किया ।
इनकी दानधारा का अधिक प्रवाह जिनवाणी- प्रकाशन में ही हुआ । और पिताश्री के चिरवियोग (२४-६-८८) तक इनकी आर्थिक प्रेरणा से वर्तमान मुनिसंघ आहार विचार सम्बन्धी दो हिन्दी पुस्तकें; तथा बालक बालिका, प्रौढ़ आदि साधर्मी लोगों के आदर्श जीवन निर्माण के लिए त्रिकाल देवबंदना, प्रायश्चित्त, व्यन्तराराधाना पसूते नुकसान, माताका पुत्रीको उपदेश पुस्तिकाएँ तथा आसादन, पाण्यामध्ये जीव, भक्ष्याभक्ष्य, आत्मचिंतन, इष्ट ग्रन्थ आदि के सात चार्ट लिखलिखाकर प्रकाशित किये हैं । तथा अपने इस जिनवाणी- प्रतिष्ठा के भव्य मन्दिर पर जयधवला के अन्ति खण्ड का प्रकाशन कराके मणिमयी उन्नत कलश रखा है ।
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बालब्रह्मचारी दोशी जी के अष्टाह्निका, रत्नत्रय, दशलक्षणी, आदि समस्त पर्व उपवास पूर्वक जाते हैं। वर्ष में लगभग आधे दिन उपवासी रहने वाले ब्र हीरालाल जी का पूरा समय चिन्तवन-वाचन में जाता है। आगमविरुद्ध लिखने-बोलने वालों को अंकुश लगाना आपकी वीतरागकथा होती है। इस स्पष्ट एवं साधार कथनी-लेखनी के कारण कतिपय दुष्ट लोगों ने आप पर शारीरिक आघात ही नहीं किये, अपित मूच्छित हो जाने पर, मत समझ कर एक बोरे में बांधकर जंगल में फेंक दिया था। किन्तु 'धर्मो रक्षति रक्षितः' के अनुसार वर्षा के कारण आपको होश आया। तथा लोगों की परिचर्या से वे स्वस्थ होकर धर्म-समाज सेवा के साथ 'अंते समाहिमरणं' के मार्ग पर अग्रसर हैं। हमें संघ के इन संरक्षक सदस्य का बहुमान है।
प्रा० लीलावंतीबहिन के सहयोग से
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सिद्धान्तशास्त्री पं. फूलचन्द्रजी उदय-आधुनिक जैन-जागरण के धीमान अग्रदूत गुरुवर गजेशवर्णी महाराज के प्रसाद से पूरा भारत दि० जैन पाठशालाओं की दीपमालिका से जगमगा उठा था। यह इनका ही प्रभाव था जिससे प्रेरित हो कर बमराना के सेठ बन्धओं में कनिष्ट स्व० सेठ लक्ष्मीचन्द्र जी ने अपनी जमीदारी-जाययाद के चौदह आना की निधि (ट्रष्ट) करके 'महावीर दि० जैन पाठशाला' साढूमल को स्थापित करके स्थायो भी कर दिया था। तथा स्व० पं० घनश्याम दास को प्राचार्य पद पर बुला कर इस पाठशाला को मेधावी छात्रों के परम आकर्षण का केन्द्र बना दिया था। इस पाठशाला के आद्य छात्रों में करणानुयोग के मूर्धन्य विद्वान् सिद्धान्तशास्त्री फूलचन्द्र जी भी थे । और अपनी प्रखर बुद्धि तथा तल्लीनता के कारण गुरुओं को विशेष प्रिय हो गये थे । आपका जन्म झांसी जनपद के सिलावन ग्राम के दृढ़ जैन संस्कारी साव दरयावलाल के तृतीय पुत्र रूप में हआ था। फलतः परिवार के धर्मपालन की प्रेरक एवं साधक माता जानकी बाई से शिशु फूलचन्द्र को धर्म प्रेम भरपूर प्राप्त हुआ था।
शिक्षा-कार्य-गांव के मदरसा की प्रारम्भिक शिक्षा पूर्ण करने के पहिले ही इन्हें साढ़मल पाठशाला भेज दिया गया था। और इनके सातिशय क्षयोमशम के कारण ‘स्याद्वाद महा विद्यालय' तथा गरु गोपालदासजी के 'सिद्धान्त विद्यालय' में गुरुओं एवं उनके प्रथम शिष्यों (स्व. पं० देवकीनन्दनजी, वंशीधरजी, आदि ) के मुख से धर्मशास्त्र पढ़ने का भी सुअवसर प्राप्त हुआ था। अपने प्रखर पांडित्य के कारण इन्हें जबलपर शिक्षा मन्दिर में आमंत्रित किया गया था। तथा पं० घनश्यामदासजी के खरई पाठशाला चले जाने पर आपने अपने प्रथम गुरुकूल (महावीर पाठशाला, साढूमल) का आचार्यत्व स्वीकार करके उसके प्रति कृतज्ञता का प्रदर्शन किया था। इसी प्रकार स्याद्वाद महा विद्यालय-वाराणसी के आदेश की शिरोधार्य करके उसके प्राचार्यत्व को सम्हाला था । और काशी विश्वविद्या० की भारतीय धर्म-शिक्षण योजनान्तर्गत जैनधर्म प्रशिक्षण का कार्य करके कला-विज्ञान-इंजीनियरिंग आदि कक्षाओं के स्नातकों को धार्मिक शिक्षा दी की। वाराणसी से आप बीना पाठशाला में आये । और अपनी करणानुयोग प्रखरता के कारण दक्षिण भारत से बुलाये गये वहां नातेपूत-अमरावती में भी अपने ज्ञान की गंगा बहाते रहे । तथा 'धवल' सिद्धान्तग्रन्थों का संपादन आरम्भ होने पर डा० एवं पं० हरीलाल-द्वय के दांये हाथ बन गये। और अपनी सूक्ष्म पकड़ के कारण समुचित पदपूर्ति को लेकर उठे मतभेद से हट कर वाणिज्य की ओर मुड़े। किन्तु इनकी सुझ-बूझ के पारखी भा० दि० जनसंघ के संस्थापक तथा इनके सहाध्यायी को यह सहन नहीं हुआ । फलतः इनकी क्षमतानुसार जयधवला-सम्पादन इनको ही अग्रसर करके किया
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गया। प्रथम भाग तक स्व० पं० महेन्द्रकुमार जी इनके सहयोगी थे और 'संघ के बौद्धिक स्तम्भ स्व० पं० कैलाश चन्द्रजी अन्त तक भूमिका, परामर्श तथा प्रकाशन मंत्री रूप से सहयोगी रहे हैं । तथापि इसकी पूर्णा की वेला में आप एकाकी हैं ।
अपने स्वतंत्र चिन्तन के कारण सिद्धान्त शास्त्रीजी को जीवन यात्रा में अनेक विषम घाटियों से गुजरना पड़ा है। इसमें उनकी साहसी पत्नी सौ० पुतली बाई उनकी परछांयी के समान रही हैं । संघके सम्पर्क में आने पर आपकी विधायक वृत्ति ने जोर पकड़ा। और सन्त गुरुवर गणेश वर्णी के नाम पर स्थापित ग्रन्थ-माला दानवीर सेठ भागचन्द्र जी डोगरगढ़ तथा उनकी पतिपरायणा धर्मपत्नी नर्मंदा बाईजी के प्रथम तथा प्रमुख सहयोग से 'गणेशवर्णी शोध संस्थान' रूप में विकसित हुआ है । यह संस्थान आर्ष ग्रन्थों के प्रकाशन के साथ श्रमण-विषयों में कार्यं करने वाले शोध स्नातकों का भी बौद्धिक तथा आर्थिक मार्गदर्शक है। तथा इस परिणत वय और क्षीण कायिक स्थिति में भी जिनवाणी हो सिद्धान्तशास्त्री जी की चिन्तन - लेखन - प्रवचनकी एकाकी धारा है ।
रतनलाल गंगवाल
अध्यक्ष भा० दि० जैन संघ
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सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्रजी
सामन्तशाही रसूक में पले और बढ़े लाला मुसद्दीलालजी ( नहटोर जि० बिजनोर ) को कार्तिक शु० १२ सं० १९६० ( १९०३ ) में द्वितीय पुत्रका जन्म हुआ था। जिसका नाम कैलाशचन्द्र रखा गया था। माता सौ०......"देवी का लालन-पालन उस समयको शुद्ध तेरापंथी मान्यताके वातावरण में हुआ था । फलतः हस्तिनापुर, शिखरजी यात्रा प्रसंग से शिशु कैलाश को गुरु गोपालदास तथा ह०-गुरुकुल और स्याद्वाद महा विद्यालय देखने पर उन्होंने भी अपने छोटे बेटे को वहीं पढ़ानेका विचार कर लिया था । क्योंकि उस समय के प्रमुख श्रीमान् देवकुमार रईश लाला जम्बूप्रसाद देवीप्रसाद आदि भी अपने पुत्रों ( प्रद्युम्रकुमारजी, बाबू निर्मलकुमार ) अनुजों ( उमरावसिंहादि ) आदि को धार्मिक शिक्षा के लिए भेजते थे। प्रारम्भिक शिक्षा के बाद बालक कैलाशचन्द्र जी भी रा० ब० द्वारकाप्रसाद जी को प्रेरणा से १९५४ में वाराणसी आये। तथा अपनी लगन, श्रम और क्षयोपशमके कारण गुरुओं के स्नेहभाजन तथा साथियों के आदरणीय हुए। राष्ट्रपिता महात्मागांधी के विद्यालय में निवास तथा राष्ट्रीय स्वातंत्र्य संग्राम की छावनी 'काशी विद्यापीठ' की पड़ोस के कारण विषय कंठस्थ होने पर भी १९२१ में अंग्रेज शासकीय शिक्षा (परीक्षा) का बहिष्कार करके मुरेना चले गये । क्योंकि उस समय स्याद्वाद महाविद्यालय में मुरेनादि के उच्च कक्षा के छात्र, व्याकरण, न्याय तथा साहित्य की उन्नत शिक्षा के लिए आते थे । और यहां के छात्र गुरु गोपालदासजो से सिद्धान्त शास्त्र पढ़ने वहां जाते थे। इस प्रकार इन्हें आधुनिक पाण्डित्य के आदि गुरुवरों ( गणेशवर्णी और गो० दा० ) का शिष्यत्व प्राप्त हुआ था।
अध्यापकत्व
शिक्षा समाप्त होते ही १९२३ में इनकी नियुक्ति अपने गुरुकुल ( स्या० म० वि० ) के धर्माध्यापक पद पर हो गयी थी किन्तु अस्वास्थ्यके कारण ये अधिक समय तक सेवा न कर सके। १९२७ में धर्माध्यापक का पद रिक्त होनेपर आप को पुनः बुलाया गया। तो अल्पवेतन होने पर भी अपने गुरुकुल-सेवा को धन्य माना । और कुछ वर्ष के बाद आजीवन यहीं रहने का व्रत कर लिया। क्योंकि यहां के पठन-पाठन-प्रवचनने उनकी सहज क्षमताओं ( सूक्ष्म विषय ज्ञान, मोहक वक्तता और सरल भाषा) को जग जाहिर कर दिया था। यह वही दशक था जिसमें इनके अग्रज सहाध्यायी पं० राजेन्द्र कुमार जी आर्यसमाज के निग्रहार्थ मोर्चा सम्हाल कर शास्त्रार्थ संघ की स्थापना कर चुके थी। और शोधक-लेखक-सभाचतुरों के सहयोग की तलाश में थे।
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मणिकांचन योग-
अपनी उदात्त प्रकृति के अनुसार शार्दूल पंडित ( रा० कु० ) जो ने गुरुओं के आशिष के साथ सहाध्यायियों को शा० संघकी कार्यकारिणी में लिया और पुस्तिका ( ट्रैक ) लिखने-सम्पादन का दायित्व सिद्धान्ताचार्य पर छोड़ा। जिसे अपनी सममज्ञता और समयबद्धता के बलपर इन्होंने ऐसा सम्हाला की कुछ समय में हो ये मूर्धन्य लेखक -सम्पादक माने जाने लगे थे । तथा जेनदर्शन और जैनसन्देश के द्वारा इन्होंने प्रवाहपतित अन्य जैन पत्रों को भी साप्ताहिकादि के स्तर पर आने की मिशाल पेश की थी। आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार तथा पं० सुखलाल जी के आदर्श से प्रेरित होकर प्राचीन ग्रन्थ सम्पादन के गंभीर कार्य को अपने युवक सहयोगो न्यायाध्यापक स्व० पं० महेन्द्रकुमार को साथ लेकर प्रारम्भ किया तो उसमें भी ऐसी सफलता प्राप्त की थी कि धवलादि के प्रकाशक भी इनसे परामर्श करके प्रेस कापी को अंतिम रूप देते थे ।
जैन पाण्डित्य की पराकाष्ठा
सिद्धान्तशास्त्री जी की उक्त परिपक्वता का कारण उनकी 'आत्तं पाल्यं प्रयत्नतः' प्रकृति थी । दुबारा प्राचार्य (स्या० म० वि० ) होने पर वे पाठकत्व में इतने सफल रहे कि इन्हें आधुनिक 'विद्यालय का प्राण' कहते थे । तथा वास्तव में इनका प्राचार्यत्व स्या० परमगुरुवर गणेशवर्णी म० वि० का स्वर्णयुग था । भा० दि० जैन संघ यदि आर्य समाजी शास्त्रार्थं युग का समापक तथा प्राच्य पंडिताऊ - शोधपरिहारक, आधुनिक प्राचरक विद्वानों का जनक तथा दि० समाज का आदर्श संघटन दायक; शार्दूल पंडित ( रा० कु० ) के कारण था तो सिद्धान्ताचार्यजी की भी लेखिनो, वक्तृता, एवं शोध के बलपर पत्रकारिता का आदर्श, शोधकी सर्वांगता एवं जिनवाणी के हार्द की सरल सुबोध एवं सुवाच्य व्याख्या एवं लेखन का मार्गदर्शक हो सका था । सिद्धान्त शास्त्री जी की इस लोकप्रियता का कारण उनको तटस्थ एवं जागरूक दर्शकता थी । वे कहा करते थे कि मैं धार्मिक, सामाजिक प्रवृत्तियों में 'धर्म' तथा 'अधर्म द्रव्यके समान हूँ । मुझे सहयोगी बनने में आनन्द है (जैसा कि उन्होंने संघ, विद्यालय, न्यायकुमुद चन्द्र - जयधवल प्रकाशनादि में अपने को पीछे अर्थात् भूमिका लेखकादि करके किया था ) और कोई शुभ प्रवृत्ति रुक जाने पर मैं उसे प्रतिष्ठा का केन्द्र भी नहीं बनाता हूँ। वे ख्याति से परे स्पष्ट ज्ञाननुज, स्वललसंतुष्ट, निर्भीक एवं विश्वसनीय सहयोगी थे । उनकी जैनधर्म, आदि दशकों ससार मूल कृतियों, सम्पादनों आदि में 'जैन साहित्य के इतिहास को पूर्वपीठिका एकाकी ही उनको अमर करने में समर्थ है ।
ताराचन्द्र प्रेमी प्रधानमंत्री भा० दि० जैन संघ
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आत्मनिवेदन मुझे अत्यधिक आनन्दका अनुभव हो रहा है कि अध्यात्मपदकी प्रतिष्ठा करनेवाले करणानुयोगमें कषायप्राभृत और जयधवलाका प्रारम्भसे लेकर अन्त तक के परमागम अनुयोग का अनुवाद सहित सम्पादन करने का अवसर मिला |
सन् १९४१ में श्रीषट्खण्डागम से हटने के बाद मुझे वाराणसी श्री दि. जैन संघ मथुराकी ओर से बुलाया गया था। उस समय मान्य स्व० पं० राजेन्द्र कुमारजी शास्त्री मथुरा संघ की वाग्डोर सम्हाले हुए थे । बुलाने का प्रयोजन कसायप्राभृत-जयधवला के सम्पादन-अनुवाद का था।
प्रारम्भमें यह व्यवस्था की गई कि मैं पूरे समय तक इसका अनुवाद व सम्पादन करूँ। मेरी सहायता के लिये स्व. मान्य पं० कैलाशचन्दजी शास्त्री और स्व० मान्य पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य आधे समय तक रहें।
__स्व० मान्य पं० कैलाशचन्दजी जो मैं अनुवाद करता था उसे देखते थे तथा स्त्र० मान्य पं० महेन्द्र कुमारजी टिप्पण का भार सम्हालते थे। प्रथम भाग के मुद्रित होने तक यह क्रम चलता रहा। उसके मुद्रित होनेके बाद न्यायाचार्यजी संस्थासे हट गये। किन्तु स्व० मान्य पं० कैलाशचन्दजी उससे जुड़े रहे। द्वितीय भागके सम्पादित होकर मुद्रित होने पर कुछ समय बाद वे भो सम्पादनअनुवाद करने के उत्तरदायित्वसे अलग हो गये । इस विभागके मन्त्री पदको वे सम्हाले रहे । उसके बाद में ही इस कामके सम्पादन-अनुवादमें लगा रहा। कुछ समय के बाद मैंने किसी प्रकारकी अड़चन आनेके कारण संस्था छोड़ दी। फिर भी अनुरोध को ख्याल में रखकर इस काममें लगा रहा । अब कषायप्राभृत-जयधवलाके उत्तरदायित्व से मुझे निवृत्त होनेका समय आगया है। क्योंकि इस महान् ग्रन्थ के सम्पादन-अनुवाद का काम पूरा हो गया है ।
____ मान्य पं० कैलाशचन्दजी अन्त तक संस्थामें साहित्य विभागका उत्तरदायित्व सम्हाले रहे। इसलिये प्रत्यक्ष में उनसे बातचीत होती रही। उनकी इच्छा थी कि इसके १६ भागों का संक्षिप्त विवरण लिखकर मुद्रित करा दिया जाय और कषायप्राभृत-जयधवलाके प्रत्येक भाग का शुद्धिपत्र मुद्रित करा दिया जाय । - मुझे प्रसन्नता है कि प्रत्येक भागका शुद्धिपत्र मुद्रित होनेके लिये वाराणसी भेज दिया गया है और वह छप भी गया है। इसमें स्व. पं० रतनचन्दजी मुख्तार सहारनपुर और श्री पं० जवाहरलालजी सि० शा० भिण्डर का सहयोग मिला है। उन दोनों के सहयोगसे यह काम मैं पूरा कर सका हूँ।
स्वपं. रतनचन्दजी मुख्तार जिस समय प्रत्येक भाग मुद्रित होता था वे बुलाकर उसका स्वाध्याय करते थे और मुद्रणके समय प्रूफरीडिंग और प्रेसकी असावधानीके कारण जो अनुवाद या मूलमें छूट रह जाती थी उसे वे जैनगजटमें मुद्रित कराते जाते थे। वे उस प्रकार की छूट या अशुद्धिको मेरे पास नहीं भेजते थे। वे अपने जीवन में बहुत बदल गये थे । मुझे उनके और वकील सा० नेमिचन्दजी के साथ रहनेवाले पुराने सम्बन्धोंकी इस समय भी याद बनी हुई है। तेरापन्थ शुद्धाम्नायको माननेवाला यह व्यक्ति इतना कैसे बदल गया है ? इसको मुझे रह-रहकर खबर आती है । आज भी मान्य वकील सा० जीवित हैं। पर उनसे सम्बन्ध छूट गया है। वे बहुत गम्भीर
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मालूम पड़ते हैं, भले ही उनके विचार पहले जैसे न रहे हों। वे अपनेको प्रसिद्धि से दूर रखते हैं, उनके इस गुणका जितना आदर किया जाय वह थोड़ा है । वे इस समय भी स्वाध्याय में लगे रहते हैं। इसके लिये उन्होंने वकील के पेशे से बहुत पहले मुक्ति ले ली थी। जिस प्रकार स्व० मुख्तार सा० षट्खण्डागम और कषायप्राभूत के स्वाध्यायी विद्वान् थे। उसी प्रकार वे भी इन दोनों महान् ग्रन्थों के स्वाध्यायी विद्वान हैं। वे इस कारण धन्यवादके पात्र तो हैं ही, मैं उनका अभिनन्दन करता हूँ । कषायप्राभृतके १५ अनुयोगद्वार हैं । पर वह १६ भागों में पूरा हुआ है। इस समय संघ के महामन्त्री श्री मान्य पं० ताराचन्द जी प्रेमी हैं । वे सहृदय व्यक्ति हैं। देश-कालके जानकार हैं। उन्हींके संरक्षणमें कषायप्राभूत- जयधवला सम्पादित और अनुवादित होकर पूरा हो रहा है। इसलिए मैं उनको धन्यवाद देता हूँ । संस्थाके सभापति मान्य सेठ रतनलालजी गंगवाल कलकत्ता हैं। वे शुद्धाम्नाय तेरापन्थ के अनन्य नेता हैं । वे इस आम्नायके पुरस्कर्ता हैं । इसलिये वे भी - धन्यवाद के पात्र हैं ।
मान्य पं० जगन्मोहनलालजी शास्त्री इस संस्थाके कर्ता-धर्ता हैं । उनकी राय सर्वोपरि मानी जाती है । वे स्व० मान्य पं० कैलाशचन्दजी के अन्यतम मित्र हैं । ऐसा लगता है कि उनके संस्थाका वर्तमान रूप बना हुआ है इसके लिये वे भी धन्यवाद के पात्र हैं।
रहने
डा० सुदर्शनलालजी जैन रीडर, संस्कृत विभाग, हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी ने इस भाग प्रूफ रीडिंग में बहुत श्रम किया है। जहाँ कहीं मूल और अनुवादको प्रेसकापीमें उन्हें अड़चनें आईं तो उन्होंने उन्हें स्वयं संशोधित करके सम्हाल लिया है। हर काम छोड़कर वे इस कार्य में लगे जिससे यह भाग शीघ्र छप सका। इसके लिये वे भी धन्यवादके पात्र हैं ।
लगभग दो वर्ष से हम यहाँ दि० जैन पुराना मन्दिर में रह रहें हैं । इसके मन्त्री मान्य बाबू सुकमालचन्दजी जैन मेरे हैं । मान्य बाबू हंसाजी मेरठ उनके साथी हैं। वे यहाँ रहकर संस्था को उन्नत करनेमें लगे हुए हैं। दोनों व्यक्ति सम्पन्न घरानेके हैं। उनके कारण यह संस्था निरन्तर प्रगति कर रही है । मान्य हंसा बाबूके परिवारके लोग मेरठ में रहते हैं । वे इस संस्थाको सब प्रकार से उन्नत बनानेके लिए यहाँ रह रहे हैं । वे स्वयंका उत्तरदायित्व स्वयं सम्हाले हुए हैं, फिर भी संस्थाके हितमें लगे हुए हैं। पुराने मन्दिरजी को छोड़कर यहाँ उसके परिसर में जो नन्दीश्वर द्वीपके जिनालयों की रचना हुई है, समोसरण मन्दिरका निर्माण हुआ है वह सब उनके सक्रिय सहयोग से हुआ है । वे इसे ऐसा बना देना चाहते हैं कि हस्तिनापुर क्षेत्र एक आदर्श संस्था बन जाय । वे होमियोपैथिके अभ्यस्त डाक्टर हैं । आजू-बाजूके देहाती भाई और संस्था में रहने वाले भाई-बहिन सदा उनसे लाभान्वित होते रहते हैं। दवा मुफ्त वितरित करनेमें वे स्वयंको गौरवान्वित मानते हैं ।
यहाँ कार्यालयका पूरा उत्तरदायित्व स्वतन्त्रता सेनानी बाबू शिखरचन्दजी सम्हाले हुए हैं । सहृदय व्यक्ति हैं । कभी भी आप उनके पास पहुँचिये वे सेवाकेलिये सदा तैयार मिलेंगे । कार्यालय के लिये जैसा प्रभावक व्यक्ति होना चाहिए, वे हैं ।
उनके साथी श्री बाबू सुरेन्द्रकुमारजी बाहर का काम सम्हालते हैं । संस्थाका एक बाग है । उसकी देखरेख उनके जिम्मे है । वे संस्थाके हितमें सावधान हैं ।
भाई दत्ताजी कार्यालयकी लिखा-पढ़ीमें लगे रहते हैं । वे मिलनसार मेनेजर के काममें हाथ बटाते रहते हैं । इससे हमें यहाँ रहने में कोई अड़चन यहाँ रहें यह क्षेत्र समितिकी इच्छा है । वे सब धन्यवाद के पात्र हैं ।
व्यक्ति हैं । प्रधान नहीं जाती। हम
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मान्य पं. बाबूलालजी जैन फागुल्ल महावीर प्रेस के मालिक हैं। मेरे अनुरोधको ख्यालमें रखकर इस भाग को मुद्रित करनेमें उनका वांछनीय सहयोग मिला हुआ है। इसके लिए वे भी धन्यवादके पात्र हैं।
. विशेष क्या निवेदन करूं। इस कामके पूरा करनेमें मुझे ४८ वर्ष लगे हैं। फिर भी मेरे द्वारा यह पूरा हो रहा है इसकी मुझे प्रसन्नता है। यह जीवन इसी प्रकार भगवान् महावीर की वाणीके लेखनमें व्यतीत हो यही मेरी अन्तिम इच्छा है। णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं ।
-फूलचन्द्र शास्त्री
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प्रस्तावना
लोभ संज्वलनकी दूसरी कृष्टिका वेदन करनेवाले जीवके जो प्रथम स्थिति एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण शेष रहती है उस समय संज्वलन लोभकी तीसरी कृष्टि पूरीकी पूरो सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियों में संक्रमित हो जाती है। तात्पर्य यह है कि दूसरी कुष्टिके एक समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्ध और उदयावलि में प्रविष्ट हुए प्रदेशपुंजको छोड़कर शेष सब द्रव्य सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियों में संक्रान्त हो जाता है । तब यह क्षपक अन्तिम समयवर्ती बादर-साम्परायिक और मोहनीय कर्मका अन्तिम समयवर्ती बन्धक होता है । उसके बाद यह क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिक होकर सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंके असंख्यात बहुभागकी उदीरणा करता है । इसके जो अनुदीर्ण और उदीर्ण कृष्टियोंका अल्पबहुत्व होता है उसका संक्षिप्त कथन १५वीं पुस्तक में कर आये हैं । इसके आगे बतलाया है कि जितना सूक्ष्मसाम्परायिकका काल शेष रहता है उतना ही मोहनीय कर्मका स्थितिसत्कर्म शेष रहता है । ऐसी अवस्थामें इस गुणस्थानसम्बन्धी जिन गाथाओं का विशेष खुलासा कर आये हैं उन गाथाओंका उच्चारणापूर्वक प्रत्येक पदका खुलासा करेंगे ।
उनमें दसवीं मूलगाथा में बतलाया है कि मोहनीय कर्मके कृष्टिरूपमें परिणमा देनेपर किनकिन कर्मों को कितने प्रमाण में बाँधता है, किन-किन कर्मोंको कितने प्रमाण में वेदता है, किन-किन संक्रमण करता है और किन-किन कर्मोंका असंक्रामक होता है । इन बातोंका खुलासा आगे पाँच भाष्यगाथाओं द्वारा करते हुए पहली भाष्यगाथामें बतलाया है कि संज्वलन क्रोधको प्रथम कृष्टिका वेदन करने वाला अन्तिम समयवर्ती जीव मोहनीय कर्मसहित यहाँ बँधने वाले तीनघाति कर्मोंका अन्तर्मुहूर्त कम दस वर्षं प्रमाण स्थितिबन्ध करता है । इसमें इतनी विशेषता है कि जिन कर्मों की अपवर्तना होती है उनको देशघातिरूपसे ही बाँधता है तथा जिन कर्मोंकी अपवर्तना सम्भव नहीं है उन कर्मोंको सर्वघातिरूपसे बाँधता है । वे कर्म केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण हैं । शेष कर्मोंका क्षयोपशम होता है, इसलिए उनकी अपवर्तना होती है । अतः उनका देशघातिकरण होने से उनका देशघातिरूप ही बन्ध होता है । यह प्रथम भाष्यगायाकी प्ररूपणाका सार है ।
दूसरी भाष्यगाथामें बतलाया है कि अन्तिम समयवर्ती बादरसाम्परायिक जीव नामकर्म, गोत्रकर्म और वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध कुछ कम एक वर्षप्रमाण होता है, तीन घातिकर्मोंका मुहूर्त - पृथक्त्व प्रमाण होता है और मोहनीय कर्मका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होता है ।
तीसरी भाष्यगाथामें बतलाया है कि अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक जीव नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मको एक दिनके भीतर बाँधता है अर्थात् आठ मुहूर्तप्रमाण बन्ध करता है तथा वेदनीय कर्मको बारह मुहूर्त प्रमाण बाँधता है ।
चौथी भाष्यगाथामें बतलाया है कि तीन मूलप्रकृतियोंकी प्ररूपणा करनेके बाद जो मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण हैं उनके अनुभागको देशघातिरूपसे वेदन करता है । यहाँ गाथामें जो 'च' शब्द आया है उससे अवधिज्ञानावरण और मन:पर्ययज्ञानावरण तथा चक्षु, अचक्षु और अवधिदर्शनवरणको ग्रहण करना चाहिये । इनकी क्षयोपशमलब्धि सम्भव है इसलिए इनका देशघातिरूपसे वेदन करता है । इसी प्रकार पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके सम्बन्धमें जो भी जानना चाहिये । इनके सिवाय जो अलब्धिरूप कर्म होते हैं, अर्थात् जिन कर्मोंका किसी-किसीके क्षयोपशम सम्भव नहीं है उन अवधिज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणको सर्वघातिरूपसे वेदन करता है,
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क्योंकि सब जीवों में इन तीन कर्मोंका क्षयोपशम सम्भव नहीं है । इसीप्रकार मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरणको देशघातीरूपसे और सर्वघातिरूपसे वेदन करता है ।
यहाँ शंकाकार कहता है कि अवधिज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण कर्मोंका अनुभाग- उदय किन्हीं जीवोंमें देशघाति स्वरूप होता है और अन्य जीवोंमें सर्वघाति स्वरूप होता है क्योंकि सब जीवोंमें इन तीन प्रकृतियोंकी क्षयोपशमलब्धि होती है, ऐसा नियम नहीं है । किन्तु मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरणका किसीके देशघातिस्वरूप और किसीके सर्वघातिस्वरूप अनुभाग- उदय होना सम्भव है, इसलिये सब क्षपक जीवोंमें उक्त कर्मो की क्षयोपशम लब्धि नियमसे होती है, यह सम्भव नहीं है ।
यहाँ इस शंकाका समाधान यह है कि यद्यपि सब जीवोंके क्षयोपशम- लब्धिसामान्य सम्भव है किन्तु क्षयोपशम विशेष की अपेक्षा प्रकृत अर्थ बन जाता है । यथा मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण इन दोनों प्रकृतियोंके असंख्यात लोकप्रमाण उत्तरोत्तर प्रकृतियाँ हैं, क्योंकि पर्याय श्रुतज्ञानसे लेकर सर्वोत्कृष्ट श्रुतज्ञानपर्यन्त श्रुतज्ञानके भेदोंके उतने ही आवरण कर्म हैं । मतिज्ञानके इतने ही आवरणविकल्प बन जाते हैं, क्योंकि मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है, इसलिये जितने भेद श्रुतज्ञानके हैं उतने ही भेद मतिज्ञानके बन जाते हैं । इस प्रकार श्रुतज्ञानावरणके जितने भेद हैं उतने ही मतिज्ञानावरण भी बन जाते हैं । इस कथनमें कोई बाधा नहीं आती। ऐसा होने पर सर्वोत्कृष्ट क्षयोपशमपरिणत चौदह पूर्वधर और सर्वोत्कृष्ट कोष्ठबुद्धि आदि मतिज्ञानविशेषसे सम्पन्न क्षपक श्रेणिपर आरूढ़ जीव होता है उसके दोनों कर्मोंका देशघातिस्वरूप ही अनुभागोदय होता है ।
किन्तु विकल श्रुतधर और विकल मतिज्ञानी क्षपकश्रेणिपर आरोहण करता है उस क्षपकके सर्वघातिस्वरूप अनुभागोदय जानना चाहिये क्योंकि उसके अधस्तन आवरणोंका देशघातिस्वरूप अनुभागोदय होने पर भी उपरिम आवरणोंका सर्वघातिस्वरूप अनुभागोदय सम्भव है ।
विकलश्रुतधारी क्षपकश्रेणिपर आरोहण नहीं कर सकता ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि दस और नौ पूर्वधारि जीव भी क्षपक श्रेणिपर आरोहण करते हैं ऐसा आचार्योंका उपदेश पाया जाता है।
इसी प्रकार अवधिज्ञानावरण आदि शेष प्रकृतियोंके विषय में भी समझ लेना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अवधिज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणको उत्तरोत्तर प्रकृतियोंकी विवक्षा के बिना भी देशघाति और सर्वघाति अनुभागका उदय सम्भव है ऐसा यहाँ जानना चाहिये, क्योंकि सब जीवोंमें इन प्रकृतियोंके क्षयोपशमका नियम नहीं देखा जाता ।
पांचवीं भाष्यगाथामें बतलाया है कि यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका यह क्षपक प्रतिसम अनन्त गुणवृद्धिरूप से वंदन करता है अन्तराय कर्मको यह क्षपक प्रतिसमय अनन्तगुणहानिरूपसे वेदन करता है तथा शेष कर्मो को छह वृद्धि और छह हानिमें से कोई एक वृद्धि और कोई एक हानिरूपसे तथा अवस्थितरूपसे वेदन करता है ।
ग्यारहवीं मूल गाथामें बतलाया है कि मोहनीय कर्मके स्थितिघात आदि कितने-कितने क्रियाभेद होते हैं ? यह कथन अकृष्टिस्वरूप संज्वलनकर्मों के कृष्टिस्वरूप किये जाने पर विवक्षित है । तथा शेष कर्मों के स्थितिघात आदि रूप कितने-कितने क्रियाभेद होते हैं ।
यहाँ प्रसंगवश इस प्ररूपणाको १ स्थितिघात, २ स्थितिसत्कर्म ३ उदय, ४ उदीरणा, ५ स्थितिकाण्डक, ६ अनुभागघात, ७ स्थितिसत्कर्म ८ अनुभागसत्कर्म, ९ बन्ध और १० बन्धपरिहानि इन दस क्रियाभेदोंद्वारा किया गया है ।
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१. स्थितिषात-यह पहला क्रियाभेद है। इसमें स्थितिकाण्डक घातका काल अन्तर्मुहुर्त विवक्षित है !
२. स्थितिसत्कर्म-यह दूसरा क्रियाभेद है। इसके द्वारा स्थितिसत्कर्मके प्रमाणका अवधारण किया गया है।
३. उदय-यह तीसरा क्रियाभेद है ! इसके द्वारा कृष्टियोंका उदय प्रत्येक समयमें अनन्तगुणाहोन होकर प्रवृत्त होता है यह बतलाया गया है ।
४. उदीरणा-यह चौथा क्रियाभेद है। इसद्वारा प्रयोगसे अपकर्षित होनेवाले स्थिति और अनुभागकी प्ररूपणा की गई है।
.. ५. स्थितिकाण्डक-यह पांचवां वीचारस्थान है। इसके द्वारा स्थितिकाण्डकके प्रमाणका अवधाररण किया गया है।
६. अनुभागपात-यह छठा क्रियाभेद है । इसके द्वारा स्थितिषातका जो काल है वही इसका विवक्षित है यह बतलाया गया है।
७. स्थितिसत्कर्म-यह साता क्रियाभेद है। इसके द्वारा कृष्टिवेदकके सब सन्धियोंमें धात करनेसे शेष रहे स्थितिसत्कर्मके प्रमाणका निर्देश किया गया है।
८. अनुभागसत्कर्म-यह आठवाँ क्रियाभेद है। इसके द्वारा चार संज्वलनोंके अनुभाग सत्कर्मका विचार किया गया है ।
९. बन्ध-यह नोवा क्रियाभेद है । इसके द्वारा कृष्टिवेदकके सब सन्धियोंमें स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके प्रमाणका निश्चय किया गया है।
१०. बन्धपरिहानि-यह दसवां क्रियाभेद है। इसके द्वारा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धकी परिहानिका विचार किया गया है।
इस प्रकार इन दस क्रियाभेदोंद्वारा मोहनीय कर्मकी विवक्षित प्ररूपणा प्रतिबद्ध है। शेष कर्मोकी प्ररूपणा इसी विधिसे जान लेनी चाहिये।
आगे क्षपणासम्बन्धी चार मूल गाथाओं और उनसे सम्बन्ध रखनेवाली भाष्यगाथाओंकी प्ररूपणा की गई है । यह क्षपक कृष्टियोंका क्या वेदन करता हुआ या क्या संक्रमण करता हुआ या क्या दोनों करता हुआ क्षय करता है ? अथवा क्या आनुपूर्वीसे क्षय करता है या आनुपूर्वीके बिना क्षय करता है ?
इस मूल गाथाकी एक भाष्यगाथा है। उसमें बतलाया गया है कि क्रोध संज्वलनकी प्रथम, द्वितीय और तीसरी संग्रहकृष्टिको क्रोध संज्वलनकी प्रथम संग्रहकृष्टिको वेदन करता हुआ और पर प्रकृतिरूपसे संक्रमण करता हुआ क्षय करता है । यह तो सामान्य नियम है। विशेष बात यह है कि संज्वलन क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिको वेदन नहीं करता हुआ भी पर-प्रकृतिरूपसे संक्रमण करता हुआ भी कितने ही काल तक क्षय करता है। खुलासा इस प्रकार है कि वेदक कालके समाप्त हो जानेपर जो दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्ध निषेक हैं उनका वेदन न करते हुए संक्रमणद्वारा ही क्षय करता है। यह प्रथम संग्रहकृष्टिकी क्षपणाकी विधि है। इसी प्रकार ग्यारह संग्रहकृष्टियों तक इस विधिको जान लेना चाहिये। .
लोभसंज्वलनकी जो बारहवीं संग्रहकृष्टि है उसका अपने रूपसे विनाश नहीं होता। अब उसका क्षय किस प्रकार होता है यह बतलाते हुए लिखा है कि 'चरिमं वेदेमाणो' ऐसा कहने
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पर उससे अन्तिम बादर साम्परायिक कृष्टिको ग्रहण न कर जो सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि है उसका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि वह अन्तिम है । इसलिये वेदन करते हुआ ही उसका क्षय करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । वेदन करते हुए ही उसका क्षय क्यों होता है ? इसके दो कारण हैंप्रथम तो दसवें गुणस्थान में संज्वलनका बन्ध नहीं होता। दूसरा उसका प्रतिग्रहान्तरका अभाव कारण है ।
क्षपणासम्बन्धी दूसरी मूल गाथामें बतलाया है कि जिस संग्रह कृष्टिका संक्रमण करते हुए क्षय करता है उसका नियमसे अबन्धक रहता है। इसी बातको उसकी भाष्यगाथाद्वारा और विशेषरूपसे बतलाया गया है। साथ ही सूक्ष्म साम्परायिक संग्रह कृष्टिका नियमसे अबन्धक होता है यह भी बतलाया गया है ।
क्षपणासम्बन्धी तीसरी मूल गाथा आशंकापरक गाथा है। इसमें जिन आशंकाओं को व्यक्त किया गया है उनका दस भाष्यगाथाओं द्वारा समाधान किया गया है। उनमें पहली आशंका यह है कि जिस-जिस संग्रह कृष्टिका क्षय करता है उस उस संग्रहकृष्टिको किस-किस प्रकारके स्थिति और अनुभागों में उदीरित करता है ? दूसरी आशंका यह है कि विवक्षित कृष्टिको अन्य कृष्टिमें संक्रमण करता हुआ किस-किस प्रकारके स्थिति और अनुभागोंसे युक्त कृष्टिमें संक्रमण करता है ? तीसरा प्रश्न कि विवक्षित समय में जिस स्थिति और अनुभागोंसे युक्त कृष्टियों में उदीरणा और संक्रमण आदि किये हैं, अनन्तर समय में क्या उन्हीं कृष्टियों में उदीरणा और संक्रमण आदि करता है अथवा अन्य कृष्टियों में करता है ? ये तीन प्रश्न हैं। इनका उक्त भाष्यगाथाओं द्वारा समाधान किया गया है ।
जैसा कि हम पहले निर्देश कर आये हैं कि इन प्रश्नोंका समाधान दस माध्यम से किया गया है । उनमें से पहली भाष्यगाथा का पूर्वार्ध भी पृच्छासूत्र है, उत्तरार्धमें बतलाया है कि विवक्षित संग्रह कृष्टिके अनुभागसम्बन्धी सभी भेदोंमें परन्तु उदय और उदोरणा मध्यम कृष्टिरूपसे ही होतो है । पूर्वार्धका खुलासा गया है । उनमें बतलाया है कि इस क्षपकके स्थितिबन्ध चार मास प्रमाण ही होता है, क्योंकि प्रथम समयवर्ती जो कृष्टिवेदक है उसके स्थितिसत्कर्म आठ वर्ष प्रमाण होता है, परन्तु उस समय इतना स्थितिबन्ध सम्भव नहीं है, क्योंकि वह उस समय संज्वलनका चार मास प्रमाण ही होता है । स्थिति संक्रम. उदयावलिको छोड़कर शेष सब स्थितियों में होता है । उदीरणा भी उदयावलिको छोड़कर सब स्थितियों में प्रवृत्त होती है ।
भाष्यगाथाओं के निर्देशसूत्र नहीं ।
संक्रम होता है । चूर्णिसूत्रों में किया
दूसरी भाष्यगाथामें बतलाया है कि यह गाथा भी पृच्छासूत्र है; इसलिये इसद्वारा पहलो भाष्यगाथामें कहे गये अर्थका ही विशेष खुलासा किया गया है।
तीसरी भाष्यगाथामें बतलाया है कि स्थिति और अनुभागसम्बन्धी जिन कर्मप्रदेशों का पहले समय में अपकर्षण करता है उनका दूसरे समय में सदृश और असदृशरूपसे उदीरणाद्वारा प्रवेशक होता है । सदृशका अर्थ है कि जो एक कृष्टिरूपसे परिणमन कर उदयमें आते हैं वे सदृशसंज्ञावाले कहलाते हैं और असदृश का अर्थ है कि जो स्थिति और अनुभागसम्बन्धी कर्मप्रदेश अनन्त कृष्टिरूपसे परिणमन कर उदयमें आते हैं तो उनकी असदृश संज्ञा है । किन्तु यहाँ पर अनन्त कृष्टिरूपसे परिणमन कर उदयमें आते हैं ऐसा अर्थ यहाँ किया गया जानना चाहिए ।
चौथी भाष्यगाथा भी पृच्छासूत्र है । उसमें उत्कर्षणविषयक पृच्छा की गई है । किन्तु इसका यहाँ प्रयोग नहीं है; क्योंकि कृष्टिकारक जीवके संज्वलन कषायका उत्कर्षण नहीं होता, ऐसा नियम है ।
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पांचवीं भाष्यगाथामें बन्ध, संक्रम और उदयविषयक अल्पबहुत्वको बतलाते हुए कहा गया है कि संक्रामण प्रस्थापकके इन विषयोंका जैसा अल्पबहुत्व वहाँ कह आये हैं वैसा यहाँ जानना चाहिये।
छठी भाष्यगाथामें बतलाया है कि जो कर्मपुंज प्रयोगवश उदीरणाद्वारा उदयमें प्रविष्ट होता है उससे स्थितिका क्षय होकर उदयमें प्रविष्ट होनेवाला कर्मपुंज नियममे असंख्यातगुणा होता है।
सातवीं भाष्यगाथामें बतलाया है कि प्रयोगवश जो प्रदेशपुंज उदयावलिमें प्रविष्ट होता है वह प्रदेशपुंज उदयसमयसे लेकर उदयावलिके अन्तिम समय तक नियमसे असंख्यातगुणा होता है।
आठवीं भाष्यगाथामें बतलाया है कि यह क्षपक जिन अनन्त कृष्टियोंकी उदीरणा करता है उनमें अनदोर्यमान एक-एक संक्रमण करती है। तथा पहले जो कृष्टियाँ स्थितिक्षयसे उदयावलिमें प्रविष्ट होकर उदयको नहीं प्राप्त हईं हैं वे अनन्त कृष्टियाँ एक-एक करके स्थितिक्षयसे वेद्यमान मध्यम कृष्टिरूप होकर परिणमन करती हैं।
· नौवीं भाष्यगाथामें बतलाया है कि जितनी भी अनुभाग कृष्टियां नियमसे प्रयोगवश उदीरित होती हैं उनरूप होकर पहले उदयावलिमें प्रविष्ट हुईं अनुभाग कृष्टियाँ परिणमती हैं ।
दसवीं भाष्यगाथामें बतलाया है कि एक समय कम अन्तिम आवलिकी उत्कृष्ट और जघन्य असंख्यातवें भागप्रमाण जो अनुभाग कृष्टियाँ हैं वे सब असंख्यात बहुभागप्रमाण मध्यम कृष्टियोंके रूपसे नियमसे परिणम जाती हैं। .
आगे क्षपणासम्बन्धी चौथी मूल गाथामें बतलाया है कि विवक्षित संग्रह कृष्टि का वेदन करनेके बाद अन्य संग्रहकृष्टिका अपकर्षण करके वेदन करता हुआ यह क्षपक उस पूर्व में वेदित संग्रहकृष्टिके शेष रहे भागको वेदन करता हुआ क्षय करता है या अन्य प्रकृतिरूप संक्रमण करके क्षय करता है; क्या है ?
आगे उसका खुलासा करनेके लिये दो भाष्यगाथाएं आई हैं। उनमें से पहली भाष्यगाथामें बतलाया है कि पिछलो संग्रह कृष्टिके वेदन करनेके बाद जो भाग शेष बचता है उसे अन्य संग्रह कृष्टिमें नियमसे प्रयोगद्वारा संक्रमण करता है। परन्तु पिछली संग्रहकृष्टिका कितना भाग शेष बचता है इसकी प्ररूपणा करते हुए बतलाया है कि पिछली संग्रह कृष्टिका दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्धरूप द्रव्य शेष बचता है और उच्छिष्टावलिप्रमाण द्रव्य शेष बचता है। इस सब द्रव्यका अन्य संग्रहकृष्टि में नियमसे प्रयोगद्वारा संक्रमण करके क्षय करता है। यहाँ इतना
और विशेष जानना चाहिये कि नवकबन्धरूप सत्कर्मको अधःप्रवृत्त संक्रमके द्वारा संक्रमित करके क्षय करता है और उच्छिष्टावलिप्रमाणद्रव्यको स्तिबुक संक्रमकेद्वारा उदयमें प्रवेशित करके क्षय करता है।
___ आगे दूसरी भाष्यगाथामें बतलाया है कि पूर्व में वेदी गई संग्रहकृष्टिके और इस समय वेदो जानेवाली संग्रहकृष्टिके सन्धिस्थानमें प्रथम संग्रहकृष्टि को एक समय कम एक आवलि उदयावलिमें प्रविष्ट होती है तथा जिस संग्रहकृष्टिका अपकर्षण करके इस समय वेदन करता है उसकी पूरी आवलि उदयावलिमें प्रविष्ट होती है । इस प्रकार दो आवलियाँ संक्रममें पाई जाती हैं । यह सन्धिस्थानको बात है । इसे छोड़कर शेष कालमें देखा जाय तो एक उदयावलि होती है क्योंकि उच्छिष्टावलिके गला देनेपर वहाँ और दूसरा प्रकार सम्भव नहीं है।
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यह प्ररूपणा क्रोध संज्वलनके साथ पुरुष वेदसे जो जीव क्षपकवेणि पर चढ़ता है उसको ध्यानमें रखकर की है। आगे मान संज्वलनके साथ पुरुषवेद से क्षपकश्रेणि पर चढ़े हुए जीवकी अपेक्षा कथन करने पर जब तक अन्तरकरण नहीं किया तब तक तो कोई विशेषता नहीं है। उक्त दोनों जीवों की अपेक्षा कथन एक समान है।
___ अन्तरकरण करनेके बाद क्रोध की प्रथम स्थिति न करके मान संज्वलन की प्रथम स्थिति करता है। वह क्रोध को प्रथम स्थिति क्रोधके क्षपणाकालके बराबर होती है। क्रोधसे चढ़ा हुआ जीव जहां अश्वकर्णकरण करता है, उस स्थानमें जाकर मानसे चढ़ा हुआ जीव क्रोधको क्षपणा करता है। क्रोधसे क्षपक श्रेणिपर चढ़े हुए जीव का जो कृष्टिकरणका काल है, मानसे क्षपक श्रेणिपर चढ़ा हुआ जीव उस कालमें अश्वकर्णकरण करता है । क्रोधसे आपकश्रेणिपर चढ़ाहुआ जीव जिस कालमें क्रोधको क्षपणा करता है उस कालमें मानसे चढ़ा हुमा जीव कृष्टिकरण करता है। क्रोधसे चढ़ा हुआ जीव जिस कालमें मानकी क्षपणा करता है उस कालमें मानसे चढ़ा हुआ जीव मानको क्षपणा करता है। इसके आगे क्रोध और मानसे श्रेणिपर चढ़े हुए दोनों जीवोंकी विधि समान है।
मान संज्वलनको प्रथम स्थिति का हम पूर्वमें उल्लेख कर आए हैं। माया संज्वलनसे क्षपक श्रेणिपर चढ़े हुए जीवकी प्रथम स्थितिमें, क्रोधसंज्वलनसे चढ़ा हुआ जीव जिस कालमें अश्वकर्णकरण करता है वह काल भी सम्मिलित हो जाता है । इसी प्रकार लोभ संज्वलनकी अपेक्षा विचार कर लेना चाहिथे, क्योंकि लोभसंज्वलनकी प्रथम स्थिति लोभ संज्वलनकी प्रथम स्थिति माया संज्वलनसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुये जोवको अपेक्षा बड़ी होती है।
स्त्रीवेदसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए जोवको अपेक्षा जो भेद है उसका विवेचन मूलमें किया ही है, इसलिए वहाँ से जान लेना चाहिए । इतना अवश्य है कि जो स्त्रीवेदसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ता है उसके नपुंसकवेदका क्षय होकर स्त्रीवेदका क्षय होता है। साथ ही इतनी और विशेषता है कि पुरुषवेदके क्षय करने में जितना काल लगता है उतना ही काल स्त्रीवेदसे क्षपकश्रेणिपर चढे हए जोव को स्त्रीवेदके क्षय करनेमें लगता है। यह जीव अपगतवेदी होनेके बाद हो सात नोकषायोंका क्षय करता है। यहाँ इस विशेषताको ध्यानमें रखकर शेष कथनको जान लेना चाहिये।
___ नपुंसकवेद से क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए जीव की अपेक्षा विचार करने पर स्त्रीवेदसे चढ़े हुए जीवकी जितनी प्रथम स्थिति होती है उतनी बड़ी नपुसकवेदसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए जीवकी प्रथम स्थिति होती है। यह अन्तर करनेके दूसरे समयमें नपुंसकवेदका क्षय करनेके लिये आरम्भ करता है। उसके बाद स्त्रीवेदके क्षय करनेकेलिये आरम्भ करते हुए नपुसकवेदका क्षय करता है। इसके बाद दोनों ही कर्म स्त्रीवेद और नपुसकवेद एक साथ क्षयको प्राप्त होते हैं। उसके बाद सात नोकषायोंका क्षय करता है।
यहाँ यह शंका की गई है कि नाना जीवोंकी अपेक्षा तीनों ही कालोंमें जो परिणाम जिस जीवके जिस कालमें होते हैं वही परिणाम दूसरे जीवोंके भी उस कालमें होते हैं फिर यह फरक क्यों होता है ? इसका समाधान यह है कि वेदों और कषायोंकी अपेक्षा करण परिणामोंमें भेद न होने पर भी यह भेद बन जाता है क्योंकि कारणभेदसे कार्यमें भेद देखा जाता है।
____ जब यह जीव सूक्ष्म साम्परायको प्राप्त होकर उसके अन्तिम समयमें स्थित होता है उस समय नाम और गोत्रकर्मका बन्ध आठ मुहूर्त प्रमाण होता है, वेदनीय कर्मका बन्ध बारह मुहर्त प्रमाण होता है, तीन घाति कोका बन्ध अन्तर्मुहुर्त प्रमाण होता है तथा मोहनीय कर्मका बन्ध नौवें गुणस्थानमें समाप्त होकर यहाँ चारों प्रकारके सत्कर्मका भो अभाव हो जाता है।
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उसके बाद यह जीव अनन्तर समय में क्षीणकषाय होकर क्षीणकषायके एक समय अधिक एक आवलिकाल शेष रहने तक तीन घातिकर्मोंकी उदीरणा करता है । उसके बाद उदय होकर क्षीणकषाय के अन्तिम समय तक इन कर्मोंका उदय रहता है । तेरहवें गुणस्थानके प्रथम समय में इन कर्मोंका अभाव होने से यह जीव 'सर्वज्ञ' पदको प्राप्त कर लेता है । बारहवें गुणस्थान में यह जीव वीतराग तो हो ही गया था । इस प्रकार वीतराग सर्वज्ञ होकर जिस विधिसे अपने कर्मों का क्षय किया उस विधिका उपदेश देता हुआ विहार करता है । यहाँ पूरे विषयको स्पष्ट करने के लिये
मूल गाथाएँ
आईं हैं।
एक उद्धृत गाथामें बतलाया है कि तीर्थंकरका विहार लोकको सुखका निमित्त तो है, पर उनका वह कार्य पुण्य फलवाला नहीं है और न ही उनका दान-पूजाका आरम्भ करनेवाला वचन भी कर्मो से लिप्त करनेवाला है ।
उनके जो सातावेदनीयका बन्ध होता है वह योगके कारण ही होता है । वीतराग होने के कारण वह स्थिति अनुभागका बन्ध करनेवाला नहीं होता । फिर भी उस कर्मको जो सातावेदनीय कहा गया है वह बाह्य अनुकूलतामें निमित्त होनेके कारण ही कहा गया है।
वे १८ दोषोंसे रहित होते हैं और सदा ही एक समयकी स्थितिवाले सातावेदनीयका उदय बना रहनेसे असातावेदनीयका उदय भी सातारूप परिणम जाता है, इसलिये उनके क्षुधा, पिनासा आदि १८ दोष नहीं होते । दूसरे असातावेदनीयका टवें आदि गुणस्थानों में उत्तरोत्तर हजारों स्थिति काण्डकघान ओर अनुभागकाण्डकघान हो जानेसे उनके असातावेदनीयका अव्यका उदयही होता है जो प्रतिसमय सातारूप परिणम जाता है। यहाँ क्रमसे किस कर्मकी कैसे क्षपणा होती है यह क्षपणाधिकार में बतलाया गया है। इस प्रकार कथन करनेके बाद कषायप्राभृतकी प्ररूपणा समाप्त की गई है, क्योंकि चारित्रमोहनीयकी क्षपणा यहाँ समाप्त होती है ।
उसके बाद पश्चिमस्कन्ध नामक अर्थाधिकारको प्रारम्भ करते हुए बतलाया है कि समस्त श्रुतस्कन्धके चूलिकारूपसे यह अर्थाधिकार अवस्थित है । उसका विचार करते हुए बतलाया है कि सबके अन्त में होनेवाले स्कन्धको पश्चिमस्कन्ध कहते हैं, क्योंकि घातिकर्मों को क्षय करके इस अर्थाधिकारका वर्णन किया जाता है, इसलिये इसे पश्चिमस्कन्ध कहा गया है। इसमें अघातिकर्मों को क्षय करने की कैसी विधि होती है इसका विवेचन किया है।
अथवा चार घातिकर्मोंके क्षय करनेके बाद केवलीके तैजस और कार्मणनोकर्मके साथ जो अन्तिम औदारिकशरीर नोकर्मस्कन्ध पाया जाता है उसे पश्चिमस्कन्ध कहते हैं, क्योंकि यह नोकर्मशरीर सबसे अन्तिम है ।
अथवा अयोगकेवलीके अन्तिम कर्मस्कन्धके साथ अन्तिम औदारिक शरीरसे सम्बन्ध रखनेवाला जो जीव प्रदेशस्कन्ध है वह भी पश्चिमस्कन्ध है, क्योंकि उसके होनेपर केवलिसमुद्धात की प्ररूपणा यहां पाई जाती है ।
यहाँ यह पृच्छा की जाती है कि इस पश्चिमस्कन्ध अधिकारको महाकर्म प्रकृतिप्राभृत में किया गया है उसकी कषायप्राभृतमें प्ररूपणा क्यों की जा रही है ?
यह एक पृच्छा है उसका समाधान करते हुए बतलाया है कि दोनों स्थानों पर उसकी प्ररूपणा करनेमें कोई बाधा नहीं आती इसलिये आचार्य महाराज कहते हैं कि हमने जो यह कहा कि पश्चिमस्कन्ध अर्थाधिकार पूरे श्रुतस्कन्धसे सम्बन्ध रखता है वह ठीक ही कहा हैं । इसलिये प्रकृत विषय से सम्बन्ध रखनेवाले विषयकी यहाँ प्ररूपणाकी जाती है
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आयुके अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर आवर्जितकरण करता है। केवलिसमुद्धातके सन्मुख होनेका नाम ही आवजितकरण है । इसका फल अघातिकर्मोंकी स्थितिको एकसमान करना है।
इसो समय नामकर्म, गोत्रकर्म और वेदनीयकर्मके प्रदेशपिण्डका क्रमसे अपकर्षण कर यह जीव सयोगकेवलोके शेष बचे काल और अयोगीकेवलोके कालसे कुछ अधिक कालके बराबर गुणश्रेणिशीर्षके प्राप्त होने तक जाता है। परन्तु वह गुणश्रेणिशीर्ष स्वस्थान सयोगकेवलीकेद्वारा अनन्तर अधस्तन समयमें विद्यमान रहते हुए निक्षिप्त किये गए गुणश्रेणियामसे संख्यातगुणहोन स्थान जाकर अवस्थित है, ऐसा यहाँ समझना चाहिए। इतना अवश्य है कि प्रदेशपुंजकी अपेक्षा उससे यह असंख्यातगुण प्रदेशविन्याससे अवस्थित रहता है । इसका ज्ञान ग्यारह गुणश्रेणिके निरूपण करनेवाले गाथासूत्रसे जाना जाता है। उस गुणश्रेणिशीर्षसे उपरिम अनन्तर स्थितिमें असंख्यातगणे प्रदेशपूजको निक्षिप्त करता है। उसके बाद ऊपर सर्वत्र विशेषहीन प्रदेशपजको ही निक्षिप्त करता है। इस प्रकार आजितकरणके कालके भीतर सर्वत्र गुणश्रेणिनिक्षेप जानना चाहिये। इतना अवश्य है कि यह अवस्थित आयामवाला होता है। स्वस्थान केवलीके यह आवर्जितकरणके अभिमुख हुए केवलोके वे अन्तरंग परिणामविशेष अन्तमुहूर्तप्रमाण आयुकर्मकी अपेक्षासहित होते हैं, इसलिये यहाँ पर गुणश्रेणिनिक्षेपके विसदृश होनेमें कोई बाधा नहीं आती।
__ इस प्रकार आवजित करणके कालके समाप्त होनेपर अनन्तर समयमें केवलिसमद्धात करता है। उसमें जीवके प्रदेश फैलते हैं । उसका फल अघाति कर्मोकी स्थितिको समान करना है ।
इस समुद्धातमें लोकपूरण करने में चार समय लगते हैं और चार समय जीवप्रदेशोंके शरीरप्रमाण होनेमें लगते हैं। प्रथम चार समय तक इस जीवके अप्रशस्त कर्मप्रदेशोंके अनुभागकी अनुसमय अपवर्तना और एक समयवाला स्थितिकाण्डकघात होता है। यहाँ जो कार्यविशेष होता है वह आगमसे जान लेना चाहिये ।।
___ इतना विशेष है कि लोकपूरण समुद्धातके बाद स्थितिकाण्डकका और अनुभागकाण्डकका उत्कीरणकाल अन्तमुहूर्तप्रमाण होता है। इसके बाद योगनिरोध करता है। पहले बादर काययोगद्वारा बादर मनोयोग, वचनयोग, उच्छवास-निश्वास और काययोगका निरोध करके इसी विधिसे सूक्ष्म काययोगद्वारा सूक्ष्म मनोयोग, वचनयोग, उच्छ्वास-निश्वास और काययोगका निरोध करता हुआ इन करणोंको करता है। प्रथम समयमें पूर्व स्पर्धकोंके नीचे अपूर्व स्पर्धकोंको करता है । उस कालमें जीवप्रदेशोंका भी अपकर्षण करता है। इसके बाद अन्तमुहर्त काल तक कृष्टियोंको करता है। उनको करनेका काल अन्तमुहूर्त प्रमाण है। उस कालमें जीवप्रदेशोंका भी अपकर्षण करता जाता है। उसके बाद पूर्वस्पर्धकों और अपूर्वस्पर्धकोंका नाशकर अन्तमुहूर्तकाल तक कृष्टिगत योगवाला होता है। उस कालमें सूक्ष्म क्रिया-अप्रतिपाती ध्यानका अधिकारी होता है । उसके बाद योगका निरोध करके अन्तमुहूर्तकाल तक शैलेश पदको प्राप्त करता है। तेरहवें गुणस्थान तक शुक्ल लेश्याका व्यवहार होता है। चौदहवें गुणस्थानमें लेश्याका व्यवहार समाप्त हो जाता है। इसके समुच्छिन्नक्रिया अनिवृत्तिरूप चौथा शुक्लध्यान होता है। यहाँ ध्यानके व्यवहार करनेका कारण कर्मोंका क्षय करना है। इस पदके पूरे होने पर यह जीव सब कर्मोंसे मुक्त होकर एक समयमें सिद्ध पदका अधिकारी होता है। इस प्रकार कर्मोंके क्षय करनेकी विधि समाप्त होती है।
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जयधवला-गाथा वेदों में 'वेद-पूर्व-जन'
आगम ग्रन्थों का उद्धार एवं प्रकाशन जैन-जागरण की एक ऐसी घटना है जो श्रमण-संस्कृति के इतिहास में स्तूपांक ( लैण्डमाकं ) है। क्योंकि विश्व इतिहास तथा संस्कृति के विषेशज्ञों मैक्सम्युलर, आदि को भारत तथा विश्व इतिहास को दृष्टि से वेद की दुहरी उपयोगिता के ही समान यह भी मान्य होगी। पाश्चात्य विद्वानों शोधकों की इस वीतराग ज्ञान-कथा ने वेद के व्याख्याकारों का अनुगमन किया। तथा भारतीय परिवेश से दूर होते हुए भी प्रामाणिकता के साथ वैदिक साक्षियों के आधार पर इतिहास तथा संस्कृति का ताना-बाना' किया था। ईसा की ९ वीं शती तक अविकसित समाज के; पाश्चात्य लोगों के लिए, यह कल्पना भी सूकर नहीं थी कि कम से कम १.०० ई० पू० फैली; वैदिक संस्कृति से भी पुरानी कोई संस्कृति भारत या किसी भूभाग में रही होगी । पुरावशेषों के बलपर मिश्र की संस्कृति को लगभग ३००० ई० पू० मानने को आकृष्ट होने पर भी वे शोधक सोचते थे कि इस ( मिश्रकी ) संस्कृति ने भी पूर्व से कुछ लिया है । किन्तु तब तक भारतमें मिश्रसे पुराने पुरावशेष अप्राप्त थे । अतः वैदिक संस्कृतिको पशुपालक, कर्मकाण्डी तथा स्वर्गकामी आव्रजकों ( आर्यों ) की समाज-व्यवस्था मानकर भी, वेदों में आये, वेदपूर्व जनों ( दास, व्रात्य, पणि, आदि ) को कृषि-वाणिज्य प्रधान, अध्यात्मी एवं मोक्षकामी नागरिक जानकर भो वे पुरावशेष, साहित्यादि मय साक्षियों के अभावके कारण; उन्हें वैदिक समाज का ही विकसित रूप मानने को विवश थे । जैसा कि प्राच्य विद्वानों ने संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक एवं उपनिषद् रूपसे वैदिक साहित्य का विकास-क्रम माना था। किन्तु वैदिक साहित्य के उदार परिशीलन तथा आर्यसमाजी अहिंसापरक व्याख्या ने स्पष्ट कर दिया है कि दास, व्रात्य या पणि वे जन थे, जिन्होंने वैदिक जनों का अनुगमन नहीं किया था। तथा जिनकी दिनचर्या, मान्यता भाषा तथा धार्मिक विधियां वैदिक जनों से भिन्न थीं। वे सम्पन्न थे और बलि या हिंसामय धर्माचरण को नहीं मानते थे । उनके आराध्य वनवासी 'शिश्नदेव' थे, जो कि 'वातरशन' होते थे। यदि अपने प्रमुखों के दासान्तनामों के कारण उन्हें 'दास' कहा गया था तो कृषि-वाणिज्यके कारण वे पणि थे तथा व्रतों (नियमों-यमों) के कारण व्रात्य थे। व्रात्य (श्रमण)-विद्या
व्रात्यों के शिश्नदेवों (अचेलों दिगंबरों) की साधना से मोह की समाप्ति पर आत्मा का शुद्ध एवं पूर्ण ज्ञानमय रूप 'आगम' था। जिसे साधक विशेषजन ( गणधर ) ही समझते थे तथा शब्द रूप देते थे, यह ग्रन्थ कहा जाता था । वह बारह अंगों (भागों) में वर्गीकृत किया गया था। तथा इसका पठन-पाठन (वाचन ) गुरु-शिष्य रूपसे चलता था अतः इसे 'श्रुत' नाम मिला था। यह क्रम व्रात्यों के अंतिम शिश्नदेव महावीर के निर्वाण की छठी-सातवीं शती तक चलता रहा । इसके बाद कलि (पंचम ) कालके प्रभाव से स्मृति घटती गयी तो बारहवें अंग दृष्टिवाद में प्रधान, संसारके कारण और मोक्षके वाधक मोह-कर्म को विवरण को गुणधर भट्टारक ने लिखित गाथा बद्ध किया तथा धरसेनाचार्य के शिष्यों ( पुष्पदन्त-भूतवलि ) ने षट्खंडागम को भो लिपिबद्ध किया इस प्रकार आगम को शास्त्ररूप मिला था । और मौर्य कालीन युगमें मगधके द्वादश वर्षीय अकालके कारण शिश्नदेवों में आये सुखशोलता तथा उपाश्रय-निवास के कारण गौतमबुद्ध की मञ्झिमा-वृत्ति से
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अनुकृत; सचेलता के आने पर बने व्रात्य-सम्प्रदाय में गणधर ग्रथित आगम के आचार, सूत्र, आदि ग्यारह अंगों के बचे-खुचे रूप को देवर्धिगणी ने वीर निर्वाण की दशवीं शती में स्मृति रूप से लिपिबद्ध कराया था। अतः शास्त्र रूप में सुरक्षित व्रात्य श्रमण विद्या का यह विशाल लिखित रूप, संभव है कि ऋग्वेदकी हस्तलिखित प्रति की अपेक्षा, पूर्व नहीं तो सम-या किंचिदुत्तरकालीन सिद्ध हो। किन्तु इसकी भाषा (प्राकृत), संस्कृति तथा अध्यात्म स्पष्ट संकेत करते हैं कि इन्द्र ( उग्र ), सोम, अश्व तथा वाणों के कारण आव्रजकोंने अहिंसक, संयमी, संपन्न, रथयायी तथा गदा-खड्ग धारी दासों या व्रात्यों पर विजय पाने के बाद उनके समान ग्राम-पल्ली निवास, कृषि तथा संयम को अपनाया था। यज्ञविधि सूक्त 'ब्राह्मणों' के बाद वनवासी शिश्नदेवों को देखकर 'अरण्यक' विधि अपनायी । तथा उनके निकट समागम ( उप-निषत् ) में आने पर जन्मान्तर मय दर्शन या अध्यात्म का विकास किया था । इस सांस्कृतिक आदान-प्रदान का यह सुफल था कि पातञ्जलि काल तक शाश्वत विरोधी कहे जाने वाले श्रमण (व्रात्य ) ब्राह्मणों ( वैदिकों) में एक शाश्वत समन्वय हो गया था। जिसे लगभग तीन हजार वर्ष बाद हुए वेदके संस्कृत टीकाकार सोच भी नहीं सकते थे । और चमत्कार युग को चकाचौंध के कारण 'शिश्न एव देवः' तथा 'वैदिक-वृत्ताद्वाह्यः व्रात्येदि' करने को विवश हुए होंगे। श्रमण-जागरण
उक्त वेदपूर्व श्रमण-विद्या के आधार पर उत्तर कालमें लिखित चूणियों, वृत्तियों तथा भाष्यों का स्वाध्याय करने के कारण भारतीय श्रमण (दिगम्बरों) समाजने भी भारत के सांस्कृतिकजागरण ( रीनेसां ) के लिए लगभग एक शती पहिले ( वी०नि० २४२० ) कदम बढ़ाया था। तथा संघधर्म होने के कारण 'संघे शक्तिः कलौयुगे' को चरितार्थ करते हुए ‘महासभा' का सूत्रपात किया था। यह एक ऐसा मंच था जो अपनी पुण्य तथा पितृभूमि में बौद्धिक ( अपेक्षावाद ) तथा शारीरिक ( अहिंसा ) सह-अस्तित्व की उस धारा को प्रवाहित रखना था, जो आव्रजकों के पूर्ववर्ती व्रात्यों के युगमें जनतंत्र, जनभाषा तथा जनकल्याण के रूपमें प्रचलित था। किन्तु मुस्लिम-विजय के साथ आयो धार्मिक असहिष्णुता का कतिपय श्रमणों में प्रवेश हो चुका था। वे भी धार्मिक विधि-विधान को अपेक्षा अपनी मान्यता को ही आगमपंथ मानने लगे थे । फलतः २८ वर्ष वाद वे लोग इस संघटनसे अलग होने को विवश हुए जो श्रमण-विद्याके मूल आधार, क्षेत्र, काल- द्रव्य ( व्यक्ति ) और भाव ( वैचारिकता) की अपेक्षा पुरातन को समझते और पालन करते थे। इस दूसरे श्रमण संघटन ने श्रमण-परिषद् रूपसे अपना कार्य करते हुए समाज के आधुनिकीकरण को लक्ष्य बनाया था। किन्तु आर्यसमाज ने सनातन वैदिक समाज की रूढियों आदि पर आधात के साथ साथ मूर्तिपूजा, आदि पर भी प्रहार करके आद्य मूर्तिपूजकों (श्रमणों) को भी घेर लिया था । तथा आस्तिक नास्तिक की संकुचित परिभाषा ( नास्तिको वेद निन्दकः) पर मुग्ध हो कर श्रमण समाज पर भी आक्षेप करने प्रारम्भ कर दिये थे। परिषदके उत्साही सदस्य सामाजिक-सधारों में व्यस्त रहने के कारण आक्षेप-समाधान की स्थितिमें नहीं थे । तथा स्वयंभू श्रमणविद्या-निष्णात गुरु गोपालदास जी के अस्त के बाद इनके शिष्य धीमान् भी मूलज्ञ होनेके कारण आधुनिक विधिका शास्त्रार्थ (डिवेट) से संकुचाते थे। और इनके अनुयायी श्रीमान् तो अपनी संस्कृति की उच्चता दर्शाने के लिए कर ही क्या सकते थे। संघोवय
प्रथम विश्वयुद्धके बादके दशकों ने विश्वके साथ भारत तथा श्रमण-समाजमें ऐसे विचारकों तथा स्वाध्यायियों को दिया था जो सभा संवटनों को चकाचौंध से बचते हुए वीतराग रूपसे
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ज्ञानाराधना करते थे। ऐसे लोगों में पं० मंगलसेन वेद-विशारद, अर्हादस, लाला शिब्बामलजी, आदिने पं० राजेन्द्रकुमार जी को अपना सुख बनाया। और इन शार्दूल-पंडित ने भी अपने दादागुरु गोपालदास को याद करके आर्यसमाजियों को चकित कर दिया । तथा सिद्ध किया कि पत्थरकी मूर्ति ही मूर्ति नहीं है। अपितु वेदमंत्रों के अक्षर भी वैदिक ज्ञान-ध्वनि की मूर्तियां हैं। इस प्रथम विजयके बाद केकड़ी, संभल, पानोपत, खतौली, ग्वालियर, मेरठ, झांसी, ज्वालापुर, आदि दर्जनों स्थानों पर सफल शास्त्रार्थों की लड़ी लग गयो । और गुणग्राही समाजने इनको भरपूर सहयोग दिया। अनायास ही १९३१ में 'भा० दि० जैन शास्त्रार्थ 'संघ' श्रमण संस्कृति के संरक्षक रूपमें सामने आया । प्रतिभा तथा साहसके धनी शार्दूलपंडितजी ने ७ वर्ष तक शास्त्रार्थ का मोर्चा अपने अग्रज साथियों के साथ एकाकी सम्हाला । और आर्यसमाजी अभियान के दण्डनायक ने ही कर्मानन्द रूप में श्रमण-धर्म स्वीकार कर लिया। तथा शास्त्रार्थ की चुनौतियों को आर्य समाजियों ने भी वीतकाल मानकर राष्ट्रीय महासभा (क्रांग्रेस ) के पूर्वरूप में आकर 'सर्व धर्मे समानत्वं' को अपना लिया था।
स्व० शार्दूल पंडितजीने भी श्रमण समाज के स्थितिपालकों तथा सुधारकों का सहयोग प्राप्त होते ही उपदेशक-विद्यालय, साहित्य प्रकाशन, उपसर्ग निवारण, तीर्थ संरक्षण ( बिजोलिया केस खेखड़ाकांड तथा सिद्धान्तों की रक्षा पूर्वक रुचि समन्वयी दष्टिके लिए पत्रिका-पत्र प्रकाशन पर जोर दिया। इसके लिए उन्होंने अपने गुरुओं को सम्मान दिलाया, साथियों को उनकी क्षमता के अनुरूप त्रिविध सहयोग देकर समाज में प्रतिष्ठित किया तथा अनुजों को खोज-खोज कर देशधर्म की सेवा का व्रती बना दिया । भा० दि० जने संघ श्रवण-समाज की कनिष्ट भा० संस्था होने पर भी देखते-देखते प्रधान कार्यालय (संघभवन, चौरासी-मथुरा ), ( मुखपत्र, जैनदर्शन, जैनसन्देश यदि समस्त विद्वान अदम्य शास्त्रार्थी संस्थापक प्रधानमंत्री जी के 'विरोध-परिहार' का अनुकरण करते हुए 'जैनदर्शन' के द्वारा आगमके नामपर चली आयी प्रवाह-पतित धार्मिक-सामाजिक मान्यताओं की शुद्ध आगमिक व्याख्या करके प्रवचन तथा प्रचार का आदर्श उपस्थित करते थे, तो 'जैनसन्देश' भी सिद्धान्ताचार्य के सम्पादकीयों के कारण समाजका यथार्थ एवं निर्भीक मार्गदर्शक साप्ताहिक बन गया था । और अनजाने ही संघके युवक विद्वानों (स०/श्री लालबहादुर शास्त्री, बलभद्र न्या०, ती आदि ) को व्यापक स्तर का सम्पादक बना सका था। अनजाने ही 'सन्देश' ने पाश्चात्य ढंगके उदारशिक्षित व्यक्तियों को 'शंकासमाधान, पत्राचार द्वारा धर्मशिक्षण' आदि स्तम्भों में ला कर जहां अन्य पत्रों को दिशा दो थी, वहीं इन स्वयंबुद्ध स्वाध्यायियों ( स्व० रतनचन्द्र मुख्तार, श्री नेमिचन्द वकील, आदि ) को ससम्मान सामियों का सेवा-व्रती बनाया था। इस 'गुणिषुप्रमोदं" का चरम विकास; आजोवन स्वान्तः सुखाय श्रमण-इतिहास एवं संस्कृति के साधक डा० ज्योतिप्रसाद द्वारा सम्पादित 'शोधांक' था। जो बौद्धिक जगत को भी मान्य था और दशकों अजैन शोधकों को जैन विषयोंकी शोध में लगा सका था), तथा दर्जनों तत्त्वोपदेशकों और भजनोपदेशकों की जीवित एवं कर्मठ संस्था बन गया था तथा समस्त अधिकारियों, कार्यकर्ताओं और कर्मचारियों ने 'भारत-सेवक-समाज' के समान नाममात्र का 'योगक्षेम' लेकर आजीवन सेवा व्रत लिया था । यह संघके संस्थापक प्रधान मंत्रीजी का ही व्यक्तित्व था जिसने पंचकल्याणक रथोत्सव करके सामाजिक उपाधि (श्रीमन्तसेठ) लेने के लिए तत्पर श्रीमान् को सिद्धान्त ग्रन्थप्रकाशन की ओर मोड़ दिया था। तथा उनके गुरु स्व०५० देवकीनंदनजी तथा प्रशंसक डा० हीरालाल तथा जज जमनालाल कलरैया ने इस योजना को सोत्साह कार्यरूप दिलाया था । तथा धीमानों में स्व० पं० हीरालाल ( साढ़मल ) ने इस पुण्य प्रकाशन का ओंकार किया था।
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तथा स०/श्री पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री एवं बालचन्द्र शास्त्री के पूर्ण सहयोग ने प्रगति दो थी। तथा मध्य में डॉ. आ० ने० उपाध्ये भी डॉ. हीरालाल के परम सहयोगी हो गये थे। संघ का व्यापक रूप
उक्त प्रकार से साहसिक एवं विवेकी जैन-जागरण के अग्रदूत पंडित जी ( रा० कु० ) के उपदेशक-विद्यालय के स्नातक स/श्री पं० सुरेशचन्द्र जी, इन्द्रचन्द्र जी, लालबहादुर शास्त्री, धर्मचन्द्र, नारायण प्रसादादि तत्त्वोपदेशक तथा मास्टर रामानन्द, भैयालाल भजनसागर, पं० विनयकुमार, (जीवन-धनदानी) ताराचन्द्र प्रेमी, सुभाषचन्द्रादि भजनोपदेश समाज पर छा गये थे। पंजाब के स्कूलों को पाठ्य पुस्तकों में मुद्रित 'जैनधर्म बौद्धधर्म को शाखा है, हिसार शिक्षा विभाग का 'जैनियों को उच्च जाति में शुमार न करने' का परिपत्र, आदि जैनत्व को अवज्ञाकर प्रवृत्तियाँ भी उनकी दृष्टि से ओझल नहीं रहीं । और इस प्रकार संघ ने भारतीय इतिहास संशोधनादि बौद्धिक कार्यों को अनायास ही किया था। १९३२ में कुड़ची ( वेलगांव-मुबई प्रान्त ) में हुए जैनों के दमन और जिनमूर्तिभंजन के विरुद्ध तो संघ ने जिलाधिकारी को ही नहीं अपितु प्रान्तीय सरकार को भी हिला कर न्याय करने के लिए बाध्य किया था। इसी प्रकार मांडवी (सूरत) उदगीर (हैदराबाद), इन्दौर (होल्करराज्य) में दि० मुनियों के विहार पर लगे सरकारी आदेशों की धज्जियाँ ही नहीं उड़वा दी थीं, अपितु 'भगवान वीर का अचेलक धर्म', 'दिगम्बरत्व एवं जैनमुनि' आदि ट्रैक्ट प्रकाशन करा के शिश्नदेवत्व के रहस्य की प्रविष्ठा भी की थी।
प्राग्वैदिक श्रमणविद्या को पठन-पाठन में लाने के लिए ब्रह्मणत्व के अभेद्य गढ़, तथा प्राच्यअध्ययन के प्रमुख केन्द्र गवर्नमैंट संस्कृत ( क्वीनस् ) कालेज को पंजाब के संस्कृत शिक्षा विभाग के समान जैनदर्शन-सिद्धान्त के पाठ्यक्रम को चलाने के लिए तत्कालीन प्राचार्य डॉ० मंगलदेव शास्त्री के सहयोग से सहमत किया था। जैन विद्या तथा विधा की समस्त प्रवृत्तियों पर स्व० पं० राजेन्द्रकुमार जी अपने परम सहयोगी पुण्य श्लोक बा० दिग्विजय सिंह जी, स्व. पं० कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्ताचार्य, चैनसुखदास-न्यायतीर्थ, अजितकुमार शास्त्री तथा अनेक युवक विद्वानों के साथ संघ के उदय ( १९३१ ) के बाद तीन दशकों तक छाये रहे । तथा संघ को परिवार समझ के कुलपति के समान प्रत्येक साधर्मी की उलझन को अपना समझते थे । तथा सहयोगियों ( लालबहादूर शास्त्री भजनसागर. पथिकजी के अपवयों के निवारक थे। श्रीमानों के जैन-समाज में धीमान्-नेतृत्व तब उजागर हुआ जब कलकत्ता के वीरशासन जयन्ती महोत्सव में उनकी प्रेरणा से 'दि० जैन विद्वत् परिषद्' साकार होकर सैद्धान्तिक विषयों पर अधिकृत वक्ता बनी। जयधवल
मोक्षमार्ग प्रकाश (खड़ी बोली), जैनधर्म, रामचरित, वरांगचरित, ईश्वरमीमांसा, ऋषभदेव, आदि संघ के प्रकाशनों के शिखर पर जयधवला के मणिमयी कलश को रखने के आद्य मंगलाचरण (जयधवलसंपादन) ने ही उक्त भूमिका को बना दिया था। जिसे वे करणानुयोग के सर्वोपरि विद्वान अपने सहाध्यायी पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री की वाणिज्योन्मुखता का निग्रह करके आजीवन जिनवाणी सेवासाधना का सुयोग मिलाकर के कर चुके थे। क्योंकि आधुनिक जैन समाज संघटन के सूत्रधार, परिवार की उदात्त परम्परा के सर्वोपरि निर्वाहक श्रावक-शिरोमणि साहु शान्तिप्रसाद जी ने 'जयधवला' सम्पादन-प्रकाशन को मूर्तिग्रन्थमाला से भी बढ़कर अपना कार्य माना था। तथा एक आकस्मिक-स्थिति और आत्मनिह्नवी स्वभाव के कारण आजीवन अपनी जयधवला-प्रकाशन की आद्य-स्रोतता को अप्रकट ही रखा है। 'श्रेयांसि बहु विघ्नानि' के अनुसार प्रथमखंड के बाद द्वि०
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खंड को द्वि० विश्वयुद्ध ने विलम्बित किया था। इसके बाद १९५१ में समाज की अनावश्यक चिन्ता का समाधान करने के लिए मा० संस्थापक प्रधानमंत्री जी के अवकाश पर चले जाने पर आयीं स्थितियों का आर्थिक समाधान, दानवीर सेठ भागचन्द्र जी ( डोंगरगढ़ ) तथा उनकी परमसेवाभावी धर्मात्मा पत्नी नर्मदाबाई जी ने किया था। सेठ दम्पत्ति में; यदि सेठजी संघ जी सेवाओं और पं० जगमोहनलाल जो को आदर्श मानते थे तो सौ० सेठानी बाई पं० फूलचन्द्र जी के जीवन से प्रभावित होकर उन्हें अपना सहोदर ही मानती थीं । फलतः इनके सहयोग से तृतीय खंड के १९५५ में प्रकाशित होने पर यह योजना चली थी। तथा अनेक श्रुत भक्तों एवं बालब्रह्मचारो बालचन्द्र होराचन्द्रजी दोशी के स्वयं-दत्त सहयोग से पूर्णापर है। हम इन सबको सादर एवं साभार स्मरण करते हुए जयधवला प्रकाशन की पूर्णा पर मूल-प्रेरक स्व० पं० राजेन्द्रकुमार जी तथा श्रा०शि० स्व. शान्तिप्रसाद जी का ( सचित्र ) स्मरण करते हुए उन्हें भी नमन करते हैं ।
जो सुअणाण सरीरो जिणवयणाणुगामिनां अग्गो ।
जइधवल वित्ति कत्ता गुरु वीरसेणो/सेणजिनो चिरं जयदु ॥ 'सरलागार' बी २७/८७ ए, दुर्गाकुंड मार्ग। वाराणसी-५
खुशालचन्द्र गोरावाला
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विषयसूची प्रथम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिका पतन होनेपर दिखाई देनेवाले प्रदेशजका
प्ररूपणाभेद किस प्रकार है, इसका कथन गुणश्रेणिके साथ एक गोपुच्छा श्रेणिके साधनके लिये अल्पबहुत्वका कथन संज्वलनलोभकी दूसरी कृष्टिका तीसरी कृष्टिमें कब तक संक्रमण होता है इसका कथन संज्वलनलोभकी तीसरी कृष्टि सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिमें कब संक्रमित होती है इस
बातका कथन तदनन्तर सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंकी किस क्रमसे उदीरणा होती है इसका निर्देश अन्तिम स्थितिकाण्डकके पतनके समय गुणिश्रेणिके पतनका क्रमनिर्देश २०७ संख्याक गाथाका विषयविवेचन २०७ संख्याक मूलगाथाकी प्रथम भाष्यगाथाका विवेचन २०९ संख्याक दूसरी भाष्यगाथाका विषयविवेचन २१० संख्याक तीसरी भाष्यगाथाका विषयविवेचन २११ संख्याक चौथी भाष्यगाथा का विषयविवेचन २१२ संख्याक पाँचवीं भाष्यगाथाका विषयविवेचन २१३ संख्याक मूलगाथाका विषयविवेचन क्षपणासम्बन्धी प्रथम २१४ संख्याक मूलगाथाका विवेचन उसकी २१५ संख्याक एक भाष्यगाथाका विवेचन क्षपणासम्बन्धी २१६ संख्याक दूसरी मूलगाथाका विवेचन उसको २१७ संख्याक एक भाष्यगाथाका विवेचन क्षपणासम्बन्धी २१८ संख्याक मूलगाथाका विषयविवेचन उक्त मूलगाथाकी १० भाष्यगाथाओं में २१९ संख्याक प्रथम भाष्यगाथाका विषयविवेचन २२० संख्याक दूसरी भाष्यगाथाका विषयविवेचन २२१ संख्याक तीसरी भाष्यगाथाका विषयविवेचन २२२ संख्याक चौथी भाष्यगाथाका विषयविवेचन २२३ संख्याक पांचवीं भाष्यगाथाका विषयविवेचन २२४ संख्याक छठी भाष्यगाथाका विषयविवेचन २२५ संख्याक सातवीं भाष्यगाथाका विषयविवेचन २२६ संख्याक सातवीं भाष्यगाथाका विषयविवेचन २२७ संख्याक नौवीं भाष्यगाथाका विषयविवेचन २२८ संख्याक दसवीं भाष्यगाथा का विषयविवेचन २२९ संख्याक क्षपणासम्बन्धी चौथी मूलगाथा का विषयविवेचन उक्त मूलगाथा की २३० संख्याक प्रथम भाष्यगाथा का विषयविवेचन २३१ संख्याक द्वितीय भाष्यगाथाका विषयविवेचन पुरुषवेदके मानसंज्वलनसे क्षपक श्रेणिपर चढ़नेवाले जीवका कथननिर्देश माया और पुरुषवेदसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए जीवका कथन निर्देश
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लोभ और पुरुषवेदसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए जीवका कथननिर्देश स्त्रीवेदसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए जीवका कथन निर्देश नपुंसक वेदकी पहले होती है इसका निर्देश
अपगतवेदी जीव पुरुषवेद और छह नोकषायका क्षय करता है इसका निर्देश नपुंसकवेदसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए जीवका कथननिर्देश
नपुंसक वेदका क्षय करनेपर सात कर्मोंका क्षय करता है इसका निर्देश
अनन्तर क्षीणकषायी होकर स्थिति अनुभागका बन्ध नहीं करता इसका निर्देश वर्गणा खंडके अनुसार ईर्षापथकर्मके लक्षण करनेका कथन निर्देश
पहले गुणस्थानों की अपेक्षा इसके गुणश्रेणिनिर्जरा असंख्यातगुणी होनेके कारणका निर्देश घातक क्षपणा सम्यक्त्वके समान होनेका निर्देश
इसके घातकी उदीरणा कबतक होती है इसका निर्देश
इसके शुक्लध्यानके प्रथम दो भेद क्रम से होते हैं इसका निर्देश
यह जीव द्विचरम समय में निद्रा और प्रचलाका नाश करता है इसका निर्देश
उसके बाद अन्तिम समयमें तीन घातिकर्मोंका नाश करनेका निर्देश क्षोणमोह से सम्बन्ध रखनेवाली २३२ संख्याक गाथाका निर्देश
संग्रहणी मूलगाथा २३३ का कथननिर्देश
उसके बाद यह जीव सयोगकेवली हो जाता है इसका निर्देश
आगे केवलज्ञानादिके स्वरूपका विस्तारसे कथन करनेका निर्देश
क्षपणाधिकार चूलिका
इस अनुयोगद्वार में जिस क्रम से अनन्तानुबन्धी आदि कर्मोंका क्षय होता है इसका निर्देश मोहनीयकर्मकी आनुपूर्वीसे प्रक्रियाका निर्देश
जीवके संक्रम किस विधिसे किसमें होता है इसका निर्देश
अनुभाग में गुणश्रेणि किस विधि से होती है इसका निर्देश
प्रदेश की अपेक्षा गुणश्रेणी किस विधिसे होती है इसका निर्देश इसके बन्ध और उदयके विषयमें बन्धका निर्देश
बादरसाम्परायिक जीवके अन्तिम समयमें कितनी स्थितिके साथ कौन कर्म बंधता है इसका निर्देश
कृष्टियोंके विषय में विशेष निर्देश
तीन घातिकर्मोंका उदय कब तक होता है इसका निर्देश करनेवाली गाथा के साथ कषायप्राभृतकी समाप्तिका निर्देश
आचार्य परम्पराका निर्देश करनेके साथ गाथासूत्रोंका पूरी तरह छद्यस्थ विवेचन नहीं कर सकता यह बतलाते हुए लघुताका प्रकाश करनेवाले वचन
पच्छिमखंध -अत्थाहियार
आचार्य भट्टारक वीरसेनकी महत्ता बतलानेवाला एक श्लोक पाँच परमेष्ठियोंकी उपासना करनेका निर्देश
पश्चिमस्कन्ध अर्थाधिकार समस्त श्रुतस्कन्धका चूलिकारूपसे अवस्थित है इसका निर्देश पश्चिमस्कन्धका स्वरूप निर्देश
१०८
११२
११३
११४
११५
११८
११९
१२१
१२१
१२२
१२३
१२३
१२४
१२५
१२६
१२८
१३०
१३१
१३९
१४१
१४१
१४२
१४२
१४२
१४३
१४३
१४४
१४५
१४६
१४६
१४७
१४७
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कषायप्राभृतमें पश्चिमस्कन्धके कथनका प्रयोजन
अन्तर्मुहूर्त आयुके शेष रहनेपर आवर्जितकरण करनेका निर्देश
उस समय नाम, गोत्र और वेदनीयके प्रदेशपुंजके अपकर्षकी विधिका निर्देश आदि कथन समुद्धात क्रमके साथ उसमें होनेवाले कार्योंका निर्देश
३१
लोकपूरण समुद्धात के समय योगकी एक वर्गणा होकर समयोग होता है इसका निर्देश उस समय चार अघाति कर्मोकी स्थिति कितनी होती है इसका निर्देश
उस समय अप्रशस्त कर्मोंके अनुभागकी अनुसमय अपवर्तना होनेका नियम स्थितिकाण्डकका नियम
उतरनेवालेके चार समय किस विधिसे लगते हैं इसका निर्देश
लोकपूरण समुद्धात बाद स्थितिकाण्डक और अनुभाग काण्डकका नियम तीनों योगोंके निरोध करनेकी विधिका निर्देश
सूक्ष्म काययोगीके अपूर्वस्पर्धक करनेकी विधिका निर्देश
कितने काल तक अपूर्वं स्पर्धक करता है इसका निर्देश उसके बाद योगकी कृष्टिकरण विधिका निर्देश
यह करते हुए जीवप्रदेशोंका क्या होता है इसका निर्देश
योगका निरोध होनेपर आयुकर्मके समान शेष कर्म हो जाते हैं इसका निर्देश
तदनन्तर अयोगकेवली हो जाता है इसका निर्देश
अयोगकेवलीके ध्यानका निर्देश
केवलीके ध्यान उपचारसे कहा है इसका निर्देश इसके बाद सिद्ध होने का निर्देश
अयोगकेवली द्विचरम समयमें ७२ प्रकृतियोंका और चरम समयमें १३ प्रकृतियोंके क्षय होने का निर्देश
मोक्षपदार्थ की सिद्धि
• सिद्ध होनेके बाद लोकाग्र में उनके अवस्थानका नियम
परिशिष्ट
१. [अ] मूलगाथा और चूर्णिसूत्र
[ब] खवणाहिया रचूलिया [स] पच्छिमखंध-अत्याहियार
२. अवतरणसूची
३. ऐतिहासिक नाम सूची ४. ग्रन्थ - नामोल्लेख ५. न्यायोक्ति
६. उपदेशभेद
शुद्धिपत्र (१-१६ भाग
१४८
१४९
१४९
१५१
१५७
१५७-५८
१५८
१५९
१६०
१६१
१६२
१६६
१६८
१७१
१७६
१८२
१८२
१८४
१८४
१८५
१८६
१८७
१९०
१९७
२०६
२०७
२०९
२११
२११
२११
२११
२१३-२४९
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सिरि-जय सहाइरियविरइय-चुण्णिसुत्तसमणिदं सिरि-भगवंतगुणहर भडारओवइट्ठ
कसायपाहुडं
तस्स
सिरि-वीरसेनाइरिय विरइया टीका
जयधवला
तत्थ
चारितखवणा णाम सोड समो अत्थाहियारो
$ १ सुगमं ।
* एस कमो ताव जाव सुहुमसांपराइयम्स पढमट्ठिदिखंडयं चरिमसमय णिवलेविदं ति
* १ यह सूत्र सुगम है ।
विशेषार्थ — सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके प्रथम समय में जो प्रदेशपुंज दिखाई देता है उसकी श्रेणि प्ररूपणा करनेके प्रसंगसे उदयमें जितना प्रदेशपुंज दिखाई देता है दूसरे समय में उससे असंख्यातगुणा प्रदेशपु ́ज दिखाई देता है, तीसरे समय में उससे असंख्यातगुणा प्रदेशपुरंज दिखाई देता है । इस प्रकार यह क्रम गुणश्रेणिशोर्ष तक प्राप्त होकर उससे ऊपर एक स्थिति के प्राप्त होने तक जानना चाहिये। उसके बाद अन्तिम अन्तरस्थिति के प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर विशेष हीन होता हुआ प्रदेशपु ंज दिखाई देता है । उससे आगे एक स्थिति में असंख्यातगुणा प्रदेशपु' दिखाई देकर उससे आगे उत्तरोत्तर विशेष हीन प्रदेशपुंज दिखाई देता है । अन्तमें इसी अर्थ को स्पष्ट करनेवाले सूत्र का उल्लेख करके 'यह चूर्णिसूत्र सुगम है' यह लिखा है उक्त कथन का भाव है। ऐसा यहाँ समझना चाहिये ।
इस प्रकार यह
* इस प्रकार यह क्रम तब तक चलता रहता है जब तक सूक्ष्मसाम्परायिक के प्रथम स्थितिकाण्डक के निर्लेपित ( समाप्त ) होनेका अन्तिम समय नहीं प्राप्त होता है ।
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मो.
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ चारित्तक्खवणा २ किं कारणं ? एदम्मि अवत्थंतरे वट्टमाणस्स पयदसेढिपरूवणाए भेदाणुवलंभादो ! संपहि पढमठिदिखंडयचरिमफालीए णिवदिदाए दिस्समाणपदेसग्गस्स जो परूवणाभेदो तण्णिण्णयकरणट्ठमुतरो सुत्तपबंधो
___ * पढमे ट्ठिदिखंडए णिल्लेविदे उदये पदेसग्गं दिस्सदि तं थोवं । विदियाए ठिदीए असंखेज्जगुणं । एवं ताव जाव गुणसेढिसीसयं । गुणसेढिसीसयादो अण्णा च एक्का ठिदि त्ति असंखेज्जगुणं दिस्सदि।
$३ सुगमं । * तत्तो विसेसहीणं जाव उक्कस्सिया मोहणीयस्स ठिदि त्ति।।
5 ४ किं कारणं ? पढमट्ठिदिखंडयचरिमफालीए णिवदिदाए गुणसेढिं मोत्तूण उवरिमासेसट्ठिदिविसेसेसु एगगोपुच्छायारेण दिस्समाणपदेसग्गस्सावट्ठाणदंसणादो। संपहि एदस्सेवत्थस्स विसेसस्स किंचि फुडीकरणं कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तर माढवेइ
* सुहुमसांपराइयस्स पढमछिदिखंडए पढमसमयणिल्लेविदे गुण
$२ इसका कारण क्या है ? कारण कि इस अवस्था विशेष में विद्यमान जीवके प्रकृत श्रेणिप्ररूपणामें भेद नहीं पाया जाता। अब प्रथम स्थितिकाण्डकको अन्तिम फालिका पतन होने पर दिखाई देनेवाले प्रदेशज का जो प्ररूपणाभेद होता है उसका निर्णय करनेके लिये आगे के सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* प्रथम स्थितिकाण्डकके निलंपित होने पर उदयमें जो प्रदेशपुंज दिखाई देता है वह सबसे अल्प है। दूसरी स्थितिमें उससे असंख्यातगुणा प्रदेशपुंज दिखाई देता है । इस प्रकार यह क्रम तब तक चलता रहता है जब तक कि गुणश्रेणिशीर्ष प्राप्त होता है। गुणश्रेणिशीर्ष से ऊपर जो अन्य एक स्थिति प्राप्त होती है उसमें असंख्यातगुणा प्रदेशज दिखाई देता है।
$ ३ यह सूत्र सुगम है।
* उससे आगे मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर विशेषहीन प्रदेशपुंज दिखाई देता है।
$ ४ इसका क्या कारण है ? कारण कि प्रथम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिका पतन होने पर गुणश्रेणिको छोड़कर आगेको समस्त स्थितिविशेषोंमें एक गोपुच्छाके आकारसे दिखाई देनेवाले प्रदेशपुंजका अवस्थान देखा जाता है । अब इसी अर्थ विशेषका थोड़ा सा स्पष्टीकरण करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको आरम्भ करते हैं
* सूक्ष्मसाम्परायिकके प्रथम स्थितिकाण्डकके निर्लेपित होनेके प्रथम समयमें
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सेटिं मोतृण केण कारणेण सेसिगासु ठिदीसु एयगोपुच्छासेढी जादा ति एदस्स साहणट्ठमिमाणि अप्पा बहुअपदाणि ।
सुगमं ।
* तं जहा ।
६ सुगमं ।
* सव्वत्थोवा सुहुमसांपराइयद्धा ।
$ ७ सुगमं ।
* पढमसमयसुहुमसांपराइयस्स मोहणीयस्स गुणसेढिणिक्खेवो विसेसाहियो ।
९ ८ केत्तियमेत्तो विसेसो ? सुहुमसांपराइयद्राए संखेज्जदिभागमेत्तो । * अंतरद्विदीयो संखेज्जगुणा ।
१९ सुगमं ।
* सुहुमसांपराइयस्स पढमट्ठिदिखंडयं मोहणीये संखेज्जगुणं ।
३
गुणश्रेणिको छोड़कर किस कारण से शेष स्थितियोंमें एक गोपुच्छाश्रेणि हो गई, इस प्रकार इस अर्थका साधन करनेके लिये अल्पबहुत्वपद जानने योग्य हैं ।
$ ५ यह सूत्र सुगम है ।
* वह अल्पबहुत्व इस प्रकार है ।
$ ६ यह सुगम है ।
* सूक्ष्मसाम्परायिकका काल सबसे अल्प है ।
६७ यह सूत्र सुगम है ।
* सूक्ष्म सांम्परायिकके प्रथम समय में मोहनीय कर्मका गुणश्रेणिनिक्षेप विशेष अधिक है।
$ ८ विशेषका प्रमाण कितना है ? सूक्ष्मसाम्परायिकके कालके संख्गातवें भागप्रमाण है । * अन्तर स्थितियाँ संख्यातगुणी हैं ।
$ ९ यह सूत्र सुगम है ।
* सूक्ष्मसाम्परायिकके मोहनीय कर्मका प्रथम स्थितिकाण्डक संख्यातगुणा है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ चरितक्खवणा
$१० सुगमं ।
* पढमसमय सुहुमसांपराइयस्स मोहणीयस्स ठिदिसंतकम्मं संखेज्ज
गुणं ।
$ ११ को गुणगारो ? तप्पा ओग्गसंखेज्जरूत्राणि । संपहि कधमेदमध्याबहुअं पयदत्थसाहणमिदि चे ? बुच्चदे -- जेणेत्थ अंतरायामादो पढमट्ठिदिखंडयं संखेज्ज - गुणं जादं तेण पढमटिठदिखंडय चरिम फालिदव्वादो अंतरदिट्ठदिमेत्तगोपुच्छाओ
तूण अंतर दिसु विदियट्ठिदीए सह एयगोवुच्छायारेण णिसिंचिदुं दव्वमत्थि - त्ति जाणावणमुहेण पयदत्थसाहणमेदमप्पाबहुअं जादं । अण्णहा अंतरट्ठदीसु पढमट्ठिदिखंड यायामादो बहुगीसु संतीसु तत्थेव गोपुच्छायाराणुववत्तीदोति ।
$ १२ एतो पहुडि विदियट्ठिदिखंडयेसु वि एसो चेव दिस्समाणपदेसग्गस्स सेढिपरूवणा ण्व्विा मोहमणुगतव्या, विसेसाभावादो। णवरि गुणसेढिसीसए दिस्समाणदव्वमेत्तो पाए असंखेज्जगुणं ण होदि, विशेसाहियं चेत्र होदि । तत्थ कारणपरूवणा जहा दंसणमोहक्खवणाए सम्मत्तस्स अट्ठवस्सट्ठिदिसंतकम्मादो उवरि मग्गिदा तहा चैव मग्गिदूण गेण्हियव्वा । एवमेतिएण सुत्तपबंघेण सुहुमसांपराइय
$ १० यह सूत्र सुगम है ।
* प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके मोहनीय कर्मका स्थितिसत्कर्म संख्यातहै
गुणा
1
$ ११ गुणकार क्या है ? तत्प्रायोग्य संख्यातरूप गुणकार है ।
शंका- - इस समय यह अल्पबहुत्व प्रकृत अर्थका साधन कैसे करता है ?
समाधान — कहते हैं - अतः यहाँ अन्तरायामसे प्रथम स्थितिकाण्डक संख्यातगुणा हो गया है, इसलिये प्रथम स्थितिकाण्डकके अन्तिम फालिद्रव्यसे अन्तर स्थितिप्रमाण गोपुच्छाओं को ग्रहण करके अन्तर स्थितियों में द्वितीय स्थिति के साथ एक गोपुच्छाकाररूपसे सिंचित करने के लिये द्रव्य है इस प्रकार के ज्ञान कराने के द्वारा प्रकृत अर्थका साधन करनेवाला यह अल्पबहुत्व हो जाता है । अन्यथा अन्तरस्थितियोंके प्रथम स्थितिकाण्डकके आयामसे बहुत होनेपर उन्हीं में गोपुच्छाकारकी उत्पत्ति नहीं हो सकती ।
$ १२ इससे आगे द्वितीय स्थितिकाण्डकमें भी यही दिखनेवाले प्रदेशपुंजको श्रेणि प्ररूपणा व्यामोहको छोड़कर जान लेनी चाहिये क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । इतना विशेषता है कि गुणश्रेणिशीर्ष में दिखनेवाला द्रव्य इससे प्रायः असंख्यातगुणा नहीं होता है, किन्तु विशेष अधिक हो होता है । इस विषय में कारणका कथन जिस प्रकार दर्शनमोहनीयको क्षपणा में सम्यक्त्वकी आठ वर्ष प्रमाण स्थितिसत्कर्म से ऊपर अनुसन्धान करके कह आये हैं उसी प्रकार अनुसन्धान करके यहाँ ग्रहण कर लेना चाहिये । इस प्रकार इतने सूत्रप्रबन्धके द्वारा सूक्ष्मसाम्परायिकके प्रथम समय से
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पढमसमयप्पहुडि दिज्जमाणदिस्समाणपदेसग्गस्स सेढिपरूवणं कादूण संपहि एत्तो उवरि पुणे वि सुहुमसांपराइयविसयमेव परूवणाविसेसमादोदोप्पहुडि पबंधेण परूवेमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ
__* लोभस्स विदियकिहि वेदयमाणस्स जा पढमहिदी तिस्से पढमहिदीए जाव तिणि आवलियारो सेसाओ ताव लोभस्स विदियकिट्टीदो लोभस्स तदियकिट्टीए संछन्भदि पदेसग्गं, तेण परं ण संछन्भदि, सव्वं सुहुमसांपराइयकिट्टीसु, संछन्भदि ।
६ १३ सुहुमसांपराइयगुणट्ठाणविसयाए परूवणाए कीरमाणाए अणियट्टिबादरसांपराइयविसयो एसो अत्थपरामरसो कधमसंबद्धो ण होज्ज त्ति ण आसंकणिज्ज, अणियट्टिकरणचरिमसंधीए पुन्वमपरूविदत्थविवेसस्स संभालणं कादण पच्छा सुहुमसांपराइयविसयपरूपणाए कीरमाणाए मंदबुद्धीणं पि सुहावगमो होदि त्ति एदेणाभिप्पाएण तहा परूवणादो ।
१४ संपहि एदस्स सुत्तस्सत्थे भण्णमाणे कि पुण कारणं लोभविदियसंगहकिट्टीवेदगपढमहिदीए तिसु आवलियासु सेसासु तत्तो पदेसग्गं तदियकिट्टीए सका
लेकर दिये जानेवाले और दिखनेवाले प्रदेशजकी श्रेणिप्ररूपणा करके अब इससे आगे फिर भी सूक्ष्मसाम्परायिकसम्बन्धी ही प्ररूपणाविशेषका प्रारम्भसे लेकर प्रबन्ध द्वारा प्ररूपणा करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं।
* लोभसंज्वलनकी दूसरी कृष्टिका बेदन करनेवाले जीवके जो प्रथम स्थिति होती है उस प्रथम स्थितिकी जब तक तीन आवलियाँ शेष रहती हैं तब तक लोभकी दूसरी कृष्टिसे लोमकी तीसरी कृष्टिमें प्रदेशपुंजको संक्रमित करता है। उसके पश्चात् प्रदेशपुंजको तीसरी कृष्टिमें संक्रमित नहीं करता है। किन्तु समस्त प्रदेशपुंजको सूक्ष्म साम्परायिक कृष्टियोंमें संक्रमित करता है ।
६१३ शंका-सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानविषयक प्ररूपणाके करनेपर अनिवृत्तिबादर साम्परायिकविषयक यह अर्थ परामर्श असम्बद्ध कैसे नहीं हो जायेगा ?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि अनिवृत्तिकरणको अन्तिम सन्धिम पहले नहीं प्ररूपित किये गये अर्थविशेषकी सम्हाल करके पीछे सूक्ष्मसाम्परायिकविषयक प्ररूपणाके करने पर मन्दबुद्धि जीवोंको भी सुखपूर्वक ज्ञान हो जाता है, इसप्रकार इस अभिप्रायसे उस प्रकारस प्ररूपणा की है।
१४ अब इस सूत्रके अर्थका कथन करनेपर क्या कारण है कि लोभसंज्जलनकी दूसरी संग्रह कृष्टि वेदकके प्रथम स्थितिमें तीन आवलियोंके शेष रहनेपर उममें से प्रदेशपुंज तोसरी कृष्टिमें संक्रमित होता है, उसके पश्चात् नहीं, इस प्रकार इसके कारणका कथन करते है। यथा-लाभका
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ चारित्तक्खवणा मिज्जदि, ण तत्तो परमिद्वि एदस्स कारणं वच्चदे । तं जहा-लोभस्य विदियसंगहकिट्टीदो तदियबादरसांपराइयकिट्ठीए उबरि जं पदेसग्गं संकामिज्जदि तं तम्हि चेव संकमणावलियमेत्तकालमविचलसरूवं होदण चिट्ठदि । पुणो संकमणाओग्गं होदण एगावलियमेत्तकालेण तं सव्वं चिराणसंतकम्मेण सह सुहुमसांपराइयकिट्टीसु संकामिज्जदे । एवं संकामिदे पुणो उच्छिट्ठावलियमेत्ता पढमट्ठिदी परिसेसा होदण चिट्ठदि । तेण कारणेण अप्पणो पढमद्विदीए जाव तिण्णि आवलियाओ सेमाओ अस्थि ताव लोभम्स विदियकिट्टीपदेसग्गं तदियबादरसांपराइयकिट्टीए उवरि संकामिज्जदि। तत्तो परं तत्थ ण संछुहदि, सव्वं सुहुमसांपराइयकिट्टीसु चेव संछुब्भदि । तदवत्थाए तदियवादरसांपराइयकिट्टीए संकेतदव्वस्स सुहुमकिट्टीसरूवेण णिरवसेसं परिणामेदं संभवाभावादो।
दूसरी संग्रह कृष्टिमेंसे तीसरी बादर साम्परायिक कृष्टिमें जो प्रदेशपुंज संक्रमित होता है वह उसीमें ही संक्रमणावलिप्रमाण काल तक चलायमान न होकर अवस्थित रहता है। पुनः संक्रमणके योग्य होकर एक आवलिप्रमाण कालके द्वारा वह सब प्राचीन सत्कर्मके साथ सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंमें संक्रमित होता है । इस प्रकार संक्रमित होने पर पुनः उच्छिष्टावलिप्रमाण प्रथम स्थिति शेष. रहती है। इस कारणसे अपनी प्रथम स्थितिकी जब तक तीन आवलिप्रमाण स्थिति शेष रहती है तब तक लोभसंज्वलनकी दूसरी कृष्टिका प्रदेशपुंज तीसरी बादरसाम्परायिक कृष्टिमें संक्रमित होता है। उसके पश्चात् उसमें संक्रमित नहीं होता, पूरा द्रव्य सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंमें संक्रमित होता है, क्योंकि उस अवस्थामें तीसरी बादरसाम्परायिक कृष्टिके संक्रमित हुए द्रव्यका सूक्ष्मकृष्टिरूपसे पूरी तरहसे परिणमाना सम्भव नहीं है ।
विशेषार्थ-प्रकृतमें सक्षमसाम्परायिकविषयक कथन किया जा रहा है। ऐसी अवस्थामें यहाँ अनिवृत्तिकरण बादरसाम्परायिकसम्बन्धी उक्त कथन किसलिये किया गया है यह एक प्रश्न है, इसका समाधान करते हुए बतलाया गया है, कि लोभ संज्वलनकी दूसरी संग्रहकृष्टिका वेदन करनेवाले जीवके जब तक उसकी प्रथम स्थितिमें तीन आवलोप्रमाण स्थिति शेष रहती है तब तक तो लोभसंज्वलनको दूसरी संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज तीसरी संग्रह कृष्टिमें संक्रमित होता रहता है। परन्तु दूसरी संग्रह कृष्टिकी प्रथम स्थितिमें तीन आवलीप्रमाण स्थिति शेष रहने के बाद उसका प्रदेशपुंज लोभ संज्वलनको तोसरी संग्रह कृष्टिमें संक्रमित न होकर सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंमें संकमित होने लगता है । इस प्रकार इस अर्थविशेषको सूचित करनेके लिये प्रकृतमें यह अनिवृत्तिकरणको अन्तिम सन्धि विषयक प्ररूपणा की है । यहाँ प्रकृत अर्थकी पुष्टिमें कारणका निर्देश करते हुए यह बतलाया गया है कि लोभसंज्वलनको दूसरी संग्रह कृष्टिका जो प्रदेशपुंज तीसरी बादरसांपरायिक कृष्टिमें संक्रमित होता है वह संक्रमणावलि काल तक तदवस्थ ही रहता है। उसके बाद एक आवलिप्रमाण कालके द्वारा वह पूरा द्रव्य पुराने सत्कर्मके साथ सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंमें संक्रमित हो जाता है । इस प्रकार संक्रमित होनेके बाद प्रथम स्थितिमें जो तीसरी आवलि बचती है वह उच्छिष्टावलि है । यही कारण है कि यहाँ प्रसंगसे अनिवृत्तिकरण बादरसाम्परायिककी चर्चा आ गई है। शेष कथन सुगम है।
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६ १५ एवमेसो पाए सुहुमसांपराइयकिट्ठीसु चेव णिरुद्धविदियसंगहकिट्टीए पदेसग्गमोकड्डणासंकमेण संछहमाणो ताव गच्छदि जाव अप्पणो पढमद्विदी आवलियपडिआवलियमेत्ता सेसा त्ति । पुणो तत्थागालपडिआगालवोच्छेदं काण पुणो वि समयणावलियमेत्तपढमद्विदिमधद्विदीए गालिय समयाहियमेत्तपढमट्टिदीए सह वट्टमाणो चरिमसमयवादरसांपराइयो जादो। संपहि तदत्थाए वट्टमाणस्स जो परूवणाविसेमो तण्णिद्देसकरणट्ठमुत्तरसुत्तावयारो
* लोभस्स विदियकिटिं वेदयमाणस्स जा पढमहिदी तिस्से पढमहिदीए प्रावलियाए समयाहियाएसेसोए ताधे जा लोभस्स तदियकिही सा सव्वा हिरवयवा सुहुमसांपराइयकिट्टीसु संकता। जा विदियकिट्टी तिस्से दो श्रावलिया मोत्तृण समयूणे उदयावलिपविलु च सेसं सव्वं सुहमसांपराइयकिट्टीसु संकंतं । ताधे चरिमसमबवादरसांवराइनो मोहणीयस्स चरिमसमयबंधगो।
$ १६ एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । एवमणियट्टिकरणद्धं समाणिय से काले पढमसमयसहुमसांपराइययभावेण परिणदस्स जो परूवणाविसेसो तण्णिण्णयकरणट्टमुवरिमो सुत्तपबंधो
६ १५ इस प्रकार यहाँसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंमें ही विवक्षित दूसरी संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुज अपकर्षण संक्रमणके द्वारा संक्रमित होता हुआ तब तक जाता है जब तक अपनी प्रथम स्थिति आवलि प्रत्यावलि प्रमाण शेष रहती है। पुनः वहाँ आगाल प्रत्यागालको व्युच्छित्ति करके फिर भी एक समय कम आवलिमात्र प्रथम स्थिति अधःस्थितिके द्वारा गलाकर एक समय अधिक प्रथम स्थितिके साथ विद्यमान वह जीव अन्तिम समयवर्ती बादरसाम्परायिक होता है, अब उस अवस्थामें विद्यमान जीवके जो प्ररूपणाविशेष है उसका निर्देश करनेके लिये आगेके सूत्रका अवतार करते हैं___* संज्वलन लोभकी दूसरी कृष्टिका वेदन करनेवालेके जो प्रथम स्थिति है उस प्रथम स्थितिमें एक समय अधिक आवलिप्रमाण कालके शेष रहने पर उस समय संज्वलन लोभकी जो तीसरी कृष्टि है वह सब पूरीकी पूरी सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंमें संक्रमित हो जाती है । जो दूसरी कृष्टि है उसके एक समय कम दो आवलिप्रमाण नवकवन्ध और उदयावलि प्रविष्ट प्रदेशपुंजके छोड़कर शेष सब द्रव्य सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंमें संक्रान्त होता है । उस समय यह क्षपक जीव अन्तिम समयवर्ती बादरसाम्परायिक और मोहनीय कर्मका अन्तिम समयवर्ती वन्धक होता है।
$ १६ ये स्त्र सुगम हैं। इस प्रकार अनिवृत्तिकरणके कालको समाप्त करके तदनन्तर समयमें प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकभावसे परिणत हुए इस क्षपकके जो प्ररूपणाविशेष है उसका निर्णय करनेके लिये आगे का सूत्रप्रबन्ध आया है
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
* से काले पठमसमयसुहुमसांपराइयो ।
१७ सुगमं ।
* ताधे सुहुमसांपराइयकिट्टीएमसंखेज्जा भागा उदिण्णा ।
$ १८ कुदो ? हेट्टिमोवरिमासंखेज्जदिभागं मोत्तूण मज्झिमबहुभाग सरूवेणेव तासिमुदयणियमदंसणादो । तम्हा हेट्ठिमोवरिमासंखेज्जभागविसयाओ किड्डीओ मोत्तूण सेसमज्झिमबहुभाग सरूवेण मुहुमकिट्टीओ पुव्वत्तेण पदेसविण्णासविसेसेण उदीरेमाणो एसो पढमवसमय सुहुमसांपराइओ जादो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसन्भावो । संबहि एत्थ हेट्ठिमोवरिमाणमणुदिण्णकिट्टीणमुदिण्णमज्झिमकिडीणं च थोवबहुत्तमेत्थमगुगंतव्व मिदि परूवेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
* हेट्ठा अणुदिरणाओ थोवाओ ।
$ १९ सुगमं ।
* उवरि अणुदिरणाओ विसेसाहियाओ ।
२० सुगम ।
[ चारितक्खवणा
* तदनन्तर समय में वह क्षपक प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक हो जाता है ।
$ १७ यह सूत्र सुगम है ।
* उस समय उसके सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोकां असंख्यात बहुभाग उदीर्ण होता है ।
$ १८ क्योंकि अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियोंको छोड़कर मध्यम बहुभाग स्वरूपसे ही उसके उदय होनेका नियम देखा जाता है। इसलिये अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागको विषय करनेवाली कृष्टियोंको छोड़कर शेष मध्यम बहुभागरूपसे सूक्ष्मकृष्टियों की पूर्वोक्त प्रदेशविन्यासवश उदीरणा करता हुआ यह प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक हो जाता है । यह यहाँ इस सूत्रका मथितार्थ है । अब यहाँ अधस्तन और उपरिम अनुदीर्णं कृष्टियोंका और उदीर्ण हुईं मध्यम कृष्टियोंका अल्पबहुत्व जानने योग्य है, इसलिये उसकी प्ररूपणा करते हुए आगे सूत्रको कहते हैं
* अधस्तन भागमें स्थित अनुदीर्ण कृष्टियां सबसे अन्प हैं ।
8 १९ यह सूत्र सुगम है ।
* उपरिम भागमें स्थित अनुदीर्ण कृष्टियां विशेष अधिक हैं । २० यह सूत्र सुगम है ।
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गा० २०६ ]
* मज्झे उदिण्णाओ सुहुमसांपराइयकिट्टी असंखेज्जगुण ।
$ २१ सुगममेदं पि सुतमिदि ण एत्थ वक्खाणायरो । एवमेसा सुहुमसां पराइयस्स पढमसमये उदीरिज्जमाणकिट्टीणं सरूपपरूवणा कदा, एसा चैव विदियादिसमयेसु विणिरवसेसमणुगंतव्त्रा । raft विदियसमये पुव्वोदिण्णाणं किट्टीणमग्गग्गादो असंखेज्जदिभागं मुंचदि, हेट्ठदो अपुव्वमसंखेज्जदिभागमाघडदे । एवं जाव चरिमसमयसुहुमसांपराइयो ति । किट्टीणमणुसमय मोवट्टणाविहाणं च पुव्वं व परूवेयव्वं । ठिदिखंडयादिसेसासेसविसेसपरूवणा च सुगमा त्ति ण पुणो पवंचिज्जदे । एवमेदीए परूवणाए सुहुमसां पराइयद्धमणुपालेमाणस्स जाधे ठिदिखडयसहस्साणि णाणावरणादिकम्माणमणुभाग खंडय सहस्साविणाभावीणि गदाणि ताधे मोहणीयस्स अपच्छिमठिदिखंड मागाएमाणो एदेण विहाणेणागाएदि ति पदुप्पायण सुत्तमुत्तरं भणइ -
* सुहुमसांपराइयस्स संखेज्जेसु ठिदिखंडयस हस्सेसु गदेसु जमपच्छिमं ठिदिखंडयं मोहणीयस्स तम्हि ट्ठिदिखंडये उक्कीरमाणे जो
* मध्य भागमें स्थित उदीर्ण होनेवाली सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियां असंख्यातगुणी हैं।
$ २१ यह सत्र भी सुगम है, इसलिये इस विषय में व्याख्यान विषयक आदर नहीं है । इस प्रकार यह सूक्ष्मसाम्परायिकके प्रथम समय में उदीरणाको प्राप्त होने वालो कृष्टियोंके स्वरूपकी प्ररूपणा की । तथा यही प्ररूपणा द्वितीयादि समय में भी पूरी तरहसे जान लेनो चाहिये । इतनी विशेषता है कि पहले उदीर्ण हुई कृष्टियोंके अग्राग्रभाग से असंख्यातवें भागको छोड़ देता है तथा अधस्तन अपूर्व असंख्यातवें भागको भली प्रकार घटित करता है। इस प्रकार सूक्ष्ममाम्परायिक कृष्टियों के अन्तिम समय तक जानना चाहिये । कृष्टियोंको प्रतिसमय अपवर्तना-विधिको पहले के समान कथन करना चाहिये । स्थितिकाण्डक आदिकी शेष सम्पूर्ण विशेषप्ररूपणा सुगम है, इसलिये उसका पुनः विस्तार नहीं करते हैं । इस प्रकार इस प्ररूपणाके अनुसार सूक्ष्मसाम्परायिकके कालका पालन करनेवाले क्षपक जीवके ज्ञानावरणादि कर्मोके हजारों अनुभागकाण्डकोंके अविनाभावी हजारों स्थिति काण्डक जब व्यतीत हो जाते हैं तब मोहनीयकर्मके अन्तिम स्थितिकाण्डकको ग्रहण करता हुआ 'इस विधिसे ग्रहण करता है' इस बातका कथन करने के लिये आगेके सूत्रको कहते हैं
* सूक्ष्मसाम्परायिकके संख्यात हजार स्थितिकाण्डकोंके व्यतीत हो जाने पर जो मोहनीय कमका अन्तिम स्थितिकाण्डक है उस स्थितिकाण्डकके उत्कीर्ण
२
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[चारित्तक्खवणा मोहणीयस्स गुणसेढिणिक्खेवो तस्स गुणसेहिणिक्खेवस्स अग्गग्गादो संखेञ्जदिभागो आगाइदो।
___$ २२ एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा–संखेज्जेसु ठिदिखंडयसहस्सेसु जहावृत्तेण कमेण गदेस तदो मोहणीयस्स चरिमट्ठिदिखंडयमेसो गेण्हमाणो पढमसमयसहुमसांपराइएण जो गुणसेढिणिक्खेवे सगद्धादो विसेसाहियभावेण णिक्खित्तो तस्स गुणसेढिणिक्खेवस्स अग्गग्गादो संखेज्जदिभागमागाएदि । सहुमसांपराइयद्धामेत्तं सेसं परिसेसिय जेत्तिओ सो विसेसुत्तरो णिक्खेवो तं सव्वमेव कंडयसरूवेणागाएदि त्ति वृत्तं होइ । ण केवलमेत्तियं चेत्र गेण्हइ, किंतु तत्तो उवरिमाओ वि ठिदीओ गुणसेढिसीसयादो संखेज्जगुणमेत्तीओ चरिमद्विदिखंडयसरूवेण गेण्हइ, ताहिं विणा गुणसेढिसीसयस्स गहणासंभवादो। सो च सुत्ते तहा णिद्दे सो णत्थि त्ति ण चासंकणीयं, तस्साणुत्तसिद्धत्तादो। तम्हा गुणसेढिसीसएण सह उवरिमाओ अंतोमुहुत्तमेतीओ तत्तो सखेज्जगुणाओ द्विदीओ घेत्तूण मोहणीयस्स चरिमट्ठिदिखंडयमेत्तो णिवत्तेदि त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थ समुच्चओ।
$ २३ संपहि चरिमट्ठिदिखंडयस्स पढमसमये उक्कीरमाणपदेसग्गस्स सेढिपरूवणं सुत्तसूचिदं वत्त इस्सामो। तं कधं ? ताधे चेव पढमफालीदव्वमाकड्डियूण उदये
किये जाने पर जो मोहनीय कर्मका गुणश्रेणी-निक्षेप है उस गुणश्रेणि-निक्षेपके अग्राग्रभागसे संख्यातवें भागको घात करनेके लिये ग्रहण करता है।
$ २२ अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं । यथा-संख्यात हजार स्थिति-काण्डकोंके यथोक्त क्रमसे बोत जाने पर पश्चात् मोहनीय कर्मके अन्तिम स्थितिकाण्डकको यह क्षपक ग्रहण करता हुआ प्रथम समयमें सूक्ष्मसाम्परायिकके द्वारा गुणश्रेणी-निक्षेपमें अपने कालसे विशेष अधिकरूपसे जिस द्रव्यको निक्षिप्त किया है उस गुणश्रेणि निक्षेपके अग्राग्रभागसे संख्यातवें भागको ग्रहण करता है। सूक्ष्मसाम्परायिकके कालप्रमाण शेषको अवशिष्ट रखकर जितना विशेष अधिक द्रव्य निक्षिप्त किया है उस सबको काण्डकरूपसे ग्रहण करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । वह केवल इतनेको ही नहीं ग्रहण करता है किन्तु उससे उपरिम जो गुणश्रेणिशोर्षसे संख्यातगुणी स्थितियाँ हैं उन्हें भी अन्तिम स्थिति-काण्डकरूपसे ग्रहण करता है, क्योंकि उसके बिना गुणश्रेणि-शीर्षका ग्रहण करना असम्भव है । यद्यपि सूत्रमें उस बातका उस प्रकारसे निर्देश नहीं किया है सो ऐमी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि उक्त कथन अनुक्तसिद्ध है। इसलिये गुणश्रेणिशीर्षके साथ उससे संख्यातगुणी उपरिम अन्तमुहूर्तप्रमाण स्थितियोंको ग्रहण करके मोहनीय कर्मके अन्तिम स्थितिकाण्डकको यह क्षपक रचित करता है । यह यहाँ पर इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है ।
६ २३ अब प्रथम समय में अन्तिम स्थितिकाण्डकके उत्कीर्ण होने वाले प्रदेशपुंजकी सूत्रसे सुचित होनेवाली श्रेणी-प्ररूपणा को बतलावेंगे ।
शंका--वह कैसे ?
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गा० २०६ ] पदेसग्गं थोवं देदि । से काले असंखेज्जगुणं देदि । एवमसंखेज्जगुणाए सेढीए णिक्खवमाणो गच्छदि जाव सहुमसांपराइयचरिमसमयो ति । एवं चेव एण्हि मोहणीयस्स गुणसेढिसीसयमिदि घेत्तव्यं । तत्तो उवरिमाणंतरविदीए असंखेज्जगुणहीणं देदि । तत्तो विसेसहीणं णिक्खिवमाणो गच्छदि जाव चिराणगुणसेढिसोसयं पत्तो त्ति । तदो उवरिमाणंतराए एक्किस्से ठिदीए असंखेज्जगुणहीणं णिक्खिवदि । तत्तो परं सव्वत्थ विसेसहीणं चेव णिक्खिवदि जाव अप्पणो चरिमट्ठिदिमइच्छावणावलियमेत्तेण अपत्तो त्ति । एवं विदियादिफालीस वि णिवदिमाणियासु एरिसी चेव दिज्जमाणपदेसग्गस्स सेढिपरूवणा णिब्बामोहमणुगंतव्वा जाव चरिमठिदिखंडयस्स दुचरिमफालि त्ति ।
६ २४ पुणो चरिमफालिदव्वं घेत्तण उदये पदेसग्गं थोवं देदि, से काले असंखेज्जगुणं । एवमसंखेज्जगुणाए सेढीए णिक्खिवमाणो गच्छदि जाव सुहुमसांपराइयचरिमद्विदि त्ति । गुणगारो वि दुचरिमद्विदीए णिक्खित्तपदेसग्गादो चरिमट्टिदीए णिसित्तपदेसग्गस्म असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । एदस्स कारणं जहा दसणमोहखवगस्स चरिमफालीए णिवदिदाए सम्मत्तस्स परू विदं तहा चेव परवेदव्यं, विसेसाभादो एवमेदम्मि ठिदिखंडए णिल्लेविदे तदो पहुडि मोहणीयस्स ठिदिघादादिकिरियाओ ण संभवंति, केवलमधद्विदीए चेव अंतोमुहुत्तमेत्तीओ चेव ठिदीओ णिज्जरेदि त्ति इदमत्थविसेसं पटुप्पाएमाणो सत्तमुत्तरं भणइ
समाधान--क्योंकि उसी समय प्रथम फालिके द्रव्यका अपकर्षण करके उदयमें उसके स्तोक प्रदेशपुंजको देता है। तदनन्तर समयमें असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको देता है। इस प्रकार असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे निक्षिप्त करता हुआ सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समय तक जाता है। इसी प्रकार इस समय मोहनीय कर्मके गुण-श्रेणिशीर्षको ग्रहण करना चाहिये। उसके बाद उपरिम अनन्तरस्थितिमें असंख्यातगुणे प्रदेशपुजको देता है। उसके आगे पुरानी गुणश्रेणिके शीर्षके प्राप्त होने तक विशेषहीन निक्षेप करता हुआ जाता है। उसके आगे उपरिम अनन्तर एक स्थितिमें असंख्यात गुणे हीन प्रदेशजका निक्षेप करता है। उसके आगे अनिस्थापनावलिको प्राप्त किये बिना उसके पर्व अपनी अन्तिम स्थिति तक सर्वत्र विशेषहीन ही प्रदेशपजका निक्षेप करता है। इसी प्रकार दूसरी आदि फालियोंके भी पतित होनेपर दीयमान प्रदेशपुजको श्रेणिप्ररूपणाके व्यामोहके बिना इसी प्रकारको अन्तिम स्थितिकाण्डकके द्विचरम-फालिके प्राप्त होने तक जाननी चाहिये ।
६ २४ पुनः अन्तिम फालिके द्रव्यको ग्रहण करके उदयमें स्तोक प्रदेशपुजको देता है । तदनन्तर समयमें असंख्यातगणे प्रदेशपूजको निक्षिप्त करता है। इस प्रकार उत्तरोत्तर असंख्यातगुणित श्रेणिरूपसे निक्षिप्त करता हुआ सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानको अन्तिम स्थितिके प्राप्त होने तक निक्षिप्त करता है। गुणकार भी द्विचरम स्थितिमें निक्षिप्त होने वाले प्रदेशपुजसे अन्तिम स्थितिमें निक्षिप्त होनेवाला प्रदेशज पल्यापमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल-प्रमाण है। इस कारण दर्शनमोहनीय की क्षपणा करने वाले जोवके अन्तिम फालिके पतनके समय सम्यक्त्व प्रकृतिके विषयमें जिस प्रकार प्ररूपित कर आये हैं उसी प्रकार प्ररूपित करना चाहिये, क्योंकि उसके कथनसे
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१२
धवलासहिदे कसा पाहुडे
* तम्हि ठिदिखंडये उक्किरणे तदोपहुडि
ठिदिद्यादो ।
[ चारितक्खवणा
मोहणीयस्स रात्थि
$ २५ सुगममेदं सुतं । णाणावरणादिकम्माणं पुण ठिदि - अणुभागघादा तो उरिवि पट्टेति चेव, तत्थ पडिबंधाभावादो ।
* जत्तियं सुहुमसांपराइयद्धाए सेसं तत्तियं मोहणीयस्स ठिदिसंतकम्म सेसं ।
६ २६ चरिमहिदिखंड पिल्लेविदे सुहुमसांपराइद्धसेसमेत्तं चेव मोहणीयस्स ठिदिसंतकम्ममवसि । तं च जहाकममधट्ठिदीए णिज्जरेदि त्ति एवमेत्तिए अत्थविसेसे परूविय समत्ते तदो सुहुमसांपराइयस्स परूवणा समप्पइति वृत्तं होइ ।
इसके कथनमें कोई विशेषता नहीं है। इस प्रकार इस स्थितिकाण्डकके निर्लेपित हो जाने पर वहांसे लेकर मोहनीय कर्मकी स्थितिघात आदि क्रियाएँ सम्भव नहीं हैं । केवल प्रथम स्थितिकी ही अन्तप्रमाणस्थितियोंकी निर्जरा होती है। इस प्रकार इस अर्थविशेषका प्ररूपण करते हुए आगे सूत्रको कहते हैं
* उस स्थितिकाण्डकके उत्कीर्ण होने पर वहाँसे आगे मोहनीय कर्मका स्थितिघात नहीं होता ।
$ २५ यह सूत्र सुगम है, परन्तु ज्ञानावरणादि कर्मोंके स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात इससे आगे भी प्रवृत्त रहते ही हैं, क्योंकि उनके वैसा होनेमें प्रतिबन्धका अभाव है ।
* इस अवस्था में सूक्ष्मसाम्परायिकका जितना काल शेष रहता है उतने ही मोहनीय कर्मका स्थिति - सत्कर्म शेष रहता है ।
§ २६ अन्तिम स्थितिकाण्डकके निर्लेपित हो जाने पर सूक्ष्मसाम्परायिकका जितना क शेष रहता है उतना ही मोहनीय कर्मका स्थिति सत्कर्म-अवशिष्ट रहता है और वह क्रमसे अधःस्थिति के द्वारा निर्जरित होता है। इस प्रकार इतने अर्थ विशेषकी प्ररूपणा करके समाप्त होने पर उसके बाद सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानको प्ररूपणा समाप्त होती है । यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
विशेषार्थ - - सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपक अपने अन्तिम समयमें चारित्रमोहनीय कर्मका समूल अभाव करके अगले समय में क्षोणमोह गुणस्थानमें प्रवेश करता है, इसलिये वह चारित्रमोहनीय कर्मके अन्तिम स्थिति-काण्डकमें जिन द्रव्योंको सम्मिलित कर उस स्थिति काण्डकका फालिक्रमसे पतन करता है उनका विवरण इस प्रकार है - ( १ ) दसवें गुणस्थानके प्रारम्भमें जिस गुणश्रेणी की रचनाका प्रारम्भ किया था उसका आयाम दसवें गुणस्थानके कालसे कुछ अधिक होता है, इसलिये
१. ता० प्रती उवरीव इति पाठः ।
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गा० २०६]
६ २७ एवमेत्तिएण पबंधेण सहुमसांपराइय-गुणट्ठाणपज्जंत किट्टीवेदगस्स परूवणं समाणिय संपहि एम्हि चेव किट्टीवेदगद्धाए पडिबद्धाणं सुत्तगाहाणं पुव्वमविहासिदाणमेण्हिमवयारं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
* इदाणिं सेसाणं गाहाणं सुत्तफासो काययो ।
$ २८ को सुत्तफासो णाम ? सूत्रस्य स्पर्शः सूत्रस्पर्शः । पुव्वमत्थमुहेण विहासिदाणं गाहासुत्ताणमेण्हिमुच्चारणपुरस्सरमवयवत्थपरामरसो सुत्तफासो त्ति भणिदं होदि । मो इदाणिं कायन्वो त्ति सुत्तत्थो । एत्थ सेसग्गहणेण किट्टीसु पडिबद्धाणमेक्कारसण्हं मूलगाहाणं मज्झे जाओ पुत्वं थवणिञ्जभावेण ठविदाओ दो मूलगाहाओ तासिं गहणं कायव्वं, उपर्युक्तादन्यच्छेशः इति वचनात् ।
* तत्थ ताव दसमी मलगाहा ।
वह क्षपक उस गुणश्रेणि-निक्षेपके सबसे आगेके भागसे संख्यातवें भागके द्रव्यको उस अन्तिम स्थिति-काण्डकमें सम्मिलित करता है, (२) वह झपक इसके साथ ही उस गुणश्रेणिशीर्षसे मोहनीय कर्मकी जो स्थितियाँ संख्यातगुणी रहती हैं उन्हें भी उस स्थितिकाण्डक रूपसे ग्रहण करता है। इस प्रकार यह क्षपक इस गुणस्थानमें जिस अन्तिम स्थिति-काण्डककी रचना करता है। उसका फालिक्रमसे पतन करके क्रमसे प्रथमस्थितिमें स्थित अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थितियोंकी अधःस्थितिके द्वारा निर्जरा करके यह क्षीणमोह गुणस्थानको प्राप्त होता है ।
६ २७ इस प्रकार इतने प्रबन्धके द्वारा सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान तक कृष्टिवेदककी प्ररूपणा समाप्त करके अब इसो कृष्टिवेदकके कालसे सम्बन्ध रखने वाली तथा पहले विभाषित नहीं की गई सूत्रगाथाओंका इस समय अवतार करते हुए आगके सूत्रको कहते हैं
* इस समय शेष गाथाओंका सूत्ररूपसे स्पश करना चाहिये । ६२८ शंका-सूत्रस्पर्श किसे कहते हैं ?
समाधान--सत्रका स्पर्श सत्रस्पर्श है। पहले अर्थ-मखसे विशेषरूपसे व्याख्यात गाथासत्रोके इस समय उच्चारणपूर्वक गाथासूत्रके प्रत्येक पदका परामर्श (स्पष्टोकरण) करना सत्रस्पर्श कहलाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । उसे इस समय करना चाहिये । यह उक्त सूत्रका अथ है। यहाँ पर उक्त सूत्रमें 'शेष' पदके ग्रहण करनेसे कृष्टियोंके विषयमें सम्बन्ध रखनवाली ग्यारह मूलगाथाओंके मध्य स्थगित करनेके अभिप्रायसे जो दो मूल गाथाएं स्थगित की गई थीं उनको ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि पूर्वाक्तसे अन्य शेष कहलाता है। ऐसा नीतिका वचन है ।
* उनमें सर्वप्रथम यह दसवीं मूल-गाथा है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
चारित्तक्खवणां $ २९ तत्थ ताव दसमी मूलगाहा समुक्कितियव्वा त्ति वृत्तं होइ । * (१५४) किट्टीकदम्मि कम्मे के बंधदि के व वेदयदि अंसे ।
संकामेदि च के के केसु असंकामगो होदि ॥२०७।। ६ ३० एसा दसमी मूलगाहा पुन्वद्धेण किट्टीवेदगस्स पडिणियदुद्दे से वट्टमाणस्स ट्ठिदिअणुभागबंधपमाणावहारणटुं, तस्सेव तदवत्थाए अणुभागोदयविसेसगवेसणटुं च समोइण्णा । पुणो पच्छद्धेण वि तदवत्थाए तस्स पयडि-द्विदिअणुभाग-पदेससंकमो केरिसो होदण पयदि, किमविसेसेण, आहो अस्थि को वि विसेसो त्ति इममत्थविसेसं पदुप्पाएदुमोइण्णा ।
३१ तं जहा 'किट्टीकदम्मि कम्मे पुवमकिट्टीसरूवे मोहणीयकम्मे गिरवसेसं किट्टीसरूवेण परिण मिदे, तदो किट्टीवेदगभावे पयट्टमाणो 'के बंधदि के व वेदयदि अंसे' केसि कम्माणं, किं पमाणाओ द्विदीओ अणुभागे वा बंधदि बेदेदि त्ति वा पुच्छिदं होदि । एवं विहाणं पुच्छाणं विसेसणिण्णयमुवरि भासगाहासंबंधेण वत्तइस्सामो गाहापच्छद्धे “के के' कम्मसे पयडिआदिमेयभिण्णे संकामेदि । 'केस वा अंसेस
$ २९ उन दो गाथाओंमें सर्वप्रथम दसवीं मूलगाथाकी समुत्कीर्तना करनी चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* (१५४) मोहनीय कर्मके कृष्टिरूपसे परिणमा देनेपर किन-किन कर्मों को कितने प्रमाणमें बांधता है, किन-किन कर्मोंको कितने प्रमाणमें वेदता है, किन-किन कर्मोंका संक्रमण करता है और किन-किन कर्मों के विषयमें असंक्रामक होता है ॥२०७॥
३० यह दसवीं मूलगाथा है जो अपने पूर्वाद्ध द्वारा प्रतिनियत स्थानमें विद्यमान कृष्टिवेदकके स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके प्रमाणका अवधारण करनेके लिये तथा उसीके उस अवस्थामें अनुभागके उदय-विशेषका अनुसंधान करनेके लिये अवतरित हुई है। पुनः पश्चिमाद्वारा भी उस अवस्थामें उसके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंका संक्रम किस प्रकारका होकर प्रवत्त होता है ? क्या विशेषताके बिना प्रवत्त होता है या किसी प्रकारको विशेषता भी है, इस प्रकार इस अर्थविशेषका प्रतिपादन करनेके लिये अवतरित हुई है।
६३१ यथा-'किट्टीकदम्मि कम्मे' पहले आकृष्टिस्वरूप मोहनीय कर्मके कुछ शेष छोड़े बिना पूरेके पूरे कृष्टिस्वरूपसे परिणमित होने पर, तदनन्तर कृष्टियोंके वेदकपनेसे प्रवृत्तमान यह क्षपक जीव 'के बन्धदि के व वेदयदि अंसे' किन कर्मोके कितने प्रमाणवाली स्थितियों और अनुभागोंको बाँधता है और वेदता है, यह पच्छा की गई है। इस प्रकारकी पच्छाओंका विशेष निर्णय आगे भाष्यगाथाओंके सम्बन्धसे बतलावेंगे तथा गाथाके उत्तराद्ध में 'के के' किन किन कर्मों के प्रकृति आदिके भेदसे
१. परिणामिदे प्रे० का० ।
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गा० २०७-२०८ ] असंकामगो होदि त्ति सुत्तत्थसंबंधो । एसो च पुच्छाणिद्द सो आणुपुव्वीसंकमादिविसेसमुवेक्खदे । एदस्स च विसेसणिण्णयं पुरदो कस्सामो । एवमेदीए मूलगाहाए पुच्छाभेत्तेण णिहिट्ठाणमत्थविसेसाणं विहासणे कीरमाणे तत्थ इमाओ पंच भासगाहाओ होंति त्ति पदुप्पाएमाणो सुत्तमुत्तरमाह
* एदिस्से पंच भासगाहाम्रो । ६३२ सुगमं । * तासिं समुक्कित्तणा ।
६३३ सगमं । संपहिं तासि पंचण्ड भासगाहाणं जहाकममेव समुक्कित्तणं विहासणं च कुणमाणो तत्थ ताव पढमभासगाहाए समुक्कित्तणं कुणइ, 'यथोद्देशस्तथा निर्देशः' इति न्यायात् । * (१५५) दससु च वस्सस्संतो बंधदि णियमा दु सेसगे अंसे ।
देसावरणीयाई जेसिं प्रोवणा अस्थि ॥२०८॥
भेदको प्रप्त हुए कर्म-प्रदेशोंको संक्रमाता है । साथ ही 'केसुवा' किन कर्मोंके कितने भागका असंक्रामक होता है ? इस प्रकार यह इस मूल सूत्र गाथाका अर्थके साथ सम्बन्ध है और यह मूल सूत्र गाथामें की गई पृच्छाका निर्देश आनुपूर्वी संक्रम आदि विशेषकी अपेक्षा करता है और इसका विशेष निर्णय आगे करेंगे। इस प्रकार इस मुलगाथाके द्वारा पृच्छामात्रसे निर्दिष्ट किये गये अर्थ-विशेषोंकी विभाषा करने पर उस विषयमें ये पाँच भाष्यगाथायें हैं, इस बातका कथन करते हुए आगेके सूत्र को कहते हैं
* इस मूलगाथा सूत्रकी पाँच भाष्य-गाथायें हैं । $ ३२ यह सूत्र सुगम है। * उनकी समुत्कीर्तना करते हैं । • ६ ३३ यह सूत्र सुगम है।
अब उन पाँच भाष्य-गाथाओंकी यथाक्रम ही समुत्कीर्तना और विभाषा करते हुए वहाँ सर्वप्रथम प्रथम भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं, क्योंकि उद्देशके अनुसार निर्देश किया जाता है ऐसा न्याय है।
___ * क्रोधसंज्वलनकी प्रथम कृष्टिके वेदकके अन्तिम समयमें मोहनीय कर्मके बिना शेष तीन कर्मोंकी अर्थात तीन घातिकर्मोंकी नियमसे दस वर्षके भीतर अर्थात अन्तर्मुहूर्त कम दस वर्ष प्रमाण स्थितिका बन्ध करता है तथा इन कर्मों में जिनकी अपवर्तना सम्भव है उनका देशघातिरूपसे बन्ध करता है [तथा जिन कर्मोंकी अपवर्तना सम्भव नहीं है उनका सर्वघातिरूपसे बन्ध करता है । ॥२०८॥ १.व संकामगो प्रे० का० ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चारित्तक्खवणा ६ ३४ एसा पढमभासगाहा । एदीए किट्टीवेदगस्स पडिणियदुद्देसे वट्टमाणस्स तिण्हं घाइकम्माणं टिदि-अणभागबंधपमाणणि देसो कओ दट्टयो । संपहि एदिस्से अवयवत्थो वुच्चदे । तं जहा-'दससु च वस्सस्संतो । एवं भणिदे कोहपढमकिट्टीवेदगचरिमसमये दसण्हं वस्साणमंतो द्विदि बंधदि-अंतोमुहुत्तणदसवस्सपमाणेण हिदि बंधदि त्ति वृतं होइ । 'णियमा दु' णिच्छयेणेव 'सेसगे अंसे' मोहणोयवज्जाणं तिण्हं घाइकम्माणमिदि वृत्तं होइ । मोहणीयस्स वि द्विदिबंधपमाणणिद्द सो एदेणेव सूचिदो दट्ठव्वो। तिण्हं घाइकम्माणं पि ट्ठिदिबंधपमाण-णिद्दे सो एत्थेव सूचिदो त्ति घेत्तव्वो, सुत्तस्सेदस्स देसामासयत्तादो ।
३५ संपहि गाहापच्छद्धस्सत्थो वुच्चदे । तं जहा-'देसावरणीयाई' देसघादीणि चेव बंधदि । 'जेसिमोवट्टणा अत्थि' एवं भणिदे घादिकम्मेस जेसिं कम्माणमोवट्टणा संभवइ तेसिं देसघादीणं चेव बंधगो होदि त्ति वुत्तं होइ । जेसिं पुण
ओवट्टणाऐ णत्थि संभवो ताणि सव्वघादीणि चेव बंधदि त्ति एसो वि अत्थो एत्थेव णिलीणो त्ति वक्खाणेयब्वो। ओवट्टणासण्णा च पुत्वमेव परूविदा त्ति ण पुणो परूविज्जदे । संपहि एदस्सेव गाहासुत्तत्थस्स फुडीकरणट्ठमुवरिमं विहासागंथमाढवेइ
* एदिस्से गाहाए विहासा।
8 ३४ यह प्रथम भाष्यगाथा है। इसके द्वारा प्रतिनियत स्थानमें विद्यमान कृष्टिवेदक क्षपकके तीन घातिकर्मोंके स्थिति-बन्ध और अनुभाग-बन्धके प्रमाणका निर्देश किया गया जानना चाहिये । अब इस भाष्यगाथाके प्रत्येक पदका अर्थ कहते हैं । यथा-'दससु च वस्सस्संतो' इस प्रकार कहने पर संज्वलन क्रोधको प्रथम कृष्टिका वेदक अन्तिम समयमें दस वर्षों के भीतर स्थितिको बाँधता है अर्थात् अन्तर्मुहूर्त कम दसवर्षप्रमाण स्थितिको बाँधता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। "णियमा दु' निश्चयसे हो 'सेसगे अंसे' मोहनीयकर्मको छोड़कर तोन घातिकर्मोकी [दस वर्षों के भीतर स्थितिको बाँधता है ] यह उक कथनका तात्पर्य है। मोहनीयकर्मके भी स्थितिबन्धके प्रमाणका निर्देश इसी वचनसे सूचित किया गया जानना चाहिये । तीन घातिकर्मों के भी स्थितिबन्धके प्रमाणका निर्देश इसी वचनसे ही सूचित हो गया, ऐसा ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि यह भाष्य-गाथासूत्र देशामर्षक है।
६ ३५ अब इस भाष्यगाथाके उत्तरार्धका कथन करते हैं । यथा-'देसावरणीयाई देशघातियोंको ही बाँधता है । 'जेसिमोवट्ठणा अत्थि' ऐसा कहनेपर घातिकर्मो में जिन कर्मोकी अपवर्तना सम्भव है उन घातिकर्मों में देशघातियोंका ही बन्धक होता है । यह उक्त कथनका तात्पर्य है। परन्तु जिन घातिकर्मोंकी अपवर्तनाका होना सम्भव नहीं है उन्हें सर्वघाति रूपसे हो बांधता है । इस प्रकार यह अर्थ भी इसी भाष्यगाथामें ही भित है ऐसा व्याख्यान करना चाहिये । अपवर्तना संज्ञाका पहले ही कथन कर आये हैं, इसलिये यहाँ उसका पुनः कथन नहीं किया जाता है। अब इसो भाष्यगाथा सूत्रका स्पष्टीकरण करनेके लिये आगेके विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं
* अब इस भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं।
१. ओवट्टणा प्रे० का ।
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गा० २०८ ]
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९ ३६ सुगमं ।
* एदीए गाहाए तिन्हं घादिकम्माणं द्विदिबंधो च अणुभागबंधो च
णिहिट्टो |
६ ३७ सुगममेदं पि सुतं; परिष्फुडमेवेत्थ तदुभयणिद्द सदसणादो ।
* तं जहा ।
९३८ सुगमं ।
* कोहस्स पढमकिडिचरिमसमयवेदगस्स तिरहं घादिकम्माणं ट्ठिदिबंधो संखेज्जेहिं वस्ससहस्सेहिं परिहाइदूण दसरहं वस्साणमंतो जादो |
९ ३९ सुगममेदं पि गाहापुव्वद्ध पडिबद्धं विहासासुत्तमिदि ण एत्थ किंचि वक्खाणेयव्वमत्थि ।
* अथाणुभागबंधो तिरहं घादिकम्माणं किं सव्वधादी देसघादित्ति ? $ ४० सुगममेदं पुच्छावक्क ।
९ ३६ यह सूत्र सुगम है ।
* इस भाष्यगाथा द्वारा तीन घातिकर्मोंके स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धका निर्देश किया गया है ।
९ ३७ यह सूत्र भो सुगम है, क्योंकि स्पष्टरूपसे ही इस भाष्यगाथामें उन दोनों विषयों का निर्देश देखा जाता है ।
* वह जैसे ।
९ ३८ यह सूत्र सुगम है ।
* क्रोध संज्वलनकी प्रथम कृष्टिके अन्तिम समयवर्ती वेदकके शेष तीन घातिकर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्षोंसे घटकर दस वर्षके भीतर हो जाता है ।
8 ३९ गाथा पूर्वार्धसे सम्बन्ध रखने वाला यह विभाषासूत्र भी सुगम है, इसलिये यहाँ इस सम्बन्ध में कुछ भी व्याख्यान करने योग्य नहीं है ।
* तीन घातिकर्मोंका अनुभागबन्ध क्या सर्वघाति होता है या देशघाति होता है ।
९ ४० यह पृच्छा वाक्य- सुगम है ।
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ चारित्तक्खवणा
* उदेसिं घादिकम्माणं जेसिमोवट्टणा श्रत्थि ताणि देसघादीणि बंधदि, जेसिमोवणा णत्थि ताणि सव्वघादोणि बंधदि ।
४१ सुगमं ।
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* श्रवणासणा पुव्वं परूविदा' ।
$ ४२ यत्थमेदं पि सुत्तं, ओवट्टणा - सण्णाए पुव्वमेव सुविचारिदत्तदो । तदो केवलणाणदंसणावरणीयाणमोट्टणाविरहिदाणं सव्वधादिओ चेवाणुभागबंधो, सेसाणमोवट्टणपयडीणं खओवसमसत्तिसंजुत्ताणं देसघादिओ चेवाणुभागबंधो एदम्मि विसये पयट्टदि देसघादिकरणादो पाये तत्थ पयारंतरासंभवादो त्ति एसो एदस्स विहासागंथस्स गाहापच्छद्धपडिबद्धस्स समुदायत्थो । एवमेत्तिएण विहासागथेण पढमभासगाहाए अत्थविहासण समाणिय संपहि विदियभासगाहाए समुक्कित्तणं विहासणं च कुणमाणो उवरिमं पबंधमाढवेइ ।
* एत्ती बिदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा । ६ ४३ सुगमं ।
* इन घातिकमोंमें जिनकी अपवर्तना होती है उन्हें देशघाति रूपसे बाँधता है तथा जिनकी अपवर्तना नहीं होती है उन्हें सर्वघातिरूपसे बाँधता है ।
६ ४१ यह सूत्र सुगम है ।
* अपवर्तना संज्ञाका पहले कथन कर आये हैं ।
९ ४२ यह सूत्र भी गतार्थं है, क्योंकि अपवर्तना संज्ञाका पहले ही अच्छी तरह विचार कर आये हैं । इसलिये अपवर्तनासे रहित केवलज्ञानावरणीय और केवलदर्शनावरणीय सर्वघाति ही अनुभागबन्ध होता है, तथा क्षयोपशमशक्तिसे संयुक्त शेष अपवर्तना प्रकृतियोंका देशघाति ही अनुभागबन्ध इस स्थान में प्रवृत्त होता है, क्योंकि देशघातिकरणसे लेकर इस स्थानमें उन प्रकृतियोंका अन्य प्रकार सम्भव नहीं है । जिन कर्मोंके देशघातिस्पर्धक होते हैं उन कर्मोकी अपवर्तना संज्ञा है। इस प्रकार उक्त भाष्यगाथाके उत्तरार्धसे सम्बन्ध रखनेवाले इस विभाषाग्रन्थका यह समुच्चयरूप अर्थ है। इस प्रकार इतने विभाषाग्रन्थके द्वारा प्रथम भाष्यगाथाके अर्थका विशेष व्याख्यान समाप्त करके अब दूसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना और विभाषा करते हुए आगे के प्रबन्धको आरम्भ करते हैं
* यह दूसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना है ।
९ ४३ यह सूत्र सुगम है ।
पुव्वपरूविदा ता०
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गा० २०८-२०९]
* तं जहा।
४४ सुगमं । * (१५६) चरिमो बादररागो णामागोदाणि वेदणीयं च ।
वस्सस्संतो बंधदि दिवसस्संतो य जं सेसं ॥२०९।। $ ४५ एसा विदियगाहा अणियट्टिकरणचरिमसमये मोहणीयवज्जाणं सम्वेसिं कम्माणं द्विदिबंधपमाणावहारणट्ठमोइण्णा, परिप्फुडमेवेत्थ तहाविहत्थणिद्देसदेसणादो। एदस्स च गाहासुत्तस्स अवयवत्थपरूवणा सुगमा । संपहि एदस्सेव गाहासुत्तत्थस्स फुडीकरणट्ठमुवरिमं विहासागंथमाह ।
* विहासा।
४६ सुगमं । * जहा। ४७ सुगमं ।
* वह जैसे । ६४४ यह सूत्र सुगम है।
* नौवें गुणस्थानमें अन्तिम समयवर्ती बादर साम्परायिक क्षपक नामकर्म, गोत्रकर्म और वेदनीयकर्मको एक वर्ष के अन्तर्गत बाँधता है और जो शेष तीन घातियाकर्म (ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म) हैं उनको एक दिवसके अन्तर्गत बाँधता है ॥२०९॥
६४५ यह दूसरी भाष्यगाथा अनिवृत्तिकरण क्षपकके अन्तिम समयमें मोहनोयकर्मको छोड़कर शेष सभी कर्मोके स्थितिबन्धके प्रमाणका अवधारण करनेके लिये अवतरित हुई है, क्योंकि स्पष्टरूपसे ही इस भाष्यगाथामें उस प्रकारके अर्थका निर्देश देखा जाता है । किन्तु इस गाथासूत्र के अवयवोंकी अर्थप्ररूपणा सुगम है। अब इसी गाथासूत्रको स्पष्ट करनेके लिये आगेके विभाषा ग्रन्थको कहते हैं
* अब इस भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं। ६ ४६ यह सूत्र सुगम है। * वह जैसे । ६ ४७ यह सूत्र सुगम है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[चारित्तक्खवणा * चरिमसमययादर सांपराइयरस णामागोदवेदणीयाण हिदिबंधो वस्सं देसूर्ण । तिहं घादिकम्माणं मुहत्तपुधत्तो हिदिबंधो ।
$ ४८ एदाणि दो वि सत्ताणि सुगमाणि। णवरि मोहणीयस्स चरिमो द्विदिवधो अंतोमुहुत्तमेत्तो सुपसिद्धो त्ति ण एदम्मि गाहासुत्ते परूविदो । एवं विदिय भासगाहाए अत्थविहासणं समाणिय संपहि तदियभासगाहाए विहासणद्वमुवरिमं सुत्तपबंधमाह ।
* एत्तो तदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा । $ ४९ सुगम । * तं जहा। ३५० सुगम । * चरिमो य सुहमरागो णामागोदाणि वेदणीयं च ।
दिवसस्संतो बंधदि भिण्णमुहत्तं तुजं सेसं ॥२१०॥
५१ एसा तदियभासगाहा चरिमसमयसुहुमसांपराइयस्स छण्हं कम्माणं द्विदिबंधपमाणमेत्तियं होदि त्ति पदुप्पायणट्ठमोइण्णा । तं जहा-'चरिमो य सुहुम
* अन्तिम समययी बादरसाम्परायिक क्षपकके नामकर्म, गोत्रकर्म और वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध एक वर्षसे कुछ कम होता है ।।
तथा तीन घातिकर्म ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मका स्थितिबन्ध मुहूर्तपृथक्त्वप्रमाण होता है।
$ ४८ ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं। इतनी विशेषता है कि मोहनीय कर्मका अन्तिम स्थितिबन्ध अन्तमुहूर्त प्रमाण सुप्रसिद्ध है, इसलिये इसका कथन इस भाष्यगाथामें नहीं किया है। इस प्रकार इस दूसरी भाष्यगाथाके अर्थको विभाषा समाप्त करके अब तीसरी भाष्यगाथाकी विभाषा करनेके लिये आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* अब इससे आगे तीसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं। $ ४९ यह सूत्र सुगम है। * वह जैसे। ६५० यह सूत्र सुगम है।
* अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्म साम्परायिक क्षपक जीव नामकर्म, गोत्रकर्म और वेदनीयकर्म को एक दिवसके भीतर बांधता है तथा शेष जो तीन घातिकर्म ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्म हैं उन्हें भिन्नमुहूर्तप्रमाण बाँधता है ।।२१०।।
६५१ यह तीसरी भाष्यगाथा अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसापरायिक क्षपकके छह कर्मों के स्थितिबन्धका प्रमाण इतना होता है, इस बातका कथन करनेके लिये अवतरित हुई है । यथा-'चरिमो य मुहम रागो' अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसांपरायिक जीव 'णामा-गोदाणि वेदणीयं च' नाम, गोत्र और वेदनीय इन तीन अघाति कर्मोको 'दिवसस्संतो बन्धदि' संख्यात मुहूर्तप्रमाण बाँधता है यह उक्त
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गा० २१०] रागो' चरिमसमयसुहुमसांपराइओ 'णामागोदाणि वेदणीयं च' एदाणि तिण्णि अघादिकम्माणि दिवसस्संतो बंधदि, संखेज्जमुहुत्तपमाणेण बंधदि त्ति वुत्तं होइ, णामागोदाणयट्टमुहुत्तमेत्तट्टि दबंधदसणादो, वेदणीयस्म बारम मुहुत्तमेत्तट्ठिदिबंधदंसणादो त्ति । 'भिण्णमुहुत्तं तु जं सेसं, एदेण सुत्तावयवेण व त्तसे साणं निण्हं घादिकम्भाणमंतोमुहुत्तमेत्तो गुहुमसांपराइयचरिमसमयविसओ हिदिवंधो होदि त्ति एसो अत्थविसेसो जाणाविदो । संपहि एदस्सेव गाहासुत्तत्थस्स फुडीकर णट्ठमुवरिमो विहासागंथो ।
* विहासा। ६ ५२ सुगम। * चरिमसमयसुहमसांपराइयरू णामागोदाणं हिदिबंधो अट्ठ
वेदणीयस्स हिदिबंधो बारसमुहुत्ता।। तिव्ह घादिकम्माणं हिदिबंधो अतोमुहुत्तो ।। ६ ५३ एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । एवमेदाहिं तीहिं भासगाहाहि 'के बंधदि'त्ति एदस्स मूलगाहावयवस्स अत्थो भणिदो। संपहि 'के व वेदयदि अंसे । इच्चेदं मूलगाहासुत्तावयवमम्सियण किट्टीवेदगस्स घादिकम्माणमणुभागोदयविसेसगवेसण? चउत्थीए भासगाहाए समुक्कित्तणं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइकथनका तात्पर्य है, क्योंकि नामकर्म और गोत्र कर्मका आठ मुहूर्तप्रमाण स्थितिबन्ध देखा जाता है तथा वेदनोय कर्मका बारह मुहूर्तप्रमाण स्थितिबन्ध देखा जाता है। 'भिण्णमुहत्तं च जं सेसं' इस भाष्यगाथा सूत्र के अन्तिम चरणसे पहले कहे गये तोन अघाति कर्मोंसे शेष रहे जो तीन घातिकम उनका अन्तमुहूर्त प्रमाण स्थितिबन्ध सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके अन्तिम समयमें होता है । इस प्रकार इस अर्थविशेषका ज्ञान कराया गया है । अब गाथा सूत्रके इसी अर्थको स्पष्ट करनेके लिये आगेका विभाषा ग्रन्थ आया है
* अब इस भाष्यगाथासूत्रकी विभाषा करते हैं। . ६ ५२ यह सूत्र सुगम है ।।
* अन्तिम समयवर्ती सक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके नामकर्म और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध आठ मुहूर्तप्रमाण होता है।
वेदनीय कर्मका स्थितिबन्ध बारह मुहूर्तप्रमाण होता है ।
तथा तीन घातिकर्मोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होता है। 8 ५३ ये तीनों सूत्र सुगम हैं। इस प्रकार इन तीन भाष्यगाथाओं द्वारा 'के बन्धदि' इस मूलसूत्र गाथासम्बन्धी अवयवका अर्थ कहा । अब 'के व वेदयदि अंसे' इस प्रकार इस मूल गाथासूत्रसम्बन्धी अवयवका आश्रय करके कृष्टिवेदकके घातिकर्मों के अनुभागके उदयविशेषका अनुसन्धान करनेके लिये चौथो भाष्यगाथाको समुत्कीर्तना करते हुए आगेका सूत्र कहते हैं
१. अंतोमुहत्त प्रे० का० ।
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जयधवलास हिदे कसा पाहुडे
* एत्तो चउत्थीए भासगाहाए समुक्कित्तणा ।
६५४ सुगमं ।
[ चारित्तक्खवणा
* (१५८) अध मदि-सुद-आवरणे' च अंतराइए च देसमावरणं । लय वेदयदे सव्वावरणं अलद्धी य ॥२११॥ ९ ५५ एसा चउत्थी भासगाहा णाणावरणदंसणावरण - अंतराइयाणं तिण्डं मूलपडणं जाओ उत्तरपयडीओ खओवसमसत्तिसहगदाओ तासिमणुभागोदयो एदस्स किट्टीaaraaree देघादीओ सव्वधादीओ वा होदूण पंयहृदि त्ति एदस्स अत्थविसेसस्सपदुपायट्टमोइण्णा । संकामणपट्ठवगस्स विदियभासगाहासंबंघेण पुव्वमेवंविहो अत्थविसेसो सवित्थरं विहासिदो चेव, पुणो किमदुमेहिमाढविज्जदिति णासंका कायव्वा, किट्टीवेदगसंबंघेण विसेसिथूण पुणो वि तप्परूवणाए दोसाणुवलभादो । एदिस्से चउत्थमासगाहाए किंचि अवयवत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहा - अथेत्यय
* इससे आगे चौथे भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं ।
8 ५४ यह सूत्र सुगम है ।
* जो लब्धिसंज्ञावाले (क्षयोपशमसंज्ञक ) मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण और पाँच अन्तराय कर्म हैं तथा (भाष्यगाथासूत्र में आये हुए 'च' पदसे गृहीत अवधिज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण और अवधिदर्शनावरण कर्म हैं) उन सबका देशावरणरूपसे वेदन करता है; तथा अलब्धि संज्ञावाले जिन कर्मोंका क्षयोपशम नहीं हुआ है उन कर्मोंका सर्वघातिरूपसे वंदन करता है || २११ ।।
§ ५५ यह चीथो भाष्यगाथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तोन मूल प्रकृतियों की क्षयोपशमशक्ति से युक्त जो उत्तरप्रकृतियाँ हैं उनके अनुभागका उदय इस कृष्टिवेदक क्षपक के देशघातिरूप होकर प्रवृत्त होता है या सर्वघातिरूप होकर प्रवृत्त होता है इस प्रकार इस अर्थविशेषका प्रतिपादन करनेके लिये अवतीर्ण हुई है।
शंका--संक्रामण प्रस्थापकके दूसरी भाष्यगाथाके सम्बन्धसे पहले हो इस प्रकारके अर्थविशेषकी विस्तारके साथ विभाषा कर आये हैं, इसलिये इस समय इसको पुनः किसलिये आरम्भ किया जाता है ?
समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि कृष्टिवेदक के सम्बन्धवश विशेषरूपसे फिर भी उसके प्ररूपण करनेमें कोई दोष नहीं पाया जाता ?
१. अघ सुद- मदिआवरणे दि० ।
२. लद्वी यं प्रे० का० ।
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गा० २११] निपातः पादपूरणेऽथवाणुवशमीकरणे वा द्रष्टव्यः । 'सुद-मदि आवरणे च' एवं मणिदे सुदणाणावरणीये मदिणाणावरणीये च अणुभागमेसो वेदंतो देसमावरणं देसघादि, सरूवमेदेसिमणुभाग वेदेदि त्ति वुत्तं होइ ।
६५६ एत्थ च सद्दणिद्देसेण 'ओहि-मणपज्जवणाणावरणीयाणं चक्खु-अचक्खुओहिदंसणावरणीयाणं च गहणं कायव्वं, तेसि पि खओवसमलद्धिसंभववसेण देसघादिअणभागोदयसंभवं पडि विसेसाभावादो। ण केवलमेदेसिं चेव कम्माणमणभागमेसो देसघादिसरूवं वेदेदि, किंतु 'अंतराइए'च' पंचंतराइयपयडीणं पि देसावरणसरूवमणुभागमेसो वेदयदे, लद्धिकम्मसत्त पडि विसेसाभावादो त्ति वुत्तं होइ । कुदो एवमेदेसि कम्माणमणुभागोदयस्स देसघादित्तसंभवो जादो त्ति आसंकाए इदमाह-'लद्धी यं' जं जम्हा खओवसमलद्धी एदेसि कम्माणमेत्थ संभवइ, तम्हा देसघादिसरूवमेदेसिमणुभागं वेदेदि त्ति भणिदं होदि ।
६५७ एवमेदेण एदेसि कम्माणमणुभागोदयस्स देसघादित्तसंभवं पदुप्पाइय संपहि तदेयंतावहारणणिरायरणमुहेण सव्वघादिसरूवो वि एदेसि वुत्तासेसकम्माणमणु
अब इस चौथी भाष्यगाथाके अवयवोंके किंचित् अर्थकी प्ररूपणा करेंगे । यथा-इस भाष्यगाथा सूत्रमें 'अध' यह निपात पादपूरण अर्थमें जानना चाहिये या अनुपशमीकरण के अर्थमें जानना चाहिये । 'सुद-मदि आवरणे च' ऐसा कहने पर श्रुतज्ञानावरणीय और मतिज्ञानावरणीयके अनुभागको यह क्षपक वेदन करता हुआ देशावरणरूपसे ही वेदन करता है अर्थात् इन कर्मोका देशघाति स्वरूप अनुभागका वेदन करता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
8 ५६ इस भाष्यगाथा सूत्रमें आये हुए 'च' शब्दके निर्देशसे अवधिज्ञानावरण, मन पर्ययज्ञानावरण कर्मोंका तथा चक्षदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण और अवधिदर्शना चाहिये क्योंकि इन कर्मोंका भी क्षयोपशमलब्धिके सम्भव होनेसे देशघाति अनुभागके उदयके सम्भव होनेके प्रति विशेषताका अभाव है। केवल इन्हीं कर्मोके अनुभागको यह क्षपक देशघातिस्वरूपसे वेदन नहीं करता है, किन्तु 'अंतराइए च' अन्तराय कर्मको पाँचों प्रकृतियोंका भी देशावरणस्वरूप अनुभागको यह क्षपक वेदन करता है, क्योंकि उनके उक्तकर्मोंके क्षयोपशमलब्धि कर्मांशरूप होनेके प्रति विशेषताका अभाव है। यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार इन कर्मोंके अनुभागका उदय देशघातिपनेको कैसे प्राप्त हो गया ऐसी आशंका होने पर उक्त भाष्यगाथासूत्र में यह वचन कहा है-'लद्धी य' यतः इन कर्मों की क्षयोपशमलब्धि यहाँ पर सम्भव है, इसलिये इन कर्मों के देशघातिस्वरूप अनुभाग को यह जीव वेदता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है।
५७. इस प्रकार इस कथन द्वारा इन कर्मों के अनुभाग के उदय के देशघातिपने के संभव होने का कथन करके अब उन कर्मों के एकान्त के निश्चय के निराकरणद्वारा इन उक्त समस्त १. पादपूरणार्थवाणुवशमीकरणे प्रे० का० । पादपूरणाथ वाणुवशमीकरणे ता० । २. अंतराये आ० ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[चारित्तक्खवणा भागोदयसंभवो अस्थि त्ति पदुप्पाएमाणो इदमाह-'सव्वावरणं अलद्धी य । ण केवलमेदेसि कम्माणमणुभागोदयं देसघादिसरूवं चेव वेदयदि, किंतु सव्वावरणं च' सव्वघादिसरूवं च एदेसिमणभागं वेदेदि । किं कारणं ? अलद्धी य, खओवसमलद्धीविरहो अलद्धी णाम । जदो एदेसि कम्माणं खओवसमविसेसो केसु वि जीवेसु णत्थि, तदो सव्वघादिसरूवो वि एदेसि कम्माणमणुभागोदओ कत्थइ ण विरुज्झदि त्ति वृत्तं होइ ।
५८ एत्थ चोदओ भणइहोउ णाम ओहि-मणपज्जवणाणावरणीयाणमोहिदंमणावरणीयस्स च अण, भागोदयो केसु वि जीवेसु देसघादिसरूवो अण्णेसु च सव्वघादिमरूवो होदूण पयट्टदि त्ति, सव्वेसु जीवेसु एदासिं तिण्हं पयडीणं खओवसमलद्धीए णियमाणवलभादो। किंतु सुद-मदिआवरणदिपयडीणं देस-सव्वघादिसरूको अणुभागोदओ भयणिज्जसरू, वेणेदस्स खवगस्स होदि त्ति णेदं घडदे, तोसिं खओवसमलद्वीए सव्वजीवेसु अवस्सं, भाविणियमदंसणादो त्ति ?
कर्मों के अनुभाग का उदय सर्वधातिस्वरूप भी सम्भव है इस बात का प्रतिपादन करते हुए उक्त भाष्यगाथा का यह वचन कहा है-'सव्वावरणं अलद्धी य' इन कर्मों के अनुभाग के उदय को केवल देशघातिस्वरूप ही वेदन नहीं करता, किन्तु 'सव्वावरणं च' इन कर्मों को सर्वघातिस्वरूप भी वेदन करता है।
शंका-इसका कारण क्या है ?
समाधान-क्योंकि 'अलद्धी य' ये कर्म क्षयोपशमलब्धि से रहित हैं ।
अलब्धिका अर्थ है कि यतः इन कर्मों का क्षयोपशमविशेष किन्हीं जीवों में नहीं पाया जाता इसलिये किन्हीं जीवों में इन कर्मों के अनुभाग का उदय सर्वघातिस्वरूप भी विरोध को प्राप्त नहीं होता।
६ ५८ शंका-यहाँ पर शंकाकार. कहता है कि अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण के अनुभाग का उदय किन्हीं जीवों में देशघातिस्वरूप होकर प्रवृत होवे तथा अन्य जीवों में उक्त तीन कर्मों का उदय सर्वघातिस्वरूप होकर प्रवृत होवे, क्योंकि सब जीवों में इन तोन प्रकृतियों की क्षयोपशमलब्धि होने का नियम नहीं पाया जाता । किन्तु मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण आदि प्रकृतियों के देशघाति और सर्वघातिस्वरूप अनुभाग का उदय भजनीयरूप से इस क्षपकके प्रवृत्त होता है यह बात घटित नहीं होती, क्योंकि उन प्रकृतियों के क्षयोपशमलब्धि के सब जोवों में अवश्य होनेका नियम देखा जाता है।
१. सव्वावरणो आ०।
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गा० २११]
६५९ एत्थ परिहारो वुच्चदे-सच्चमेदमेदेसि कम्माणं खओवसमलद्धिसामाणं सव्वजीवेसु णियमा संभवदि त्ति, किंतु खओवसमविसेसमस्सियूण पयदत्थसमत्थणा इत्थमणुगंतव्वा । तं जहा-मदि-सुदणाणावरणीयाणं ताव उच्चदे। दोण्हमेदासि पयडीणमसंखेज्जलोगमेत्तीओ उत्तरोत्तरपयडीओ अत्थेि पज्जायसुदणाणप्पहुडि जाव सब्वुक्कस्ससुदणाणे त्ति समवट्टिदणाणवियप्पेसु पडिबद्धाणमसंखेज्जलोगमेत्ताणमावरणवियप्पाणमुवलंभादो। ण च मदिणाणस्स आवरणवियप्पा एत्तियमेत्ता सुत्तणिबद्धा णत्थि त्ति आसंका कायव्वा; मदिपुव्वसुदणाणमेदेण भिण्णस्स मदिणाणस्स वि तेत्तियमेत्ताणमावरणवियप्पाणं संभवे विरोहाभावादो। एवं च संते तत्थ जो सव्वुक्कस्सखओवसमपरिणदो चोद्दसपुत्वहरो सव्वुक्कस्सकोटबुद्धिआदिमदिणाणविसेससंपण्णो खवगसेढिमारूढो तस्स देसघादिसरूवो चेव दोण्हमेदासि पयडीणमणुभागोदओ होदि, तदुत्तरपयडीणं सव्वासिमेव तत्थ देसघादिसरूवेण परिणमिय उदयविदीए समवट्ठाणदंसणादो । ___६६० जो पुण विगलसुदधारओ विगलमदिणाणी च सेढिमारुहदि तत्थ सन्वधादिसरूवो एदासिमणुभागोदओ दट्ठव्वो; हेट्ठिमावरणाणं तत्थ देसघादिपरिणामसंभवे वि उवरिमावरणवियप्पाणं सव्वघादिसरूवाणमेव तम्मि पत्तिदंसणादो। हंदि जइ वि एगवखरेण्णसयलसुदधारओ खवगसेढिमारुहदि, तो वि तत्थ सव्वधादिसरूवो
६ ५९ समाधान---अब यहाँपर इसका परिहार कहते हैं-यह बात सच है कि इन कर्मोकी क्षयोपशमलब्धि-सामान्य सब जीवोंमें नियमसे सम्भव है, किन्तु क्षयोपशम-विशेषका आश्रय करके प्रकृत अर्थका समर्थन इस प्रकार जानना चाहिये; यथा-सर्वप्रथम मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरणकी अपेक्षा कथन करते हैं-इन दोनों प्रकृतियों की असंख्यातलोकप्रमाण उत्तरोत्तर प्रकृतियाँ हैं, क्योंकि पर्याय श्रतज्ञानसे लेकर सबसे उत्कृष्ट श्रतज्ञान तक समवस्थित ज्ञानके भेदोंमें प्रतिबद्ध असंख्यात लोकप्रमाण आवरणके भेद उपलब्ध होते हैं। यहाँ पर मतिज्ञानके इतने आवरणके भेद सूत्रमें नहीं कहे गये हैं, ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञानके भेदसे भेदको प्राप्त हुए मतिज्ञानके भी उतने आवरणके भेदोंके सम्भव होनेमें विरोधका अभाव है। और ऐसा होनेपर उस विषयमें जो सबसे उत्कृष्ट क्षयोपशमसे परिणत चौदह पूर्वधर तथा जो सबसे उत्कृष्ट कोष्ठबुद्धि आदि मतिज्ञान विशेषसे सम्पन्न ऐसा जो क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ जोव है उसके इन दोनों प्रकृतियोंका देशघातिस्वरूप हो अनुभागका उदय होता है, क्योंकि उन दोनों प्रकृतियोंके सभी उत्तर भेदोंकी वहाँ देशघातिस्वरूपसे परिणमन करके उदयस्थितिका समवस्थान देखा जाता है।
६६० किन्तु जो विकल श्रुतधारक और विकल मतिज्ञानी जीव क्षपकश्रेणिपर आरोहण करता है उसके इन दोनों प्रकृतियोंके उत्तर भेदोंके अनुभागका सर्वघातिस्वरूप उदय जानना चाहिये । यद्यपि उक्त दोनों प्रकृतियोंके अधस्तन आवरणोंका देशघातिरूपसे परिणमन सम्भव होने
१. लद्धि प्रे० का।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[चारित्तक्खवणा सुद-मदिणाणावरणीयाणमणभागोदओ ण विरुद्धो; चरिमावरणवियप्पस्स तत्थ सव्वघादित्तदंसणादो त्ति । ण च विगलसुदधारयाणं खवगसेढिसमारोहोणासंभवो, दस-णव-पुन्बहाणं पि सेढिसमारोहणे संभवोवएसादो। तम्हा सबुक्कस्सखओवसमलद्धिप रणदसयलसुदणाणम्मि उक्कस्सकोडबुद्धिआदिचदुरमलबुद्धिविसिढे जीवे देसावरणीयसरूवो एदेसिमणभागोदओ, तदण्णत्थ सबघादिसरूवो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसमावो एबमोहिणाणावरणादिसेमपयडीणं पि पयदत्थजोजणा जाणिय कायव्वा । णवरि ओहिमणपज्जरणाणावरणीयाणमोहिदसणावरणीयस्स च उत्तरोत्तरपयडिविवक्खाए विणा वि देस-पवघादित्तमणुभागोदयस्स संभवदि त्ति दडव्वं, सन्वेसु जीवेसु तेसिं खओवसमणियमाणुवलंभादो। संपहि एदस्सेव गाहासुत्तत्थस्स फुडीकरणट्ठमुवरिमं बिहासागंथमाढवेइ
* लद्धीए विहासा। ६६१ सुगम । * जदि सव्वेसिमक्खराणं खओवसमो गदो, तदो सुदावरणं मदि
पर भी उपरिमआवरणोंके भेदोंका सर्वघातिस्वरूपसे ही वहाँ प्रवृत्ति देखी जाती है । खेद है कि यदि एक अक्षरसे कम वह सम्पूर्ण श्रतका धारक होकर क्षपकश्रेणिपर आरोहण करता है तो भी उसके श्रुतज्ञानावरणीय और मनिज्ञानावरणीयके अनुभागका सर्वघातिस्वरूप उदय विरोधको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि अन्तिम आवरणके भेदका उसके सर्वघातिपना देखा जाता है। और विकल श्रुतधरोंका क्षपकाश्रेणिपर आरोहण करना असम्भव नहीं है, क्योंकि दस पूर्वधर और नौ पूर्वधरोंका भी क्षपकश्रेणिपर आरोहण करना सम्भव है, ऐसा आगमका उपदेश है । इसलिये सबसे उत्कृष्ट क्षयोपशमलब्धिसे परिणत सकल तज्ञानी जीवके तथा उत्कष्ट कोष्ठबुद्धि आदि चार निर्मल बुद्धिसे युक्त जीवके इन दोनों प्रकृतियोंके अनुभागका देशघातिस्वरूप उदय होता है तथा उनसे अन्य क्षपक जीवोंके सर्वघातिस्वरूप ही उदय होता है इस प्रकार यह प्रकृत में सूत्रका अर्थके साथ सद्भाव है। इसी प्रकार अवधिज्ञानावरण आदि शेष प्रकृतियोंकी भी प्रकत अर्थके साथ जानकर योजना कर लेनी चाहिये । इतनी विशेषता है कि अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण की उत्तरोत्तर प्रकृतियोंकी विवक्षाके विना भी देशघाति और सर्वघातिरूपसे अनुभागका उदय सम्भव है ऐसा जानना चाहिये, क्योंकि सभी जीवोंमें उन प्रकृतियोंके क्षयोपशमका नियम उपलब्ध नहीं होता है । अब उक्त गाथासूत्रके इसी अर्थको स्पष्ट करनेके लिये आगेके विभाषा ग्रन्थको आरम्भ करते हैं--
* 'लद्धीए' इस पद की विभाषा इस प्रकार है। ६६१ यह सूत्र सुगम है।
* यदि सभी अक्षरोंका क्षयोपशम हो गया है तब यह जीव श्रुतज्ञानावरण और मतिज्ञानावरणका देशघातिरूप वेदन करता है।
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गा० २११]
आवरणं च देसघादि वेदयदि। अध एकस्स वि अक्खरस्स ण गदो खोवसमो तदो सुद-मदि-आवरणाणि सव्वघादीणि वेदयदि ।
$ ६२ एत्थ 'जई वि सव्वेसिमक्ख राणं खओवसमो गदो त्ति भणिदे सयलसुदणाणदव्व-भावक्खराणं चदुसट्ठिअक्खरसंजोगजणिदसरूवेणेगट्ठिवग्गपमाणाणं सव्वेसिमेव जइ खओवसमो जादो तो सयलसुदधारओ खवगो चदुरमलबुद्धिविसेससंपण्णो सुदणाणावरणीयं मदिणाणावरणीयं च देसघादिसरूवं वेदेदि, तत्थ तदुत्तरपयडीणं णिरवसेसमेव देसघादिसरूवेण परिणदत्तादो त्ति वुत्तं होइ।
$ ६३ 'अध एक्कस्स वि अक्खरस्स०' एवं भणिदे जइ सम्वेसिमेव सुदणाणक्खराणमेगक्खरेणूणाणं खओवसमो संजादो तो वि दोण्हमेदासि पयडीणमणुभागं सव्वघादिं चैव वेदेदि ति भणिदं होदि, तत्थ चरिमक्खरावरणस्स खओवसमाभावेण सव्वधादित्तदसणादो। __६ ६४ एवमंतराइयस्स वि जइ अधिओ खओवसमो जादो तो उक्कस्समणबलादिलद्धिपरिणदो तदणुभागं देसघादिसरूवं वेदेदि चेव । जइ बहुगो खओवसमो ण संपत्ते तो तं सव्वघादिं चैव वेदेदि त्ति वत्तव्वं । संपहि इममेवत्थमुवसंहारमुहेण परूवेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ।
* अब यदि एक भी अक्षरका क्षयोपशम नहीं हुआ है तब यह क्षपक मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण को सर्वघातिरूप वेदन करता है।
६६२ यहाँ पर यद्यपि सब अक्षरोंका क्षयोपशम हो गया है ऐसा कहने पर चौसठ अक्षरों के संयोग से उत्पन्नस्वरूप होने से एक ही वर्गप्रमाण सम्पूर्ण श्रुतज्ञानके समस्त द्रव्यभावरूप अक्षरोंका यदि क्षयोपशम हो गया है तो वह सकल श्रतधारक क्षपक तथा चार अमल बुद्धिविशेषसे सम्पन्न वह क्षपक श्रुतज्ञानावरणीय और मतिज्ञानावरणीय प्रकृतियोंको देशघातीरूप वेदता है, क्योंकि वहाँ उस जीवके उन दोनों कर्मोंकी उत्तरप्रकृतियोंका पूरी तरह से देशघातीरूप से परिणमन हो गया है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
६६३ 'अध एक्कस्स वि अक्खरस्स०' ऐसा कहने पर यदि एक भी अक्षर से कम सभी श्रुतज्ञानसम्बन्धी अक्षरोंका क्षयोपशम हो गया है तो भी इन दोनों प्रकृतियों के अनुभाग को सर्वघातिरूपसे हो वेदता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि उप जीवके अन्तिम अक्षरावरणके क्षयोपशमका अभाव होने से उसके सर्वघातिपना उदयमें देखा जाता है।
६६४ इसी प्रकार अन्तराय कर्म का भी यदि सबसे अधिक क्षयोपशम हो गया है तो उत्कृष्ट मनोबल आदि लब्धिसे परिणत वह क्षपक जीव उसके अनुभागको देशघातिरूप हो वेदता है । यदि बहुत क्षयोपशम नहीं प्राप्त हुआ है तो वह उस अन्तराय कर्मको सर्वघातिरूप से ही वेदता है ऐसा यहां कहना चाहिये । अब इसी अर्थका उपसंहार द्वारा प्ररूपण करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ चारित्तक्खवणा ___* एवमेदेसिं तिएहं घादिकम्माणं जासिं पयडीणं खोवसमो गदो तोसिं पयडीणं देसघादिउदयो । जासिं पयडीणं खोवसमो ण गदो तासिं पयडीणं सव्वघादिउदो ।
६५ गयत्थमेदं सूत्तं ।
एवमेत्तिएण पबंधेण चउत्थभासगाहाए अत्थविहासणं समाणिय संपहि जहावसरपत्ताए पंचमभासगाहाए अत्थविहासणडमुवरिमं सुत्तपबंधमाह
* इस प्रकार इन तीन पातिकर्मसम्बन्धी जिन प्रकृतियोंका क्षयोपशम हो गया है उन प्रकृतियोंका देशघातिरूपसे उदय होता है तथा जिन प्रकृतियोंका क्षयोपशम नहीं हुआ है उन प्रकृतियोंका सर्वघातिरूपसे उदय होता है ।
६५ यह सूत्र गतार्थ है।
विशेषार्थे--यह सामान्य वचन है कि क्षपकश्रोणिपर आरोहण करनेवाला श्रुतकेवली होता है, पर इस वचनका अपवाद भी पाया जाता है। इसका उल्लेख चूणिसूत्रके आधारपर वोरसेन स्वामीने किया है । चूर्णिसूत्रमें यह वचन उपलब्ध होता है कि श्रुतज्ञानके एक भी अक्षरका आवरणकर्म यदि शेष है और आवरणका यदि क्षयोपशम नहीं हुआ है तो उतने अंशमें वह श्रुतज्ञानावरणके सर्वघातिपनेका वेदन करता है । यही बात मतिज्ञानावरणके सम्बन्धमें भी समझ लेनी चाहिए । जिस जीवके श्रुतज्ञानावरणका पूरा क्षयोपशम होता है उसके मतिज्ञानावरणका भी पूरा क्षयोपशमं होता है। श्रुतज्ञानावरणके पूरे क्षयोपशमके पाये जाने से जहाँ यह क्षपकजीव श्रुतकेवली होता है वहीं मतिज्ञानावरणके पूरे क्षयोपशमके पाये जाने से उसके कोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि, संभिन्नसंधोत्रबुद्धि और पदानुसारित्वबुद्धि ये चार बुद्धियाँ अवश्य पाई जाती हैं। ऐसे जीव मतिज्ञान और श्रुतज्ञानकी अपेक्षा पूरे लब्धिसम्पन्न होते हैं, क्योंकि उनके मात्र देशघाति अनुभाग का उदय पाया जाता है । किन्तु जिनके श्रुतज्ञानमें एक अक्षरकी भी कमी पायी जाति है उनके मतिज्ञान भी उतने अंशमें कम होता है, क्योंकि उनके उतने अंश में सर्वघाति अनुभाग कर्म का उदय नियम से पाया जाता है । यह मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके सम्बन्धको व्यवस्था है। उक्त भाष्य गाथामें आगे हुए 'च' पदसे यह भी ज्ञात होता है कि जो व्यवस्था मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके सम्बन्धमें है वही व्यवस्था चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शनके सम्बन्धमें भी जान लेना चाहिये । अर्थात जिन जीवोंके चक्षदर्शनावरण और अचक्षदर्शनावरणका पूरा क्षयोपशम हुआ है, वे लब्धिसम्पन्न होते हैं तथा जिन जीवोंके इन दोनों कर्मोंका पूरा क्षयोपशम नहीं हुआ है वह जितने अंशमें कम होता है वे उतने अंशमें लब्धिसम्पन्न नहीं होते हैं। यहाँ मात्र देशघाति कर्मके उदयकी अर्थात् क्षयोपशमको लब्धि संज्ञा है और जिस कर्मका जितने अंशमें क्षयोपशम न होकर सर्वघाति अनुभागका उदय शेष है उसकी अलब्धि संज्ञा है।
___इसी प्रकार क्षपकश्रेणिसे जिन जीवोंको अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और अवधिदर्शन पूरा पाया जाता है उनके मात्र देशघाति कमका उदय होने से वे लब्धिसम्पन्न होते हैं और जिनके उक्त कर्मोका अंशतः या समग्ररूपसे सर्वघाति अनुभागका उदय पाया जाता है वे अंशतः या पूरी तरहसे अलब्धिसम्पन्न होते हैं।
इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा चौथी भाष्य गाथा के अर्थ की विभाषा समाप्त करके अब यथावसर प्राप्त पांचवीं भाष्य गाथा के अर्थ की विभाषा करने के लिए आगे के सूत्रप्रबन्ध को कहते है
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गा० २१२]
* एत्तो पंचमीए भासगाहाए समुक्त्तिणा। . ६ ६६ सुगमं । । * (१५९) जसणाममुच्चगोदं वेदयदि णियमसा अणंतगुणं ।
गुणहीणमंतरायं से काले सेसगा भज्जा ॥२१२॥ ६६७ एसा वि पंचमी भासागाहा 'के व वेदयदि अंसे' इच्चेवं मूलगाहासुत्तावयवमस्सियूण अणुभागोदयविसयमेव विसेसंतरं पदुप्पाएदुमोइण्णा । तं कध ? 'जसणाममुच्चगोदं' एवं भणिदे जसगित्तिणाममुच्चागोदं च 'वेदयदे' अणुहवइ, 'णियमसा' णिच्छयेणेव 'अणंतगुणं समए समए अणंतगुणवड्ढीए दोण्हमेदेसि कम्माणमणुभागं वेदेदि त्ति वृत्तं होइ । कुदो एवमिदि चे १ सहाणं पयडीणं विसोहिवड्डीए अणुभागोदयस्स अणंतगुणवड्ढेि मोत्तण पयारंतरासंभवादो। एदं च जसगित्तिउच्चागोदवयणं देसाभासयं तेण जत्तियाओ सुहपयडीओ परिणामपच्चइयाओ तासिं सव्वासिमेवाणुभागोदयो पडिसमयमणंतगुणवड्डीए एदस्स खवगस्स पयदि त्ति णिच्छओ कायवो ।
* इससे आगे पाँचवीं भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं । ६ ६६ यह सूत्र सुगम है।
* (१५९) यशःकीर्ति नामकर्म और उच्चगोत्रकर्मका यह क्षपक प्रतिसमय नियमसे अनन्तगुणवृद्धिरूपसे वेदन करता है, अन्तरायकर्मको यह क्षपक प्रतिसमय अनन्तगुणहानिरूपसे वेदन करता है तथा उक्त कर्मोंसे जो कर्म शेष बचे हैं उनको यह क्षपक प्रतिसमय मजनीयरूप से अर्थात् छह वृद्धि, छह हानि में से कोई एक वृद्धि और कोई एक हानिरूपसे तथा अवस्थितरूपसे वेदन करता है ॥२१२।।
६६७ यह पाँचवीं गाथा भी 'के व वेदयदि अंसे' इस प्रकार मूल गाथासूत्र के अन्तिम चरण का आश्रय करके अनुभागसम्बन्धी उदयविषयक विशेषताका ही प्रतिपादन करनेके लिये अवतीर्ण हुई है।
शंका--वह किस प्रकार ?
समाधान-क्योंकि 'जसणाममच्चगोदं' ऐसा कहने पर यशःकोति नामकर्म और उच्चगोत्रको प्रतिसमय 'वेदयदे' अनुभवता है, "णियमसा' निश्चयसे ही 'अणंतगुणं' अनन्तगुणवृद्धिरूपसे, उक्त दोनों कर्मोंके अनुभागका वेदन करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका--ऐसा किस प्रकार है ?
समाधान- क्योंकि शुभ प्रकृतियोंको विशुद्धिकी वृद्धि के कारण अनुभाग के उदयकी अनन्तगुणवृद्धिको छोड़कर और दूसरा प्रकार सम्भव नहीं है। किन्तु यह यशःकीर्ति नामकर्स वचन और उच्चगोत्रकर्म वचन देशामर्षक है, इसलिये जितनी परिणामप्रत्ययरूप शुभप्रकृतियाँ हैं उन सबके ही अनुभागका उदय इस क्षपकके प्रतिसमय अनन्तगुणवृद्धिरूपसे प्रवृत्त होता है ऐसा यहाँ निश्चय करना चाहिये।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ चारित्तक्सवणा ६६८ असहाणं पि असादाअथिरादिपयडीणं परिणामपच्चइयाणमणुभागोदओ अणंतगुणहाणिसरूवेणेदम्मि विसये पयदि त्ति एसो वि अत्थो एत्थ सुत्तसूचिदो दव्यो।
६९ 'गुणहीणमंतरायं' एवं भणिदे पंचंतराइयपयडीणमणुभागमेसो पडिसमयमणंतगुणहाणिसरूवेण वेदेदि त्ति सत्तत्थसंबंधो । कुदो एदस्स अणंतगुणहीणत्तणियमो चे ? ण, सुहपरिणामविरुद्धसहावस्स तदणुभागस्स एदम्मि विसये अणंतगुणहाणिं मोत्तूण पयारंतरसंभवाणवलंभादो। केवलणाण-दसणावरणीयाणं पि एत्थेव संगहो कायव्वो, सुत्तस्सेदस्स देसामासयत्तादो। तदो तेसिं अनुभागमेसो णियमा अणंतगुणहीणं वेदेदि त्ति घेत्तव्वं ।
६७० 'से काले सेसगा भज्जा' एवं मणिदे वृत्तसेसाणि कम्माणि पडिसमयमणंतगुणहीणाणुभागोदयेण भजिदव्वाणि ति सुत्तत्थसंबंधो। कुदो एवमिदि चे ? तेसिं छवडिहाणि-अवट्ठिदसरूवेणेदम्मि विसये अणुभागोदयपवुत्तिदंसणादो। तदो चदुविहस्स णाणावरणीयस्स तिविहस्स दसणावरणीयस्स भवोपग्गहियणामपयडीणं च
६ ६८ जो परिणाम-प्रत्ययस्वरूप असातावेदनीय और अस्थिर आदि अशुभ प्रकृतियाँ हैं उन प्रकृतियोंके अनुभागका उदय इस स्थान में अनन्त गुणहानिरूपसे प्रवृत्त होता है, इस प्रकार यह अर्थ भी यहाँ पर उक्त भाष्यगाथा सूत्रसे सूचित हुआ जानना चाहिये ।
६९ 'गुणहीणमंतरायं' ऐसा कहनेपर पांच अन्तराय प्रकृतियों के अनुभागको यह क्षपक प्रतिसमय अनन्तगुणहानिरूपसे वेदता है, यह इस भाष्यगाथा सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है ।
शंका-इस जीव के अन्तराय कर्मका अनन्तगुणहीनरूपसे अनुभव करनेका नियम किस
कारण है ?
समाधान--नहीं, क्योंकि अन्तरायकर्म शुभपरिणामके विरुद्धस्वभाववाला होता है, इसलिए इस क्षपकके पांच अन्तराय कर्मके अनुभागका इस स्थान में अनन्तगुणहानिको छोड़कर दूसरा प्रकार सम्भव नहीं उपलब्ध होता ।
केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण प्रकृतियोंका भी यहींपर पाँच अन्तराय कर्मोके साथ संग्रह करना चाहिये, क्योंकि यह भाष्यगाथा सूत्र देशामर्षक है, इसलिये इन दो प्रकृतियोंके अनु. भागको भी यह क्षपक नियमसे अनन्तगुणहीनरूपसे वेदन करता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये ।
७० 'से काले सेसगा भज्जा' ऐसा कहनेपर पूर्व में कहे गये कर्मोंसे शेष रहे कर्म प्रतिसमय अनन्त-गुणहीन अनुभागके उदयकी अपेक्षा भजनीय होते हैं, यह इस भाष्यगाथा सूत्रके उक्त वचनका अर्थके साथ सम्बन्ध है।
शंका--ऐसा किस कारण है ?
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३१
गा० २१२] जहासंभवमेत्थ वेदिज्जमाणाणं छवड्डि-हाणि-अवट्टिदसरूवेणाणुभागोदओ एदस्स खवगस्स दट्टव्वो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसब्भावो। संपहि एदस्सेव गाहासुत्तस्स कुडीकरणट्ठमुवरिमं विहासागंथमाढवेइ
* विहासा। ६७१ सुगमं । * जसणाममुच्चागोदं च अणंतगुणाए सेढीए वेदयदि ।
$ ७२ कुदो ? परिणापमच्चइयाणं सुहपयडीणमणभागोदयस्स खवगसेढीए अणंतगुणवढि मोत्तूण पयरंतरासंभवादो । सादावेदणीयं पि अणंतगुणाए सेढीए वेदेदि त्ति एसो वि अत्थो एत्थेव सुत्तचिदत्तेण वक्खाणेयव्यो, परिणामप्पइयसुहपयडित्तं पडि विसेसाभावादो। संपहि एत्थेव णिगूढमण्णं पि अत्थविसेसं विहासेमाणो पुच्छा सुत्तमुत्तरं भणइ
* सेसाओ णामात्रओ कधं वेदयदि ।
समाधान--क्योंकि उन कर्मों के इस स्थानमें छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थित रूपसे अनुभागके उदयकी प्रवृत्ति देखो जातो है, इसलिये यथासम्भव यहाँ वेदी जाने वाली चार प्रकार को ज्ञानावरणीय, तीन प्रकार की दर्शनावरणीय और भवके सम्बन्धसे उपगृहीत नामकर्म प्रतियों का इस क्षपकके छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थितस्वरूपसे अनुभागका उदय जानना चाहिए, इस प्रकार यहाँपर इस भाष्यगाथा सूत्रका अर्थके साथ यह सम्बन्ध जानना चाहिये । अब इसी भाष्यगाथा सूत्रको स्पष्ट करने के लिये आगे विभाषा ग्रन्थको आरम्भ करते हैं
* अब इस भाष्यगाथा सूत्रकी विभाषा कहते हैं६७१ यह सूत्र सुगम है।
* यह क्षपक यश कीर्ति नामकर्मको तथा उच्चगोत्रकमको अनन्तगुणी श्रेणीरूपसे वेदता है।
६७२ क्योंकि परिणाम-प्रत्ययवाली शुभ प्रकृतियोंके अनुभागके उदयका क्षपक श्रेणिमें अनन्तगुण वृद्धिको छोड़कर अन्य प्रकारसे उदय होना सम्भव नहीं है। यह जीव सातावेदनीय प्रकृतिको भी अनन्त-गुणवृद्धिरूपसे वेदता है इस प्रकार इस अर्थका भी यहींपर उक्त भाष्यगाथा सूत्रके द्वारा सूचित हुए रूपसे व्याख्यान करना चाहिये, क्योंकि यह प्रकृति भी परिणामप्रत्यय शुभ प्रकृति है, इस अपेक्षा उक्त प्रकृतियों से इस प्रकृतिमें कोई भेद नहीं है । अब इसी भाष्य गाथा सूत्र में लोन अन्य अर्थविशेषकी भी विशेष व्याख्या करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं
* नामकर्मकी शेष प्रकृतियोंको किस प्रकार वेदता है ?
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ चारितक्खवणा
९ ७३ जसगित्तिवज्जाओ सेसणामपयडीओ सुहासु मेयभिण्णाओ कथमेसो वेदयदे, किमणं गुणवडी हाणीए अण्णहा वा त्ति पुच्छिदं होदि ?
* जसणामं परिणाम पन्चइयं मणुस - तिरिक्खजोणियाणं ।
३२
$ ७४ देण सणामउदएण सूचिदं जत्तियाओ परिणामपच्चइयाओ सुमाओ माओ ताओ सव्वाओ अनंतगुणाए सेढीए वेदयदि ति जसगित्तिणामं मणुस - तिरिक्खजोणियाणं जीवाणं परिणामपच्चइयाणं सुहपरिणामेणेदस्सा णु मागोदय बुद्धिदंसजादो । तदो एदेणेव जसगित्तिउदयेण सुत्तणिद्दिद्वेण देसाभासयभूदेण एसो वि अत्थविसेसो सूचिदो ददुव्वो । जेत्तियाओ परिणामपच्चइयाओ सुभाओ णामपयडीओ सुभगादेज्जाओ ताओ सव्वाओ अनंतगुणाए सेढीए एसो खवगो वेदेदिति । किं कारणं ? सुहपयत्तिं संते परिणामपच्चद्दत्तं पडि भेदाभावादो । ण केवलं सुहाणं पडी मणुभागोदयस्साणंतगुणबड्डीए चैव एदेण जसगित्तिउदएण सूचिदा, किंतु असुभगाणं पि परिणामपच्चइयाणं णामपयडीणमणुभागोदओ अनंतगुणहाणीए पहृदि चि एदस्स वि सूचयमेदं चैव जसगित्तिवयणमिदि जाणावणडुमिदमाह -
९ ७३ यशःकीर्तिको छोड़कर शुभ और अशुभ भेदसे भेदको प्राप्त हुई नामकर्मकी शेष प्रकृतियोंको यह क्षपक जीव कैसे वेदता है ? क्या अनन्तगुणवृद्धि रूपसे वेदता है या अनन्तगुणहानिरूपसे वेदता है या अन्य प्रकारसे वेदता है यह पूछा गया है ?
* मनुष्य जीवोंके और तिर्यञ्च योनिवाले जीवके यशः कीर्ति नामकर्मकी प्रकृति परिणाम- प्रत्ययवाली होती है ।
$ ७४ इस वचन द्वारा यशःकीर्ति नामकर्मके उदयद्वारा जितनी परिणाम प्रत्ययवाली शुभ प्रकृतियाँ सूचित की गई हैं उन सबको प्रतिसमय अनन्तगुणीश्रेणिरूपसे वेदता है, इसलिये मनुष्य और तिर्यञ्च योनिवाले जीवोंके यशःकीर्तिसे लेकर परिणाम प्रत्ययवाली सभी शुभप्रकृतियों की इस क्षपकके अनुभागके उदय की वृद्धि देखो जाती है । इसलिए निर्दिष्ट देशामर्षकभूत भाष्यगाथासूत्र द्वारा निर्दिष्ट इसी यशः कीर्तिके उदयसे यह अर्थ विशेष भी सूचित किया गया जानना चाहिये । तात्पर्य यह है कि परिणामप्रत्यय जितनी सुभग और आदेय शुभ नामकर्मसम्बन्धी प्रकृतियाँ है उन सबको अनन्तगुणी श्रेणिरूपसे यह क्षपक वेदता है, क्योंकि उनमें शुभप्रकृतिपना होनेपर परिणाम प्रत्ययपने के प्रति यशःकीर्ति से इनमें कोई भेद नहीं पाया जाता। यहाँ इस यश:कीर्ति उदयद्वारा केवल शुभ प्रकृतियों के उदयको अनन्तगुण वृद्विरूपसे ही सूचित नहीं किया गया है, किन्तु परिणामप्रत्यय नामकर्मकी अशुभ प्रकृतियों के अनुभागका उदय इस क्षपकके अनन्त गुणहानिरूपसे प्रवृत्त होता है यह यशःकीर्ति वचन द्वारा सूचित किया गया है, इस प्रकार इसी बात का ज्ञान करानेके लिये यह कहते हैं
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गा• २१२]
* जाश्रो असुभाश्रो परिणामपञ्चहगाो तारो अणंतगुणहीणाए सेढीए वेदयदि त्ति ।
६ ७५ गयत्थमेदं सुत्तं । णवरि एत्थ 'असुहणामाओं' त्ति भणिदे अथिर-असुभादिपयडीणं जहासंभव' संगहो कायव्वो। संपहि गाहापच्छद्धविवरणहमिदमाह--
* अंतराइयं सव्यमणंतगुणहीणं वेदयदि । ६७६ कुदो ? पंचण्हमंत्तराइयाणं पयडीणमणुभागस्स सुह-परिणामविरुद्धसहावस्स खवगविसोहीहि अणतगुणहाणीए उदयपरिणामस्स बाहाणुवलंभादो।
* भवोपग्गहियानो णामाश्रो छविहाए वड्ढीए छविहाए हाणीए भजिवव्वाभो ।
६७७ एत्थ भवोपग्गहियाओ णामाओ ति मणिदे भवपच्चइयाणं णामपयडीणं मणुसगइआदीणं जहासंभवं गहणं कायव्वं । एत्थ एदाओ मवपच्चइयाओ एदाओ च परिणामपच्चइयाओ त्ति एसो अत्थविसेसो संतकम्मपाहुडे वित्थारेण मणिदो। एत्थ पुण गंथगउरवभएण ण भणिदो । तेण तत्थ भणिदपरूवर्ण सव्वमेत्थ भणियण गेण्हियव्वं । तासिमणुभागमेसो वेदेमाणो छवड्डि-हाणि-अवट्ठिदसरूवेण वेदेदि त्ति सुत्तत्थो।
* जो अशुभ परिणामप्रत्यय प्रकृतियां हैं उन्हें यह क्षपक प्रतिसमय अनन्तगुणहानिश्रेणिरूपसे वेदता है।
__६७५ यह सूत्र गतार्थ है। इतनी विशेषता है कि इस सूत्रमें 'अशुभ नामकर्म सम्बन्धी प्रकतियां' ऐसा कहने पर अस्थिर और अशुभ आदि प्रकृतियोंका यथासम्भव संग्रह करना चाहिये । अब उक्त भाष्यगाथाके उत्तरार्धका कथन करने के लिये यह सूत्र कहते हैं
* अन्तरायसम्बन्धी सब प्रकृतियोंको अनन्तगुणहीनरूपसे वेदता है।
६७६ क्योंकि पाँच अन्तरायकर्म-सम्बन्धी प्रकृतियोंका अनुभाग शुभपरिणामोंके विरुद्ध स्वभाववाला होता है, इसलिये क्षपकश्रेणिसम्बन्धी विशुद्धियोंके द्वारा उसके अनन्तगुणहानिरूपसे उदयरूप परिणामके होने में बाधा नहीं पाई जाती है।
* भवके द्वारा उपगृहीत नामकमकी प्रकृतियां छह प्रकारकी वृद्धिद्वारा और छह प्रकारकी हानिद्वारा भजनीय होती है।
७७ इस सूत्र में 'भवोपग्गहियाओ णामाओ' ऐसा कहने पर भवप्रत्यय मनुष्यगति आदि नामकर्मकी प्रकृतियोंका यथासम्भव ग्रहण करना चाहिये । यहाँपर ये भवप्रत्यय प्रकृतियाँ हैं और ये परिणामप्रत्यय प्रकृतियाँ हैं यह अर्थ विशेष सत्कर्मप्राभृतमें विस्तारके साथ कहा गया है, परन्तु यहाँपर ग्रन्थके बढ़ जानेके भयसे नहीं कहा गया है, इसलिये उसमें कही गई सब प्ररूपणाको यहाँ पर कहकर ग्रहण कर लेनी चाहिये। उनके अनुभागको यह क्षपकजोव वेदन करता हुआ छह
१. यथावसरं वा० ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुहे [ चारित्तक्खवणा किं पुण कारणमेदासिमणुभागस्स छवड्ढि-हाणि-अवट्ठिदसरूवेण उदयसंभवो जादो त्ति चे ? ण, भवपच्चइयत्तेण विसोहि-संकिलेसणिरवेक्खाणमेदासिं विसेसपच्चयमस्सियण तहाभावसिद्धीए विरोहाभावादो।
* केवलणाणावरणीयं केवलदसणावरणीयं च अणंतगुणहीणं वेदयदि । ६ ७८ कुदो? सुहपरिणामेणेदेसिमणुभागोदयस्स अणतगुणहाणि-णियमदंसणादो।
* सेसं चउव्विहं णाणावरणीय जदि सव्वघादि वेदयदि णियमा अणंतगुणहीणं वेदयदि। ___ * अध देसधादिं वेदयदि, एत्थ छविहाए वढीए छब्धिहाए हाणीए भजिदव्वं ।
* एवं चेव दसणावरणीयस्स ज सव्वघादि वेदयदि तं णियमा प्रणंत-गुणहीणं ।
* जं देसघादिं वेदयदि तं छविहाए वड्ढीए छविहाए हाणीए भजियव्वं ।
प्रकारकी वृद्धि, छह प्रकारकी हानि और अवस्थितरूपसे वेदन करता है, यह इस सूत्रका अर्थ है।
शंका-इन भवप्रत्यय प्रकृतियोंके अनुभागका छह प्रकारको वृद्धि, छह प्रकारकी हानि और अवस्थितरूपसे उदय किस कारणसे सम्भव है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि भवप्रत्ययपनेके कारण विशुद्धि और संक्लेशसे निरपेक्ष इन प्रकृतियोंके विशेष प्रत्ययका आश्रय करके उस प्रकारके भावकी सिद्धिमें विरोधका अभाव है।
* केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरणको अनन्तगुणहीनरूपसे वेदता है।
६ ७८ क्योंकि शुभपरिणाम होनेके कारण इन प्रकृतियोंके अनुभागके उदयका अनन्तगुणहानिरूपसे नियम देखा जाता है।
* शेष चार प्रकारके ज्ञानावरणीयको यदि सर्वघातिरूपसे वेदन करता है तो नियमसे अनन्तगुणहीनरूपसे वेदन करता है ।
* अब यदि देशघातिरूपसे वेदन करता है तो इस विषयमें छह प्रकारकी वृद्धि और छह प्रकारकी हानिकी अपेक्षा भजनीय है।
* इसी प्रकार दर्शनावरणीयका यदि सर्वघातिरूपसे वेदन करता है तो नियम से अनन्तगुणहीनरूपसे वेदन करता है । ___* यदि देशघातिरूपसे वेदन करता है तो नियमसे छह प्रकारको वृद्धि और छह प्रकारकी हानिकी अपेक्षा भजनीय है।
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गा० २१२]
३५
$ ७९ एदेसिं सुत्ताणमत्थो वुच्चदे । तं जहा -लद्धिकम्मंसाणमेदेसु नियमा देसघादि - सव्वघादिवसे देस - सव्वघादि - उदयसंभवे तत्थ सव्वघादिमणुभागमेदेसि वेदे - मामा अनंतगुणहीणं वेदेदि, सव्वधादिअणुभागस्स अनंतगुण- विसोहिवसेण तहापरिणामसिद्धीए णिव्वाहमुवलंमादो । देसघादिसरूवो पण एदेसिमणुभागोदयो अंतरंगकारणवइचित्तियेण छवड्ढि - हाणि-अवट्ठिदसरूवेण पयहृदि, तत्थ पयारंतरासंभवादोति ।
$ ८० एवमेदाहिं पंचहिं भासगाहाहिं मूलगाहाए पुरिमद्धो विहासिदो । 'संकादि के के केस असंकामगो होदि' त्ति एदेण गाहापच्छद्ध ेण किट्टीविसओ आणुgodiकमो णिोि । सो च पुव्वमेव विहासिदो त्तिण पुणो एत्थ विहासिदो । अथवा देण पदेण खविदकम्माणि अक्खविदकम्माणि च भणियूण गेण्हियव्वाणि । एवमेत्तिएण परंघेण दसममूलगाहाए अत्थविहासणं समानिय संपहि पयादमत्थमुवसंहरेमाणो इदमाह ।
* एवमेसा दससी मूलगाहा किट्टीसु विहासिदा समत्ता । * एस्तो एक्कारसमी मूलगाहा ।
$ ७९ अब इन सूत्रोंका अर्थं कहतें हैं । यथा - लब्धिरूप ( क्षयोपशमरूप) कमौका, उक्त ज्ञानावरण और दर्शनावरणरूप कर्मोंमें नियमसे देशघाति और सर्वघातिरूप होने के कारण, देशघाति और सर्वघातिरूप पुंज का उदय सम्भव होनेपर वहाँ इन कर्मोंके सर्वघाति अनुभागका वेदन करता हुआ यह जीव नियमसे अनन्तगुणहीन अनुभागका वेदन करता है, क्योंकि सर्वघाति अनुभागकी अनन्तगुणी विशुद्धि के कारण उस प्रकारके परिणामकी सिद्धि निर्वाधरूप से उपलब्ध होती है । परन्तु इन कर्मोंका देशघातिरूप अनुभागका उदय अन्तरंगकारणोंकी विचित्रतावश छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थित रूप से प्रवृत्त होता है, क्योंकि उन कर्मोंके विषय में अन्य प्रकार सम्भव नहीं है ।
- ९ ८० इस प्रकार इन पांच भाष्यगाथाओं द्वारा मूल सूत्रगाथाके पूर्वार्धको विशेष व्याख्या की । अब 'संकामेदि य के के केसु असंकामगो होदि' इस प्रकार इस मूलगाथा सूत्रके पश्चिमा द्वारा कृष्टिविषयक आनुपूर्वी संक्रमका निर्देश किया गया है । किन्तु उसका पहले ही विशेष व्याख्यान कर आये हैं, इसलिये यहाँ उसका पुनः विशेष व्याख्यान नहीं करते हैं । अथवा इस पद द्वारा क्षपित कर्मोंको और अक्षपित कर्मोंको कहकर ग्रहण करना चाहिये । इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा दसवीं मूलगाथाके अर्थकी विभाषा समाप्त करके अब प्रकृत अर्थका उपसंहार करते हुए यह सूत्र कहते हैं
* इस प्रकार यह दसवीं मूलगाथा कृष्टियोंके विषय में विशेष व्याख्यान होकर समाप्त हुई ।
* इससे आगे ग्यारहवीं मूलगाथा है ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
- [चारित्तक्खवणा ८१ दसममूलगाहाविहासणाणंतरमेत्तो जहावसरपत्तो एक्कारसमी मूलगाहा विहासियव्वा त्ति वुत्तं होइ। * १६० किट्टीकदम्मि कम्मे के वीचारो दु मोहणीयस्स ।
सेसाणं कम्माणं तहेव के के दु वीचारो ॥२१३।। ६८२ एसा एक्कारसमी मूलगाहा किट्टीवेदगावत्थाए वट्टमाणस्स खवयमोहणीयस्स णाणावरणादिसेसकम्माण च द्विदिघादादिकिरियावियप्पा एत्तियमेत्ता होंति त्ति जाणावणट्ठमोइण्णा । संपहि एदिस्से अवयवत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहा'किट्टीकदम्मि कम्मे' पुव्वमकिट्टीसरूवे चदुसंजलणाणुभागसंतकम्मे गिरवसेसं किट्टीसरूवेण परिणामिदे तदवत्थाए पढमसमयकिट्टीवेदगभावेण वट्टमाणस्सेदस्स खवगस्स 'के वीचारा दु' केत्तिया खलु किरियावियप्पा द्विदिघादादिलक्खणा मोहणीयस्स संमवंति, 'सेसाणं वा कम्माणं' णाणावरणादीणं तहेव तेणेव पयारेण पादेक्कं णिहालिज्जमाणा 'के के दु वीचारा केत्तिया' कत्तिया किरियाविसेसा संभवंति त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसंबंधो । एत्थ 'वीचारा' त्ति वुत्ते द्विदिघादादिकिरियावियप्पा घेत्तव्वा । संपहि एदिस्से सुत्तगाहाए अत्थविहासणं कुणमाणो उवरिमपबंधमाढवेइ
* एदिस्से भासगाहा जत्थि ।
$ ८१ दसवीं मूल गाथा का विशेष व्यख्यान करने के अनन्तर आगे यथावसर प्राप्त ग्यारहवीं मूल गाथाकी विभाषा करनी चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* (१६०) अकृष्टिस्वरूप संज्वलन कर्मोंके कृष्टिस्वरूप किये जानेपर कितनेमोहनीयकर्मके स्थितिघात आदिरूप कितने-कितने क्रियाभेद होते हैं तथा इसी प्रकार शेषकर्मोंके स्थितिघात आदिरूप कितने-कितने क्रियाभेद होते हैं ॥२१३।।
८२ यह ग्यारहवीं मूलगाथा कृष्टिवेदकरूप अवस्थामें विद्यमान क्षपक जीवके संज्वलन मोहनीयके और ज्ञानावरणादि शेषकर्मोंके स्थितिघात आदिरूप इतने क्रियाभेद आदि होते हैं इस बात का ज्ञान करानेके लिये आई है। अब इस मूलगाथाके प्रत्येक पदके अर्थकी प्ररूपणा करेंगे। यथा-पहले चार संज्वलनोंके अकृष्टिस्वरूप अनुभागसत्कर्मके पूरा कृष्टिस्वरूपसे परिणमा देने पर उस अवस्थाके प्रथम समयमें कृष्टियोंके वेदकरूपसे विद्यमान इस क्षपकके 'के वीचार। दु' मोहनीय कर्मके स्थितिघात आदि लक्षणवाले नियमसे कितने क्रियाभेद होते हैं तथा 'सेसाणं वा कम्माणं ज्ञानावरणादि शेष कर्मोंके तहेव' उसी प्रकार से प्रत्येक के देखे गये 'के के दु वीचारा' कितने-कितने क्रियाभेद सम्भव हैं इस प्रकार यह यहाँ पर इस मूलगाथा सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है। इस मूल गाथामें 'वीचारा' ऐसा कहने पर स्थितिघात आदि क्रियाभेदोंको ग्रहण करना चाहिये। अब इस मूल सूत्र गाथाके अर्थका विशेष व्याख्यान करते हुए आगेके प्रबन्धको आरम्भ करते हैं
* इस मूलगाथास्त्रकी भाष्यगाथा नहीं है।
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गा० २१३ ]
,
९ ८३ किमट्ठमेदिस्से मूलगाहाए सेसमूलगाहाणं व भासगाहा गाहासुत्तयारेण ण पठिदात्तिणासंकणिज्जं सुगमत्थपरूवणाए पडिबद्धत्तादो । एदिस्से मूलगाहाए भागाभावे व अत्थपडिबोहो काढुं सक्किज्जदि त्ति एदेणाहिप्पाएणेत्थ भासगाहाए अणुवादो । तदो मूलंगाहाणुसारेणेव विहाणमेदिस्से कस्सामो भण्णमाणो इदमाह -
* विहासा ।
६८४ सुगमं ।
३७
* एसा गाहा पुच्छासुत्त ।
९८५ सुगमं । एवं पुच्छदि, किट्टीसु कदासु के वीचारा मोहणीयस्स, सेसाणं कम्माण के वीचारा, एवंविहो पुच्छाणिद्देसो एदम्मि गाहासुत्तम्मि परिबद्धो त्ति जाणाविदमेदेण सुत्तेण । संपहि एवमेदीए गाहाए पुच्छिदत्थविसये णिण्णय विहाणट्ठमुत्तरसुत्तं भणइ
* तदो मोहणीयस्स पुव्वभणिदं ।
$ ८३ शंका- इस मूलगाथाकी शेष मूलगाथाओंके समान गाथासूत्रकारने भाष्यगाथा क्यों नहीं पठित की ?
समाधान – ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि यह मूलगाथा सुगम अर्थको प्ररूपणासे सम्बन्ध रखती है, कारण कि इस मूलगाथाकी भाष्यगाथा नहीं होने पर भी उसके अर्थका ज्ञान करना शक्य है । इस प्रकार इस अभिप्रायसे इस मूलगाथाको भाष्यगाथा उपदिष्ट नहीं की । इसलिये मूलगाथा के अनुसार ही इसका व्याख्यान करेंगे ऐसा कथन करते हुए इस विभाषा सूत्रको कहते हैं ।
-* अब इस मूलगाथाकी विभाषा करते हैं ।
९ ८४ यह सूत्र सुगम है ।
* यह मूलगाथा पृच्छासूत्र है । ।
$ ८५ यह सूत्र सुगम है । यहाँ यह पूछते हैं कि संज्वलन मोहनीय कर्मकी कृष्टियों में कितने क्रियाभेद होते हैं तथा शेष कर्मोंके भी कितने क्रियाभेद होते हैं इस प्रकार इस पृच्छाका निर्देश इस गाथासूत्र से सम्बन्ध रखता है, इस प्रकार इस सूत्रद्वारा इस बातका ज्ञान कराया गया है । अब इस प्रकार इस मूल गाथाद्वारा पूछे गये अर्थके विषयमें निर्णय करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं* मोहनीय कर्मके स्थितिघात आदि क्रियामेद पहले ही कह आये हैं ।
१. पुच्छादिकिट्टीसु प्रे० का० ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ चारित्तक्खवणा ६८६ मोहणीयसंबंधेण द्विदि-अणुभागघाद-विदिसंत्तकम्म-उदयोदीरणादिवियप्पा पुव्वमेव सवित्थरं परूविदा त्ति वुत्तं होइ ।
* नदो वि पुण इमिस्से गाहाए फस्सकएणकरणमणुसंवण्णेयव्वं ।
६ ८७ जइ वि पुव्वं मोहणीयविसये द्विदिसंतकम्मपमाणाणुगमादओ' वियप्पा परूविदा, तो वि एदिस्से सुत्तगाहाए अस्थपदंसणट्ठमेत्थ किंचि संखेवपरूवणमणुसंवण्णेय. व्वमिदि भणिदं होदि । ___* ठिदिघादेण १, हिदिसंतकम्मेण २, उदएण ३, उदीरणाए ४, ट्ठिदिखंडगेण५, अणुभागघादेण ६, ठिदिसंतकम्मेण ७, अणुभागसंतकम्मेण ८, बंधेण ९, बंधपरिहाणीए १० ।
६८८ संपहि एदेसि दसण्हं वीचाराण मोहणीयविसयाणं किंचिअत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहा-"हिदिघादेणे' त्ति वुत्ते एसो पढमो वीचारो अंतोमुहुत्तेण एगद्विदिखंडयघादकालमुवेक्खदे, द्विदी घादिज्जदि जेण कालेण सो द्विदिघादो त्ति गहणादो।
$८६ संज्वलन मोहनीय कर्म के सम्बन्धसे स्थितिघात, अनुभागघात, स्थितिसत्कर्म, उदय और उदीरणा आदि भेद पहले ही विस्तार के साथ कह आये हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* इसलिये फिर भी इस मूल गाथासूत्रका 'स्पर्शकर्णकरण' अर्थात् स्पर्श करके कुछ आगमानुसार वर्णन कर लेना चाहिये ।
$ ८७ यद्यपि संज्वलन मोहनीयके विषयमें स्थितिसत्कर्मके प्रमाणका अनुगम आदि भेद पहले कह आये हैं तो भी इस मूल स्त्रगाथाके अर्थको स्पष्ट करनेके लिये यहाँपर आगमानुसार संक्षेपसे कुछ प्ररूपण करेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* बह प्ररूपणा स्थितिघात १, स्थितिसत्कर्म २, उदय ३, उदीरणा ४, स्थितिकाण्डक ५, अनुभागघात ६, स्थितिसत्कर्म ७, अनुमागसत्कर्म ८, बन्ध ९, और बन्धपरिहानि १०, इनके द्वारा करेंगे।
5८८ अब मोहनीय विषयक इन दस क्रियाभेदोंके किंचित् अर्थको प्ररूपणा करेंगे । यथा-'दिदिघादेण' इस पदद्वारा ऐसा कहनेपर यह पहला क्रियाभेद अन्तमंहर्तप्रमाण कालके द्वारा एक स्थितिकाण्डकघातके कालकी अपेक्षासे कहा गया है, क्योंकि जिस, कालके द्वारा स्थिति घाती जाती है वह स्थितिघात कहलाता है। ऐसा यहाँ ग्रहण किया गया है। "टिदिसंतकम्मेण" स्थितिसत्कर्म यह दूसरा क्रियाभेद है जो स्थितिसत्कर्मके प्रमाणके अवधारण करनेसे सम्बन्ध रखता है। 'उदयेण'
१. पमाणाणुगमादओ ता०, पमाणाणुगमा उदओ प्रे० का० ।
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गा० २१३] 'द्विदिसंतकम्मेणे' त्ति विदिओ वीचारो ट्ठिदिसंतकम्मपमाणावहारणे पडिबद्धो। 'उदयेणे' त्ति तदिओ वीचारो किट्टीणमणुसमयमणंतगुणहाणीए उदयपरूवणमुवेक्खदे ।
६८९ उदीरणाए त्ति चउत्थो वीचारो पओगेणोकड्डियूणुदीरिज्जमाणद्विदि-अणुभागाणं परूवणमुवेक्खदे । 'हिदि वंडयेणे' त्ति पंचमो वीचारो द्विदिखंडयायामपमाणमुवेक्खदे । ण च द्विदिघादसण्णिदेण पढमवीचारेणेदस्स पुणरुत्तभावो तस्स द्विदिघादकालविसेसपडिबद्धत्तादो । 'अणुभागघादेणे' त्ति एसो छ8ो वीचारो किट्टीगदाणुभागस्स अणुसमयोवट्टणाविहाणमुवेक्खदे, मोहणीयाणुभागस्स पयदविसये कंडयघादासंभवादो।
६९० 'द्विदिसंतकम्मेणे' त्ति सत्तमो वीचारो किट्टीवेदगस्स सव्वसंधीसु घादिदसेसहिदिसंतकम्मपमाणणिद्द समुवेक्खदे । ण च एदस्स विदियवीचारणिद्दे सेण पुणरुत्तभावो, किट्टीवेदगपढमसमये अपत्तघादविसेसट्ठिदिसंतकम्मपमाणावहारणे तस्स पडिबद्धसादो । अथवा 'द्विदिसंकमेणे' त्ति एसो सत्तमो वीचारो वत्तव्यो, विरोहाभावादो। अणुभागसंतकम्मेणे'त्ति अट्ठमो वीचारो चदुण्हं संजलणाणमणुभागसंतकम्मणिद्देसे पडिबद्धो। एत्थ जो पढमसमयकिट्टीवेदगस्स अणुभागसंतकम्मपरूवणाविधी चंदुसंजलणाणं परूविदो सो णिरवसेसमणुगंतव्वो। 'यंघेण' एवं भणिदे किट्टीवेदगस्स सव्वसंधीसु हिदि-अणु
उदय यह तीसरा क्रियाभेद है जो प्रतिसमय कृष्टियोंकी अनन्तगुणहानिद्वारा उदयकी प्ररूपणाको अपेक्षा करता है।
६८९ 'उदीरणाए' उदीरणा यह चौथा क्रियाभेद है जो प्रयोगवश अपवर्तना करके उदीर्यमान स्थिति और अनुभागको अपेक्षा करता है । "द्विदिखंडयेण' स्थितिकाण्डक यह पांचवां क्रियाभेद है जो स्थितिकाण्डक के आयामको अपेक्षा करता है। किन्तु स्थितिघातसंज्ञक प्रथम क्रियाभेदके साथ इसका पुनरुक्तपना नहीं प्राप्त होता, क्योंकि उसका सम्बन्ध स्थितिघातके काल विशेषको सूचित करता है । 'अणुभागेण' अनुभाग यह छठा क्रियाभेद है जो कृष्टिगत अनुभागको प्रतिसमय होने वाली अपवर्तना के विधानको अपेक्षा करता है, क्योंकि संज्वलन मोहनीयके अनुभागका प्रकृत स्थानमें काण्डकघात सम्भव नहीं है।
६९० 'टिदिसंतकम्मेण' स्थितिसत्कर्म यह सातवाँ क्रियाभेद है जो कृष्टिवेदकके सब सन्धियों में घात करने से शेष रहे स्थितिसत्कर्मके प्रमाणके निर्देशकी अपेक्षा करता है। परन्तु इसका दूसरे क्रियाभेदके निर्देशके साथ पुनरुक्तपना नहीं होता, क्योंकि कृष्टिवेदक के प्रथम समयमें घातविशेषको नहीं प्राप्त हुए स्थितिसत्कर्मके प्रमाणके निश्चय करनेमें वह प्रतिबद्ध है । अथवा इसके स्थानमें "द्विदिसंकमेण' पदसे गृहीत स्थितिसंक्रम यह सातवां क्रियाभेद कहना चाहिये क्योंकि इसे स्वीकार करने पर कोई विरोध नहीं आता। 'अणुभागसंतकम्मेण' पदसे गृहीत अनुभागसत्कर्म यह आठवाँ क्रियाभेद है जो चार संज्वलनोंके अनुभागसत्कर्म का निर्देश करने में प्रतिबद्ध है। यहाँ पर प्रथम समयवर्ती कृष्टिवेदकके चार संज्वलनों के अनुभागसत्कर्मकी जो प्ररूपणाविधि कही है वह पूरी जाननी चाहिये। 'बंधेण' इस पदद्वारा 'बंध' ऐसा कहने
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४०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चरितक्खवणा भागबंधाणं पमाणावहारणे णवमो एसो वीचारो पडिबद्धो त्ति गहेयव्यो । 'बंधपरिहाणीए' एवं भणिदे ठिदि-अगुभागबंधपरिहाणि-पमाणावहारणे दसमो एसो वीचारो पडिबद्धो ति णिच्छओ कायव्यो ।
$ ९१ एवमेदेहिं दसहिं वीचारेहिं मोहणीयस्स परूवणा एदिस्से मूलगाहाण पडिबद्धा त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसमुच्चओ । एवंविहा च सव्वा परूवणा पुव्यमेव पवंचिदा त्ति ण पुणो पवंचिज्जदे; पयासिदप्पयासणे फलामावादो। संपहि सेसाणं पि कम्माणं णाणावरणादीणमेदेहिं वीचारेहिं जहासंभवं मग्गणा कायव्या त्ति जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
* सेसाणि कम्माणि एदेहिं वीचारेहिं अणुमग्गियवाणि ।
६ ९२ गयत्थमेदं गाहापच्छद्धपडिबद्धं विहासासुत्तमिदि ण एत्थ किंचि वक्खाणेयन्वमस्थि । एवमेदीए सव्वमग्गणाए सवित्थरमणुमग्गिदाए तदो एक्कारसमी मूलगाहा समप्पदि त्ति जाणावणट्ठमुवसंहारवक्कमाह
* अणुमग्गिदे समत्ता एक्कारसमी मुलगाहा भवदि ।
पर उससे कृष्टिवेदकके सब सन्धियोंमें स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके प्रमाणके निश्चय करने में यह नौवां क्रियाभेद प्रतिबद्ध है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये । 'बंधपरिहाणीए' इस पदद्वारा बन्धपरि हानि ऐसा कहने पर स्थितिबन्धको परिहानि और अनुभागबन्धकी परिहानिके प्रमाणके निश्चय करने में यह दसवाँ क्रियाभेद प्रतिबद्ध है ऐसा यहाँ निश्चय करना चाहिये।
६९१ इस प्रकार इन दस क्रियाभेदोंके द्वारा इस दसवीं मूलगाथा में मोहनीय कर्मकी प्ररूपणा प्रतिबद्ध है, इस प्रकार यहां पर मूलगाथासूत्रका यह समुच्चयरूप अर्थ जानना चाहिये ।
और इस प्रकारकी सम्पर्ण प्ररूपणा पहले ही विस्तारके साथ कह आये हैं. इसलिये उसका पनः विस्तार नहीं करते हैं, क्योंकि प्रकाशित कथन के पुनः प्रकाशन करने में कोई फल नहीं दिखाई देता। अब शेष ज्ञानावरणादि कर्मोंकी भी इन्हीं क्रियाभेदोंके द्वारा यथासम्भव गवेषणा कर लेनी चाहिये इस बातका ज्ञान कराते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं
* शेष कर्मोंकी मी इन्हीं क्रियामेदों के द्वारा मार्गणा कर लेनी चाहिये ।
$ ९२ मूलगाथाके उत्तरार्धसे सम्बन्ध रखनेवाला यह विभाषासूत्र गतार्थ हुआ। इसमें कुछ भी व्याख्यान करने योग्य नहीं है, इस प्रकार इस सम्पूर्ण मार्गणाका विस्तारसहित अनुसन्धानकर लेने पर उसके बाद ग्यारहवीं मूलगाथा समाप्त होती है इस प्रकार इस बातका ज्ञान करानेके लिये उपसंहार वचनको कहते हैं--
* उक्त विषयोंकी मार्गणा कर लेने पर ग्यारहवीं मूलगाथा समाप्त होती है ।
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गा० २१३]
९३ सुगमं । एवं च एक्कारसमी मूलगाहाए विहासिय समत्ताए तदो किट्टीसु पडिबद्धाणमेक्कारसण्हं मूलगाहाणमत्थविहासा समत्ता होदि ति जाणावण?मुवसंहारवक्कमाह--
* 'एक्कारस होति किट्टीए' त्ति पदं समत्तं ।
६९३ यह सूत्र सुगम है । इस प्रकार ग्यारहवीं मूल गाथाको विभाषा करके, समाप्त होनेपर उसके बाद कृष्टियोंसे सम्बन्ध रखनेवाली ग्यारह मूल गाथाओंके अर्थका विशेष व्याख्यान समाप्त होता है इस बातका ज्ञान करानेके लिये उपसंहार वचनको कहते हैं--
* 'एक्कारस होति किट्टीर' अर्थात् कृष्टियोंके विषयमें ग्यारह मूल गाथायें हैं यह पद समाप्त होता है ।
विशेषार्थ--प्रकृतमें विभाषासहित ग्यारहवीं मूल गाथाको विभाषाके साथ टीका द्वारा स्पष्ट किया गया है। इसमें आये हुए 'वीचार' पदका अर्थ क्रियाभेद है। वे वीचारस्थान या क्रियाभेद सब मिलाकर दस कहे गये हैं। उनके नाम हैं--स्थितिघात १, स्थितिसत्कर्म २, उदय ३, उदीरणा ४, स्थितिकाण्डक ५. अनुभागघात ६, स्थितिसत्कर्म ७. अनभागसत्कर्म ८.बन्ध ९. और बन्धपरिहानि। इन दस वोचारोंमें से 'स्थितिघात' पद द्वारा स्थितिघात-विषयककालका ग्रहण किया गया है । 'स्थितिसत्कर्म द्वारा इस कृष्टिवेदक क्षपकके स्थितिविषयक सत्कर्मके प्रमाणका ज्ञान कराया गया है । 'उदय' पद द्वारा उक्त जीवके उदयमें प्रतिसमय संज्वलन मोहनीयको कृष्टियोंमें अनन्तगुणी हानि होती रहती है यह स्पष्ट किया गया है। 'उदीरणा' पद द्वारा बुद्धिपूर्वक उपयोगके स्वभावभूत आत्माके सन्मुख रहने पर अपकर्षण होकर संज्वलन मोहनीयकी स्थिति और अनुभागकी जो उदोरणा होती है उसकी प्ररूपणा की गई है। 'स्थितिकाण्डक' पद द्वारा उक्त क्षपकजीवके स्थितिकाण्डकके आयामका निर्देश किया गया है। पहले जो स्थितिघात कह आये हैं उसमें कितना काल लगता है इसका विचार किया गया है और स्थितिकाण्डकमें उसके आयामका विचार किया गया है, इसलिये इन दोनोंके कथनमें अन्तर है ऐसा यहाँ समझना चाहिये । 'अनुभागघात' इस पद द्वारा उक्त जीवके संज्वलन चतुष्कके अनुभागकी प्रतिसमय अपवर्तना होती रहती है यह स्पष्ट किया गया है, क्योंकि इस जीवके संज्वलन चतुष्कका अनुभाग कृष्टिगत हो जाता है, इसलिये इसके अनुभागका काण्डकघात होना यहाँ सम्भव नहीं है। 'स्थितिसत्कर्म' इस पद द्वारा कृष्टिवेदकके चारों संज्वलनोंकी बारह संग्रहकृष्टियों-सम्बन्धी जो ग्यारह सन्धियाँ होती हैं उन सन्धियोंमें घात होनेसे जो स्थितिसत्कर्म शेष रहता है उनके प्रमाणका निश्चय कराया गया है। किन्तु यह दूसरे क्रियाभेद स्थितिसत्कर्मसे अत्यन्त भिन्न है, क्योंकि वह कृष्टिवेदकके प्रथम सेमयमें जो स्थितिकर्म होता है उसके प्रमाणका निश्चय कराता है और यह स्थितिसत्कर्म सब सन्धियोंमें शेष रही स्थितिसत्कर्मके प्रमाण का निश्चय कराता है, इसलिए इन दोनोंमें अन्तर है । यदि कहा जाए कि स्थितिसत्कर्म पदसे दोनोंका ग्रहण हो जायगा, इसलिये इनका अलग-अलग निर्देश करनेकी आवश्यकता नहीं रह जाती। इस प्रकार इसी बात को ध्यान में रखकर 'ट्ठिदिसंकमेण' पद द्वारा स्थितिसंक्रमरूप इस दूसरे अभिप्राय का निर्देश किया गया है। इसे स्वीकार कर लेने से उक्त विरोध को स्थिति समाप्त हो जाती है । 'अनुभागसत्कर्म' इस पद द्वारा कृष्टिवेदक के प्रथम समय में चारों संज्वलनों का जो अनुभागसत्कर्म होता है वह सूचित किया गया है। 'बन्ध' इस पद द्वारा कृष्टिवेदक
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चारितक्खवणा $ ९४ एवमेदमुवसंहरिय संपहि किट्टीखवणद्धाए पडिबद्धाणं चउण्हं मूलगाहाणं समासगाहाणं जहावसरपत्तमत्थविहासणं कुणमाणो उवरिमं विहासागंथमाढवेइ--
* एत्तो चत्तारि क्खवणाए त्ति ।
$ ९५ एदं संबंधगाहावयवभूदबीजपदमवलंबणं कादूण चदुण्हं खवणमूलगाहाणं जहाकममेत्तो अत्थविहासणं कस्सामो ति भणिदं होदि । तत्थ ताव पढममूलगाहाए समुक्कित्तणं कुणमाणो इदमाह
* तत्थ पढममलगाहा । ६९६ सुगमं । * (१६१) किं वेदेंनो किटिं खवेदि किं चावि संछुहंतो वा ।
संछोहणमुदयेण च अणुपुष्वं अणणुपुव्वं वा ॥२१४॥
के सम्पूर्ण सन्धियों में स्थितिबन्ध और अनुभाग बन्ध के प्रमाण का निश्चय कराया गया है कि इस सन्धि में इन दोनों का प्रमाण इतना होता है और इस सन्धि में इतना होता है। इस रूप में विशेष ज्ञान कराया गया है । 'बन्धपरिहानि' यह अन्तिम क्रियाभेद है, इस द्वारा उक्त क्षपक के स्थितिबन्ध
और अनुभागबन्ध की किस स्थान में कितनी हानि होती है इस प्रकार उनके प्रमाण का निश्चय कराया गया है । इस प्रकार ये दस वीचार (क्रियाभेद) हैं जिनका विशेष व्याख्यान इस ग्यारहवीं मूलगाथा के अन्तर्गत किया गया है। किन्तु इन दस क्रियाभेदों का विशेष व्याख्यान उस-उस स्थान पर पहले ही किया जा चुका है, इसलिए यहाँ नहीं किया गया है ऐसा यहाँ समझना चाहिए।
$ ९४ इस प्रकार इन मूल सूत्रगाथाका उपसंहार करके अब कृष्टियोंके क्षपणाके कालसे सम्बन्ध रखनेवाली चार मलगाथाओंकी भाष्यगाथाओंके साथ यथावसर प्राप्त अर्थ की विभाषा करते हुए आगे के विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं।
* अब इससे आगे क्षपणासम्बन्धी चार मल गाथाओं का निर्देश करते है।
६९५ अब इस सम्बन्ध गाथा के अवयवभूत बीज पदका अवलम्बन करके क्षपणासम्बन्धी चार मूल गाथाओं के अर्थ की क्रमानुसार विभाषा करेंगे यह उक्त कथन का तात्पर्य है। उनमेंसे सर्वप्रथम प्रथममूलगाथाकी समुत्कीतना करते हुए इस सूत्रको कहते हैं
* उन मूल गाथाओं में यह प्रथम मूलगाथा है । ६९६ यह सूत्र सुगम है।
* (१६१) यह क्षपक कृष्टियों को क्या वेदन करता हुआ क्षय करता है, या क्या संक्रमण करता हुआ क्षय करता है, या क्या संक्रमण और वेदन दोनों करता हुआ क्षय करता है, या क्या आनुपूर्वी से क्षय करता है, या क्या आनुपूर्वी के बिना क्षय करता है ॥२१४॥
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गा० २१४-२१५ ]
९७ एसा पढममूलगाहा बारमसगहकिट्टीओ खवेमाणी कधं खवेदि, किं वेदयमाणो खवेदि, किं वा अवेदयमाणो सछुहंतो चेव खवेदि, आहो तदुभयेण खवेदि, किं वा परिवाडीए खवेदि, आहो अपरिवाडीए खवेदि त्ति एवंविहाणं पुच्छाणं णिण्णयविहाणट्ठमोइण्णा। सुगमो च एदिस्से गाहाए अवयवत्थपरामरसो पदसंबंधो च । संपहि एदीए गाहाए पुच्छामेत्तेण णिहिट्ठाणमेदेसिमत्थाणं णिणये कीरमाणे तत्थ इमा एक्का भासगाहा दट्टव्वा त्ति जाणावणहमिदमाह
* एदिस्से एक्का भासगाहा । ६ ९८ सुगमं । * तं जहा। $ ९९ सुगमं । * (१६२) पदमं विदियं तदियं वेदेंतो वावि संछुहंतो वा ।
चरिमं वेदयमाणो खवेदि उभयेण सेसानो ॥२१५।।
६९७ यह प्रथम मूल गाथा बारह संग्रहकृष्टियों की क्षपणा करता हुआ किस प्रकार क्षपणा करता है, क्या वेदन करना हुआ क्षपणा करता है, या क्या वेदन न करके संक्रमण करता हुआ हो क्षपणा करता है, या वेदन करता हुआ और क्षपणा करता हुआ इन दोनों प्रकारों से क्षपणा करता है, या परिपाटीक्रम से क्षपणा करता है या परिपाटीक्रम को छोड़कर क्षपणा करता है इस प्रकार इस विधि से पूछी गई पृच्छाओं के निर्णय का विधान करने के लिए अवतरित हुई है। परन्तु इस मूल गाथा के अवयवों के अर्थ का स्पष्टीकरण और पदों का सम्बन्ध सुगम है । अब इस मूलगाथा के पृच्छामात्र से निर्दिष्ट किये गये इन अर्थों का निर्णय करने पर उस विषय में एक भाष्यगाथा जाननी चाहिए इस प्रकार इस बात का ज्ञान कराने के लिए यह सूत्र कहते हैं
* इस मूलगाथाकी एक भाष्यगाथा है । ६ ९८ यह सूत्र सुगम है। * वह जैसे । ६९९ यह सूत्र सुगम है।
* १६२ क्रोध संज्वलनकी प्रथम, द्वितीय और तृतीय सग्रहकृष्टि को वेदन करता हुआ और संक्रमण करता हुआ भी क्षय करता है । अन्तिम बारहवीं संग्रह कृष्टिको वेदन करता हुआ ही क्षय करता है तथा शेष सब संग्रह-कृष्टियोंको दोनों प्रकार से क्षय करता है ।। २१५ ।।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[चारित्तक्खवणा १०० एदिस्से भासगाहाए पुव्युत्ताणमसेसाणं पुच्छाणं णिण्णयविहाणं कदं ति दट्ठव्वं । तं कधं ? 'पढमं विदियं तदियं०' एवं भणिदे कोधस्स पढमकिट्टि विदियकिडिं तदियकिट्टि च वेदेंतो वा संछुहंतो वा खवेदि त्ति पदसंबंधो । 'चरिमं वेदयमाणो' एवं भणिदे चरिमसंगहकिट्टि णिच्छयेण वेदते चव खवेदि, ण संछुहंतो त्ति सुत्तत्थसंबंधो । एत्थ चरिमसंगहकिट्टि त्ति वुत्ते सु हुमसांपराइयकिट्टीए गहणं कायव्वं, चरिमबादरसांपराइयकिट्टिए सगसरूवेण. उदयासंभवादो। 'उभयेण सेसाओ' एवं मणिदे सहुममांपराइयकिट्टि मोत्तण सेमासेमसंगहकिट्टीओ दुविहेण विहिणा खवेदि, संछहतो वेदेंतो च खवेदि त्ति वुत्तं होइ । संपहि एवंविहमेदिस्से गाहाए अत्थं विहासेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ ।
* विहासा। ६ १०१ सुगमं । * तं जहा। १०२ सुगमं ।
६ १०० इस भाष्यगाथाद्वारा पूर्वोक्त अशेष पृच्छाओं के निर्णय का विधान किया गया है ऐसा यहां जानना चाहिये।
शंका-वह कैसे ?
समाधान--'पढमं विदियं तदियं०' ऐसा कहने पर क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टि, दूसरी संग्रह कृष्टि और तीसरी संग्रह कृष्टिको वेदन करता हुआ अथवा संक्रमण करता हुआ क्षय करता है ऐसा यहाँ पदोंका अर्थके साथ सम्बन्ध है। 'चरिमं वेदयमाणो' ऐसा कहने पर अन्तिम संग्रह कृष्टिको नियमपूर्वक वेदन करता हुआ ही क्षय करता है, संक्रमण करता हुआ क्षय नहीं करता, यह इस सूत्रके अर्थके साथ सम्बन्ध है। इस भाष्यगाथा में 'चरिमसंगहकिट्टि' ऐसा कहने पर सूक्ष्म साम्परायिक कृष्टि को ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि बादर संग्रह कृष्टिका अपने स्वरूपसे उदय होना सम्भव नहीं है। 'उभयेण सेसाओ' ऐसा कहने पर सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिको छोड़कर शेष सम्पूर्ण संग्रह कृष्टियोंका दो प्रकारसे क्षय करता है, अर्थात् संक्रमण करता हुआ और वेदन करता हुआ क्षय करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब इस भाष्यगाथाके इस प्रकारके अर्थकी विभाषा करते हुए आगेका सूत्र कहते हैं
* अब इस भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं। ६१०१ यह सूत्र सुगम है। * वह जैसे $ १०२ यह सूत्र सुगम है।
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गा० २१५ ]
* पढमं कोहस्स किटिं वेदेंतो वा खवेदि, अधवा अवेदेतो संछुहंतो।
६१०३ कोहस्स जा पढमसंगहकिट्टी तं वेदेंतो वा खवेदि एवं भणिदे वेदेमाणो वा परपयडिसंकमेण संकामेमाणो वा खवेदि ति वृत्तं होइ, दोहिं मि पयारेहिं तिस्से खवणोवलंभादो। अथवा अवेदेंतो एवं भणिदे वेदगभावेण विणा परपयडिसंकमेण संछहंतो चेव केत्तियं पि कालं णिरुद्ध कोहपढमसंगहकिट्टि खवेदि त्ति भणिदं हादि । संपहि कदमम्मि अवत्थाविसेसे वट्टमाणो वेदेंतो खवेदि कदमम्मि वा अवत्थंतरे संछहमाणो चेव खवेदि त्ति एदस्स अत्थविसेसस्स फुडीकरणट्ठमुत्तरसुत्तद्दयमाह--
* जे वे आवलियबंधा दुसमयूणा ते अवे तो खवेदि केवलं संछुहंतो चेव ।
5 १०४ सगवेदगडाए खीणाए पुणो दुसमयणदोआवलियमेत्तणवकबंधकिट्टीणमवेदिज्जमाणाणं संछोहणाए चेव खवणदंसणादो।
* संज्वलन क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिका वेदन करता हुआ क्षय करता है अथवा वेदन न करके संक्रमण करता हुआ क्षय करता है ।
8 १०३ संज्वलन क्रोधकी जो प्रथम संग्रह कृष्टि है उसे वेदन करता हुआ क्षय करता है ऐसा कहने पर वेदन करता हुआ और परप्रकृतिसंक्रमणके द्वारा संक्रमण करता हुआ क्षय करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि इन दोनों प्रकारोंसे उसकी क्षपणा उपलब्ध होतो है। अथवा 'अवेदेंतो' ऐसा कहनेपर वेदकपनेके विना परप्रकृतिसंक्रमणके द्वारा संक्रमण करता हुआ ही कितने ही काल तक विवक्षित क्रोधको प्रथम संग्रहकृष्टिको क्षय करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब किस अवस्थाविशेषमें विद्यमान यह क्षपक क्रोधको प्रथमसंग्रह कृष्टिको वेदन करता हुआ क्षय करता है तथा किस दूसरी अवस्थामें परप्रकृतिरूपसे संक्रमण करता हुआ ही क्षय करता है, इस प्रकार इस अर्थविशेषको स्पष्ट करनेके लिये आगेके दो सूत्रोंको कहते हैं
* जो दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्ध निषेक है उनको वेदन न करते हुए ही क्षय करता है, उनको केवल संक्रमण करके ही क्षय करता है ।
६१०४ अपने वेदककालके क्षीण हो जानेपर उसके बाद दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्धसम्बन्धी कृष्टियोंका वेदन न करते हुए संक्रमण द्वारा हो क्षय देखा जाता है । ___ विशेषार्थ-प्रथमादि ग्यारह संग्रह कृष्टियोंका वेदक काल समाप्त होनेपर द्वितीयादि संग्रहकृष्टियों का काल जब प्रारम्भ होता है तब उनके कालमें प्रथमादि संग्रह कृष्टियोंके कालमें बन्धको प्राप्त हुए दो समय कम दो आवलि प्रमाण नवकबन्ध परप्रकृतिसंक्रम द्वारा वेदे जाते है ऐसा नियम है, मात्र इसीलिये उनकी संक्रमण होकर ही निर्जरा होती है, उक्त सूत्रमें यह निर्देश किया गया है।
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ चारितक्खवणां
* पदमसमयवेदग पहुडि जाव तिस्से किट्टीए चरिमसमयवेदगो त्ति ताव एवं किहिं वेदेंतो खवेदि ।
१०५ कि कारणं ? एदम्मि अवत्थंतरे णिरुद्ध कोहपढमसंगहकिट्टीए वेदगभावेण सह संकामयतमिद्धीए णिव्वाहमुवलंभादो । सहि इममेवत्थमुवसंहारमुहेण फुडीकरेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
* एवमेदं पि पदमकिहिं दोहिं पयारेहिं खवेदि किंचि कालं वेदेतो, किंचि कालमवेदेतो संछुहंतो ।
$ १०६ गयत्थमेदं सुत्तं । ण केवलं पढमसुंमहकिड्डीए एसा विही, किंतु विदियादिसंगह किट्टीणं पि खविज्जमाणाणमेसो चेत्र कमो दट्ठथ्वोत्ति पदुप्पाएमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
४६
* जहा पढमकिहिं खवेदि तहा विदियं तदियं चउत्थं जाव एक्का - रसमि त्ति ।
$ १०७ जहा कोहपढमसंगहकिट्टि दोहिं पयारेहिं खवेदि एवमेदाओ विदियादिकिट्टीओ एक्कारसमकिट्टिपज्जंताओ दुविहेण विहिणा खवेदि; दुसमयूणदोआवलियमेणवकबंध किट्टीओ संबुहंतो चैव खवेदि, तत्तो हेट्ठा सगवेदगकालन्तरे वेदेंतो
* तथा क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिके वेदककालके अन्तिम समयसे लेकर उसी संग्रह कृष्टिके वेदककालके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक इस संग्रह कृष्टिको वेदन करता हुआ क्षय करता है ।
8 १०५ शंका - इसका क्या कारण है ?
समाधान - क्योंकि इस अवस्थामें विवक्षित क्रोधसंज्वलन संग्रह कृष्टिका वेदकपनेके साथ निर्वाधरूपसे संक्रामकपना सिद्ध होता है। अब इसो अर्थको उपसंहारमुखसे स्पष्टीकरण करते हुए आगे के सूत्रको कहते हैं—
* इस प्रकार इस प्रथम संग्रह कृष्टिको दो प्रकारसे क्षय करता है— कुछ काल तक वेदन करता हुआ क्षय करता है और कुछ काल तक वेदन नहीं करता हुआ क्षय करता है ।
$ १०६ यह सूत्र गतार्थ है । केवल प्रथम संग्रह कृष्टिको यह विधि नहीं है, किन्तु क्षयको प्राप्त होनेवाली द्वितीयादि संग्रह कृष्टियोंका भी यही क्रम जानना चाहिये इस प्रकार इस बातका कथन करते हुये आगे सूत्रको कहते हैं
* जिस प्रकार प्रथम कृष्टिका क्षय करता है उसी प्रकार दूसरी, तीसरी और चौथी कृष्टिसे लेकर ग्यारहवीं कृष्टि तक इन संग्रहकृष्टियोंका क्षय करता है ।
१०७ जिस क्रोधसंज्वलनको प्रथम संग्रहकृष्टिका दो प्रकारसे क्षय करता है उसी प्रकार ग्यारहवीं संग्रहकृष्टि पर्यन्त इन दूसरी आदि संग्रह कृष्टियों का दोनों प्रकारसे क्षय करता है; दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्ध कृष्टियोंका संक्रमण करता हुआ ही क्षय करता है तथा
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गा० २१५ ] संछुहंतो च खवेदि त्ति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो । संपहि बारसमीए बादरसांपराइयकिट्टीए केरिसो खवणाविहि ति आसंकाए इदमाह--
* बारसमीए बादरसांपराइयकिट्ठीए अव्ववहारो।
६ १०८ कुदो ? सुहुमसांपराइयकिट्टीसरूवेण परिणमिय खविज्जमाणाए तिस्से सगसरूवेण विणासाणुवलंभादो। संपहि 'चरिमं वेदेमाणो खवेदि' त्ति इमं सुत्तावयवमस्सियण सहुमसांपराइयकिट्टीए खवणाए विहिं परूवेमाणो उवरिमं पबंधमाढवेइ-- ___ * चरिमं वेदेमाणो त्ति अहिप्पायो जा सुहमसांपराइयकिट्टी सा चरिमा, तदो तं चरिमकिहि वेदेंतो खवेदि; ण संछुहंतो।
१०९ चरिमं वेदयमाणो त्ति भणिदे ण चरिमबादरसांपराइयकिट्टीए गहणं कायव्वं, किंतु जा सुहुमसांपराइयकिट्टो सा चेव चरिमा त्ति इह विवक्खिया; सव्वपच्छिमाए तिस्से तव्ववएसोववत्तीदो तदो तं चरिमकिट्टि वेदेंतो चेव खवेदि, ण संछहतो ति सुत्तत्थसंबंधो । कुदो एवमिदि चे ? तत्थ णवकबंधसंभवाणुवलंभादो; तिस्से पडिग्गहतराणुवलंभादो च।। उससे अधस्तन कृष्टियोंका अपने वेदक कालके भीतर वेदन करता हुआ और संक्रमण करता हुआ क्षय करता है इस प्रकार यह सूत्रका भावार्थ है। अब बारहवीं बादर साम्परायिक संग्रहकृष्टिकी क्षपणाविधि किस प्रकारको है ऐसी आशंका होनेपर आगेके विभाषासूत्रको कहते हैं
* बारहवीं बादरसाम्परायिक कृष्टिमें उक्त व्यवहार नहीं है।
१०८ क्योंकि उसे सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिरूपसे परिणमाकर क्षपणा होनेवाली उसका अपने स्वरूपसे विनाश नहीं उपलब्ध होता। अब 'चरिमं वेदेमाणो खवेदि' इस प्रकार इस सूत्रके अवयवका आश्रय करके सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिकी क्षपणाको विधिको प्ररूपणा करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको आरम्भ करते हैं
* 'चरिमं वेदेमाणो' अर्थात अन्तिम संग्रह कृष्टिको वेदन करता हुआ इस पद का अभिप्राय है कि जो सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि है वह अन्तिम है, इसलिये उस अन्तिम कृष्टिको वेदन करता हुआ क्षय करता है, क्षपणा करता हुआ उसका क्षय नहीं करता।
8 १०९ 'चरिमं वेदयमाणो' ऐसा कहनेपर अन्तिम बादर साम्परायिक कृष्टिका ग्रहण नहीं कन्ना चाहिये । किन्तु जो सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि है वही अन्तिम है, यह यहाँ विवक्षित है, क्योंकि वह सबसे अन्तिम है, इसलिए उसकी यह संज्ञा बन जाती है। अतः उस अन्तिम कृष्टिको वेदन करता हुआ ही उसका क्षय करता है, संक्रमण करता हुआ उसका क्षय नहीं करता यह इस सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है।
शंका-ऐसा किस कारणसे है ?
समाधान--क्योंकि उसमें नवकबन्धका सद्भाव नहीं पाया जाता तथा उसका प्रतिग्रहान्तर उपलब्ध नहीं होता।
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४८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[चारित्तक्खवणा ६११० मंपहि सेसाणमेक्कारसण्हं संगहकिट्टीणं दुसमयणदोआवलियमेत्तणवकबंधकिट्टीओ संछुहतो चेव खवेदि त्ति इममत्थविसेसं पुवणिाईलु पि पुणो वि फुडीकरेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ___ * सेसाणं किट्टीणं दो दो श्रावलियबंधे दुसमयणे चरिमे संछहंतो चेव खवेदि, ण वेदेंतो। ___१११ सहुमसांपराइयकिट्टि मोत्तण सेसाणमेक्कारसण्हं पि संगहकिट्टीणं चरिमे दुसमयणदोआवलियमेत्तणवकबंधसमयपबद्ध संछ्हमाणो चेव खवेदि, ण वेदेमाणो, तासिमुदयसंबंधाणुवलंभादो त्ति वुत्तं होदि । एवमेदेहिं दोहिं सुत्तेहिं जाओ वेदिज्जमाणीओ चेव खवेज्जति, ण संछब्भमाणीओ, जाओ च संछन्भमाणीओ चेव खवेदिज्जेति, ण वेदिज्जमाणीओ; तासिं दुविहाणं पि किट्टीणं सरूवणिद्दे सं कादण संपहि तव्वदिरित्ताओ जाओ सेसासेसकिट्टीओ ताओ उभयेण वि पयारेण खवेदि त्ति इममत्थविसेसं पदुप्पाएमाणो उवरिमं सुत्तपबंधमाढवेइ
* चरिमकिटिं वज्ज दो श्रावलियदुसमयणबंधे च वज्ज जं सेसकिट्टीणं तमुभयेण खवेदि। .
६११० अब शेष रही ग्यारह संग्रह कृष्टियोंकी जो दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्ध कृष्टियाँ हैं उनका संक्रमण करता हुआ ही क्षय करता है इस प्रकार इस अर्थ विशेष को यद्यपि पहले प्ररूपणा कर आये हैं फिर भी उसका पुनः स्पष्टीकरण करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं
* शेष ग्यारह संग्रह कृष्टियोंमें प्रत्येकके अन्तमें जो दो समय कम दो-दो आवलिप्रमाण नवकबन्ध शेष रहते हैं उनका संक्रमण करता हुआ ही क्षय करता है, वेदन करता हुआ क्षय नहीं करता।
६ १११ सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिको छोड़कर शेष ग्यारह संग्रहकृष्टियोंके अन्तमें जो दो समय कम दो आवलिप्रमोण नवकबन्ध समयप्रबन्ध शेष रहते हैं उन्हें संक्रमण करता हुआ ही क्षय करता है, वेदन करता हुआ क्षय नहीं करता, क्योंकि उनका स्वमुखसे उदयका सम्बन्ध नहीं उपलब्ध होता, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार इन दो सूत्रों द्वारा जो वेदी जाकर ही क्षपणाको प्राप्त होती हैं, संक्रमण होकर नहीं, तथा जो संक्रमण होकर ही क्षपणाको प्राप्त होती हैं, वेदी जाकर नहीं, उन दोनों प्रकारको कृष्टियोंका स्वरूपनिर्देश करके अब उनसे अतिरिक्त जो शेष सपूर्ण कृष्टियाँ हैं वे दोनों ही प्रकारसे क्षयको प्राप्त होती हैं इस प्रकार इस अर्थविशेषका प्रतिपादन करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं।
* अन्तिम सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिको छोड़ कर तथा प्रथमादि ग्यारह संग्रह कृष्टियोंके दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवक समयप्रबद्धोंको छोड़कर उन शेष रही ग्यारह संग्रहकष्टियोंकी जो कृष्टियां शेष रहती हैं उन्हें दोनों प्रकारसे क्षय करता है।
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गा० २१५ ]
११२ गयत्थमेदं सुत्तं । संपहि एत्थ उभयेणे तिज पदं तस्स अस्थविवरणं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
* किं उभयेणे त्ति ? $ ११३ उभयेणे ति किमुक्तं भवतीति चेद् ? उच्यते । * वेदेंतो च संछहंतो च एदमुभयं ।
६ ११४ वेदगमावेण संछोहयभावेण च खवेदि त्ति एसो उभयसहस्सत्थो जाणियव्यो त्ति भणिदं होदि ।
११५ एवमेत्तिएण सुत्तपबंधेण पढममूलगाहाए एगभासगाहापडिबद्धमत्थं विहासिय संपहि जहावसरपत्ताए बिदियमूलगाहाए अत्थविहासणं कुणमाणो इदमाह
६ ११२ यह सूत्र गतार्थ है। अब यहाँ ( इस सूत्रमें ) 'उभयेण' यह जो पद आया है उसके अर्थ का खुलासा करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं ।
* 'उभय प्रकारसे' इसका क्या अर्थ है ? ६ ११३ 'उभय प्रकारसे' इसका क्या अर्थ है ? ऐसी शंका होनेपर कहते हैं
* 'वेदन करता हुआ और संक्रमण करता हुआ [क्षय करता] है' यह उभयपद का अर्थ है।
६ ११४ 'वेदकभावसे और संक्रमण करनेके भावसे क्षय करता है' यह उभय शब्दका अर्थ जानना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
विशेषार्थ-सब मिलाकर बारह संग्रह कष्टियां हैं और उनमें से प्रत्येक की अनन्त अन्तरकृष्टियाँ हैं । उनको क्षपणा कैसे होती है ? वेदन करके क्षपणा होती है या संक्रमण करके क्षपणा होती है, या दोनों प्रकार से क्षपणा होती है, यह एक मुख्य प्रश्न है। इसका समाधान करते हुए बतलाया गया है कि प्रारम्भ की जो ग्यारह संग्रह कृष्टियाँ और उनकी जो अवान्तर कृष्टियाँ हैं उनमें से प्रत्येक के वेदन करने के अन्त में जो दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्ध समयप्रबद्ध बचते हैं उनका अगली संग्रह कृष्टि में संक्रमण होकर ही वेदन होता है तथा दो समय कम दो आवलि प्रमाण नवकबन्ध के अतिरिक्त जितनो भो संग्रह कृष्टियों और उनकी अवान्तर कृष्टियाँ हैं उन सबका वेदन और संक्रमण होकर ही क्षय होता है। शेष रही बारहवीं संग्रह कृष्टि और
अवान्तर कृष्टियाँ सो ये क्रष्टिकरण के काल में बादररूपसे ही कृष्टिपने को प्राप्त होती है। परन्तु इसका अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में ही सूक्ष्मकृष्टिरूपसे परिणमन हो जाता है, अतः सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान में वेदन होकर ही इनका क्षय होता है ऐसा यहाँ समझना चाहिए।
$ ११५ इस प्रकार इतने सूत्रप्रबन्ध द्वारा एक भाष्य गाथा के साथ प्रथम मुलगाथा के अर्थ की विभाषा करके अब यथावसरप्राप्त दूसरी मुलगाथा के अर्थ को विभाषा करते हुए इस सूत्र को कहते हैं
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ चारितवखवणा
* एतो बिदियमलगाहा ।
११६ सुगमं ।
* (१६३) जं वेदेतो किहिं खवेदि किं चावि बंधगो तिस्से | जं चावि संछुहंतो तिम्से किं बंधगो होदि ॥ २१६ ॥
-
$ ११७ एसा बिदिय मूलगाहा किं वेदगस्स खवगस्स वेदिज्जमाणावेदिज्जमाणसरूवेण खविज्जमाणासु किट्टी कासिं बंधसंबंधो अत्थि, कासिं वा णत्थि त्ति इममत्थविसेसं पुच्छाहेण पदुप्पाएदुमोइण्णा परिप्फुडमेवेत्थ तहाविहत्थविसय पुच्छाणिद्दस-दंसणादो । तं जहा – 'जं वेदेंतो किट्टि' एवं भणिदे जं खलु किट्टि वेदेमाणो खवेदि किं तिस्से किट्टीए बंधगो होदि, आहो ण होदि ति गाहापुव्वद्धे सुत्तत्थसंबंधो । एदस्स भावत्थो – दुसमयू णदोआवलियमेत्तणवकबंधे मोत्तूण सेसाओ एक्कारस-संगहकिडीणमंतर कट्टीओ वेदेमाणो खवेदि ति वृत्तं । एवं च खवेमाणो तदवत्थाए जं जं किट्टिं खवेदि तिस्से किट्टीए किं णियमा बंधगो होदि, आहो अबंधगो चेव, किं वा सिया बंधगो, सिया च ण बंधगो ति पुच्छिदं होदि ।
* इसके आगे दूसरी मूल सूत्रगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं ।
११६ यह सूत्र सुगम है ।
* (१६३) कृष्टिवेदक क्षपक जिस कृष्टिका वेदन करता हुआ क्षय करता है क्या उसका वह बन्धक भी होता है तथा जिस कृष्टिका संक्रमण करता हुआ क्षय करता है उसका भी क्या वह बन्धक होता है ।। २१६ ।।
$ ११७ यह दूसरी मूलगाथा कृष्टियोंका क्या वेदन करनेवाले क्षपकका वेदी जानेवाली या नहीं वेदी जानेवालो स्वरूपसे क्षयको प्राप्त होनेवाली कृष्टियों के होनेपर, किनका बन्धके साथ क्या सम्बन्ध है अथवा किनका बन्धके साथ सम्बन्ध नहीं है, इस प्रकार इस अर्थविशेषका पृच्छाद्वारा प्रतिपादन करनेके लिये अवतीर्ण हुई है, क्योंकि इस गाथा में उस प्रकारकी अर्थविषयक पृच्छाका निर्देश स्पष्ट रूप से ही देखा जाता है । यथा - 'जं किट्टि वेदतो' ऐसा कहने पर नियमसे जिस कृष्टिका वेदन करता हुआ उसको क्षपणा करता है, क्या उस कृष्टिका वह बन्धक होता है या बन्धक नहीं होता, इस प्रकार गाथाके पूर्वार्धमें इस सूत्र का अर्थके साथ सम्बन्ध है । इसका भावार्थ-दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवत्र बन्धको छोड़कर शेष ग्यारह संग्रह कृष्टियों और अन्तर कृष्टियोंको वेदन करनेवाला क्षय करता है यह उक्त सूत्रगाथामें कहा गया है । और इस प्रकार क्षय करता हुआ वह क्षपक उस अवस्थामें जिस-जिस कृष्टि का क्षय करता है-उस-उस कृष्टिका वह क्या नियमसे बन्धक होता है या अबन्धक ही रहता है, अथवा क्या कथंचित् बन्धक होता है और कथंचित् बन्धक नहीं होता, इस प्रकार यह पृच्छा की गई है ।
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गा० २१६-२१७ ]
५१
$ ११८ 'जं चावि संछुहंतो' एवं भणिदे जं खलु किट्टि संकामें तो चैव खवेदि, तिस्से किं बंधगो होदि आहो ण होदि ति गाहापच्छद्वे सुत्तस्थसंबंधो । एदस्स भावत्थो - दुसमणदो आवलियमेत्तणवकबंध किट्टीओ संछुहंतो चेव खवेदि, ण वेदेंतो । एवं च खवेमाणो तदवत्थाए णिरुद्धसंगह किट्टीए किं बंधगो होदि आहो ण होदित्ति पुच्छा कदा होदि । एवमेदीए विदियमूलगाहाए पुच्छामेतेण णिद्दिट्ठस्स अत्थविसेसस्स यिविहाणमेत्थ एक्का भासगाहा अस्थि । तिस्से समुक्कित्तणं विहासणं च कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
* एदिस्से गाहाए एक्का भासगाहा ।
११९ सुगमं ।
* जहा ।
$ १२० सुगमं ।
* (१६४) जं चावि संछुहंतो खवेदि किहिं अबंधगो तिस्से । सुमम्हि सांपराए अबंधगो बंधगिदरासिं ॥ २१७ ॥
११८ 'जं चावि संछुहंतो' ऐसा कहनेपर नियमसे जिस कृष्टिका संक्रमण करता हुआ क्षय करता है उसका क्या बन्धक होता है या इस प्रकार नहीं होता ? यह सूत्रगाथाके उत्तरार्धमें इस गाथासूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है । इसका भावार्थ - दो समय कम दो आवलिप्रमाण कृष्टियों का संक्रमण करता हुआ ही क्षय करता है, वेदन करता हुआ क्षय नहीं करता है । और इस प्रकार क्षय करता हुआ उस अवस्थामें विवक्षित संग्रह कृष्टिका क्या बन्धक होता है अथवा बन्धक नहीं होता ? यह पृच्छा की गई है। इस प्रकार इस दूसरो मूलगाया में पृच्छाद्वारा कहे गये अर्थविशेष निर्णयका विधान करने के लिये इस विषय में एक भाष्यगाथा आई है उसकी समुत्कीर्तना और विभाषाको करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं
* इस मूल गाथाकी एक भाष्यगाथा है ।
$ ११९ यह सूत्र सुगम है ।
* जैसे ।
$ १२० यह सूत्र सुगम है ।
* (१६४) जिस कृष्टिका संक्रमण करता हुआ ही क्षय करता है उसका वह बन्धक नहीं होता तथा सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान में सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिका वह अबन्धक रहता है । किन्तु शेष कृष्टियोंका वेदन होकर क्षपण कालमें वह उनका बन्धक होता है ।। २१७ ॥
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५२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ चारित्तक्खवणा ___१२१ एदिस्से गाहाए अत्यो वुच्चदे, तं जहा–जं किटिं दुसमयणदोआवलियमेत्तणवकबंधसरूवसंछोहणाए चेव खवेमाणो तदवत्थाए तिस्से णियमा अबंधगो । सुहुमसांपराइयकिट्टीए च अबंधगो हादि, तत्थ तब्बंधसत्तीए अच्चंतासंभवादो । सेसाणं पुण किट्टीणं बंधगो होदि, बादरसांपराइयविसये खविज्जमाणकिट्टीणं सगवेदगद्धामेत्तकालं बंधसंभवे विरोहाणुवलंभादो । संपहि एदस्सेव सुत्तत्थस्स फुडीकरण?मुवरिमं विहासागंथमाढवेइ
* विहासा। ६ १२२ सुगम ।
* जं जं खवेदि किट्टि णियमा तिस्से बंधगो मोत्तण दो हो भावलियबंधे दुसमयणे सुहुमसांपराइयकिट्टीओ च ।
६ १२३ सुगमो च एसो विहासागंथो त्ति ण एत्थ किंचि वक्खाणेयव्वमत्थि ।
६ १२१ अब इस गाथाका अर्थ कहते हैं। यथा-दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्धस्वरूप जिस कृष्टिका संक्रमण द्वारा क्षय करता है उस अवस्था में उसका नियमसे अबन्धक होता है क्योंकि वहां उसके बन्धको शक्तिका होना अत्यन्त असम्भव है। परन्तु शेष कृष्टियोंका बन्धक होता है, क्योंकि बादर साम्परायिक गुणस्थानमें क्षयको प्राप्त होनेवाली कृष्टियोंका अपने वेदक कालप्रमाण कालतक उनके बन्धके सम्भव होनेमें विरोध नहीं पाया जाता। अब इसी सूत्रसम्बन्धी अर्थको स्पष्ट करनेके लिए विभाषा ग्रन्थको आरम्भ करते हैं
* अब उक्त भाष्यगाथाकी विभाषाकी जाती है। ६ १२२ यह सूत्र सुगम है।
* जिस-जिस कृष्टिका क्षय करता है वह, दो समय कम दो-दो आवलिप्रमाण नवक-बन्धकृष्टियोंको तथा सूक्ष्यसाम्परायिक कृष्टियोंको छोड़कर, उनका नियमसे बन्धक होता है।
६१२३ इसका विभाषाग्रन्थ सुगम है, इसलिये इस विषय में कुछ भी व्याख्यान करने योग्य नहीं है।
विशेषार्थ--इसकी गाथा २०६ को विभाषा करते हुए बतलाया है कि क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिका वेदन करनेवाला क्षपक चारों संज्वलनकषायों की प्रथम संग्रह कृष्टिका बन्ध करता है। इस पर यह शंका की गई है कि क्या इस प्रकार क्रोधसंज्वलनको दूसरी संग्रह कृष्टिका वेदन करनेवाला जोव चारों कषायोंकी क्या दूसरी संग्रह कृष्टिका बन्ध करता है ? इसका समाधान करते हुए बतलाया है कि जिस संज्वलन कषायको जिस संग्रह कृष्टिका वेदन करता है उस कषाय को उस संग्रह कृष्टिका बन्ध करता है तथा शेष कषायोंका प्रथम संग्रह कृष्टियोंका बन्ध करता है।
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गा० २१७-२१८ ]
$ १२४ एवं विदियमूलगाहाए अत्थविहासणं समाणिय संपहि जहावसरपत्ताए तदियमूलगाहाए अत्यविहासणं कुणमाणो तदवसरकरणट्ठमुवरिमं पचंधमाढवे -- * एत्तो तदिया मूलगाहा । $ १२५ सुगमं । * तं जहा ।
$ १२६ सुगमं ।
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* (१६५) जं जं खवेदि किहिं हिदि- अणुभागेसु के सुदीरेदि । संहृदि
किहिं से काले तासु अण्णासु ।। २१८ ।। १२७ एसा तदियमूलगाहा किट्टीसु खविज्जमाणीसु तदवत्थाए णिरुद्धसंगहकिट्टीविसए डिदि - अणुभागोदीरणासंकमाणं बंधसहगदाणं पवृत्तिविसेसावहारणट्ठमोइण्णा | संपहि एदिस्से अवयवत्थो वुच्चदे । तं जहा - 'जं जं खवेदि किट्टि' एवं भणिदे जं जं संगहकिट्टि खवेदि तं तं ट्ठिदि - अणुभागेसु किंभूदेसु उदीरेदि किमविसेसेण सव्वेस ठिदिविसेसेसु अणुभागविसेसेसु च उदीरणा पयट्टदि आहो अत्थि को वि तत्थ विसेसणियमो त्ति पुच्छिदं होइ । एवमेसो गाहापुव्वद्धे सुत्तत्थसमुच्चओ |
I
२४ इस प्रकार दूसरी मूल गाथाके अर्थका विशेष व्याख्यान समाप्त करके अब यथावसर प्राप्त तीसरी मूल गाथाके अर्थका विशेष व्याख्यान करते हुए उसका अवसर उपस्थित करनेके लिये आगे प्रबन्धको आरम्भ करते हैं
* इसके बाद तीसरी मूल गाथा है ।
$ १२५ यह सूत्र सुगम है ।
* वह जैसे ।
$ १२६ यह सूत्र भी सुगम है ।
* ( १६५ ) जिस-जिस संग्रहकृष्टिका क्षय करता है, 'उस-उस कृष्टिको किसकिस प्रकारके स्थिति और अनुभागों में उदीरित करता है । विवक्षित कृष्टिको अन्य कृष्ट में संक्रमण करता हुआ किस-किस प्रकारके स्थिति और अनुभागोंसे युक्त कृष्टिमें संक्रमण करता है । तथा विवक्षित समय में जिस स्थिति और अनुभागयुक्त कृष्टियों में उदीरणा-संक्रमण आदि किये हैं, अनन्तर समय में क्या उन्हीं कृष्टियों में उदीरणासंक्रमण आदि करता है, अथवा अन्य कृष्टियोंमें करता है ।। २१८ ॥
$ १२७ यह तीसरी मूल गाथा कृष्टियोंके क्षयको प्राप्त होते हुए उस अवस्था में विवक्षित संग्रह कृष्टिके विषय में बन्धके साथ होनेवाले स्थिति और अनुभागोंकी उदीरणा और संक्रमणकी प्रवृत्तिविशेषका अवधारण करनेके लिये अवतोर्ण हुई है । अब इसके प्रत्येक चरणका अर्थ कहते हैं । वह जैसे—'जं जं खवेदि किट्टि' ऐसा कहने पर जिस-जिस संग्रह कृष्टिका क्षय करता है उस उस संग्रह कृष्टिका किस-किस प्रकारके स्थिति अनुभागों में उदीरित करता है ? क्या सामान्य से सब स्थितिविशेषों में और अनुभागविशेषोंमें उदीरणा प्रवृत्त होती है या वहाँ कोई विशेष नियम है ? यह पूँछा गया है । इसप्रकार यह गाथाके पूर्वार्ध में सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है |
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ चारित्तक्खवणा ६ १२८ 'संछुहदि अण्णकिट्टि' एवं भणिदे णिरुद्धसंगहकिट्टि मण्णकिट्टीए उवरि संकामेमाणो कथंभूदेसु ठिदिअणुभागेसु वट्टमाणाणं णिरुद्ध संगहकिट्टि संछुहदि किमविसेसेण सव्वाओ द्विदीओ अणभागकिट्टीओ च अण्णकिट्टीसरूवेण संकामेदि आहो अत्थि कोवि तत्थ विसेससं भवो त्ति एसा विदियपुच्छा द्विदि-अणुभागसंकमाणं पवुत्तिविसेसमुवेक्खदे। द्विदि-अणुभागबंधविसयो वि पुच्छाणिद्दे सो एत्थेव णिलीणो वक्खाणेयब्वो; सुत्तस्सेदस्स देसामासयमावेण पवुत्ति अब्भुवगमादो । तदो णिरुद्ध संगहकिट्टीए खविज्जमाणाए द्विदि-अणुभागोदीरणा तस्विसयोक्कट्टणा परपयडिसंकमो ट्ठिदिअणुमागबधो च कथं पयर्टेति त्ति एसो एर तत्थसंगहो ।
६ १२९ ‘से काले तासु अण्णासु' ए भणिदे णिरुद्धसमये जासु द्विदीसु अणुभागकिट्टीस च बंधोदीरणसंकमा संवत्ता कि तासु चेव से काले पयदृति आहो तदो अण्णास पयद॒ति त्ति एसो तदिओ पुच्छाणिद्देसो । एदेण डिदि-अणुभाग-संकमोदीरणाणं बंधसहगदाणं समयं पडि पवुत्ति विसेसो केरिसो होदि त्ति एवंविहो अत्थविसेसो सूचिदो दट्ठव्वो । एदेणेव अण्णो वि पयदोवजोगिओ अत्थविसेसो देसामासयभावेण सूचिदो त्ति वक्खाणेयव्वा । संपहि एदिस्से तदियमूलगाहाए अत्थविहासणं कुणमाणो तत्थ पडिबद्धाणं भासागाहाणमियत्तावहारणमुत्तरं सुत्तमाह--
$ १२८ 'संछुहदि अण्णकिट्टि' ऐसा कहने पर विवक्षित संग्रह-कृष्टिका अन्य कृष्टि में संक्रम करता हुआ किस प्रकारको स्थिति और अनुभागमें विद्यमान उनका विवक्षित संग्रह कृष्टिका संक्रमण करता है, क्या सामान्यसे सब स्थितियों और अनुभाग-कृष्टियोंको अन्यकृष्टिरूपसे संक्रमित करता है या इस विषयमें कोई विशेष सम्भव है। इस प्रकार यह दूसरी पृच्छा स्थिति, अनुभाग और संक्रमकी प्रवृत्ति विशेषकी अपेक्षा करता है तथा स्थिति, अनुभाग और बन्धविषयक पृच्छाका निर्देश भो इसोमें लोन है ऐसा व्याख्यान करना चाहिये, क्योंकि इस सूत्रको देशामर्षकरूपसे प्रवृत्ति स्वीकारको गई है। अतः विवक्षित संग्रहष्टिकी क्षपणा होते समय स्थिति, अनुभाग और उदारणा तथा तद्विषयक अपकर्षण, परप्रकृतिसंक्रम, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध किस प्रकार प्रवत्त होते हैं ? इस प्रकार यह प्रकृतमें सूत्रका समुदायरूप अर्थ है ।
६ १२९ ‘से काले तासु अण्णासु' ऐसा कहनेपर विवक्षित समय में जिन स्थिति और अनुभाग कृष्टियोंमें बन्ध, उदोरणा और संक्रम प्रवृत्त हुए हैं क्या उन्होंमें अनन्तर समय में प्रवृत्त रहते हैं या उनसे अन्यमें ये प्रवत्त रहते हैं ? इस प्रकार यह तोसरा पच्छानिर्देश है। इसके द्वारा बन्ध के होनेवाले स्थिति, अनुभाग, संक्रम और उदीरणाका प्रत्येक समयमें प्रवृत्ति विशेष किस प्रकारका होता है, इस तरह इस प्रकारका अर्थविशेष सूचित किया गया जानना चाहिये । इसीके द्वारा अन्य भी प्रकृतमें उपयोगी अर्थ विशेष देशामर्षकरूपसे सूचित किया गया है ऐसा व्याख्यान करना चाहिये । अब इस तीसरी मूल गाथाके अर्थको विभाषा करते हुए उससे सम्बन्ध रखनेवाली भाष्यगाथाओंकी संख्याका निश्चय करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
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गा० २१८-२१९]
* एदिस्से दस भासगाहाओ ।
६ १३० सुगममेदं सुत्तं। एत्थ पडिबद्धाणं दसण्हं भासगाहाणं परिप्फुडमेव समुवलंभादो । संपहि काओ ताओ दसभासगाहाओ त्ति आसंकाए जहाकममेव तासिं समुक्त्तिणं विहासणं च कुणमाणो उवरिमं पबंधमाढवेइ--
* तत्थ पढमाए भासगाहाए समुक्त्तिणा ।
६ १३१ तासु दससु मासगाहासु पढमभासगाहाए तत्थ समुक्कित्तणा पुवमेव कीरदि त्ति वुत्तं होदि । * (१६६) बंधो व संकमो वा णियमा सव्वेसु हिदिविसेसेसु ।
सम्वेसु चाणुभागेसु संकमो मज्झिमो उदो ॥२१९॥
* इस मूलगाथा सूत्रकी दस भाष्यगाथाएँ हैं ।
६ १३० यह सूत्र सुगम है । इस विषयमें सम्बन्ध रखनेवाली दस भाष्यगाथाएं स्पष्टरूपसे ही उपलब्ध होती हैं । अब वे दस भाष्यगाथाएं कौन सी हैं ? ऐसी आशंका होनेपर यथाक्रमसे ही उनकी समुत्कीर्तना और विभाषा करते हुए आगेके प्रबन्धको आरम्भ करते है
* उनमेंसे प्रथम माष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं। . ६ १३१ उन दस भाष्यगाथाओंमें से यहाँ सर्वप्रथम भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है, यह कहा गया है
8 (१६६) विवक्षित कृष्टिका बन्ध और संक्रम नियमसे क्या समी स्थितिविशेषोंमें होता है ? (विवक्षित कृष्टिका स्थितिबन्ध सभी स्थितिविशेषोंमें नहीं होता। परन्तु स्थिति-संक्रम उदयावलिको छोड़कर सभी स्थिति-विशेषोंमें होता है ।) तथा विवक्षित कृष्टिके अनुभागका सभी अनुभाग-सम्बन्धी मेदोंमें संक्रम होता है । मात्र जिस कृष्टिका वेदन करता है उसका मध्यम कृष्टियोंके रूपसे उदय होता है ।। २१९॥
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ चारितक्खवणा
$ १३२ एसा पढमभासगाहा पुग्वद्वेण हिदिबंध - ट्ठिदिसंकमाणं किट्टीवेदगखवगसंबंधीणं णिण्णयविहाण मोइण्णा 'बंधो वा संकमो वा नियमा' णिच्छयेणेव किं सव्वे ट्ठिदिविसेसेस होदि आहो ण सब्वेसु त्ति पदाहिसंबंधवसेण परिष्फुडमेवेत्थ ट्ठिदिबंधसंकमणणिण्णयत्रिहाणस्स पडिबद्धत्तदंसणादो । एदं च गाहापुव्वद्धं पुच्छासुत्तमेव, णणिद्दे ससुत्तमिदि उवरि चुण्णिसुत्तयारो सयमेव भणिहिदि । तत्थेव तव्विणिण्णयं कस्साम । तम्हा पच्छद्वेण वि अणुभागसं कमस्स अणुभागोदयस्स च किट्टीविसयस्स पवृत्तिविसेसो एवं होदि ति णिण्णयविहाण मेसा भासगाहा समोइण्णा, सव्वेसु चैव णिरुद्धसंग हकिट्टीए अणुभागवियप्पेसु संकमो होदि, उदयो पुण मज्जिमकिट्टीसरूवेणेव दट्ठव्वोत्ति परिष्फुडमेव गाहापच्छद्वे अणुभागविसयाणं संकमोदयाणं णिण्णयविहाणदंसणादो । एदं च गाहापच्छद्धं णिद्दे ससुत्तमेव, ण पुच्छासुत्त मिदि त्वं । संपहि एवंविहत्थ पडिबद्धाए एदिस्से पढमभासगाहाए अत्थविहासणं कुणमाणो पुव्वमेव ताव गाहापुव्वद्धस्स णि ससुचाभावासं काणिरायरणदुवारेण पुच्छासु त्तत्थ समत्थणट्ठमुवरिमं पबंधमाढवे
१३२ यह प्रथम भाष्यगाथा, अपने पूर्वार्धद्वारा कृष्टिवेदक के क्षपकसम्बन्धी स्थितिबन्ध और स्थितिसंक्रमका निर्णय करने के लिये अवतीर्ण हुई है । बन्ध और संक्रम 'णियमा' निश्चयसे ही क्या सभी स्थितिविशेषों में होता है या सभी स्थितिविशेषों में नहीं होता इस प्रकार पदों के अभिसम्बन्ध वशसे स्पष्टरूपसे ही यहाँ पर स्थितिबन्ध और संक्रमके निर्णयके विधानका अर्थके साथ सम्बन्ध देखा जाता है । और यह गाथाका पूर्वार्ध पृच्छासूत्र ही है; निर्देशसूत्र नहीं, यह आगे चूर्णिसूत्रकार स्वयं हो कहेंगे, इसलिये वहीं उसका निर्णय करेंगे । इस कारण गाथाके उत्तरार्ध द्वारा भी कृष्टिविषयक अनुभाग-संक्रम और अनुभाग- उदयकी प्रवृत्तिविशेष इस प्रकार होती है इस बात का निर्णय करने के लिये यह भाष्यगाथा अवतीर्ण हुई है, क्योंकि विवक्षित संग्रह कृष्टिके अनुभागसम्बन्धी सभी भेदों में संक्रम होता है । परन्तु उदय मध्यम कृष्टिरूपसे ही जानना चाहिये इस प्रकार गाथा के उत्तरार्ध में अनुभाग विषयक संक्रम और उदयके निर्णयका कथन स्पष्टरूपसे देखा जाता है और यह गाथाका उत्तरार्ध निर्देशसूत्र ही है, पृच्छासूत्र नहीं है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । अब इस प्रकार के अर्थ - के साथ सम्बन्ध रखनेवाली इस प्रथम भाष्यगाथाके अर्थको विभाषा करते हुए सर्वप्रथम गाथाके पूर्वार्ध में निर्देशसूत्रकी अभावविषयक आशंकाके निराकरण द्वारा पृच्छासूत्ररूप अर्थका समर्थन करनेके लिये आगेके प्रबन्धको आरम्भ करते हैं
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गा० २१९]
* 'बंधो व संकमो वा णियमा सव्वेसु हिदिविसेसेसु' त्ति एवं पुण पुच्छासुत्तं ।
६ १३३ अस्यार्थ उच्यते-'एदं गज्जदि' एवमुक्ते एतत्परिज्ञायते किमिति वायरणमुत्तं ति व्याख्यानसूत्रमिति व्याक्रियतेऽनेनेति व्याकरणं प्रतिवचनमित्यर्थः । 'एदं पुण पुच्छासुत्त' एतत्तु पृच्छासूत्र मेवेति प्रतिपत्तव्यं; गाथासूत्रकाराभिप्रायस्य तथाविधत्वादित्युक्तं भवति । कथं पुनरिदं विज्ञायते प्रश्नवाक्यमेवैतत्, न पुनः प्रतिवचनसूत्रमिनि । अत्रोच्यते-द्विदिबंधट्ठिदिसंकमा जहावुत्तविहाणेणसव्वेसु द्विदिविसेसेसु ण संभवंति; तेसिं परिमियेसु चेव द्विदिविसेसेस पवुत्तिणियमदंसणादो । तम्हा पुच्छावक्कमेदमेव, ण वक्खाणसुत्तमिदि णिच्छेयव्वं । साम्प्रतमिममेवाथ समर्थयितुकाम उत्तरं प्रबंधमारभयति--
* तं जहा। ६ १३४ सगमं ।
* 'वन्ध और संक्रम नियमसे सब स्थितिविशेषोंमें होता है क्या ? इससे यह जाना जाता है कि क्या यह व्याकरण (व्याख्यान) सूत्र है ? परन्तु यह व्याकरणसूत्र न होकर पृच्छास्त्र है।
६ १३३ अब इसका अर्थ कहते हैं-'एदं णज्जदि' ऐसा कहने पर यह जाना जाता है कि क्या यह व्याकरणसूत्र है या व्याख्यानसूत्र है । जिसके द्वारा व्याक्रियते अर्थात् विशेषरूपसे पूरी तरहसे मीमांसा की जाती है उसे व्याकरणसूत्र कहते हैं उसका अर्थ होता है 'प्रतिवचन' । परन्तु यह (व्याकरणसूत्र न होकर) पृच्छासूत्र है, यह तो पृच्छासूत्र ही है ऐसा जानना चाहिये, क्योंकि गाथासूत्रकारका अभिप्राय उसी प्रकारका है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका--यह कैसे जाना जाता है कि यह प्रश्नवाक्य हो है, किन्तु यह प्रतिवचन सूत्र नहीं है ?
समाधान--अब यहां इसका उत्तर कहते हैं-स्थिति और स्थितिसंक्रम जिस प्रकार पूर्वमें इनको विधि कह आये हैं उस विधिके अनुसार सब स्थिति-विशेषोंमें सम्भव नहीं है, क्योंकि उनको परिमित स्थितिविशेषों में ही प्रवृत्ति होनेका नियम देखा जाता है। इसलिये यह पृच्छावाक्य ही है, व्याख्यानसूत्र नहीं, ऐसा यहाँ निश्चय करना चाहिये ।
____ अब इसी अर्थका समर्थन करने की इच्छा रखने वाले आचार्य आगेके प्रबन्धको आरम्भ करते हैं।
* वह जैसे। $ १३४ यह सूत्र सुगम है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ चारित्तक्खवणा * बंधो व संकमो वा णियमा सव्वेसु हिदिविसेसेसु त्ति एवं णव्वदि णिद्दिडं त्ति एदं पुण पच्छिदे किं सव्वेसु द्विदिविसेसेसु, पाहो ण सम्वेसु ।
$ १३५ गतार्थमेतत्, पूर्वोक्तस्यैवार्थस्यानेन दृढीकरणात् । एवमेदस्स गाहापुन्वद्धस्स पुच्छासुत्तत्थं जाणाविय पुच्छाकमं च पदरिसिय संपहि एदिस्से पुच्छाए गाहासुत्तसूचिदं णिग्णयविहाणं कुणमाणो विहासासुत्तयारो विहासागंथ मुत्तरमाढवेह--
* तदो वत्तव्वं ण सव्वेसु त्ति ।
६ १३६ तत एवं वक्तव्यं न सर्वेषु स्थितिविशेषेष्विति । कुत एवमिदि घेत् ? आह
* किट्टीवेदगे पगदं ति चत्तारि मासा एत्तिगात्रो हिदीनो बज्झति, आवलियपविट्ठाओ मोत्तण सेसाश्रो संकामिति ।
* बन्ध और संक्रम नियमसे स्थितिविशेषोंमें होता है इस वचनसे यह जाना जाता है कि इस द्वारा यह निर्देश किया गया है कि यह व्याख्यानसूत्र है क्या ? परन्तु यह व्याख्यानसूत्र न होकर पच्छासूत्र है। इस द्वारा यह पूछा गया है कि बन्ध और संक्रम सब स्थितिविशेषोंमें होता है या सब स्थितिविशेषों में नहीं होता।
६ १३५ यह सूत्र गतार्थ है, क्योंकि अर्थको ही इस द्वाग दृढ़ किया गया है । इस प्रकार उक्त गाथासूत्रके इस पूर्वार्धके पृच्छासूत्ररूप अर्थको जानकर और पृच्छाक्रमको दिखलाकर अब इस पृच्छाके द्वारा गाथासूत्रसे सूचित होनेवाले निर्णयसम्बन्धी कथनको करते हुए विभाषासत्रकार आगेके विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं
* उक्त प्रश्न के उत्तरमें कहना चाहिये कि सब स्थितियोंमें बन्ध और संक्रम नहीं होता है।
६१३६ इसलिये यह कहना चाहिये कि सब स्थितिविशेषोंमें बन्ध और संक्रम नहीं होता है।
शंका-ऐसा क्यों होता है ? समाधान--कहते हैं
* यहाँ कृष्टिवेदकका प्रकरण है, इसलिये इसके 'चार मास' इतनी ही स्थितियाँ बंधती हैं। तथा आवलि (उदयावलि) प्रविष्ट स्थितियोंको छोड़कर शेष सब स्थितियां संक्रामित की जाती हैं।
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गा० २१९ ]
$ १३७ अयमस्य भावार्थः -- पढमसमय किडीवेदगस्स संजलणाणं ट्ठिदिसंतकम्ममदुवस्समेत्तमत्थि; कोहोदयखवगम्मि परिष्फुडमेव तदुवलंभादो । ण च एत्तियमेत्ताणं द्विदिविसेसाणं तक्काले बंधसंभवो अस्थि; चदुमासमेत्तस्सेव ताधे संजलाणं द्विदिबंधस्स संभवोवलंभादो । ट्ठिदिसंकमो पुण तक्कालभात्रिओ उदयावलियपविट्ठाओ हिदीओ मोत्तूण सेसासेसट्ठिदिविसेसेसु पयदृदि, तत्थ पयारंतरासंभवादो ति । एदेण कारणेण ण; सव्वेसु ठिदिविसेसेसु त्तिणिद्दिहं । ट्ठिदिउदीरणा वि उदयावलिवज्जासु सव्वासु चेव ट्ठिदीसु पयहृदि ति एसो वि अत्थो एदेणेव सुत्तेण सूचिदो दट्ठव्वो । एवमेत्तिएण पबंधेण गाहापुव्वद्ध विहासिय संपहि गाहापच्छद्धमस्सिपूर्ण अणुभागसं कम तदुदीरणाणं पवृत्तिविसेसाबहारणट्ठमिदमाह–
* 'सव्वेसु चाणभागेसु संकमो मज्झिमो उदयो' त्ति एवं सव्वं वाकरणसुत्तं ।
$ १३८ सर्वमेवैतद् गाथापश्चार्द्धं व्याकरणसूत्रमेव प्रतिवचनसूत्रमेवेति ग्राह्यं । सुबोधमन्यत् ।
* सव्वा किट्टीओ संकमंति ।
$ १३७ इस विभाषासूत्रका यह भावार्थ है - प्रथम समय में कृष्टिवेदकजीवके चारों संज्वलनों का स्थितिसत्कर्म आठ वर्ष प्रमाण होता है, क्योंकि क्रोधसंज्वलनके उदयके समय क्षपक यह सत्व स्पष्ट रूप ही पाया जाता है । किन्तु उस कालमें एतत्प्रमाण स्थितिबन्ध नहीं पाया जाता, मात्र उस कालमें संज्वलनकषायों का स्थितिबन्ध चार मास प्रमाण हो पाया जाता है । किन्तु उस कालमें होनेवाला स्थितिसंक्रम उदयावलिप्रविष्ट स्थितियों को छोड़कर शेष समस्त स्थितिविशेषोंमें प्रवृत्त होत! है; क्योंकि उस काल में संक्रमसम्बन्धी और दूसरा प्रकार सम्भव नहीं है । उस काल में स्थितिउदीरणा भी उदयावलिको छोड़कर शेष समस्त स्थितियों में प्रवृत्त होती है इस प्रकार यह अर्थ भी इसी सूत्र द्वारा सूचित हुआ जानना चाहिये । इस प्रकार इतने प्रबन्धद्वारा गाथाके पूर्वार्धकी विभाषा करके अत्र गाथाके उत्तरार्धका आश्रय करके अनुभाग-संक्रम और अनुभाग- उदीरणाकी प्रवृत्तिविशेषका अवधारण करनेके लिये यह सूत्र कहते हैं
* तथा संक्रम सभी अनुभागों में होता है और उदय मध्यमकृष्टियोंका होता । इस प्रकार गाथाका उत्तरार्धरूप यह सब व्याकरणसूत्र है ।
$ १३८ यह पूरा ही उक्त गाथाका व्याकरणसूत्र ही है अर्थात् प्रतिवचनसूत्र ही है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । शेष सब कथन सुबोध है ।
* उक्त क्षपकके सभी कृष्टियाँ संक्रमित होती हैं
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ चारित्तक्खवणा
९ १३९ वेदिज्जमाणावेदिज्जमाणाणं सव्वासिमेव किट्टीणं समयाविरोहेण संकंतिणिय मदंसणादो ।
६०
* जं किहिं वेदयदि तिस्से मज्झिमकिट्टी उदिण्णा ।
$ १४० वेदिज्जमाणसंगह किट्टीए हेट्टिमोवरिमासंखेज्जभागविसयाओ किट्टीओ मोत्तूण सेसासेसमज्जिम किट्टिसरूवेण उदयोदीरणाओ पयट्टति त्ति वृत्तं होई ।
$ १३९ उक्त क्षपकजीवके वेद्यमान और अवेद्यमान सभी कृष्टियोंके समय के अविरोधपूर्वक संक्रमका नियम देखा जाता है।
* मात्र वह क्षपक जिस संग्रह कृष्टिका वेदन करता है उसकी मध्यम कृष्टियाँ ही उदीर्ण होती हैं ।
१४० उक्त क्षपक वेद्यमान संग्रह कृष्टिके अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियों को छोड़कर शेष समस्त मध्यम कृष्टिरूपसे उनके उदय और उदीरणा प्रवृत होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
विशेषार्थ--पहले १६५ (२१८ ) संख्या के गाथासूत्रका स्पष्टीकरण करनेके प्रसंगसे उसकी १० भाष्यगाथाएं आई हैं। उनमें 'बंधो व संकमो वा' यह प्रथम भाष्यगाथा है । उसमें स्थितिविशेषोंको ध्यान में रखकर बन्ध और संक्रमका तथा अनुभागकी अपेक्षा संक्रमका और किन कृष्टियों की उदय - उदीरणा होती है इसका विचार किया गया है। इसका विशेष खुलासा करते हुए वीरसेन स्वामीने जो स्पष्टीकरण किया है उसका भाव यह है
(१) क्षपकश्रेणिमें क्रोधसंज्वलनकी प्रथम कृष्टिके वेदनके समय संज्वलन कषायका बन्ध चार माह प्रमाण ही होता है, इसलिये इससे ज्ञात होता है कि उक्त गाथासूत्रका पूर्वार्ध पृच्छासूत्र ही है । इसी प्रकार इसके संज्वलनकी सत्ता आठ वर्षप्रमाण होती है, इसलिये इसका संक्रम, उदयको छोड़कर शेष सब स्थितियोंका होता है यह निश्चित होता है । उदयावलि सब करणोंके अयोग्य होती है, इसलिये उदयावलि प्रमाण निषेकोंका संक्रम नहीं होता, यह टीका में स्वीकार किया गया है । यह तो स्थितिबन्ध और स्थितिसंक्रमका विचार है ।
(२) अनुभाग के विषय में सूत्रकारका क्या कहना है ? उसे स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि संज्वलनको विवक्षित संग्रह कृष्टिके पूरे अनुभागका संक्रम होने में कोई बाधा नहीं आती । जितना भी विवक्षित संग्रह कृष्टिका अनुभाग है उसका समय के अविरोधपूर्वक अपने कालतक संक्रम होता रहता है, यह स्पष्ट है ।
(३) मात्र उदय - उदीरणाके विषयमें यह नियम है कि जिस संग्रह कृष्टिकी उदय - उदीरणा होती है उसकी मध्यम अन्तर कृष्टियों के रूपसे ही उदय उदीरणा होती है, ऐसा यहाँ जानना चाहिये ।
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गा० २१९-२२० ]
६१४१ एवमेत्तिएण सुत्तपबंधेणे पढमभासगाहामस्सियूण द्विदि-अणुभागसंकमोदीरणाणं मूलगाहासुत्तणिहिट्ठाणं पवुत्तिविसेसणिण्णयं कादूण संपहि बिदिय भासगाहाए विहासणं कुणमाणो उवरिमं पबंधमाह
* एत्तो विदियाए भासगाहाए समुक्तित्तणा । ६ १४२ सुगमं । * जहा। $ १४३ सुगमं । * (१६७) संकामेदि उदीरेदि चावि सव्वेहिं द्विदिविसेसेहिं ।
किट्टीए अणुभागे वेदेंतो मज्झिमो णियमो ॥ २२० ॥ ६१४४ एसा बिदियभासगाहा पढमभासगाहाणिहिट्ठस्सेव अत्थविसेसस्स पुणो वि विसेसियूण परूवणट्ठमोइण्णा । तत्थ णिहिट्ठाणं द्विदिसंकम-द्विदिउदीरणाणमणभागोदयस्स च किंचि विसेसियूणेत्थ णिद्दे सदसणादो । ण च एवं संते एदिस्से गाहाए पुणरुत्तभावो आसंकणिज्जो, तत्थापरूविदहिदि-अणुभागोदीरणाणमेत्थ पहाणभावेण
६१४१ इस प्रकार इतने सूत्रप्रबन्धद्वारा प्रथम भाष्यगाथाका आश्रयकर मूल सूत्रगाथामें निर्दिष्ट स्थिति और अनुभागसम्बन्धी संक्रम और उदीरणाको प्रवृत्तिविशेषका निर्णय करके अब दूसरी भाष्यगाथाकी विभाषा करते हुए आगेके प्रबन्धको कहते हैं
* इससे आगे अब दूसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं । ६ १४२ यह सूत्र सुगम है । * जैसे। ६ १४३ यह सूत्र सुगम है।
* (१६७) यह क्षपक सर्वस्थितिविशेषोंके द्वारा क्या संक्रम और उदीरणा करता है ? कृष्टिके अनुभागोंका वेदन करता हुआ नियमसे मध्यम कृष्टियोंके अनुभागोंका वेदन करता है ।। २२० ॥
8 १४४ यह दूसरी भाष्यगाथा, प्रथम भाष्यगाथाद्वारा निर्दिष्ट किये गये अर्थविशेषकी ही फिर भी विशेषरूपसे प्ररूपणा करनेके लिये अवतीर्ण हुई है क्योंकि उसमें कहे गये स्थितिसंक्रम, स्थिति-उदीरणा और अनुभागके उदयका किञ्चित् विशेष करके इस भाष्यगाथामें निर्देश देखा जाता है। और ऐसा होने पर इस भाष्यगाथामें पुनरुक्तपनेका दोष आता है ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि पूर्वकी भाष्यगाथामें नहीं कहे गये स्थिति-अनुभाग और उदीरणाका इस भाष्य
१. आ० प्रतौ 'एवमेत्तिएण पबंधेण' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ चारित्तक्खवणा परूवणोवलंभादो। संपहि एदिस्से गाहाए किंचि अवयवत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहा
$१४५ 'संकामेदि उदीरेदि चावि' एवं मणिदे किं सव्वेहि द्विदिविसेसेहि संकामेदि, उदीरेदि वा, आहो ण सम्वेहिं ति गाहापुव्वद्धे पुच्छाहिसंबंधो; गाहापुव्वद्धस्सेदस्स पुच्छासुत्तभावेण समवट्ठाणदंसणादो । तदो किं सव्वे द्विदिविसेसे संकामेदि उदीरेदि वा, आहो ण, तहा वत्तव्वमिदि । एवंविहो पुच्छाणिद्द सो गाहापुव्वद्धपडिबद्धो त्ति णिच्छेयव्वं । गाहापच्छद्धे 'किट्टीए अणुभागे वेदेंतो णियमा' मझिमकिट्टीसरूवेण चेव वेदेदि ति सुत्तत्थसंबंधों । एदं च गाहापच्छद्धं गिद्दे ससुत्तमेव, ण पुच्छासुत्तमिदि पुव्वं व वक्खाणेयव्वं । संपहि एवंविहमेदिस्से गाहाए अत्थविसेसं विहासेमाणो उवरिमं पबंधमाढवेइ--
* विहासा। ६ १४६ सुगमं । * एसा विगाहा पुच्छासुत्तं । ६ १४७ सुगमं ।
गाथामें प्रधानरूपसे कथन पाया जाता है। अब इस भाष्यगाथाके अवयवोंके किंचित् अर्थकी प्ररूपणा करेंगे । वह जैसे
$ १४५ 'संकामेदि उदीरेदि चावि' ऐसा कहनेपर क्या सभो स्थितिविशेषोंके द्वारा संक्रम करता है या उदोरणा करता है अथवा सभी स्थितिविशेषोंद्वारा संक्रम और उदीरणा नहीं करता ? इस प्रकार इस भाष्यगाथाके पूर्वाधमें पृच्छाका सम्बन्ध है क्योंकि इस गाथाके पूर्वार्धका पृच्छासूत्ररूपसे अवस्थान देखा जाता है। इस कारण क्या सभी स्थितिविशेषोंको संक्रमित करता है और उदीरित करता है अथवा नहीं करता है, इस प्रकार कहना चाहिये । इस प्रकार पृच्छाका निर्देश गाथाके पूर्वार्धमें प्रतिबद्ध है, ऐसा निश्चय करना चाहिये । गाथाके उत्तरार्धमें कृष्टिके अनुभागोंको वेदन करता हुआ नियमसे मध्यम कृष्टिरूपसे ही वेदन करता है इस प्रकार सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है । और इस प्रकार इस भाष्यगाथाका उत्तरार्ध निर्देशसूत्रहो है, पृच्छासूत्र नहीं, इस प्रकार पहलेके समान व्याख्यान करना चाहिये । अब इस प्रकार इस भाष्यगाथाके अर्थको विभाषा करते हए आगेके प्रबन्धको अरम्भ करते हैं
* अब इस भाष्यगाथाकी विभाषाकी जाती है। ६ १४६ यह सूत्र सूगम है। * यह भाष्यगाथा भी पच्छासूत्र है। $ १४७ यह सूत्र सुगम है।
१. आदर्शप्रती एसो' इति पाठः ।
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गा० २२०-२२१ ]
६३
* किं सव्वे ट्ठिदिविसेसे संकामेदि उदीरेदि वा, आहो ए वत्तव्वं । $ १४८ सुगमं ।
* आवलियपविद्धं मोत्तृण सेसा सव्वाओ हिदी संकामेदि उदीरेदि च ।
१४९ सुगमं ।
* जं किहिं वेदेदि तिस्से मज्झिमकिट्टीओ उदीरेदि ।
$ १५० यत्थमेदं पित्तं । एवं विदियभासगाहाए अत्थविहासा समत्ता |
* एतो तदियार भासगाहाए समुत्तिणा ।
$ १५१ सुगमं ।
* जहाँ ।
$ १५२ सुगमं ।
* (१६८) ओकड्डदि जे अंसे से काले किष्णु ते पवेसेदि । कट्टिदे च पुव्वं सरिसमसरिसे पवेसेदि ॥ २२१ ॥
* क्या सभी स्थितिविशेषको संक्रमित और उदीरित करता है अथवा नहीं ? इसे कहना चाहिये ।
१४८ यह सूत्र सुगम है ।
* उदयावलिमें प्रविष्ट हुई स्थितिको छोड़कर शेष सब स्थितियोंको संक्रमित करता है और उदीरित करता है ।
$ १४९ यह सूत्र सुगम है ।
* तथा वह क्षपक जिस संग्रह कृष्टिका वेदन करता है उसकी मध्यम कृष्टियोंको उदीरित करता है ।
$ १५० यह सूत्र गतार्थ है । इस प्रकार दूसरी भाष्यगाथाको अर्थविभाषा समाप्त हुई । * यहाँ से आगे अब तीसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं ।
$ १५१ यह सूत्र सुगम है । * जैसे ।
$ १५२ यह सूत्र सुगम है ।
* (१६८ ) यह क्षपक जिन कर्मप्रदेशोंका अपकर्षण करता है वह क्या उन कर्मप्रदेशोंको तदनन्तर समय में उदीरणाद्वारा प्रवेशक होता है ? जिन कर्मप्रदेशोंका पहले समय में अपकर्षण किया है उनका सदृश अथवा असदृशरूपसे उदीरणा द्वारा प्रवेशक होता है || २२१॥
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चारित्तक्खवणा ६१५३ एसा तदियभासगाहा पुव्वद्धण द्विदीहिं अणुभागेहिं वा ओकडिदाणं कम्मपदेमाणमोकड्डिदाणंतरसमये चेव किमुदीरणाए अस्थि संभवो आहो णत्थि त्ति एवंविहस्स अत्थविसेसस्स पुच्छादुवारेण णिण्णयविहाणट्ठमोइण्णा। पच्छद्धेण च तहोदीरिज्जमाणाणं तेसिं पदेसग्गाणं किमेयवग्गणायारेण परिणमिय सव्वेसि सरिसभावेणुदीरणा पयदि त्ति आहो णाणावग्गणसरूवेण विसरिसभावेणदीरणापरिणामो त्ति एदस्स अत्थविसेसस्स फुडीकरणट्ठमोइण्णा त्ति दट्ठव्या । एत्थ गाहापुव्वद्ध अवयवत्थपरूवणा सुगमा। पच्छद्ध एवं पुच्छाहिसंबंधो कायव्यो-'ओकहिदे च पुत्वं' अणंतरपुविल्लसमये ओकडिदे पदेसग्गे पुणो से काले उदीरेमाणो कि सरिसं पवेसेदि आहो असरिसभावेण पवेसेदि त्ति ।
१५४ एत्थ सरिसासरिसपदाणमत्थविणिण्णयमुवरि चुण्णिसुत्तसंबंधेणेव कस्सामो । तदो किट्टीखवगो जाणि कम्माणि द्विदीहिं वा अणुभागेहिं वा ओकडदि से काले किं पुण ताणि ओकट्टियूण उदयं पवेसेदि आहोण पवेसेदि ? पवेसेमाणो च अणंतरपुन्विल्लसमयम्मि ओकड्डिदाणि ताणि किमणुभागेण सरिसाणि पवेसेदि आहो विसरिसाणि त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसंगहो । संपहि एवमेदीए गाहाए पुच्छिदत्थविसये णिच्छयजणण मुवरिमं विहासागंथमाढवेइ--
६१५३ यह तीसरी भाष्यगाथा अपने पूर्वार्धके द्वारा स्थितियों और अनुभागोंकी अपेक्षा कर्मप्रदेशोंको अनन्तर समयमें ही क्या उदीरणा सम्भव है या उदीरणा सम्भव नहीं है ? इस प्रकारके अर्थविशेषका पृच्छा द्वारा निर्णयका कथन करनेके लिये अवतरित हुई है तथा उत्तरार्ध द्वारा उस प्रकार से उदीरित होनेवाले उन प्रदेशोंका क्या एक वर्गणारूपसे परिणमन करके सभी की सदृशरूपसे उदीरणा प्रवृत्त होती है या नाना वर्गणारूपसे (परिणमन करके) विसदृशरूपसे उदोरणापरिणाम होता है ? इस प्रकार इस अर्थविशेषका स्पष्टीकरण करनेके लिये [यह गाथा] अवतरित हुई है, ऐसा यहाँ जानना चाहिये । यहाँ इस गाथाके पूर्वार्धमें आये हुए अवयवोंके अर्थको प्ररूपणा सुगम है। उत्तरा, में पृच्छाका इस प्रकार सम्बन्ध करना चाहिये-'ओकड्डिदे च पुव्वं' अर्थात् जिन प्रदेशोंका अनन्तर पूर्व समयमें अपकर्षण किया था उन अपकर्षित कर्मप्रदेशोंकी पुनः तदनन्तर समयमें उदीरणा करनेवाला जीव उनको क्या सदृशरूपसे प्रवेश कराता है या असदृशरूपसे प्रवेश कराता है ?
६१५४ यहाँपर सदृश और असदश पदोंका निर्णय आगे चूणिसूत्रके सम्बन्धसे ही करेंगे। इसलिये कृष्टियोंकी क्षपणा करनेवाला जीव जिन कर्मोंको स्थितियों और अनुभागोंके द्वारा अपकर्षित करता है क्या तदनन्तर समयमें पुनः उनका अपकर्षण करके उनको उदयमें प्रवेश करता है या प्रवेश नहीं करता है ? और प्रवेश कराता हुआ अनन्तर पूर्व समयमें क्या अपकर्षित किये गये उन कर्मपरमाणुओंको क्या अनुभागके द्वारा सदृश हो प्रवेश कराता है या क्या विसदृश उन कर्म परमाणुओंको प्रवेश कराता है यह यहाँ सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । इस प्रकार इस गाथा द्वारा पूछे गये अर्थके विषयमें निर्णय करनेके लिये आगेके विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं
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गा० २२१]
* विहासा ।
$ १५५ सुगमं ।
* एसा विगाहा पच्छासुत्त ।
$ १५६ सुगमं । संपहि किमेसा गाहा पुच्छदित्ति आसंकाए इदमाह-
* अकड्डदि जे अंसे से काले किएणु ते पवेसेदि आहो ण ? वक्तव्वं
काम्यन्वोत्ति कुत्तं होइ । संपहि एवं
$ १५७ गाहापुब्बद्ध पुच्छा हिसंबंधो एवं पुच्छि दत्थविसये णिष्यविहाणडुमिदमाह -
६५
* पवेसेदि ओकडिदे च पुष्यमणंतर पुव्वगेण ।
$ १५८ अनंतरपुब्बिन्लसमयम्मि भोकडिदे कम्मपदेसे से काले चैव प्रवेसेदुमत्थि संभवो, ण तत्थ पडिसेहो ति बुत्तं होइ । एदेण उकड्डिदस्से प्रदेसग्गस्स नहा भावलियमेतकालं णिरुत्रक्कमभावेणावद्वाणणियमो, ण एवमोकडिदस्स पदेसग्गस्स, किंतु ओडिदबिदिय समये चेव पुणो ओकड्डियूण पवेसेदुमेदस्स संभवो अस्थि ति नाणात्रिद्धं ।
* अब इस भाष्यगाथाकी विभाषाकी जाती है ।
१५५ यह सूत्र सुगम है ।
* यह भाष्यगाथा भी
पृच्छासूत्र
है ।
$ १५६ यह सूत्र सुगम है। अब इस गाथामें क्या पूछा गया है ऐसी आशंका होनेपर यह आगेका सूत्र कहते हैं
* जिन कर्म परमाणओंको अपकर्षित करता है अनन्तर समयमें उन्हें क्या प्रविष्ट करता है या नहीं प्रविष्ट करता है ? कहते हैं
$ १५७ भाष्यगाथाके पूर्वार्धमें पृच्छाका सम्बन्ध इस प्रकार करना चाहिये, यह उक्त कथनतात्पर्य है । अब इस प्रकार पूछे गये अर्थके विषयमें निर्णयका विधान करनेके लिये इस सूत्रको कहते हैं
* पूर्व समय में अपकर्षित करनेपर उससे अनन्तर समयमें प्रवेश कराना शक्य
है ।
$ १५८ अनन्तर पूर्व समय में अपकर्षित किये गये कर्मप्रदेशोंका तदनन्तर समयमें हो प्रवेश कराना सम्भव है, इस विषय में प्रतिषेध नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इससे ज्ञात होता है कि उत्कर्षित किये गये प्रदेशपुंजका जिस प्रकार एक आवलिकाल तक निरुवक्रमरूपसे रहनेका नियम है उस प्रकार अपकर्षित किये गये प्रदेशपुंजका यह नियम नहीं है । किन्तु अपकर्षित करनेके
१. ओड्डिदस्स आ० प्रति ।
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६६
जयधवला सहिदे कसा पाहुडे
[ चारितक्खवणा
एत्थ 'अणंतरपुव्वगेणे' त्ति भणिदे अनंतरपुब्विन्लसमयम्मि ओकडिदे कम्मपदे से त्ति अत्थो गहेयव्वो; सत्तमीए अत्थे तदियविहत्तिणिद्द सावलंबणादो । संपहि सरिसासरिसपदाणमत्थणिण्णयं काढूण गाहापच्छद्धं विहासेमाणो उवरिमं पबंधमाढवेह -
* सरिसमसरिसे त्ति णाम का सण्णा ?
$ १५९ किं पेक्खियूण सरिसत्तमसरिसत्तं वा इह विवक्खियमिदि पुच्छिदं होदि । संपहि एदिस्से पुच्छाए णिष्णय विहाणदुमुत्तरसुत्तारंभो
* जदि जे अणुभागे उदीरेदि एक्किस्से वग्गणाए सव्वे ते सरिसा णाम । अध जे उदीरेदि अणेगासु वग्गणासु, ते असरिसा णाम ।
8 १६० एवं -
$ १६१ भणतस्सा हिप्पायो -- उदयम्मि णिवदमाणाओ अनंताओ किट्टीओ साओ चैव जइ एकट्टीसरूवेण परिणमिय उदयमागच्छति तो तासिं सरिससण्णा होइ । अध अतकिट्टीओ ओकड्डियूणुदयम्मि पदिदपरमाणू जइ अनंत किट्टी सरूवेण होण चिट्ठति तदो ते असरिसा णाम भण्णंति, अणेयवग्गणायारेण परिणदत्तादो त्ति । एवमेदेण सुत्तेण सरिसा सरिसपदाणमत्थं जाणाविय संपहि एदेसु दोसु वियप्पे सु
दूसरे समय में ही पुनः अपकर्षित करके इसका प्रवेश कराना सम्भव है ऐसा यहाँ ज्ञान कराया गया है । यहाँ 'अणंतरपुव्वगेण' ऐसा कहनेपर अनन्तर पूर्व समय में कर्मप्रदेशों के अपकर्षित करनेपर यह अर्थं ग्रहण करना चाहिये क्योंकि सप्तमी विभक्तिके अर्थ में तृतीया विभक्तिके निर्देशका इस पदमें अवलम्बन लिया गया है । अब सदृश और असदृश पदों के अर्थका निर्णय करके गाथा के उत्तरार्धक विभाषा करते हुए आगे के प्रबन्धको आरम्भ करते हैं
सदृश
और असदृश इस नामकी संज्ञाका क्या अर्थ है ?
१५९ सदृशपना या असदृशपना क्या देखकर प्रकृतमें विवक्षित है, यह पूछा गया है ? अब इस पृच्छाका निर्णय करनेके लिये आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं
*
* यदि एक वर्गणाके रूपमें जिन अनुभागोंकी उदीरणा करता है उन सबकी सदृश संज्ञा है । तथा अनेक वर्गणाओंके रूपमें जिन अनुभागोंकी उदीरणा करता है उनकी असदृश संज्ञा है ।
१६० इस प्रकार -
१६१ कहनेवाले का यह अभिप्राय है— उदयमें प्राप्त होनेवाली अनन्त कृष्टियाँ यदि सभी कृष्टियाँ एक कृष्टिरूपसे परिणमन करके उदयको प्राप्त होती हैं तो उनकी सदृश संज्ञा होती है। तथा यदि अनन्त कृष्टियोंको अपकर्षित करके उदयको प्राप्त हुए परमाणु यदि अनन्त कृष्ट होकर स्थित रहते हैं तब वे अपश संज्ञावाले कहे जाते हैं, क्योंकि वे अनेक वर्गणारूपसे परिणत हुए हैं। इस प्रकार इस सूत्र द्वारा सदृश ओर असदृश पदोंका ज्ञान कराकर अब इन
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गा० २२१ ]
कदरेण पयारेण किट्टीणमुदीरणा पयहृदि, किं सरिसभावेण आहो विसरिसभावेणेति आसंकाए उत्तरमाह -
६७
* एदीए सण्णाए से काले जे पवेसेदि ते असरिसे पवेसेदि ।
$ १६२ एदीए अणंतरपरूविदाए सण्णाए पयदत्थणिण्णये कीरमाणे से काले जे अणुभागे पवेसेदि, ते णियमा असरिसे चेव पवेसेदि त्ति घेत्तव्वं । उदयम्मि संछुद्धात कट्टणमणुभागो एगअंतर किड्डीसरूवो ण होदि, किंतु अणंतकिट्टी सरूवो हो अच्छदित्ति भणिदं होदि । एत्थ से काले त्ति भणिदे ओकड्डिदाणंतरविदियसमये चेवेत्ति भणिदं होदि ।
दोनों विकल्पों में किस प्रकारसे कृष्टियोंकी उदीरणा प्रवृत्त होती है, क्या सदृशरूपसे या विसदृशरूपसे ऐसी आशंका होनेपर उत्तर कहते हैं -
* इस संज्ञाके अनुसार अनन्तर समय में जिन कृष्टियोंको उदयमें प्रविष्ट करता है उन्हें असदृशी प्रविष्ट करता है ।
$ १६२ इस अनन्तर कही गई संज्ञाके अनुसार प्रकृत अर्थका निर्णय करने पर तदनन्तर समय में जिन अनुभागोंको प्रविष्ट करता है उनको नियमसे असदृशहो प्रविष्ट करता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । उदयको प्राप्त अनन्त कृष्टियोंका अनुभाग एक अन्तरकृष्टिस्वरूप नहीं होता, किन्तु अनन्त कृष्टिस्वरूप होकर रहता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । प्रकृत में 'से काले' ऐसा कहने पर ' अपकर्षित करनेके अनन्तर दूसरे समय में ही' यह कहा गया है ।
विशेषार्थ- इस भाष्यगाथा में बतलाया गया है कि जिन कृष्टियोंका अपकर्षण होता है उनका अनन्तर समयमें क्या उदय - उदीरणारूपसे परिणमन होता है या नहीं होता है । यदि उस रूप परिणमन होता है तो वह सदृशरूपसे परिणमन होकर उदय उदीरणा होती है या विसदृशरूपसे परिणमनकर उदय-उदीरणा होती है । उत्कर्षण के लिये तो यह नियम है कि जिन कर्म परमाणुओं का स्थिति और अनुभागरूपसे उत्कर्षण होता है वे एक आवलि कालतक तदवस्थ रहते हैं किन्तु जिनका अपकर्षण होता है उनका दूसरे समय में हो अन्यरूप होना सम्भव है । इस नियम के अनुसार यहाँ यह प्रश्न है कि जिन अनन्त अवान्तर कृष्टियोंका अपकर्षण होता है वे क्या अनन्तर समय में एक कृष्टिरूपसे परिणमकर अवस्थित रहते हैं या क्या अनन्तर कृष्टिरूपसे परिणमकर वे अवस्थित रहते हैं । यह एक प्रश्न है । इसका समाधान करते हुए चूर्णिसूत्र में बतलाया है कि जिन अनन्त अवान्तर कृष्टियोंका यह जीव अपकर्षण करता है वे अगले समय में अनन्त कृष्टिरूपसे ही अवस्थित रहती हैं ।
१. पवेसे आ० ।
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[चारित्तमखवणो
६८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ६ १६३ एक्मेतिएण विहासागंथेण तदियभासगाई विहासिय संपहि चउत्कभासगाहाए जहावसरपत्तमत्थविहासणं कुणमाणो इदमाह
* एत्तो चउत्थीए भासगाहाए समुक्कित्तणा। ६१६४ सुगमं। * तं जहा। ६१६५ सुगम । * (१६९) उक्कड्डवि जे अंसे से काले किएणु ते पवेसेदि।
__ उक्कड्डिदे च पुव्वं सरिसमसरिसे पवेसेदि ॥ २२२ ॥ $ १६६ जहा ओकड्डणमस्सियण पुचिल्लगाहाए अवयवत्वपरामरसो कदो, तहा चेव एत्थ वि उक्कड्डणासंबघेण कायब्वो; विसेसामावादो। संपहि एसा वि गाहा पुम्मसुत्तमेवेत्ति जाणावणट्ठमिदमाह
* एवं पुच्छासुत्तं ।
६ १६३ इस प्रकार इतने विभाषाग्रन्थके द्वारा तीसरी भाष्यगाथाकी विभाषा करके अब चौथी भाष्यगाथाकी यथावसर प्राप्त विभाषा करते हुए इस सूत्रको कहते हैं
* इससे आगे चौथी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं। $ १६४ यह सूत्र सुगम है। * वह जैसे । ६ १६५ यह सूत्र सुगम है।
* (१६९) यह क्षपकजीव जिन कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण करता है क्या वह अनन्तर समयमें उन कर्मपरमाणुओंको उदीरणा द्वारा प्रविष्ट करता है ? पूर्व समयमें उत्कर्षित करने पर उनकी उदीरणा करता हुआ सदृशरूपसे प्रविष्ट करता है या असदृशरूपसे प्रविष्ट करता है । ।। २२२ ।।
१६६ जिस प्रकर अपकर्षणका परामर्श किया उसी प्रकार प्रकृतमें भी उत्कर्षणके सम्बन्ध से परामर्शकर लेना चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । अब यह गाथा भी पृच्छासूत्र हो है इस बातका ज्ञान करानेके लिये चूणिसूत्रको कहते हैं
* यह पच्छास्त्र है।
१. सरूवेण ना।
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गा. २२२]
६ १६७ सुगमं । संपहि एदीए गाहाए पुच्छिदत्थस्स किट्टीवेगम्मि णत्थि चेव संभवो त्ति पदुप्पायणट्ठमुवरिमं पबंधमाह
* एविस्से गाहाए किट्टीकरणप्पहुडि णस्थि अत्थो ।
६ १६८ किं कारणं ? उक्कड्डणाकरणस्स एदम्मि विसये अच्चंतासंभवेण परिसिद्धत्तादो, तम्हा उक्कडणाए संभवे संते उक्कड्डिदस्स पदेसग्गस्स से काले चेव किमोड्डियण पवेसेदुमत्थि संभवो आहो णत्थि त्ति एवंविहो विचारो पयट्टदे । एत्थ पुण उक्कड्डणाए चेव अच्चंताभावेण पयदविचारस्साणवसरो चेवेत्ति एसो एत्थ मुसत्थसम्भावो । संपहि एदस्सेवत्थस्स फुडीकरणमुत्तरसुत्तणिद्देसो।।
के हंदि किटीकारगो किट्टीवेदगो वा हिदि-अणुभागे ण उक्कड्डदि
त्ति।
$ १६९ हंदि वियाण निश्चिनु किट्टीकारगो किट्टीवेदगो वा द्विदि-अणुभागे उक्कड्डिदणुवरि ण संहदि त्ति । कुदो एस णियमो चे? खवगपरिणामाणमेत्यत्तणाणंतविरुद्धसरूवेणावट्ठाण-णियमदंसणादो। जो पुण किट्टीकम्मंसियवदिरित्तो
६ १६७ यह सूत्र सूगम है । अब इस गाथाद्वारा पूछे गये अर्थका कृष्टिवेदकके विषय में किसी प्रकारके भी प्रयोजनकी सम्भावना नहीं है इस बातका कथन करनेके लिये आगेके प्रबन्धको कहते हैं
* इस गाथाके [अर्थका] कृष्टिकरण प्रकरणसे लेकर कोई प्रयोजन नहीं है। ६१६८ शंका-इसका क्या कारण है ?
समाधान--उत्कर्षणाकरण कृष्टिकरणके विषयमें अत्यन्त असम्भव है, इसलिये वह यहां प्रतिषिद्ध है। इस कारण उत्कर्षणके सम्भव होने पर उत्कर्षित किये गये प्रदेशपुंजका तदनन्तर समयमें हों क्या अपकर्षण करके उनका प्रवेश कराना क्या सम्भव है या उनका प्रवेश कराना सम्भव नहीं है ? इस तरह ऐसा विचार ख्यालमें आता है । परन्तु यहाँ पर उत्कर्षणका ही अत्यन्त अभाव होनेसे प्रकृत विचारका अवसर हो नहीं है यह यहाँ इस सूत्रका अर्थके साथ सद्भाव है। अब इसी अर्थको स्पष्टकरनेके लिये आगेके सूत्रका निर्देश करते हैं___ * खेद है ! कि कृष्टिकारक और कृष्टिवेदक स्थिति और अनुभागका उत्कर्षण नहीं करता।
6 १६९ 'हंदि' यह जानो और निश्चय करो कि कृष्टिकारक और कृष्टिवेदक स्थिति और अनुभागका उत्कर्षण करके उन्हें ऊपर नहीं संक्रमित करता है।
शंका-यह नियम क्यों है ?
समाधान---क्योंकि यहाँसम्बन्धी क्षषक परिणामोंके [उत्कर्षणको अत्यन्त विरुद्ध स्वभावरूपसे अवस्थानका नियम देखा जाता है। परन्तु जो कृष्टिकर्माशिकसे भिन्न जीव है उसके इस
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७०
[चारित्तक्खवणा
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे तस्थ एसो अत्यविचारो पयदि तत्थुक्कड्डणाए पडिसेहाभावादो। सो च पुव्वमेव सुविचारिदो त्ति पदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तमाह
___* जो किट्टो कम्मंसिगवदिरित्तो जीवो तस्स एसो अत्थो पुष्वं परूविदो
$ १७० गयत्थमेदं सुत्तं; ओवट्टणचरिममूलगाहासंबंधेणेदस्स अस्थस्स पुव्वमेव सुविचारिदत्तादो। जइ एवं एसा गाहा गाढवेयव्वा एदम्मि विसये असंभवदोसदुसियत्तादो ति णासंका कायव्वा; तदसंभवस्सेव फुडीकरणट्टमेंदिस्से गाहाए अवयारस्स माफल्लदंमणादो। तम्हा ओकड्डणसंबंधेणुक्कड्डणाए वि संभवासंभवणिण्णयविहाणट्ठमेसा गाहा समोइण्णा ति ण किंचि विप्पडिसिद्ध।
प्रकारके अर्थका विचार प्रवृत्त होता है, क्योंकि उस जोवके उत्कर्षण होने का निषेध नहीं है। और उसका पहले ही अच्छी तरहसे विचार कर आये हैं। इसप्रकार इस अर्थका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* जो कृष्टिकर्माशिकसे अतिरिक्त जीव है उसके इस अर्थका पहले ही कथन कर आये हैं।
६ १७० यह सूत्र गतार्थ है, क्योंकि अपवर्तनासम्बन्धी अन्तिम मूल गाथाके सम्बन्धसे इस अर्थका पहलेही अच्छी तरह विचार कर आये हैं ।
शंका-यदि ऐसा है तो यह गाथा आरम्भ नहीं की जानी चाहिये, क्योंकि इस विषयमें यह गाथा असम्भव दोषसे दूषित हो जाती है ?
समाधान--ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये क्योंकि उत्कर्षण प्रकृतमें असम्भव है, उसको स्पष्ट करने के लिये हो इम गाथाके अवतारको सफलता देखी जाती है। इसलिये अपकर्षणके सम्बन्धसे उत्कर्षणके भी सम्भव होने और सम्भव न होनेरूप निर्णयका विधान करने के लिये यह गाथा अवतीर्ण हुई है, इसलिये प्रकृतमें कुछ भी निषेधयोग्य नहीं है।
विशेषार्थ-पहले मूल गाथा १११ (१६४) में यह स्पष्ट कर आये हैं कि अनिवृत्तिकरणमें जब यह जीव अनुभागकी अपेक्षा चारों संज्वलनोंकी कृष्टियोंकी रचना करता है और जब इनका वेदन करता है तब उन दोनों अवस्थाओंमें इसके अपकर्षण ही होता है, उत्कर्षण नहीं होता। ऐसी अवस्थामें प्रकृतमें 'उकाड्डदि जे अंसे' यह गाथा नहीं कहो जानी थी, क्योंकि कृष्टियोंके वेदन कालके समय इस गाथामें प्रतिपादित विषयका प्रकृतमें कोई प्रयोजन नहीं देखा जाता। यह एक शंका है, इसका समाधान करते हुए बतलाया है कि प्रकतमें इस गाथामें प्रतिपादित विषयको सम्भावना है या नहीं, इस बातको स्पष्ट करनेके लिये यहां इस गाथाका अवतार हआ है। और निष्कर्ष यह बातलाया गया है कि इस गाथामें प्रतिपादित विषयका प्रकृतमें कोई प्रयोजन नहीं है।
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मा० २२२-२२३]
७१
$ १७१ एवमेदिस्से चउत्थभासगाहाए अत्यविहा सण मुवसंहरिय संपहि जहावसरपत्ता पंचमीए भासगाहाए अत्थविहासणं कुणमाणो तदवसरकरणङ्कमिदमाह -- * एतो पंचमी भासगाहा ।
$ १७२ सुगमं ।
* (१७०) बंधो व संकमो वा उदयो वा तह पदे अभागे । बहुगं ते थोवं जे जहेव पुत्वं तहेवेहिं ॥२२३॥
$ १७३ एसा पंचमी भासगाहा किट्टीवेदगस्स खवगस्स पदेसाणुभागविसयबंधोदयसंकमाणं समयं पडि पवृत्तिविसेसस्स सत्याणप्पा बहुअ विहिणा परूवणडुमोइण्णा । तत्कथमिति चेत् १ इदमेव विवृण्महे -- 'बंधो व संकमो वा' एवं भणिदे बंधसंकमोदया पदेसाणुभागविसया समयं पडि कथं पयट्टंति, किं ताव पदेसविसये असंखेज्जगुणवड्डी-हाणिसरूवेण अण्णा वा पयट्टंति, अणुभागविसये वि किमणंतगुणaritra aorat aा त्ति गाहापुञ्वद्ध सुत्तत्थ संबंधो । संपहि एवं पुच्छिदत्थविसये णिच्छयजणणङ्कं गाहापच्छद्धो समोइण्णो 'बहुअं ते थोवं ते' इच्चादि । बहुत्वे वा
$ १७१ इस प्रकार इस चौथो भाष्यगाथाके अर्थकी विभाषाका उपसंहार करके अब यथावसर प्राप्त पांचवीं भाष्यगाथाके अर्थकी विभाषा करते हुए उसका अवसर [प्रारम्भ ] करनेके लिये इस सूत्र को प्रारम्भ करते हैं
* इससे आगे पाँचवीं भाष्यगाथा आई है ।
$ १७२ यह सूत्र सुगम है ।
* (१७०) कृष्टिवेदक के प्रदेश और अनुभागविषयक बन्ध, संक्रम और उदय इनका बहुत्व या स्तोकत्व जिसप्रकार पहले अर्थात् संक्रामक प्रस्थापकके कहा है उसी प्रकार इस समय कहना चाहिये ।। २२३ ।।
$ १७३ यह पाँचवीं भाष्यगाथा कृष्टिवेदक क्षपकके प्रदेश और अनुभागविषयक बन्ध, उदय और संक्रमसम्बन्धी प्रवृत्तिविशेषको प्रतिसमय स्वस्थान अल्पबहुत्वविधिसे प्ररूपणा करने के लिये आई है।
शंका- वह कैसे ?
समाधान – आगे इसका विवरण प्रस्तुत करते हैं - 'बंधी व संकमो वा' ऐसा कहने पर प्रदेश और अनुभागविषयक बन्ध, संक्रम और उदय प्रतिसमय किस प्रकार प्रवृत्त होते हैं, क्या प्रदेशोंके विषयमें असंख्यात गुणवृद्धिरूपसे प्रवृत्त होते हैं या असंख्यात गुणहानिरूपसे प्रवृत्त होते हैं या अन्यथा प्रवृत्त होते हैं ? अनुभागके विषय में भी क्या अनन्तगुणहानिरूपसे प्रवृत्त होते हैं या अनन्तगुणवृद्धिरूप से प्रवृत्त होते हैं या अन्यथा प्रवृत्त होते हैं । इस प्रकार गाथा के पूर्वार्ध में सूत्रका
१. तहेवेहि आ० ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चारित्तस्सवमा स्तोकत्वे वा निर्ये यथापूर्व तथैवेदानीमपि बंघोदयसंक्रमाः प्रदेशानुभागविषयाः प्रतिपत्तव्या इत्युक्तं भवति ।
६१७४ एदस्स भावत्थो-किट्टीकरणादो पुवावस्थाए जहा संकामणपट्ठवगचउत्थमूलगाहमस्सियूण तीहिं भासगाहाहिं पदेसाणुमागविसयाणं बंधोदयसंकमाणं सत्थाणविसेसिदं थोवबहुत्तमणुमग्गिदं तहेव एहि पि अणुमगियध्वं, ण एल्थ कोवि विसेससंभवो अस्थि त्ति वृत्तं होइ। संपहि एदस्सेव मुत्तस्थरस फुडीकरणद्वमुवरिमं विहासागंथमाढवेइ
* विहासा। ६ १७५ सुगमं । * तं जहा। ६ १७६ सुगमं ।
8 संकमगे च चत्तारि मलगाहाओ, तत्थ जा चउत्थी मूलगाहा, तिस्से तिणि भासगाहाम्रो तासिं जो अत्थो सो इमिस्से वि पंचमीए गाहाए अत्थो कायव्वो।
अर्थके साथ सम्बन्ध है। अब इसी प्रकार पूछे गये अर्थके विषयमें निश्चयको उत्पन्न करमोक्के लिये गाथाका उत्तरार्ध अवतीर्ण हुआ है-'बहुअं ते थोवं ते' इत्यादि । बहुलका या स्तोकत्वका निर्धारण करने पर जिस प्रकार पहले प्रदेश और अनुभागविषयक बन्ध, उदय और संक्रमका कथन कर आये हैं उसी प्रकार यहाँ जानना चाहिये, यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
६१७४ इसका भावार्थ-कृष्टिकरणसे पहलेको अवस्थामें जिसप्रकार संक्रामण प्रस्थापकके चौथी मूलगाथा (९४-१४७) का आश्रयकर तीन भाष्यगाथाओंके द्वारा प्रदेश और अनुभागविषमक बन्ध, उदय और संक्रमका स्वस्थान विशेषतासे युक्त अर्थात् स्वस्थान-सम्बन्धी अल्मबहुतका अनुमार्गण किया उसी प्रकार इस समय भी अनुमार्गण कर लेना चाहिये। यहां पर उक्त स्थानसे कोई विशेष सम्भव नहीं है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब इसी सूत्रके स्पष्टोकरणके लिये विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं
* अब इस भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं। ६ १७५ यह सूत्र सुगम है। * वह जैसे। ६ १७६ यह सूत्र सुगम है।
* संक्रामक प्रस्थापकके विषयमें चार मूल गाथायें हैं। उनमें जो चौथी मूलगाथा है उसकी तीन भाष्यगाथायें हैं । उनका जो अर्थ है वह इस पाँचवीं गाथाका भी अर्थ करना चाहिये।
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गा० २२३ ]
६ १७७ एदस्स सुत्तस्सत्थो-- 'बंधो व संकमो वा उदओ वा किं सगे सगे ट्ठाणे' एसा संकमणपट्ठवगस्स चउत्थी मूलगाहा । एदिग्से तिण्णि भासगाहाओ । ताओ कदमाओ त्ति वुत्ते 'बंधोदयेहिं णियमा' एसा पढमा भास गाहा, 'गुणसेढिअसंखेज्जा च पदेसग्गेण' एसा बिदियमासगाहा, 'गुणदो अणंतगुणहीणं वेदयदे' एमा तदियभामगाहा । एवमेदामि तिण्हं भामगाहाणं संकामगे जो अत्थो पुव्वं परूविदो सो चेव णिरवसेसो इमिस्से पंचमीए भासगाहाए अत्थो कागयो। जहा जत्थ अणभागं पदेसग्गं च समस्सियण बंधोदयसंकमाणमप्पाबहुअं भणिदं, तहा चेव एत्थ वि णिरवयवं वत्तव्यमिदि वृत्तं होइ । तदो पंचमीए मासगाहाए अत्थ वेहासा समत्ता ।
६ ११७ अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-'बंधो व संकमो वा उदओ वा किं सगे सगे टाणे । (९४-१४७) या संक्रमण प्रस्थापकको चौथी मलगाथा है। इसको तोन भाष्यगाथाएँ हैं। वे कौन हैं ? ऐसा कहने पर 'बंधोदयेहिं णियमा ( ९५-१४८ ) या प्रथम भाष्यगाथा है; 'गणसेढि असंखेज्जा च पदेसग्गेण' यह दूसरी भाष्यगाथा है तथा 'गुणदो अणंतगुणहीणं वे दयदे' यह तीसरी भाष्यगाथा है। इस प्रकार इन तीनों भाष्यगाथाओंका सक्रमकास्थापकके विषयमं जो अथं पहले प्ररूपितकर आये हैं वही पूरा इस पांचवीं भाष्यगाथाका अर्थ करना चाहिये । तथा जिस प्रकार अनुभाग और प्रदेशपुंजका आश्रय करके बन्ध, उदय और संक्रमका अल्पबहुत्व कहा है उसी प्रकार यहाँ पर भी भेदके बिना कहना चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है। तत्पश्चात् पाँचवीं भाष्यगाथाको अर्थसम्बन्धी विभाषा समाप्त हुई।
विशेषार्थ-संक्रामक प्रस्थापकके बन्ध, संक्रम और उदय अपने-अपने स्थानमें अनन्तरअनन्तर कालको अपेक्षा क्या अधिक हैं, होन हैं या समान हैं ? यह मूल गाथा ( ९४.१४७ ) में जाननेकी पृच्छा की गई है। आगे इन तीन भाष्यगाथाओं द्वारा उक्त पृच्छाका समाधान किया गया है। इसका समाधान करते हुए प्रथम भाष्यगाथा ( ९५-१४८ ) में बतलाया है कि संक्रामकप्रस्थापकके प्रथम समय में जो अनुभागबन्ध होता है तदनन्तर समयमें वह अनन्तगुणाहीन होता है। इसी प्रकार प्रतिसमय जानना चाहिये । उदयके विषयमें भी इसी प्रकार जानना चाहिये । संक्रमके विषयमें यह व्यवस्था है कि जितने कालमें एक अनुभागकाण्डकका उत्कीरण करता है तब-तक वह उतने उतने ही अनुभागका संक्रम करता है। उसके बाद अन्य अनुभागकाण्डकका प्रारम्भ करने पर उसके काल तक उसे भी प्रतिसमय समानरूपसे अनन्तगुणेहोन-अनन्तगुणेहीन अनुभागका संक्रम करता है। आगे दूसरी भाष्यगाथा ( ९६-१४९ ) में बतलाया है कि प्रथम समयमें जितना प्रदेश उदय होता है, उससे दूसरे समय में असंख्यातगुणे प्रदेशोंका उदय होता है। इसीप्रकार आगे-आगे के समयोंमें जानना चाहिये । प्रदेश-उदयके समान संक्रमकी भी प्ररूपणा जाननी चाहिये । प्रदेश बन्धक विषयमें यह नियम है कि वह चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थानरूपसे भजनीय. है। तीसरी भाष्यगाथा ( ९७-१५० ) में जो बात कहो गई है वह प्रथम भाष्यगाथामें ही प्ररूपित की जा चुकी है. इसलिये उस सम्बन्धमें कोई विशेष व्याख्यान नहीं है। संक्रामकप्रस्थापककी अपेक्षा यह जितना भो कथन है वह सब कृष्टियोंको क्षपणामें प्रवृत्त हुए जोवके भो जानना चाहिये, यह इस पांची भाष्यगाथाका समुच्चयरूप अर्थ है ।
१०
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७४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[चरित्तक्खवणा ६१७८ संपहि जहावसरपत्ताए छटुभासगाहाए' अत्थविहासणमिदमाह* एत्तो छट्ठी भासगाहा । ६ १७९ सुगमं । ॐ (१७१) जो कम्मंसो पविसदि पोगसा तेण णियमसा अहियो ।
पविसदि ठिदिक्खएण दु गुणेण गणणादियंतेण ॥ २२४ ॥ १८० एसा छट्ठभासगाहा एदस्स किट्टीवेदगखवगस्स पदेसुदीरणादो पदेसोदयस्स असंखेज्जगुणत्तं णियमपदुप्पायणट्ठमोइण्णा । तं जहा—'जो कम्मंसो पविसदि' जं खलु कम्मपदेसग्गमुदयं पविसदि । कधं पविमदि त्ति वुत्ते ‘पयोगसा' पओगवसेण परिणामविसेसकारणेणुदीरिज्जदि त्ति वुत्तं होइ। 'तेण णियमसा अधिगो' तत्तो णिच्छयेणेव बहुवयरो होदि। को सो पविसदि ? द्विदिक्खयेण दु' डिदिक्खएण कम्मोदयेण पविसमाणो पदेसपिंडो त्ति भणिदं होदि । सो वण केण' गुणगारेण अहिओ त्ति पुच्छिदे 'गुणेण गणणादियतेण' असंखेज्जगुणब्भहिओ होदि त्ति वुत्तं होदि । एदस्स भावत्थो-अंतरकरणादो हेट्ठा चेव असंखेज्जाणं समयपवद्धाण
६ १७८ अब यथावसर प्राप्त छठी भाष्यगाथाके अर्थकी विभाषा करनेके लिये यह सूत्र कहते हैं
* इससे आगे छठी भाष्यगाथा है । ६ १७९ यह सूत्र सुगम है।
* १७९ जो कर्मपुंज प्रयोगवश उदीरणाद्वारा उदयमें प्रविष्ट होता है उससे स्थितिक्षयद्वारा उदयमें प्रविष्ट होनेवाला कर्मपुज नियमसे असंख्यातगुणा होता है ।। २२४ ॥
६ १८० यह छठी भाष्यगाथा, इस कृष्टिवेदक क्षपकके प्रदेशों को उदीरणासे प्रदेशोंका उदय असंख्यातगुणा होता है, इस नियमके प्रतिपादनके लिये अवतीर्ण हुई है। वह जैसे-~~'जो कम्मंसो पविसदि, जो कर्मप्रदेशपुंज नियमसे उदयमें प्रवेश करता है । कैसे प्रवेश करता है ? ऐसा कहने पर 'पओगसा' प्रयोगवश अर्थात् परिणामविशेषके कारणसे उदीरित होता है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । 'तेण णियमसा अधिगो' उसको अपेक्षा निश्चयसे हो अधिकतर होता है।
शका--वह कौन प्रवेश करता है जो अधिकतर होता है ?
समाधान--'टिदिक्खयेण दु' जो स्थिति-क्षयसे अर्थात् कर्मके उदयसे प्रविष्ट होने वाला प्रदेशपिण्ड है वह अधिक होता है।
शंका--परन्तु वह किस गुणकार से गुणा करने पर अधिक होता है ?
समाधान-ऐसा पूछने पर कहते हैं-'गुणेण गणणादियंतेण' अर्थात् असंख्यातसे गुणा १. छहभासगाहाए आ० ।
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गा० २२४ ] मुदीरणमाढविय पवेसेमाणो जं पदेसग्गमुदीरणासरूवेण समयं पडि पवेसेदि तं पेक्खियण जं द्विदिक्खयेणुदयं पविसदि गुणसेढिसरूवेण रचिददव्वं तं णियमा असंखेज्जगुणमेव दट्टव्वं, गुणसेढिमाहप्पेण तत्थ तहाभावसिद्धीए णिप्पडिबंधमुवलंभादो ति । संपहि इममेव अत्थविसेसं फुडीकरेमाणो विहासागंथमुवरिममाढवेइ ।
* विहासा। ७ १८१ सुगमं ।
* जत्तो पाए असंखेज्जाणं समयपबद्धाणमुदीरगो तत्तो पाए जमुदीरिज्जदि पदेसग्गं तं थोवं ।
६ १८२ सुगमं । 8 जमघटिदिगं पविसदि तमसंखेज्जगुणं ।
६ १८३ गयत्थमेदं पि सुत्तं । संपहि ण केवलमेदम्मियेव विसये उदीरिजमाणदव्वादो अधढिदिगलणेण उदयं पविसमाणदबमसंखेज्जगुणं; किंतु हेट्ठा वि सव्वत्थ असंखेज्जलोगपडिभागेणुदीरिज्जमाणदव्वं पेक्खियण कम्मोदयेण पविसमाणगुणसेढिकरने पर अधिक होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इसका भावार्थ-अन्तरकरण प्रारम्भ करनेके पूर्व ही असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणाका आरम्भ करके प्रवेश कराने वाला जिस प्रदेशपुजको उदीरणारूपसे प्रत्येक समयमें उदयमें प्रवेश करता है उसे देखते हुए जो कर्मपुंज स्थितिक्षयसे गुणश्रेणिस्वरूपसे रचा गया द्रव्य उदयमें प्रविष्ट होता है उसे नियमसे असंख्यातगुणा ही जानना चाहिये, क्योंकि गुणश्रेणिके माहात्म्यवश उसके उस प्रकारसे सिद्ध होनेमें कोई प्रतिबन्ध नहीं उपलब्ध होता। अब इसी अर्थविशेषको स्पष्ट करते हुये आगेके विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं
* अब उक्त भाष्यगाथा की विमाषा की जाती है। ६ १८१ यह सूत्र सुगम है।
* जिस स्थान से असंख्यात समयप्रबद्धों का उदीरक होता है उस स्थानसे लेकर जिस प्रवेशपुज की उदीरणा करता है वह प्रदेशज थोड़ा होता है।
६ १८२ यह सूत्र सुगम है।
* उससे जो अधःस्थिति को प्राप्त होकर उदयमें प्रवेश करता है वह असंख्यातगुणा होता है।
६१८३ यह सूत्र भी गतार्थ है। अब इसो स्थानमें उदोरित होनेवाले द्रव्यसे अधःस्थितिगणनाकेद्वारा उदयमें प्रवेश करने वाला द्रव्य मात्र असंख्यातगुणा नहीं होता है, किन्तु इसके पूर्व भी सर्वत्र असंख्यात लोकप्रमाण प्रतिभागके अनुसार उदीरणाको प्राप्त होनेवाले द्रव्यको देख
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१. कमेण आ० । २. मेदम्मि विसये आ०।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[चारित्तक्खवणा गोवुच्छदव्वमियरगोवुच्छदव्वं वा असंखेज्जगुणमेव होइ; परिप्फुडमेव तत्थ नहामावोवलंभादो । एवं च समुवलब्भमाणे किं कारणमेत्येव विसेसियण उदीरणादव्वादो उदयं पविसमाणदव्वस्सासंखेज्जगुणतपरूवणमाढविज्जदि त्ति आसंकाए गिरारेगीकरणट्ठमत्तरसुत्तमोइण्णं
* असंखेज्जलोगभागे उदीरणा अणुत्तसिद्धी।।
६१८४ एतदुक्तं भवति-जम्मि विसये उदीरिज्जमाणदव्वमृदयं पविसमाणदव्वं च असंखेज्जसमयपबद्ध मेत्तं चेव होइ, तत्थ किं थोवं, किं वा बहुगमिदि जाणावणटुं थोवन हुत्तारूवणं कायन्वं, अण्णहा तविसयविसेसणिण्णयाणुप्पत्तीदो। हेट्ठा पुण असंखेज्जलोगपडिभागेण उदीरिज्जमाणदव्वादो कम्मोदएण उदयं पविसमाणदवास्वायंखेज्जगु गत्तमविप्पडिवत्तिसिद्धं, तत्थ मंदबुद्धीणं पि संदेहाभावादो । तम्हा असंखेज्जलोगपडिभागेण उदीरिज्जमाणदव्वादो जा उदीरणा मा अणुत्तसिद्धा त्ति ण तचिसयं परूवणंतरमाढवेयवमिदि । अत्रेदमाशंक्यते-बिदियद्विदीदो णिरुद्धसंगहकिट्टीए पदेसग्गमोकड्डियूण पढमट्ठिदिं करेमाणो उदयढिदिमादि कादण जाव
कर कर्मोदयसे प्रवेश करनेवाला गुणश्रेणिसम्बन्धो गोपुच्छा-द्रव्य तथा इतर गोपुच्छा-द्रव्य असं. ख्यातगणा ही होता है, क्योंकि वहाँ पर स्पष्टरूपसे उस प्रकारके द्रव्यकी उपलब्धि होती है । और इस प्रकारसे उपलब्धि होनेपर इसका क्या कारण है कि इसी स्थान पर ही विशेषरूपसे उदीरणाद्रव्यसे उदयमें प्रविष्ट होने वाला द्रव्य असंख्यातगुणा होता है ऐसी प्ररूपणाको यहाँ आरम्भ किया जा रहा है ऐसी आशंका होनेपर निःशंक करनेके लिए आगेका सूत्र अवतीर्ण हुआ है
* उक्त स्थान से पूर्व मी असंख्यात लोक के प्रतिभागसे उदीरणा होती है, यह अनुक्त सिद्ध है।
१८४ इसका यह तात्पर्य है कि जिस स्थानमें उदोर्यमाण द्रव्य और उदयमें प्रवेश करनेदव्य असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण होता है वहाँ क्या वह अल्प है और क्या बहत है ? इस बातका ज्ञान करानेके लिये अल्पबहुत्वको प्ररूपणा करनी चाहिये, अन्यथा तद्विषयक विशेषका अर्थात् इन दोनों में क्या अन्तर है इस बातका निर्णय नहीं हो पाता। परन्तु इसके पूर्व असंख्यात लोकके प्रतिभागके अनुसार उदोर्यमाण द्रव्यसे कर्मोदयद्वारा उदयमें प्रवेश करनेवाला द्रव्य असंख्यातगुणा होला है यह बिना विवादके सिद्ध है, क्योंकि उसमें मन्दबुद्धि जीवोंको भी सन्देह नहीं होता, इसलिये असंख्यात लोकके प्रतिभागके अनुसार उदीर्यमाण द्रव्यमेंसे जो उदीरणा होती है वह अनुक्तसिद्ध है, इसलिये तद्विषयक दूसरी प्ररूपणाके आरम्भ करनेको आवश्यकता नहीं है ।
शंका--यहाँ पर कोई ऐसी आशंका करता है कि द्वितीय स्थितिमेंसे विवक्षित संग्रह कृष्टिके लिये प्रदेशपुजका अपकर्षण करके प्रथम स्थितिको करनेवाला क्षपक उसे उदयस्थितिसे लेकर प्रथम स्थितिकी अन्तिम स्थिति तक असंख्यात श्रेणिरूपसे निक्षिप्त करता है । अब प्रथम समयमें गुणश्रेणिरूपसे निक्षिप्त किए गए प्रदेशपिण्डसे दूसरे समयमें अपकर्षण करके गुणश्रेणीरूपसे निक्षिप्त किया
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गा० २२४ ]
पढमदिए चरिमदि ति ताव असंखेज्जसेढिसरूवेण णिक्खिवदि । संपहि पढमसमयम गुणसेढिसरूवेण णित्ति पदेसपिंडादो विदियसमयम्मि ओकड्डियूण गुणसेढिसरूवेण णिसिंचमाणपदेसपिंडो असंखेज्जगुणो भवदि परिणामपाहम्मादो | तेण चिदियसमये उदयादो तम्मि चेव समए उदीरणादव्वमसंखेज्जगुणं किं ण होदिति एवं भणिदे ण होदि । किं कारणं, पढमसमयम्मि उदयट्ठिदीदो अणंतरोवरमट्टिदिविसेसम्म णिसित्तपदेस पिंडादो विदियसमये तम्मि चेव ट्ठिदिविसेसे उदीरणासरूवेण णिवदमाणपदे सपिंडमसंखेज्जदिभागमेत्तं होदि । एदं पुण असंखेज्जदिभागमेत्तदव्वं पढमसमये उदयम्मि पदिदपदेसग्गादो असंखेज्जगुणं भवदि । तेण कारणेण उदीरणासवेण विदमाणपदेसपिंडादो ट्ठिदिक्खयेण पविसमाणपदेसपिंडो सव्वत्थासंखेज्जगुणो चेव होदि ति णिच्छओ कायव्वो । संपहि एदेण विहाणेण पढमसमयम्मि णिसित्तपदेस - पिंडस्वरि विदियसमयम्मि णिसिंचमाणपदेसग्गं द्विदिं पडि असंखेज्ज्जदिभागमेत्तं चैव जदि भवदि तो गुणसेढिपदे सग्गमसंखेज्जगुणं कथं होदि ति भणिदे बुच्चदे - विदियसमयम्मि असंखेज्जगुणकमेण गुणसेटिं करेमाणस्स पढमट्ठिदीए चरिमट्ठिदीदो तदणंतर रिट्टिी संपहि गुणसेढीए चरिमा भवदि । तिस्से ट्ठिदीए पदेसविंडो पढमसम - मि कदगुणसेचिरिमपदेसग्गादो असंखेज्जगुणो भवदि । एस विधी जत्थ अवदिगुढीणिक्खेव तत्थ दट्ठव्वो ।
जानेवाला प्रदेशपिण्ड परिणामोंके माहात्म्यवश असंख्यातगुणा होता है। इस कारण दूसरे समय में उदयसे उसी समयमें उदीरणाको प्राप्त हुआ द्रव्य असंख्यातगुणा क्यों नहीं होता ?
समाधान -- ऐसे कहनेपर असंख्यातगुणा नहीं होता है,
क्योंकि प्रथम समय में उदयस्थितिसे अनन्तर उपरिम स्थितिविशेषमें निक्षिप्त हुए प्रदेशपिण्डसे दूसरे समय में उसी स्थितिविशेषमें उदीरणारूपसे निक्षिप्त होनेवाला प्रदेशपिण्ड असंख्यातवें भागप्रमाण होता है । परन्तु यह असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्य प्रथम समय में उदय में प्राप्त हुए प्रदेशपु जसे असंख्यातगुणा होता है। इसकारण उदीरणारूप से निक्षिप्त होनेवाले प्रदेशपिण्डसे स्थितिक्षयसे प्रवेश करनेवाला प्रदेशपिण्ड सर्वत्र असंख्यातगुणा ही होता है ऐसा निश्चय करना चाहिये ।
शंका - अब इस विधि से प्रथम समय में निक्षिप्त हुए प्रदेशपिण्डके ऊपर दूसरे समय में निक्षिप्त किया जाने वाला प्रदेशपुंज प्रत्येक स्थितिके प्रति असंख्यातवेंभाग प्रमाण हो यदि होता है तो गुणश्रेणि प्रदेश' असंख्यातगुणा कैसे होता है ?
समाधान - ऐसी आशंका होनेपर कहते हैं—दूसरे समय में असंख्यातगुणक्रमसे गुणश्रेणि करनेवाले जीवके प्रथम स्थितिकी अन्तिम स्थितिसे तदनन्तर उपरिम स्थिति वर्तमान गुणश्रेणिमें अन्तिम होती है । उस स्थितिका प्रदेशपिण्ड प्रथम समयमें की गई गुणश्रेणिके अन्तिम प्रदेशपु जसे असंख्यातगुणा होता है । यह विधि, जहाँ अवस्थित गुणश्रेणिनिक्षेप होता है, वहां जानना चाहिये ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चारित्तक्खवणा १८५ एत्थ पुण गलिदसेमो चेव गुणसेढिणिक्खेत्रो, तेणुवरिमद्विदिम्मि णिसिच्चमाणामखेज्णगुणपदेसग्गं पुविल्लगुणसेढिमीसगे चव णिक्खिवदि । उवरिमद्विदीए पुण ण भवदि, अंतरं चैव तत्थ भवदि । अथपबोधण?मेव उवरिमट्ठिदिपदेसग्गमिदि भणिदं । एवं चेव समयं पडि गुणसेढिविण्णासकमो अणुगंतव्यो । तदो सिद्धं उदीरिज्जमाणपदेसग्गादो कम्मोदएण पविसमाणदव्यमसंखेज्जगुणमेव, णाण्णारिसमिदि ।
१८६ एवमेत्तिएण पबंधेण छट्ठ भासगाहाए अत्थविहासणं समाणिय संपहि जहावसरपत्ताए सत्तमीए भासगाहाए अत्थविहासणट्टमुवरिमो सुत्तपबंधो ।
के एतो सत्तमा भासगाहा ।
६ १८५ परन्तु यहाँ पर गलितशेष हो गुणश्रेणिनिक्षेप है, इस कारण उपरिम स्थितिमें सींचे जाने वाले असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको पहलेके गुणश्रेणोशीर्ष में ही निक्षिप्त करता है । परन्तु उपरिम स्थितिमें वह नहीं पाया जाता, क्योंकि उस स्थितिमें अन्तर ही होता है । यहाँ पर अर्थका ज्ञान करानेकेलिए ही 'उवरिमट्टिदिपदेसग्गं' यह कहा है। इसी प्रकार प्रत्येक समयमें गुणश्रोणि की रचनाका क्रम जान लेना चाहिये । इस कारण सिद्ध हुआ कि उदीरित होने वाले प्रदेशपूजसे कर्मके उदयसे उदयमें प्रवेश करनेवाला द्रव्य असंख्यातगुणा ही होता है, अन्य प्रकारका नहीं होता।
। अब यहाँ यह
गा गया है।
असं कर्षण
विशेषार्थ-पूर्व में अन्तरकरण-क्रिया सम्पन्न करनेके पहले यह बतला आये हैं कि यह क्षपक जीव असंख्यात समयप्रबद्धोंका उदीरणाद्वारा क्षपणा करता है। अब यहाँ यह सब ऐसे जीवके उदय कितने समय प्रबद्धों का होता है ? इसी प्रश्न का उत्तर इस गाथा द्वारा दिया गया इस सूत्रगाथा में बतलाया है कि जितने द्रव्य की यह जोव उदीरणाद्वारा क्षपणा करता है उनसे भी
द्रव्यका इस जीवके उदय होता है, क्योंकि इस जीवके प्रतिसमय जितने द्रव्यका अप
उसमें असंख्यातलोकका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आता है उससे उदयमें आनेवाला द्रव्य असंख्यातगुणा होता है, क्योंकि इसमें गुणश्रेणिका द्रव्य भी है और अन्य द्रव्य भी है, ऐसा यहाँ जानना चाहिये। यहाँ प्रत्येक समयमें उदोरणा-द्रव्यसे उदय-द्रव्य असंख्यातगुणा कैसे होता है ? इसके कारणका निर्देश करते हुए वहाँ बतलाया है कि प्रथम समयमें जो उदयस्थिति होती है उससे अनन्तर उपरिम समय में जो प्रदेशपुंज निक्षिप्त हुए उस प्रदेशजसे उसी दूसरे समयमें उसी स्थितिविशेषमें उदीरणा होकर जो प्रदेशज निक्षिप्त होता है वह असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है, इसीलिये यहाँ उदयस्थिति में प्राप्त हुये : देशपुंजको उदोरणाकेद्वारा प्राप्त हुये प्रदेशपुजसे असंख्यातगुणा बतलाया है।
११८६ इस प्रकार इतने प्रबन्धद्वारा छठी भाष्यगाथाके अर्थकी विभाषा समाप्तकर अब यथावसरप्राप्त सातवीं भाष्यगाथाके अर्थकी विभाषा करनेकेलिये आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है
* इससे आगे सातवीं भाष्यगाथाका कथन करते हैं ।
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गा० २२५]
७९
१८७ सगमं। * तं जहा।
१८८ सुगम। * (१७२) प्राविलयं च पविट्ठ पश्रोगसा णियमसा च उदयादी ।
उदयादि पदेसग्गं गुणेण गणणादियंतेण ॥२२५।। $ १८९ पुन्विल्लभासगाहाए उदये दिस्समाणदिज्जमाणपदेसग्गाणं सण्णियासविही भणिदो। एदीए पुण उदयावलियपविट्ठस्स पदेसग्गस्स उदयादिहिदीसु एदेण सरूवेण समवट्ठाणं होदि त्ति एवंविहो अत्थविसेसो णिहिट्ठो, परिप्फुडमेवेत्थ तहाविहत्थणिद्दे सदसणादो । ण च मूलगाहाए एवंविहो अत्थणिद्दे सो ण पडिबद्धो त्ति आसंकणिज्जं; देसामासयभावेण तत्थेवंविहत्थस्स पडिबद्धत्तब्भुवगमादो। तत्थ णिहिट्ठोदीरणसंबंधेण पयदत्थविहासणाए विरोहाभावादो च । ____$ १९० संपहि एदिस्से भासगाहाए किंचि अवयवत्थपरामरसं कस्सामो । तं जहा–'उदयादि' उदयविसेसणा जा आवलिया उदयावलिया त्ति वत्तं होदि । तं पविटुं जं पदेसग्गं पयोगसा पयोगवसेण ओकड्डणापरिणामवसेणे त्ति वुत्तं होदि ! 'णियमसा' णिच्छयेणेव 'उदयादि पदेसग्गं' उदयादो पहुडि तं पदेसग्गं 'गुणेण गणणादि
६ १८७ यह सूत्र सुगम है । * वह जैसे। ६१८८ यह सूत्र सुगम है।
* (१७२) अपकर्षणके कारणभूत परिणामोंके वशसे उदयावलिमें जो प्रदेशपुज प्रविष्ट होता है वह प्रदेशज उदयसमयसे लेकर उदयावलिके अन्तिम समयतक नियमसे असंख्यातगुणा होता है ।। २२५ ॥
६ १८९ पहलों भाष्यगाथाके द्वारा उदयमें दिखनेवाले और दिये जानेवाले प्रदेशपुजकी सन्निकर्षविधि कही। परन्तु इस गाथाद्वारा उदयावलिमें प्रविष्ट हुए प्रदेशपुंजका उदयसे लेकर स्थितियोंमें इसरूपसे अवस्थान होता है, इसप्रकार ऐसा अर्थविशेष यहां कहा गया है क्योंकि उक्त भाष्यगाथामें स्पष्टरूपसे उस प्रकारके अर्थका निर्देश देखा जाता है । मूलगाथामें इस प्रकारका अर्थविशेष प्रतिबद्ध नहीं है ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है क्योंकि देशामर्षकरूपसे उक्त गाथामें इस प्रकारका अर्थ प्रतिबद्ध है यह स्वीकार किया गया है तथा उक्त गाथामें निर्दिष्टकी गई उदीरणाके सम्बन्धसे प्रकृत अर्थकी विभाषा ( विशेष व्याख्यान ) करनेमें विरोधका अभाव है।
६ १९० अब इस भाष्यगाथाके अवयवोंके अर्थका किंचित परामर्श करेंगे । वह जैसे-उदयसे लेकर उदयरूप विशेषणसे युक्त जो आवलि है उसे उदयावलि कहते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य । है उसमें जो प्रदेशपुंज 'पयोगसा' प्रयोगवश अर्थात् अपकर्षणरूप परिणाम विशेषके वश प्रविष्ट हुए
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जयधवलास हिदे कसाय पाहुडे
[ चारित्तक्खवणा
यंतेण' असंखेज्जगुणाए सेढीए दट्ठव्वं । एतदुक्तं भवति किडीवेदगस्स खवगस्स उदयावलियन्मंतरे जं पदेसग्गमुवलब्भदि तमुदयट्ठिदीए थोवं होतॄण तत्तो जहाकममसंखेज्जगुणाए सेटीए दव्वं जाब चरिमावलियउदयट्टिदि त्ति । किं कारणं ? उदयादि गुणढी ओडियण त्तिस्स तस्स तहाभावसिद्वीए णिप्पडिबंधमुवलंभादो त्ति उदयावलियबाहिरे व जाब गुणसेढीसीमयं ताव असंखेज्जगुणाए सेढीए पदेसग्गमुवलब्भदे | किंतु तत् ण विवयं; उदयावलियपविङ्कं चैव पदेसग्गमहिकिच्च पयदप्पा बहुअपरूवणाए अवयारिदत्तादो। एत्थ गाहापुव्वद्धे दोण्ह च सहाणं पओगो पादपूरणट्ठो दट्ठब्वो, तव्चदिरेगेण तस्स पओजणंतराणुवलंभादो | संपहि एवंविहमेदस्स गाहासुत्तस्स अत्थं विहासेमाणो उवरिमं विहासागंथमाढवे -
* विहासा ।
* तं
$ १९१ सुगमं । जहा ।
$ १९२ सुगमं ।
* जमावलियपविद्धं पदेसग्गं तमुदये थोवं, बिदियट्ठिदीए असंखेज्जगुणं; एवमसंग्वेज्जगुणाए सेढीए जाव सविस्से आवलियाए ।
८०
हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । 'नियमसा' निश्चयसे ही 'उदयादिपदेसग्गं' उदयसे लेकर वह प्रदेश'ज' गुण गणणा दियंतेण' असंख्यातगुणीसे श्रेणिरूपसे जानना चाहिये । इस कथनका यह तात्पर्यं है— कष्टिवेदक क्षपकके उदयावलिके भीतर जो प्रदेशपुंज उपलब्ध होता है वह उदय स्थिति में सबसे थोड़ा होकर वहाँसे आवलिकी अन्तिम उदयस्थितितक यथाक्रम असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे जानना चाहिये, क्योंकि उदयादिगुणश्रेणिमें अपकर्षण करके निक्षिप्त हुए प्रदेशपु का उस प्रकार सिद्धि होनेमें कोई प्रतिबन्ध नहीं पाया जाता । उदयावलि बाहर भी गुणश्रेणिशीर्षतक असंख्यात - गुणी श्रेणिरूपसे प्रदेश पुंज उपलब्ध होता है । किन्तु उसकी यहाँ पर विवक्षा नहीं है क्योंकि उदावलिमें प्रविष्ट हुए प्रदेशपुजको ही अधिकृत कर यहाँ पर प्रकृत अल्पबहुत्वका अवतार हुआ है । यहाँ इस गाथा पूर्वार्ध में दो 'च' शब्दों का प्रयोग पादपूरणके लिये जानना चाहिये क्योंकि उसके सिवाय उन दोनों 'च' शब्दोंका दूसरा प्रयोजन नहीं पाया जाता । अब इस गाथासूत्र के इस प्रकारके अर्थकी विभाषा करते हुए आगे के विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं
* अब इस भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं ।
१९१ यह सूत्र सुगम है ।
* वह जैसे ।
१९२ यह सूत्र सुगम है ।
* जो प्रदेशपुंज उदयावलिमें प्रविष्ट हुआ है वह उदय (स्थिति) में सबसे थोड़ा है । द्वितीय स्थिति में प्रविष्ट हुआ प्रदेशपुंज असंख्यातगुणा है । इस प्रकार उत्तरोत्तर असख्यागुणो श्रेणिरूपसे सम्पूर्ण आवलिमें जानना चाहिगे ।
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८१
गा० २२५ ]
$ १९३ गतार्थत्वान्नात्र किंचिद् व्याख्येयमस्ति । एवमेत्तेण पबंधेण 'जं जं खवेदि किट्टि ० से काले' त्ति एदेसिं मूलगाहाए पदाणमत्थो सत्तहिं भासगाहाहिं forest दट्ठव्वो; तत्थ 'उदीरेदि' त्ति एदेण पदेण द्विदि-अणुभागाणमुदीरणा घेत्तव्वा । 'संछुहदि' ति वि एण पदेण संकमो गहेयव्वो । पुणो 'संछुहदि उदीरेदि' त्ति इमेसिं (-हिं) चेव पदेहिं ओकड्ड ुक्कड्डुणाविहाणमणुभागपदेस मस्तियूण बंधोदय संकमाणमप्पाचहुअं च भणिदमिदि णिच्छेयव्वं ।
$ १९४ संपहि मूलगाहाए 'तासु अण्णासु' त्ति एदेण पच्छिमपदेण सूचिदमणुभागोदविहिं तीहिं उवरिमभास गाहाहिं मणिहिदि । तत्थ ताव अट्ठमीए भासगाहाए अवयारं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
* एतो अट्टमी भासगाहा ।
$ १९५ सुगमं ।
* तं जहा ।
$ १९३ यह सूत्र गतार्थं होनेसे इस विषय में कुछ व्याख्यान करने योग्य नहीं है । इस प्रकार इतने प्रबन्धद्वारा मूलगाथा के 'जं जं खवेदि किट्टि० से काले' इन पदोंका अर्थ सात भाष्यगाथाओंद्वारा निर्दिष्ट किया गया जानना चाहिये क्योंकि वहाँ पर 'उदोरेदि' इस पदद्वारा स्थिति और अनुभागको उदोरणा ग्रहण करनी चाहिये । तथा 'संछुहदि' इस पदद्वारा भी संक्रमको ग्रहण करना चाहिये । पुनः संछुहृदि उदीरेदि' इस प्रकार इन्हीं पदोंद्वारा अपकर्षणविधान और उत्कर्षणविधानका और अनुभाग तथा प्रदेशोंका आश्रय करके बन्ध, उदय और संक्रमका अल्पबहुत्व कहा गया है ऐसा यहाँ निश्चय करना चाहिये ।
विशेषार्थ - इस सातवीं भाष्यगाथामें उदीरणा होकर जो प्रदेशप्रचय संचित होता है वह किस विधि से संचित होता है इस विशेषताका विवरण प्रस्तुत करते हुए बतलाया है कि उपरिम स्थिति में उदयादि गुणश्रेणिमें अपकर्षण द्वारा निक्षिप्त होनेवाला प्रदेशपुंज उदयस्थितिमें सबसे थोड़ा. निक्षिप्त होता है। उससे उपरम स्थिति ( द्वितीय स्थिति ) में उससे असंख्यातगुणा प्रदेशपुंज निक्षिप्त होता है। उससे उपरिम तीसरी स्थिति में दूसरी स्थितिमें निक्षिप्त हुए प्रदेशपुंज से असंख्यातगुणा प्रदेशपुंज निक्षिप्त होता है । इसी क्रमसे उदयावलीके अन्तिम समय तक जानना चाहिये । यद्यपि उदयावलिके बाहर भी गुणश्रेणिशीर्षके प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा श्रेणिरूप से प्रदेशपु ंज उपलब्ध होता है, परन्तु उसकी यहाँ विवक्षा नहीं की है । शेष कथन स्पष्ट ही है ।
$ १९४ अब मूलगाथा के 'तासु अण्णासु' इस अन्तिम पदद्वारा सूचित हुई अनुभाग के उदयकी विधिको अगली तीन भाष्यगाथाओं द्वारा कहेंगे । उनमें से सर्वप्रथम आठवीं भाष्यगाथाका अवतार करते हुए आगे के सूत्रको कहते हैं
* इससे आगे आठवीं भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते है ।
$ १९५ यह सूत्र सुगम है ।
* वह जैसे ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[चारित्तक्खवणा ६ १९६ सुगमं । * (१७३) जा वग्गणा उदीरेदि अणंता तासु संकमदि एक्का।
पुवपविट्ठा णियमा एक्किस्से होंति च अणंता ॥२२६॥ ६ १९७ एसा अट्ठमी भासगाहा णिरुद्धसंगहकिट्टीए वेदिज्जमाणमज्झिमबहुमागकिट्टीमुहेट्ठिमोवरिमासंखेज्जदिभागविसयाणमवेदिज्जमाणकिट्टीणमेदेण विहाणेण परिणमणं होदि ति एदस्म अत्थविसेसस्स णिण्णयविहाणट्ठमोइण्णा । तत्थ ताव गाहापुव्वद्धे उदीरणामस्वेग वेदिज्जमाणासु अणंतासु मज्झिमकिट्टीसु एक्कक्किस्से अणुदीरिज्जमाणहेट्ठिमोवरिमकिट्टीए परिणमणविही णिद्दिट्ठो । जाओ वग्गणाओ उदीरेदि अणंताओ तासु एक्केका अणुदीरिज्जमाणकिट्टी संकमदि त्ति पदसंबंधवसेण तत्थ तहाविहत्थणिद्देसोवलंभादो।
६ १९८ गाहापच्छद्धेण वि एक्कक्किस्से वेदिज्जमाणकिट्टीए सरूवेण अणंताणमवेदिज्जमाणकिट्टीणं ट्ठिदिक्खयेणुदयं पविसमाणाणं परिणमणविही परूविदो त्ति घेत्तव्यो । संपडि एदिस्से गाहाए किंचि अवयवत्थपरूवणं कस्सामो। तं जहा–'जा वग्गणा उदोरेदि' एवं भणिदे जाओ वग्गणाओ उदी दि त्ति एवं विदियाबहुवयणप्पओगे पसत्ते पुणो एत्थ गाहाए छंदो भंगो होदि ति भएण ओकारलोवं कादूण
६ १९६ यह सूत्र सुगम है।
* १७३ यह क्षपक जिन अनन्त वर्गणाओं (कृष्टियों)की उदीरणा करता है उनमें अनुदीर्यमाण एक-एक कृष्टि संक्रमण करती है । तथा पहले जो कृष्टियाँ स्थितिक्षयसे उदयावलिमें प्रविष्ट होकर उदयको नहीं प्राप्त हुई हैं वे अनन्त कृष्टियां एक-एक करके स्थितिक्षयसे वेद्यमान मध्यम कृष्टिरूप होकर परिणमन करती हैं ।। २२६ ॥
६ १९७ यह आठवीं भाष्यगाथा, विवक्षित संग्रह कृष्टिकी वेद्यमान बहुभागप्रमाण मध्यम कृष्टियोंमें अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागको विषय करनेवाली अवेद्यमान कृष्टियोंका इस विधिसे परिणमन होता है, इस प्रकार इस अर्थविशेषका निर्णय करनेकेलिये अवतीर्ण हुई है । यहाँ पर सर्वप्रथम गाथाके पूर्वार्धमें उदीरणारूपसे वेदो जानेवाली अनन्त मध्यम कृष्टियोंमें अनुदीर्यमाण अधस्तन और उपरिम एक-एक कृष्टिके परिणमन करनेकी विधि कही है। जिन अनन्त वर्गणाओं ( कृष्टियों ) की उदीरणा होती है उनमें अनुदीर्यमाण एक-एक कृष्टि संक्रमित होती है, इस प्रकार पदोंके सम्बन्धसे उक्त गाथामें उस प्रकारके अर्थका निर्देश उपलब्ध होता है।
६ १९८ गाथाके उत्तरार्धद्वारा भी एक-एक वेद्यमान कृष्टिरूपसे स्थितिक्षयसे उदयमें प्रवेश करने वाली अनन्त अवेद्यमान कृष्टियोंकी परिणमन करनेकी विधि कही, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । अब इस गाथाके अवयवोंके अर्थकी किंचित् प्ररूपणा करेंगे । यथा-'जा वग्गणा उदीरेदि' जिन वर्गणाओंकी उदीरणा करता है, इस प्रकार द्वितीया विभक्तिके बहुवचनरूप प्रयोगके प्रसक्त
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गा० २२६ ] णिदिटुं, तदो 'जाओ वग्गणाओ उदीरेदि त्ति भणिदे जाओ किट्टीओ उदीरेदि त्ति अत्थो घेतव्योः एदम्मि विसए किट्टीणं चेव वग्गणववएसारिहत्तदंसणादो। ताओ च अणंताओ त्ति जाणावणठं 'अणता' इदि भणिदं । एदं पि विदियाबहुवयणंतमेव घेत्तव्यं ।
६ १९९ 'तासु संकमदि' एक्का' एवं भणिदे तासु उदीरिजमाण किट्टीसु अणंतभेयभिण्णासु एक्केक्का अवेदिज्जमाणकिट्टी हेट्ठिमा उवरिमा वा परिणमदि ति वुत्तं होदि, सगसरूवपरिच्चागेण मज्झिमकिट्टोसरूवपरिणामस्सेव संकमभावेणेह विवक्खियत्तादो । तदो एक्केका अणुदीरिज्जमाणहेट्ठिमोवरिमकिट्टी सव्वासु चेव उदीरिज्जमाणमनिममकिट्टीसु अणंतसंखावच्छिण्णासु संकमियूण परसरूवेण विपच्चदि त्ति एसो एत्थ गाहापुव्वद्धे सुत्तत्थसंगहो । ण च एक्किस्से किट्टीए अणंताणं कीट्टीणं सरूवेण परिणामो विरुद्धो ति आसंकणिज्जं; अणंतसरिसधणियपरमाणुसमूहप्पियाए एक्किस्से वि किट्टीए अणंतासु किट्टीसु समयाविरोहेण परिणमणसिद्धीए बाहाणुवलंभादो।
६२०० संपहि एक्किस्से च वेदिज्जमाणकिट्टीए अणंताणमवेदिज्जमाणकिट्टीणं संकमणसंभवो अत्थि त्ति जाणावणटुं गाहापच्छद्धमोइण्णं 'पुवपविट्ठा णियमा
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होने पर तो प्रकृतमें गाथाका छन्द भंग होता है; इस भयसे ओकारका लोप करके उक्त वचन निर्दिा किया है, तदनुसार 'जाओ वग्गणाओ उदी रेदि' ऐसा कहने पर जिन कृष्टियोंको उदीरणा करता है, [ उक्तपदोंका ] ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि इस स्थानमें कृष्टियोंको हो वर्गणा संज्ञाके योग्य देखा जाता है । और वे कृष्टियाँ अनन्त हैं इस बात का ज्ञान कराने के लिये गाथामें 'अणंता' यह वचन कहा है । यह वचन भी द्वितीया विभक्ति बहुवचनान्त ही ग्रहण करना चाहिये ।
६ १९९ 'तासु संकमदि एक्का' ऐसा कहने पर 'तासु' अर्थात् अनन्त भेदसे भेदको प्राप्त हुई उन उदीर्यमान कृष्टियोंके रूपसे अवेद्यमान अधस्तन और उपरिम कृष्टि परिणमती है; यह उक्त कथनका तात्पर्य है क्योंकि ये अधस्तन और उपरिम कृष्टि अपने स्वरूपका त्याग करके मध्यम कृष्टिरूपसे परिणम जाती है, यहो यहाँ संक्रम का अर्थ विवक्षित है। इसलिये अनुदीर्यमान अधस्तन और उपरिम एक-एक कृष्टि अनन्त संख्यासे युक्त उदोर्यमान सभी मध्यम कृष्टियोंमें संक्रमित होकर पररूपसे फल देती है । इस प्रकार इस गाथाके पूर्वार्धमें सूत्रका यह समुच्चयरूप अर्थ है।
शंका-एक कृष्टिका अनन्त कृष्टिरूपसे परिणमना विरुद्ध है।
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि वह एक कृष्टि है; सदृश धनवाले अनन्त परमाणुओंसे बनी है; इसलिये उन एकका भो अनन्त कृष्टियोंमें समयके अविरोधपूर्वक परिणमनकी सिद्धिमें कोई बाधा नहीं पाई जाती ।
६२०० अब एक वेद्यमान कृष्टिमें अवेद्यमान अनन्त कृष्टियोंका संक्रमण सम्भव है। इस प्रकार इस अर्थ का ज्ञान करानेके लिये गाथाका उत्तरार्ध अवतीर्ण हुआ है-'पुच्वपविट्ठा णियमा'
१ संकमओ ता०, आ० ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ चारित्तक्खवणा इच्चादि। जाओ पुचपविट्ठाओ उदयावलियाओ अणंताओं अवेदिज्जमाणकिट्टीओ णिरुद्धसंगहकिट्टीए हेद्विमोवरिमासंखेज्जभागविसयपडिबद्धाओ ताओ सव्वाओ वि पादेक्कमेक्कक्किस्से वेदिज्जमाणमज्झिमकिट्टीए सरूवेण परिणमंति त्ति वृत्तं होइ । संपहि एदस्सेव गाहासुत्तत्थस्स फुडीकरणट्ठमुवरिमं विहासागंथमाढवेइ ।
* विदासा।
२०१ सुगम । * तं जहा।
२०२ सुगमं । * जा संगहकिट्टी उद्दिण्णा तिस्से उवरि असंखेनदिभागो हेट्ठा वि असंखेजदिभागो किट्टीणमणदिण्णो।
२०३ गिरुद्धवे दिज्जमाणसंगहकिट्ठीए हेट्ठिमोवग्मिासंखेज्जदिभागविसयाओ किट्टीओ सगसरूवेण सव्वत्थ उदयं ण पविसंति त्ति एसो एदस्स भावत्थो।
ॐ मज्झागारे असंखेजा भागा किट्टीणमुदिपणा।
२०४ णिरुद्धसंगहकिट्टीए. मज्झिमबहुभागा सगसरूवेणेव उदयं पविसंति त्ति मणिदं होदि ।
इत्यादि । जो नियमसे उदयावलिमें पहले प्रविष्ट हुई विवक्षित संग्रह कृष्टिसम्बन्धी अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागको विषय करनेवाली अनन्त अवेद्यमान् कृष्टियाँ वेद्यमान मध्यम कृष्टिरूपसे परिणमती हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब इसी गाथासूत्रको स्पष्ट करनेके लिये आगेके विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं
* अब इस भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं। १२०१ यह सूत्र सुगम है। * वह जैसे। 8:०२ यह सूत्र सुगम है।
* जो संग्रहकृष्टि उदीर्ण होती है अर्थात् उदीरणाद्वारा उदयको प्राप्त होती है तत्सम्बन्धी अन्तरकृष्टियोंका उपरिम असंख्यातवां भाग और अन्तरकृष्टियोंका अधस्तन भी असंख्यातवाँ भाग अनुदीक रहता है ।
२०३ विवक्षित वेद्यमान संग्रहकष्टिका अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागको विषय करने वाली कृष्टियाँ सर्वत्र अपने रूपसे उदयमें प्रवेश नहीं करती हैं; यह इस सूत्रका भावार्थ है ।
* अन्तरकृष्टियोंमेंसे मध्यके आकारसे अर्थात् मध्यकी असंख्यात बहुभागप्रमाण कृष्टियाँ उदीर्ण होती हैं ।
२०४ विवक्षित संग्रहकृष्टिको मध्यम बहुभागप्रमाण कृष्टियाँ अपने स्वरूपसे हो उदयम प्रवेश करता हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
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गा० २२६ ]
* तत्थ जानो अणुदिग्णाश्रो किडीओ तदो एक्केक्का किट्टी सव्वासु उदिष्णासु किट्टीसु संकमेदि ।
२०५ एतदुक्तं भवति–वेदिज्जमाणसंगहकिट्टीए जहण्णकिट्टिप्पहुडि जाव उक्कस्सकिट्टि त्ति ओकडियणुदये संछु हमाणस्स तत्थ मज्झिमा असंखेज्जा भागा अप्पणो सरूवेणेव उदयं पविट्ठा । पुणो तिस्से हेट्ठिमोवरिमास खेज्जदिभागे एक्केक्का अंतरकिट्टी अप्पप्पणो सरू वेणुदयं ण पविसदि ? तच्चेदमुवरिमभागकिट्टी मवासिमेव सरूवेण परिणमिय उदयं पविसदि परिणामविसेसमस्सियण तत्थ तहा परिणमणसिद्धीए णिव्वाहमुवलंभादो त्ति । एवमेदेण सुत्तेण गाहापुनद्धमस्सियूण ओकट्टियणुदये णिसिंचमाणपदेमपिंडस्स अणुभागोदयविही परूविदो । संपहि'इममवत्थमुवसंहारमुहेण पप्पाएमाणा सुतपुतरं भगई।
___ * एदेण कारणेण 'जा वग्गणा उदीरेदि अणंता तासु संकमदि एक्का' त्ति भण्णदि।
२०६ गयत्थमेदं सुत्तं । एवं गाहापुव्वद्धं विहासिय संपहि गाहापच्छद्धविहासणट्ठमिदमाह
* एक्किस्से वि उदिएणाए किट्टीए केत्तियाश्रो किट्टीो संकमंति ?
* उस संग्रह कृष्टिमेंसे जो अनुदीर्ण असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तरकृष्टियाँ हैं उनमेंसे एक-एक कृष्टि उदीर्ण होनेवाली सब कृष्टियोंमें संक्रमित होती है।
२०५ उक्त कथनका यह तात्पर्य है-वेदी जानेवाली संग्रहकृष्टिको जघन्य अन्तरकृष्टिसे लेकर उत्कृष्ट अन्तरकृष्टि तकको कृष्टियोंका अपकर्षण करके उदयमें निक्षिप्त करने वाले क्षपकके उनमेंसे मध्यम असंख्यात बहभागप्रमाण कृष्टियाँ अपने स्वरूपसे ही उदयमें प्रवेश करती हैं । पुनः उक्त संग्रहकृष्टिक अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागमेंसे एक-एक अन्तरकृष्टि अपने-अपने स्वरूपसे उदयमें प्रवेश नहीं करती हैं, और यह अधस्तन तथा उपरिम भागप्रमाण कृष्टियाँ उदीर्ण होने वाली सभी कृष्टियोंके रूपसे परिणमकर उदयमें प्रवेश करती हैं, क्योंकि परिणामविशेषका आश्रय करके वहाँ उस प्रकारको परिणामकी सिद्धि होनेमें कोई बाधा नहीं पाई जाती । इस प्रकार इस सूत्रद्वारा गाथाके पूर्वार्धका आश्रय करके अपकर्षण करके उदयमें सींचे जाने वाले प्रदेशपुंजकी अनुभागसम्बन्धो उदयको विधि प्ररूपित की है । अब इसी अर्थके उपसंहारमुखसे प्रतिपादन करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं___ * इस कारणसे जिन अनन्त वर्गणाओं (कृष्टियों) को उदीर्ण करता है उनमें एक-एक [वर्गणा] अन्तरकृष्टि संक्रमण करती है ।
६ २०६ यह सूत्र गतार्थ है । इस प्रकार गाथाके पूर्वार्धको विभाषा करके अब गाथाके उत्तरार्धकी विभाषा करनेके लिये इस सूत्रको कहते हैं
* एक भी उदीर्ण कृष्टिपर कितनी कृष्टियाँ संक्रमण करती हैं ?
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जयधवलासहिदे कसायपाहुढे
[चारित्तक्खवणा २०७ पुच्छावक्कमेदं सुगमं । * जाओ श्रावलियपुवपविट्ठात्रो उदयेण अधट्ठिदिगं विपच्चंति ताश्रो सव्वाश्रो एकिस्से उदिणाए किट्टीए संकमति ।
६२०८ उदीरणासरूवेणुदयम्मि वट्टमाणाओ अणंताओ किट्टीओ अत्थि, पुणो तासु एगकिट्टीए सरिसधणियसरूवेण कमेणुदयं पविसमाणाणं तक्किट्टीणं सरिसधणियाणि परिणमंति । एवं पादेक्कं जत्तियाओ किट्टीओ उदिण्णाओ तासि सव्वासि पि स रसधणियाणि होदूण मज्झिमकिट्टीसरूवेणा उदयं पविसंति त्ति भणिदं होदि । एवमेदेण सुत्तेण कमोदएण उदयं पविसमाणा उवरिमद्विदि-अणभागस्स मज्झिमकिट्टीसरूवेण परिणमणविही परूविदो त्ति घेत्तव्यो। संपहि इममेव गाहापच्छद्धपडिबद्धमत्थमुवसंहारमुहेण पदंसेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
* एदेण कारणेण पुवपविट्ठा एक्किस्से अणंता त्ति भण्णंति ।
$ २०९ गयत्थमेदं सुत्तं । एवमट्ठमीए भासगाहाए अत्थविहासणं समाणिय सपहि एत्थेव गाहापच्छद्धणिट्टित्थविसये पुणो वि विसेसणिण्णयजणणटुं णवमभासगाहाए अवयारो कीरदे ।
६ २०७ यह पृच्छासूत्र सुगम है।
* जो कृष्टियाँ उदयावलिमें पहले प्रविष्ट हुई हैं वे अधःस्थितिगलन होकर अर्थात् एक-एक स्थिति गलकर उदयद्वारा विपाकको प्राप्त होती हैं; वे सब एक-एक उदीर्ण कृष्टिपर संक्रमण करती हैं।
६ २०८ उदीरणास्वरूपसे उदयमें वर्तमान अनन्त कृष्टियाँ हैं, पुनः उनमें से एक कृष्टि सदृश धनरूपसे क्रमसे उदय में प्रवेश करनेवालो अनन्त कृष्टियोंके सदृश धनरूप होकर परिणमती हैं। इस प्रकार अलग-अलग जितनो कृष्टियाँ उदोर्ण होतो हैं वे सभी कृष्टियाँ सदृश धनरूप होकर मध्यम कृष्टिरूपसे हो उदयमें प्रवेश करती हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार इस सूत्रद्वारा क्रमसे उदयद्वारा उदयमें प्रवेश करतो हुई उपरिम स्थिति अनुभागकी मध्यम कृष्टिरूपसे परिणमन करनेकी विधि कही ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । अब गाथाके उत्तरार्धसे सम्बन्ध रखनेवाले इसी अर्थका उपसंहारद्वारा प्रदर्शन करते हुए उत्तर सूत्रको कहते हैं___* इस कारणसे पहले प्रविष्ट हुई अनन्त कृष्टियाँ एक-एक कृष्टिपर संक्रमण करती हुई कही जाती हैं।
६२०९ यह सूत्र गतार्थ है । इस प्रकार आठवीं भाष्यगाथाके अर्थको विभाषा समाप्त करके अब यहों पर गाथाक उत्तरार्धमें कहे गये अर्थ के विषय में फिर भो विशेष निर्णयको उत्पन्न करनेकेलिये नौवीं भाष्यगाथाका अवतार करते हैं
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गा० २२७]
* एत्तो णवमी भासगाहा । ६ २१० सुगमं । * (१७४) जे चावि य अणुभागा उदीरिदा णियमसा पोगेण ।
ते यप्पा अणुभागा पुव्वपविट्ठा परिणमंति ॥ २२७॥ ६२११ जाओ खलु अणुभागकिट्टीओ परिणामविसेसेण उदीरिज्जंति ताओ समस्सियूण जाओ ट्ठिदिक्खएण उदयं पविसंति पुव्वमुदयावलियम्भंतरं पविट्ठाणुभागकिट्टीओ ताओ वि तदायारेण परिणमंति, तत्थत्तणहेट्ठिमोवरिमासंखेज्जमागविसयाओ अणंताओ किट्टीओ उदीरिज्जमाणमज्झिमकिट्टीसरूवेण परिणमिय विपच्चंति त्ति भणिदं होदि । ण च अण्णसरूवेणावहिदाणं पोग्गलक्खंधाणमण्णसरूवेण विपरिणामो विरुद्धो, बझंतरंगकारणविसेसमासेज्ज कम्मपोग्गलाणं विचित्तसत्तसरूवेण परिणमणसिद्धीए पडिसेहाभावादो । संपहि दस्सेव सुत्तत्थस्स फुडीकरण मुवरिमो विहासागंथो ।
* विहासा। ६ २१२ सुगमं । * जाओ किट्टीओ उदिण्णाओ ताओ पडुच्च अणुदीरिजमाणिगाओ
* इससे आगे नौवीं माष्यगाथा है । ६ २१० यह सूत्र सुगम है।
* [१७४] जितनी भी अनुमागकष्टियाँ नियमसे प्रयोगवश उदीरित होती हैं उनरूप होकर पहले उदयावलिमें प्रविष्ट हुई अनुभागकृष्टियाँ परिणमती हैं ॥२२७॥
६२११ जो नियमसे अनुभागकृष्टियां परिणामविशेषके कारण उदोरित होती हैं उन्हें मिलाकर जो अनुभागकृष्टियाँ स्थितिक्षयसे उदयमें प्रवेश करतो हैं अर्थात् पहले उदयावलिमें प्रविष्ट हुई जो अनुभागकृष्टियाँ हैं वे भी उसरूपसे परिणमतो हैं, क्योंकि अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागप्रमाण अनन्तकृष्टियाँ उदोर्ण होनेवाली मध्यम कृष्टिरूपसे परिणमकर फलित होती हैं; यह उक्त कथन का तात्पर्य है। और अन्यरूपसे अवस्थित पुद्गलस्कन्धोंका अन्यरूपसे विपरिणमना विरोधको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि बाह्य और अन्तरंग कारणविशेषका आश्रय करके कर्मपुद्गलोंका विचित्र सत्तारूपसे परिणमनरूप सिद्धिका प्रतिषेध नहीं है । अब इसी सूत्रके अर्थको स्पष्ट करनेके लिये आगे का विभाषाग्रन्थ आया है
* अब इस भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं। ६ २१२ यह सूत्र सुगम है। * जो कृष्टियाँ उदीर्ण हुई हैं उनकी अपेक्षा अनुदीर्यमाण भी कृष्टियाँ हैं १ ते पच्छा मू।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चारित्तक्खवणा वि किट्टीअो जाओ अधहिदिगमुदयं पविसंति ताश्रो उदीरिजमाणियाणं किट्टीणं सरिसायो भवंति ।
६ २१३ उदीरणासरूवेणुदयं पत्ताओ मज्झिमकिट्ठीओ चेव सुद्धा भवंति । पुणो उदयढिदि मोत्तूण उवरिमद्विदिप्पहुडि उदयावलियपविट्ठपदेसपिंडो जाव उदयं ण पविसदि ताव सव्यकिट्टी विसेससंजुत्तो होदूण उदयं पविसमाणावत्थाए उवरिमहेडिमासंखेज्जभागकिट्टीणं सरूवमुज्झियणमज्झिमबहुभागसरू वेणविद उदयकिट्टीणं सरूवे परिणमिय विपच्चदि त्ति वृत्तं होदि । एवमेदीए भासगाहाए कमोदयेणुदयं पविसमाणीणुदीरिज्जमाणकिट्टीणमुदीरिज्जमाणमज्झिमकिट्टीआयारेण परिणामो सकारणो णिपिट्ठोदट्ठव्वो । एवं णवमभासगाहाए अत्थविहासा समत्ता ।
* एत्तो दसमी भासगाहा ।
जो एक-एक अधःस्थितिका गलन होकर उदयमें प्रवेश करती हैं; वे उदीर्यमाण कृष्टियोंके सदृश होती हैं।
$ २१३ उदीरणारूपसे उदयको प्राप्त हुईं मध्यम कृष्टियाँ ही शुद्ध होती हैं। पुनः उदयस्थितिको छोड़कर उपरिम स्थितिसे लेकर उदयावलिमें प्रविष्ट हुआ प्रदेशपुंज जब तक उदयमें प्रवेश नहीं करता तब तक सब कृष्टिविशेषसे संयुक्त होकर उदयमें प्रवेश करनेकी अवस्थामें उपरिम और अधस्तन कृष्टियोंके स्वरूपको छोड़कर मध्यम बहुभागरूपसे उदयकृष्टियोंके स्वरूपसे परिणमकर फल देती हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार इस भाष्यगाथाद्वारा क्रमसे उदयरूपसे उदयमें प्रवेश करनेवाली उदीर्यमाण कृष्टियोंके उदीर्यमाण मध्यम कृष्टिरूपसे कारणसहित परिणाम कहा है ऐसा यहाँ जानना चाहिये । इस प्रकार नौवीं गाथाकी अर्थविभाषा समाप्त हुई।
विशेषार्थ-२२६ संख्याक भाष्यगाथाके पूर्वाधमें यह सिद्ध करके बतलाया गया है कि जो प्रतिसमय मध्यम कृष्टियाँ उदीरित होती हैं उनमें अधस्तन और उपरिम एक-एक अनुदोर्यमाण कृष्टिसंक्रमण करती है। तथा इसी भाष्यगाथाके उत्तरार्धमें यह बतलाया गया है कि विवक्षित संग्रह कृष्टिके जो अधस्तन असंख्यातवें भागप्रमाण और उपरिम असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियाँ पहले उदयावलिमें प्रविष्ट हुई हैं वे सब वेदी जानेवाली एक-एक मध्यम कृष्टिरूपसे परिणमती हैं अर्थात् वे सब कृष्टियां एक-एक मध्यम कृष्टिरूपसे संक्रमण करती हैं। इसी बातका समर्थन करते हुए समुच्चयरूपमें अगली २२७ वी भाष्यगाथामें यह बतलाया गया है कि जो विवक्षित संग्रहकृष्टिकी अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियाँ क्रमसे उदयावलिमें पहले प्रविष्ट हुई हैं वे उसी संग्रहकष्टिकी उदोरित होनेवाली मध्यमकृष्टियोंके रूपमें संक्रमित होकर उदयरूपसे परिणत होती हैं। यहाँ इन दोनों भाष्यगाथाओंमें अधस्तन और उपरिम कृष्टियोंके मध्यम बहुभागप्रमाण कृष्टियोंमें संक्रमण करके उदयमें आनेकी जो बात कही गई है उस कथनको थिउक्क संक्रमणकी अपेक्षा जानना चाहिये।
* इससे आगे दसवीं भाष्यगाथा आई है।
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गा० २२८ ]
२१४ विहासेयव्वा त्ति वृत्तं होड़ |
वमभासगाहाविहासणाणंतरमेत्तो
८९
दसमभासगाहा जहावसर पत्ता
* (१७५) पच्छिम श्रावलियाए समयाए दु जे य 'अणुभागा 1 उक्कस हेडिमा मज्झिमासु पियमा परिणमति ॥ २२८ ॥
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$ २१५ एसा दसमी भासगाहा उदयावलियपविद्वाणमणुभागकिट्टीणं मज्झिमकिट्टी सरूवेणुदयसंपत्तीए सुद्द परिष्फुडीकरणडमोइण्णा । संपछि एदिस्से अवयवत्थो बुच्चदे । तं जहा – पच्छिमा आवलिया पच्छिमावलिया उदयावलिया त्ति वृत्तं होदि । तिस्से पच्छिमावलियाए समयूणाए उदयसमयवज्जाए 'जे अणुभागा' जे खलु अणुभागा किट्टीसरूवा 'उक्कस्स हेट्टिमा' हेट्टिमोवरिमासंखेज्जदिभागविसयपडिबद्धत्तेण उक्कस्स जहण्णववएसमवलंचमाणा 'मज्झिमासु' मज्झिमबहुभाग किट्टीसु नियमा पिच्छयेणेव परिणमति । किमुक्तं भवति ? उदयावलियपविटुस्स सव्वकिट्टीओ जाव उदयसमयं ण दुक्कंति ताव अप्पप्पणो सरूवेण णिव्वाहमच्छिथूण तदो जहाकममुदयडिदिमणुपाविय तक्काले चेव हेडिमोवरिमासं खेज्जदिभाग किट्टी सरूवमुज्झियूण मज्झिमेसु असंखेज्जेसु भागेसु जाओ किड्डीओ तदायारेण परिणमिय फलं दादूण
$ २१४ नौवीं भाष्यगाथाकी विभाषा करनेके अनन्तर आगे यथावसर प्राप्त दसवीं भाष्यगाथाकी विभाषा करनी चाहिये, यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
* (१७५) एक समय कम अन्तिम आवलि ( उदयावलि) की उत्कृष्ट और जघन्य असंख्यातवें भागप्रमाण जो अनुभाग कृष्टियाँ हैं वे सब असंख्यात बहुभाग प्रमाण मध्यम कृष्टियों के रूपसे नियमसे परिणम जाती हैं ||२२८||
8 २१५ यह दसवीं भाष्यगाथा, उदयावलिमें प्रविष्ट हुईं अनुभाग कृष्टियों के मध्यम कृष्टिरूप से उदयसंम्पत्तिको अच्छी तरहसे करने के लिये, अवतीर्ण हुई है । अब इसके अवयवोंका अर्थ कहते हैं । वह जैसे - पश्चिम जो आवलि वह पश्चिमावलि है । पश्चिम आवलि अर्थात् उदयावलि यह उक्त कथनका तात्पर्य है । एक समय कम अर्थात् उदयसमयसे रहित उस पश्चिम आवलिको 'उक्कस्सहेट्ठिमा ' अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागरूप विषयके सम्बन्धसे उत्कृष्ट और जघन्य संज्ञाका अवलम्बन करनेवाले 'जे 'अणुभागा' कृष्टिस्वरूप जो अनुभाग हैं वे बहुभागप्रमाण मध्यम कृष्टियोंरूपसे 'णियमा' निश्चयसे ही परिणम जाते हैं ।
शंका- यहाँ क्या कहा गया है ?
समाधान — यहाँ यह कहा गया है कि उदयावलिमें प्रविष्ठ हुईं सभी कृष्टियाँ जब तक उदयसमयको नहीं प्राप्त होती हैं तब तक अपने-अपने स्वरूपसे निर्बाध रूप से रहकर तदनन्तर यथाक्रम उदयरूप स्थितिको प्राप्तकरके उसी समय 'अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियों के
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चारित्तक्खवणागच्छंति त्ति वृत्तं होइ । ण च एवंविहो परिणामो तासिमसिद्धो; परमागमोवएसबलेण सिद्धत्तादो । एवमेसा गाहा उदयावलियपविट्ठाणुभागं पहाणं कादूर्ण तत्थत्तणकिट्टीणमुदयं पविसमाणावत्थाए उदीरिज्जमाणमज्झिमकिट्टीसरूवेण परिणमणविहाणं पदुप्पाएदि ति पुबिल्लदोगाहाहिंतो एदिस्से गाहाए कधंचि अपुणरुत्तभावो वक्खाणेयव्वो। संपहि एवंविहमेदिस्से गाहाए अत्थं फुडीकरेमाणो उवरिमं विहासागंथमाढवेह
* विहासा। $ २१६ सुगमं। * पच्छिम आवलिया त्ति का सरणा । ६२१७ सुगमं । * जा उदयावलिया सा पच्छिमावलिया। $ २१८ कुदो ? सव्वपच्छिमाए तिस्से तव्ववएसोववत्तीए णिव्वाहमुवलंभादो।
* तदो तिस्से उदयावलियाए उदयसमयं मोत्तण सेसेसु समएसु जा संगहकिट्टी वेदिज्जमाणिगा, तिस्से अंतरकिट्टीओ सव्वाश्री ताव धरिज्जंति जाव ण उदयं पविठ्ठामो त्ति ।
स्वरूपको छोड़कर असंख्यात बहुभागप्रमाण मध्यकी जो कृष्टियाँ हैं उस रूपसे परिणमकर फल देकर निकल जाती हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । और उनका इस प्रकारका परिणमन करना असिद्धः नहीं है, क्योंकि परमागमके उपदेशके बलसे यह बात सिद्ध है। इस प्रकार यह गाथा उदयावलिमें प्रविष्ट हुए अनुभागको प्रधान करके उसमें रहनेवाली कृष्टियोंके, उदयमें प्रवेश करनेकी अवस्थामें, उदीर्यमाण मध्यम कृष्टियोंरूपसे परिणमन करनेकी विधिका प्रतिपादन करती है । इस प्रकार पहलेको दो गाथाओंसे इस गाथामें कथंचित् अपुनरुक्तपना है, इस बातका व्याख्यान करना चाहिये । अब इस प्रकार इस गाथाके अर्थको स्पष्ट करते हुए आगेके विभाषा ग्रन्थको आरम्भ करते हैं
* अब इस भाप्यगाथाकी विभाषा करते हैं। ६२१२ यह सूत्र सुगम है। * पश्चिम आवलि यह किसकी संज्ञा है ? ६२१७ यह सूत्र सुगम है। * जो उदयावलि है उसे ही पश्चिमावलि कहते हैं।
६२१८ क्योंकि वह सबसे अन्तिम है, इसलिये उसको उस प्रकारसे उपपत्ति निर्वाधरूपसे बन जाती है।
* इसलिये उस उदयावलिके उदय समयको छोड़कर शेष रहे समयोंमें जो संग्रहकृष्टि वेदी जा रही है उसकी सभी अन्तरकृष्टियाँ तब तक उसी रूप रहती हैं जब तक वे उदयमें प्रवेश नहीं करती हैं ।
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गा० २२८ ]
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$ २१९ सुगमं ।
* उदयं जाधे पविट्टाओ ताधे चैव तिस्से संगहकिहीए अग्गकिहिमादिं का उवर असंखेज्जदिभागो जहणियं किहिमादिं काढूण हेट्ठा असंखेज्जदिभागो च मज्झिमकिट्टीसु परिणमदि ।
$ २२० गयत्थमेदं पि सुत्तं । एवमेदाओ तिष्णि वि अनंतरभासगाहाओ अणुभागोदयमेव जहाकममुदीरणापहाणं कम्मोदय पहाणमुदयावलियपविद्वाणुभागपहाणं च काढूण परूर्वेति त्ति घेत्तव्वं ।
$ २२१ एवमेदाहिं दसहिं भासगाहाहिं किट्टीखवगस्स तदियमूलगाहाए अत्थविहासणं समाणिय संपहि जहावसरपत्ताए चउत्थमूलगाहाए अवयारकरणट्टमुवरिमं पबंधमाढवेइ—
* खवणाए चउत्थीए मूलगाहाए समुक्कित्तणा ।
९ २१९ यह सूत्र सुगम है ।
* किन्तु जिस समय वे उदय में प्रविष्ट होती हैं उसी समय उस संग्रह कृष्टिकी अग्र अन्तरकृष्टि से लेकर उपरितन असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तरकृष्टियाँ तथा जघन्य अन्तरकृष्टिसे लेकर अधस्तन असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तरकृष्टियाँ मध्यम कृष्टियोंरूपसे परिणम जाती हैं ।
8 २२० यह सूत्र भी गतार्थ है । इस प्रकार अनन्तर कही गई ये तीनों ही भाष्यगाथाएँ यथाक्रम उदीरणाप्रधान अनुभागोदयका तथा उदयावलिमें प्रविष्ट हुए अनुभागप्रधान कर्मोंके उदयकी प्रधानताका ही कथन करती हैं, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये ।
विशेषार्थ — जो पहले ८-९वीं भाष्यगाथाओं में कौन कृष्टियाँ उदीरणाको प्राप्त होती हैं और to कृष्टियाँ अधःस्थितिकी गलनाद्वारा क्रमसे उदयावलिमें प्रविष्ट होकर उदय समयमें उदीरणा रूप कृष्टियों में संक्रमित होकर उदयको प्राप्त होती हैं इस बातका स्पष्टीकरण कर आये हैं । इस भाष्यगाथा में यह बतलाया गया है कि उदयावलिमें प्रविष्ट हुईं वे अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागप्रमाण कुष्ठियाँ एक समय कम उदयावलिप्रमाण काल तक तदवस्थ रहती हैं तथा अन्तिम समय में क्रमसे थे कृष्टियाँ बहुभागप्रमाण मध्यम कृष्टियोंरूपसे संक्रमण करके उदयको प्राप्त होती हैं । $ २२१ इस प्रकार इन दस भाष्यगाथाओं द्वारा कृष्टिक्षपकके तीसरी मूलगाथाके अर्थकी विभाषा समाप्त करके अब यथावसरप्राप्त चौथी मूलगाथाका अवतार करनेकेलिये आगेके प्रबन्धको आरम्भ करते हैं
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ चारित्तक्खवणा $ २२२ सुगमं । * (१७६) किट्टीदो किटिं पुण संकमदि खएण किं पयोगण ।
कि सेसगम्हि किट्टीय संकमो होदि अण्णिस्से ॥ २२९॥ $ २२३ एसा चउत्थमूलगाहा एगसंगहकिट्टि वेदेदूण पुणो अण्णसंगहकिट्टिमोकड्डियण वेदेमाणस्स किट्टीखवगस्म तम्मि संधिविसये जो परूवणाभेदो तण्णिण्णयविहाणट्ठमोइण्णा । तं जहा-'किट्टीदो किट्टि पुण०' एवं भणिदे एगसंगहकिट्टि वेदेदूण पुणो तत्तो अण्णसंगहकिट्टि वेदेमाणो तिस्से पुव्ववेदिदकिट्टीए सेसगं कधं खवेदि ? किं तिस्से उदएण आहो पओगेणेत्ति एवविहा पुच्छा गाहापुम्बद्धे णिवद्धा । एदस्स भावत्थो-किं वेदेमाणो खवेदि । आहो परपयडिसंकमेण संकामेंतो खवेदि ति मणिदं होदि । कधं ? एत्थ क्खएणे त्ति भणिदे उदयस्स गहणं होदि त्ति णासंकणिज्जं, खयाहिमुहस्स उदयस्सेव खयव्ववएससिद्धीए णाइयत्तादो। 'कि सेसगम्हि किट्टीय' एवं
६ २२२ यह सूत्र सुगम है।
* (१७६) विवक्षित संग्रहकृष्टिका वेदन करनेके बाद अन्य संग्रहकृष्टिका अपकर्षण करके वेदन करता हुआ क्षपक उस पूर्ववेदित् संग्रहकृष्टिके शेष रहे भागको वेदन करता हुआ क्षय करता है या अन्य प्रकृतिरूप संक्रमण करके क्षय करता है ।।२२९।।
६२२३ यह चौथी मूलगाथा एक संग्रह कृष्टिका वेदन करके पुनः अन्य संग्रह कृष्टिका अपकर्षण करके वेदन करनेवाले कृष्टिक्षपकके उस सन्धिस्थानमें जो प्ररूपणा भेद होता है उसका निर्णय करनेके लिये अवतीर्ण हुई है। यथा-'किट्रीदो किट्टि पुण' ऐसा कहने पर एक संग्रह कृष्टिका वेदन करके पुनः उससे अन्य संग्रह कृष्टिका वेदन करता हआ उसे पूर्व में वेदनको गई कृष्टिके शेष भागको किस प्रकार क्षय करता है? क्या उदयसे क्षय करता है या प्रयोगसे क्षय करता है ? इस प्रकार यह पृच्छा गाथाके पूर्वार्धमें निबद्ध है। अब इसका भावार्थ इस प्रकार है कि क्या वेदन करता हुआ क्षय करता है या परप्रकृति संक्रम के द्वारा संक्रम करता हुआ क्षय करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-यहाँ गाथामें 'क्खएण' ऐसा कहने पर क्या उससे उदयका ग्रहण होता है ?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि क्षयके सन्मुख हुए उदयकी ही क्षय संज्ञा है, यह बात न्यायसे सिद्ध है। ___कि सेसगम्हि किट्टीय' ऐसा कहने पर पहले वेदो गई संग्रहकृष्टिके कितने ही भागके अवशिष्ट रहने पर अन्य कृष्टिमें संक्रम होता है, इस प्रकार गाथाके उत्तरार्धमें सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध करना चाहिये । परन्तु यह पृच्छा दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्ध और उच्छिष्टा
१. भणिदो आ० ।
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गा० २२९-२३० ] भणिदे पुत्ववेदिदसंगहकिट्टीए केत्तियमेत्तावसेसे संते अण्णकिट्टीए संकमो होइ त्ति गाहापच्छद्ध सुत्तत्थसंबंधो। एसा वुण पुच्छा दुसमयणदोआवलियमेत्तणवकबद्धाणमुच्छिट्ठावलियाए च सेसभावमुवेक्खदे । एवमेसा मूलगाहा किट्टादो किट्टीअंतरं संकममाणस्स तम्मि संधिविसेसे दुसमयणदोआवलियमेत्ते कालम्मि बद्धणवकबधसमयपबद्धाणमुच्छिट्ठावलियाए च खवणाविहिं पदुप्पाएदि त्ति सिद्धं ।
$ २२४ संपहि एवंविहमेदिस्से गाहाए अत्थविसेसं दाहि भासगाहाहिं विहासेमाणो उवरिमं पबंधमाढवेइ
के एदिस्से बे भासगाहाम्रो । ६ २२५ सुगमं । तत्थ ताव पढमभासगाहाए समुक्तित्तणं कुणमाणो इदमाह* (१७७) किट्टीदो किटिं पुण संकमदे णियमसा पोगेण ।
किट्टीए सेसगं पुण दो श्रावलियाएं' जं बद्धं !।२३०॥
वलिको अपेक्षा करती है। इस प्रकार यह मूलगाथा एक संग्रहकृष्टिसे दूसरी संग्रहकृष्टिमें संक्रम करनेवाले क्षपक जोव उस सन्धि विशेष में दो समय कम दो आवलिप्रमाणकालके भीतर उस कालमें बन्धको प्राप्त हुए नवकबन्ध समय प्रबद्धोंकी तथा उच्छिष्टावलिप्रमाण समयप्रबद्धोंकी क्षपणा करनेको विधिका प्रतिपादन करती है, यह सिद्ध हुआ ।
विशेषाथे--इस मूलगाथामें यह पच्छाकी गई है कि अगली संग्रह कृष्टिका वेदन करते समय पिछली संग्रह कृष्टिका जो दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्ध सत्तामें शेष रहता है तथा उसके साथ ही जो उच्छिष्टावलिप्रमाण समयप्रबद्ध शेष रहता है उसका क्या उदयद्वारा वेदन होता है या वेदी जानेवाली संग्रहकृष्टि में संक्रमण होकर उसका वेदन होता है।
$ २२४ अब इस गाथाके इस प्रकारके अर्थविशेषकी दो भाष्यगाथाओंद्वारा विभाषा करते हुए आगेके प्रबन्धको आरम्भ करते हैं
* इस चौथी मलगाथाकी दो भाष्यगाथाएँ हैं ।
६ २२५ यह सूत्र सुगम है। उसमें सर्वप्रथम प्रथमभाष्यगाथाको समुत्कीर्तना करते हुए इस प्रथम भाष्यगाथाको कहते हैं
* (१७७) पिछलो संग्रहकृष्टिके वेदन करने के बाद जो भाग शेष बचता है उसे अन्य संग्रहकृष्टिमें नियमसे प्रयोगद्वारा संक्रमण करता है। परन्तु पिछली संग्रह कृष्टिका दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवक-बन्धरूप जो द्रव्य है तथा उच्छिष्टावलि प्रमाण जो द्रव्य है वह शेषका प्रमाण है ।।२३०।।
१. आवलियासु ता० ।
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ चारित्तक्खवणा
$ २२६ एदस्स सुत्तस्सत्थो -- एगकिट्टीदो वेदिदसेसगं पदेसग्गं अण्णं किट्टि संकामेमाणो 'णियमसा' णिच्छएणेव 'पयोगेण' परपयडी संकामेंतो चेव खवेड, पुण्ववेदिदसंगह किट्टीए, सेसस्स प्रयारतरेण पिल्लेवणासंभवादो । तत्थ पुण सेसपमाणं केत्तियमिदि भणिदे 'किट्टीए सेसयं पुण दो आवलियासु जं बद्धमिदि' णिहिं । एत्थ दो आवलियबद्धाणं दुसमपूणत्तं सुत्ते जइ वि ण णिद्दिहं तो वि वक्खाणादो ताविहविसेसपडिवत्ती एत्थ दट्ठव्वा, चरिमावलियाए संपूण्णाए दुचरिमावलियाए च दुसमणाए बद्धाणं णवकबद्ध समयपबद्धागं एत्थ सेसभावेण संभवदंसणादो । उच्छिडावलियपदेसग्गस्स च एत्थ सेसभावो अणुत्तसिद्धो दट्ठव्वो । संपहि एदस्सेवत्थस्स फुडीकरणमुरिमं विहासागंथमाढवेइ-
९४
* विहासा ।
९ २२७ सुगमं ।
* जं संगहकिट्टिं वेदेदूण तदो से काले अण्णसंगहकिहिं पवेदयदि, तदो तिस्से पुव्वसमयवेदिदाए: संगह किट्टीए जे दो आवलियबद्धा'
§ २२६ इस भाष्यगाथासूत्रका अर्थ है - एक संग्रह कृष्टिके वेदे जानेके बाद शेष रहे प्रदेश - पुंजको अन्य संग्रहकृष्टिमें संक्रमण करता हुआ 'णियमसा' निश्चयसे ही प्रयोगसे परप्रकृतिरूप संक्रमण करता हुआ क्षय करता है, क्योंकि पहले वेदी गई संग्रहकृष्टिके शेष रहे भागका अन्य प्रकारसे निर्लेपित होना सम्भव नहीं है । परन्तु उसमें शेषका प्रमाण कितना रहता है ऐसा पूछनेपर 'किट्टीए सेयं पुण दोआवलियासु जं बद्धं पिछली संग्रहकृष्टिके दो आवलिप्रमाण कालके भीतर जो बाँधा गया वह शेषका प्रमाण है, यह कहा गया है । यहाँ इस भाष्यगाथा में यद्यपि दो आवलियों में दो समय कम करके निर्देश नहीं किया गया है तो भी व्याख्यानसे इस प्रकारकी विशेषताका ज्ञान यहाँ पर कर लेना चाहिये, क्योंकि पूरी अन्तिम आवलिमें और दो समय कम द्विचरम आवलिमें बाँधे गये नवकबद्ध समयप्रबद्धों का यहाँ शेषपनेसे सम्भव दिखाई देता है। तथा उच्छिष्टावलिप्रमाण प्रदेशपुंज यहाँ पर शेष रहता है यह बात यहाँ अनुक्तसिद्ध जाननी चाहिये। अब इसो अर्थको स्पष्ट करनेकेलिये आगे के विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं
-
* अब इस भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है ।
8 २२७ यह सूत्र सुगम है ।
* जिस संग्रहकृष्टिका वेदन करके अनन्तर समय में अन्य संग्रहकृष्टिका वेदन करता है उस समय उस पूर्व समय में वेदो गई संग्रह कृष्टिके जो दो समय कम
१. बंधा ता० ।
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गा० २३०] दुसमयूणा श्रावलियपविट्ठा च अस्सिं समए वेदिज्जमाणिगाए संगहकिट्टीए पत्रोगसा संकमंति ।
$ २२८ गयत्थमेदं सुत्तं । णवरि पओगसा संकमंति ति एवं भणिदे उच्छिहावलियपविट्ठपदेससंतकम्म थिवुक्कसंकमेण उदये पविसदि, सेससंतकम्म पि अधापवत्तसंकमेण संकामिज्जदि त्ति एसो पओगो णाम । एदेण पओगेण किट्टीसेसस्स किट्टीअंतरसंकंती होदि त्ति भणिदं होइ । एवमेसो पढमभासगाहाए अत्थो विहासिदो त्ति जाणावणडमुवसंहारवक्कमाह--
* एसो पढमभासगाहाए अत्थो ।
२२९ एवमेदमुवसंहरिय संपहि बिदियभासगाहाए अत्थविहासणट्ठमुवरिमं पबंधमाह--
* एतो विदियभासगाहाए समुकित्तणा। ६ २३० सुगमं ।
दो आवलिबद्ध नवक समयप्रबद्ध हैं वे इस समय वेदी जानेवाली संग्रहकृष्टिमें प्रयोगसे संक्रमित होते हैं।
६ २२८ यह सूत्र गतार्थ है । इतनी विशेषता है कि 'प्रयोगसे संक्रमित होते हैं ऐसा कहनेपर उच्छिष्टावलिप्रविष्ट प्रदेशसत्कर्म स्तिवुकसंक्रमसे उदयमें प्रविष्ट होते है तथा शेषसत्कर्मको भी अधःप्रवत्त संक्रमकेद्वारा संक्रमित करता है। इस प्रकार यह यहाँ प्रयोग शब्दका अर्थ है। इस प्रयोगसे संग्रह कृष्टि शेषकी कृष्टि अन्तरमें संक्रान्ति होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार यह प्रथम भाष्यगाथाके अर्थकी विभाषा की । इस प्रकार इस बातका ज्ञान करने के लिए उपसंहार वाक्यको कहते हैं
* यह प्रथम माष्यगाथाका अर्थ है।
६ २२९ इस प्रकार इस भाष्यगाथाका उपसंहार करके अब दूसरी भाष्यगाथाके अर्थको विभाषा करनेके लिये आगेके प्रबन्धको कहते हैं
* इससे आगे दूसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं। ६ २३० यह सूत्र सुगम है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ चारितक्खवणा
* (१७८) समयणा च पविट्ठा आवलिया होदि पढमकिट्टीए । पुण्णा जं वेदयदे एवं दो संकमे होंति ॥२३१॥
९ २३१ एसा बिदियभासगाहा किट्टीदो किट्टीअंतरं संकममाणस्स संधिविसये पुव्वुत्तरसंगह किट्टीणमा वलियपविट्ठस्स पवेसगस्स पमाणावहारणट्टमोइण्णा । तत्थ ताव गाहापुवद्वेण पुन्ववेदिदाए किट्टीए समयूणावलियमे ताणमुच्छ्ट्टिावलियसंबंधीणं गुणसेढिगोबुच्छाणं संभवो णिद्दिट्ठो । पच्छद्वेणवि एहिमोकड्डियूण वेदिज्जमाना संपुण्णावलियमेत्ताणं गोवच्छाणमुदयावलियन्तरे संभवो पदुप्पाइदो दट्ठव्वो । संपहि एदिस्से गाहाए किंचि अवयवत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहा -- ' समयूणा च पविट्ठा' एवं भणिदे समयणा आवलिया उदयावलियन्तरं पविट्ठा त्ति पुव्ववेदिदकिट्टीए संपूण्णा च आवलिया पविट्ठा भवदिजं संगह किट्टिमेण्हिमोकड्डियूण वेदयदि तिस्से 'एवं दो संकमे होंति' एवं भणिदे एवमेदाओ दो आवलियाओ संकमे भवंति, एगकिट्टिं वेदेदूण पुणो अण्णकट्टिमोकड्डियूण वेदेमाणस्स तम्मि संधीए दोआवलियाओ भवंति णाण्णत्थे तिवृत्तं होइ । अथवा संकमे किट्टीणं खवणाए एदम्मि संधिविसेसे एदाओ दो
* (१७८) पूर्व में वेदी गई संग्रह कृष्टिके और तत्काल वेदी जानेवाली संग्रहकृष्टि के सन्धिस्थान में प्रथम संग्रहकृष्टिकी एक समय कम एक आवली उदयावलिमें प्रविष्ट होती है तथा जिस संग्रहकृष्टिका अपकर्षण करके इस समय वेदन करता है उसकी पूरी आवली उदयावलिमें प्रविष्ट होती है इस प्रकार दो आवलियाँ संक्रम में होतो हैं ॥२३१॥
$ २३१ यह दूसरी भाष्यगाथा एक संग्रहकृष्टिसे दूसरी संग्रहकृष्टिके अन्तरमें संक्रम करनेवाले जीवके सन्धिस्थान में पूर्व और उत्तर संग्रहकृष्टियोंके आवलिमें प्रविष्ट हुए प्रवेशक जीवके प्रमाणका अवधारण करनेकेलिये आई है । उसमें सर्वप्रथम गाथा के पूर्वार्धद्वारा पहले वेदी गई संग्रह कृष्टिके एक समय कम आवलिप्रमाण उच्छिष्टावलिसे सम्बन्ध रखनेवाली गुणश्रेणि गोपुच्छाएँ सम्भव हैं, यह निर्देश किया गया है। तथा उत्तरार्ध द्वारा भी इस समय अपकर्षण करके वेदी जानेवाली सम्पूर्ण आवलिप्रमाण गोपुच्छाएँ उदयावलिके भीतर सम्भव हैं यह प्रतिपादन किया गया जानना चाहिये। अब इस गाथा के अवयवोंके अर्थकी थोड़े में प्ररूपणा करेंगे । यथा - 'समयूणा च पविट्ठा' ऐसा कहने पर पहले वेदी गई संग्रह कृष्टिकी एक समय कम आवलि उदयावलिके भीतर प्रविष्ट हुई तथा जिस संग्रहकृष्टिको इस समय अपकर्षण करके वेदन करता है सम्पूर्ण आवलि उदयावलिमें प्रविष्ट होती है, इस प्रकार 'एवं दो संकमे होंति' ऐसा कहने पर इस प्रकार ये दो आवलियाँ संक्रममें होती हैं। इस प्रकार एक संग्रह कृष्टिको वेदन करके पुनः अन्य संगह कृष्टिका अपकर्षण करके वेदन करने वालेके उस सन्धिमें दो आवलियाँ होती हैं, अन्यत्र नहीं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अथवा संक्रम में अर्थात् कृष्टियोंकी क्षपणासम्बन्धी इस सन्धि विशेष में
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गा० २३१ ]
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आवलियाओ होंति त्ति वक्खाणेयव्वं । संपहि एदस्सेवत्थस्स फुडीकरणट्टमुवरिमं विद्या
सागंथ माढवे ' --
* विहासा ।
$ २३२ सुगमं ।
* तं जहा ।
९ २३३ सुगमं ।
* णं किहिं संकममाणस्स पुव्ववेदिदाए समयूणा उदयावलिया वेदिज्जमाणिगाए किट्टीए पडिवण्णा उदयावलिया एवं किट्टी वेदगस्स उक्कस्सेण दो आवलिया
।
६ २३४ किट्टीदो किट्टीअंतरं संकममाणस्स तम्मि अवत्थंतरे उदयावलियन्भंतरे दो संगकिट्टीणं पढमट्ठिदी अस्थि त्ति भणिदं होदि । ताओ पुण दो वि आवलियाओ किट्टीदो किट्टिसंकममाणस्स समयूणावलियमेत्तकालं संभवति । पुणो सेसकालम्ह सम्हि चेव एका उदयावलिया भवदि, उच्छ्ट्ठिावलियाए गालिदाए तत्थ पयारंतरस्स संभवावभादोत्ति जाणावणट्टमुत्तरसुत्तमाह-
ये दो आवलियाँ होती हैं ऐसा व्याख्यान करना चाहिये । अब इसी अर्थको स्पष्ट करनेके लिये आगे के विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं
* अब इस गाथाकी विभाषा की जाती है ।
६ २३२ यह सूत्र सुगम है । * वह जैसे ।
९ २३३ यह सूत्र सुगम है ।
* एक संग्रह कृष्टि के बाद दूसरी संग्रह कृष्टिका संक्रमण करनेवाले क्षपकके पूर्व में वेदी गई संग्रह कृष्टिकी एक समय कम उदयावलि और वर्तमान में वेदी जानेवाली संग्रह कृष्टिकी पूरी उदयावलि । इस प्रकार कृष्टि वेदककी उत्कृष्टसे दो आवलियाँ एक साथ पायी जाती हैं ।
९ २३४ एक संग्रहकृष्टि से दुसरी संग्रहकृष्टिमें संक्रमण करनेवाले क्षपकके उस दूसरी अवस्था में उदयावलिके भीतर दो संग्रह कृष्टियों की प्रथम स्थिति होती है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । परन्तु वे दोनों ही आवलियाँ एक संग्रह कृष्टिसे दूसरी संग्रह कृष्टि में संक्रमण करनेवाले जोवके एक समय कम एक आवलि कालतक सम्भव हैं, पुनः शेषकालमें सर्वत्र ही (वेदी जानेवाली संग्रह कृष्टिके वेदन कालतक ) एक उदयावलि होती है, क्योंकि उच्छिष्टावलिके गल जाने पर वहाँ दूसरा प्रकार सम्भव नहीं उपलब्ध होता। इस प्रकार इस बातका ज्ञान करानेके लिये आगे सूत्रको कहते हैं
१. विहासागंथमाह आ० ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[चारित्तक्खवणा ___तानो वि किट्टीदो किहि संकममाणस्स से काले एका उदयावलिया भवदि।
६२३५ गयत्थमेदं सुत्तं । णवरि एत्थ 'से काले एगा उदयावलिया' ति भणिदे समयणावलियमेत्तगोवुच्छेसु त्थिवुक्कसंकमेण वेदिज्जमाणकिट्टीए उवरि संकंतेसु तदणंतरसमयप्पहुडि एक्का चेव उदयावलिया होदि त्ति घेत्तव्वा । एसो च अत्थो सव्वासिं किट्टीणं वेदगस्स संधीए पादेक्कं जोजेयव्यो । एवं विदियभासगाहाए अत्थो समत्तो। तदो किट्टीखवणाए चउथी मूलगाहा समप्पदि त्ति जाणावणफलमुवसंहारवक्कमाह
* चउत्थी मलगाहा खवणाए समत्ता।
६ (२३६) सुगममेदमुवसंहारवक्कं । एवमेतिएण पबंधेण सुहुमसांपराइयगुणट्ठाणमवहिं कादूण चरित्तमोहक्खवणाए किट्टीवेदगस्स परूवणाविहासणं तत्थेव सुत्तप्कासं च कादूण संपहि एसा सव्वा वि परूवणा पुरिसवेदस्स कोहसंजलणोदयेण सेढिमारुढस्स खवगस्स परूविदा ति जाणावणमुत्तरसुत्तमाह
* एसा परूवणा पुरिसवेदगस्स कोहेण उवट्टिदस्स।
* वे दोनों आवलियां भी एक संग्रह कृष्टिसे दूसरी संग्रह कृष्टिमें संक्रमण करनेवाले क्षपकके तदनन्तर समयमें अर्थात् एक समय कम उच्छिष्टावलिके गल जानेपर एक उदयावलिमात्र रह जाती है।
६ २३५ यह सूत्र गतार्थ है । इतनी विशेषता है कि इस सूत्रमें 'से काले एगा उदयावलिया' ऐसा कहने पर उसका अर्थ है कि एक समय कम उदयावलि प्रमाण गोपुच्छाओंके स्तिवुक संक्रमद्वारा वेदी जानेवाली संग्रह कृष्टिमें संक्रान्त होने पर तदनन्तर समयसे लेकर एक हो उदयावलि होती है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । और यह अर्थ सभी संग्रह कृष्टियोंका वेदन करनेवाले क्षपकके सन्धिकालमें प्रत्येकके योजित करना चाहिये। इस प्रकार दूसरी भाष्यगाथाका अर्थ समाप्त हुआ। तत्पश्चात् कृष्टिक्षपकको चौथी मूल गाथा समाप्त होती है इस बातका ज्ञान कराने. के फलस्वरूप उपसंहार वाक्य कहते हैं
* इस प्रकार क्षपणामें चौथी मूल गाथा समाप्त हुई।
६२३६ यह उपसंहारवाक्य सुगम है। इस प्रकार इतने प्रबन्धद्वारा सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानको मर्यादा करके चारित्रमोहनीयको क्षपणामें संग्रह कृष्टिवेदकके प्ररूपणासम्बन्धी-विभाषा और उसी प्रसंगसे सूत्रस्पर्श करके अब यह सभी प्ररूपणा क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपक श्रेणिपर चढ़े हुए पुरुषवेदीके कही है, इस बातका ज्ञान करानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं___ * यह प्ररूपणा क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए पुरुषवेदी क्षपकके जाननी चाहिये।
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गा० २३१ ]
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$ २३७ एसा सव्वावि अणंतरपरूविदा सुहुमसांपराइयगुणट्ठाणपज्जंता परूवणा पुरिसवेदोदयक्खवगस्स कोहसंजलणोदयेण खवगसेढिमुवट्ठिदस्स परूविदा त्ति वुचं
हो ।
९ २३८ संपहि पुरिसवेदोदयस्स चेव माणोदयेण सेढिमारुदस्स केरिसी परूवणा हो आसंका तव्विसयणाणत्तगवेमणट्ठमुवरिमं पबंधमाह
* पुरिसवेदयस्स' चैव माषेण उवट्ठिदस्स गाणत्तं वत्तइस्सामी ।
$ २३७ यह अनन्तर पूर्व सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान पर्यन्त कही गई सभी प्ररूपणा क्रोध संज्वलन कषायके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए पुरुषवेद के उदयवाले क्षपक जीवके कही गई है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
विशेषार्थ — चौथी मूल गाथामें जो कहा गया है उसका भाव यह है कि एक संग्रहकृष्टिका वेदन करके जब अन्य संग्रहकृष्टिका अपकर्षण करके वेदन करनेवाले क्षपकके सन्धिस्थानमें पूर्व में वेदो गई संग्रहकृष्टिका जो भाग शेष बचता है उसको क्षपणा कैसे होती है ? क्या उदयद्वारा उसकी क्षपणा होती है या पर प्रकृतिसंक्रमद्वारा संक्रमण करके उसकी क्षपणा होती है तथा एक समयकम उच्छिष्टावलिप्रमाण जो गोपुच्छा शेष रहती है उसकी क्षपणा कैसे होती है ? यहाँ शेष पदद्वारा दो समय कम दो आवलि प्रमाण नवकबन्ध और एक समय कम एक आवलिप्रमाण उच्छिष्टावलिका ग्रहण किया गया है। इन प्रकार यह मूलगाथा पृच्छासूत्र है । आगे इसका स्पष्टीकरण करने के लिये दो भाष्यगाथाएं आई हैं । उनमेंसे पहली भाष्यगाथा में यह बतलाया गया है कि जो दो समय कम दो आवलिप्रमाण शेष बचता है तथा एक समय कम उच्छिष्टावलि प्रमाण जो शेष बचता है उसमेंसे एक समय कम उच्छिष्टावलिप्रमाण गोपुच्छाका तो स्तिक संक्रमणद्वारा उदयमें निक्षेप करके निर्जीण करता है तथा दो समय कम दो आवलि प्रमाण जो नवकबन्ध प्रमाण गोपुच्छा शेष रहती है उसको अधःप्रवृत्तसंक्रमद्वारा दूसरी संग्रहकृष्टिमें संक्रमित करके क्षपणा करता है । तथा दूसरी भाष्यगाथा में यह बतलाया गया है कि जब यह क्षपक एक संग्रहकृष्टिका वेदन करके दूसरी संग्रह कृष्टिका वेदन करता है तब इसके एक तो जो एक समय कम उच्छिष्टावलिप्रमाण गोपुच्छा शेष बचती है उसकी एक उदयावलि होती है । दूसरे इस समय अपकर्षण करके वेदी जाने वाली संग्रहकृष्टि है उसकी उदयावलि होती है । इस प्रकार संग्रहकृष्टियों के सब सन्धि स्थानोंमें दो उदयावलियाँ होती हैं । मात्र जब एक समय कम उच्छिष्टाप्रमाण गोपुच्छाका स्तिवुक संक्रमद्वारा उदय हो जाता है तब एक हो उदयावलि शेष बचती है ऐसा यहाँ समझना चाहिये ।
२३८ अब मानसंज्वलन कषायके उदयसे श्रेणि पर चढ़े हुए पुरुषवेदके उदयावलि क्षपक जीव कैसी प्ररूपणा होती है ? ऐसी आशंका होनेपर उस विषय में नानापन ( भेद) का अनुसन्धान करनेकेलिये आगे के प्रबन्धको कहते हैं
* अब मान-संज्वलन के उदयसे श्रेणि पर चढ़नेवाले पुरुषवेदी क्षपकने जो विभिन्नता होती है उसे बतलावेंगे ।
१. पुसिवेदस्स ता० ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ चारित्तक्खवणा
$ २३९ सुगमं ।
* तं जहा ।
$ २४० सुगमं ।
* अंतरे अकदे णत्थि णाणत्तं ।
$ २४१ एत्थ णाणत्तमिदि वुते मेदो विसेसो पृधभावों ति एयट्ठो । तदो अंतरकरणादो पुत्रवत्था वट्टमाणाणं कोह- माणोदयक्खवगाणं ण कोत्थि मेदसंभवो ति gists |
* अंतरे कदे णाणत्तं ।
$ २४२ अंतरकरणे पुण समाणिदे तत्तो पहुडि केत्तिओ वि णाणत्तसंभवो अस्थि तमिदाणिं भणिस्सा मोति वृत्तं होदि । संपहि को सो विसेससंभवो त्ति आसंकाए
इदमाह
* अंतरे कदे कोहस्स पढमट्टिदी णत्थि, माणस्स अस्थि ।
१ २४३ पुब्विल्लक्खवगो पुरिसवेदेण सह कोहसंजलणस्स पढमट्ठिदिमंतो मुहुत्तायामेण ठवेदि । एसो वुण पुरिसवेदेण सह माणसंजलणस्स पढमट्टिदि ठवेदि त्ति एद
$ २३९ यह सूत्र सुगम है । * वह जैसे ।
$ २४० यह सूत्र सुगम है |
* अन्तरकरणद्वारा अन्तर नहीं करने तक कोई विभिन्नता नहीं है ।
$ २४१ इस सूत्रमें 'णाणत्त" ऐसा कहनेवर भेद, विशेष और पृथग्भाव ये तीनों एकार्थक हैं । अतएव अन्तरकरणसे पूर्व अवस्था में विद्यमान क्षपक जीवोंके क्रोधसंज्वलन और मानसंज्वलनके क्षपणा के समय कोई भेद सम्भव नहीं है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
* अन्तरक्रिया के सम्पन्न करने पर विभिन्नता है ।
$ २४२ परन्तु अन्तरकरण क्रियाके सम्पन्न होने पर वहाँसे लेकर कितनी ही विभिन्नता सम्भव है उसे इस समय कहेंगे, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब वह कौन सा विशेष सम्भव है ऐसी आशंका होनेपर इस सूत्र को कहते हैं
* अन्तरक्रिया के सम्पन्न करनेके बाद क्रोधसंज्वलन की प्रथम स्थिति नहीं होती, मानसंज्वलनकी प्रथम स्थिति होती है ।
§ २४३ पहलेके क्षपक जीव अर्थात् क्रोधसंज्वलनके उदयके साथ क्षपक श्रेणिपर चढ़नेवाला क्षपक जीव पुरुषवेदके साथ क्रोधसंज्वलनकी प्रथम स्थितिको अन्तर्मुहूर्त आयाम रूपसे
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गा० २३१ ]
मेत्थ णाणत्तं सुत्तणिद्दिट्ठभवहारेयव्वं । कुदो एवमिदि चे ? णिरुद्धवेदसंजलणाणमण्णा वेदगभावाणुववत्तदो । संपहि एसा माणसंजलणपढमट्ठिदी किंपमाणा होदि, किं कोहसंजलणपढमट्ठिदीए सरिसा अहियूणा वा त्ति आसंकाए णिण्णयविहाणट्ठमुवरिमं पबंधमाह-
१०१
* सा केम्महंती ।
$ २४४ सा माणसंजलणपढमट्ठिदी 'केम्महंती', कियन्महती, किं प्रमाणेति ? प्रश्नः कृतो भवति । अत्रोत्तरमाह
* जड़ेही कोहेण उवट्ठिदस्स कोहस्स पढमट्ठिदी कोहस्स चेव खवणद्धा तद्देही चैव एम्महंती' माणेण उवट्ठिदस्स माणस्स पढमट्टिदी |
$ २४५ जदेही जत्तियमेत्ती कोहोदएण चढिदस्स खवगस्स कोइस्स पढमट्ठिदी किट्टीकरणद्धा पज्जता पुणो कोहम्स चेन तिण्ड मंगदकिट्टीणं खवणद्धा च तद्देही तप्पमाणा चेव माणोदयक्खवगस्स माणसंजलणपढमट्ठिदी दट्ठव्वा । एम्महंतीए पढम
स्थापित करता है । परन्तु यह क्षपक अर्थात् मानसंज्वलन के उदयके साथ क्षपकश्रेणिपर चढ़नेवाला क्षपक पुरुषवेदके साथ मानसंज्वलनको प्रथम स्थिति स्थापित करता है, इस प्रकार यह भेद यहाँ पर सूत्र में कहा गया जानना चाहिये ।
शंका- इस प्रकार किस कारण से है ?
समाधान - पुरुषवेदके साथ विवक्षित संज्वलनका अन्यथा वेदकपना नहीं बन सकता है ।
अब मानसं ज्वलनकी प्रथम स्थिति कितनी बड़ी होती है, क्या क्रोधसंज्वलनको प्रथम स्थिति के समान होती है या अधिक होती है या कम होती है ? ऐसी आशंकायें होनेपर निर्णय करनेकेलिये आगे के प्रबन्धको कहते हैं
* वह कितनी बड़ी होती है ?
$ २४४ वह मानसंज्वलनकी प्रथम स्थिति 'के महंती' कितनी बड़ी अर्थात् कितनी प्रमाण वाली होती है ? इस प्रकार यह प्रश्न किया गया है । अब यहाँपर इस प्रश्नका उत्तर कहते हैं* क्रोधसंज्वलनसे क्षपकश्रेणि पर चढ़े हुए जीवकी क्रोधसंज्वलनकी जिस प्रमाण में प्रथम स्थिति होती है और जितने प्रमाणमें क्रोधसंज्वलनका क्षपणाकाल है, मानसंज्वलनसे क्षपक श्रेणिपर चढ़े हुए जीवके तत्प्रमाण में मानसंज्वलनकी प्रथम स्थिति होती है ।
$ २४५ क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए जीवके क्रोधसंज्वलनकी कृष्टिकरणपर्यन्त तथा क्रोधसंज्वलनसम्बन्धी तीन संग्रह कृष्टियोंका क्षपणाकाल है 'तद्देही' तत्प्रमाण हो मान
१. एवं महंती आ० ।
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१०२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ चारित्तक्खवणा द्विदीए विणा तव्विसयाणमावासयाणं संपुण्णभावाणुववत्तीदो । एवं पढमद्विदिपमाणविसये दोण्हं खवगाणं णाणत्तमेदं पदुप्पाइय संपहि एदिस्से पढ मट्ठिदीए अभंतरे कीरमाणाणं आवासयाणं णाणत्तगवेसणट्ठमुवरिमं पबंधमाह
* जम्हि कोहेण उवढिदो अस्सकण्णकरणं करेदि, माणेण उवट्टिदो तम्हि काले कोहं खवेदि । __$ २४६ कोहोदएण चडिदो खवगो जम्मि उद्देसे चउण्हं संजलणाणमस्सकण्णकरणमपुव्वफद्दयविहाणं च करेदि तम्हि उद्देसे एसो माणोदयक्खवगो कोहसंजलणं फद्दयसरूवेणेव खवेदि; तत्थ पयारंतरासंभवादो त्ति वृत्तं होदि । कुदो एवमेत्थ किरियाविवज्जासो जादो त्ति णासंकणिज्जं, माणोदयक्खवगम्मि कोहसंजलणस्स उदयाभावेण फद्दयगदस्सेव विणाससिद्धीए विरोहाभावादो। ण चाणियट्टिगुणट्ठाणे परिणामभेदासंभवमस्सियूण पयदणाणत्तविहाणं' समंजसं करणपरिणामाणमभिण्णसहावत्ते वि
संज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपक जीवको मानसंज्वलनकी प्रथम स्थिति जानना चाहिये, क्योंकि इतनी बड़ी प्रथम स्थितिके बिना तद्विविषयक आवश्यकोंका पूरा होना नहीं बन सकता। इस प्रकार प्रथम स्थितिसम्बन्धी प्रमाणके विषयमें दोनों क्षपकोंके मध्य जो विभिन्नता है उसका कथन करके अब इस प्रथम स्थितिके भीतर किये जाने वाले आवश्यकोंकी विभिन्नताका कथन करनेकेलिये आगेके प्रबन्धको कहते हैं___* क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपक श्रेणि पर चढ़ा हुआ लपक जिस काल में अश्वकर्णकरण करता है, मानसंज्वलनसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ा हुआ क्षपक उस कालमें क्रोधसंज्वलनकी क्षपणा करता है।
६ २४६ क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़ा हुआ क्षपक जिस स्थानपर चारों संज्वलनोंकी अश्वकर्णकरणक्रिया और अपूर्वस्पर्धकविधिको सम्पन्न करता है उस स्थान पर मानसंज्वलनके उदयसे क्षपक श्रेणिपर चढ़ा हुआ यह क्षपक क्रोधसंज्वलनको स्पर्धकरूपसे मात्र क्षय करता है, क्योंकि वहाँ पर अन्य कोई प्रकार सम्भव नहीं है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
शंका-यहाँ पर इस प्रकारका क्रिया-विपर्यास कैसे हो गया है ?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये; क्योंकि मानसंज्वलनके उदयसे क्षपक श्रेणिपर चढ़नेवाले क्षपकके क्रोधसंज्वलनका उदय न होनेके कारण स्पर्धक अवस्थामें रहते हुए हो क्रोध संज्वलनका विनाश सिद्ध होता है, इसलिए इसमें कोई विरोध नहीं है। और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें परिणामोंका भेद सम्भव नहीं है, इसलिये इस अपेक्षा प्रकृतमें भेदका कथन करना ठीक नहीं है, क्योंकि इस गुणस्थानके करणपरिणामोंके अभिन्न स्वभाव होने पर भी भिन्न कषायोंके उदयके
१. आता प्रत्योः विहदावणं इति पाठः ।
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गा० २३१]
१०३ भिण्णकसायोदयसहकारिकारणसण्णिहाणवसेण पयदणाणत्तसिद्धीए बाहाणुवलभादो। तदो तदियमेदं णाणत्तमिदि सिद्धमविरुद्धं । ___ * कोहेण उवट्टिदस्स जा किट्टीकरणद्धा माणेण उवट्टिदस्स तम्हि काले अस्सकण्णकरणद्धा। .
२४७ पुबिल्लखवगस्स जम्मि उद्दे से चदुण्हं संजलणाणं किट्टीकरणद्धा पयदृदि तम्हि एदस्स माणोदयक्खवगस्स तिण्हं संजलणाणमस्सकण्णकरणद्धा पवत्तदि, तत्थ तिस्से जहावसरपत्तत्तादो त्ति वुत्तं होइ । तदो चउत्थमेद णाणत्तमेदस्स माणोदयक्खवगस्स जादमिदि सिद्धं ।। __* को हेण उवट्टिदस्स जा कोहस्स खवणद्धा माणेण उवट्टिदस्स तम्हि काले किट्टीकरणद्धा।
२४८ तुबिल्लखवगस्स जम्मि उद्देसे कोहस्स तिण्हं संगहकिट्टीणं खवणकालो जादो तम्हि एदस्स खवगस्स तिण्हं संजलणाणं किट्टीकरणद्धा भवदि, पुवमेव णिस्संतीकयकोहसंजलणसव्वद्ध-माण-माया-लोहसंजलणपडिबद्धाणं णवण्हं संगहकिट्टीणं परिप्फुडमेव णिवत्तणोवलंभादो त्ति पंचममेदं णाणत्तमवहारेयव्वं ।
सहकारी कारणोंके सन्निधानके वशसे प्रकृतमें नानापनकी सिद्धिमें कोई बाधा नहीं पाई जाती। इसलिये यह तीसरा नानापन है, यह अविरोधरूपसे सिद्ध हो जाता है।
क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपक श्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके जो कृष्टिकरणका काल है, मानसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके उस कालमें अश्वकर्णकरण काल होता है ।
६२४७ पिछले क्षपकके जिस स्थानमें चारों संज्वलनोंका कृष्टिकरणकाल प्रवृत्त होता है उसी स्थान पर मानसंज्वलनके उदयसे क्षपक श्रेणिपर चढे हए इस क्षपकके तीन संज अश्वकर्णकरणकाल प्रवृत्त होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि वहाँ वह यथावसरप्राप्त है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस कारण मानसंज्वलनके उदयसे क्षपक श्रेणिपर चढ़े हुए इस क्षपकके यह चौथा भेद हो गया है, यह सिद्ध हुआ। ___ * क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके जो क्रोधसंज्वलनका क्षपणा-काल है, मानसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके उस कालमें कृष्टिकरण-काल होता है।
६२४८ पिछले क्षपकके जिस स्थानमें क्रोध संज्वलनको तीन संग्रह कृष्टियोंका जो क्षपणा काल हो गया है उसो स्थानमें इस क्षपकके तोन संज्वलनोंका कृष्टिकरणकाल होता है, क्योंकि जिसने पहले ही क्रोध संज्वलनको निःसत्त्व कर दिया है उसके उस सब कालके भीतर मान, माया और लोभ संज्वलनसे सम्बन्ध रखनेवाली नौ संग्रह कृष्टियोंकी स्पष्टरूपसे ही रचना पाई जाती है, इस प्रकार यह इन दोनोंमें पाँचवाँ भेद जानना चाहिये ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ चारित्तक्खवणा
* कोहेण उवदिस्स जा माणस्स खवणद्धा, माणेण उवट्ठिदस्स तम्हि चेव काले माणस्स खवणद्धा ।
१०४
९ २४९ कोहोदएण चढिदस्स खवगस्स जा माणस्स तिण्डं संगहकिट्टीण खवणद्धा तहि चेव काले एसो माणवेदगखवगो अप्पणो तिन्हं संगहकिट्टीणं खवणाए पयहृदि, ण तत्थ किंचि णाणत्तमत्थि त्ति भणिदं होदि । एत्तो उवरिमसव्वत्थेव दोपह खवगाणं णाणत्तेण विणा सव्वा परूवणा पयट्टदि त्ति | जाणावणफलो उत्तरसुत्तणिदेसो
* एत्तो पाये जहा कोहेण उवद्विदस्स विही तहा माणेण उवट्टिदस्स ।
$ २५० गयत्थमेदं सुत्तं । एवमेत्तिएण पबंधेण पुरिसवेदोदयक्खवगस्स णिरु - काण तत्थ कोहोदय क्खवगादो माणोदयक्खवगस्स णाणत्तमणुमग्गिय संपहि तस्सेव पुरिसवेदक्खवगस्स मायोदयेण सेढिमारूढस्स जो णाणत्तविचारो तणिण्णयविहाणमुवरिमं सुत्तपबंधमाह
* क्रोधसंज्वलन के उदयसे क्षपक श्रेणि पर चढे हुए क्षपकके जो मान संज्वलन काक्षपणा काल है, मानसंज्वलनसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके उसी कालमें मानसंज्वलनका क्षपणाकाल है ।
$ २४९ क्रोधसंज्वलन के उदयसे क्षपक श्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके जो मानसंज्वलनकी तीन संग्रह कृष्टियों का जो क्षपणा काल है उसी कालमें यह मान संज्वलनका वेदन करनेवाला क्षपक अपनी तीन संग्रह कृष्टियोंकी क्षपणामें प्रवृत्त होता है। इस प्रकार इसमें कोई विभिन्नता नहीं है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इससे आगे सर्वत्र ही दोनों क्षपकों के भेदके बिना समस्त प्ररूपणा प्रवृत्त होती है, यह ज्ञान कराने के फलस्वरूप आगेके सूत्रका निर्देश करते हैं
* इससे आगे जिस प्रकार क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपककी क्षपणकी विधि कही है उसी प्रकार मानसं ज्वलन के उदयसे क्षपक श्रेणिपर चढ़े हुए क्षपककी क्षपणाकी विधि जाननी चाहिये ।
$ २५० यह सूत्र गतार्थ है । इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा पुरुषवेदके उदयसे क्षपक श्रेणि पर चढ़े हुए क्षपकको विवक्षित कर वहाँ क्रोध संज्वलनके उदयसे क्षपक श्रेणि पर चढ़े हुए क्षपकसे मानसंज्वलन के उदयसे क्षपकश्र णि पर चढ़े हुए क्षकको विभिन्नताका अनुसन्धान करके अन पुरुषवेदके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए उसी पुरुषवेदो क्षपकके मायासंज्वलन के उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके जो विभिन्नताका विचार है उसका निर्णय करनेके लिए आगे के सूत्र - प्रबन्धको कहते हैं—
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१०५
गा० २३१ ]
* पुरिसवेदयस्स मायाए उवहिदस्स णाणत्तं वत्तइस्सामो । ६ २५१ सुगमं । - * तं जहा । $२५२ सुगमं ।
* कोहेण उवट्ठिदस्स जम्महंती कोहस्स पढमट्टिदी कोहस्स चेव खवणद्धा माणस्स च खवणद्धा मायाए उवढिदस्स एम्महंती मायाए पढमहिदी।
६ २५३ एत्थ वि अंतरे अकदे णत्थि णाणत्तं; अंतरे कदे णाणत्तमिदि अहियारवसेणाहिसंबंधो कायव्यो । तदो अंतरं करेमाणो मायोदयक्खवगो सेससंजलणपरिहारेण मायासंजलणस्सेव पढ महिदिमंतोमुहुत्तायामेण हवेदि। सा च केम्महंती होदि त्तिपच्छिदे कोहोदयेणोवढिदस्स खवगस्स जम्महंती कोहस्स पढमहिदी सगंतोक्खित्तअस्सकण्णकरणकिट्टीकरणद्धा कोहस्स चेव तिण्हं किट्टीणं खवणद्धा माणस्स च तिण्हं संगहकिट्टीणं खवणद्धा संपिंडिदा एम्महंती एत्तियमेत्तपमाणविसेसोवलक्खिया मायाए
* अब माया संज्वलन के उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके पुरुषवेदीकी विभिन्नताको बतलावेंगे ।
$ २५१ यह सूत्र सुगम है। * वह जसे । ६२५२ यह सूत्र सुगम है ।
* क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके जितनी बड़ी क्रोधसंज्वलनकी प्रथमस्थिति, क्रोधसंज्वलनका ही क्षपणाकाल और मानसंज्वलनका क्षपणाकाल होता है, मायासंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके मायासंज्वलनकी उतनी बड़ी प्रथमस्थिति होती है।
६२५३ यहाँ पर भी अन्तर नहीं करनेके पहले तक विभिन्नता नहीं है। अन्तर करलेनेपर विभिन्नता है, ऐसा अधिकारवश सम्बन्ध कर लेना चाहिये। अतः अन्तर करके माया संज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़नेवाला क्षपक शेष संज्वलनोंको छोड़कर माया संज्वलनको ही अन्तमहुर्त प्रमाण प्रथम स्थिति स्थापित करता है। किन्तु वह कितनी बड़ी होती है ? ऐसा पूछने पर क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपककी जितनो बड़ो क्रोधसंज्वलनको प्रथमस्थिति होती है, जिसके भीतर अश्वकर्णकरणकाल, कृष्टिकरणकाल तथा क्रोधसंज्वलनकी तीनों संग्रहकृष्टियोंका क्षपणा काल तथा मान संज्वलनकी ही तीनों संग्रहकृष्टियोंका क्षपणा काल मिलकर गर्भित है उतनी बड़ी अर्थात् इतने बड़े प्रमाण विशेषसे उपलक्षित माया संज्वलनके उदयसे क्षपक
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१०६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ चारित्तक्खवणा समवद्विदस्सेदस्स खवगस्स पढमट्टिदी होदि त्ति तप्पमाणावच्छेदो एदेण सुत्तेण कदो दहव्यो । किं पुण कारणमेम्महंती एदस्स पढ मट्टिदी जादा त्ति णासंकणिज्ज, एदिस्से पढमहिदीए अभंतरे कीरमाणकज्जमेदाणमेत्तियमेत्तकालेण विणा संपुण्णभावाणुववत्तीदो। संपहि एत्थ कीरमाणकज्जभेदाणं णाणत्तगवेसणं कुणमाणो उवरिमं पबंधमाह ।
* कोहेण उवहिदो जम्हि अस्सकरणकरणं करेदि मायाए उवट्टिदो तम्हि कोहं खवेदि।
$२५४ सुगमं ।
* कोहेण उवहिदो जम्हि किवीश्रो करेदि, मायाए उवट्ठिदो तम्हि माणं खवेदि।
६२५५ सुगममेदं पि सुत्तं । कोह-माण-संजलणाणमेत्थ फद्दयसरूवेणेव कोहोदयखवगस्स अस्सकण्णकरण-किट्टीकरणद्धासु जहाकम खवणसिद्धीए परमागमुज्जोवबलेण सुपरिणिच्छिदत्तादो।
श्रेणिपर चढ़े हुए इस क्षपककी प्रथम स्थिति होती है। इस प्रकार उस अर्थात् मायासंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपककी प्रथमस्थितिके प्रमाणका इस सूत्रद्वारा कथन किया गया जानना चाहिये।
शंका--परतु मायासंज्वलनकी इतनी बड़ी प्रथमस्थिति हो गई, इसका क्या कारण है ? ___ समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि इस प्रथम स्थितिके भीतर किये जानेवाले कार्यभेद इतने कालके बिना पूर्णताको नहीं प्राप्त हो सकते।
अब यहाँ पर किये जानेवाले कार्य-भेदोंकी विभिन्नताका अनुसन्धान करते हुए आगेके प्रबन्धको कहते हैं
__* क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़नेवाला क्षपक जिस कालमें अश्वकर्णकरण करता है, मायासंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़नेवाला क्षपक उस कालमें क्रोधसंज्वलनका क्षय करता है ।
६२५४ यह सूत्र सुगम है।
* क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़नेवाला क्षपक जिस कालमें कृष्टियोंको करता है, मायासंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़नेवाला क्षपक उस कालमें मानसंज्वलनका क्षय करता है।
६२५५ यह सूत्र भी सुगम है । क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके अश्वकर्णकरण और कृष्टिकरण इन दोनों में जितना समय लगता है; मायासंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके उतने कालमें क्रमसे क्रोधसंज्वलन और मानसंज्वलनका स्पर्धकरूपसे क्षय सिद्ध होता है यह परमागमके उद्योतके बलसे अच्छी तरह निश्चित होता है।
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१०७
गा० २३१ ]
* कोहेण उवढिदो जम्हि कोधं खवेदि मायाए उवट्ठिदो तम्हि अस्सकएणकरणं करेदि ।
$२५६ कोहोदयक्खवगस्स कोहतिण्णिसंगहकिट्टीणं खवणद्धाए एसो मायोदयक्खवगो दोण्हं संजलणाणमस्सकण्णकरणविहाणमपुव्वफद्दयेहिं सह पयट्टावेदि त्ति वृत्तं होइ । कुदो एवं विहो किरियाविवज्जासो एत्थ जादो त्ति णासंका कायव्या, णाणाजीवविसयाणमणियट्टिपरिणामाणमभिण्णसरूवत्ते वि कसायोदयभेदसहकारिकारणवसेण तहाविहभेदसिद्धीए बाहाणुवलंभादो । तदो चउत्थभेदं णाणत्तमवहारेयवमिदि सिद्धं । ____ * कोहेण उवट्ठिदो जम्हि माणं खवेदि मायाए उवढिदो तम्हि किट्टीअो करेदि ।
$ २५७ कोहोदयक्खवंगस्स माणतिण्णिसंगहकिट्टीणं खवणद्धाए एदस्स खवगस्स माया-लोभमंजलणविसयाणं छण्हं संगहकिट्टीणं णिवत्तणसिद्धीए णिप्पडिबंधमुवलंभादो । तदो पंचमभेदं णाणत्तमिदि सिद्धं ।
* क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ा हुआ जिस कालमें क्रोधका क्षय करता है, मायासंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़ा हुआ क्षपक उस कालमें अश्वकर्णकरण करता है।
$२५६ क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके क्रोधसंज्वलनकी तीन संग्रहकृष्टियोंकी क्षपणाके कालमें यह मायासंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़नेवाला क्षपक क्रोधसंज्वलन और मानसंज्वलनके अश्वकर्णकरणकी विधिको अपूर्वस्पर्धकोंके साथ प्रवर्ताता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-यहाँ पर इस प्रकारको क्रियाको विपरीतता कैसे हो गई ?
समाधान--ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये क्योंकि नाना जीवोंविषयक अनिवृत्तिकरणके सम्बन्धी परिणामोंके अभिन्नस्वरूप होनेपर भी कषायोंके उदयमें भेदसम्बन्धी सहकारी कारणोंके वशसे उस प्रकारके भेदकी सिद्धिमें कोई बाधा नहीं पायी जाती। इस कारण चौथा भेद नाना रूप जानना चाहिये, यह सिद्ध होता है।
* क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ा हुआ क्षपक जिस कालमें मानसंज्वलनका क्षय करता है, मायासंज्वलनसे क्षपक श्रेणिपर चढ़ा हुआ क्षपक उस कालमें कृष्टियोंको करता है।
$ २५७ क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके मानसंज्वलनको तीन संग्रहकृष्टिकी क्षपणाके कालमें इस क्षपकके माया और लोभसंज्वलनविषयक छह संग्रहकृष्टियोंके रचनाकी सिद्धि बिना बाधाके उपलब्ध होती है । इसलिये यह पाँचवों विभिन्नता है, यह सिद्ध हुआ ।
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[चारित्तक्खवणा
१०८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ____ * कोहेण उवट्ठिदो जम्हि मायं खवेदि तम्हि चेव मायाए उवढिदो मायं खवेदि।
६२५८ दोण्हं पि खवगाणं माया-खवणद्धाएं'णाणत्तेण विणा पवत्तिदंसणादो; ण तत्थ किंचि णाणत्तमिदि वृत्तं होइ । एत्तो प्पहुडि जाव सुहुमसांपराइयकिट्टीखवणद्धा ताव णत्थि चेव णाणत्तमिदि पदुप्पायणट्ठमिदमाह* एत्तो पाए लोभं खमाणस्स णत्थि णाणत्तं ।
२५९ गयत्थमेदं सुत्तं, एदम्मि विसये दोण्हं पि खवगाणं णाणत्तेण विणा पवुत्तिदंसणादो। एवमेत्तिएण पबंधेण मायोदयक्खवगस्स णाणत्तपरूवणं कादण संपहि लोभोदयक्खवगं घेत्तूण कोहोदयक्खवगेण सह सण्णियासं कुणमाणो उवरिमं पबंधमाढवेइ ।
* पुरिसवेदयस्स लोभेण उवट्ठिदस्स णाणत्तं वत्तइस्सामो । ६२६० सुगमं।
* क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ा हुआ क्षपक जिस समय माया का क्षय करता है उसी समय मायासंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ा हुआ क्षपक मायासंज्वलनका क्षय करता है ।
६ २५८ दोनों ही क्षपकोंके मायासंज्वलनके क्षपणासम्बन्धी कालमें विभिन्नताके बिना प्रवृत्ति देखी जाती है, वहां कुछ भी भेद नहीं है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । तथा यहाँसे लेकर जब तक सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिका काल है तब तक कोई भेद नहीं है, इस बातका कथन करनेकेलिये इस सूत्रको कहते हैं
* इससे आगे लोम-संज्वलनकी क्षपणा करनेवालेके कोई भेद नहीं है।
६२५९ यह सूत्र गतार्थ है, क्योंकि इस स्थानमें दोनों ही क्षपकोंके भेदके बिना प्रवृत्ति देखी जाती है। इस प्रकार इतने प्रबन्धद्वारा मायासंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपककी विभिन्नताकी प्ररूपणा करके अब लोभसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकको ग्रहणकर क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके साथ सन्निकर्षको करते हुए आगेके प्रबन्धको आरम्भ करते हैं
* लोभसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़े हुए पुरुषवेदी क्षपककी विभिन्नताको बतलावेंगे।
६२६० यह सूत्र सुगम है।
१. खवगाणं खवणद्धाए आ० ।
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गा० २३१ ]
१०९
* जाव अंतरं ण करेदि ताव णत्थि पाणत्तं ।
§ २६१ सुगमं ।
* अंतरं करे माणो लोभस्स पढमट्ठिदि ठवेदि ।
8 २६२ एदं ताव पढमं णाणत्तं । पुव्विल्लक्खवगो कोहसंजलणस्स पढमट्ठिदिमंतोमुहुत्तायामेण ठवेदि । एसो वुण तप्परिहारेण लोहसंजलणस्स अंतोमुहुत्तमेत्तिं पढमट्ठिदि वेदित्ति ! संपहि एदिस्से पढमट्ठिदीए पमाणविसेसावहरणट्ठमिदमाह -
* सा के महंती !
९ २६३ सा कियन्महत्ती ? किं प्रमाणेति प्रश्नः कृतो भवति ।
* जद्देही कोहेण उवट्ठिदस्स कोहस्स पढमट्ठिदी कोहस्स माणस्स मायाए च खवणद्धा तद्देही लोभेण उवदिस्स पढमहिदी ।
$ २६४ कोहोदयक्खवगस्स को पढ मट्ठिदीए कोह-2 इ- माण - मायाणं खवणद्धाए च संपिंडिदाए जं पमाणमुप्पज्जदि तत्तियमेत्ती एदस्स पढमट्ठिदी होदि ति वृत्तं होइ ।
* जब तक अन्तर नहीं करता है तब तक भेद नहीं है ।
$ २६१ यह सूत्र सुगम है ।
* अन्तर करनेवाला क्षपक लोभसंज्वलनकी प्रथमस्थिति स्थापित करता है ।
§ २६२ यह प्रथम भेद-विशेषता है। पहलेका क्षपक क्रोधसंज्वलन की प्रथम स्थिति अन्तर्मुहूर्त - प्रमाण स्थापित करता है । परन्तु यह क्षपक उसके परिहाररूपसे लोभसंज्वलन की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्रथम स्थिति स्थापित करता है । अब इस प्रथम स्थिति के प्रमाणविशेषका अवधारण करने केलिये इस सूत्र को कहते हैं
* वह लोभसंज्वलनके उदय से क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके प्रथम स्थिति कितनी बड़ी होती है ?
९ २६३ वह कितनी बड़ी होती है अर्थात् कितने प्रमाणवाली होती है ? यह प्रश्न किया
गया है ।
* क्रोधसंज्वलन के उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके जितनी बड़ी क्रोधसंज्वलन की प्रथम स्थिति तथा क्रोध, मान और माया संज्वलनका क्षपणाकाल है उतनी बड़ी लोभसंज्वलन के उदयसे अपकाणिपर चढ़े हुए क्षपकके प्रथम स्थिति होती है ।
$ २६४ क्रोधसंज्वलन के उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके क्रोधसंज्वलनकी प्रथम स्थिति तथा क्रोध, मान और मायासंज्वलनके क्षपणाकालको एकत्रित करनेपर जितना प्रमाण उत्पन्न होता है उतनी बड़ी इसकी प्रथम स्थिति होतो है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । और इस प्रकारकी
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११० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[चारित्तक्खवणा ण च एवंविहा पढमट्ठिदी एत्थ णिरत्थिया, एदिस्से चेव पढमद्विदीए अब्भंतरे कोहमाण-मायाणं खवण द्धाओ अस्सकण्णकरणकिट्टीकरणद्धाओ च जहाकममणपालेमाणस्सेदस्स एम्महंतीए पढमहिदीए सप्पओजणत्तदंसणादो। संपहि एदिस्से पढमद्विदीए अभंतरे कोरमाण कज्जभेदाणं णिण्णयविहाणट्ठमुवरिमं पबंधमाह___ * कोहेण उवविदो जम्हि अस्सकण्णकरणं करेदि, लोभेण उवडिवो तम्हि कोहं खवेदि।
* कोहेण उवट्टिदो जम्हि किट्टीओ करेदि लोभेण उवट्टिदो तम्हि . माणं खवेदि। __* कोहेग उवट्ठिदो जम्हि कोहं खवेदि लोभेग उवढिदो तम्हि मायं खवेदि।
* कोहेण उवढिदो जम्हि माणं खवेदि, लोभेग उवहिदो तम्हि अस्सकण्णकरणं करेदि ।
प्रथम स्थिति यहाँ पर निरर्थक नहीं है क्योंकि इसी प्रथम स्थितिके भीतर क्रोध, मान और मायासंज्वलनोंके क्षपणाकालों, अश्वकर्णकरणकाल तथा कृष्टिकरणकालोंको क्रमसे पालन करनेवाले इस क्षपकके इतनी बड़ी प्रथम स्थिति सप्रयोजन देखी जाती है। अब इस प्रथम स्थितिके भीतर किये जानेवाले कार्योंके भेदोंका निर्णय करनेकेलिये आगेके प्रबन्धको कहते हैं--
* क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ा हुआ क्षपक जिस कालमें अश्वकर्णकरण करता है, लोमसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ा हुआ क्षपक उस कालमें क्रोधसंज्वलनकी क्षपणा करता है।
* क्रोध संज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ा हुआ क्षपक जिस कालमें कृष्टियोंको करता है, लोभसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ा हुआ क्षपक उस कालमें मानसंज्वलनका क्षय करता है ।
* क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ा हुआ क्षपक जिस कालमें क्रोधसंज्वलनका क्षय करता है, लोभसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ा हुआ क्षपक उस कालमें मायासंज्वलनका क्षय करता है।
* क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ा हुआ क्षपक जिस समय मानसंज्वलनका क्षय करता है, लोभसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ा हुआ क्षपक उस समय अश्वकर्णकरण करता है ।
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गा० २११]
१११ * कोहेण उवहिदो जम्हि मायं खवेदि लोभेण उवहिदो तम्हि किट्टीअो करेदि । ___ * कोहेण उवट्ठिदो जम्हि लोभं खवेदि, तम्हि चेव लोमेण उवट्टिदो लोभं खवेदि। __६२६५ एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । णवरि एत्थ अस्सकण्ण करणमिदि वुत्ते जइ वि लोभसंजलणस्स एक्कस्स अस्सकण्णकरणायारेण अणुभागविण्णासो ण संभवदि तो वि अणुभागविसेसघादमपुवफद्दयविहाणं च पेक्खियण अस्सकण्णकरणद्धाए संभवो एत्थ ण विरुद्धदि त्ति घेत्तव्यं । किट्टीकरणद्धाए च लोभसंजलणस्सेव पुव्वापुव्वफद्दयाणि ओवट्टेयूण तिण्णि बादरसंगहकिट्टीओ णिवत्तेदि त्ति दट्ठव्वं, सेसकसायाणमेत्थ संभवाणुवलंभादो एसा सव्वा वि णाणत्तपरूवणा पुरिसवेदोदयं धुवं कादण कोहोदयक्खवगादो माण-माया-लोभोदयक्खवगाणं परूविदा त्ति जाणावगट्टमुवसंहारवकमाह
* एसा सव्वा सण्णिकासणा पुरिसवेदेण उवट्ठिदस्स ।
* क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ा हुआ क्षपक जिस समय मायासंज्वलनका क्षय करता है, लोभसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ा हुआ क्षपक उस समय कृष्टियोंको करता है।
* क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकवेगिपर चढ़ा हुआ क्षपक जिस समय लोभका क्षय करता है, लोभसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ा हुआ क्षपक उसी समय लोभसंज्वलनका क्षय करता है ।
२६५ ये सूत्र सुगम हैं । इतनी विशेषता है कि एक सूत्रमें अश्वकर्णकरण ऐसा कहनेपर यद्यपि एक लोभसंज्वलनका अश्वकर्णकरणरूपसे अनुभाग का विन्यास सम्भव नहीं है, तो भी अनुभागके विशेषघात और अपूर्वस्पर्धकविधानको देखकर अश्वकर्णकरणकी सम्भावना यहाँपर विरोधको प्राप्त नहीं होती, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। तथा कृष्टिकरण कालमें लोभसंज्वलनकी ही पूर्व और अपूर्व स्पर्धकोंका अपवर्तन करके तीन बादर संग्रहकृष्टियोंकी रचना करता है, ऐसा जानना चाहिये, क्योंकि शेष कषायें यहाँपर सम्भव नहीं हैं। यह सभी विविधतारूप प्ररूपणा पुरुषवेदके उदय को ध्रव करके क्रोधसंज्वलनके उदयकी क्षपणाके साथ मान, माया और लोभसंज्वलनके उदययक्त क्षपकोंके कही गई है। इस प्रकार इस बातका ज्ञान करानेकेलिये उपसंहारवाक्यको कहते हैं
* यह सब सन्निकर्ष-प्ररूपणा पुरुषवेदके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपककी कही गई है।
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११२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[चरित्तक्खवणा ___६२६६ सुगमं । संपहि इत्थीवेदेण उवद्विदस्स खवगस्स णाणताणुगमणं कुणमाणो उवरिमं सुत्तपबंधमाढवेइ
* इत्थिवेदेण उवट्टिदस्स खवगस्स णाणत्तं वत्तइस्सामो।
२६७ सुगर्म । * तं जहा। $२६८ सुगमं । * जाव अंतरंण करेदि ताव गथि जागत्तं ।
$ २६९ कुदो ? अंतरकरणादो हेडिमाणं किरियाविसेसाणं दोसु वि खवगेसु णाणत्तेण विणा पवुत्तीए णिब्बाहमुवलंभादो। अंतरकरणे कदे पुण केत्तिओ वि मेदो अस्थि त्ति जाणावणट्ठमुत्तरसुतमाह
* अंतरं करमाणो इत्थीवेदस्स पढमहिदि ठवेदि।।
कुदो एवमिदि चे ? जस्स वेदस्स संजलणस्स वा उदएण सेढिमारुहदि तस्सेव पढमट्ठिदिमंतोमुहुत्तायामेसो ठवेदि, ण सेसाणमिदि णियमदंसणादो। संपहि एदिस्से इथिवेदपढमट्टिदीए पमाणविसेसावहारणद्वमुत्तरसुत्तारंभो।
६२६६ यह सूत्र सुगम है। अब स्त्रीवेदके उदयके साथ क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपककी विभिन्नताका अनुगमन करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको आरम्भ करते हैं
* स्त्रीवेदके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए अपकके भेदको बतलावेंगे । 8 २६७ यह सूत्र सुगम है। * वह जैसे। ६२६८ यह सूत्र सुगम है। * जबतक अन्तर नहीं करता है तबतक भेद नहीं है।
६२६९ क्योंकि अन्तरकरण के पहले दोनों ही क्षपकोंमें भेदके बिना प्रकृति निर्बाध पायी जाती है। अन्तरकरण करनेपर तो कितना ही भेद पाया जाता है, इसका विशेष ज्ञान करानेकेलिये आगेका कथन करते हैं
* अन्तर करनेवाला जीव स्त्रीवेदकी प्रथम स्थिति स्थापित करता है। शका--ऐसा किस कारणसे होता है ?
समाधान—जिस वेद और संज्वलन कषायके उदयसे श्रेणिपर आरोहण करता है उसीकी प्रथम स्थितिको यह जोव अन्तमुहूर्तप्रमाण स्थापित करता है, शेष प्रकृतियोंकी नहीं, ऐसा नियम देखा जाता है।
अब इस स्त्रीवेदकी प्रथम स्थितिके प्रमाण-विशेषका अवधारण करनेकेलिये उत्तर सूत्रको आरम्भ करते हैं--
१. ता० प्रती मेसा इति पाठः ।
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गा० २३१ ]
* जद्देही पुरिसवेदेण उवट्ठिदस्स इत्थीवेदस्स खवणद्धा इत्थवेदेण उवदिस्स इत्थीवेदस्स पढमट्टिदी |
११३
तद्देही
8 २७० पुरिसवेदोदय क्खवगस्स णव सय वेदक्खवणद्धा सहगदा इत्थीवेदक्खवणद्धा जम्महंती तत्तियमेत्ती चेव एदस्स इत्थीवेदपढमट्ठिदी होदित्ति भणिदं होदि । संप इसे पढमदीए अन्यंतरे णव सयवेदमित्थीवेदं च जहाकममेव खवेमाणस्स ण किंचि णाणत्तमत्थि त्ति पदुप्पायणमुवरिमं पबंधमाह -
* णवंसयवेदं खवेमाणस्य णत्थि पागतं ।
२७१ सुगमं ।
* सयवेदे खीणे इत्थीवेदं खवेइ |
$ २७२ सुगममेदं पि सुत्तमिदि ण एत्थ किं पि वक्खायन्त्रमत्थि ।
* जम्प्रहंती पुरिसवेदेण उवदिस्स इत्थीवेदक्खवणद्धा तम्महंती इत्थवेदे उवदिस्स इत्थीवेदस्स खवणद्धा ।
* पुरुष वेदके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए जीवके जितने प्रमाणवाला स्त्रीवेदका क्षपणाकाल होता है, स्त्रीवेदके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके उतने प्रमाणवाली स्त्रीवेदकी प्रथम स्थिति होती है ।
$ २७० पुरुषवेद के उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके नपुंसकवेदकें क्षपणाकालके साथ स्त्रीवेदका क्षपणाकाल जितना बड़ा होता है उतनी बड़ी ही इस क्षपकके स्त्रीवेदकी प्रथम स्थिति होती है; यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब इस प्रथम स्थितिके भीतर नपुंसकवेद और स्त्रीवेदको क्रमसे क्षय करनेवालेके कोई नानापन नहीं है; इस बातका कथन करनेकेलिये आगे के प्रबन्धको कहते हैं ।
* नपुंसकवेदका क्षय करनेवाले उक्त क्षपकके कोई विभिन्नता नहीं है ।
६ २७१ यह सूत्र सुगम है ।
* उक्त क्षपक नपुंसकवेदका क्षय होनेपर स्त्रीवेदका क्षय करता है ।
§ २७२ यह सूत्र भी सुगम है, इसमें कोई बात व्याख्यान करनेयोग्य नहीं है ।
* पुरुषवेदके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़नेवाले जीवके जितना बड़ा स्त्रीवेदका क्षपणाकाल है, स्त्रीवेदके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपक के उतना बड़ा स्त्रीवेदका क्षपणकाल है ।
१५
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ चारितक्खवणा
९ २७३ पुरिसवेदोदयखवगस्स इत्थीवेदखवणद्धादो एदस्स इत्थीवेदोदयक्खवगस्स तक्खवणद्धाए पमाणादो उद्दे सदो च णाणत्तसंभवाणुवलं मादो ।
* तदो अवगदवेदो सत्तकम्मंसे खवेदि ।
११४
$ २७४ इत्थीवेदपढमट्ठदीए ज्झीणाए अवगदवेदभावेण पुरिसवेदछण्णोकसाये खवेदिति एदमेत्थ णाणत्तमवहारेयव्वं, पुरिसवेदोदयक्खवगस्स सवेदभावेणेव छण्णोकसायपुरिसवेदाणं चिराणसतकम्मस्स णिल्लेवणदंसणादो । अण्णं च थोवयरं णाणत्तमेत्य संभवदित्ति जाणावणट्ठमिदमाह -
* सत्तण्हं पि कम्माणं तुल्ला खवणद्धा ।
$ २७५ तत्थ छण्णोकसाएस पुरिसवेदचिराणसंतकम्मेण सह निल्लेविदेसु पुणो समयूण- दोआवलियमेत्तकालेण पुरिसवेदेण णवकवंधाणं' जिल्लेवणा होदि, एत्थ पुणण तहा संभवो अत्थि, अवगदवेदभावे वट्टमाणस्स पुरिसवेदबंधासंभवेण तत्थ णवकबद्धसमयपबद्धाणमच्चंतासंभवादो ।
$ २७३ पुरुषवेदके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके स्त्रीवेदके क्षपणाकालसे, स्त्रीवेदके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए इस क्षपकके उस ( स्त्रीवेद ) के क्षपणाकालमें प्रमाणकी अपेक्षा और उद्देश्य की अपेक्षा किसी प्रकारकी विभिन्नताकी सम्भावना नहीं पायी जाती ।
* वह जीव तदनन्तर अपगतवेदी होकर सात कर्मोंका क्षय करता है ।
२७४ स्त्रीवेदकी प्रथम स्थितिके समाप्त होनेपर वह क्षपक अपगतवेदी होकर पुरुषवेद और छह नोकषायों का क्षय करता है, इस प्रकार यहाँपर यह विशेषता जान लेना चाहिये, क्योंकि पुरुषवेदके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़नेवाले जीवके सवेदपनेके साथ ही छह नोकषाय और पुरुषवेदके चिरकालीन सत्कर्मका निर्लेपन देखा जाता है। तथा यहाँपर अन्य भी थोड़ी विशेषता सम्भव है, इसलिये उस विशेषताका ज्ञान करानेके लिये आगे इस सूत्र को कहते हैं
* किन्तु उसके सातों कर्मोंका क्षपणाकाल तुल्य है ।
९ २७५ उसके पुरुषवेदके चिरकालीन सत्कर्मके साथ छह नोकषायों के निर्लेपित हो जानेपर पुनः एक समय कम दो आवलिप्रमाणकाल द्वारा पुरुषके नवकसमयप्रबद्धोंकी नि पता होती है, क्योंकि यहाँ पर उनका पुनः उस तरहसे रहना सम्भव नहीं है। उसका कारण नहीं है कि अपवेद वेदरूपसे विद्यमान उस क्षपकके पुरुषवेदका बन्ध सम्भव नहीं होनेसे वहाँ पर नवक समयप्रबद्धों का रहना अत्यन्त असम्भव है ।
१. णवकबद्धाणं प्रेसकापीप्रती ।
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११५
गा० २३१]
* सेसेसु पदेसु णत्थि णाणत्तं । * कुदो?
६ २७६ एत्तो उवरिमासेसपदेसु णाणत्तलेयस्स वि संभवाणवलंभादो । एवमेत्तिएण सुत्तपबंधेण इत्थीवेदोदयक्ख वगस्स णाणत्तविचारं परिसमाणिय संपहि णवुसयवेदोदयक्खवगं घेत्तूण तत्थ पयदपरूवणाए णाणत्तगवेसणट्ठमुवरिमं सुत्तपबंधमाढवेई ।
* एत्तो णवुसयवेदेण उवविदस्स खवगस्स णाणत्त वत्तइस्सामो । ६ २७७ सुगमं । * जाव अंतरं ण करेदि ताव णत्थि णाणत्तं । ६ २७८ सुगमं । * अंतरं करेमाणो णवुसयवेदस्स पढमहिदि हवेदि ।
६ २७९ एदमेगं णाणत्तमेत्थ दट्ठव्वं, इत्थि-पुरिसवेदपरिहारेण णqसयवेदस्सेव पढमट्ठिदि ठवेदि ति। संपहि एदिस्से णवुसयवेदपढमद्विदीए पमाणविसेसावहारणमिदमाह
* शेष पदों में विभिन्नता नहीं है।
६२७६ क्योंकि इससे आगेके शेष पदों में विभिन्नताका लेश भो सम्भव नहीं है । इस प्रकार इतने सूत्रप्रबन्धद्वारा स्त्रोवेदके उदय से क्षपक श्रेणिपर चढ़नेवाले क्षपकके विभिन्नताके विचारको समाप्तकर अब नपुंसक वेदके उदयसे क्षपक श्रेणिपर चढ़नेवाले क्षपकको स्वीकार कर वहाँ प्रकृत प्ररूपणाकी विभिन्नताका अनुसन्धान करनेकेलिये आगेके सूत्र प्रबन्धको आरम्भ करते हैं
* इससे आगे नपुंसकवेदके उदयसे क्षपक श्रेणिपर चढ़े हुए क्षपककी विभिन्नताको बतलावेंगे।
$ २७७ यह सूत्र सुगम है। * जब तक अन्तर नहीं करता है तब तक कोई विभिन्नता नहीं है। ६ २७८ यह सूत्र सुगम है। * अन्तर करने वाला क्षपक नपुंसकवेदको प्रथम स्थिति स्थापित करता है ।
६ २७९ यह एक विभिन्नता यहाँपर जानना चाहिये, क्योंकि यहाँपर स्त्रीवेद और पुरुषवेदको छोड़कर एक नपुसकवेदकी ही प्रथम स्थिति स्थापित करता है। अब इस नपुंसकवेदकी प्रथम स्थितिके प्रमाणविशेषका अवधारण करनेकेलिये इस सूत्रको कहते हैं
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ चारित्तक्खवणा ___* जम्महंती इत्यिवेदेण उवट्ठिदस्स इत्थीवेदस्स पढमहिदी तम्महंती णवुसयवेदेश उवढिदस्स पसयवेदस्स पढमहिदी ।
२८० इत्थीवेदोदयक्खवगस्स इत्थीवेदपढमद्विदीए सह णवुसयवेदोदयक्खवगस्स णव सयवेदपढमट्ठिदी सरिसपमाणा चेव होदि, णाण्णारिसि त्ति वुत्तं होइ । संपहि एदिस्से पढमद्विदीए अभंतरे णवंसयवेदमित्थीवेदं. च खवेमाणो किमकमेण खवेदि, आहो कमेणेत्ति आसंकाए णिरारेगीकरणद्वमुवरिमो सुत्तपबंधो--
* तदो अंतरदुसमयकदे णवु सयवेदं खवेदुमाढत्तो । ६ २८१ सुगमं ।
* जद्देही पुरिसवेदेण उवष्टिदस्स गवुसयवेदस्स खवणद्धा तहेही णवंसयवेदेष उवट्ठिदस्स णवुसयवेदस्स खवणद्धा गदा; ण ताव णवंसयवेदो खीयदि।
२८२ पुरिसवेदोदयक्ख वगस्स णवु सयवेदक्खवणद्धामेत्ते काले गदे वि एदस्स णवुसयवेदोदयक्खवगस्स णसयवेदो ण ताव खीयदि, अप्पणो पढमट्ठिदीए
* स्त्रीवेदके उदयसे क्षपककश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकको स्त्रीवेदकी जितनी बड़ी प्रथम स्थिति होती है; नपुंसकवेदके उदयसे क्षपकोणिपर चढ़े हुए क्षपकके नपुंसकवेदकी उतनी बड़ी प्रथम स्थिति होती है।
६२८० स्त्रीवेदके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके स्त्रीवेदकी प्रथम स्थितिके साथ नपुंसकवेदके उदयसे क्षपक श्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके नपुसकवेदकी प्रथम स्थिति सदृश प्रमाणवाली ही होती है, अन्य प्रकारकी नहीं; यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब इस प्रथमस्थितिके भीतर नपुसकवेद और स्त्रीवेदका क्षय करनेवाला क्या अक्रमसे क्षय करता है या क्या क्रमसे क्षय करता है ? ऐसो आशंका होनेपर निःशंक करनेकेलिये आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है
* तदनन्तर अन्तर करनेके दूसरे समयमें नपुंसकवेदका क्षय करनेकेलिये आरम्भ करता है।
६ २८१ यह सूत्र सुगम है।
* पुरुषबेदके उदयसे भपकोणिपर चढनेवाले क्षपकके नपुंसकवेदका क्षपणाकाल जितना बड़ा होता है, नपुंसकवेदके उदयसे लपक भोणिपर चढ़नेवाले क्षपकके नपुसकवेदका उतना बड़ा क्षपणाकाल व्यतीत हो जाता है तो मी नपुंसकवेदका क्षय नहीं होता है।
६ २८२ पुरुषवेदके उदयसे क्षपक श्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके नपुंसकवेदके क्षपणाकालमात्रकालके वोत जानेपर भो इस नपुंसकवेदके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़नेवाले क्षपकके नपुंसक
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गा० २३१ ]
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अज्जवि अंतोमुहुत्तमेत्तीए उवरि संभवादोत्ति वृत्तं होदि । एत्तो परमित्थीवेदस्स वि खवणमाढविय दो वि खवेमाणो अप्पणो पढमट्ठिदीए चरिमसमये जुगवमेव दोन्हं पि चरमफालीओ खवेदित्ति जाणावणमुत्तरमुत्तारंभो-
* तदो से काले इत्थीवेदं खवेदुमाढत्तो एवं सयवेदं पि खवेदि । * पुरिसवेदेण उवदिस्स जम्हि इत्थीवेदो खीणो तम्हि चेव णवु सयवेदेण उवदिस्स इत्थीवेद-णव सयवेदा च दो वि सह खिज्जंति' । * तदो अवगदवेदो सत्तकम्मंसे खवेदि ।
* सत्तण्हं कम्माणं तुल्ला खवणद्धा ।
* सेसेसु पदेसु जथा पुरिसवेदेण उवदिस्स अहीणमदिरित्तं तत्थ णाणत्तं ।
$ २८३ गतार्थत्वान्नात्र किंचिद् व्याख्येयमस्ति, अनिवृत्तिकरणपरिणमनान्नानाजीवविषयाणां fasafe कालेषु विलक्षणभावासंभवे कथमयं नानात्वविचाराभिनिवेशो
वेदका तो क्षय होता नहीं, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अपनी प्रथम स्थिति अभी भी आगे सम्भव है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इससे आगे स्त्रीवेदकी भी क्षपणाका आरम्भ कर दोनोंका ही क्षय करता हुआ अपनी प्रथम स्थिति के अन्तिम समय में एकसाथ ही दोनों को भो अन्तिम फालियों की क्षपणा करता है; इस बातका ज्ञान करानेकेलिये आगे के स्त्रको प्रारम्भ करते हैं
* पश्चात् अनन्तर समयमें जब स्त्रीवेदका क्षय करनेकेलिये आरम्भ करता है तब नपुंसकवेदका भी क्षय करता है ।
* पुरुषवेदके उदयसे क्षपक श्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके जिस समय स्त्रीवेद क्षीण होता है नपुंसक वेद के उदयसे क्षपकश्र णिपर चढ़े हुए क्षपकके उसी समय स्त्रीवेद और नपुंसक वेद दोनों ही एक साथ क्षयको प्राप्त होते हैं ।
* तत्पश्चात् अपगतवेदी होकर सात नोकषायरूप कर्मोंको क्षय करता है । * सात कर्मोंका क्षपणाकाल तुल्य है ।
* शेष पदोंमें जैसी विधि पुरुषवेदके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़नेवाले क्षपककी कह आये हैं वैसी ही विधि हीनता और अधिकता से रहित यहाँ भी जाननी चाहिये ।
६ २८३ गतार्थ होने से यहाँ पर कुछ भी व्याख्येय नहीं है, वृत्तिकरण परिणामोंके तीनों ही कालोंमें विलक्षणपना असम्भव
१. खविज्जंति आ० ।
क्योंकि नानाजीव विषयक अनिहोनेपर यह नानापनेके विचारका
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ चारित्तक्खवणा
घटत इत्याशंकायां दत्तमुत्तरं । वेदकषायोदय भेदमाश्रित्य करणपरिणामानामभिन्नस्वभावानामपि यथोक्तं नानात्वविशिष्टकार्यनिर्वर्तने व्यापाराविरोधादिति । एवमेतावता प्रबंधेन सूक्ष्मसां परायगुणस्थानपर्यंतं चारित्रमोहक्षपणाविधिं प्रपंचेन प्ररूप्य साम्प्रतं सूक्ष्मसां पराय चरिमसमयविषयं प्ररूपणावशेषं निरूपयितुमुत्तरं सूत्रप्रबन्धमाचष्टे ।
* जाधे चरिमसमयसुहुमसांपराइयो जादो ताघे णामागोदाणं द्विदिबंधो मुहुत्ता ।
* वेदणीयस्स ट्ठिदिबंधो बारस मुहुत्ता |
* तिन्हं धादिकम्माणं द्विदिबंधो अंतोमुहुत्तं ।
* तिन्हं घादिकम्माणं द्विदिसंतकम्मं अंतोमुहुत्तं ।
* णामागोद वेदणीयाणं द्विदिसंतकम्ममसंखेज्जाणि वस्त्राणि ।
$ २८४ गतार्थत्वान्नात्र किंचिद् व्याख्येयमस्ति ।
* मोहणीयस्स ट्ठदिसंतकम्मं णस्सदि ।
अभिनिवेश कैसे घटित होता है ? ऐसी आशंका होनेपर उत्तर दे आये हैं कि वेदों और कषायोंके उदय सम्बन्धी भेदका आश्रय करके करणपरिणामों के अभिन्नस्वभाववाला होनेपर भी यथोक्तरूपसे नानारूप कार्यों के रचनारूप व्यापारके होनेसे विरोध नहीं आता । इस प्रकार इतने प्रबन्धद्वारा सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान पर्यन्त विस्तार के साथ चारित्रमोह के विषय में क्षपणाधिका प्ररूपण करके अब सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समय विषयक प्ररूपणासम्बन्धी अवशेष कथनका निरूपण करनेके लिये आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* जब अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक हो जाता है तब नामकर्म और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध आठ मुहूर्त होता है ।
* वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध बारह मुहूर्त होता है ।
* तीन षातिकर्मोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त होता है ।
* तीन घातिकर्मोंका स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्त होता है ।
* नाम, गोत्र और वेदनीयकर्मका स्थितिसत्त्व असंख्यात वर्षप्रमाण होता है ।
९ २८४ गतार्थ होने से यहाँपर कुछ व्याख्यान करनेयोग्य नहीं है ।
* मोहनीयकर्मका स्थितिसच्च नाशको प्राप्त होता है ।
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गा० २३१ ]
११९ ६ २८५ सुहुमसांपराइयद्धाए संखेज्जभागमेत्तावसेसे गुणसेढिसीसएण सह मोहणीयचरिमफालिं घादिय तदो जहाकममधहिदीए सगद्धावसेसमेत्तीओ गुणसेढिगोवुच्छाओ अणुसमयमोवहिज्जमाणसुहुमकिट्टीसरूवाणुभागसहगदाओ गालेमाणस्स सुहुमसांपराइयखवगस्स चरिमसमये मोहणीयस्स ट्ठिदिसंतकम्ममणुभागपदेसाविणाभाविखविज्जमाणं गिरवसेसमेव विणस्सदि त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसंगहो । एदं च सुत्तमुप्पादाणच्छेदं दबट्टियणयणिबंधणमवलंबियण पयट्टमिदि दट्टव्वं, सुहुमसांपराइयचरिमसमये संतोदयेहिं विज्जमाणस्सेव मोहणीयस्स णिम्मलविणासोवएसादो। एवं च सुहुमसांपराइयगुणट्ठाणमणुपालिय तत्थेव चरिम समये जहावुत्तेण विहिणा मोहणीयं पढमसुक्कज्झाणपरिणामेहिं णिम्मलविणासिय तदणंतरसमए खीणकसायगुणहाणं पडिवज्जदि त्ति परूवणट्ठमुवरिमं सुत्तपबंधमाढवेइ--
* तदो से काले पढमसमयखीणकसायो जादो।
६ २८६ चरित्रमोहनीयपरिक्षयानन्तरसमये द्रव्यभावभेदभिन्नाशेषकषायवर्गोपरमात प्रतिलब्धक्षीणकषायव्यपदेशो यथाख्यातविहारशुद्विसंयममनुप्राप्तः प्रथमसमयनिर्ग्रन्थवीतराग-गुणस्थानमेष प्रतिपन्न इत्ययमत्र सूत्रार्थसंग्रहः । भवति चात्र क्षीणकषायगुणस्थानस्वरूपनिरूपणाय गाथा
६२८५ सूक्ष्मसाम्परायिकके कालके संख्यातवें भागके शेष रहनेपर गुणाश्रेणिशीर्षके साथ मोहनीर्यकर्म की अन्तिम फालिका नाशकर तदनन्तर क्रमसे अधःस्थितिकेद्वारा अपने कालके बराबर अवशेष रहीं गुणश्रेणिगोपुच्छाओंको प्रतिसमय अपवर्तमान सूक्ष्मसाम्परायिकस्वरूप अनुभागकृष्टियों के साथ गलानेवाले सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके अन्तिम समय में मोहनीयकर्मके अनुभाग और प्रदेशोंके अविनाभावी क्षयको प्राप्त होनेवाला स्थितिसत्व.र्म पूरी तरहसे विनष्ट हो जाता है। इस प्रकार यह इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। यहाँपर यह सूत्र उत्पादानुच्छेदद्रव्याथिकनयका अवलम्बन लेकर प्रवृत्त हुआ यह जानना चाहिये, क्योंकि सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें सत्त्व और उदयरूपसे विद्यमान इस मोहनीयकर्मके निर्मूल विनाशका उपदेश पाया जाता है । इस प्रकार सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानका पालन करके वहींपर अन्तिम समयमें यथोक्त विधिसे प्रथम शुक्लध्यानरूप परिणामोंकेद्वारा मोहनीयकर्मका निर्मूल विनाशकरके तदनन्तर समयमें क्षीणकषायगुणस्थानको प्राप्त होता है, इस बातका कथन करनेकेलिये आगेके सूत्रप्रबन्धको आरम्भ करते हैं
* उसके बाद तदनन्तर समयमें प्रथम समयवर्ती क्षीणकषाय हो जाता है ।
६ २८६ चरित्रमोहनीयकर्मके क्षय होनेके अनन्तर समयमें द्रव्य और भावके भेदसे भिन्न जो सम्पूर्ण कषायवर्ग, उसके उपरम होनेसे जिसने क्षोणकषाय संज्ञाको प्राप्त किया है ऐसा यह जोव यथाख्यातविहारशुद्धिसंयमको प्राप्तकर प्रथम समयमें निर्ग्रन्थ वीतरागगुणस्थानको प्राप्त हुआ। यह यहाँपर इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। यहाँपर क्षीणकषाय गुणस्थानके स्वरूपका निरूपण करनेके लिये एक गाथा पायी जाती है
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [खीणकसायगुणट्ठाणसख्वं णिस्सेसखीणमोहो फलिहामलभायणुदयसमचित्तो।
खीणकसाओ भण्णइ णिग्गंथो वीयरागेहिं ॥ तदेवं लक्षणं क्षीणकषायगुणस्थानं प्रतिपद्य तत्प्रथमसमये वर्तमानस्यास्य क्षपकस्य करणीयविशेषप्रतिपादनार्थ मुत्तरसूत्रावतार:--
* ताधे चेव हिदि-अणुभागपदेसस्स अबंधगो।
$ २८७ तदवस्थायामेव सर्वकर्मणां स्थित्यनुभवप्रदेशानामबंधक इत्युक्तं भवति । कषाये हि स्थित्यादिबंधकारणं, तस्य तदन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात् । ततः कषायपरिणामसंश्लेषापगमान्नास्य स्थित्यादिबंधसंभव इति सुनिरूपितमेतत् । पयडिबंधो पुण जोगमेत्तणिबंधणो खीणकसाये वि संभवदि त्ति ण तस्स पडिसेहो एत्थ कदो। सो वि वेदणीयस्सेव । सादावेदणीयं मोत्तणण्णासि पयडीणमेत्थ बंधाणुवलंभादो । सो वुण सुक्ककुड्डुपदिदपांसुमुट्टिव्यबंधाणंतरसमये चेव गलदि , द्विदिअणुभागबंधकारणकमायसंसग्गामावेण ढक्कबिदियसमये चेव इरियावहबंधस्स णिज्जरोवएसादो। एत्थ
जिसने सम्पूर्ण मोहनीयकर्मका क्षय कर दिया है, जिसका चित्त स्फटिक मणिके निर्मल भाजनमें रखे हुए जलके समान निर्मल है वह वीतराग जिनदेवकेद्वारा निर्ग्रन्थ वीतराग गुणस्थानवाला कहा जाता है ।
इस प्रकार ऐसे लक्षणसे युक्त क्षोणकषाय गुणस्थानको प्राप्तकर करणीय विशेषका प्रतिपादन करनेकेलिये आगेके सूत्रका अवतार करते हैं
* उसी समय सभी कर्मोंके स्थितिवन्ध, अनुभागवन्ध और प्रदेशबन्धका अबन्धक होता है।
६२८७ उसी अवस्थामें सब कर्मोंके स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंका अबन्धक होता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । कषाय ही स्थितिबन्ध आदिका कारण है, क्योंकि कषायके होनेपर स्थितिबन्ध आदि होता है और उसके अभाव में नहीं होता है। एक स्थिति आदिबन्धका कषायके साथ अन्वय-व्यतिरेक सम्बन्ध है, इसलिये कषायरूप परिणाम के संश्लेषका अभाव हो जानेसे इस क्षपकके स्थिति आदिका बन्ध सम्भव नहीं है । इस प्रकार यह अच्छी तरह कहा गया है । परन्तु प्रकृतिबन्ध योगनिमित्तक क्षीणकषायगुणस्थानमें भी सम्भव है, इसलिये उसका यहाँ प्रतिषेध नहीं किया गया है। सो वह भी वेदनीयकर्मका ही होता है, क्योंकि सातावेदनीय कर्मको छोड़कर अन्य प्रकृतियोंका यहाँ पर बन्ध नहीं पाया जाता। परन्तु वह सूखी दीवालपर गिरी हुई मुट्ठी भर धूलके समान बन्धके अनन्तर समयमें हो गल जाती है, क्योंकि स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके कारण कषायोंके संसर्गका अभाव होने से प्राप्त हुए दूसरे समयमें हो ईर्यापथबन्धको निर्जराका उपदेश पाया जाता है ।
१. गलिददिदि प्रेसकापीप्रती ।
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गा० २३१ ]
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जहा वग्गणाए इरियावह कम्मस्स लक्खणपरूवणा वित्थरेण कदा तहा चैव सवित्थरमणुमग्गियन्वा, विसेसाभावादो ।
$ २८८ हेट्ठिमासे सगुणसेढिणिज्जराहिंतो एदस्स गुणसेढिणिज्जरा असं खेज्जगुणा होण पयट्टदि ति वत्तव्वा, संकसायपरिणामणिबंधणगुणसेढिणिज्जराहिंतो अकसायपरिणाम- णिबंधणगुण सेढिणिज्जराए एदिस्से असंखेज्जगुण तसिद्धीए बाहाणवलंभादो ।
$ २८९ संपहि खीणकसायपढमसमये कीरमाणाणं कज्जमेदाणमेदेण सुत्तेण सूचिदाणमणुगमं कस्सामो । तं जहा -- ताघे चैव तिण्डं घादिकम्माण मंतो मुहुत्तमेत्तायाममण्णं डिदिखंडयमागाएदि, तेसिं चेव घादिद- सेसाणुभागस्साणंता भागमेत्तमणुभागखंडयं च . गेव्हह । णामागोदवेदणीयाणं सेसट्ठिदिसंत कम्मस्सासंखेज्जभागमेत्तं द्विदिखंडयं तेसिं चेव अप्पसत्थपयडीण मणुभागसंतकम्मस्साणंत भागमेत्तमणुभागखंडयं च गेण्हइ । पढमसमयखीणकसाओ छण्हें कम्मंसाणं पदेसपिंड मोकड्डियूण गुणसेढि - विष्णास करेमाणो उदये पदेसग्गं थोवं देदि, से काले असंखेज्जगुणं णिक्खिवदि । एवमसंखेज्जगुणाए सेढीए णिक्खिवमाणो गच्छदि जाव खीणकसायद्धाए उवरि संखेज्जदिभागमेत्तमद्वाणं गंतूण गुणसेढिसीसयं जादं ति ।
जिस प्रकार वर्गणाखण्ड में ईर्यापथकर्मके लक्षणकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार विस्तार के साथ यहाँ पर जान लेनी चाहिये, क्योंकि उस कथनसे इस कथनमें कोई विशेषता नहीं है ।
२८८ पहले की समस्त गुणश्रेणि-निर्जराओं से इस क्षपकको गुणश्रेणिनिर्जरा असंख्यातगुणी होकर प्रवृत्त होती है ऐसा यहाँ जानना चाहिये, क्योंकि कषायसहित परिणामोंके निमित्तसे जो गुण-निर्जरा होती है उससे अकषाय परिणामके निमितसे जो यह गुणश्र णिनिर्जरा होती है उसके असंख्यातगुणी सिद्ध होनेमें बाधा नहीं पायी जाती ।
$ २८९ अब क्षीणकषाय गुणस्थानके प्रथम समय में किये जानेवाले और इस सूत्रद्वारा सूचित होनेवाले कार्यभेदोंका अनुगम करेंगे । यथा - उसी समय तीन घातिकर्मो के अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आयामवाले अन्य स्थितिकाण्डकको ग्रहण करता है तथा घात करनेसे शेष बचे उन्हीं कर्मों के अनुभागसम्बन्धी अनन्त बहुभागप्रमाण अनुभागकाण्डकको ग्रहण करता है । नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मोंके शेष रहे स्थितिसत्कर्मके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिकाण्डकको तथा उन्हीं अप्रशस्त प्रकृतियोंसम्बन्धी अनुभागसत्कर्मके अनन्त बहुभागप्रमाण अनुभागकाण्डकको ग्रहण करता है । तथा प्रथम समयवर्ती क्षीणकषाय क्षपक छह कर्मोंके प्रदेशपिण्डका अपकर्षण करके गुणश्रेणिकी रचना करता हुआ उदयमें थोड़े प्रदेशोंका निक्षेप करता है; अनन्तर समय में असंख्यातगुणे प्रदेशोंका निक्षेप करता है । इस प्रकार असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे निक्षेप करता हुआ जाता है, जब जाकर क्षीणकषाय गुणस्थान के कालके ऊपर संख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर गुणश्रेणि शीर्ष प्राप्त होता है ।
१. 'दट्ठव्वा' प्रेसकापीप्रति ।
9 F
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चारित्तक्खवणा २९० पुणो गुणसेढिसीसयादो उवरिमाणंतरविदीए वि असंखेज्जगुणं णिक्खिवदि, ओकड्डिददव्वस्सासंखेज्जे भागे गुणसेढिसीसयादो उवरिमद्धाणेण खंडिदेयखंडस्स तत्थ णिवदमाणस्स गुणसेढीसीसयदव्वादो असंखेज्जगुणत्तसिद्धीए बाहाणुवलंभादो। तदो उवरि सव्वत्थ विसेसहीणं चैव णिक्खिवदि जाव अप्पप्पणो चरिमट्ठिदिमइच्छावणावलियामेत्तेण अपत्तो ति । एवं बिदियादिसमयेसु वि अवविदगुणसेढिपरूवणा जाणिय कायव्वा । सेसं जहा दंसणमोहक्खवणाए सम्मत्तस्स भणिदं तहा चेव गिरवसेसमेत्थ वि घादिकम्माणं वत्तव्वं, विसेसाभावादो। ___$२९१ एवमेदीए परूवणाए खीणकसायद्धमणुपालेमाणस्स जाधे खीणकसायद्धाए संखेज्जदिभागो सेसो ताधे तिण्हं घादिकम्माणमपच्छिमडिदिखंडयमंतोमुहुत्तायामेण गेण्हमाणो खीणकसायद्धासेसमेत्तं मोत्तूण अवविदगुणसेढिसीसएण सह उवरिं संखेज्जगुणाओ द्विदीओ घेत्तूण चरिमट्ठिदिखंडयं णिवत्तेदि त्ति गेण्हियव्वं । तत्थ दिज्जमाण-दिस्समाणपरूवणाए सम्मत्तचरिमद्विदिखंडयभंगो । तदो चरिमट्ठिदिखंडये णिवदिदे तत्तो परं तिण्हं घादिकम्माणं गुणसेढिकिरिया णत्थि, केवलं तु उदयावलियबाहिरट्ठिदिपदेसग्गमसंखेज्जगुणाए मेढीए उदीरेमाणो गच्छदि जाव समयाहियावलियछमत्थो ति। तत्तो परमुदीरणा णत्थि ;
६२९० पुनः गुणश्रेणिशीर्षसे उपरिम अनन्तर स्थितिमें भी असंख्यातगुणे प्रदेशोंको निक्षिप्त करता है, क्योंकि अपकर्षित किये गये द्रव्यके असंख्यात बहुभागको गुणश्रेणिशीर्षसे जो उपरिम अध्वान (उपरितन स्थिति) है उससे भाजित करनेपर जो एक भाग प्राप्त हो उसको उपरिम अनन्तर स्थितिमें निक्षिप्त करनेपर वह गुणश्रेणिशीर्षसम्बन्धी द्रव्यसे असंख्यातगुणा सिद्ध होता है, इसमें कोई बाधा नहीं पायी जाती। इसके बाद ऊपर सर्वत्र तब तक विशेषहीन द्रव्यका निक्षेप करता है जब तक अतिस्थापनावलिप्रमाणरूपसे अन्तिम स्थितिको नहीं प्राप्त होता इसो प्रकार द्वितीयादि समयोंमें भी अवस्थित गुणश्रेणिकी प्ररूपणा करनी चाहिये। शेष कथन, जिस प्रकार दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें सम्यकत्वप्रकृतिका कहा गया है उस प्रकारसे यहाँ पर पूरी तरहसे घातिकर्मोका भी करना चाहिये, क्योंकि उससे इस कथनमें कोई विशेषता नहीं है।
६ २९१ इस प्रकार इस प्ररूपणाद्वारा क्षीणकषाय गुणस्थानके कालका पालन करनेवाले क्षपकके जब क्षीणकषाय गुणस्थानके कालमें संख्यातवां भाग शेष रहता है तब तीनों घातिकर्मोके अन्तमुहूर्तआयामरूप अन्तिम स्थितिकाण्डकको ग्रहण करता हुआ क्षीणकषाय गुणस्थानके कालप्रमाण शेषकालको छोड़कर अवस्थित गुणश्रेणिशीर्षके साथ उपरिम संख्यात गुणी स्थितियोंको ग्रहणकर अन्तिम स्थितिकाण्डकको रचना करता है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये। उसमें दिये जानेवाले और दिखनेवाले कर्मप्रदेशोंकी प्ररूपणा सम्यक्त्वप्रकतिके अन्तिम स्थितिकाण्डकके समान जानना चाहिये । तदनन्तर स्थितिकाण्डकके पतित होनेपर तत्पश्चात् तोनों घातिकर्मोकी गुणश्रेणिरचना नहीं होती, केवल उदयावलिके बाहरकी स्थितिके प्रदेशपुञ्जकी असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे उदोरणा, छद्मस्थ. के एक समय अधिक एक आवलिकाल शेष रहने तक, करता जाता है; उसके बाद उदीरणा नहीं
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गा० २३१ ] कम्मोदयेणेव णिज्जरेदि त्ति घेत्तव्वं । सपहि एदस्सेवत्थविसेसस्स फुडीकरणट्टमुत्तरसुत्तमोइण्णं
* एवं जाव चरिमसमयाहियावलियछदुमत्थो ताव तिएहं घादिकम्माणमुदीरगो।
$ २९२ एवमेदीए अणंतरपरूविदासेसपरूवणाए उवलक्खिओ ताव तिण्डं घादिकम्माणमुदीरगो जाव समयाहियावलियचरिमसमयछदुमत्थो त्ति, तत्तो परं कम्मोदयं मोत्तण घादिकम्माणमावलियपविट्ठपदेससंतकम्मरसुदीरणासंभवादो त्ति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो । अत्रान्तमुहूर्तकालं क्षीणकषायस्य प्रथमशुक्लध्यानानुसंधानपूर्विका द्वितीयशुक्लध्यानपरिणतिविस्तरतोऽनुगंतव्या, सुविशुद्धशुक्लध्यानपरिणाममंतरेण कर्मनिर्मूलनानुपपत्तेरिति । अत्रोपयोगिनौ श्लोको
शान्तक्षीणकषायस्य पूर्वज्ञस्य त्रियोगिनः । शुक्लाद्यं शुक्ललेश्यस्य मुख्यं संहननस्य तत् ।।२॥ द्वितीयस्याद्यवत्सर्वं विशेषस्त्वेकयोगिनः । विघ्नावरणरोधार्थ क्षीणमोहस्य तत्स्मृतम् ॥३॥
इति
होतो, केवल कर्मों की उदयरूपसे ही निर्जरा होती है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये। अब इसी अर्थविशेषको स्पष्टकरने के लिये आगेका सूत्र अवतीर्ण हुआ है
* इस प्रकार जब तक छद्मस्थके एक समय अधिक एक आवलिकाल शेष रहता है तब तक तीन घातिकर्मोंका उदीरक होता है ।
६२९२ इस प्रकार इस अनन्तर पूर्व कही गई सम्पूर्ण प्ररूपणासे उपलक्षित यह क्षपक तब तक तीन घातिकर्मोंका उदीरक होता है जब तक कि छद्मस्थके एक समय अधिक एक आवलिकाल शेष रहता है, क्योंकि उससे आगे कर्मोदयको छोड़कर घातिकर्मोकी उदयावलिमें प्रविष्ठ हुए सत्कर्मको उदीरणा असम्भव है, यह इस सूत्रका भावार्थ है। यहाँ पर अन्तमुहूर्तकाल तक क्षोणकषाय क्षपकके प्रथम शुक्लध्यानके अनुसन्धानपूर्वक दूसरे शुक्लध्यानकी परिणतिको विस्तारसे जान लेना चाहिये, क्योंकि सुविशुद्ध शुक्लध्यानरूप परिणामके बिना कर्मका निर्मूलन करना नहीं बन सकता है। यहाँ पर दो उपयोगी श्लोक हैं
जिसकी कषाय उपशान्त या क्षीण हो गई है, जो पूर्वज्ञ है, तीन योगवाला और शुक्ल लेश्यावाला है तथा जो आदिके तीनमें से कोई एक संहननवाला है या मात्र वज्रर्षभसंहननवाला है, उसके प्रथम शुक्लध्यान होता है ॥ २ ॥
तथा जो द्वितीय शुक्लध्यानवाला होता है उसके अन्य सब बातें पहले शुक्लध्यान के समान होती हैं। मात्र उसके इतनी विशेषता होती है कि उसके तीनमें से कोई एक योग पाया जाता है। इस प्रकार अन्तराय कर्म तथा ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मका निरोध करनेकेलिये यह सब विशेषता क्षीणमोह जिनके जान लेनी चाहिये ।। ३ ॥
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[चारित्तक्खवणा ६ २९३ संपहि एत्तो उवरि कीरमाणकज्जमेदपदुप्पायणट्ठमुवरिमो सुत्तपबंधो* तदो दुचरिमसमये णिद्दापयलाणमुदयसंतवोच्छेदो ।
F२९४ खीणकसायस्स चरिमसमयादो हेडिमाणंतरसमयो दुचरिमसमयो णाम । तम्हि दोण्हमेदासि दसणावरणपयडीणमक्कमेण संतोदयवोच्छेदो जादो त्ति वुत्तं होइ । कधं पुण एदस्स खीणकसायस्स बिदियसुकज्झाणग्गिणा धादिकम्मिधणाणि दहमाणस्स एदम्मि अवत्थंतरे णिद्दापयलाणमुदयवोच्छेदसंभवो, झाणपरिणामविरुद्धसहावत्तादो त्ति णासंकणिज्ज, अवत्तव्वसरूवस्स तदुदयस्य झाणोवजुत्तेसु संभवं पडि विरोहाभावादो। तम्हा एसो खीणकसाओ सगद्धाए आदीदो पहुडि केत्तियं पि कालं पढमसुक्कज्झाणं पुधत्तवियक्कवीचारसण्णिदमणुपालिय तदो सगद्धाए संखेज्जदिभागावसेसे विदियसुक्कज्झाणमेयत्तवियक्कवीचारसण्णिदमत्थवंजणजोगसंकंतिविरहिदमणुसंधेयूण ज्झायमाणो अवविदजहाक्खादविहारसुद्धिसंजमपरिणामत्तादो अवविदगुणसेढिणिक्खेवेण पडिसमयमसंखेज्जगुणं कम्मणिज्जरं करेमाणो अपणो दुचरिमसमये णिहा
$ २९३ अब इससे आगे किये जाने वाले कार्योंके भेदोंका प्रतिपादन करनेकेलिये आगेका सूत्र प्रबन्ध आया है
* तत्पश्चात् क्षीणकषायगुणस्थानके द्विचरम समय में निद्रा और प्रचलाकी उदय और सत्त्वव्युच्छित्ति होती है।
६ २९४ क्षीणकषायगुणस्थानके अन्तिम समयसे पूर्व अनन्तर समयका नाम द्विचरम समय है। उस कालमें इन दोनों दर्शनावरणसम्बन्धी प्रकृतियोंकी युगपत् उदय और सत्त्वव्युच्छित्ति हो जाती है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-दूसरे शुक्लध्यानरूपी अग्निकेद्वारा घातिकर्मरूपो ईधनको जलानेवाले इस क्षीणकषाय जीवके इस अवस्थाविशेषमें निद्रा और प्रचला प्रकृतियोंकी उदयव्युच्छित्ति कैसे सम्भव है, क्योंकि इन प्रकृतियोंके उदयसे होनेवाले परिणाम ध्यानपरिणामके विरुद्ध स्वभाववाले हैं ?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि इन दोनों प्रकृतियोंका उदय इस स्थानमें अवक्तव्यस्वरूप है, इसलिये ध्यानमें उपयुक्त हुए क्षपक जीवोंमें उसके स्वभाव होनेमें कोई विरोध नहीं पाया जाता।
इसलिये यह क्षीणकषाय क्षपक अपने कालमें प्रारम्भसे लेकर कितने ही काल तक पृथक्त्ववितर्कवीचार संज्ञावाले प्रथम शुक्लध्यानको पालन करके तदनन्तर अपने कालमें संख्यातवेंभागप्रमाण कालके शेष रहनेपर अर्थ, व्यंजन और योगको संक्रान्तिसे रहित एकत्ववितर्क-अवीचार संज्ञावाले दूसरे शुक्लध्यानका अनुसन्धानपूर्वक ध्यान करता हुआ अवस्थित यथाख्यातविहारशुद्धिसंयमरूप परिणामवाला होनेसे अवस्थित गुणश्रेणिनिक्षेपद्वारा प्रतिसमय असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा करता हआ अपने द्विचरमसमयमें निद्रा और प्रचलाकी सत्त्व और उदयव्युच्छित्ति करता है । इस प्रकार यह
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गा० २३१ ] पयलाणं संतोदयवोच्छेदं कुणदि त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसंगहो। संपहि खीणकसायचरिमसमये कीरमाणकज्जभेदपदुप्पायणमुत्तरसुत्तावयारो
* तदो णाणावरण-दसणावरण-अंतराइयाणमेगसमएण संतोदयवोच्छेदो।
६२९५ तिण्हमेदेसि घादिकम्माणमेयत्तवियक्कावीचारसुक्कझाणेण जहाकम खविज्जमाणाणं खीणकसायचरिमसमए अक्कमेण संतोदयाणमच्चतुच्छेदो जादो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसंगहो। घादिकम्माणं व अधादिकम्माणं पि एत्थेव खीणकसायचरिमसमये जिम्मूलपरिक्खओ किण्ण जायदे, कम्मत्तं पडि विसेसाभावादो त्ति णासंकणिज्जं, घादिकम्माणं व अधादिकम्माणं विसेसघादाभावेण तेसिमज्ज वि पलिदोवमस्सासंखेज्जदिभागमेत्तहिदिसंतकम्मस्स समुवलंभादो। ण च तत्थ विसेसघादाभावो असिद्धो, घादिकम्माणं व तेसि सुट्ट, अप्पसत्थभावाभावमस्सियण तत्थ विसेसघादाभावसमत्थणादो। तम्हा घादिकम्मत्ताविसेसे वि जहा मोहणीयस्सेव सुट्ट, अप्पसत्थभावेण पुव्वमेव विसेसघादवसेण सुहुमसांपराइयचरिमसमये विणाससिद्धी एवं कम्मत्ताविसेसे वि अघादिकम्मपरिहारेण धादिकम्माणं चेव बिदियसुक्कज्झाणाणलसिहाकवलि
यहाँ पर सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। अब क्षीणकषायगुणस्थानके अन्तिम समयमें किये जानेवाले कार्यभेदका कथन करनेके लिये आगेके सूत्रका अवतार करते हैं
* तदनन्तर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मोंकी एक समयद्वारा सत्त्व और उदयव्युच्छित्ति हो जाती है ।
६२९५ एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यानद्वारा क्रमसे क्षयको प्राप्त होनेवाले इन तीनों घातिकर्मोंकी क्षीणकषाय गुणस्थानके अन्तिम समयमें युगपत् सत्त्व और उदयकी व्युच्छित्ति हो जाती है । इस प्रकार यह यहाँ इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है ।
शंका-जैसे घातिकर्मोंका यहाँ पर क्षय हो जाता है उसी प्रकार अघातिकर्मोंका भी यहीं क्षीणकषाय गुणस्थानके अन्तिम समयमें निमूल क्षय क्यों नहीं हो जाता, क्योंकि कर्मपनेकी अपेक्षा उन दोनोंमें कोई भेद नहीं है ?
समाधान--ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि घातिकर्मोंके समान अघातिकर्मोंका विशेष घात नहीं होनेके कारण उनका अब भी पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिसत्कर्म समुपलब्ध होता है। और इन कर्मोके विशेष घातका अभाव असिद्ध नहीं है, क्योंकि घातिकर्मोंके समान उनमें विशेष अप्रशस्तपनेका आभाव है, इसलिये इस अपेक्षासे उनके विशेष घातके अभावका समर्थन होता है । इसलिये घातिकर्मपनेकी अपेक्षा विशेषता न होनेपर भी जैसे मोहनीयकर्मके अत्यन्त अप्रशस्तपनेके कारण पहले ही विशेषघातवश सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समयमें विनाशकी सिद्धि होती है । इस प्रकार कर्मपनेकी अपेक्षा विशेषता न होनेपर भी अघातिकर्मोको छोड़कर शुक्लध्यान
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जयधवलासहिदे कसा पाहुडे
[ चारित्तक्खवणा
याणं खीणकसायचरिमसमये उप्पादाणुच्छेदणयेण णिम्मूलपरिक्खओ त्ति सिद्धं । एत्थ 'खओ' त्ति वुत्ते कम्मक्खंधाणं जीवावयवेहिं सह बंधं पडि एयत्तेण परिणदाणं बंधकारणपडिवक्खमोक्खकारण परिणामजंतेहिं पेल्लिज्जमाणाणं जीवादो जं निम्मूलदो ओसरणं सो खओ त घेत्तन्वो, जीवादो पुधभावेण अकम्मसरूवेण परिणदाणं पि कम्मपोग्गलाणं पोग्गलसरूवेण परिक्खयाणुवलभादो । ततो यथा मणेर्मलादेर्व्यावृत्तिः क्षयः, सतोऽत्यन्तविनाशानुपपत्तेस्तादृगात्मनोऽपि कर्मणां निवृत्तौ परिशुद्धिः ।
* एत्थुद्दे से खीणमोहद्धाए पडिबद्धा एक्का मूलगाहा विहासियव्वा ।
९ २९६ पत्तावसरत्तादो ।
* तिस्से समुत्तिणा ।
* (१७९) खीणेसु कसायेसु य सेसाणं के व होति वीचारा । खवणा वा अखवणा वा बंधोदयणिज्जरा वापि ॥ २३२ ॥
रूपी अग्निशिखाकेद्वारा कवलित हुए घातिकर्मोंका ही क्षीणकषायके अन्तिम समयमें उत्पादानुच्छेदनयकी अपेक्षा निर्मूल क्षय हो जाता है, यह सिद्ध होता है ।
यहाँ पर 'क्ष' ऐसा कहनेपर कर्मस्कन्ध संसारी जीवोंके समस्त प्रदेशोंके साथ बन्धकी अपेक्षा एक रूप परिणत हो रहे हैं, बन्धके कारणों के प्रतिपक्षभूत मोक्ष के कारणरूप परिणामरूप . यन्त्रकेद्वारा पेले जानेवाले उनका जीवसे पूरी तरहसे अपसरण हो जाना, उसका नाम क्षय है, ऐसा "यहाँ पर ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि जीवसे पृथक् होकर अकर्मरूपसे परिणत हुए कर्मपुद्गलों का पुद्गलरूपसे सर्वथा क्षय नहीं हो सकता। इसलिये जिस प्रकार मणिसे मलादिककी निवृत्ति क्षय कहलाती है, क्योंकि सत्का सर्वथा विनाश नहीं हो सकता उसी प्रकार आत्मासे भी कर्मों की निवृत्ति पर परिशुद्धि होती है ।
* इस स्थानपर क्षीणमोहके कालसे सम्बन्ध रखनेवाली एक मूल गाथाकी विभाषा करनी चाहिये ।
९ २९६ क्योंकि वह अवसरप्राप्त है ।
* उसकी समुत्कीर्तना-
* (१७९) कषायों के क्षीण हो जानेपर शेष ज्ञानावरणादिकमोंके कितने क्रियापरिणाम होते हैं ? उनकी क्षपणा होती है या नहीं होती ? बन्ध, उदय और निर्जरा क्या होती है || २३२ ॥
१. ता० प्रतौ इदं वाक्यं चूर्णिसूत्ररूपेणोपलभ्यते ।
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गा० २३२॥
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२९७ एसा मूलगाहा खीणकसायविसयासेसपरूवणं पुच्छामुहेण पदुप्पाएदि । तं जहा-'खीणेसु कसायेसु य' एवं भणिदे अणियट्टिसुहमसांपराइयगुणट्ठाणेसु पढमसुक्कस्स झाणपरिणामेण जहाकम कमायेसु पुव्वत्तेण विहिणा खविदेसु खीणकसायगुणट्ठाणं पविट्ठस्स तदवत्थाए 'सेसाणं' कम्माणं णाणावरणादिकम्माणं' 'के व होति वीचारा' काओ वा किरियाओ होंति ? 'खवणा वा अखवणा वा बंधोदयणिज्जरा वा' केसि कम्माणं केरिसी होदि त्ति सुत्तत्थसंबंधवसेण एसा मूलगाहा खीणकसायविसयासेसपरूवणं पुच्छामुहेण जाणावेदि त्ति घेत्तव्वं । ___२९८ एदिस्से मूलगाहाए भासगाहाओ गत्थि, सुबोहत्तादो। तदो एदिस्से अत्थपरूवणा-किट्टीसु एक्कारस मूलगाहाणं अत्थे भण्णमाणे जहा कदा, तहा चेव णिरवसेसं कायव्वा, विसेसाभावादो। णवरि एत्थ द्विदिघादेण १, ट्ठिदिसंतकम्मेण २, उदयेण ३, उदीरणाए ४, द्विदिखंडएण ५, अणुभागखंडयेण ६, एत्तियमेत्ताओ किरियाओ वत्तव्वाओ । 'खवणा वा अखवणा वा' एवं भणिदे एवमेदं पदं कसाएसु खीणेसु खीणकसायगुणट्ठाणे तिण्हं घादिकम्माणं खवणाविहिमघादिकम्माणं च ताधे
६ २९७ यह मूल सूत्रगाथा क्षीणकषायविषयक समस्त प्ररूपणाका पृच्छामुखसे कथन करती है। यथा-'खीणेसू कसाएस य' ऐसा कहनेपर अनिवृत्तिकरण और सूक्ष प्रथम शुक्लध्यानसम्बन्धीध्यानरूप परिणामसे यथाक्रम कषायोंके पूर्वोक्त विधिसे क्षपित हो जानेपर क्षीणकषायगुणस्थानमें प्रविष्ठ हुए जीवके उस अवस्थामें 'सेसाणं' कम्माणं अर्थात् ज्ञानावरणादि कर्मोंके 'के व होंति वीचारा' अर्थात् क्या क्रियापरिणाम होते हैं-'खवणा वा अखवणा वा बंधोदयाणिज्जरा वा' अर्थात् (उन कर्मोंकी) क्षपणा होती है या क्षपणा नहीं होतो, बन्ध, उदय और निर्जरा क्या होती है ? किन कर्मोंको किस प्रकारको होती है ? इस प्रकार उक्त सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्धके वशसे यह मूल सूत्रगाथा क्षीणकषायगुणस्थानविषयक सम्पूर्ण प्ररूपणाका पृच्छामुखसे' ज्ञान कराता है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये ।
६२९८ इस मूल सूत्रगाथाकी भाष्यगाथाएं नहीं हैं क्योंकि यह सूत्रगाथा सुबोध है । इसलिये इसकी अर्थप्ररूपणा करते हैं- कृष्टियोंके विषयमें ग्यारह मूल गाथाओंके अर्थके अर्थका कथन करनेपर जिस प्रकार उनका कथन किया है उसी प्रकारका इसका पूरा कथन करना चाहिये । क्योंकि उक्त कथनसे इसके कथनमें कोई विशेषता नहीं है। इतनी विशेषता है कि यहाँपर स्थितिघात १, स्थितिसत्कर्म २, उदय ३, उदोरणा ४, स्थितिकाण्डक ५ और अनुभागकाण्डक ६ इतनी क्रियायें कहनी चाहिये । 'खवणा वा अखवणा वा' ऐसा कहनेपर-इस प्रकार यह पद कषायोंके क्षोण होनेपर क्षोणकषाय गुणस्थानमें तोन घातिकर्मोकी क्षपणाविधिको और अघातिकर्मोंके क्षपणाके अभावकी
१. आ० प्रतौ णाणावरणादोणं इति पाठः । २. आ० प्रती मूलगाहाओ इति पाठः ।
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[चारित्तक्खवणा
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे खवणाभावं पि उवेक्खदे । 'बंधोदयणिज्जरा वा वि' एवं पदं खीणकसायस्स गुणसेढिणिज्जराविहाणं तत्थ द्विदि-अणुभाग-पदेसबंधपडिसेहदुवारेण पयडिबंधस्सेव संभवमुदयादीरणविसेसं च सूचेदि त्ति घेत्तव्यं । एवमेत्तिये अत्थे विहासिदे तदो एसा खीणमोहपडिबद्धा मलगाहा समत्ता भवदि ।
* संपहि एत्थेवुद्देसे एक्का संगहणमलगाहा विहासेयव्वा ।'
$ २९९ जहावसरपत्तत्तादो। को संगहो णाम ? चरित्तमोहणीयस्स वित्थरेण पुव्वं परूविदखवणाए दबट्ठियसिस्सजणाणुग्गहढे संखेवेण परूवणा संगहो णामः । तदो पुव्वुत्तासेसत्थोवसंहारमूलगाहा संगहणमूलगाहा त्ति भण्णदे।
* तिस्से समुक्कित्तणा। * (१८०) संकामणमोवट्टण किट्टी खवणाए खीणमोहंते ।
खवणा य प्राणपुवी बोद्धव्वा मोहणीयस्स ॥२३३॥
उस समय अपेक्षा करता है। 'बंधोदयणिज्जरा वा पि' इस प्रकार यह पद क्षीणकषाय जीवके गुणश्रेणि निर्जराविधिको तथा वहाँ स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धके प्रतिषेधद्वारा प्रकृतिबन्ध सम्बन्धी ही सम्भव उदय और उदोरणाविशेषको सूचित करता है ऐसा यहाँ उक्त पदोंके अर्थको ग्रहण करना चाहिये। इस प्रकार इतने अर्थको विभाषा करनेपर इसके बाद क्षीणमोहसे सम्बन्ध रखनेवाली यह मूल सूत्रगाथा समाप्त होती है।
* अब इस स्थानपर एक संग्रहणी मूल सूत्रगाथाकी विभाषा करनी चाहिये । ६ २९९ क्योंकि वह यथावसर प्राप्त है । शंका-संग्रह किसका नाम है ?
समाधान-चारित्रमोहनीयकी पहले विस्तारसे प्ररूपणा कर आये हैं उसका द्रव्यार्थिक शिष्यजनोंका अनुग्रह करनेकेलिये संक्षेपसे प्ररूपणा करनेका नाम संग्रह है। इसलिये पूर्वोक्त समस्त विषयका थोड़ेमें उपसंहार करनेवाली मूल सूत्रगाथा संग्रहणी मूलगाथा कही जाती है । ऐसा यहाँ समझना चाहिये।
के अब उसको समुत्कीर्तना करते हैं।
* (१८०) क्षीणमोह गुणस्थानके अन्त होनेके पूर्व तक अर्थात् मोहनीय कर्मके क्षय होनेके अन्त तक संक्रमणा, अपवर्तना और कृष्टिक्षपणाके क्रमसे मोहनीयकर्मकी आनुपूर्वीसे क्षपणा जाननी चाहिये ॥ २३३ ॥ १. आ० प्रतौ सूत्रमिदं चूणिसूत्ररूपेण नोपलभ्यते; ता० प्रतौ तु च कोष्ठकान्तर्गतमिदं वाक्यमुपलभ्यते
चूर्णिसूत्ररूपेण ।
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गा० २३३ ]
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९ ३०० एसा अट्ठावीसदिमा मूलगाहाचरितमोहणीयपयडीणं परिवाडीए खवणाविहिं जाणावेदि । तं कधं ? 'संक्रामण' एवं भणिदे अंतरकरणं काढूण जाव छण्णोकसाए खवेदि ताव एदिस्से अवत्थाए संकामणा त्ति ववएसो, णव सयवेदादिपरिवाडीए णवण्हं णोकसायाणमेत्थ संकामयत्तदंसणादो । 'ओवट्टणा' एवं भणिदे अस्सकण्णकरणद्धा किट्टीकरणद्धा च घेत्तव्वा, तत्थ चदुसंजलणाणुभागस्स अस्सकण्णायणोवणदंसणादो ।
S३०१ 'किट्टीखवणा य' एवं भणिदे किट्टीवेदगद्धा सुहुमसां पराइयगुणट्ठाणपज्जता णिद्दिट्टा त्ति दट्ठव्वा, तत्थ जहाकम कोहादिकिट्टीणं खवणदंसणादो । 'खीणमोहंते' एवं भणिदे खीणकसायगुणट्ठाणमवहिं काढूण तदो हेट्ठा चेव चारित्तमोहणी - यस खवणा पयदि, ण तत्तो परमिदि वृत्तं होइ । एवमेदेसु अवत्थंतरेसु संकामणो
कट्टवद्ध सणदेसु खीणकसायद्धापज्जतेषु 'खवणाए' मोहणीयस्स खवणकिरियाए 'आणुपुत्री' परिवाडी बोद्धव्वा सि । एवमेसा संगहण मूलगा हा संखेवेण मोहणीयस्स खवणपरिवादि परूवेदि त्ति घेत्तव्वं । एदिस्से वि णत्थि भासगाहा, सुगमत्थपडि बद्धाए एदिस्से मासगाहाहिं विणा चेव अत्थणिण्णयोववत्तदो । अदो
S३०० यह अट्ठाइसवीं मूल सूत्रगाथा चरित्रमोहनीयसम्बन्धी प्रकृतियोंकी परिपाटीक्रमसे क्षपणाविधिक ज्ञान कराती है।
शंका- वह कैसे ?
"
समाधान - कामण' ऐसा कहने पर अन्तरकरण करके जब तक छह नोकषायोंकी क्षपणा करता है तब तक इस अवस्थाको 'संक्रामणा' यह संज्ञा है, क्योंकि नपुंसक वेद आदि परिपाटीक्रमसे नौ नोकषायोंका यहाँ पर अन्य प्रकृतियोंमें संक्रम करानेरूप कार्य देखा जाता है । 'ओवदृणा' ऐसा कहनेपर अश्वकर्णकरणद्धा और कृष्टिकरणद्धा इनको ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि उस अवस्थामें चार संज्वलनोंके अनुभागकी अश्वकर्णकरणरूपसे अपवर्तना देखी जाती है ।
$ ३०१ किट्टीखवणा य' ऐसा कहने पर सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्त तक कृष्टिवेदककाल जानना चाहिये, क्योंकि उस अवस्थामें यथाक्रम क्रोधादि कृष्टियों की क्षपणा देखी जाती है । 'खीणमोहंते' ऐसा कहने पर क्षीणकषाय गुणस्थानको मर्यादा कर उससे पहले ही चारित्रमोहनीकी क्षपणा प्रवृत्त होती है, उससे आगे नहीं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार इन अवस्थाओं के मध्य संक्रामणा, अपवर्तना और कृष्टिक्षपणद्धा संज्ञक कार्योंके होने पर क्षीणकषायके काल
अन्त होनेके पूर्व तक अर्थात् दसवें गुणस्थान तक 'खवणाए' अर्थात् मोहनीय कर्मको क्षपणारूप क्रियाकी 'आणुपुवी' अर्थात् परिपाटो जाननी चाहिये । इस प्रकार यह संग्रहणी मूल गाथा संक्षेपसे मोहनीय कर्मकी क्षपणासम्बन्धी परिपाटीकी प्ररूपणा करती है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । इस मूलगा था की भी भाष्यगाथा नहीं है, क्योंकि सुगम अर्थसे सम्बन्ध रखनेवाली इस मूलगाथाका भाष्यगाथा के बिना ही अर्थका निर्णय बन जाता है । और इसीलिये ही चूर्णिसूत्रकारने इन दो मूल
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१३० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[चारित्तक्खवणा चेव चुण्णिसुत्तयारेण दोण्हमेदासि मूलगाहाणं समुक्कित्तणा विहासा च णाढत्ता, सुगमत्थपरूवणाए गंथगउरवं मोत्तूण फलविसेसाणुवलंमादो त्ति ।
६३०२ अधवा एदिस्से मूलगाहाए अत्थो उवरिमचूलियागाहाहिं बुच्चीहिदि त्ति तत्थेव तण्णिण्णयं कस्सामो। एवमेतावता प्रबंधन क्षीणकषायचरिमसमये घातिकमंत्रयस्य निरवशेषप्रक्षयमुपदिश्य सांप्रतं तदनन्तरसमये केवलज्ञानमुत्पाद्य नवकेवललब्धिपरिणतः परमस्नातकगुणस्थानं प्रतिपद्य भगवान् सयोगी केवली सर्वज्ञः सर्वदर्शी च जायत इत्येतत्प्रतिपादयितुकामः सूत्रमुत्तरं पठति
* तदो अणंतकेवलणाण-दसण-वीरियजुत्तो जिणो केवली सव्वण्हो सव्वदरिसी भवदि सजोगिजिणो त्ति भण्णइ ।।
६३०३ततो घातिकर्मक्षयानन्तरसमये भ्रष्टबीजवन्निःशक्तीकृताघातिचतुष्टयस्समुद्भुतानन्तकेवलज्ञानदर्श नवीर्ययुक्तः स्वयम्भत्वमात्मसात्कुर्वन् जिनः केवली सर्वज्ञः सवदर्शी च जायते । स एव भगवानहत्परमेष्ठी सयोगिजिनश्चेति भण्यते, तत्र तदवस्थायां वाक्कायपरिस्पंदलक्षणस्य योगविशेषस्येर्यापथबंधहेतोः सद्भावादिति सूत्रार्थः ।
गाथाओंको समुत्कीर्तना और विभाषा आरम्भ नहीं की है, क्योंकि यह मूलगाथा सुगम अर्थकी प्ररूपणा करती है, इसलिये । यदि इनकी भाष्यगाथाएँ लिखी जाती तो ] ग्रन्थको गुरुता [ बढ़ जाने ] को छोड़कर उससे कोई फलविशेष प्राप्त होनेवाला नहीं है।
६३०२ अथवा इस मूलगाथाका अर्थ आगे चूलिका गाथाओंद्वारा कहेंगे, इसलिये वहीं पर उसका निर्णय करेंगे। इस प्रकार इतने प्रबन्धकेद्वारा क्षीणकषायगुणस्थानके अन्तिम समयमें तीन घातिकर्मोंके पूरे क्षयका उपदेश करके अब क्षीणकषाय गुणस्थानके अनन्तर समयमें केवलज्ञानको उत्पन्न करके नव केवललब्धिसे परिणत होता हुआ परम स्नातक गुणस्थानको प्राप्त करके भगवान् सयोगिकेवल सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाता है । इस प्रकार इस तथ्यके प्रतिपादनको इच्छा रखनेवाले परमर्षि यतिवृषभ आगेके सूत्रको कहते हैं
8 तदनन्तर अनन्त केवलज्ञान, अनन्त केवलदर्शन और अनन्त वीर्यसे संयुक्त होता हुआ जिन, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होता है । उसोको सयोगी जिन कहते हैं ।
६.३०३ तदनन्तर घातिकर्मोंके क्षय होनेके अनन्तर समयमें भ्रष्ट बीजके समान जिसने चार अघाति कर्मोंको निःशक्त कर दिया है और जो अनन्त केवलज्ञान, अनन्त केवलदर्शन और अनन्त वीर्यसे संयुक्त हो गया है; ऐसा होकर जो स्वयम्भू होनेसे आत्माधीनपनेको प्राप्त होता हुआ जिन, केवली, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाता है, वही भगवान् अर्हत्परमेष्ठो और सयोगी जिन कहा जाता है। वहाँ उस अवस्थामें ईर्यापथ बन्धका हेतु होनेसे वचन और कायके परिस्पन्दलक्षण-योगविशेषका सद्भाव रहता है, यह इस सूत्रका अर्थ है। १. आ० प्रती वुव्वीहिदि इति पाठः ।
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गा० २३३ ] ___६३०४ तत्र केवलज्ञानादीनां स्वरूपमुच्यते । तद्यथा-केवलमसहायमिन्द्रियालोकमनस्कारनिरपेक्षमित्यर्थः । केवलं च तत् ज्ञानं च केवलज्ञानम्, अतीन्द्रियेष्वर्थेषु सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टेष्वप्रतिहतप्रसरं करणक्रमव्यवधानातिवति ज्ञानावरणीयकर्मणो निरवशेषप्रक्षयादुद्भूतवृत्ति निरतिशयमनुत्तरं ज्योतिः केवलज्ञानमित्युक्तं भवति । तस्य पुनरानन्त्यविशेषणमविनश्वरत्वख्यापनार्थम्, क्षायिकस्य भावस्प घटस्य प्रध्वंसाभाववत्साद्यपर्यवसितस्वरूपेणावस्थाननियमोपलम्भात् । सर्वद्रव्यपर्यायविषयस्य तस्य परमोत्कृष्टानन्तपरिणामत्वख्यापनार्थ वा तद्विशेषणं प्रतिपत्तव्यम्, प्रमेयानन्त्यैतत्परिच्छेदकज्ञानशक्तीनामप्यानन्त्यसिद्धरविप्रतिषेधान्नोपचारमात्रमेवैतत् परमार्थत एव तदविभागपरिच्छेदसामर्थ्यानां सकलप्रमेयराशेरनंतगुणानामागमसमधिगम्यानामुपलंभात् यथोक्तमत्थितं भायणं णत्थि तं दवमिति ततोऽस्यानुपचरितमेवानन्त्यमिति निश्चेतव्यम् । उक्तं च
क्षायिकमेकमनन्तं त्रिकालसर्वार्थयुगपदवभासि । निरतिशयमन्त्यमच्युतमव्यवधानं च केवलं ज्ञानम् ॥
६३०४ यहाँ केवलज्ञानादिके स्वरूपका कथन करते हैं । यथा-केवलज्ञानमें केवल शब्दका अर्थ है जो ज्ञान असहाय है अर्थात् इन्द्रिय, आलोक और मनको अपेक्षाके बिना होता है। इस प्रकार केवल जो ज्ञान वह केवलज्ञान है। जो सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट अर्थों में अप्रतिहत. प्रसारवाला है, जो करण, क्रम और व्यवधानसे रहित है तथा जिसकी वृत्ति ज्ञानावरण कर्मके पूरा क्षय होनेसे प्रगट हुई है ऐसा निरतिशय और अनुत्तर ज्योतिस्वरूप केवलज्ञान है; यह उक्त कथनका लात्पर्य है। फिर भी उसको जो आनन्त्य विशेषण दिया है वह उसके अविनश्वरपनेकी प्रसिद्धिकेलिये दिया है, क्योंकि जैसे घटका प्रध्वंसाभाव सादि-अनन्त होता है उसी प्रकार क्षायिक भावके सादिअनन्तस्वरूपसे अवस्थानका नियम उपलब्ध होता है। अथवा केवलज्ञानका 'अनन्त' यह विशेषण समस्त द्रव्य और उनकी अनन्त पर्यायोंको विषय करनेवाले उस केवलज्ञानके परमोत्कृष्ट अनन्त परिणामपनेकी प्रसिद्धकेलिये जानना चाहिये । कारण कि प्रमेय अनन्त हैं, अतः उनको परिच्छेदक ज्ञानशक्तियोंको भी अनन्त सिद्ध होनेमें प्रतिषेधका अभाव है। यह सब कथन केवल उपचार मात्र ही नहीं है किन्तु परमार्थसे ही सकल प्रमेयराशिके अनन्त गुणरूप और आगमप्रमाणसे जानने में आनेवाली ऐसी केवलज्ञानसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदसामर्थ्य उपलब्ध होती है। इस प्रकार यथोक्त अविभागप्रतिच्छेदोंका अस्तित्व केवल कल्पनारूप नहीं है, वस्तुतः वह द्रव्य है। इसलिये इसकी अनन्तता अनुपचरित ही है ऐसा निश्चय करना चाहिये । कहा भी है
जो क्षायिक है, एक है, अनन्तस्वरूप है, तीनों कालोंके समस्त पदार्थोंको एक साथ जाननेवाला है, निरतिशय है, क्षायोपशमिकज्ञानोंके अन्तमें प्राप्त होनेवाला है, कभी च्युत होनेवाला नहीं है और सूक्ष्म, व्यवहित तथा विप्रकृष्ट पदार्थों के व्यवधानसे रहित है वह केवलज्ञान है।
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जयधवलासहिदे कसाय पाहुडे
[ चारितक्खवणा
$ ३०५ एवं केवलदर्शनमपि व्याख्येयम् । तत्समकालमेव स्वावरणात्यन्तपरिक्षयाविर्भूतवृत्तेर्दर्शनोपयोगस्यापि निरवशेषपदार्थालोकनस्वभावस्यानन्त्यविशेषित केवलव्यपदेशप्रतिलम्मे प्रतिबंधानुपलंमात् । नैतदिह मंतव्यम् । ज्ञानदर्शनोपयोगयोः सकलावस्थयोरविशेषो विषय मेदानुपलब्धेद्वेयोरप्यशेषपदार्थ साक्षात्करणस्वाभाव्ये तत्रैकेनैव कृतत्वादितरोपयोगवैयर्थ्याच्चेति, कस्मादसंकीर्णस्वरूपेण तयोर्विषयविभागस्यासकृदुपदर्शितत्वात् तस्मात्सकलविमल केवलज्ञानवदकलंक - केवलदर्शनमपि कैवल्यावस्थायामस्त्येवेति सिद्धम्, अन्यथाऽऽगमविरोधादिदोषाणामपरिहार्यत्वादिति ।
१३२
६३०६ वीर्यान्तरायनिर्मूलप्रक्षयोद्भूतवृत्ति-श्रमक्लमाद्यवस्थाविरोधि-निरन्तरायबीर्यमप्रतिहतसामर्थ्यमनन्तवीर्यमित्युच्यते । तत्पुनरस्य भगवतोऽशेषपदार्थविषयध्रुवोपयोगपरिणामेऽप्यखेदभावोपग्रहे प्रवर्तमानं सोपयोगमेवेति प्रतिपत्तव्यम् । तद्बलाधानेन विना सांत तिकोपयोगवृत्तेरनुपपत्तेः, अन्यथाऽस्मदाद्युपयोगवत्तदुपयोगवदुपयोगस्यापि । सामर्थ्य विरहादनवस्थानप्रसंगादिति । तथोक्तं—
तव वीर्य विघ्नविलयेन समभवदनन्तवीर्यता ।
तत्र सकलभुवनाधिगमप्रभृतिस्वशक्तिभिरवस्थितो भवानिति ॥ १ ॥
§ ३०५ इसी प्रकार केवलदर्शनका भी व्याख्यान करना चाहिये, क्योंकि केवलज्ञानके समान ही अपना आवरण करनेवाले दर्शनावरण कर्मके अत्यन्त क्षय होनेसे वृत्तिको प्राप्त होनेवाले और समस्त पदार्थो के अवलोकन स्वभाववाले दर्शनोपयोगके भी अनन्त विशेषणसे युक्त केवल संज्ञाके प्राप्त होनेपर कोई प्रतिबन्ध नहीं पाया जाता ।
यहाँ ऐसा नहीं मानना चाहिये कि ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग में कोई भेद नहीं है, क्योंकि दोनों के विषय में भेद नहीं उपलब्ध होता तथा दोनों समस्त पदार्थों के साक्षात्करण स्वभाववाले हैं, इसलिये उन दोनों में एकसे ही कार्य चल जानेके कारण दूसरे उपयोगको मानना व्यर्थं है, क्योंकि असंकीर्णस्वरूपसे उन दोनोंका विषयविभाग अनेक बार दिखला आये हैं । इसलिये सकल और विमल केवलज्ञानके समान अकलंक केवलदर्शन भी केवलरूप अवस्थामें है ही, यह सिद्ध हुआ । अन्यथा आगमविरोध आदि दोषोंका होना अपरिहार्य है ।
६ ३०६ वीर्यान्तराय कर्मके निर्मूल क्षयसे उद्भूतवृत्तिरूप श्रम और खेद आदि अवस्थाका विरोधी अन्तरायसे रहित अप्रतिहत सामर्थ्यवाला वीर्य अनन्त वीर्य कहा जाता है । परन्तु वह इस भगवान् के अशेष पदार्थविषयक ध्रुवरूप (स्थायी) उपयोग परिणामके होनेपर भी अखेद भाव से ग्रहण करनेमें प्रवृत्त होता हुआ उपयोगसहित ही है ऐसा जानना चाहिये, क्योंकि उसके बलाधान के बिना निरन्तर उपयोगरूप वृत्ति नहीं बन सकती । अन्यथा हम लोगोंके उपयोग के समान अरिहन्त केवलोके उपयोगके भी सामथ्यंके विना अनवस्थानका प्रसंग प्राप्त होता है। कहा भी है
हे भगवन् | आपके वोर्यान्तराय कर्मका विलय हो, जानेसे अनन्त वीर्य शक्ति प्रगट हुई है । अतः ऐसी अवस्था में समस्त भुवनके जानने आदि अपनी शक्तियोंके द्वारा आप अवस्थित हो || १ ||
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गा० २३३ ] ___$३०७ एतेनात्यन्तिकानन्तसुखपरिणामोऽप्यस्य व्याख्यातो वेदितव्यः । कस्मात् ? अनन्तज्ञानदर्शनवीर्योपबृंहितसामर्थ्यस्य विमोहस्य ज्ञानवराग्यातिशयपरमकाष्ठामारूढस्य परमनिर्वाणलक्षणस्य सुखस्यात्यंतिकत्वेन प्रादुर्भावोपलंभात् । न च ज्ञानवैराग्यातिशयजनितवीतरागसुखादन्यदेव किंचित्सुखं नामास्ति, सरागसुखस्य न्यायनिष्ठुरं विचार्यमाणस्यैकान्ततो दुःखरूपत्वादिति । तथा चोक्तं
सपरं बाहासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं । जं इंदिएहिं लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव सदा ॥ २ ॥ विरागहेतुप्रभवं न घेत्सुखं, न नाम किंचित्तदिति स्थिता वयम् । स चेनिमित्तं स्फुटमेव नास्ति तत् त्वदन्यतः सत्त्वयि येन केवलम् ॥३॥
इति । 5 ३०८ तस्मादनन्तज्ञानदर्शनवीर्यविरतिप्रधानमनन्तसुखमनुपरतवृत्ति-निरतिशयमात्मोपादानसिद्धमतीन्द्रियं निष्प्रतिद्वन्द्वमस्येति सिद्धम् । एतेनासद्वद्योदयेसद्भावात्सयोगकेवलिन्यनन्तसुखाभावं तदनुपातिनी च कवलाहारवृत्तिमवधारयन् वादी
३०७ इस कथनसे आत्यन्तिक अनन्त सुखपरिणाम भी इस भगवान्के व्याख्यान किया गया जानना चाहिये, क्योंकि जिसकी अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त वीर्यसे सामर्थ्य वृद्धिको प्राप्त हुई है, जो मोहरहित है, जो ज्ञान और वैराग्य की अतिशय परमकाष्ठा पर अधिरूढ़ है, जिसका परम निर्वाणरूपी वस्त्र है ऐसे सुखको आत्यन्तिकरूपसे उत्पत्ति उपलब्ध होती है। किन्तु ज्ञान और वैराग्यके अतिशयसे उत्पन्न हुए सुखसे अन्य सुख नामकी कोई वस्तु नहीं हो है, क्योंकि जो सरागसुख है वह न्यायपूर्वक निष्ठुरतासे विचार किया गया एकान्तसे दुःखरूप ही है। उसी प्रकार कहा भी है
__ जो इन्द्रियोंके निमित्तसे प्राप्त होनेवाला सुख है वह पराश्रित है, बाधासहित है, बीच-बीचमें छूट जाने वाला है, बन्धका कारण है और विषम है, वास्तवमें वह सदाकाल दुःखस्वरूप ही है ॥२॥ ___जो सुख विरागभावको निमित्त कर नहीं उत्पन्न हुआ है वह कुछ भी नहीं है ऐसा हम निश्चय करके स्थित हैं। यदि वह निमित्त है तो आपके सिवाय वह स्पष्टरूपसे अन्य नहीं ही है जिससे कि आपमें ही केवल निमित्तरूपसे अस्तित्व है ॥३॥
६३०८ इसलिये जिसमें अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और अनन्तविरतिकी प्रधानता है जो अनुपरत वृत्तिवाला है; निरतिशय है, स्वभावभूत आत्माको उपादानकरके जो सिद्ध होता है, अतीन्द्रिय है और जो द्वन्द्वभावसे रहित है वह अनन्तसुख है। इससे असातावेदनीयके उदयका सद्भाव होनेसे संयोगकेवली भगवान्में अनन्तसुखाभाव और उसके साथ होनेवाली कवलाहारवृत्तिका निश्चय करनेवाला वादो निराकृत हो गया है, क्योंकि उसमें उस (असातावेदनीय) का
१. आ० प्रती एतेन सद्वेद्योदय इति पाठः ।
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१३४
जयधवलासहिदे कसपाहुडे
[ चारित्तक्खवणा
प्रतिव्यूढः, तत्र तदुदयस्य सहकारिकारणवैकल्येन परघातोदय व दकिंचित्करत्वात् । तस्मादनन्तज्ञानदर्शनवीर्यविरतिसुखपरिणामत्वान्न के सयोगकेवली, सिद्धपरमेष्ठिवदिति सिद्धम् ।
$ ३०९ अनन्तदानलाभभोगोपभोगलब्धयश्च वीर्येणोपलक्षणीय निरवशेषान्तरायप्रक्षयजन्यत्वं प्रत्यविशिष्टत्वात् । ताः पुनरशेषप्राणिविषयाभयप्रदानसामर्थ्यात् त्रैलोक्याधिपतित्वसम्पादनात् सति प्रयोजने स्वाधीनाशेषभोगोपभोगवस्तुसम्पादनाच्च सोपयोगा एवेति प्रत्येतव्यम् । तस्मात्प्रागेव द्वितयमोहनीयप्रक्षयाद्दर्शनचारित्रशुद्धिमात्यन्तिकमवगाढो ज्ञानदृगावरणमूलोत्तरप्रकृतिसंक्षयानन्तरविजृम्भितक्षायिकानन्तकेवलबोधदर्शन पर्यायः, अन्तराय परिक्षयात्समासादितानन्तवीर्यदानलाभ भोगोपभोगसामर्थ्यो, नवकेवललब्धिपरिणतः कृतार्थतायाः परमकाष्ठामधितिष्ठन्नईत्परमेष्ठी स्वयम्भूर्जिनः केवली सर्वज्ञः सर्वदर्शी सयोगकेवली चेति तदा संशब्द्यते । जिनादि - संशब्दानां पदार्थव्याख्या सुगमेति न पुनः प्रतन्यते । भवति चात्र सयोगिकेवलिनः स्वरूपनिरूपणे गाथाद्वयम् —
उदय सहकारी कारणों की विकलताके कारण परधातके उदयके समान अकिंचित्कर है । इसलिये उनके अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, अनन्तविरति और अनन्तसुखपरिणामपना होने से सयोगकेवली भगवान् सिद्धपरमेष्ठीके समान भोजन नहीं करते हैं, यह सिद्ध होता है ।
§ ३०९ अनन्तवीर्यको उपलक्षण करके पूरे अन्तरायकर्मके क्षयसे अनन्तदान, अनन्तलाभ, अनन्तभोग और अनन्त - उपभोगरूप लब्धियाँ उत्पन्न हुई हैं, क्योंकि अनन्तवीर्य के समान उन for उत्पत्तिप्रति कोई विशेषता नहीं है । परन्तु वे लब्धियाँ समस्त प्राणीविषयक अभयदानकी सामर्थ्यंके कारण, तीनों लोकोंके अधिपतित्वका सम्पादन करनेसे तथा प्रयोजनके रहते हुए स्वाधीन अशेष भोगोपभोगसम्बन्धी वस्तुओंका सम्पादन होनेसे उपयोगसहित ही हैं, ऐसा जानना चाहिये | इसलिये पहले ही दोनों प्रकारके मोहनीय कर्मके क्षयसे जिसने आत्यन्तिक सम्यग्दर्शन और सम्यक्चरित्र की शुद्धिको प्राप्त किया है, ज्ञानावरण और दर्शनावरणरूप मूल और उत्तर प्रकृतियोंके क्षयके अनन्तर हो जिसकी क्षायिक अनन्तकेवलज्ञान और क्षायिक अनन्तकेवलदर्शन पर्याय वृद्धिको प्राप्त हुई है, तथा अन्तराय कर्मके क्षयसे जो अनन्तवोर्य, अनन्तदान, अनन्तलाभ, अनन्तभोग और अनन्त-उपभोगरूप नो केवल - लब्धियोंरूपसे परिणत हुआ है, वह कृतार्थताकी परमकाष्ठाको प्राप्त होता हुआ अर्हत्परमेष्ठी, स्वयम्भू, जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और सयोगकेवली इस रूपसे कहा जाता है । यहाँ जिनादिरूप सब्दों की पदार्थ व्याख्या सुगम है, इसलिये उनका पुनः विस्तार नहीं करते हैं । यहाँपर सयोगिकेवलीके स्वरूपके निरूपण करनेमें दो गाथाएँ हैं
१. आ० प्रतौ प्रतिपत्तव्यम् इति पाठः ।
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गा०२३३]
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केवलणाणदिवायरकिरणकलावप्पणासियण्णाणो।। णवकेवल-लडुग्गमसुजणियपरमप्पववएसो ॥४॥ असहायणाणदंसणसहिओ इदि केवली हु जोगेण ।
जुत्तो त्ति सजोगो इदि अणाइणिहणारिसे वुत्तो ॥५॥ $ ३१० यत्पुनरिहाशङ्कान्तरं-सर्वज्ञो वीतरागो वा न कश्चित् पुरुषविशेषः समस्ति, सर्वपुरुषाणां रागाद्यविद्योपद्रुतस्वभावत्वाद्रथ्यापुरुषवदित्यादि कैश्चिन्मिथ्यादर्शनाकुलीकृतहृदयैः स्वपरविद्वेषिभिरनाप्तैरादृतं, तदपि शास्त्रादावेव सुनिर्लो ठितमिति न पुनरुपन्यस्यते । तदेवं ज्ञानावरणादिकर्मणां निश्चयव्यवहारापायातिशयानंतरमाविभूताचिन्त्यज्ञानदर्शनसाम्राज्यप्राप्त्यतिशयस्य परमकाष्ठामात्मसात्कृत्य कृतकृत्यतामपाकृतकृतान्तकृतनिकृतिमकृतिको स्वसाकुर्वस्त्रिदशासुरमनुजमुनिपतिभिरभिगमनीयत्वात् प्राप्तपूजातिशयबहिर्विभूतिः सयोगकेवली भूत्वा स्वयं निष्ठितार्थोपि मगवानहत्परमेष्ठी परार्थप्रवृत्तिस्वाभाव्याद्धर्मामृतवृष्टिमासन्नभन्यजगते हिताय प्रवर्षन्नबुद्धिपूर्वमेव सर्वसत्वाभ्युद्वारभावनातिशयप्रेरितो भव्यजनपुण्येन शेषकर्मफलस व्यपेक्षेण विहारातिशयमनुभवतीत्येतत्प्रतिपादयितुकामः सूत्रमुत्तरं पठति--
जिसने केवलज्ञानरूपीदिवाकरकी किरणकलापकेद्वारा अज्ञानका नाश कर दिया है तथा नौ केवल लब्धियोंकी उत्पत्ति होनेसे जिसने परमात्मसंज्ञाको प्राप्त कर लिया है। वह असहायज्ञानदर्शनसे सहित होता है, इसलिये केवली कहा जाता है तथा योगसहित होनेसे सयोगी कहलाता है, ऐसा अनादि-अनिधन आर्षमें कहा गया है ।।४-५॥
६३१० जो यहाँ दूसरी आशंका की जाती है कि कोई पुरुषविशेष सर्वज्ञ वीतराग नहीं है, क्योंकि सभी पुरुष रागादि अविद्यासे उपद्रुत स्वभाववाले हैं, रथ्यापुरुषके समान; इत्यादि रूपसे जिनका हृदय मिथ्यादर्शनसे आकुलित किया गया है और जो अपने और दूसरोंके वैरी अनाप्त हैं उनकेद्वारा यह बात आदरपूर्वक कही जाती है किन्तु वह बात भी शास्त्र आदिमें भी अच्छी तरहसे खण्डित कर दी गई है, इसलिये उसका यहाँ पुनः उपन्यास नहीं करते । अतः इस प्रकार ज्ञानावरणादि कर्मोंके निश्चय-व्यवहाररूप अपायातिशयके अनन्तर प्राप्त हुए अचिन्त्यज्ञान-दर्शनरूप साम्राज्यकी प्राप्तिको अतिशयको परमकाष्ठाको आत्मसात् करके जिसने यमकृतछलनाके दूर किये जानेसे अकृतिक कृतकृत्यताको स्वाधीन करते हुए देवेन्द्र, असुरेन्द्र और चक्रवतियों और गणधरोंके द्वारा अभिगमनीय होनेसे जिसने पूजातिशयरूप बाह्य विभूतिको प्राप्त किया है, ऐसे जिनदेव सयोगकेवली होकर स्वयं सम्पन्न प्रयोजन होते हुए भी भगवान् अर्हत्परमेष्ठो परार्थप्रवृत्तिरूप स्वभाववाले होनेसे आसन्नभव्य जीवोंके हित के लिये धर्मामृतवृष्टिका प्रवर्तन करते हुए अबुद्धिपूर्वक ही समस्त प्राणियों के सब प्रकारके उद्धारको भावनाके अतिशयसे प्रेरित होते हुए भव्य जोवोंके पुण्यके निमित्तसे शेष अघाति कर्मोंके फलकी अपेक्षा विहारातिशयका अनुभव करते हैं । इस प्रकार इस तथ्यके प्रतिपादन करनेकी इच्छासे युक्त आचार्यवयं आगेके सूत्रको कहते हैं
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ चारित्तक्खवणा
* संखेज्जगुणाए सेढीए पदेसग्गं णिज्जरेमाणो विहरदित्ति ।
$ ३११ प्रतिसमयमसंख्यातगुणश्रेण्या कर्मप्रदेशानेव निधुन्वन् धर्मतीर्थप्रवर्तनाय यथोचिते धर्मक्षेत्रे देवासुरानुयातो महत्या विभूत्या विहरति प्रशस्तविहायोगतिसव्यपेक्षात्तत्स्वाभाव्यादिति सूत्रार्थः । स्यान्मतम् - - अभिसंधिपूर्वक एवास्य व्यापारव्याहारातिशयो भवतुमर्हति, अन्यथा यत्किंचन कारित्वदोषानु षंजनात्तदभ्युपगमे चच्छत्वादसर्वज्ञ एवायं स्यात् अनिष्टं चैतदिति ? नैतदेवमभिसंधिविरहेऽपि कल्पतरुवदस्य परार्थसंपादन सामर्थ्योपपत्तेः प्रदीपवद्वा, न वै प्रदीपः कृपालुतयाऽऽत्मानं परं वा तमसो निर्वर्तयति, किंतु तत्स्वाभाव्यादेवेति न किंचित् व्याहन्यते । यथोक्तं-हिमवादि
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जगते त्वया
न च विवदिषा
कल्पतरुरनभिसंधिरपि
प्रणयिभ्य ईप्सितफलानि
जगद्गुरो ।
यच्छति ॥
* भगवान् अर्हत्परमेष्ठीदेव असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे प्रदेश पुंजकी निर्जरा करते हुए विहार करते हैं ।
३११ प्रतिसमय असंख्यातगुणी श्रेणिरूप से कर्मप्रदेशों को ये भगवान् धुनते हुए धर्मतीर्थंकी प्रवृत्तिकेलिये यथायोग्य धर्मक्षेत्रमें देवों और असुरोंसे अनुगत होते हुए बड़ी भारी विभूतिके साथ प्रशस्त विहायोगतिके निमित्तसे या विहार करनेरूप स्वभाववाले होनेसे विहार करते हैं, यह इस सूत्रका अर्थ है ।
शंका - - कदाचित् यह मत हो कि इन अर्हत्परमेष्ठी भगवान्का व्यापारातिशय और उपदेशरूप अतिशय अभिप्राय पूर्व कही हो सकता है, अन्यथा यत्किचित् करनेरूप दोषका अनुषंग प्राप्त होता है और ऐसा माननेपर इच्छासहित होनेसे ये भगवान् असर्वज्ञ ही प्राप्त होते हैं । किन्तु ऐसा स्वीकार करना अनिष्ट ही है ?
समाधान - - किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि अभिप्रायसे रहित होनेपर भी कल्पवृक्षके समान इन भगवान् के पदार्थ के सम्पादनकी सामथ्यं बन जाती है । अथवा प्रदीपके समान इन भगवान्की वह सामर्थ्य बन जाती है क्योंकि दोपक नियमसे कृपालुपनेसे अपने और परके अन्धकारका निवारण नहीं करता, किन्तु उस स्वभाववाला होनेके कारणही वह अपने और परके अन्धकारका निवारण करता है । जैसा कहा है
हे जगद्गुरो ! आपने जगत् केलिये जो हितका उपदेश दिया है वह कहने की इच्छाके बिना ही दिया है, क्योंकि ऐसा नियम है कि कल्पवृक्ष बिना इच्छाके ही प्रेमीजनोंको इच्छित फल देता है ।
१. ता० प्रती निर्धनं (निर्धुवन् ) । आ० प्रती निर्धन । म० प्रती निर्धनं इति पाठः ।
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गा० २३३ ]
कायवाक्यमनसां प्रवृत्तयो
नाभवंस्तव
नासमीक्ष्य भवतः प्रवृत्तयो धीर, विवक्षासन्निधानेऽपि वाग्वृत्तिर्जातु नेक्ष्यते । वच्छन्तो वा न वक्तारः शास्त्राणां मन्दबुद्धयः || इत्यादि ।
६ ३१२ तस्मादस्य परमोपेक्षालक्षणां संयमविशुद्धिमास्थितवतो व्यापारव्याहारादयोऽतिशय विशेषाः स्वाभाविकत्वान्न पुण्यबन्धहेतव इति प्रतिपत्तव्यम् । यथोक्तमार्षे --
मुनेश्चिकीर्षया ।
तावकमचिन्त्यमीहितम् ॥
तित्थयरस विहारो लोयसुहो णेव तस्स पुण्णफलो । वयणं च दाणपूजारंभयरं तं ण लेवेइ ।।
१३७
६ ३१३ स पुनरस्य विहारातिशयो भूमिमस्पृशत एव गगनतले भक्तिप्रेरितामरगणविनिर्मितेषु कनकाम्बुजेषु प्रयत्नविशेषमंतरेणापि स्वमाहात्म्यातिशयात् प्रवर्तत इति प्रत्येतव्यं, योगिशक्तीनामचिन्त्यत्वादिति । उक्तं च-
हे मने ! आपकी शरीर, वचन और मनको प्रवृत्तियाँ बिना इच्छाके ही होती हैं, पर इसका अर्थ यह नहीं कि आपकी मन, वचन और कायसम्बन्धी प्रवृत्तियाँ बिना समीक्षा किये होती हैं । हे धीर! आपकी चेष्टायें अचिन्त्य हैं ।
कहने की इच्छाका सन्निधान होनेपर ही वचनकी प्रवृत्ति नहीं देखी जाती, क्योंकि यह हम स्पष्ट देखते हैं कि मन्दबुद्धि जन इच्छा रखते हुए भी शास्त्रोंके वक्ता नहीं हो पाते । इत्यादि । $ ३१२ इसलिये परम-उपेक्षालक्षणरूप संयमकी विशुद्धिको धारणकरनेवाले इन भगवान्का बोलना और चलनेरूप व्यापार आदि अतिशयविशेष स्वाभाविक होनेसे पुण्यबन्धके कारण नहीं है, ऐसा यहाँ जानना चाहिये । जैसा कि आर्षमें कहा है
तीर्थंकर परमेष्ठीका विहार लोकको सुख देनेवाला है, परन्तु उसका वह कार्य पुण्यफलवाला नहीं है । और उनका वचन दान-पूजारूप आरम्भको करनेवाला तो है फिर भी उनको कर्मोंसे लिप्त नहीं करता ।
१. आ० प्रतौ वीक्ष्यते इति पाठः ।
२. आ० प्रती वण्ण इति पाठः ।
३. आ० प्रती माहात्म्यातिशयाम् इति पाठः ।
१८
§ ३१३ पुनः इस महात्माका वह विहारातिशय भूमिको स्पर्श न करते हुए ही आकाशमें भक्तिवश प्रेरित हुए देव समूहकेद्वारा रचे गये स्वर्णकमलोंपर प्रयत्न विशेषके बिना ही अपने माहात्म्य विशेषवश प्रवृत्त होता है, ऐसा जानना चाहिये, क्योंकि योगियोंकी शक्तियाँ अचिन्त्य होती हैं । कहा भी है
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[चरित्तक्खवणा
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे नमस्तलं पल्लवयन्निव त्वं,
सहस्रपत्राम्बुजगर्भचारैः। पादाम्बुजैः पातितमारदपर्यो, भूमौ प्रजानां विजहर्थ' भूत्यै ।
इति ३३१४ एत्थ सजोगिनिणस्स पढमसमयप्पहुडि जाव समुग्धादाहिमुहकेवलिपढमसमयो त्ति ताव गुणसेढिणिक्खेवकमो अवडिदेगरूपो त्ति घेत्तव्यो; परिणामेसु पडिसमयमवट्ठिदेसु तण्णिबंधणपदेसोकडुणाए गुणसेढिणिक्खेवायामस्स च सरिसत्ते मोत्तूण विसरिसभावाणुववत्तीदो। णवरि खीणकसायेण गुणसेढिणिमित्तमोकडिज्जमाणदव्वादो सजोगिकेवलिणा ओकडिज्जमाणदव्वमसंखेज्जगुणं, तत्थतणगुणसेढिणिक्खेवायामादो एत्थतणगुणसेढिणिक्खेवायामो संखेज्जगुणहीणो त्ति घेत्तव्वो, छदुमत्थपरिणामेहितो केवलिपरिणामाणमइविसुद्धत्तादो एक्कारसगुणसेढिपरूवणाए तहा भणिदत्तादो च । तम्हा आउगवज्जाणं तिहमघादिकम्माणं पदेसग्गमसंखेज्जगुणाए सेढीए णिज्जरेमाणो एसो उक्कस्सेण देसूणपुव्वकोडिमेत्तकालं धम्मतित्थं पवत्तेमाणो विहरदि त्ति सुणिरूविदं ।
हजार पाँखडीवाले कमलोंके मध्य चलते हए चरणकमलोंसे आकाशतलको पल्लवित करते हुएके समान कर्मभूमिक्षेत्रमें प्रजाजनोंमें मोक्षमार्गको समृद्धिकेलिये कामदेवके दपंका पतन करनेवाले आपने विहार किया । इति ॥
६ ३१४ यहाँपर सयोगीजिनके प्रथम समयसे लेकर समुद्धातके अभिमुख हुए केवली जिनके प्रथम समय तक गुणश्रेणिके निक्षेपका क्रम अवस्थित एकरूप होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि परिणामोंके प्रतिसमय अवस्थित रहनेपर उनके निमित्तसे होनेवाला प्रदेशोंका अपकर्षण
और गणश्रेणिनिक्षेपका आयाम सदशपनेको छोडकर विसदशरूप नहीं होता। इतनी विशेषता है कि क्षीणकषाय जीवकेद्वारा गुणश्रेणिके निमित्त अपकर्षित हुए द्रव्यसे सयोगिकेवली जिनकेद्वारा अपकर्षित होनेवाला द्रव्य असंख्यातगुणा होता है तथा वहाँ हुए गुणश्रेणिनिक्षेपके आयामसे यहाँके गुणश्रेणिनिक्षेपका आयाम संख्यातगुणाहीन ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि एक तो छद्मस्थके परिणामोंसे केवली जिनके परिणाम अतिविशुद्ध होते हैं तथा दूसरे ग्यारह गुणश्रेणिप्ररूपणामें वैसा कहा गया है । इसलिये आयुकर्मको छोड़कर तीन अघातिकर्मोंके कर्मप्रदेशोंकी असंख्यातगुणीश्रेणिरूपसे निर्जरा करता हुआ यह केवली जिन उत्कृष्टसे कुछ कम पूर्वकोटिप्रमाण कालतक धर्मतीर्थको प्रवृत्त करता हुआ विहार करता है, यह अच्छी तरहसे निरूपण किया है।
१. आ० प्रती विजहर्ष इति पाठः ।
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खवरणाहियारचूलिया $ ३१५ एत्थ तित्थयरकेवलीणमियरकेवलीणं च जहण्णुकस्सविहारकालाणं पमाणाणुगमो तित्थयराणं विहाराइसओ समवसरणविभूदिवण्णणं च भणियण गेण्हिदव्वं । अत्र सूत्रपरिसमाप्ताविति शब्दोपादानं स्वोक्तिपरिच्छेदे द्रष्टव्यम्, एतावति प्ररूपणाप्रबंधे सविस्तरं प्ररूपिते ततः प्रकृतार्थाधिकारस्य परिसमाप्तिरिति स्वोक्तिपरिच्छेदस्यात्र विवक्षितत्वात् । एवमेत्तिएण परूवणापबंधेण सत्थाणसजोगिकेवलिविसयं परूवणाविसेसं परिममाणिय संपहि एत्थेव चरित्तमोहणीयपुरस्सराणं घादिकम्माणं खवणाविही समप्पदि त्ति कयणिच्छओ एदस्सेव खवणाहियारस्स चूलियापरूवणडमुवरिमाओ सुत्तगाहाओ पढइ-तत्थ ताव पढमा सुत्तगाहा
* अणमिच्छमिस्ससम्म अट्ठ एसित्थिवेदछक्कं च ।
पुंवेदं च खवेदि दु कोहादीए च संजलणे ॥१॥ $ ३१६ एसा गाहा सणचरित्तमोहपयडीणं खवणापरिपाडिं पुव्वुत्तमेव सव्वोवसंहारमुहेण पदुप्पाएदुमोइण्णा । तं कथं ? 'अण' एवं भणिदे अणंताणुबंधिचउक्कस्स गहणं कायव्वं, णामेगदेसणिद्देसेण वि णामिल्लविसयसंपच्चयस्स सुपसिद्धत्त
क्षपणाधिकार-चूलिका ६ ३१५ यहाँपर तीर्थंकरकेवलियों और अन्य केवलियोंके जघन्य और उत्कृष्ट विहारकालोंके प्रमाणका अनुगम और विहारसम्बन्धी अतिशयका तथा समवसरणविभूतिका वर्णन कहकर ग्रहण करना चाहिए। यहाँपर सूत्रकी पीरसमाप्तिमें 'इति' शब्दका ग्रहण अपनी उक्तिके ज्ञानरूप अर्थमें जानना चाहिये क्योंकि इतने प्ररूपणा प्रबन्धके विस्तारके साथ प्ररूपित कर देनेपर उससे प्रकृत अर्थाधिकारको परिसमाप्ति होती है। यह अपनी उक्तिका परिच्छेद यहाँपर विवक्षित है। इसप्रकार इतने प्ररूपणारूप प्रबन्धकेद्वारा स्वस्थान सयोगिकेवलोविषयक प्ररूपणाविशेषको समाप्त करके अब यहींपर चारित्रमोहनीय-प्रमुख घातिकर्मो की क्षपणाविधि समाप्त होती है, ऐसा किये गये निश्चय पूर्वक इसी क्षपणाधिकारकी चूलिकाका कथन करनेकेलिये आगेको सूत्र गाथाओंको पढ़ते हैं। उनमें प्रथम सूत्रगाथा यह है
___ * यह मोक्षमार्गपर आरूढ़ हुआ जीव अनन्तानुबन्धीचतुष्क, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक प्रकृतिमिथ्यात्व, मध्यकी अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क और प्रत्याख्यानावरणचतुष्क ये आठ कषाय, नपुसकवेद, स्त्रीवेद, छह नोकषाय, पुरुषवेद और क्रोध, मान, माया तथा लोभ ये चार संज्वलन कषाय इनका क्रमसे क्षय करता है।
8 ३१६ यह सूत्रगाथा दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी पहले कही गई ही क्षपणाकी परिपाटीका सबका उपसंहारद्वारा कथन करनेकेलिये अवतीर्ण हुई है।
शका--वह कैसे ?
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [खवणाहियारचूलिया दंसणादो। तदो अगं ताणुबंधिचउक्कं विसंजोयणकिरियाए पुव्वमेव णासेदि त्ति भणिदं होइ । 'मिच्छ' एवं भणिदे तदो दसणमोहक्खवणमाढविय पुव्वं मिच्छत्तं खवेदि त्ति वृत्तं होइ। 'मिस्स' एवं भणिदे तदो पच्छा सम्मामिच्छत्तं खवेदि त्ति घेत्तव्वं । 'सम्म एवं भणिदे तदो पच्छा सम्मत्तं खवेदि ति मणिदं होदि । 'अट्ठ' एवं मणिदे पुव्वुत्तसत्तपयडीओ हेट्ठा चेव अप्पप्पणो ठाणे खवेयूण तदो खवगसेढिमारूढो संतो अणियट्टिगुणट्ठाणे अंतरकरणादो हेट्ठा चेव अट्ठकसाये णिदुवेदि त्ति वुत्तं होइ । एवं गत्सयवेदादिपयडीणं पि खवणापरिवाडीगाथाणुसारेण वत्तव्वा । एत्तो विदिया सुत्तगाहा
* अथ थीणगिद्धिकम्मं णिहाणिद्दा य पयलपयला य ।
अध पिरय-तिरियणामां झीणा संछोहणादीसु ॥२॥ ६३१७ एसा विदिया सुत्त गाहा अट्ठकसायक्खवणादो पच्छा खविज्जमाणाणं थीणगिद्धिआदिसोलसपयडीणं णामणिद्देसकरणट्ठमोइण्णा सुगमा च । एदिस्से अस्थ
समाधान-'अण' ऐसा कहनेपर अनन्तानुबन्धीचतुष्कका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि नामके एकदेशके निर्देशद्वारा भी नामवाले विषयके ठीक ज्ञानकी प्रसिद्धि हुई देखी जाती है। इसलिये अनन्तानुबन्धीचतुष्कका विसंयोजनक्रियाद्वारा पहले ही नाश करता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। 'मिच्छ' ऐसा कहनेपर तदनन्तर दर्शनमोहनीयको क्षपणाका आरम्भकर पहले मिथ्यात्वकी क्षपणा करता है, यह कहा गया है। 'मिस्स' ऐसा कहनेपर उसके बाद साम्यग्मिथ्यात्वकी क्षपणा करता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। 'सम्म' ऐसा ग्रहण करनेपर उसके बाद सम्यक्त्वकी क्षपणा करता है, यह कहा गया है। 'अट्ठ' ऐसा कहनेपर पूर्वोक्त सात प्रकृतियोंके बाद ही अपनेअपने स्थानमें आठ कषायोंको क्षपणा प्रारम्भ कर तदनन्तर क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ होता हुआ अनिवृत्तिगुणस्थानमें अन्तरकरणक्रियाके करनेके बाद ही आठ कषायोंकी क्षपणाका निष्ठापन करता है, यह कहा गया है। इसप्रकार नपुंसकवेद आदि प्रकृतियोंकी भी क्षपणासम्बन्धीपरिपाटी गाथाके अनुसार करनी चाहिये । अब आगे दूसरी सूत्रगाथा कहते हैं
* अब मध्यकी आठ कषायोंकी क्षपणा करनेके पश्चात् स्त्यानगृद्धिकर्म, निद्रानिद्रा और प्रचलाप्रचला तथा नरकगति और तिर्यञ्चगति नामवाली तेरह प्रकृतियाँ, इसप्रकार ये सोलह प्रकृतियाँ संक्रामकप्रस्थापककेद्वारा अन्तर्मुहूर्त पूर्वही सर्व संक्रमण आदिमें क्षीण की जा चुकी हैं ॥२॥
३१७ यह दूसरी सूत्रगाथा आठ कषायोंको क्षपणाके अनन्तर क्षयको प्राप्त होनेवाली स्त्यानगृद्धि आदि सोलह प्रकृतियोंका नामनिर्देश करनेकेलिये अवतीर्ण हुई है और इसकी अर्थ
१. (७५) १२८ भा० १५.
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गा० २३३ ]
परूवणा, पुव्वमेव विहासियत्तादो। एतो अंतरकरणे कदे मोहणीयस्साणुपुव्वीसंकमो rate परिवाडी पट्टदि त्ति जाणावणद्वमुवरिमाओ तिष्णि सुत्तगाहाओ पढइ
* सव्वस्स मोहणीयस्स आणुपुव्वी य संकमो होइ । लोभकसाये णियमा असंकमो होइ बोद्धव्वो ॥३॥ * संछुहृदि पुरिसवेदे इत्थवेदं णव सयं चेव । सप्तेव णोकसाये णियमा कोपम्हि संछुहदि ॥ ४ ॥ * कोहं संछुहइ माणे माणं मायाए नियमसा छुहइ । मायं च छुहइ लोहे पडिलोमो संकमो णत्थि ॥५॥
$ ३१८ गतार्थत्वान्नात्र किंचिद् व्याख्येयमस्ति एत्तो छट्ठी सुत्तगाहा-
१४१
* जो जम्हि संछुहंतो णियमा बंधम्हि होइ संछुहणा । बंधेण हीणदरगे अहिये वा संकमो णत्थि || ६ ||
प्ररूपणा सुगम है, क्योंकि इसकी पहलेही विभाषा कर आये हैं । इसके आगे अन्तरकरण करलेनेपर मोहनीय कर्मका आनुपूर्वी संक्रम इस परिपाटीसे प्रवृत्त होता है, इस बातका ज्ञान करानेकेलिये आगे तीन सूत्रगाथाओं को पढ़ते हैं
* आगे मोहनीयकर्म की सब प्रकृतियोंका आनुपूर्वी संक्रम होता है । किन्तु arretreat नियमसे संक्रम नहीं होता, ऐसा जानना चाहिये || ३ ॥
* स्त्रीवेद और नपुंसक वेदका नियमसे पुरुषवेदमें संक्रमण करता है । तथा पुरुषवेद सहित सात नोकषायका नियमसे क्रोधसंज्वलन में संक्रमण करता है ||४||
* वह क्षपक क्रोधसंज्वलनको नियमसे मानसंज्वलन में संक्रान्त करता है, - मानसंज्वलनको नियमसे मायासंज्वलनमें संक्रान्त करता है । तथा मायासंज्वलनको नियमसे लोभसंज्वलनमें संक्रान्त करता है । इनका प्रतिलोमविधिसे संक्रम नहीं होता ||५||
३१८ इन सूत्रगाथाओं का अर्थ ज्ञात हो जानेसे इनके विषय में कुछ व्याख्यान करने योग्य नहीं है । अब इसके आगे छठी सूत्रगाथा कहते हैं
* जो जीव जिस बध्यमान प्रकृतिमें संक्रमण करता है उसका नियमसे बन्धमें ही संक्रमण होता है । तथा उसका बन्धसे हीनतर स्थिति में भी संक्रमण करता है, किन्तु बन्धसे अधिकतर स्थितिमें संक्रमण नहीं होता || ६ ||
१. कोहस्स ता० ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ खवणाहियार चूलिया
६ ३१९ एसा वि सुतगाहा आणुपुव्वी संकमात्रसरे पुव्वमेव उक्कडणासंकर्म परपयडिसंकमं च समस्सियूण विहासिदा त्ति ण एत्थ किंचि वक्खाणेयव्वमत्थि । एत्तो खवगस्स अणुभागपदेसविसयाणं बंधोदयसंकमाणं थोवबहुत्तावहारणमुवरिमाणं तिन्हं सुत्तगाहाणमवयारो --
१४२
* बंधेण होइ उदयो अहि उदयेण संकमो हि । गुणसेढि अनंतगुणा बोद्धव्वा होइ अणुभागे ॥७॥ * बंधेण होइ उदो अहिओ उदएण संकमो हि । गुणसे असंखेज्जा च पदेसग्गेण बोद्धव्या ॥८॥
* उदयो च अनंतगुणो संपहि बंधेण होइ अणुभागे । से काले उदयादो संपहि बंधो अनंतगुणो ||९|| विहासिदो तहा चेव पुणो सव्वकम्माणं द्विदिबंध -
९ ३२० एदासिं तिहं सुत्तगाहाणमत्थो जहा पुन्वं वि अणुभासियो । एत्तो चरिमसमयबादरसां पराइयस्स पाणावहारणङ्कं दसमी गाहा समोइण्णा --
$ ३१९ इस सूत्र गाथाको भी आनुपूर्वी संक्रमके अवसरपर पहलेही उत्कर्षण संक्रम और परप्रकृति संक्रमका आश्रय करके विभाषा कर आये हैं, इसलिये यहाँपर कुछ भी व्याख्यान करनेयोग्य नहीं है । आगे क्षपकके अनुभाग और प्रदेशविषयक बन्ध, उदय और संक्रमके अल्पबहुत्वका निश्चय करनेकेलिये आगे तीन सूत्रगाथाओंका अवतार करते हैं
* बन्धसे उदय अधिक होता है और उदयसे संक्रम अधिक होता है । इसप्रकार अनुभाग में गुणश्रेणी अनन्तगुणी जानने योग्य है ||७||
* बन्धसे उदय अधिक होता है और उदयसे संक्रम अधिक होता है । इसप्रकार प्रदेश की अपेक्षा गुणश्रेणि असंख्यातगुणी जाननी चाहिये ||८||
* अनुभागके विषय में साम्प्रतिक बन्धसे साम्प्रतिक उदय अनन्तगुणा होता है तथा तदनन्तर समय में होनेवाले उदयसे साम्प्रतिक बन्ध अनन्तगुणा होता है || ९ ||
३२० इन तीनों सूत्रगाथाओं के अर्थकी जैसे पहले विभाषा कर आये हैं उसीप्रकार उनकी फिर भी विभाषा करनी चाहिये । अब बादरसाम्परायिक जीवके अन्तिम समयमें सब कर्मोके स्थितिबन्धके प्रमाणका अवधारण करनेकेलिये दसवीं गाथा अवतीर्ण हुई है
१. (९०) १४३ भाग १५ । २. (९१) १४४ भाग ० १५ । ३. (९२) १४५ भाग १५ ।
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गा० २१३]
* चरिमे बादररागे णामागोवाणि वेदणीयं च ।
वस्सस्संतो बंधदि दिवसस्संतो य ज सेसं ॥१०॥ ६ ३२१ गतार्थत्वान्नैतद्गाथासूत्रमनुटीक्यते। चूलिकाप्ररूपणार्थं तु पुनरुक्तगाथोपन्यासेऽपि न किंचिदुष्यतीति प्रतिपत्तव्यम् । एत्तो एक्कारसमी सुत्तगाहा--
* जं चावि संछहंतो खवेइ किहिं अबंधगो तिस्से ।
सुहुमम्हि संपराये अबंधगो बंधगियराणं ॥११॥ ६ ३२२ एसा वि गाहा पुव्वमेव सुणिण्णीदत्था त्ति ण एत्थ किंचि वक्खाणेयध्वमत्थि । एवमेदाओ एक्कारस सुत्तगाहाओ सुहुमसांपराइयगुणट्ठाणपज्जंताए चरित्तमोहक्खवणाए चूलियाभावेण दट्ठव्वाओ। एत्तो खीणकसायद्धाए तिण्हं घादिकम्माणमुदयोदीरणादिविसेसपदुप्पायणमुहेण तेसिं खवणविहाणपरूवणटुं सजोगिकेवलिगुणट्ठाणसरूवणिरूवणटुं च बारसमीए सुत्तगाहाए समोयारो--
* बादररागके अन्तिम समयमें क्षपकजीव नाम, गोत्र और वेदनीयकर्मको एक वर्षके भीतर बाँधता है तथा शेष रहे तीन घातिकर्मों को एक दिवसके भीतर बांधता है ॥१०॥
६२२१ गतार्थ होनेसे इस गाथासूत्रकी टीका नहीं करते हैं। चूलिकाका प्ररूपण करनेकेलिये तो उक्त सूत्रगाथाओंका पुनः कथन करनेपर भी कोई दोष नहीं है, ऐसा यहाँ जानना चाहिये । अब आगे ग्यारहवीं सूत्रगाथा कहते हैं
* जिस कृष्टिको संक्रमण करता हुआ क्षय करता है उस कृष्टिका वह क्षपक बन्धक नहीं होता तथा सूक्ष्मसाम्परायमें तत्सम्बन्धी कृष्टियोंका अबन्धक होता है। किन्तु इतर कृष्टियोंका [वेदन या क्षपणकालमें] वह बन्धक होता है ॥११॥
६ ३२२ इस सूत्रगाथाके अर्थका भी पहले ही अच्छी तरहसे निर्णय कर आये हैं, इसलिये यहाँपर कुछ भी व्याख्यान करने योग्य नहीं है। इसप्रकार ये ग्यारह सूत्रगाथायें सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानतक चारित्रमोहनीयको क्षपणामें चूलिकारूपसे जानना चाहिये। आगे क्षीणकषायके कालमें तीन घातिकर्मो का उदय और उदीरणा आदिरूप विशेषके प्रतिपादनद्वारा उनकी क्षपणाविधिके प्ररूपण करनेकेलिये सयोगिकेवलो गुणस्थानके स्वरूपका प्रतिपादन करनेकेलिये बारहवीं सूत्रगाथाका अवतार करते हैं
१.क० प्रती चरिमो बादररागो (१५६) २०९ इति पाठः ।
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ खवणाहियारचूलिया
* जाव ण दुमत्थादो तिन्हं घादीण वेदगो होइ । अध णंतरेण खइया सव्वण्हू सव्वदरिसी य ॥ १२ ॥ $ ३२३ यावत् खलु छमस्थ पर्यायान्न निष्क्रामति तावत्त्रयाणां घातिकर्मणां ज्ञानदृगावरणान्तरायसंज्ञितानां नियमाद्वेदको भवति, अन्यथा छद्मस्थभावानुपपत्तेः । अथानन्तरसमये द्वितीयशुक्लध्यानाग्निना निर्दग्धाशेषघातिकर्मद्र ुमगहनः छद्मस्थपर्यायान्निष्क्रान्तस्वरूपः क्षायिकों लब्धिमवष्टभ्य सर्वज्ञः सर्वदर्शी च भूत्वा विहरतीत्ययमत्र गाथार्थसंग्रहः एवमेदासिं बारसहं सुत्तगाहाण मत्थे विहासिय समत्ते तदो चरितमोक्खवणाए चूलिया समत्ता भवदि । तदो चरित्त मोहक्खवणासण्णिदो कसायपाहुडस्स पारसमो अत्थाहियारो समप्यदित्ति जाणावणट्टमुव संहारवक्कमाह-
१४४
* चरित्त मोहक्खवणा त्ति समत्ता ।
$ ३२४ एवं कसा पाहुडसुत्ताणि सपरिभासाणि समत्ताणि । सव्वसमासेण सदतीसाणि ।
एवं कसा पाहुडं समत्तं ।
* यह क्षीणकषाय गुणस्थानवाला क्षपक जब तक छद्मस्थ अवस्थासे नहीं निकलता है तब तक ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातिकर्मों का वेदक होता है । तदनन्तर उक्त तीन घातिकर्मों का क्षय करके सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होता है ||१२||
९ ३२३ यह क्षपक जबतक छद्मस्थ पर्यायसे नहीं निकलता है तबतक वह ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय संज्ञावाले इन तीन घातिकर्मों का नियमसे वेदक होता है, क्योंकि अन्य प्रकार से छद्मस्थपना नहीं बन सकता है। इसके अनन्तर समय में द्वितीय शुक्लध्यानरूपी अग्नि समस्त घातिकर्मरूपी वृक्षोंके वनको जलाकर और छद्मस्थ पर्यायसे निकलकर क्षायिकी लब्धिका अवलम्बनकर सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होकर विहार करता है, यह यहाँपर गाथाका समुच्चयरूप अर्थ है । इसप्रकार इन बारह सूत्रगाथाओंके अर्थकी विभाषा करके समाप्त होनेपर तदनन्तर चारित्रमोहक्षपणा नामक अनुयोगद्वारको चूलिका समाप्त होती है। इसप्रकार चारित्रमोहक्षपणा नामक कषायप्राभृतका पन्द्रहवाँ अधिकार समाप्त होता है, इस बातका ज्ञान करानेकेलिये उपसंहार वचनको कहते हैं
* इस प्रकार चारित्रमोहक्षपणा नामक अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । ९ ३२४ इसप्रकार परिभाषाओंके साथ कषायप्राभृतके सूत्र समाप्त हुये । योग २३३ है ।
इसप्रकार कषायप्राभृत समाप्त हुआ ।
उन सबका
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गा० १-७]
१४५
गणहरदेवाण णमो गोदम-लोहज्ज-जंबुसामीणं । जिणवरवयण विणिग्गयदिव्वज्झुणी विवरिया जेहिं ।। १ ॥ ते उसहसेणपमुहा गणहरदेवा जयंति सव्वे वि ।। सुदरयणायरपारो दूरो वि पराइयो जेहिं ॥ २ ॥ इय सुहुमदुरहिगमभंगसंकुलं ण यसहस्सगंभीरं । गाहासुत्तत्थमिणं णिस्सेसं को भणेज्ज छदुमत्थो ॥ ३ ॥ तह वि गुरुसंपदार्य मणम्मि काऊण पुश्वसूरीणं । आदरिसदसणेण य दरिसियमेदं दिसामेत्तं ।। ४ ॥ अब्भपडलं व सुत्तं बहुभंगतरंगभंगुरं जम्हा । वित्थारजाणएहिं वित्थरियव्वं हवे तम्हा ॥ ५ ॥ जं एत्थत्थक्खलियं सद्दक्खलियं च जं हवे किंचि । तं तु महता मिच्छा मे दुक्कडं तस्स ॥ ६ ॥ होइ सगमं पि दुग्गम-मणिवणवक्खाणकारदोसेण । जयधवलाकुसलाणं सुगमच्चिय दुग्गमा वि अत्थगई ॥ ७ ॥
जिन्होंने जिनवरके मुखसे निकली हुई दिव्यध्वनिको विस्तारसे कहा उन गौतमस्वामी, लोहार्या और जम्बूस्वामी [आदि| गणधरोंको हमारा नमस्कार होओ ॥ १ ॥
जिन्होंने श्रुतरत्नरूपो सागरसे पार होकर उसे दूरसे हो पराजित कर दिया है ऐसे जो वृषभसेन प्रमुख गणधर हो गये हैं वे सब भी जयवन्त होवें ॥ २ ॥
___ इन गाथासूत्रोंका अर्थ सूक्ष्म है, दुरधिगम्य है, भंगोंसे संकुल है और हजारों नयोंसे गम्भीर है; अतः ऐसा कौन छद्मस्थ है जो उसका पूरी तरहसे कथन कर सके ।। ३ ।।
तो भी पूर्वमें हुए आचार्यो केद्वारा चले आ रहे गुरुसम्प्रदायको मनमें धारण करके आदर्शके देखनेके समान इसका दिशामात्र कथन किया है ।। ४ ॥
यतः यह सूत्रग्रन्थ मेघपटलके समान बहुत प्रकारको तरंगोंसे भंगुर है; अतः विस्तारको जाननेवाले पुरुषोंकेद्वारा इसका विस्तारसे वर्णन किया जाना चाहिये ।। ५ ।।
इसके कथनमें मेरे द्वारा जो कुछ भो अर्थका स्खलन हुआ है या जो कुछ शब्दोंका स्खलन हुआ है उसे महापुरुष पूरा करें । उस सम्बन्धविषयक मेरा दुष्कृत मिथ्या होओ ॥ ६ ॥
जो महानुभाव इसके व्याख्यान करने में निपुण नहीं हैं उनके उस दोषके कारण इसका व्याख्यान सुगम होकर भो दुर्गम हो जाता है। तथा जो जयधवलाकेद्वारा इसका व्याख्यान करने में कुशल हैं उनकेलिये इस कषायप्राभृतके अर्थका ज्ञान दुर्गम होते हुए भो सुगम हो जाता है ।। ७ ।।
१९
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पच्छिमखंध-प्रत्थाहियार शब्दब्रह्मेति शाब्दैर्गणधरमुनिरित्येव राद्धान्तविद्भिः,
___ साक्षात्सर्वज्ञ एवेत्य वहितमतिभिः सूक्ष्मवस्तुप्रणीतौ । यो दृष्टो विश्वविद्यानिधिरिति जगति प्राप्तभट्टारकाख्यः,
स श्रीमान्वीरसेनो जयति परमतध्वान्तभित्तंत्रकारः ॥१॥ जे ते तिलोयमत्थयसिहामणी गुणमयूहविष्फुरिया । सिद्धा जयंति सव्वे लद्धसहावा विबुद्धसव्वत्था ॥ २ ॥ जेसिं णवप्पयारा केवललद्धिप्पहा परिप्फुरइ । भवियजणकमलबोहण दिवायरा ते जयंति अरहंता ।। ३ ॥ पद्धोरिय धम्मपहा णिद्धोयकलंक-धवलचारित्तधया। सद्धम्मधोरिया ते सुद्धिं मे देंतु मूरिवरसत्थवहा ॥ ४ ॥ अज्झप्पविज्जणिवणां समायझाणजोगसंजुत्ता। सज्जणकमलविबोहणसुज्जा पसियंतु मे उवज्झाया ।। ५ ।।
पश्चिमस्कन्ध अर्थाधिकार [ अब पश्चिमस्कन्ध नामका अधिकार प्रारम्भ होता है । ] जो वीरसेनस्वामी वैयाकरणोंकेद्वारा शब्दब्रह्म माने गये हैं, सिद्धान्तके ज्ञाताओंकेद्वारा जो गणधर मुनि माने गये हैं, अवहित मतिवालोंकेद्वारा सूक्ष्म वस्तुकी रचनामें जो साक्षात् सर्वज्ञ हो स्वीकार किये गये हैं, जो विश्व-विद्यानिधिके दृष्टा हैं तथा जिन्होंने लोकमें भट्टारक संज्ञाको प्राप्त किया है वे परमतरूपी अन्धकारको भेदनेवाले सिद्धान्तकार श्रीमान् वीरसेनस्वामी जयवन्त होवे ॥१॥
जो तीन लोकके मस्तकके शिखामणिके समान हैं, जो गुणरूपी किरणोंको विस्फुरित करनेवाले हैं, जिन्होंने आत्मस्वभावको प्राप्त कर लिया है और जो तीनों कालोंके समस्त पदार्थो के जानकार हैं वे सब सिद्ध जयवन्त रहें ।। २।।
जिनकी नौ प्रकारको केवल-लब्धियोंकी प्रभा स्फुरित हो रही है तथा जो भव्यजनरूपी कमलोंको विकसित करनेकेलिए दिवाकरके समान हैं वे अरहन्तपरमेष्ठी जयवन्त रहें ॥ ३ ॥
जिन्होंने धर्मपथकी धुराको अच्छी तरहसे धारण किया है, जो अन्तरंग और बहिरंग कलंकको धोकर उज्ज्वल चारित्ररूपी ध्वजा धारण करनेवाले हैं और जो सद्धर्मके धारण करनेवालोंमें अग्रणी हैं वे सूरिवररूपी सार्थवाह हमें शुद्धि प्रदान करें ॥ ४ ॥
जो अध्यात्मविद्यामें निपुण हैं, जो स्वाध्याय, ध्यान और योगसे संयुक्त हैं तथा जो सज्जनरूपी कमलोंको विकसित करने में सूर्यके समान हैं वे उपाध्यायपरमेष्ठी हमपर प्रसन्न हों ॥ ५ ॥
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१४७
पच्छिमक्खंधमग्गणा
जे मोहसेण्णपच्छिमक्खधं भेत्तृण अग्गिमक्खंधे । लद्धजया सुद्धगुणा जसुब्भडा ते जयंति मुणिसुहडा ॥६॥ इति पञ्च गुरूनेतान् प्रणम्य कृतमङ्गलः ।।
वक्ष्यामि पश्चिमस्कन्धं श्रुतस्कन्धानचूलिकाम् ।। ७ ।। * पच्छिमक्खंधे त्ति अणियोगहारे तम्हि इमा मग्गणा ।
$ ३२५ पच्छिमक्खधे त्ति जो सो अथाहियारो सयलसुदक्खंधस्स चूलियाभावेण समवविदो तम्मि वक्खाणिज्जमाणे तत्थ इमा मग्गणा अहिकीरदित्ति वुत्तं होइ । पश्चाद्भवः पश्चिमः, पश्चिमश्चासौ स्कन्धश्च पश्चिमस्कंधः । खीणेसु घादिकम्मेसु जो पच्छा समुवलब्भइ कम्मइयक्खंधो अघाइचउक्कसरूवो सो पश्चिमक्खंधो त्ति भण्णदे, खयाहिमुहस्स तस्स सव्वपच्छिमस्स तहा ववएससिद्धीए गाइयत्तादो। अहवा खीणावरणिज्जेसु केवलीसु जो समुवलब्भइ चरिमोरालियसरीरणोकम्मक्खंधो तेजोकम्मइयसरीरसहगदो सो वि पच्छिमक्खंधो त्ति घेत्तव्वो, सव्वपच्छिमत्तादो । पच्छिमकम्मइयक्खंधचरिमोरालियसरीरक्खंधसंबंधो सजोगिकेवलीणं जो जीवपदेसक्खंधो सो वि पच्छिमक्खंधो त्ति एत्थ वक्खाणेयव्यो; केवलि समुग्घाद जोगणिरोहादिकिरियाणं तव्विसयाण
जिन्होंने मोहरूपी सेनाके अन्तिम स्कन्धको भेदकर अग्रिमस्कन्धमें जयको प्राप्त किया है, जो शुद्ध गुणोंसे युक्त हैं और जो अक्षुण्णकीर्तिके धनी हैं वे मुनि सुभट जयवन्त हों ।। ६ ॥
इसप्रकार इन पाँच गुरुओंको प्रणाम करके मंगलाचरणको सम्पन्न करनेवाला मैं श्रुतस्कन्धकी मुख्य चूलिकास्वरूप पश्चिमस्कन्धका व्याख्यान करूंगा ॥ ७॥
* पश्चिमस्कन्ध नामक अनुयोगद्वारमें यह मार्गणा अधिकृत है ।।
६३२५ पश्चिमस्कन्ध नामका जो यह अर्थाधिकार है वह समस्त श्रुतस्कन्धको चूलिकारूपसे अवस्थित है, उसका व्याख्यान करनेपर उसमें यह मार्गणा अधिकृत है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । जो अन्तमें होता है वह पश्चिम है । पश्चिम जो स्कन्ध वह पश्चिमस्कन्ध है। घाति कर्मोके क्षीण हो जानेपर जो अघातिचतुष्कस्वरूप कर्मस्कन्ध पश्चात् उपलब्ध होता है वह पश्चिमस्कन्ध कहा जाता है, क्योंकि क्षयके अभिमुख हुए सबसे अन्तिम उसको उस प्रकारको संज्ञाकी सिद्धि न्यायप्राप्त है। अथवा जिनके आवरण कर्म क्षीण हो गये हैं ऐसे केवलियोंके जो तैजस शरीर और कार्मण शरीरके साथ प्राप्त होनेवाला अन्तिम औदारिक शरीर नोकर्मस्कन्ध होता है सो वह भी पश्चिमस्कन्ध है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये. क्योंकि वह सबसे अन्तिम है। तथा अयोगिकेवलीके अन्तिम कार्मणस्कन्धके साथ अन्तिम औदारिक शरीरस्कन्धसे सम्बद्ध जो जीवप्रदेशस्कन्ध है वह भी पश्चिमस्कन्ध है ऐसा यहाँ व्याख्यान करना चाहिये, क्योंकि तद्विषयक केवलिसमुद्रात और
१. आ. ता. प्रत्योः जसुब्भदा इति पाठः । २. आ० ता. प्रत्योः सुहदा इति पाठः ।
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१४८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पच्छिमखंध-अत्थाहियार मेस्थाहियारे णिरूवणोवलंभादो। तदो एवं विहस्स सव्वस्स पच्छिमक्खंधस्स परूवणादो एसो अस्थाहियारो पच्छिमक्खंधो त्ति घेत्तव्यो ।
३२६ णेदमेत्थासंकणिज्जं; पण्णारसमहाहियारेहिं असीदिसदमूलगाहासु सभासगाहासु पडिबद्धत्थवत्तव्वएहिं कसायपाहुडे वित्थारेण परूविय समत्ते संते पुणो किमट्टमेदम्स पच्छिमक्खंघसण्णिदस्स अस्थाहियारस्स समोदारो ति । किं कारणं ? खवणाहियारसंबधेणेव पच्छिमक्खंधावयारम्भुवगमादो । ण चाधादिकम्माणं खवणाए विणा खवणाहियागे संपुण्णा होइ, विरोहादो । तम्हा खवणाहियारसंबंधेणवतस्स चूलियाभावेणेसो पच्छिमक्खंधाहियारो परूविज्जदि त्ति सुसंबद्धमेदं । महाकम्मपयडिपाहुडस्स चउवीसाणियोगद्दारेसु. पडिबद्धो एसो पच्छिमक्खंधाहियारो कधमत्थ कसायपाहुडे परूविज्जदि त्ति, णासंका कायव्वा, उहयत्थ वि तस्स पडिबद्धत्तम्भुवगमे बाहाणुवलंभादो।
$ ३२७ ततः सूक्तमेवं प्रसिद्धसंबंधो यः पश्चिमस्कन्ध इत्यधिकारः समस्तश्रुतस्कन्धस्य चूलिकाभावेन व्यवस्थितस्तमिदानों व्याख्यास्यामः । तत्र चेयमर्थमार्ग
योगनिरोध आदि क्रियाओंका इस अधिकारमें निरूपण उपलब्ध होता है। इसलिये इस प्रकारके पूरे पश्चिमस्कन्धका प्ररूपण करनेवाला होनेसे यह अर्थाधिकार पश्चिमस्कन्ध है ऐसा ग्रहण करना चाहिये।
$ ३२६ यहाँपर ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये कि भाष्यगाथाओंके साथ एक सौ अस्सी मूलगाथाओंके साथ सम्बन्ध रखनेवाले अर्थके व्याख्यानद्वारा कषायप्राभृतके विस्तारसे प्ररूपण करके समाप्त होनेपर फिर किसलिये पश्चिमस्कन्ध संज्ञावाले इस अर्थाधिकारका अवतार किया जा रहा है, क्योंकि क्षपणाधिकारके सम्बन्धसे ही पश्चिमस्कन्धका अवतार स्वीकार किया है । और अघातिकर्मोंको क्षपणाके बिना क्षपणाधिकार सम्पूर्ण नहीं होता है, क्योंकि ऐसा स्वीकार करने में विरोध आता है, इसलिये क्षपणाधिकारके सम्बन्धसे ही उसको चूलिकारूपसे इस पश्चिमस्कन्ध अधिकारका प्ररूपण किया जा रहा है, इस प्रकार यह सब सुसम्बद्ध ही है।
शंका-महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके चौवीस अनुयोगद्वारोंसे सम्बन्ध रखनेवाले इस पश्चिमस्कन्ध नामक अधिकारका यहाँ कषायप्राभृतमें कैसे प्ररूपण किया जा रहा है ?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि महाकर्मप्रकृतिप्राभूत और कषायप्राभृत दोनों हो आगमोंमें उसका सम्बन्ध स्वीकार करनेमें बाधा नहीं उपलब्ध होती।
६ ३२७ इसलिये हमने यह अच्छा हो कहा है कि प्रसिद्ध सम्बन्धवाला जो पश्चिमस्कन्ध नामक अधिकार है वह पूरे श्रुतस्कन्धका चूलिकारूपसे व्यवस्थित है, उसका इस समय व्याख्यान
१. आ० प्रती णिरूवमाणावलंभादो इति पाठः ।
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केवलिसमुग्धाद]
१४९ णाधिक्रियत इति । सा पुनरर्थमार्गणा इत्थमनुगंतव्या इति प्रतिपादयितुकामः सूत्रप्रबंधमुत्तरं प्राह
* अंतोमुहुत्ते आउगे सेसे तदो आवज्जिदकरणे कदे तदो केवलिसमुग्घादं करेदि ।
$ ३२८ केवलणाणमुप्पाइय सत्थाणसजोगिकेवली होदण देसूणपुव्वकोडिमुक्कस्सेण विहरिय तदो अंतोमुहुत्तावसेसे आउगे अधादिकम्माणं ठिदिसमीकरणटुं पुव्वमावज्जिदकरणं णाम किरियंतरमाढवेइ । किमावज्जिदकरण णाम । केवलिसमुग्धादस्स अहिमुहीभावो आवज्जिदकरणमिदि भण्णदे।
$ ३२९ तमंतोमुहुत्तमणुपालेदि। अंतोमुहुत्तमावज्जिदकरणेण विणा केवलिसमुग्यादकिरियाए अहिमुहीभावाणुववत्तीओ। ताधेव णामागोदवेदणीयाणं पदेसपिंडमोकड्डियूण उदये पदेसम्गं थोवं देदि, से काले असंखेज्जगुणं । एवं असंखेज्जगुणाए सेढीए णिक्खिमाणो गच्छइ जाव सेससजोगिअद्धादो अजोगिअद्धादो च विसेसाहियभावेण समबट्टिदगुणसेढिसीसयं ति । एदं पुण गुणसेढिसीमयं सत्थाणसजोगिकेवलिणा तदणंतरहेट्ठिमसमये वट्टमाणेण णिक्खित्तगुणसेढिआयामादा संखेज्जगुणहीणमद्धाणं हेट्ठा
करेंगे। उसमें यह अर्थमार्गणा अधिकृत है। परन्तु वह अर्थमार्गणा इस प्रकार जाननी चाहिये ऐसा प्रतिपादनकी इच्छा रखनेवाले आचार्य यतिवृषभ इस सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* आयुकर्मके अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेके बाद आवर्जित करणके किये जानेपर तदनन्तर अरहन्तदेव केवलिसमुद्धात करते हैं ।
$३२८ केवलज्ञानको उत्पन्न करके तथा स्वस्थानसयोगिकेवली होकर उत्कृष्टसे कुछ कम एक पूर्वकोटि कालतक विहार करके तत्पश्चात् आयुकर्मके अन्तमुहूतं शेष रहनेपर अघातिकर्मोंकी स्थितिको समान करनेकेलिये पहले आवजित-करण नामकी दूसरी क्रियाको आरम्भ करता है।
शंका--आवजितकरण क्या है ? समाधान-केवलिसमुद्धातके अभिमुख होना आवर्जितकरण कहा जाता है।
१३२९ उसे यह अन्तर्मुहूर्त कालतक पालन करता है, क्योंकि अन्तमुहूर्त कालतक आवजितकरण हुए बिना केवलिसमुद्धातक्रियाका अभिमुखीभाव नहीं बन सकता । उसी कालमें ही नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मके प्रदेशपिण्डका अपकर्षण करके उदयमें थोड़े प्रदेशपुंजको देता है। अनन्तर समयमें असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको देता है। इस प्रकार असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे निक्षेप करता हुआ शेष रहे सयोगीके कालसे और अयोगीके कालसे विशेषरूपसे अवस्थित गुणश्रेणिशीर्षके प्राप्त होनेतक जाता है। परन्तु यह गुणश्रेणिशीर्ष स्वस्थान सयोगिकेवलीद्वारा उसके अनन्तर अधस्तन समयमें वर्तमान रहते हुए निक्षिप्त किये गये गुणश्रेणि आयामसे संख्यातगुणहीन स्थान जाकर
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१५०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पच्छिमखंध -अत्याहियार ओसरिदूण चिट्ठदित्ति दट्ठव्वं । पदेसग्गेण पुण तत्तो असंखेज्जगुणपदेसविण्णासोवलक्खियमेदमिदि वत्तं । कुदो एवं परिच्छिज्जदे ? एक्कारसगुण से ढिसरूवणिरूवयगाहात्तादो ।
$ ३३० तदो गुण-सेढिसीसयादो उवरिमाणंतरट्ठिदीए वि असंखेज्जगुणमेव णिसिंचदि । ततो उवरि सव्वत्थ विसेसहीणं णिक्खिवदि । एवमावज्जिदकरण कालव्यंतरे सव्वत्थ गुणसे ढिणिक्खेवो णायव्वो । एत्थ दिस्समागपरूवणा जाणिय णेदव्वा । किमेसो किरिया हिमुहसजोगिकेवलिस्स गुणसेढिणिक्खेवो सत्थाणसजोगिकेवलिस्सेव अट्ठायाम आहो गलिदसेसायामो ति? णिक्खेवकरणाए अवट्टिदायामो ति णिच्छयो काव्वो ।
९ ३३१ एतो पहुडि जाव सजोगिदुचरिमहिदिकंडय़चरिमफालि त्ति ताव एदम्मि विसये अवट्ठिदसरूवेणेदस्स गुणसेढिणिक्खेवायामस्स पत्तिनियमदंसणा दो । ण चेदमसिद्धं सुत्ताविरुद्धपरमगुरुसंपदायबलेण सुपरिणिच्छिदत्तादो । दमेत्थासंकणिज्जं, सत्थाणकेवलिणो किरिया हिमुहकेवलिणो च अवट्ठिदेगसरूवपरिणामत्ते संते कुदो
अवस्थित है ऐसा जानना चाहिये । परन्तु प्रदेशपुंजकी अपेक्षा उससे यह असंख्यातगुणे प्रदेश विन्यास - से उपलक्षित होता है ऐसा कहना चाहिये ।
शंका- यह कैसे जाना जाता ?
समाधान —यह ग्यारह गुणश्रेणियोंके स्वरूपका निरूपण करनेवाले गाथासूत्रसे जाना जाता है ।
९ ३३० उस गुणश्रेणिशीर्षसे उपरिम अनन्तर स्थिति में भी असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको ही सींचता है । उसके बाद ऊपर सर्वत्र विशेषहोन प्रदेशपुंजको हो निक्षिप्त करता है। इस प्रकार आवजित करणकालके भीतर सर्वत्र गुणश्रेणिनिक्षेप जानना चाहिये । यहाँ पर दृश्यमान प्ररूपणा जानकर ले जाना चाहिये ।
शंका - आवर्जित क्रियाके अभिमुख हुए सयोगीकेवलीके यह गुणश्रेणिनिक्षेप स्वस्थान सयोगिकेवलीके समान अवस्थित आयामवाला होता है या गलितशेष आयामवाला होता है ?
समाधान - निक्षेपरूप करनेकी क्रियामें यह अवस्थित आयामवाला होता है, ऐसा निश्चय करना चाहिये ।
§ ३३१ इससे आगे सयोगीकेवलीके द्विचरम स्थितिकाण्डकी अन्तिम फालिके प्राप्त होने तक इस विषय में अवस्थित रूपसे इस गुणश्रेणिनिक्षेप सम्बन्धो आयामको प्रकृतिका नियम देखा जाता है । और यह असिद्ध नहीं है, क्योंकि यह सूत्र से अविरुद्ध परम गुरुओंके सम्प्रदायके बलसे सुनिश्चित होता है ।
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केवलसमुग्वाद ]
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एवमेत्युद्दे से गुणसेढिणिक्खेवस्स विसरिसभावो जादो त्ति १ किं कारणं ? वीयरागपरिणाममेदाभावे वि अंतोमुहुत्त सेसा उसव्वपेक्खाणमंत रंगपरिणाम विसेसाणं किरिया भेदसाहणभावेण पयट्टमाणाणं पडिबंधाभावादो |
$ ३३२ एवमंतोमुहुत्तमेत्त कालमावज्जिदकरणविसयं वावारविसेसमणुपालिय तम्मि णिट्ठिदे तदो से काले केवलिसमुग्धादं करेदि ति सुत्तत्थसंबंधो को केवलिसमुग्धादो नाम ? वुच्चदे उद्गमनमुद्धातः, जीवप्रदेशानां विसर्पणमित्यर्थः । समीचीन उद्घातः समुद्घातः । केवलिनां समुद्धातः केवलिसमुद्घातः । अघातिकर्म स्थितिशमीकरणार्थं केवलिजीवप्रदेशानां समयाविरोधेन ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च विसर्पणं केवलिसम्मुद्धात इत्युक्तं भवति । अत्र ‘केवलि' विशेषणं शेषाशेषसमुद्धात विशेषव्युदासार्थमवगंतव्यम्, तेषामिहानधिकारात् । स एष केवलिसमुद्धातो दंड- कपाट- प्रतर- लोकपूरणमेदेन च चतुरवस्थात्मकः प्रत्येतव्यः । तत्र तावद्दंडस मुद्धातस्वरूपनिरूपणार्थमुत्तरसूत्रमाह
* पढमसमये दंड करेदि ।
-
शंका —– स्वस्थानकेवलीके या आवर्जित क्रियाके अभिमुख हुए केवली के अवस्थित एक रूप परिणामके रहते हुए इस स्थानमें गुणश्रेणिनिक्षेपका इस प्रकार विसदृशपना कैसे हो गया है, इसका क्या कारण है ?
समाधान -- यहाँ पर ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि वीतराग परिणामों में भेदका अभाव होने पर भी वे अन्तरंग परिणामविशेष अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आयुकी अपेक्षा सहित होते हैं और आवर्जितकरण क्रिया के भेदरूप साधनभावसे प्रवृत्त होते हैं, इसलिये यहाँ पर गुणश्रेणिनिक्षेपके विसदृश होने में प्रतिबन्धका अभाव है ।
$ ३३२ इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त प्रमाणकाल तक आवर्जितकरणविषयक व्यापार विशेषका अनुपालनकर उसके समाप्त होनेपर इसके बाद अनन्तर समयमें केवलसमुद्धातको करता है यह इस सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है |
शंका - केवलिसमुद्धात किसका नाम है ?
समाधान - कहते हैं, उद्गमनका अर्थ उद्धात है । इसका अर्थ है - जीवके प्रदेशों का फैलना । समीचीन उद्धातको समुद्धात कहते हैं । केवलियोंके समुद्धातका नाम केवलिसमुद्धात है । अघातिकर्मों की स्थितिको समान करनेके लिये केवली जीवके प्रदेशों का समयके अविरोधपूर्वक ऊपर, नीचे और तिरछे फैलना केवलिसमुद्धात है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
यहाँ केवलसमुद्धात पदमें 'केवलि' विशेषण शेष समस्त समुद्धात विशेषोंके निराकरण करनेके लिये जानना चाहिये, क्योंकि उन समुद्धातों का प्रकृतमें अधिकार नहीं है । वह यह केवल समुद्धात दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूराणके भेदसे चार अवस्थारूप जानना चाहिये। उन भेदोंमेंसे सर्वप्रथम दण्डसमुद्धातके स्वरूपका निरूपण करनेके लिये आगेके सूत्रको कहते हैं
* केवली भगवान् प्रथम समय में दण्डसमुद्धात करते हैं ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुढे पिच्छिमखंध-अत्याहियार ६३३३ प्रथमममये तावइंडसमुद्धातं करोतीत्यर्थः। किंलक्षणो सो दंडसमुद्धात इति चेदुच्यते-अंतोमुहुत्ताउगे सेसे केवली समुद्धातं करेमाणो पुव्वाहिमुहो उत्तराहिमुहो वा होदण काउस्सग्गेण वा करेदि पलियंकासणेण वा। तत्थ काउस्सग्गेण दंडसमुद्धादं कुणमाणस्म मूलसरीरपरिणाहेण देसूण चोद्दसरज्जुआयामेण दंडायारेण जीवपदेसाणं विमप्पणं दंडममुग्धादो णाम । एत्थ 'देसूण' पमाणं हेट्ठा उवरिं च लोयपेरंतवादवलयरुद्धखेत्तमेत्तं होदि ति ददुव्वं; सहावदो चेव तदवत्थाए वादवलयभंतरे केव लिजीवपदेसाणं पवेसाभादो । एवं चेव पलियंकासणेण समुहदस्स वि दंडसमुग्घादो वत्तव्यो। णवरि मूलसरीरपरिट्ठयादो दंडसमुग्घादपरिदुओ तत्थ तिगुणो होदि । कारणमेत्य सुगम । एवं विहो अवत्थाविसेसो दंडसमुग्घादो त्ति भण्णदे । अन्वर्थसंज्ञाविज्ञानात् दंडाकारेण यथोक्तविधिना जीवप्रदेशानां विमर्पणं दंडसमुद्धात इति । एदम्मि पुण दंडसमग्पादे वट्टमाणस्स ओरालियकायजोगो चेव होइ; तत्थ सेसजोगाणमसंभवादो। संपहि एदम्मि दंडसमुग्धादे वट्टमाणेण कीरमाणकज्जभेदपदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तमाह--
* तम्हि ट्ठिदीए असंखेज्जे भागे हणइ ।
३३३ सर्वप्रथम प्रथम समयमें दण्डसमुद्धात करते हैं, यह इसका भाव है। शका--वह दण्डसमुद्धात क्या लक्षणवाला है ?
समाधान--कहते हैं, अन्तमुहूर्तप्रमाण आयुकर्मके शेष रहनेपर केवली जिन समुद्धात करते हुए पूर्वाभिमुख होकर या उत्तराभिमुख होकर कायोत्सर्गसे करते हैं या पल्यंकासन से करते हैं। वहाँ कायोत्सर्गसे दण्डसमुद्धातको करनेवाले कवलोके मूल शरीर की परिधिप्रमाण कुछ कम चौदह राजु लम्बे दण्डाकाररूपसे जोवप्रदेशोंका फैलना दण्डसमुद्धात है। यहाँ कुछ कमका प्रमाण लोकके नीचे और ऊपर लोकपर्यन्त वातवलयसे रोका गया क्षेत्र होता है ऐसा यहाँ जानना चाहिये, क्योंकि स्वभावसे ही उस अवस्थामें वातवलयके भीतर केवलो जिनके जीवप्रदेशोंका प्रवेश नहीं होता। इसी प्रकार पल्यंकासनसे समुद्धात करनेवाले केवली जिनके दण्डसमुद्धात कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि मूल शरीरकी परिधिसे उस अवस्थामें दण्ड समुद्धातकी परिधि तिगुणी हो जाती है। यहाँ कारणका कथन सुगम है। इस प्रकारको अवस्थाविशेषका नाम दण्डसमुद्धात कहा जाता है, क्योंकि सार्थक संज्ञाके ज्ञानवश यथोक्तविधिसे दण्डाकाररूपसे जोवके प्रदेशोंका फैलना दण्डसमुद्धात है। परन्तु इस दण्ड-समुद्धातमें विद्यमान केवली जिनके औदारिककाय-योग ही होता है, क्योंकि उस अवस्थामें शेष योगोंका अभाव है। अब इस दण्डसमुद्धातमें विद्यमान केवली जिनके द्वारा किये जानेवाले कार्योंके भेदोंका कथन करनेकेलिये आगे का सूत्र कहते हैं
* केवली जिन दण्डसमुद्धातमें ( आयु कर्मको छोड़कर ) शेष अधातिकर्मों के असंख्यात बहुभागका हनन करते हैं ।
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केवलिसमुग्धाद]
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$३३४ तम्हि दंडसमुग्घादे वट्टमाणो आउगवज्जाणं तिहमघाइकम्माणं पलिदोवमस्सासंखेज्जदिमागमेत्तहिदिसंतकम्मस्स तकालमुवलब्भमाणस्स असंखेज्जे भागे घावेदणासंखेज्जदिमागं ठवेदि त्ति वृत्तं होइ। कुदो एवमेक्कसमयेणेव एवंविहो द्विदिघादो जादो त्ति णासंकियव्वं, केवलिसमुग्धादपाहम्मेण तदुववत्तीए बाहाणुवलंभादो।
३३५ संपहि एत्थेवाणुभागधादमाहप्पपदंसणमिदमाह-- * सेसस्स च अणुभागस्स अप्पसत्थाणमणंता भागे हणदि ।
$३३६ खीणकसाय दुचरिमसमएं घादिदण परिसेसिदो जो अणुभागो तस्स अणंते भागे धादिदूण अणंतिमभागे अप्पसत्थपयडीणमणभागसंतकम्म ठवेदि त्ति वुत्तं होइ । पसत्थपयडीणमेत्थ द्विदिघादो चेव, अणुभागपादो पत्थि त्ति घेत्तव्वं । एत्थ गुणसेढिणिज्जरा जहा आवज्जिदकरणे परूविदा, तहा चेव वत्तव्वा, विसेसाभावादो । एवं दंडसमुग्पादं कादण तदो से काले कवाडसमुग्धादेण परिणममाणस्स सरूवविसेसणिद्धारणट्टमुत्तरसुत्तावयारो--
३३३४ उस दण्डसमुद्धातमें विद्यमान केवली जिन आयुकमंको छोड़कर तीन आघातिकर्मों की पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिसत्कर्मकी तत्काल उपलभ्यमान स्थितिके असंख्यात बहुभागका घात करके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिको स्थापित करते हैं, यह उक्त कथन का तात्पर्य है।
शंका--इस प्रकार एक समयद्वारा ही इस प्रकारका स्थितिघात केसे हो गया ?
समाधान--ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि केवलिसमुद्धात की प्रधानतासे उसकी उपपत्ति होने में कोई बाधा उपलब्ध नहीं होती।
$ ३३५ अब यहींपर अनुभागघातका माहात्म्य दिखलानेकेलिये इस सूत्रको कहते हैं
* तथा शेष अनुभागसम्बन्धी अप्रशस्त अनुभागोंके अनन्त बहुभागोंका घात करते हैं।
३३६ उक्त क्षपक क्षीणकषाय गुणस्थानके द्विचरम समयमें घात करके जो अनुभाग शेष रहा उसके अनन्त बहुभागका घात कर अनन्तवें भागमें अप्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभाग सत्कर्मको स्थापित करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। प्रशस्त प्रकृतियोंका यहाँपर स्थितिघात ही होता है, अनुभागघात नहीं होता ऐसा ग्रहण करना चाहिये । गुणश्रेणिनिर्जराका जिस प्रकार आवजितकरणमें प्ररूपण किया है उसी प्रकार यहाँपर भी प्ररूपण करना चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। इस प्रकार केवलो जिन दण्डसमुद्धात करके उसके बाद अनन्तर समयमें कपाटसमुद्धातसे परिणमन करनेवालेके स्वरूपविशेषका निर्धारण करनेकेलिये उत्तर सूत्रका अवतार होता है१. प्रेसकापीप्रती संखेज्जे इति पाठः । ता० प्रत्यनुसारेण संशोधनमिदं विहितम् । २, आ० प्रती खीणकसायचरिमसमए इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पच्छिमखंध-मत्थाहियार * तदो बिदियसमए कवाडं करेदि ।
६३३७ कपाटमिव कपाटं । क उपमार्थः ? यथा कपाटं बाहल्येन स्तोकमेव भूत्वा विष्कंभायामाम्यां परिवर्द्धते, एवमयमपि जीवप्रदेशावस्थाविशेषः मूलशरीरबाहल्येन तन्त्रिगुणबाहल्येन वा देसूणचोइसरज्जुआयामेण सत्तरज्जुविक्खं मेण वढि-हाणिगदविक्खंमेण वा वड्डियूण चिट्ठदि त्ति कवाउसमुग्धादो त्ति भण्णदे, परिप्फुडमेवेत्थ कवाडसंठाणोवलंभादो । एस्थ पुव्वुत्तराहिमुहकेवलीणं कवाडखेलस्स विक्खंभमेदो अवहारिय पुव्वावराणं सुबोहो । एदम्मि पुण अवस्थाविसेसे वट्टमाणस्स केवलिणो ओरा-. लिय-मिस्सकायजोगो होदि, कार्मणौदारिकशरीरद्वयावष्टम्मेनतत्र जीवप्रदेशानां परिस्पंदपर्यायोपलंभात् । संपहि एदम्मि अवत्थंतरे वट्टमाणेण कीरमाणकज्जमेदपदंसण?मुत्तरसुत्तारंभो--
* तम्हि सेसिगाए हिदीए असंखेज्जे भागे हणइ ।
* उसके बाद दूसरे समय में केवली जिन कपाटसमुद्धात करते हैं ।
३३७ जो कपाटके समान हो वह कपाट है । शंका-उपमार्थ क्या है ?
समाधान-जैसे कपाट मोटाईकी अपेक्षा अल्प ही होकर चौड़ाई और लम्बाई की अपेक्षा बढ़ता है उसी प्रकार यह भी मूल शरीरके बाहल्य की अपेक्षा अथवा उसके तिगुणे बाहल्यकी अपेक्षा जीवप्रदेशोंके अवस्थाविशेषरूप होकर कुछ कम चौदह राजुप्रमाण आयामकी अपेक्षा तथा सात राजुप्रमाण विस्तारकी अपेक्षा वृद्धि-हानिगत विस्तारकी अपेक्षा वृद्धिको प्राप्त होकर स्थित रहता है वह कपाटसमुद्धात कहा जाता है, क्योंकि इस समुद्धातमें स्पष्टरूपसे ही कपाटका संस्थान उपलब्ध होता है।
इस समुद्धातमें पूर्वाभिमुख और उत्तराभिमुख केवलियोंके कपाटक्षेत्रके विष्कम्भके भेदका अवधारणकर पूर्वाभिमुख और उत्तराभिमुखकेवलियोंका अच्छी तरह ज्ञान हो जाता है। परन्तु इस अवस्थाविशेषमें विद्यमान केवलोके औदारिकमिश्रकाययोग होता है, क्योंकि उनके कार्मण और औदारिक इन दो शरीरोंके अवलम्बनसे जीवप्रदेशोंके परिस्पन्दरूप पर्यायकी उपलब्धि होती है। अब इस अवस्थाविशेषमें विद्यमान जीवकेद्वारा किये जानेवाले कार्यभेदक दिखलानेके लिये आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं
* कपाटसमुद्धातके कालमें शेष रही स्थितिके असंख्यात बहुभागका हनन करता है।
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के िलसमुग्धादो]
१५५ क सेसस्स च अणुभागस्स अप्पसत्थाणमणते भागे हणइ।
$ ३३८ सुगमत्वान्नात्र सूत्रद्वये किंचिद् व्याख्येयमस्ति। एत्थ वि गुणसेढिपरूवणाए आवज्जिदकरणभंगो। एवमेसो विदिओ केवलिसमुग्घादस्सावत्थाविसेसो परूविदो । संपहि तदिये अवत्थाविसेसे वट्टमाणस्स सरूवणिरूवणमुवरिमं सुत्त पबंधमाह--
* तदो तदियसमये मंथं करेदि ।
$ ३३९ मथ्यतेऽनेन कर्मेति मन्थः। अघादिकम्माणं द्विदिअणुभागणिम्महणट्ठो केवलिजीवपदेसाणमवत्थाविसेसो पदरसग्णिदो मंथो त्ति वुत्तं होइ । एदम्मि अवस्थाविसेसे वट्टमाणस्स केवलिणो जीवपदेसा चदुहिम्मि पासेहिं पदरागारेण विसप्पियण समंतदो वादवलयवदिरित्तासेसलोग़ागासपदेसे आवरिय चिट्ठति त्ति दट्ठव्वं, सहावदो चेव तदवत्थाए केवलिजीवपदेसाणं वादवलयभंतरे संचाराभावादो। एदस्स चेव पदरसण्णा रुजगसण्णा च आगमरूढिवलेण दट्ठव्या । एदम्मि पुण अवत्थंतरे कम्मइयकायजोगी अणाहारी च जायदे, तत्थ मूलसरीरावट्ठभजणिदजीवपदेसपरिप्फंदा संभवादो, शरीरप्रायोग्यनोकर्म पुद्गलपिण्डग्रहणाभावाच्च । संपहि एत्थ वि द्विदि-अणुभागे पुव्वं व घादेदि ति पदुप्पायणट्ठमुत्तरसुतमोइण्ण--
* अप्रशस्त प्रकृतियोंके शेष रहे अनुभागके अनन्तबहुमागका हनन करता है ।
8 ३३८ सुगम होनेसे यहाँपर उक्त दोनों सूत्रोंमें कुछ व्याख्यान करने योग्य नहीं है । यहाँपर भी गुणश्रेणि-प्ररूपणा आजितकरणके समान है। इस प्रकार केवलिसमुद्धातकी तीसरी अवस्थाविशेषमें विद्यमान केवलोके स्वरूपका प्ररूपण करनेकेलिये आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* तत्पश्चात् तीसरे समयमें मन्थ नामके समुद्धातको करता है।
६ ३२९ जिसके द्वारा कर्म मथा जाता है उसे मन्थ कहते हैं । अघातिकर्मों के स्थिति और अनुभागके निर्मथनकेलिये केवलियोंके जीवप्रदेशोंकी जो अवस्था विशेष होती है, प्रतर संज्ञावाला वह मन्थ समुद्धात है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस अवस्था विशेषमें विद्यमान केवलोके जीवप्रदेश चारों हो पार्श्वभागोंसे प्रतराकाररूपसे फैलकर सर्वत्र वातवलयके अतिरिक्त पूरे लोकाकाशके प्रदेशोंको भरकर अवस्थित रहते हैं ऐसा जानना चाहिये, क्योंकि उस अवस्थामें केवलोके जीवप्रदेशोंका स्वभावसे ही वातवलयके भीतर संचार नहीं होता। इसीकी प्रतरसंज्ञा और रुचक संज्ञा आगममें रूढिके बलसे जाननी चाहिये । परन्तु इस अवस्थामें केवली जिन कार्मणकाययोगी और अनाहारक हो जाता है, क्योंकि उस अवस्थामें मूल शरीरके आलम्बनसे उत्पन्न हुए जीवप्रदेशोंका परिस्पन्द सम्भव नहीं है तथा उस अवस्थामें शरीरके योग्य नोकर्म पुद्गलपिण्डका ग्रहण नहीं होता । अब इसो अवस्थामें स्थिति और अनुभागका पहलेके समान घात करता है इस बातका कथन करनेकेलिये उत्तरसूत्र अवतीर्ण हुआ है
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पच्छियखंध-अत्थाहियार * टिदि-अणुभागे तहेव णिज्जरयदि ।
३४० द्विदीए असंखेज्जे मागे अप्पसत्थपयडीणमणभागस्स च अणते भागे पुव्वं व घादेदि त्ति भणिदं होदि । एत्थ पदेसग्गं पि तहेव णिज्जरयदि त्ति वक्कसेसो कायव्वो, आवज्जिदकरणादो पहुडि सत्थाणकेव लिगुणसेडिणिज्जरादो असंखेन्जगुणसेढिणिज्जराए अवडिदणिक्खेवायामेण पवृत्तिसिद्धीए बाहाणवलंभादो। एवमेसो तदिओ केवलिसमग्घादभेदो परूविदो । संपहि चउत्थसमये लोगपूरणसण्णिदं समुग्धादं सगसव्वपदेसेहिं सव्वलोगमावरिय पयट्टावेदि त्ति जाणावणमत्तरसुत्तारंभो
* तदो चउत्थसमये लोग परेदि ।
६ ३४१ वादवलयावरुद्धलोगागासपदेसेसु वि जीवपदेसेसु समंतदो णिरंतरं पविद्वेसु लोगपूरणसण्णिदं चउत्थं केवलिममुग्धादमेसो तदवत्थाए पडिवज्जदि त्ति मणिदं होदि । एत्थ वि कम्मइयकायजोगेणाणाहारओ चेव होदि; तदवत्थाए सरीरणिवत्तणट्ठमोरालियणोकम्मपदेसाणमागमणस्स गिरोहदंसणादो। एवं च लोगमावरिय तुरियावत्थाए कम्मइयकायजोगेण वट्टमाणस्स तदवत्थाए सम्वेसि जीवपदेसाणं समजोगत्तपदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तारंभो
* स्थिति और अनुभागको उसी प्रकार निर्जरा करता है।
६ ३४० स्थितिके असंख्यातबहुभागका और अप्रशस्त प्रकृतियोंके अनन्त बहुभागका पहलेके समान घात करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यहाँपर प्रदेशपुंजकी भी उसी प्रकार निर्जरा करता है यह वाक्यशेष करना चाहिये, क्योंकि आवजित करणसे लेकर स्वस्थान केवलीको गुणश्रेणिनिर्जरासे असंख्यातगुणी गुणश्रेणिनिर्जराको अवस्थित निक्षेपरूप आयामके साथ प्रवृत्तिकी सिद्धि में बाधा नहीं उपलब्ध होती। इस प्रकार यह केवलिसमुद्धातके भेदका कथन किया । अब चौथे समयमें लोकपूरणसंज्ञक समुद्धातको अपने सम्पूर्ण प्रदेशोंद्वारा समस्त लोकको पूरा करके प्रवृत्त करता है, इसका ज्ञान करानेकेलिये आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं
* तत्पश्चात् चौथे समयमें लोकको पूरा करता है।
६३४१ बातवलयसे रुके हुए लोककाशके प्रदेशोंमें भी जीवके प्रदेशोंके चारों ओरसे निरन्तर प्रविष्ट होनेपर लोकपूरण संज्ञक चोथे केवलिसमुद्धातको यह केवली जिन उस अवस्थामें प्राप्त होते हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहाँपर भी कार्मणकाययोगके साथ यह अनाहारक ही होता है, क्योंकि उस अवस्थामें शरीरकी रचनाकेलिये औदारिकशरीर नोकर्मप्रदेशोंके आगमनका निरोध देखा जाता है। इस प्रकार लोकको पूरा करके चौथी अवस्थामें कार्मणकाययोगके साथ विद्यमान केवलोजिनके उस अवस्था में समस्त जोवप्रदेशोंके समान योगके प्रतिपादन करनेके लिये आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं
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hafoसमुग्धाद]]
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* लोगे पुणे एक्का वग्गणा जोगस्स त्ति समजोगो ति णायव्वो । ९ ३४२ लोगवरण - समुग्धादे वट्टमाणस्सेदस्स केवलिणो लोगमेत्तासेसजीवपदेसेसु जोगाविभागपरिच्छेदा वढि -हाणीहिं विणा सरिसा चैव होतॄण परिणमंति, तेण सव्वे जीवपदेसा अण्णोष्णं सरिसधणिय सरूवेण परिणदा संता एया वग्गणा जादा । तदो समजोगो ति एसो तदवत्थाए णायव्वो, जोगसत्तीए सव्वजीवपदेसेसु सरिसभावं मोत्तूण विसरिसभावाणुवलंभादो त्ति वृत्तं होइ । एसो च समजोगपरिणामो
मणिगोदजहण्णवग्गणादो असंखेज्जगुणत्तप्पा ओग्गमज्झिमवग्गणासरूवेण होदित्ति णिच्छओ कायो । अपुन्वफद्दयविहाणादो पुव्वावत्थाए सव्वत्थमणुभागाणमसंखेज्जाणंते भागे घादेदि; तग्वादणमेव समुग्धादकिरियाए वावदत्तादोत्ति वृत्तं होइ । एवमेदम्मि लोग पूरणसमुग्धादे वट्टमाणेण द्विदीए असंखेज्जेसु मागेसु धादिदेसु घादिदसेसट्ठिदिसंतकम्मं सुड्डु थोवभावेण चिट्ठमाणमंतोमुडुत्तमेत्तायामं होण चिट्ठदि त्ति जाणावणमुत्तरमुत्तावयारो !
*लोगे पुराणे अंतो मुहुत्तं द्विदिं ठवेदि ।
९ ३४३ सुगमं । संपहि किमेदमंतो मुहुत्तपमाणमाउट्ठिदीए समाणमाहो संखेज्जगुणमण्णारिसं वात्ति आसंकाए णिरागीकरणट्ठमिदमाह -
* लोकपूरण समुद्धात में योगकी एक वर्गणा होती है, इसलिये वहाँ समयोग ऐसा जानना चाहिये ।
8 ३४२ लोकपूरण समुद्धातमें विद्यमान इस केवली जिनके लोकप्रमाण समस्त जीवप्रदेशों में योगसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद वृद्धि हानिके बिना सदृश ही होकर परिणमते हैं, इसलिये सभी जीवप्रदेश परस्पर सदृश धनरूपसे परिणत होकर एक वर्गणारूप हो जाते हैं । इसलिये यह केवली उस अवस्था में समयोग जानना चाहिये, क्योंकि समस्त जीवप्रदेशों में योगशक्तिके सदृशपनेको छोड़कर विसदृशपना नहीं उपलब्ध होता यह उक्त कथनका तात्पर्य है । और यह समयोगरूप परिणाम सूक्ष्म निगोदजोवकी (योगसंबन्धो) जघन्य वर्गणासे असंख्यात गुणत्वके योग्य मध्यम वगणारूपसे होता है ऐसा निश्चय करना चाहिये । अपूर्वं स्पर्धककी विधि से पहले की अवस्था में सर्वत्र अनुभागोंके असंख्यात और अनन्तबहुभागों का घात करता है, क्योंकि उसके घातकेलिये ही समुद्धात क्रियाका व्यापार होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार इस लोकपूरण समुद्धा में विद्यमान केवलो जिनद्वारा स्थितिके असंख्यात भागोंके घातित होनेपर घात होनेसे शेष रहा स्थितिसत्कर्म बहुत अल्परूपसे स्थित होकर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आयामवाला होकर स्थित रहता है इस बातका ज्ञान करानेकेलिये आगेके सूत्रका अवतार करते हैं
* लोकपूरण समुद्धातमें कर्मोकी स्थितिको अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थापित करता है ।
§ ३४३ यह सूत्र सुगम है । अब क्या यह अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थिति आयुकर्मको स्थिति समान है या संख्यातगुणी है या अन्य प्रकारकी है; इस आशंका के होनेपर निःशंक करनेकेलिये इस सूत्रको कहते हैं
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पच्छिमखंध-अत्थाहियार
* संखेज्जगुणमाउादो ।
९ ३४४ णाज्जवि आउट्ठिदीए समाणमेदेसिं ट्ठिदिसंतकम्मं जायदे, किंतु तत्तो संखेज्जगुणमेवेति णिच्छेयन्वं । एत्थ दुवे उवएसा अस्थि त्ति, केवि भणति । तं कथं ? महावाचयाणमज्जमंखुखमणाणमुवदेसेण लोगे पूरिदे आउगसमं णामागोदवेदणीयाणं द्विदिसंतकम्मं ठवेदि । महावाचयाणं नागइत्थिखवणाणमुव एसेण लोगे पूरिदे णामागोदवेदणीयाणं ट्ठिदिसंतकम्ममंतोमुहुत्तपमाणं होदि । होंतं पि आउगादो सखेज्जगुणमेत्तं ठवेदिति । णवरि एसो वक्खाणसंपदाओ चुण्णिसुत्तविरुद्धो, चण्णिसुते मुत्तकंठमेव संखेज्जगुणमाउआदो त्ति निट्ठित्तादो । तदो पवाइज्जतोव - एसी एसो चेव पहाणभावेणाव लंबेयव्वो, अण्णहा सुत्त पडिणियत्तावत्तदो । एवमेदेसिं दंड-कवाड-पदर- लोग पूरणसमुग्धादाणं सरूवविसेसं तत्थ कीरमाणकज्जभेदं च णिरूविय संपति इममेवत्थमुवसंहारमुहेण फुडीकरेमाणो उवरिमसुत्तद्दयमाह -
* एदेसु चदुसु समएस अध्पसत्थकम्मंसाणमणुभागस्स अणुसमय श्रवणा ।
* शेष अघातिकर्मों की स्थिति आयुकर्मकी स्थितिसे संख्यातगुणी है ।
8 ३४४ इस समय भी आयुकर्मकी स्थितिके समान इन अघातिकर्मोंका स्थितिसत्कर्म नहीं होता है, किन्तु उससे संख्यातगुणा ही होता है ऐसा निश्चय करना चाहिये । यहाँ इस विषयमें दो उपदेश पाये जाते हैं । कितने ही आचार्य कहते हैं
शका - - वह कैसे ?
समाधान- महावाचक आर्यमक्षु क्षमणके उपदेशके अनुसार लोकपूरण समुद्धातके होनेपर आयुकर्म की स्थिति समान नाम, गोत्र और वेदनीयकर्मका स्थितिसत्कर्म स्थापित करता है । महावाचक नागहस्ति क्षमणके उपदेशके अनुसार लोकपूरण समुद्धात होनेपर नाम, गोत्र और वेद
कर्मका स्थितिसत्कर्म अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है । इतना होता हुआ भी आयुकर्म की स्थिति से संख्यातगुणा स्थापित करता है । परन्तु यह व्याख्यान - सम्प्रदायचूर्णिके विरुद्ध है, क्योंकि चूर्णिसूत्र में स्पष्टरूपसे ही आयुकर्मकी स्थितिसे शेष अघातिकर्मोंकी संख्यातगुणी निर्दिष्ट की है । इसलिये प्रवाह्यमान उपदेश यही प्रधानरूपसे अवलम्बन करने योग्य है, अन्यथा सूत्रके प्रतिनियत होनेमें आपत्ति आती है । इस प्रकार इन दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्धातोंके स्वरूपविशेषका और वहाँ किये जानेवाले कार्यभेदों का निरूपण करके अब इसी अर्थको उपसंहाररूपसे स्पष्ट करते हुए आगे के दो सूत्रोंको कहते हैं
* केवलिसमुद्धातके इन चार समयों में अप्रशस्त कर्मप्रदेशोंके अनुभाग की अनुसमय अपवर्तना होती है ।
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केवलिसमुम्बाद ]
१५९ ६ ३४५ कुदो एदेसु चदुसु समुग्धादसमयेसु अप्पसत्त्थाणं कम्माणमणुसमयोवट्टणापादस्साणंतरपरूविदाणुभागषादवसेण परिप्फुडमुवलंभादो ।
* एगसमइओ हिदिखंडयस्स घावो ।
६ ३४६ चदुसु वि समएसु पयट्टमाणस्स द्विदिपादस्स एयसमयेणेव णिवत्तीए अणंतरमेव पदुप्पाइयत्तादो। तम्हा आवज्जिदकरणाणंतरमेवं विहं केवलिसमुग्धादं कादूण णामागोदवेदणीयाणमंतोमुहुत्तायामेण द्विदि परिसेसेदि त्ति एसो एदस्स अइक्कंतासेससुत्तपबंधस्स समुदायत्थो । संपहि लोगावरणकिरियाए समत्ताए समग्यादपज्जायमुक्संहरेमाणो केवली किमक्कमेण उवसंहरिय सत्थाणे णिवदइ, आहो अत्थि कोवि ओदरमाणस्स कमणियमो ति आसंकाए णिरायरणट्ठमोदरमाणयस्स किंचि परूवणं सुत्तसूचिदं कस्सामो।।
६३४७ तं जहा-लोगपूरणमुवसंहरेमाणो पुणो वि मंथं करेदि; मंथ-परिणामेण विणा तदुवसंहाराणुववत्तीदो। लोगपूरणोवसंहारणातरमेव समजोगपरिणामो णस्सियण पुव्वफद्दयाणि सव्वाणि समयाविरोहेण उग्पादिदाणि त्ति दट्ठन्वाणि । पुणो मंथमवसंहरेमाणो कवाडं पडिवज्जदि; कवाडपरिणामेण विणा तदुवसंहारणाणुववत्तीदो। तदो अणंतरसमये दंडसमुग्धादेण परिणमिय कवाडमुवसंहरइ; तस्स
६३४५ क्योंकि इन चार समुद्धातके समयोंमें अप्रशस्त कर्मोंका प्रतिसमय अपवर्तनाघात अनन्तर कहे गये अनुभागके वशसे स्पष्टरूपसे उपलब्ध होता है ।
* तथा एक समयवाला स्थितिकाण्डकघात होता है ।
$ ३४६ चारों ही समयोंमें प्रवृत्तमान स्थितिघात एक समयकेद्वारा ही सम्पन्न हो जाता है यह अनन्तर ही कह आये हैं। इसलिये आवर्जितकरणके अनन्तर इस प्रकारके केवलिसमुद्धातको करके नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मोंको अन्तमुहूतं आयामरूपसे स्थितिको शेष रखता है। इस प्रकार यह अतिक्रान्त समस्त सूत्रप्रबन्धका समुदायरूप अर्थ है। अब लोकपूरण क्रियाके समाप्त होनेपर समुद्धातपर्यायका उपसंहार करनेवाला केवली जिन क्या अक्रमसे उपसंहार करके स्वस्थानमें निपतित होता है या उतरनेवालेका कोई क्रमनियम है; ऐसी आशंकाके निराकरणकेलिये उतरनेवालेका सूत्रसे सूचित होनेवाला किंचित् प्ररूपण करेंगे
३४७ यथा-लोकपूरण-समुद्धातका उपसंहार करता हुआ फिर भी मन्थ-समुद्धातको करता है, क्योंकि मन्थरूप परिणामके बिना केवलिसमुदातका उपसंहार नहीं बन सकता। तथा लोकपूरणसमुद्धातका उपसंहार करनेके अनन्तर ही समयोग परिणामको नाश करके सभी पूर्व स्पर्धक समयके अविरोधपूर्वक उद्घाटित हो जाते हैं ऐसा जानना चाहिये । पुनः मन्थसमुद्धातका उपसंहार करता हुआ कपाट-समुद्घातको प्राप्त होता है, क्योंकि कपाट परिणामके बिना उसका उपसंहार करना नहीं बन सकता। तत्पश्चात् अनन्तर समयमें दण्डसमुदातरूपसे परिणमकर कपाटसमुद्धातका उपसंहार
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे पच्छिमखंध-अत्याहियार तदणंतरभावित्तणियमदंसणादो। तदो से काले सत्थाणकेवलिभावेण दंडमुवसंहरइ । ताधे मूलसरीरपमाणेणाणूणादिरित्तेण केवलिजीवपदेसाणमवट्ठाणणियमदंसणादो । एवमेदे ओदरमाणस्स तिण्णि समया, चउत्थसमयस्स सत्थाणंतब्भावित्तदंसणादो ।
३४८ अहवा तेण सह ओदरमाणस्स चत्तारि समया त्ति केसि पि वक्खाणकमो । तेसिमहिप्पाओ--जम्मि समये ठाइदण दंडमुवसहरइ सो वि समुग्धादंतब्माविओ चेवे त्ति तत्थ ओदरमाणयस्स पदरगदस्स पुव्वं व कम्मइयकायजोगो, कवाडगदस्स ओरालियमिस्सकायजोगो, डगदस्स ओरालियकायजोगो होदि त्ति घेत्तव्वं । एत्थुवउज्जतीओ अज्जाओ--
दंडंप्रथमे' समये कवाटमथ चोत्तरे तथा समये । मंथानमथ तृतीये लोकव्यापी चतुर्थे तु ॥ १ ॥ संहरति पंचमे त्वंतराणि मंथानमथ पुनः षष्ठे।
सप्तमके च कवाट संहरति ततोऽष्टमे दंडम् ।। २ ॥ तदो समुग्धादपरूवणा समत्ता भवदि ।
करता है, क्योंकि दण्डसमुद्धातका उसके अनन्तर ही होनेका नियम देखा जाता है । उसके बाद तदनन्तर समयमें स्वस्थानरूप केवलीपनेसे दण्डसमुद्धातका उपसंहार करता है। उस समय न्यूनता
और अतिरिक्ततासे रहित मूलशरोरके प्रमाणसे केवलो भगवान्के जीवप्रदेशोंके अवस्थानका नियम देखा जाता है । इस प्रकार केवलिसमुद्धातसे उतरनेवाले केवलो जिनके ये तीन समय होते हैं, क्योंकि चौथे समयमें स्वस्थानमें अन्तर्भाव देखा जाता है।
६३४८ अथवा चौथे समयके साथ केवलिसमुद्धातसे उतरनेवाले केवलीके चार समय लगते हैं, ऐसा किन्हीं आचार्यों के व्याख्यानका क्रम है। उनका अभिप्राय है कि जिस समयमें कपाटसमुद्धातमें ठहरकर दण्डसमुद्धातका उपसंहार करता है वह भी समुद्धातमें अन्तर्भूत हो करना चाहिये, इसलिये समुद्धातमें उतरनेवाले प्रतरगत केवली जिनके पहलेके समान कार्मणकाययोग होता है, कपाटसमुद्धातको प्राप्त केवलोके औदारिक-मिश्रकाययोग होता है, तथा दण्डसमुद्धात को प्राप्त केवलीके औदारिक काययोग होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। यहां पर उपयुक्त पड़नेवाली आर्या गाथाएँ हैं
केवली जिनके प्रथम समयमें दण्डसमुद्धात होता है, उत्तर अर्थात् दूसरे समयमें कपाटसमुद्धात होता है, तृतीय समयमें मन्थानसमुद्धात होता है और चौथे समयमें लोकव्यापी-समुद्धात होता है ॥ १॥
पांचवें समयमें लोकपूरण-समुद्धातका उपसंहार करता है, पुनः छठे समयमें मन्थानसमुद्धातका उपसंहार करता है सातवें समयमें कपाटसमुद्घातका उपसंहार करता है और आठवें समय में दण्डसमुद्धातका उपसंहार करता है ।। २ ।।
इसके बाद केवलिसमुद्धात प्ररूपणा समाप्त होती है । १. आ० प्रतौ दण्डप्रथमे इति पाठः।
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जोग निरोहकिरिया ]
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$ ३४९ संपहि ओदरमाणपढमसमयप्पडुडि ट्ठिदि-अणुभागघादाणं पवत्ती केरिसी होदि त्ति आसंकाए णिरागीकरणट्टमुवरिमं सुत्तमाह-
* एत्तो सेसिगाए द्विदीए संखेज्जे भागे हणइ ।
९ ३५० एत्तो ओदरमाणपढमसमयादो पहुडि सेसिगाए ट्ठिदीए अंतो मुहुत्तपमाणाए संखेज्जे भागे कंडयसरूवेण घेण द्विदिघादं णिव्वत्तेदि, तत्थ पयारतरासंभवादोत्ति वृत्तं होइ ।
* सेसस्स च श्रणुभागस्स अनंते भागे हणइ |
$ ३५१ पुवघादिदसेसाणुभागसंतकम्मस्स अनंते मागे कंडयसरूवेणागाएदूणाभादसो कुदिति भणिदं होदि ।
* एतो पाए ट्ठदिखंडयस्स अणुभागखंडयस्स च अंतोमुहुतिया उक्कीरणद्धा |
$ ३५२ लोग पूरणानंतर समय पहुडि समयं पडि विदि- अणुभागधादो णत्थि, किंतु अंतोमुहुत्तिओ चैव विदिअणुभागखंडय घादकालो पयहृदि चि एसो एत्थ
$ ३४९ अब उतरनेवाले केवली जिनके प्रथम समयसे लेकर स्थितिघात और अनुभागघातकी प्रवृत्ति कैसी होती है ? ऐसो आशंका होनेपर निशंक करनेकेलिये आगेके सूत्रको कहते हैं
* केवलिसमुद्धातसे उतरनेवालेके प्रथम समय से लेकर शेष रही स्थिति के संख्यात बहुभागका हनन करता है ।
§ ३५० एत्तो अर्थात् उतरमेवाले के प्रथम समयसे लेकर शेष रही अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थिति के संत बहुभागको काण्डकरूपसे ग्रहणकर स्थितिघात करता है, क्योंकि वहाँ अन्य प्रकार सम्भव नहीं है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
* तथा वहाँ शेष रहे अनुभाग के अनन्त बहुभागका हनन करता है ।
$ ३५१ पहले घात करनेसे शेष बचे अनुभागसत्कर्मके अनन्त बहुभागका काण्डकरूपसे एक समयद्वारा अनुभागघात यह जीव करता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
* इसके आगे स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्ड कका उत्कीरणकाल अन्तर्मुहूर्त - प्रमाण होता है ।
$ ३५२ लोकपूरणसमुद्धात के सम्पन्न होनेके अनन्तर समयसे लेकर प्रत्येक समय में स्थितिघात और अनुभागघात नहीं होता । किन्तु स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघातका काल अन्तमुहूर्तप्रमाण प्रवृत्त होता है । इस प्रकार यह यहाँ सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । इस प्रकार इतनी
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे (पच्छिमखंध-अत्थाहियार सुत्तत्थसब्भावो। एवमेत्तिएण विहागेण समुग्धादं उवसंहरिय सत्थाणे वट्टमाणस्स द्विदि-अणुभागकंडएसु संखेज्जसहस्समेत्तेसु समयाविरोहेण गदेसु' तदो जोगणिरोह कुणमाणो इमाणि किरियंतराणि णिव्वत्तेदि त्ति जाणावणट्ठमुवरिमं सुत्तपबंधमाढवेड ।
* एत्तो अंतोमुहत्तं गंतूण बादरकायजोगेष बादरमणजोगं णि भइ।
३५३ मण-वयण-कायचेट्ठाणिवत्तणट्ठो जीवपदेसपरिप्फंदो कम्मादाणणिबंधणसत्तिसरूवो जोगो त्ति भण्णदे । सो वुण तिविहो, मणजोगो वचिजोगो कायजोगो चेदि । एदेसिमत्थो सुगमो । तत्थेक्केको दुविहो, बादरो सुहुमो चेदि । जोगणिरोहकिरियादो हेट्ठा सव्वत्थ बादरजोगो होदि । एत्तो परं सुहुमजोगेण परिणमिय जोगणिरोहं कुणइ, बादरजोगेणेव पयट्टमाणस्स जीगणिरोहकरणाणववत्तीदो। तत्थ ताव पुन्चमेसो केवली जोगणिरोहणट्ठमीहमाणो बादरकायजोगावटुंभवलेण वादरमणजोगं णिरुभदि, बादरकायजोगेण वावरतो चेव एसो बादरमणजोगसत्ति णिरुभियूण सुहुमभावेण सण्णिपंचिंदियअपज्जत्तसन्चजहण्णमणजोगादो हेट्ठा असंखेज्जगुणहीणसरूवेण तं ठवेदि त्ति वुत्तं होइ ।
विधिसे केवलिसमद्धातका उपसंहार करके स्वस्थानमें विद्यमान केवली जिनके संख्यात हजार स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डकके समयके अविरोधपूर्वक हो जानेपर तदनन्तर योगनिरोध करता हुआ इन दूसरो क्रियाओंको रचता है, इसका ज्ञान करानेकेलिये आगेके सूत्रप्रबन्धको आरम्भ करते हैं
* आगे अन्तर्मुहूर्त जाकर बादर-काययोगकेद्वारा बादर-मनोयोगका निरोध करता है।
६ ३५३ मन, वचन और कायकी चेष्टा प्रवृत्त करनेकेलिये कर्मके ग्रहणके निमित्त शक्तिरूप जो जीवका प्रदेशपरिस्पन्द होता है वह योग कहा जाता है। परन्तु वह तीन प्रकारका हैमनोयोग, वचनयोग और काययोग। इनका अर्थ सुगम है, उनमेंसे एक-एक अर्थात् प्रत्येक दो प्रकारका है-बादर और सूक्ष्म । योगनिरोधक्रियाके सम्पन्न होनेके पहले सर्वत्र बादरयोग होता है। इससे आगे सक्ष्मयोगसे परिणमनकर योगनिरोध करता है. क्योंकि बादर योगसे ही प्रव केवली जिनके योगका निरोध करना नहीं बन सकता है। उसमें सर्वप्रथम यह केवली जिन योगनिरोधकेलिये चेष्टा करता हुआ बादरकाययोगके अवलम्बनके बलसे बादर मनोयोगका निरोध करता है, क्योंकि बादर काययोगरूपसे व्यापार (प्रवृत्ति ) करता हुआ ही यह केवली जिन बादर मनोयोगको शक्तिकानिरोध करके सूक्ष्मरूपसे संज्ञी पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तके सबसे जघन्य मनोयोगसे घटते हुए असंख्यात गुणहीनरूपसे उसे स्थापित करता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है ।
१. ता० प्रती आगदेसु इति पाठः । २. आ०.प्रती० जोगस्सत्ति इति पाठः ।
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जोगनिरोहकिरिया ]
१६३ ६ ३५४ एवमंतोमुहुत्तमेत्तकालं बादरकायजोगेण वट्टमाणो बादग्मणजोगसत्ति णिरुभियण तदो अंतोमुहुत्तेण तमेव बादरकायजोगमवट्ठभणं कादण बादरवचिजोगसत्तिं पि णिरुंभदि ति पदुप्पाएमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ-- ___* तदो अंतोमुहुत्तण बादरकायजोगेण बादरवचिजोगं णिरु भइ।
६३५५ एत्थ बादरवचिजोगो त्ति वृत्ते बीइंदियपज्जत्तस्स सव्वजहण्णवचिजोगप्पहुडिउवरिमजोगसत्तीए गहणं कायव्वं । तं रुभियण बीइदियपज्जत्तजहण्णवचिजागादो हेट्ठा असंखेज्जगुणहीणसरूवेण सुहुमभावेण ठवेदि त्ति एसो एदस्स सुत्तस्स मावत्यो।
___ * तदो अंतोमुटुत्तण बादरकायजोगेण बादरउस्सासणिस्सासं णि भइ।
६ ३५६ एत्थ वि बादरउस्सासणिस्सासो त्ति भणिदे सुहुमणिगोदणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स आणावाणपज्जत्तीए पज्जत्तयस्स सव्वजहण्णउस्सासणिस्साससत्तीदो असंखेज्जगुणसण्णिपंचिदियपाओग्गउस्सासणिस्सासपरिप्फंदस्स गहणं कायव्वं । तं णिरंभियण सव्वजहण्णसुहुमणिगोदउस्सासणिस्साससत्तीदो हेट्ठा असंखेज्जगुणहाणीए सुहुम
६३५४ इस प्रकार अन्तमुहूर्तप्रमाण कालतक बादर काययोगके रूपसे विद्यमान केवली जिन बादर मनोयोगकी शक्तिका निरोध करके तदनन्तर अन्तमुहूर्तप्रमाण कालकेद्वारा उसी बादर काययोगका अवलम्बन करके बादर वचनयोगको शक्तिका भी निरोध करता है ऐसा प्रतिपादन करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं
* उसके बाद अन्तर्मुहूर्त कालसे बादरकाययोगद्वारा बादर वचनयोगका निरोध करता है।
१३५५ यहाँपर बादर वचनयोग ऐसा कहनेपर द्वीन्द्रिय पर्याप्तके सबसे जघन्य वचनयोग आदि उपरिम योगशक्तिका ग्रहण करना चाहिये। उसका निरोध करके उसे द्वीन्द्रिय पर्याप्तके जघन्य वचनयोगसे नीचे असंख्यात गुणहीन सूक्ष्मरूपसे स्थापित करता है, इस प्रकार यह इस सूत्रका भावार्थ है।
* उसके बाद अन्तमुहर्तकालसे वादर काययोगद्वारा बादर उच्छवास-निःश्वास का निरोध करता है।
8 ३५६ यहाँपर भी बादर उच्छ्वास-निःश्वास ऐसा कहनेपर सूक्ष्म निगोद निवृत्तिपर्याप्त जीवके अनापानपर्याप्तिसे पर्याप्त हुए सबसे जघन्य उच्छ्वास-निःश्वासशक्तिसे असंख्यातगुणो संज्ञीपञ्चेन्द्रियके योग्य उच्छवास-निःश्वासरूप परिस्पन्दका ग्रहण करना चाहिये । उसका निरोधकर उसे सबसे जघन्य सूक्ष्मनिगोदकी उच्छ्वास-निःश्वासशक्तिसे नीचे असंख्यातगुणी हीन सूक्ष्मभावसे स्थापित करता है, इस प्रकार यह यहाँ सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पच्छिमखंध-अत्थाहियार भावेण ठवेदि ति एसो एत्थ सुत्तत्थसम्भावो। सुत्ते अणिहिट्ठो एवंविहो विसेसो कधमवगम्मइ त्ति णासंका एत्य कायव्वा ! वक्खाणादो तहाविहविसेसपडिवत्तीदो ।
* तदो अंतोमुहुत्तेग बावरकायजोगेण तमेव बादरकायजोगं णिरु भइ।
६ ३५७ एस्थ वि बादरकायजोगेण वावरंतो चेव अंतोमुहुत्तेण कालेण तमेव बादरकायजोगं सुहुमवियप्पे ठवेद्ग णिरु भइ त्ति सुत्तत्थसंबंधो, सुहुमणिगादजहण्णजोगादो वि असंखेज्जगुणहीणसत्तीए परिणमिय सुहुममावेण तस्स एदम्मि विसये पवृत्तिणियमदंसणादो । अत्रोपयोगिनौ श्लोको
पंचेन्द्रियोऽप्यसंज्ञी वः पर्याप्तो जपन्ययोगी स्यात् । णिरुणद्धि मनोयोगं ततोऽप्यसंख्यातगुणहीनम् ॥१॥ द्वीन्द्रियसाधारणयोर्वागुच्छ्वासावधो जयति तद्वत् । पनकस्य काययोग जघन्यपर्याप्तकस्याधः ॥२॥
इति ।
शंका-सूत्रमें निर्दिष्ट नहीं किया गया इस प्रकारका विशेष कैसे जाना जाता है ?
समाधान-इस प्रकारकी आशंका यहां नहीं करनी चाहिये, क्योंकि व्याख्यानसे उस प्रकारके विशेषका ज्ञान होता है।
* उसके बाद अन्तम हर्तकालसे बाहर काययोगकेद्वारा उसी बादर काययोगका निरोध करता है।
६ ३५७ यहाँपर भी बादर काययोगसे व्यापार करता हुआ ही अन्तमुहूर्त कालद्वारा उसो बादरकाययोगको सूक्ष्मभेदमें स्थापितकर निरोध करता है; यह सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है, क्योंकि सूक्ष्म निगोदके जघन्य योगसे भी असंख्यातगुणी होन शक्तिरूपसे परिणमकर सूक्ष्मरूपसे उसकी इस स्थानमें प्रवृत्तिका नियम देखा जाता है । यहाँपर उपयोगी दो श्लोक हैं
जो असंज्ञो पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीव जघन्य योगसे युक्त होता है उससे भी असंख्यातगुणे होन मनोयोगका केवली जिन निरोध करता है ॥१॥
द्वीन्द्रिय जीव और साधारण क्रमसे वचनयोग और उच्छवासको जिस प्रकार धारण करते हैं उनके समान उनसे भी कम दोनों योगोंको केवलो भगवान् जीतते हैं ? जघन्य पर्याप्तक जिसप्रकार काययोगको धारण करते हैं उससे भी कम काययोगको केवली भगवान् जीतते हैं ॥२॥
१. आ० प्रती भागेण इति पाठः ।
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जोगनिरोहकिरिया
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९ ३५८ एवं जहाकमं बादरमणजोग - बादरवचिनोग- बादर उस्मासणिस्सास- बादरकायजोगसत्तीओ णिरुभियण सुहुमपरिष्कंदसत्तीओ एदेसिमवत्तसरूवेण परिसेसिय पुणो सुहुमका जोगवावारेण सुहुमसत्तीओ वि तेसिमेदीए परिवाडीए णिरुभदि जाणावणमुरिमं सुत्तपबंधमाह -
* तदो अंनोमुहुत्तं गंतूण सुहुमकायजोगेण सुहममणजोगं णिरु भइ । ९ ३५९ एत्थ सुहुममणजोगा ति मणिदे सणिपंचिदिय पज्जत्तयस्स सव्वजहण्णमणजोग परिणामादो असंखंज्जगुणहीणस्स अवत्तव्वसरूवस्स दव्वमणोणिबंधणजीवपदेसपरिष्कंदस्स गहणं कायव्वं । तं जिरुभदि विणासेदिति वृत्तं हाइ
* तदो अंतोमुहुत्तेण सुहुमकायजोगेण सुहुमबचिजोगं णिरु भइ । $ ३६० एत्थ वि सुहुमवचिजोगो त्ति भणिदे बीइ दियपज्जत्तयस्स सव्वजहण्णवचिजोगसत्तीदा हेट्ट्ठा असंखेज्जगुणहीणसरूवो गहेयव्वो । सुगममण्णं ।
* तदो अंतोमुहुत्तण सुहुमकायजोगेण सुहुमउस्सासं णिरु भइ ।
३५८ इस प्रकार यथाक्रम बादर मनोयोग, बादर वचनयोग, बादर उच्छ्वास- निःश्वास और बादर काययोगकी शक्तियोंका निरोध करके इन योगोंको सूक्ष्मपरिस्पन्दरूप शक्तियोंको शेष करके पुनः सूक्ष्म काययोगके व्यापारद्वारा सूक्ष्म शक्तियों को भी उनका इस परिपाटी के अनुसार निरोध करते हैं, इस बातका ज्ञान करानेकेलिये आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* उसके बाद अन्तर्मुहूर्त जाकर सूक्ष्म काययोगकेद्वारा सूक्ष्म मनोयोगका निरोध करता है ।
३५९ यहाँपर सूक्ष्मयोग ऐसा कहनेपर संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त के सबसे जघन्य मनोयोग परिणामसे असंख्यातगुणा हीन अवक्तव्त्रस्वरूप द्रव्य मननिमित्तक जीवप्रदेश परिस्पन्दका ग्रहण करना चाहिये । उसका निरोध करता है-नाश करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
* उसके बाद अन्तर्मुहूर्त कालसे सूक्ष्म काययोगकेद्वारा सूक्ष्म वचनयोगका निरोध करता है ।
§ ३६० यहाँपर भो सूक्ष्म वचनयोग ऐसा कहनेपर द्वीन्द्रियपर्याप्तक के सबसे जघन्य वचन योगशक्ति से नीचे असंख्यातगुणो होनरूप वचनशक्ति ग्रहण करनी चाहिये । अन्य शेष कथन सुगम है ।
* उसके बाद अन्तर्मुहूर्त कालसे सूक्ष्मकाययोगकेद्वारा सूक्ष्म उच्छ्वासका निरोध करता है ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पच्छिमखंध -अत्याहियार
$ ३६१ एत्थ वि उस्सासमत्तीए सुहुमभावो सुहुमणिगोदपज्जत्तयस्स सव्वजहण्णं । तप्परिणामादो हेट्ठा असंखेज्जगुणहाणीए दट्ठव्वो । एवमेसो जोगणिरोह केवलिसुहुमकायजोगेण वावरंतो मण वयण - उस्सासणिस्सासाणं सुहुमसत्तीओ वि जहाउत्तेण कमेण णिरुभियूण पुणो हुमकायजोगं पि णिरुभमाणो इमाणि करणाणि जोगणिरोहणिबंधणाणि करोदिति पदुपायणमुवरिमो सुत्तपबंधो
१६६
* तदो अंतोतंतूण सुहुमकायजोगेण सुहुमकायजोगं णिरुभमाणो इमाणिकरणाणि करेदि ।
$ ३६२ ततोऽन्तर्मुहूर्तं गत्वा सूक्ष्मकाययोगावष्टमेन तमेव सूक्ष्मकाययोगं निरोद्धुकामः तत्र तावदिमानि करणान्यनन्तर - निर्देश्यमाणान्यबुद्धिपूर्वमेव प्रवर्तयतीत्युक्तं भवति । कानि पुनस्तानि करणानीत्याशंकायामाह -
* पढमसमये अपव्वफद्दयाणि करेदि पुव्वफद्दयाणं हेट्ठदो ।
९ ३६३ एत्तोपुव्वावस्थाए पुहुमकायपरिष्कंदसत्ती सुहुमणिगोदजहण्णजोगादो असंखेज्जगुणहाणीए परिणमिय पुव्वफद्दयसरूवा चेव होदूण पयट्टमाणा एण्डिं तत्तो वि सुट्टु ओवट्ठेयूण अपुव्वफद्दयायारेण परिणामिज्जदिति । एदिस्से किरियाए अन्व
8 ३६१ यहां भी उच्छ्वास शक्तिका सूक्ष्मपना सूक्ष्म निगोद पर्याप्तक जीवके सबसे जघन्य होता है । उसरूप परिणामसे नीचे इस सयोगि केवलीकी उच्छ्वासशक्ति असंख्यातगुणी हीनरूपसे जाननी चाहिये । इस प्रकार यह योगनिरोध करनेवाला केवली जिन सूक्ष्म काययोगकेद्वारा परिस्पन्दात्मक क्रिया करते हुए मन, वचन और उच्छ्वास - निःश्वासकी सूक्ष्म शक्तियों का भी यथोक्तक्रमसे निरोध करके पुनः सूक्ष्मकाययोगका भी निरोध करते हुए योगनिरोधनिमित्तक इन करणोंको करता है, इस बातका ज्ञान करानेकेलिये अगला सूत्रप्रबन्ध आया है
* उसके बाद अन्तर्मुहूर्तकाल जाकर सूक्ष्मकाययोगकेद्वारा सूक्ष्मकाययोगका निरोध करता हुआ इन करणोंको करता है ।
§ ३६२ उसके बाद अन्तर्मुहूर्तं काल जाकर सूक्ष्म काययोगके बलसे उसी सूक्ष्म काययोगका निरोध करता हुआ वहाँ सर्वप्रथम अनन्तर कहे जानेवाले इन करणोंको अबुद्धिपूर्वक ही प्रवृत्त करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । परन्तु वे करण कौन हैं ऐसी आशंका होनेपर कहते हैं* प्रथम समय में पूर्व स्पर्धकों को नीचे करके अपूर्व स्पर्धकों को करता है
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९ ३६३ पूर्व स्पर्धकोंसे नीचे इससे पूर्व अवस्था में सूक्ष्म काययोगकी परिस्पन्दरूप शक्तिको सूक्ष्म निगोदके जघन्य योगसे असंख्यातगुणी हानिरूपसे परिणमाकर पूर्व स्पर्धकस्वरूप ही होकर प्रवृत्त होती हुई इस समय उससे भी अच्छी तरह अपवर्तना करके अपूर्वं स्पर्धक रूपसे परिणमाता है। इस क्रियाकी अपूर्व - स्पर्धककरण संज्ञा है । अब इस करणकी प्ररूपणा करनेकेलिये यहाँपर
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जोगनिरोहकिरिया ]
१६७ फद्दयकरणसण्णा । संपहि एदस्स करणस्स परूवणट्ठमेत्थ ताव पुव्वफद्दयाणं सेढीए असंखेज्जदिभागमेत्तं रचणा कायव्वा । एव कदे सुहुमणिगोदजहण्णट्ठाणपडिबद्धफद्दएहिंतो एदाणि फद्दवाणि असंखेज्जगुणहीणाणि होदूण चिटुंति, अण्णहा तत्तो एदस्स सुहुमभावाण ववत्तीदो। एवं दृविदाणमेदेसि पुयफद्दयाणं हेढदो असंखेज्जगुणहाणीए ओहद्देदूण अपुव्वफद्दयाणि णिवत्तेमाणस्स परूवणापबंधमुवरिमसुत्ताणुसारेण बत्तइस्सामो
* आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदा मसंखेज्जदिभागमोकडदि ।
$ ३६४ पुवफद्दएहितो जीवपदेसे ओकड्डियूण अपुव्वफद्दयाणि णिव्वत्तेमाणो पुत्रफद्दयाणमादिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदाणमसंखेज्जदिभागसरूवेणोकट्टदि त्ति सुत्तत्थसंबंधो । पुव्वफद्दयादिवग्गणाविभागपडिच्छेदेहितो असंखेज्जगुणहीणाविभागपडिच्छेदसरूवेण जीवपदेसे ओकड्डियण अपुव्वफद्दयाणि णिव्वत्तेदि त्ति वुत्तं होदि, अपुवफद्दयचरिमवग्गणाविभागपडिच्छेदाणं पि पुव्वफद्दयादिवग्गणादो असंखेज्जगुणहाणि-णियमदंसणादो । एत्थ हाणिभागहारो पलिदोवमस्स असंखेजदिमागमेत्तो ।
* जीवपदेसाणं च असंखेजविभागमोकड्डदि।
सर्वप्रथम पूर्व स्पर्धकोंकी जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण रचना करनी चाहिये । ऐसा करनेपर सूक्ष्म निगोद जोवके जघन्य स्थानसे सम्बन्ध रखनेवाले स्पर्धकोंसे ये स्पर्धक असंख्यातगुणे होन होकर अवस्थित हैं, अन्यथा उससे ( सूक्ष्मनिगोदजीवके जघन्य स्थानसम्बन्धी स्पर्धकोंसे ) इसका (सयोगिकेवलीके अपूर्व-स्पर्धकोंका) सूक्ष्मपना नहीं बन सकता। इस प्रकार स्थापित इन पूर्वस्पर्धकोंके नीचे असंख्यातगुणहानिरूप अपकर्षितकर अपूर्व स्पर्धकोंकी रचना करते हुए योगनिरोधकरनेवाले इस सयोगिकेवली जिनके प्ररूपणाप्रबन्धको अगले सूत्रके अनुसार बतलावेंगे
- * [योगनिरोध करनेवाला यह सयोगिकेवली जीव] पूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करता है।
६३६४ पूर्वस्पर्धकोंसे जीव-प्रदेशोंका अपकर्षण करके अपूर्व स्पर्धकोंकी रचना करता हुआ पूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणाके अविभाग प्रतिच्छेदोंका असंख्यातवें भाग रूपसे अपकर्षण करता है । इस प्रकार इस सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है। पूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंसे असंख्यातगुणे हीन अविभागप्रतिच्छेदरूपसे जीवप्रदेशोंका अपकर्षण करके अपूर्व स्पर्धकोंको रचना करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि अपूर्व स्पर्धकोंकी अन्तिम वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंमें पूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणासे असंख्यात गणहानिका नियम देखा जाता है। यहाँपर असंख्यात गुणहानिका भागहार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है
* और वह जीव जीवप्रदेशोंके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करता है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पच्छिमखंध-अत्याहियार ६३६५पुव्वफद्दयसव्ववग्गणाहिंतोजीवपदेसाणमसंखेज्जदिमागमोकणामागहारपडिभागेणोकट्टियण पुन्वत्ताविभागपलिच्छेदसत्तीए परिणामिय ताणि अपुव्वफद्दयाणि णिवत्तेदि त्ति भणिदं होदि । एवं च ओकडिदाणं जीवपदेसाणमपुव्वफद्दयेसु णिसेगविण्णासक्कमो वच्चदे; तं जहा-पढमसमये जीवपदेसाणमसखेज्जदिभागमोकड्डियूण अपुव्वफयाणामादिवग्गणाए जीवपदेसबहुगे णिसिंचदि, सवजहण्णसत्तीए परिणमंताणं बहुत्तसंभवे विरोहाभावादो । बिदियाए वग्गणाए जीवपदेसे विसेसहीणे णिसिंचदि सेढीए असंखेज्जभागपडिभागेण एव णिसिंचमाणो गच्छइ जाव अपुन्वफद्दयाणं चरिमवग्गणा त्ति । पुणो अपुव्वफद्दयचरिमवग्गणादो पुत्रफद्दयाणमादिवग्गणाए असंखेज्जगुणहीणे'लीलपदेसे णिचिदि। एत्थ हाणिगुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागो होतो वि सादिरेओ ओकड़डुक्कड्डणमागहारपमाणो त्ति दट्ठन्वो । एदस्स कारणगवेसणा सुगमा। तत्तो उवरि समयाविरोहेण विसेसहाणी--जीवपदेसविण्णासकमो अणुगंतव्यो । एवमेसा अपुव्वफयकारगपढमसमये परूवणा। एवं बिदियादिसमयेसु वि जाव अतोमुहुत्तं ताव अपुवफद्दयाणि सम्याविरोहेण णिवत्तेदि त्ति इममत्थं फुडीकरेमाणों मुत्तमत्त भणइ--
* एवमंतोमुहुत्तमपुव्वफद्दयाणि करेदि ।
६ ३६५ पूर्व स्पर्धककी सब वर्गणाओंसे जीवप्रदेशोंके असंख्यातवेंका अपकर्षण भागहाररूप प्रतिभागसे अपकर्षण करके पूर्वोक्त अविभागप्रतिच्छेदशक्तिरूपसे परिणमाकर उन अपूर्व स्पर्धकों की रचना करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। और इस प्रकार अपकर्षित किये गये जीवप्रदेशों का अपूर्व स्पर्धकोंमें निषेक-विन्यासका क्रम कहते हैं । यथा-प्रथम समयमें जीवप्रदेशोंके अख्यातवें भागका अपकर्षण करके अपूर्वस्पर्धकोंकी आदि वर्गणामें जीवप्रदेशोंके बहुभागका सिंचन करता है, क्योंकि सबसे जघन्य शक्तिमें परिणमन करनेवाले जीवदेशोंके बहुत सम्भव होनेमें विरोधका अभाव है। दूसरी वर्गणामें विशेषहीन जीवप्रदेशोंको जगश्रेणिके असंख्यातवें भागरूप प्रतिभागके अनुसार सिंचित करता है। इस प्रकार सिंचन करता हुआ अपूर्व स्पर्धकोंकी अन्तिम वर्गणाके प्राप्त होने तक जाता है। पनः अपर्व स्पर्धककी अन्तिम वर्गणासे पूर्व स्पर्धकों की आदि वर्गणामें असंख्यातगणहीन जीवप्रदेशोंको सिंचित करता है। यहाँपर हानिका गणकार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होता हुआ भी साधिक अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारप्रमाण होता है, ऐसा जानना चाहिये । इसके कारणको गवेषणा सुगम है। उससे आगे समयके अविरोधपूर्वक विशेष हानिरूप जीवप्रदेशोंके विन्यासक्रमको जानना चाहिये । इस प्रकार यह प्ररूपणा अपूर्व स्पर्धकोंको करनेवालेके प्रथम समयमें होती है। इसी प्रकार द्वितीय आदि समयोंमें भी अन्तमुहूर्त कालतक अपूर्व स्पर्धकोंको समयके अविरोधपूर्वक रचना करता है। इस प्रकार इस अथको स्पष्ट करते हुये आगेके सूत्रको कहते हैं
* इस प्रकार अन्तमुहूर्त कालतक अपूर्व स्पर्धकोंको करता है।
१. प्रेसकापीप्रती-होणो इति पाठः।
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अपुव्वफद्दयकरणं ]
६३६६ सुगमं । ताणि च पडिसमयमसंखेज्जगुणहीणकमेण णिव्वत्तेदि त्ति जाणावणमिदमाह
* असंखेजगुणहीणाए सेढीए जीवपदेसाणं च असंखेजगुणाए सेढीए ।
३६७ ए दस्म भावत्थो--पढमसमये णिव्वत्तिद-अपुवफद्दए हितो असंखेज्जगुणहीणाणि अपुव्वफद्दयाणि बिदियसमए तत्तो हेट्ठा णिवत्तेदि । पुणो बिदियसमये णिवत्तिद-अपुव्वफद्दए हितो असंखेज्जगुणहोणाणि अण्णाणि अपुवाणि तत्तो हेट्ठा तदियसमये णिवत्तेदि । एवमसंखेज्जगुणहीणाए सेढीए णेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तचरिमसमयो त्ति । जीवपदेसाणं पुण असंखेज्जगुणाए सेढीए ओकडणा पयदि पढमसमयोकड्डिदपदेसेहितो विदियसमए ओकड्डिज्जमाणजीवपदेसाणमसंखेज्जगुणपमाणेण पवत्तिदसणादो । एवं तदियादिसमएसु वि असंखेज्जगुणाए सेढीए जीवपदेसाणमोकहुणा अणुगंतव्वा त्ति ।
६३६८ संपहि बिदियादिसमएसु वि ओकड्डिदजीवपदेसाणं णिसेगसेढिपरूवणा एवमणुगंतव्वा । तं जहा--पढमसमयमोकद्धिदजीवपदेसेहिंतो असंखेज्जगुणे जीवपदेसे एण्हिमोकट्टियण बिदियसमये णिव्वत्तिज्जमाणाणमपुवफद्दयाणमादिवग्गणाए बहुए जीवपदेसे णिक्खिवदि । तत्तो विसेसहीणं जाव अपुव्वाणं चरिमवग्गणादो त्ति । पुणो
६ ३६६ यह सूत्र सुगम है। परन्तु उन स्पर्धकोंको प्रत्येक समयमें असंख्यातगुणहीनक्रमसे रचता है । इस बातका ज्ञान करानेकेलिये इस सूत्रको कहते हैं
* उन अपूर्व स्पर्धकोंकी असंख्यातगुणहीनश्रेणीरूपसे और जीवप्रदेशोंकी असंख्यातगुणीश्रेणिरूपसे रचना करता है।
६३६७ इस सूत्रका भावार्थ-प्रथम समयमें रचे गये अपूर्व स्पर्धकोंसे असंख्यातगुणे हीन अपूर्व स्पर्धक दूसरे समय में उनसे नीचे रचता है । पुनः दूसरे समयमें रचे गये अपूर्व स्पर्धकोंसे असंख्यातगुणे हीन अन्य अपूर्व स्पर्धकोंको उनसे नोचे तोसरे समयमें रचता है । इस प्रकार असंख्यातगुणहीन श्रेणिरूपसे अन्तमुहूर्तकालके अन्तिम समय तक जानना चाहिये । परन्तु जीवप्रदेशोंकी असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे अपकर्षणा प्रवृत्त होती है, क्योंकि प्रथम समयमें अपकर्षित किये गये प्रदेशोंसे दूसरे समयमें अपकर्षित किये जानेवाले प्रदेशोंकी असंख्यातगुणहीन प्रमाणसे प्रवृत्ति देखी जाती है। इसी प्रकार तीसरे आदि समयोंमें भी असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे जीवप्रदेशों की अपकर्षणा जाननी चाहिये।
३६ अब द्वितीयादि समयोंमें भी अपकर्षित किये गये जोवप्रदेशोंको निषेकसम्बन्धी श्रेणिप्ररूपणा इस प्रकार जाननी चाहिये । यथा-प्रथम समय में अपकर्षित किये गये जोवप्रदेशोंसे असंख्यातगणे जीवप्रदेशोंको इस समय अपकर्षित करके दूसरे समयमें रचे जानेवाले अपूर्व स्पर्धकोंको आदि वर्गणामें बहुत जीवप्रदेशोंको रचता है। उसके आगे अपूर्व स्पर्धकोंकी अन्तिम वर्गणाके प्राप्त होने तक विशेषहीन-विशेषहीन रचता है । पुनः प्रथम समयमें रचे गये अपूर्व
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पच्छिमाखंध-अत्थाहियार पढमसमयणिवत्ति दाणमपुवफयाणं जं जहण्णफद्दयं तदादिवग्गणाए असंखेज्जगुणहीणे णिक्खिवदि। तत्तो उवरि सव्वत्थ विसेसहीणं । एवं तदियादिसमयेसु वि ओकडिडज्जमाणजीवपदेसाणमेसेव णिसेगपरूवणा एदीए दिसाए णेदव्वा । संपहि एदेण सव्वेण वि काले णिव्वत्तिदाणमपुव्वफद्दयाणं पमाणमेत्तियमिदि पदुप्पाएमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
* अपुष्वफद्दयाणि सेढीए असंखेजदिभागो । ६ ३६९ सुगममेदं । * सेढिवग्गमलस्स वि असंखेज्जदिभागो ।
$ ३७० किं कारणं ! एत्तो असंखेज्जगुणं पुव्वफहयाणं पि सेढिपढमवग्गमूलस्सासंखेज्जदिभागएमाणत्तविणिण्णयादो। संपहि पुचफद्दयाणं पि असंखेज्जदिभागमेत्तमेदेसि जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
* पुवफहयाणं पि असंखेजदिभागो सव्वाणि अपुव्वफद्दयाणि ।
$ ३७१ गयत्थमेदं सुत्तं । णवरि पुव्वफद्दयेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तगुणहाणीसु संभवंतीसु तत्थेयगुणहाणिट्ठाणंतरफदएहितो वि एदेसिमसंखेज्जगुणहीण
स्पर्धकोंमें जो जघन्य स्पर्धक है उसकी आदिवर्गणामें असंख्यातगुणहीन जीवप्रदेशोंको निक्षिप्त करता है। उससे आगे सर्वत्र विशेषहीन जीवप्रदेश निक्षिप्त करता है। इसी प्रकार तृतीयादि समयोंमें भी अपकर्षित किये जानेवाले जीवप्रदेशोंकी यही निषेकप्ररूपणा इसी रूपसे जाननी चाहिये । अब इस सब कालकेद्वारा रचे गये अपूर्व स्पर्धकोंका प्रमाण इतना होता है इस बातका कथन करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं
* ये सब अपर्व स्पर्धक जगश्रेणिके असंख्यातवें मागप्रमाण हैं । ६ ३६९ यह सूत्र सुगम है। * वे सब अपूर्व स्पर्धक जगश्रेणिके वर्गमूलके भी असंख्यातवें भागप्रमाण हैं।
६ ३७० क्योंकि इनसे असंख्यातगुणे पूर्वस्पर्धकोंके भी जगश्रेणिके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाणपनेका निर्णय होता है । अब ये अपूर्व स्पर्धक पूर्व स्पर्धकोंके भी असंख्यातवें भागप्रमाण हैं इस बातका ज्ञान करानेवाले आगेके सूत्रको कहते हैं
* ये सम्पूर्ण अपूर्वस्पर्धक पूर्वस्पर्धकोंके भी असंख्यातवें भागप्रमाण हैं ।
६३७१ यह सूत्र गतार्थ है। इतनी विशेषता है कि पूर्व स्पर्धकोंमें पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणहानियाँ सम्भव हैं। उनमें एक गुणहानिस्थानमें जितने स्पर्धक हैं उनसे भी ये अपूर्वस्पर्धक असंख्यातगुणहीन प्रमाण जानने चाहिये ।
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अपुन्वफद्दयकरणं ] पमाणत्तमणुगंतव्वं । सुत्तणिद्देसेण विणा कधमेदं परिच्छिज्जदि ति णासंकणिज्ज सुत्ताविरुद्धपरमगुरुसंपदायबलेण तहाविहत्थ सिद्धीए विरोहाभावादो, व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिरिति न्यायाच्च । एवमेदीए परूवणाए अंतोमुहुत्तमेत्तकालमपुव्वफद्दयकरणद्धमणुपालेमाणस्स तदद्धाचरिमसमए अपुवफद्दयकिरिया समप्पइ । णवरि अपुव्वफद्दयाणं किरियाए णिट्ठिदाए वि पुवफद्दयाणि सव्वाणि तहा चेव चिट्ठति, तेसिमज्ज वि विणासाभावादो। एत्थ सव्वत्थ हिदि-अणुभागखंडयाणं गुणसेढीणिज्जराए च परूवणा पुवुत्तेणेव कमेणाणमग्गियव्वा जाव सजोगिकेवलिचरिमसमयो ति ताव तेसिं पवुत्तीए पडिबधाभावादो। तदो अपुव्वफद्दयकरणं समत्तं । एवमंतोमुहुत्तमपुव्वफद्दयकरणद्धमणपालिय तदो परमंतोमुहुत्तकालं पुवापुवफदयाणि ओकड्डियण जोगकिट्टीओ णिवत्तेमाणस्स परूवणापबंधमुत्तरसुत्ताणुसारेण वत्तहस्सामो ।
* एत्तो अंतोमुहुत्तं किटीओ करेदि ।
$ ३७२ पूर्वापूर्वस्पर्द्धकस्वरूपेणेष्टकापंक्तिसंस्थानसंस्थितं योगमुपसंहृत्य सूक्ष्मसूक्ष्माणि खंडानि निर्वर्तयति, ताओ किट्टीओ णाम वुच्चंति । अविभागपडिच्छेदुत्तर
शंका--सूत्रमें ऐसा कथन तो नहीं किया गया है । इसके बिना यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान--यह आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सूत्रके अविरुद्ध परम गुरुके सम्प्रदायके बलसे उस प्रकारसे अर्थको सिद्धिमें विरोधका अभाव है और व्याख्यानसे विशेषका ज्ञान होता है ऐसा न्याय है।
इस प्रकार इस प्ररूपणाके अनुसार अन्तमुहूर्तप्रमाण काल तक अपूर्व स्पर्धकोंको करनेके कालका पालन करनेवाले जीवके उस कालके अन्तिम समयमें अपूर्व स्पर्धकक्रिया समाप्त होती है। इतनी विशेषता है कि अपूर्व स्पर्धकोंकी क्रियाके समाप्त होनेपर भी पूर्वस्पर्धक सबके सब उसीप्रकार अवस्थित रहते हैं, क्योंकि उनका अभी भी विनाश नहीं हुआ है। यहाँ सर्वत्र स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डकोंका तथा गुणश्रेणिनिर्जराको कथन पहले कहे गये क्रमसे ही जानना चाहिये, क्योंकि संयोगिकेवलीके अन्तिम समय तक उन तीनोंकी प्रवृत्ति होनेमें प्रतिबन्धका अभाव है। इसके बाद अपूर्व स्पर्धककरणविधि समाप्त हुई। इसप्रकार अन्तर्मुहूर्त काल तक अपूर्व स्पर्धककरणके कालका पालनकर उसके बाद अन्तमहर्त काल तक पूर्वस्पर्धक और अपूर्व स्पर्धकोंका अपकर्षण करके योगसम्बन्धी कृष्टियोंकी रचना करनेवाले सयोगिकेवली जिनके आगेके प्ररूपणाप्रबन्धके अनुसार बतलावेंगे
* इसके बाद अन्तर्मुहूर्त काल तक कृष्टियोंको करता है।
६३७२ पूर्व और अपूर्वस्पर्धकरूपसे ईटोंकी पंक्तिके आकारसे स्थित योगका उपसंहार करके सूक्ष्म-सूक्ष्म खण्डोंकी रचना करता है, उन्हें कृष्टियां कहते हैं । अविभागप्रतिच्छेदोंके आगे क्रमवृद्धि
१. प्रेसकापीप्रती-फयाणि इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पच्छिमखंध-अत्थाहियार कमवडिहाणीणमभावेण फद्दयलक्खणादो किट्टीलक्खणस्स विलक्खणभावो एत्थ दहव्वो, असंखेज्जगुणवडिहाणीहि चेव किट्टीगदजीवपदेसेसु जोगसत्तीए समवट्ठाणदंसणादो । एवं लक्खणाओ किट्टीओ एसो जोगणिरोहकेवली अंतोमुहुत्तकालं करेदि त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसमुच्चओ । संपहि एदस्सेव किट्टीलक्खणस्स फुडीकरणट्ठमुवरिमसुत्तावयारो--
* अपुव्वफद्दयाणमादिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदाणमसंखेज्जदिभागमोकड्डिज्जदि।
___६ ३७३ पुव्वुत्ताणमपुव्व फद्दयाणं जा आदिवग्गणा सव्वमंदसत्तिसमण्णिदा तिस्से असखेज्जदिभागमोकड्डदि। तत्तो असंखेज्जे-गुणहीणाविभागपडिच्छेदसरूवेण जोगसत्तिमोवट्टेयण तदसंखेज्जदिमागे ठवेदि त्ति वृत्तं होइ । एत्थ किट्टीफद्दयाणं संधिगुणगारो अविभागपडिच्छेदावेक्खाए पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो । एवमविभाग पडिच्छेदे असंखेज्जगुणहाणीए ओवयण किट्टीओ करेमाणो पढमसमये केत्तियमेत्तेजीवपदेसे किट्टीसरूवेणोकड्डदि त्ति आसंकाए गिरारेगीकरणद्वमुत्तरसुत्तारंभो
* जीवपदेसाणमसंखेनदिमागमोकड्डादि ।
और हानियोंका अभाव होनेके कारण स्पर्द्धकके लक्षणसे कृष्टिके लक्षणकी यहां विलक्षणता जाननी चाहिये, क्योंकि असंख्यातगुणी वृद्धि और हानिकेद्वारा ही कृष्टिगत जीवप्रदेशोंमें योगशक्तिका अवस्थान देखा जाता है। इस प्रकारको लक्षणवाली कृष्टियोंको यह योगका निरोध करनेवाला केवली अन्तमुहूर्त काल तक करता है । इसप्रकार यहाँपर यह सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । अब कृष्टियों के इसी लक्षणको स्पष्ट करनेकेलिए आगेके सूत्रका अवतार हुआ है____ * अपूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणाके अविभाग प्रतिच्छेदोंके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करता है।
३७३ पूर्वोक्त अपूर्व स्पर्धकोंकी सबसे मन्द शक्तिसे युक्त जो आदि वर्गणा है उसके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करता है। उससे असंख्यात गुणहीन अविभागप्रतिच्छेदरूपसे योगशक्तिका अपकर्षण करके उसके असंख्यातवें भागमें स्थापित करता है। यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहाँपर कृष्टियों और स्पर्धकोंके सन्धिसम्बन्धी गुणकार अविभाग प्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा पल्योपमके असंख्यतवें भागप्रमाण है। इस प्रकार अविभागप्रतिच्छेदोंका असंख्यात गुणहानिके द्वारा अपवतन करके कृष्टियोंको करता हुआ प्रथम समयमें कितने जीवप्रदेशोंको कृष्टिरूपसे अपकर्षित करता है ऐसी आशंका होनेपर निःशंक करनेकेलिये आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं
* जीवप्रदेशोंके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करता है।
१. ता० प्रती असंखेज्जदि इति पाठः ।
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किट्टोकरणं ]
१७३ ६ ३७४ पुवापुव्वफद्दएस समवद्विदाणं लोगमेत्तजीवपदेसाणं असंखेज्जदि भागमेत्तजीवपदेसे किट्टीकरणमोकड्डदि त्ति वुत्तं होदि। एत्थ पडिभागो ओकड्डुकड्डणभागहारो । एवमोकड्डिदजीवपदेसे किट्टीसु कदमेण विण्णासविसेसेण णिक्खिवदि ति चे वुच्चदे--पढमसमयकिट्टीकारगो पुवफदएहितो अपुव्वफद्दएहितो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपडिभागेण जीवपदेसे ओकड्डियण पढमकिट्टीए बहुए जीवपदेसे णिक्खिवदि । बिदियाए किट्टीए विसेसहीणे णिसिंचदि । को एत्थ पडिभागो १ सेढीए असंखेज्जदिभागमेत्तो णिसेगमागहारो।
६३७५ एवं णिक्खिमाणो गच्छदि जाव चरिमकिट्टि त्ति । पुणो चरिमकिट्टीदो अपुव्वफद्दयादिवग्गणाए असंखेज्जगुणहीणं णिसिंचिदूण तत्तो विसेसहाणीए णिसिंचदि त्ति णेदव्वं । पुणो बिदियसमए पढमसमयोकड्डिदजीवपदेसेहितो असंखेज्जगुणे जीवपदेसे ओकड्डियण पढमाए तक्कालणिन्वत्तिज्जमाणीए अपुवकिट्टीए बहुगे जीवपदेसे णिसिंचदि । विदियाए विसेसहीणे असंखेज्जदिभागेण । एवं णिक्खिवमाणो गच्छदि जाव बिदियसमए कीरमाणीणमपुवकिट्टीणं चरिमकिट्टि त्ति । पुणो चरिमादो बिदियसमयपुवकिट्टीदो पढमसमये णिव्वत्तिदाणमपुवकिट्टीणं जा जहणिया किट्टी तिस्से
8 ३७४ पूर्व और अपूर्व स्पर्धकोंमें अवस्थित लोकप्रमाण जीवप्रदेशोंके असंख्यातवें भागप्रमाण जीवप्रदेशोंका कृष्टि करनेकेलिये अपकर्षित करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यहाँ प्रतिभाग अपकर्षण-उत्कर्षण भागहाररूप है ।
शंका-इसप्रकार अपकर्षित किये गये जीवप्रदेशोंका कृष्टियोंमें किस रचना विशेषरूपसे निक्षिप्त करता है ?
समाधान-कहते हैं-प्रथम समयमें कृष्टियोंको करनेवाला योगनिरोध करनेवाला जीव पूर्व स्पर्धकोंमेंसे और अपूर्व स्पर्धकोंमें से पल्योपमके असंख्यातवें भागरूप प्रतिभागसे जीवप्रदेशोंको अपकर्षितकर प्रथम कृष्टिमें बहुत जीवप्रदेशोंको निक्षिप्त करता है। दूसरी कृष्टिमें विशेषहीन जीवप्रदेशोंको निक्षिप्त करता है ।
शंका--यहाँपर प्रतिभागका प्रमाण क्या है ? समाधान–यहाँपर जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण निषेक भागहार प्रतिभागका प्रमाण है।
६३७५ इसप्रकार निक्षेप करता हुआ अन्तिम कृष्टिके प्राप्त होने तक निक्षेप करता जाता है। पुनः अन्तिम कृष्टिसे अपूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणामें असंख्यात गुणहीन जीवप्रदेशोंको सिंचितकर उससे आगे विशेष हानिरूपसे सिंचित करता है ऐसा जानना चाहिये । पुनः दूसरे समयमें प्रथम समयमें अपकर्षित किये गये जीवप्रदेशोंसे असंख्यातगुणे जीवप्रदेशोंको अपकर्षित करके उस कालमें रची जानेवाली प्रथम अपूर्व कृष्टि में बहुत जीवप्रदेशोंको सिंचित करता है। दूसरी कृष्टिमें असंख्यातवें भागप्रमाण विशेषहीन जीवप्रदेशोंको निक्षिप्त करता है। इस प्रकार निक्षेप करता हुआ
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पच्छिमखंध-अत्याहियार उवरि असंखेज्जदिभागहीणं णिसिंचदि, तत्थ पुव्वणिसित्तजीवपदेसमेत्तेण एगकिट्टीविसेसमेत्तेण च । एतो उवरि सव्वत्थ विसेसहीणे चेव णिक्खिवदि जाव चरिमकिट्टि ति । किट्टीफद्दयसंधीए पुव्वत्तो चेव कमो परूवेयव्वो। एवमंतोमुहुत्तमेत्तकालमसंखेज्जगुणहाणीए सेढीए अपुवकिट्टोओ णिवत्तेदि । जीवपदेसे पुण असंखेज्जगुणाए सेढीए ओकड्डियूण किट्टीसु णिसिंचदि जाव किट्टीकरणद्धाए चरिमसमओ त्ति । संपहि एदस्सेवत्थस्स फुडीकरणद्वमुत्तरो सुत्तपबंधो--
* एत्थ अंतोमुहुत्तं करेदि किट्टीयो असंखेजगुणाए सेढीए । ६ ३७६ सुगमं । * जीवपदेसाणमसंखेनगुणाए सेढीए ।
$ ३७७ सुगममेदं पि सुत्तं । संपहि एवं णिव्वत्तिज्जमाणीसु किट्टीसु हेट्ठिमहेडिमकिट्टीदो उवरिमउवरिमकिट्टीणं केवडिओ गुणगारो होदि ति आसंकाए णिरायरणटुं किट्टीगुणगारपमाणमुवरिमसुत्तेण णिदिसइ--
* किट्टीगुणगारो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो।
दूसरे समयमें की जानेवाली अपूर्व कृष्टियोंकी अन्तिम कृष्टि तक निक्षिप्त करता जाता है। पुनः दूसरे समयमें पहलेकी अन्तिम कृष्टिसे प्रथम समयमें रची जानेवाली अपूर्व कृष्टियोंकी जो जघन्य कृष्टि है उसके ऊपर असंख्यातवें भागहीन जीवप्रदेशोंको सिंचित करता है, क्योंकि उसमें पूर्वमें निक्षिप्त किये जीवप्रदेशमात्र और एक कृष्टि विशेषमात्र निक्षिप्त करता है। इससे आगे सर्वत्र अन्तिम कृष्टिके प्राप्त होने तक विशेषहीन ही जोवप्रदेशोंको निक्षिप्त करता है। कृष्टि और स्पर्धककी सन्धिमें पूर्वोक्त क्रम ही कहना चाहिये । इसप्रकार अन्तर्मुहूर्त काल तक असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे अपूर्वकृष्टियोंको रचता है। परन्तु कृष्टिकरण कालके अन्तिम समय तक कृष्टियोंमें असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे जीवप्रदेशोंको सिंचित करता है। अब इसी अर्थके स्पष्टीकरण करनेकेलिये आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है
* यहाँपर असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे कृष्टियोंको अन्तर्मुहूर्तकाल तक करता है। ६ ३७६ यह सूत्र सुगम है। * असंख्यातगुणीश्रेणिरूपसे जीवप्रदेशोंको करता है ।
६३७७ यह सूत्र भी सुगम है। अब यहाँपर रची जानेवाली कृष्टियोंमें अधस्तन-अधस्तन कृष्टियोंसे उपरिम-उपरिम कृष्टियोंका कितना गुणकार होता है ऐसी आशंकाका निराकरण करनेकेलिये आगेके सूत्रद्वारा कृष्टियोंके गुणकारके प्रमाणका निर्देश करते हैं
* कृष्टिगुणकार पन्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है ।
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किट्टोकरणं ]
१७५ 5 ३७८ एतदुक्तं भवति--जहण्णकिट्टीए सरिसघणियकिट्टीओ असंखेज्जपदरमेत्तीओ अत्थि, तत्थ एगजहण्णकिट्टीए जोगाविमागपडिच्छेदे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण गुणिदे एगजीवपदेसमस्सियण तदणंतरोवरिमएगकिट्टीए जोगाविभागपडिच्छेदा होति । एवं बिदियादिकिट्टीसु वि गुणगारपरूवणा णेदव्वा जाव चरिमकिट्टि ति । पुणो एगचरिमकिट्टीए जोगाविभागपडिच्छेदे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण गुणिदे अपुव्वफद्दयाणमादिवग्गणाए एगजीवपदेसाविभागपडिच्छेदा होति । तदो उवरि जीवपदेसा फद्दयसमयाविरोहेण अविभागपडिच्छेदेहिं विसेसाहिया भवंति त्ति दट्टत्वं । एवमेगजीवपदेसमस्सियण भणिदं ।
$ ३७९ अथवा जहण्णकिट्टीए पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण गुणिदाए बिदियकिट्टी भवदि। एवं गुणगारो णेदव्वो जाव चरिमकिट्टि ति । एस गुणगारो जाव सरिसधणियाणि पेक्खियूण मणिदो। पुणो चरिमकिट्टीए सरिसधणियसव्वाविभागपडिच्छेदसमुदायादो अपुव्वफद्दयादिवग्गणाए सरिसधणियसव्वाविभागपडिच्छेदसमूहो असंखेज्जगुणहीणो त्ति वत्तव्यो, उवरिमअविभागपडिच्छेदगुणगारादो हेट्ठिमजीवपदेसगुणगारस्सासंखेज्जगुणत्तदंसणादो । को एत्थ गुणगारो ? सेढीए असंखेज्जदिभागो। सेसं जाणिय वत्तव्वं । एवं किट्टीगुणगारपदुप्पायणमुहेण किट्टीलक्खण
६३७८ उक्त कथनका यह तात्पर्य है-जघन्य कृष्टिके सदृश धनवाली कृष्टियाँ असंख्यातजगप्रतरप्रमाण हैं। वहाँ एक जघन्य कृष्टिके योगसम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेदोंको पाल्योपमके असंख्यातवें भागसे गुणित करनेपर एक जीवप्रदेशके आश्रयसे जघन्य कृष्टिके अनन्तर उपरिम एक कृष्टिमें योगसम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेद होते हैं । इसी प्रकार दूसरी आदि कृष्टियोंमें भी अन्तिम कृष्टिके प्राप्त होने तक गुणकार प्ररूपणा जाननी चाहिये । पुनः एक अन्तिम कृष्टिके योगसम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेदोंको पल्योपमके असंख्यातवें भागसे गुणित करनेपर अपूर्व स्पर्धकोंकी आदिवर्गणामें एक जीवप्रदेशके अविभागप्रतिच्छेद होते हैं । इसके आगे जीवप्रदेश आगमानुसार अविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा विशेष अधिक होते हैं ऐसा जानना चाहिये । इस प्रकार एक जीवप्रदेशका आश्रयकर कहा है।
६ ३७९ अथवा जघन्य कृष्टिको पल्योपमके असंख्यात भागसे गुणित करनेपर दूसरी कृष्टि होती है। इस प्रकार अन्तिम कृष्टिके प्राप्त होनेतक यह गुणकार जानना चाहिये । यह गुणकार जबतक सदृश धनवाली कृष्टियाँ हैं उनको देखकर कहा है । पुनः अन्तिम कृष्टिके सदृश धनवाले पूरे अविभागप्रतिच्छेदसमुदायसे अपूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणामें सदृश धनवाले सब अविभागप्रतिच्छेदोंका समूह असंख्यात गुणहीन होता है ऐसा कहना चाहिये, उपरिम अविभागप्रतिच्छेद गुणकारसे अधस्तन जीवप्रदेशगुणकार असंख्यातगुणा देखा जाता है ।
शंका-यहाँपर गुणकारका प्रमाण क्या है ? समाधान यहाँपर गुणकारका प्रमाण जगश्रेणीके असंख्यातवें भाग है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पच्छिमखंध-अत्थाहियार परूवणं कादूण संपहि जोगकिट्टीणमेदासिमंतोमुहुत्त मेत्तकालेण णिव्वत्तिज्जमाणाणं पमाणविसेसावहारणटुं उत्तरसुत्तारंभो--
* किट्टीओ सेढीए असंखेजदिभागो।
$ ३८० कुदो ? सेढिपढमवग्गमूलम्स वि असंखेज्जदिभागभूदाणमेदासिं सेढीए असंखेज्जदिमागमेसिद्धीए णिव्वाहमुवलंभादो। संपहि अपुव्वफद्दएहितो वि असंखेज्जगुणहीणपमाणत्तमेदासिमविरुद्धमिदि जाणावणफलमुत्तरसुत्तं* अपुष्वफद्दयाणं पि असंखेज्जदिभागो ।
३८१ एयगुणहाणिट्ठाणंतरफद्दयसलागाणमसंखेज्जदिभागमेत्ताणि अपुन्वफद्दयाणि होति । पुणो एदेसि पि असंखेज्जदिमागमेतीओ एदाओ किट्टीओ एयफद्दयवग्गणाणमसंखेज्जदिमागपमाणाओ दवाओ त्ति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो। एवमंतोमुहत्तं किट्टीकरणद्धमणुपालेमाणस्स किट्टीकरणद्धाए जहाकम णिविदाए तदो से काले जो परूवणाविसेसो तण्णिण्णयविहाणट्टमुत्तरो सुत्तपबंधो
* किट्टीकरणद्धे णिट्ठिदे से काले पुवफद्दयाणि अपुव्वफद्द याणि च णासेदि।
_शेष कथन जानकर कहना चाहिये । इस प्रकार कृष्टिगुणकारके प्रतिपादनद्वारा कृष्टियोंके लक्षणका प्ररूपण करके अब अन्तमुहूतंप्रमाणकालकेद्वारा रची जानेवाली इन योगसम्बन्धी कृष्टियोंके प्रमाणविशेषके अवधारणकरनेकेलिये आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं
* योगसम्बन्धी कृष्टियां जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं।
$ ३८० क्योंकि, जगश्रेणिके प्रथम वर्गमूलके भी असंख्यातवें भागप्रमाण इनके जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण की सिद्धि निर्बाधरूपसे उपलब्ध होती है। अब इनका अपर्व स्पर्धकोंसे भी असंख्यात गुणहीनपना अविरुद्ध है इस बातका ज्ञान करानेकेलिये आगेका सूत्र कहते हैं
* वे योगसम्बन्धी कृष्टियाँ अपूर्व स्पर्धकोंके भी असंख्यातवें भागप्रमाण हैं ।
६ ३८१ एक गुणहानि स्थानान्तरकी स्पर्धकशलाकाओंके असंख्यातवें भागप्रमाण अपूर्व स्पर्धक होते हैं । पुनः इनके भी असंख्यातवें भागप्रमाण ये योगकृष्टियाँ एक स्पर्धकसम्बन्धी वर्गणाओंके असंख्यातवें भागप्रमाण जानना चाहिये । इस प्रकार यह इस सत्रका भावार्थ है। इस कष्टियोंको करनेकेलिये अन्तमुहूर्त कालका पालन करनेवाले इस जीवके कृष्टिकरणकालके यथाक्रम समाप्त होनेपर उसके बाद अनन्तर कालमें जो प्ररूपणाविशेष है उसका निर्णय करनेकेलिये आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है
* कृष्टिकरणकालके समाप्त होनेपर अनन्तर समयमें पूर्व स्पर्धकों और अपूर्व स्पर्धकोंका नाश करता है।
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किट्टीगदजोग]
१७७ ६ ३८२ जाव किट्टीकरणद्धाए चरिमसमओ ताव पुव्वफद्दयाणि अपुव्वफद्दयाणि च अविणदुसरूवाणि दीसंति, तदसंखेज्जदिभागमेत्ताणं चेव सरिसधणियजीवपदेसाणं समयं पडिकिट्टीकरणयरूवेणे परिणमणमुवलंभादो। पुणो से काले पुवापुवफद्दयाणि सव्वाणि चेव अप्पणो सरूवपरिच्चागेण किट्टीसरूवेण परिणमंति जहण्णकिट्टिप्पहुडि जाव उक्कस्सकिट्टि ति ताव एदासु किट्टीसु सरिसधणियसरूवेण तेसिं तकालमेव परिणमणणियमदंसणादो। एवं किट्टीकरणद्धा समत्ता। संपहि एत्तो पाए अंतोमुहुत्तकालं किट्टीगदजोगो होदूण सजोगि अद्धावसेसमणुपालेदि त्ति जाणावणट्ठमुत्तरसुत्तमोइण्णं
* अंतोमुहुत्तं किट्टीगदजोगो होदि । गयत्थमेदं सुत्तं ।
$ ३८३ संपहि किट्टीगदजोगमेसो वेदमाणो किमंतोमुहुत्तमेत्तकालमवट्ठिदभावेण वेदेदि, आहो अण्णहा त्ति एवंविहाए आसंकाए णिराकरणं कस्सामो । तं जहा-पढमसमयकिट्टीवेदगो किट्टीणमसंखेज्जे भागे वेदेदि । पुणो बिदियसमए पढमसमयवेदिदकिट्टीणं हेडिमोवरिमासंखेन्जभागविसयाओ किट्टीओ सगसरूवं छंडिय मज्झिमकिट्टीसरुवेण वेदिज्जंति त्ति पढमसमयजोगादो बिदियसमयजोगो असंखेज्जगुणहीणो होइ । एवं तदियादिसमएसु वि णेदव्वं । तदो पढमसमए बहुगीओ किट्टीओ वेदेदि, बिदिय
६३८२ जब तक कृष्टिकरणके कालका अन्तिम समय है तब तक पूर्वस्पर्धक और अपूर्व स्पर्धक अविनष्टरूपसे दिखाई देते हैं, क्योंकि उनके असंख्यातवें भागप्रमाण ही सदृश धनवाले जीवप्रदेशोंका प्रत्येक समय में कृष्टिकरणरूपसे परिणमन उपलब्ध होता है। पुनः तदनन्तर समयमें सभी पूर्व और अपूर्व स्पर्धक अपने स्वरूपका त्याग करके कृष्टिरूपसे परिणमन करते हैं, क्योंकि जघन्य कृष्टिसे लेकर उत्कृष्ट कृष्टिके प्राप्त होने तक उन कृष्टियोंमें सदृश धनरूपसे उनका उस कालमें परिणमनका नियम देखा जाता है । इस प्रकार कृष्टिकरणकाल समाप्त हुआ। अब इसके बाद अन्तर्महूर्तकाल तक कृष्टिगत योगवाला होकर सयोगिकालमें जो अवशेष काल रहा उसका पालन करता है, इस बातका ज्ञान करानेकेलिये आगेके सूत्रका अवतार हुआ है
* अन्तमुहूतेकाल तक कृष्टिगत योगवाला होता है।
६ ३८३ अब कृष्टिगत योगका वेदन करनेवाला यह सयोगीकेवली क्या अन्तर्मुहूर्त कालतक अवस्थित भावसे वेदन करता है या अन्य प्रकारसे वेदन करता है? इस तरह इस प्रकारकी आशंकाका निराकरण करेंगे । यथा-प्रथम समयमें कृष्टिवेदक कृष्टियोंके असंख्यात बहुभागका वेदन करता है। पुनः दूसरे समयमें प्रथम समयमें वेदी गई कृष्टियोंके अधस्तन और उपरिम असंख्यात भागविषयक कृष्टियाँ अपने स्वरूपको छोड़कर मध्यम कृष्टिरूपसे वेदी जाती हैं। इस प्रकार प्रथम समयसम्बन्धी योगसे दूसरे समयसम्बन्धी योग असंख्यात गुणहोन होता है । इस प्रकार तृतीय आदि समयोंमें भी जानना चाहिये । इसलिये प्रथम समयमें बहुत कृष्टियोंका वेदन करता है, दूसरे समय१.प्रेसकापीप्रतो किट्टीसरूवेण इति पाठः ।
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१७८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे - [पच्छिमखंध-अत्याहियार समए विसेसहीणाओ वेदेदि, एवं जाव चरिमसमओ त्ति विसेसहीणकमेण किट्टीओ वेदेदि त्ति वत्तव्वं ।
$ ३८४ अथवा पढमसमए थोवाओ किट्टीओ वेदेदि, हेट्ठिमोवरिमासंखेज्जदिभागविसयाणं चेव किट्टीणं पढमसमये विणासिज्जमाणाणं पहाणभावेण विवक्खियत्तादो । बिदियसमये असंखेज्जगुणाओ वेदेदि, पढमसमए विणासिदकिट्टीहितो बिदियसमए असंखेज्जगुणाओ किट्टीओ हेडिमोवरिमासंखेज्जदिमागपडिबद्धाओ विणासेदि त्ति भणिदं होदि। एवमंतोमुहुत्तमसंखेज्जगुणाए सेढीए किट्टीगदजोगमेसो वेदेदि, समयं पडि मन्झिमकिट्टिआधारेण परिणामिज्जमाणाणं किट्टीणपसंखेज्जगुणभावेण पत्तिदसणादो। पढमादिसमएसु जहाकम वेदिदकिट्टीणं जीवपदेसा विदियादिसमएसु णिप्फंदसरूवेणाजोगा' होदण चिटुंति ति किण्ण इच्छिज्जदे ? ण, एक्कम्मि जीवे सजोगाजोगपज्जयाणमक्कमेण पत्तिविरोहादो।
5 ३८५ तदो समयं पडि हेट्ठिमोवरिमासंखेज्जदिमागकिट्टीओ असंखेज्जगुणाए सेढीए मज्झिमकिट्टीआयारेण परिणामिय विणासेदि त्ति सिद्धं । ण च एवंविहो अत्थो सुत्ते णत्थि ति आसंकणिज्जं, 'किट्टीणं चरिमसमयअसंखेज्जे भागे णासेदि' त्ति उवरि में विशेषहीन कृष्टियोंका वेदन करता है । इस प्रकार अन्तिम समयतक विशेषहीनक्रमसे कृष्टियोंका वेदन करता है ऐसा कहना चाहिये।
६३८४ अथवा प्रथम समयमें स्तोक कुष्टियोंका वेदन करता है, क्योंकि प्रथम समयमें अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागविषयक कृष्टियाँ ही विनाश होती हुई प्रधानरूपसे विवक्षित हैं । दूसरे समयमें असंख्यातगुणी कृष्टियोंका वेदन करता है, क्योंकि प्रथम समयमें विनाशको प्राप्त हुईं कृष्टियोंसे दूसरे समयमें अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागसे सम्बन्ध रखनेवाली असंख्यातगुणी कृष्टियोंका विनाश करता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार अन्तमुहूर्त कालतक असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे यह जीव कृष्टिगत योगका वेदन करता है, क्योंकि प्रत्येक समयमें मध्यम कृष्टिरूपसे परिणमन करनेवाली कृष्टियोंकी असंख्यातगुणरूपसे प्रवृत्ति देखी जाती है।
शंका--प्रथमादि समयोंमें क्रमसे वेदी गई कृष्टियोंके जीवप्रदेश द्वितीयादि समयोंमें अपरिस्पन्दस्वरूपसे अयोगी होकर स्थित रहते हैं, ऐसा क्यों नहीं मानते ?
समाधान नहीं, क्योंकि एक जीवमें अक्रमसे सयोगरूप और अयोगरूप पर्यायोंकी प्रवृत्ति होनेमें विरोध आता है।
६३८५ तदनन्तर प्रतिसमय अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियोंको असंख्यातगुणो श्रेणिरूपसे मध्यम कृष्टियोंके आकारसे परिणमाकर विनाश करता है, यह सिद्ध हुआ । इस प्रकारका अर्थ सूत्रमें नहीं है ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि 'अन्तिम समयमें कृष्टियोंके असंख्यात बहुभागका नाश करता है' इस प्रकार आगे कहे जानेवाले सूत्र में स्पष्टरूपसे १. प्रेसकापीप्रती जोगी इति पाठः ।
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सयोगिझाण ] भण्णमाणसुत्ते परिप्फुडमेवेदस्सत्थविसेसस्स पडिबद्धत्तदंसणादो । एवमंतोमुहुत्तमेत्तकालं किट्टीगदजोगमणुहवंतस्स सुहुमयरकायजोगे वट्टमाणस्स सजोगिकेवलिणो तदवत्थाए झाणपरिणामो केरिसो होदि त्ति आसंकाए णिरारेगीकरणमुत्तरसुत्तारंभो
* सुहुमकिरियापडिवादिशाणं झायदि ।
$३८६ सूक्ष्मक्रियायोगो यस्मिस्तत्सूक्ष्मनियं, न प्रतिपततीत्येवं शीलमप्रतिपाति, सूक्ष्मतरकाययोगावष्टम्भविजम्भितत्वात् सूक्ष्मक्रियमधः प्रतिपाताभावादप्रतिपाति तृतीयं शुक्लध्यानं तदवस्थायां ध्यायतीत्युक्तं भवति । किमस्य ध्यानस्य फलमिति चेद् ? योगास्रवस्यात्यन्तनिरोधनं सूक्ष्मतरकायपरिस्पन्दस्याप्यत्र निरन्वयनिरोधदर्शनात् । तथोक्तं--
तृतीयं काययोगस्य सर्वज्ञस्यागुतास्थितेः । योगक्रियानिरोधार्थ शुक्लध्यानं प्रकीर्तितम् ।।१॥
इति । सकलपदार्थविषय, वोपयोगपरिणते केवलिन्येकाग्रचिंतानिरोधासंभवध्यानानुपपत्तिरित्यभीष्टत्वात् इति चेत् ? सत्यमेतत्, सकलविदः साक्षात्कृताशेषपदार्थस्याक्रमोपयोगपरिणतस्यैकाग्रचिन्तानिरोधलक्षणध्यानानुपपत्तिरित्यभीष्टत्वात् । किं तु योगनिरोधमात्रकर्मास्रवनिरोधलक्षणध्यानफलप्रवृत्तिमभिसमीक्ष्य तथोपचारप्रकल्पनमिति न
इस अर्थ विशेषका सम्बन्ध देखा जाता है। इस प्रकार अन्तमुहूर्त कालतक कृष्टिगत योगका अनुभव करनेवाले अतिसूक्ष्म काययोगमें विद्यमान सयोगिकेवलीके उस अवस्थामें ध्यान परिणाम कैसा होता है ? ऐसी आशंका होनेपर निःशंक करनेकेलिये आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं
* तथा सूक्ष्म क्रियारूप अप्रतिपाती ध्यानको ध्याता है।
३८६ जिसमें सूक्ष्म क्रियारूप योग हो वह सूक्ष्मक्रियारूप तथा नीचे प्रतिपात नहीं होनेसे अप्रतिपाति; ऐसे तीसरे शुक्लध्यानको उस अवस्थामें ध्याता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-इस ध्यानका क्या फल है ?
समाधान-योगके आस्रवका अत्यन्त निरोध करना इसका फल है, क्योंकि सूक्ष्मतर कायपरिस्पन्दका भी यहाँपर अन्वयके बिना निरोध देखा जाता है। कहा भी है
काययोगी और अद्भुत स्थितिवाले सर्वज्ञके योगक्रियाका निरोध करनेकेलिये तीसरा शुक्लध्यान कहा गया है ।। १ ॥
शंका-समस्त पदार्थोंको विषय करनेवाले ध्रुव उपयोगसे परिणत केवली जिनमें एकाग्र चिन्तानिरोधका होना असम्भव है इसलिये इष्ट होनेसे ध्यानको उत्पत्ति नहीं हो सकती।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पच्छिमखंध-अत्याहियार किंचिद् व्याहन्यते, चिन्ताहेतुत्वेन भूतपूर्वत्वाच्चिन्ता योगः, तस्यैकाग्रभावेन निरोधनमेकाग्रचिन्तानिरोध इति व्याख्यानसमाश्रयणाद्वा न कश्चिद्दोषः । तथा चोक्तं
अंतोमुहुत्तमद्धं चिंतावस्थाणमेयवत्थुम्मि ।
छदुमत्थाणं ज्माणं जोगणिरोधो जिणाणं तु ॥१॥ ६ ३८७ तस्मात्सूक्तं सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिसंज्ञितं परमशक्लध्यानमेवं लक्षणमस्मिअवस्थांतरे योगनिरोधकेवली कर्मादानसामर्थ्य निरन्वयनिरोधार्थ ध्यायतीति । एवं ध्यायतोऽस्य परमर्षेः परभशुक्लध्यानाग्निना प्रतिसमयमसंख्यातगुणश्रेण्या कर्मनिर्जरामनुपालयतः स्थित्यनुभागकांडकानि च यथाक्रमं निपातयतो योगशक्ति क्रमेण हायमाना सयोगकेवलिगुणस्थानचरिमसमये निमूलतः प्रणश्यतीत्येतत्प्रतिपादयितुकामः सूत्रमुत्तरं पठति--
* किट्टीणं चरिमसमये असंखेज्जे भागे णासेदि ।
समाधान--यह कहना सत्य हैं, क्योंकि जिन्होंने समस्त पदार्थोंका साक्षात्कार किया है और जो क्रमरहित उपयोगसे परिणत हैं ऐसे सर्वज्ञदेवके एकाग्रचिन्तानिरोधलक्षण ध्यान नहीं बन सकता, क्योंकि यह अभाष्ट है। किन्तु योगके निरोधमात्रसे होनेवाले कर्मास्रवके निरोधलक्षण ध्यानफलकी प्रवृत्तिको देखकर उस प्रकारके उपचारको कल्पना की है, इसलिये कुछ भी हानि नहीं है । अथवा चिन्ताका हेतु होनेसे भूतपूर्वपनेकी अपेक्षा चिन्ताका नाम योग है, उसके एकाग्रपनेसे निरोध करना एकाग्रचिन्तानिरोध है। इस प्रकारके व्याख्यानका आश्रय करनेसे यहां ध्यान स्वीकार किया है, इसलिये कोई दोष नहीं है । उस प्रकार कहा भी है
___ * छद्मस्थोंका एक वस्तुमें अन्तम हूत कालतक चिन्ताका अवस्थान होना ध्यान है, परन्तु केवली जिनोंका योगका निरोध करना ही ध्यान है।
३८. इसलिये ठीक कहा है कि योगका निरोध करनेवाले केवली भगवान् कर्मके ग्रहणकी सामर्थ्यका निरन्वय निरोध करनेकेलिये सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती संज्ञक परम शुक्लध्यान ऐसे लक्षणवाले ध्यानको ध्याते हैं। इस प्रकार ध्यान करनेवाले, परम शुक्लध्यानरूप अग्निकेद्वारा प्रतिसमय असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे कर्मनिर्जराका पालन करनेवाले तथा स्थितिकाण्डकका और अनुभागकाण्डकका क्रमसे पतन करनेवाले इस परम ऋषिके योगशक्ति क्रमसे हीन होती हुई सयोगकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमें पूरी तरहसे नष्ट होती है। इस प्रकार इस बातके प्रतिपादन करनेको इच्छासे आगेके सूत्रको कहते हैं
* कृष्टिवेदक सयोगिकेवली जीव कृष्टियोंके अन्तिम समयमें असंख्यात बहुभागका नाश करता है।
१.प्रेसकापीप्रती असंखेज्जा इति पाठः ।
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अजोगकेवलो]
१८१ $ ३८८ किट्टीवेदगपढमसमयप्पहुडि समए समए किट्टीणमसंखेज्जदिमागमसंखेज्जगुणाए सेढीए खवेदण णासेमाणो सजोगिगुणट्ठाणचरिमसमए किट्टीणमसंखेज्जे भागे विणासेदि, तत्तो पर जोगपवुत्तीए अच्चंतुच्छेददंसणादो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसमुच्चओ। ___३८९ संपहि णामागोदवेदणीयाणं चरिमट्ठिदिखंडयमागाएंतो जेत्तियसजोगिअद्धा सेसमजोगिकालो च सव्वो, एत्तियमेतद्विदीओ मोत्तूण गुणसेढिसीसएण सह उवरिमसव्वद्विदीओ आगाएदि। ताघे चेव पदेसग्गमोकट्टियण उदये थोवं देदि । से काले असंखेज्जगुणं, एवमसंखेज्जगुणाए सेढीए णिक्खिवमाणो गच्छइ जाव द्विदिखंडयजहण्णहिदीदो हेडिमाणंतरहिदि त्ति ।
६ ३९० संपहि एदं चेव गुणसेढीसीसयं जादं । इमादो गुणसेढीसीसयादो डिदिखंडयस्य जा जहण्णद्विदी तिस्से असंखेज्जगुणं देदि। तत्तो उवरिमाणंतरट्टिदिप्पहुडि विसेसहीणं णिक्खिवमाणो गच्छदि जाव चिराण गुणसेढिसीसयं ति । पुणो चिराणादो गुणसेढिसीसयादो उवरिमाणंतरविदीए असंखेज्जगुणहीणं देदि । तदो उवरि सम्वत्थ विसेसहीणं संछुहदि । एत्तो प्पहुडि गलिदसेसगुणसेढी च जायदे । एवं णेदव्वं जाव चरिमद्विदिखंडयदुचरिमफालि त्ति ।
६३८८ कृष्टिवेदकके प्रथम समयसे लेकर समय-समयमें कृष्टियोंके असंख्यातवें भागका असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे क्षय करके नाश करता हुआ सयोगिकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमें कुष्टियोंके असंख्यात बहुभागका नाश करता है, क्योंकि उसके बाद योगप्रवृत्तिका अत्यन्त उच्छेद देखा जाता है इस प्रकार यह यहाँ सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है ।
$ ३८९ अब नाम, गोत्र और वेदनीयकर्मोंके अन्तिम स्थितिकाण्डकको ग्रहण करता हुआ जितना सयोगीकाल शेष है और सब अयोगीकाल है तत्प्रमाण स्थितियोंको छोड़कर गुणश्रेणिशीर्षकके साथ उपरिम सब स्थितियोंको ग्रहण करता है । उसी समय प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके उदयमें अल्प प्रदेशपुंजको देता है, अनन्तर समयमें असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको देता है । इस प्रकार असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे निक्षेप करता हुआ स्थितिकाण्डकको जघन्य स्थितिसे अधस्तन अनन्तर स्थितिके प्राप्त होने तक जाता है।
६३ • अब यही गुणश्रेणिशीर्ष हो गया । इस गुणश्रेणिशीर्षसे स्थितिकाण्डककी जो जघन्य स्थिति है उसमें असंख्यातगुणा देता है । उससे उपरिम अनन्तर स्थितिसे लेकर विशेष हीन प्रदेशपूंजका निक्षेप करता हुआ पूरानी गुणश्रेणिशीर्ष तक निक्षेप करता जाता है। पूनः पुराने गुणशीर्षसे लेकर उपरिम अनन्तर स्थितिमें असंख्यात गुणहीन प्रदेशपुंज देता है । उससे आगे सर्वत्र विशेषहीन प्रदेशपुंज निक्षेप करता है। यहाँसे लेकर गलितशेष गुणश्रेणि हो जाती है। इस प्रकार अन्तिम स्थितिकाण्डकको द्विचरमफालि हो जाना चाहिये ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पच्छिमखंध-अत्याहियार ३९१ पुणो चरिमट्ठिदिखंडयचरिमफालीदव्वं घेत्तूण उदये पदेसग्गं थोवं देदि । से काले असंखेज्जगुणं देदि । एवमसंखेज्जगुणाए सेढीए णिक्खिवमाणो गच्छदि जाव अजोगिचरिमसमयो त्ति। संपहि एदम्मि चेव समये जोगणिरोहकिरियाए सजोगिअद्धाए च परिसमत्ती । एत्तो पाए णत्थि गुणसेढी ठिदि-अणुभागपादो वा । केवलमधट्टिदीए कम्मणिज्जरमसंखेज्जगुणाए सेढीए अणुपालेदि त्ति घेत्तव्वं । एत्थेव सादावेदणीयस्स पयडिबंधवोच्छेदो, ऊणचालीसपयडीणमुदीरणाओ वोच्छेदो च ददुव्वो। ताधे चेव आउअसमाणि णामागोदवेदणीयाणि हिदिसंतकम्मेण जादाणि त्ति जाणावणट्ठमुत्तरसुत्तारंभो--
* जोगम्हि णिरुद्धम्हि आउअसमाणि कम्माणि होति ।
६ ३९२ केवलिसमुग्धादकिरियाए जोगणिरोहकालभंतरट्ठिदिअणुभागघादेहि य घादिदसेसाणि णामागोदवेदणीयाणि एण्हिमाउगसरिसाणि होदण अजोगिअद्धामेत्तट्ठिदिसंतकम्माणि जादाणि त्ति वुत्तं होइ । एवमेत्तिएण परूवणापबंधेण सजोगिगुणट्ठाणमणुपालिय तदद्धाए परिसमत्ताए जहावसरपत्तमजोगिगुणट्ठाणं पडिवज्जदि त्ति पदुप्पाए•माणो सुत्तमुत्तरं भणइ ।
* तदो अंतोमुहुत्तं सेलेसिं य पङिवज्जदि ।
६ ३९१ पुनः अन्तिम स्थितिकाण्डकको अन्तिम फालिके द्रव्य को ग्रहण करके उदयमें स्तोक प्रदेशपुंजको देता है । तदनन्तर समयमें असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको देता है । इस प्रकार असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे निक्षेप करता हुआ अयोगि केवलीके अन्तिम समय तक जाता है। अब इसी समयमें योगनिरोधक्रिया और सयोगिकेवलोके कालकी समाप्ति होती है। इससे आगे गुणश्रेणि और स्थितिघात तथा अनुभागघात नहीं है। केवल अधःस्थितिकेद्वारा असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे कर्मनिर्जराका पालन करता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। यहींपर सातवेदनीयके प्रकृतिबन्धकी व्युच्छित्ति होती है तथा उनतालीस प्रकृतियोंकी उदीरणाव्युच्छित्ति जाननी चाहिये। उसी समय आयुके समान नाम, गोत्र और वेदनीयकर्म स्थितिसत्कर्म रूपसे हो जाते हैं, इस बातका ज्ञान करानेकेलिये आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं
* योगका निरोध होनेपर [स्थितिकी अपेक्षा] आयुके समान कर्म होते हैं।
६ ३९२ केवलिसमुद्धातक्रियाद्वारा योगनिरोधरूप कालके भीतर स्थितिघात और अनुभागघातकेद्वारा घात करनेसे शेष रहे नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म इस समय आयुकर्मके समान होकर अयोगिकेवलोके कालके बराबर उनका स्थितिसत्कर्म हो जाता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार इतने प्ररूपणाप्रबन्धद्वारा सयोगिकेवली गुणस्थानका पालन करके उस कालके समाप्त होनेपर यथावसर प्राप्त अयोगिकेवली गुणस्थानको प्राप्त होता है, इस बातका प्रतिपादन करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं
* तदनन्तर अयोगकेवली जिन अन्तर्मुहूर्त काल तक शैलेश पदको प्राप्त करते हैं।
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अजोगकेवलो ]
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९ ३९३ ततोऽन्तर्मुहूर्तमयोगिकेवली भूत्वा शैलेश्यमेष भगवानलेश्यभावेन प्रतिपद्यत इति सूत्रार्थः । किं पुनरिदं शैलेश्यं नाम ? शीलानामीशः शीलेशः, तस्य भावः शैलेश्यं, सकलगुणशीलानामैकाधिपत्यप्रतिलम्भनमित्यर्थः । यद्येवं नारम्भणीयमिदं विशेषणं; भगवत्यर्हत्परमेष्ठिनि सयोग केवल्यवस्थायामेव सकलगुणशीलाधिपत्यस्याविकलस्वरूपेण परिप्राप्तात्मलाभत्वात्, अन्यथा तस्यापरिपूर्णगुणशीलत्वेऽस्मदादिवत्परमेष्ठितानुपपत्तेः इति ? सत्यमेतत् सयोगकेवलिन्यपि परिप्राप्तात्मस्वरूपाशेषगुणनिधाने निष्कलंके परमोपेक्षालक्षणयथाख्यातविहारशुद्धिसंयमस्य परमकाष्ठामधितिष्ठितरतिसकलगुणशीलभारस्याविकलस्वरूपापेक्षणाविर्भाव इत्यभ्युपगमात् । किंतु तत्र योगास्त्रवमात्रसच्चापेक्षया सकलसंवरो निःशेषकर्मनिर्जरैंकफलो न समुत्पन्नः । स पुनरयोगिकेवलिनि निरुद्ध निःशेषास्रवद्वारे निष्प्रतिपक्षस्वरूपेण लब्धात्मलाभः परिस्फुरतीत्यनेनाभिप्रायेण शैलेश्यमत्राभ्यनुज्ञातमिति न कश्चिद्दोषावसरः । अत्रायोगिकेवलिगुणस्थानस्वरूपनिरूपणो गाथासूत्रम् -
६ ३९३ उसके बाद अन्तर्मुहूर्त काल तक अयोगिकेवली भगवान् होकर अलेश्यभावसे शैलेश पदको प्राप्त होते हैं यह इस सूत्र का अर्थ है ।
शंका- यह शैलेशपद क्या है ?
समाधान-शीलोंके ईशको शीलेश कहते हैं । उसका भाव शैलेश्य है । 'समस्त गुण और शीलोंके एकाधिपतिपनेकी प्राप्ति' यह इसका भाव है ।
शंका -- यदि ऐसा है तो इस विशेषणका आरम्भ नहीं करना चाहिये, क्योंकि भगवान् अर्हन्त परमेष्ठी के सयोगकेवली अवस्था में ही सकल गुणों और शीलोंके अधिपतिपनेको अविकलरूपसे प्राप्त करके आत्मलाभ किया है, अन्यथा उनके अधूरे गुण और शोलपनेके होनेपर उनमें हम लोगोंके समान परमेष्ठिपना नहीं बन सकता है ?
समाधान - यह कहना सत्य है, क्योंकि आत्मस्वरूप समस्त गुणों के समूहको प्राप्त करनेवाले और निष्कलंक ऐसे सयोगिकेवली भगवान् हैं, अतः परम उपेक्षा लक्षण यथाख्यात विहारशुद्धि संयमकी पराकाष्ठापर आरूढ़ हुए तथा समस्त गुणों और शीलोंको वहन करनेवाले उनके पूरी तरहसे स्वरूप ईक्षण- अवलोकनका आविर्भाव हुआ है ऐसा स्वीकार किया जाता है। किन्तु उनमें योगके निमित्तसे होनेवाले आस्रवमात्रके सत्त्वकी अपेक्षा पूरा संवर और समस्त कर्मोंको निर्जरारूप फल नहीं उत्पन्न हुआ है । परन्तु अयोगिकेवली भगवान्में पूरी तरहसे आस्रवद्वारके रुक जानेपर प्रतिपक्ष के बिना स्वरूपसे आत्मलाभ की प्राप्ति स्फुरायमान हो जाती है। इस प्रकार इस अभिप्रायसे उनमें (अयोगिकेवली भगवान् में) शीलेशपना स्वीकार किया गया है, इसलिये कोई दोषका अवसर नहीं है । यहाँ आयोगिकेवली गुणस्थानके स्वरूपका निरूपण करते हुए गाथासूत्र कहते हैं
१. आ० प्रतौ शैलेश्य नाम इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पच्छिमखंध-अत्थाहियार सेलेसि संपत्तो णिरुद्धणिस्सेस आसवो जीवो।
कम्मरयविप्पमुक्को गयजोगो केवली होइ ॥ १॥ $ ३९४ एवमन्तर्मुहूर्तमलेश्यभावेन शैलेश्यमनुपालयति भगवत्ययोगि-केवलिनि कीदृशो ध्यानपरिणाम इत्यत आह
* समुच्छिण्णकिरियमणियटिसुकज्झाणं झायदि ।
६३९५ क्रिया नाम योगः । समुच्छिन्ना क्रिया यस्मिस्तत्समुच्छिन्नक्रियं, न निवर्तत इत्येवं शीलमनिवर्ति, समुच्छिन्नक्रियं च तदनिवर्ति च समुच्छिन्नक्रियानिवर्ति समुच्छिन्नसर्ववाङ्मनस्काययोगव्यापारत्वादप्रतिपातित्वाच्च समुच्छिन्नक्रियस्यायमन्त्यं शुक्लध्यानमलेश्याबलाधानं कायत्रयबन्धनिर्मोचनैकफलमनुसंधाय स भगवान् ध्यायतीत्युक्तं भवति । पूर्ववदत्रापि ध्यानोपचारः प्रवर्तनीयः, परमार्थवृत्या एकाग्रचिन्तानिरोधलक्षणस्य ध्यानपरिणामस्य ध्रुवोपयोगपरिणते केवलिन्यनुपपत्तेः । ततो निरुद्धाशेषास्त्रवद्वारस्य केवलिनः स्वात्मन्यवस्थानमेवाशेषकर्मनिर्जरणकफलमिह ध्यानमिति प्रत्येतव्यम् । उक्तं च
जो शीलेशपनेको प्राप्त हैं, जिन्होंने समस्त आश्रवका निरोध कर लिया है ऐसा जीव कर्मरजसे मुक्त होकर अयोगिकेवली होता है ॥ १ ॥
६ ३९४ इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त कालतक अलेश्यभावसे शीलेशपनेको पालन करते हुए भगवान् अयोगिकेवलीमें कैसा ध्यान परिणाम होता है, इसलिए आगे कहते हैं
* अयोगिकेवलि भगवान् समुच्छिन्न क्रिया (योग) रूप अनिवृत्ति (अप्रतिपाती) शुक्लध्यानको ध्याते हैं।
६ ३९५ क्रिया नाम योगका है जिस ध्यानमें क्रिया (योग) समुच्छिन्न हो गई वह समुच्छिन्नक्रियारूप ध्यान है तथा जो प्राप्त होनेपर निवर्तन होनेरूप स्वभाववाला नहीं है वह अनिवर्ति ध्यान है । जो समुच्छिन्नक्रियारूप होकर अनिवति ध्यान है वह समुच्छिन्नक्रियानिति ध्यान कहलाता है। समस्त वचनयोग, मनोयोग और काययोगके व्यापारके नामशेष हो जानेसे तथा अप्रतिपाती होनेसे समुच्छिन्नक्रियापनेके साथ तथा लेश्याके अभावरूप बलाधानसे युक्त इस अन्तिम शुक्लध्यानको कायत्रयनिमित्तकबन्ध निर्मोचनरूप एक फलका अनुसन्धान करके वे भगवान् ध्याते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। पहलेके समान यहाँपर भी ध्यानका उपचार प्रवृत्त करना चाहिये, क्योंकि परमार्थवृत्तिसे एकाग्रचिन्तानिरोधलक्षण ध्यानपरिणाम ध्रुवोपयोगसे परिणत केवली भगवानमें नहीं बन सकता। इसलिये समस्त आस्रवद्वार जिनका निरुद्ध हो गया है, ऐसे केवली भगवान्के अशेष कर्मोंकी निर्जरारूप एक फलवाला अपनी आत्मामें अवस्थान हो यहाँ, ध्यान है ऐसा निश्चय करना चाहिये । कहा भो है
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सिद्धसरूवं ]
चतुर्थं स्यादयोगस्य शेषकर्मच्छिदुत्तमम् । फलमस्याद्भुतं धाम परतीर्थ्यदुरासदम् || १ || इति ।
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$ ३९६ स पुनरयोगिकेवली तथाविधेन ध्यानपरिणामातिशयेन निर्देग्धसर्वमलकलंकबन्धनो निरस्तकिट्टिधातुपाषाणजात्य कनकवल्लब्धात्मस्वभावस्तथागतिपरिणामस्वाभाव्यात् प्रदीपशिखावदी हैव सिद्धयन् सिद्ध एकसमयेनोर्ध्वं गच्छत्यालोकान्तादित्येतत्प्रतिपादयितुकामः सूत्रमुत्तरं पठति
* सेलेसिं श्रद्धाए भीणाए सव्वकम्म विप्पमुक्को एगसमएण सिद्धिं
गच्छइ
$ ३९७ अयोगिकेवलिगुणावस्थानकालः शैलेश्यद्धा नाम । सा पुनः पंचह्नस्वाक्षरोच्चारणकालावच्छिन्नपरिमाणत्यागमविदां निश्चयः । तस्यां यथाक्रममधः स्थितिगलनेन क्षीणायां सर्वमलकलंक विप्रमुक्तः स्वात्मोपलब्धिलक्षणां सिद्धिं सकलपुरुपार्थसिद्धेः परमकाष्ठानिष्ठामेकसमयेनैवोपगच्छति, कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षान्तरमेव मोक्षपर्यायाविर्भावोपपत्तेः । उक्तं च
1. अयोगिकेवली जिनके शेष कर्मोंका छेद करनेवाला व्युपरत क्रियानिवर्ति नामका चौथा उत्तम शुक्लध्यान होता है जो मिथ्यातीर्थवालोंको दुरासद है, अद्भुत मोक्ष धामकी प्राप्ति इसका फल है ।। १ ।।
९ ३९६ वह अयोगिकेवली जिन उस प्रकारके ध्यानपरिणामके अतिशय से समस्त मल और कलंकबन्धनका नाशकर किट्टरूप धातु और पाषाणके निकल जानेपर शुद्ध सोनेके समान आत्मस्वरूपको प्राप्तकर उस प्रकारकी गतिपरिणामरूप स्वभावके कारण जिस प्रकार प्रदीपकी शिखा अन्य पर्यायरूप परिणम जाती है उसी प्रकार यह अयोगिकेवली जिन यहीं सिद्ध होता हुआ सिद्ध स्वरूप वह एक समय द्वारा लोकके अन्ततक ऊपर जाता है । इस प्रकार इस बातका प्रतिपादन करते हुए आमेके सूत्रको कहते हैं
* शैलेश पदके क्षीण हो जानेपर समस्त द्रव्य-भाव कर्मोंसे मुक्त होता हुआ यह जीव एक समयद्वारा सिद्धिको प्राप्त होता है ।
६ ३९७ अयोगिकेवली गुणस्थानका काल शैलेशपदका काल है । परन्तु वह अ, इ, उ, ऋ, ल इन पाँच ह्रस्व अक्षरोंके उच्चारणमें जितना काल लगता है उतना होता है, ऐसा आगमके जानकारोंका निश्चय है । इस अवस्थामें यथाक्रम अधःस्थितिके गलनेसे शेष कर्मोंके क्षीण होनेपर समस्त मल और कलंक से मुक्त होता हुआ सकल पुरुषार्थ की सिद्धि होने से परमकाष्ठाको प्राप्त अपने आत्माको उपलब्धिलक्षण सिद्धिको एक समयके द्वारा ही प्राप्त कर लेता है अर्थात् सिद्ध पदको प्राप्त एक समय में लोकाग्रको प्राप्त कर लेता है, क्योंकि समस्त कर्मोके क्षय होनेके अनन्तर ही मोक्षपर्यायकी उत्पत्ति बनती है । कहा भी है
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जय धवलास हिदे कसा पाहुडे
कर्मबन्धनबद्धस्य सद्भूतस्यान्तरात्मनः । कृत्स्नकर्म विनिर्मोक्षो मोक्ष इत्यभिधीयते ।। १ ।। यथा बीजास्तित्वे यवतिलमसूरप्रभृतयः, प्ररोहंति क्षिप्त्वा भुवि बहुविधप्रत्ययवशात् । तनोर्बीजं कर्म क्षयमुपगते कर्मणि तथा, प्रसूतिर्देहानामसति भवबीजे न भवति ।। २ ।। इति ।
[ पच्छिमखंध-अत्थाहियार
९ ३९८ अत्रायोगिकेवली द्विरिमसमये अनुदय वेदनीय- देवगतिपुरस्सराः द्वासप्ततिः प्रकृतीः क्षपयति, चरिमसमये च सोदय वेदनीय मनुष्यायुर्मनुष्य गतिकास्त्रयोदश प्रकृतीः क्षपयतीति प्रतिपत्तव्यम् । तासां च प्रकृतीनां नामनिर्देशस्तु परिबोधः । ततः सूक्तं -- कृत्स्नकर्मक्षयादवि कलात्मस्वरूपोपलब्धिरनन्तज्ञानादीनां परमकाष्ठा मोक्ष इति ।
९ ३९९ एतेन प्रदीपनिर्वाणवत्स्कन्धमन्तानोच्छेदादभावमात्रं निर्वाणं परिकल्पयन् वादी प्रतिक्षिप्तः, सर्वपुरुषार्थसिद्धेः परमकाष्ठालक्षणस्य तस्याभावमात्रत्वविरोधात् । अभावमात्रत्वे च प्रेक्षापूर्व कारिणां तदर्थप्रयासवैयर्थ्यात् । न हि कश्चित्सचेतनः पुरुषः आत्माभावाय प्रतीयते न इत्यसमज्जसोऽयं मोक्षप्रक्रियावतारः ।
कर्मबन्धनसे बद्ध विद्यमान अन्तरात्मा के समस्त कर्मोंसे मुक्त हो जानेका नाम मोक्ष है ऐसा कहा जाता है ॥ १ ॥
जैसे बीज अस्तित्वमें जौ, तिल और मसूर आदि पृथिवीमें निक्षिप्त कर अनेक कारणों के वशसे अंकुरोंको उत्पन्न करते हैं । उसी प्रकार संसार में शरीरका मूल कारण कर्म है उस कर्मके क्षयको प्राप्त होनेपर शरीरधारियोंके भवबीजके नहीं रहनेपर नवबीजकी उत्पत्ति नहीं होती है ॥२॥
$ ३९८ यहाँपर अयोगिकेवली द्विचरम समय में अनुदयरूप वेदनीय और देवगति आदि बहत्तर प्रकृतियोंकी क्षपणा करता है और अन्तिम समय में उदय सहित वेदनीय, मनुष्यायु और मनुष्यगति आदि तेरह प्रकृतियों की क्षपणा करता है ऐसा जानना चाहिये । तथा उन प्रकृतियोंका नाम निर्देश सुबोध है । इसलिये शास्त्रमें ठीक ही कहा गया है कि समस्त कर्मोंका क्षय होनेसे शरीररहित • अनन्त ज्ञानादिकी परम काष्ठारूप आत्मस्वरूपकी प्राप्ति मोक्ष है ।
§ ३९९ इस प्रकार इस कथनसे प्रदीपके निर्वाणके समान स्कन्धसन्तानका उच्छेद हो जाने से आत्मा अभावमात्रका नाम निर्वाण है ऐसी कल्पना करनेवाला वादी निराकृत हो गया, क्योंकि समस्त पुरुषार्थ की सिद्धि होनेसे परम काष्ठालक्षण मोक्षको अभाव माननेमें विरोध आता है तथा मोक्षको अभावमात्र माननेपर प्रेक्षापूर्वक कार्य करनेवालोंकेलिये मोक्षकेलिए पुरुषार्थ करना व्यर्थ हो जाता है और कोई भी सचेतन पुरुष आत्माका अभाव करनेकेलिये प्रतीत नहीं होता है । इस प्रकार मोक्षका अभाव माननेपर मोक्षप्रक्रियाका अवतार करना असमंजस नहीं ठहरेगा ।
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शास्त्राथसंग्रहः ]
१८७ ६४०० बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मसंस्काराणां नवानां आत्मगुणानां मलोद्वर्तेनोच्छित्तौ सत्यां गुणैर्वियुक्तस्यात्मनः स्वात्मन्यवस्थानं मोक्षो निःश्रेयसमित्यपरे परिकल्पयन्ति, तदप्यनेनैव प्रतिविहितं द्रष्टव्यम्, तत्रापि पुरुषार्थविभ्रंशनं मुक्त्वा पुरुषार्थसिद्धरत्यन्तमनुपलब्धेर्विशेषलक्षणशून्यस्यावस्तुत्वात् खरविषाणवन्मुक्तात्मनामभावप्रसंगाच्च न समीचीनमेतद्दर्शनम्
४०१ उपरतकार्यकारणसंबंधस्यात्मनः सुषुप्तपुरुषवदव्यक्तचैतन्यस्वरूपेणावस्थानमपरेषां निर्वाणम् । तदप्यसत्, तत्रापि पूर्वोक्तदोषानुषंगस्यापरिहरणीयत्वादित्यलमसद्दर्शनोपन्यासेन । ततः स्वात्मोपलब्धिरेव सिद्धिरिति सिद्धो नः सिद्धान्तः परसिद्धान्तव्याघातश्च ।
$ ४०२ तदेवमनादिकर्मसम्बन्धपरतंत्रः संसारचक्रे परिभ्रमन्नात्मा मोहोदयोस्थापितं रागद्वेषपर्यायं प्रेयो-द्वेषसंजितं' मुहुर्महुरास्कन्दस्तत्पूर्विका प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशप्रविभक्तां चतुष्टयी सवस्थां मोहनीय स्येतरकर्मणां च मलोत्तरप्रकृतिभेदभिन्नां सातत्येन विभ्राणेस्तबंधसंक्रमोदयोदीरणापरिणामांश्च सततमात्मसात्कुर्वन् क्रोधमान
$ ४०० बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार इन नौ आत्माके गुणोंका मूलसे उद्वर्तन होकर उच्छेद हो जानेपर गणों से रहित आत्माका अपनी आत्मामें अवस्थान होनेका नाम मोक्ष है, निश्रेयस् उसीको कहते हैं । इस प्रकार दूसरे मनवाले (वैशेषिक) कल्पना करते हैं सो उनकी उस कल्पनाका पूर्वोक्त कथनसे ही निराकरण जानना चाहिये, क्योंकि उक्त कथनमें भी भ्रष्ट पुरुषार्थको छोड़कर पुरुषार्थकी सिद्धिकी किसी भी प्रकारसे उपलब्धि नहीं होती, क्योंकि विशेष लक्षणसे शून्यको वस्तुपना नहीं प्राप्त होता तथा गधेके सींगोंके समान मुक्तात्माओंके अभावका प्रसंग आता है, इसलिये यह दर्शन समीचीन नहीं है ।
४०१ जिस आत्माका कार्य-करण सम्बन्ध उपरत हो गया है ऐसे आत्माका सोये हुए पुरुषके समान चेतनाके अव्यक्त स्वरूपसे अवस्थित रहना मोक्ष है ऐसा अन्य मतवाले मानते हैं, परन्त उन मतवालोंका ऐसा कहना भी असत है. क्योंकि इस मान्यतामें भी अपरिहार्यरूपसे पूर्वोक्त दोष प्राप्त होते हैं, इसलिये असमोचीन दर्शनोंके कथनको पूर्व में जितनी चर्चा की है वह पर्याप्त है। इनके कथनकी अब और आवश्यकता नहीं। अतएव अपने आत्माकी उपलब्धिका नाम ही सिद्धि (मोक्ष) है, इसलिये उक्त कथनसे हमारा सिद्धान्त सिद्ध हुआ और दूसरोंके द्वारा माने गये सिद्धान्तोंका व्याघात हो गया।
६४०२ इस कारण इस प्रकार अनादि कर्मसम्बन्धसे परतन्त्र हआ तथा संसारचक्रमें परिभ्रमण करता हुआ यह आत्मा मोहके उदयसे उपस्थित हए प्रेम और द्वेष संज्ञावाले राग और द्वेष रूप पर्यायको बार-बार प्राप्त होता हुआ तत्पूर्वक मोहनीय और इतर कर्मोकी मूल और उत्तर प्रकृतियोंके भेदसे नानारूप स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंकी अपेक्षा विभक्त चार प्रकार की सत्तारूप
१. मु० प्रतौ प्रेय-द्वेषसंज्ञितं इति पाठः । २.प्रेसकापीप्रतौ चतुष्टयी इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पच्छिमखंध-अत्याहियार मायालोभकषायोपयोगांश्च पौनःपुन्येन कालभावोपयोगवर्गणाभिः परिणममाणः लतादार्वस्थिशैलसमानि च कर्मानुभवस्थानानि मन्दमध्यमोत्कृष्टपरिणामवशादसकृत्प्रवर्तयन् बहुविधपरिवर्तनैरनन्तकृत्वः परिवृत्य ततोऽन्तर्लीनभव्यत्वशक्तिसहायः कथंचित्कर्मबंधनेषु द्रव्यादिबाह्यकारणचतुष्टयापेक्षया शिथिलतामापद्यमानेषु संज़िपञ्चेन्द्रियपर्याप्तकत्वादिलक्षणां प्रायोग्यलब्धिमात्मसात्कुर्वाणः देशनालब्धि क्षयोपशमविशुद्धिकरणलब्धीश्च' यथाक्रममासाद्य ततो दर्शनमोहोपशमप्रतिलम्भान्निसर्गाधिगमयोरन्यतरजं तत्वार्थश्रद्वानात्मकं शंकायतीचारविप्रमुक्तं प्रशमसंवेगास्तिक्याभिव्यक्तलक्षणं विशुद्धसम्यग्दर्शनपरिणाममुत्पाद्य तत्समकालमेव विशुद्धं च ज्ञानमधिगम्य समुपलब्धबोधिलामोनिक्षेपनय-प्रमाण-निर्देश-सत्संख्यादिभिरभ्युपायैर्जीवादिपदार्थानां स्वतत्त्वं विधिवत्परिज्ञाय चेतनाचेतनानां मोगोपभोगसाधनानामुत्पत्तिप्रलय-स्वभावावगमाद्विरक्तो वितृष्णस्त्रिगुप्तः पंचसमिति-दशलक्षणधर्मानुष्ठानात्फलदर्शनाच्च निर्वाणप्राप्तिप्रयतनायाभिवधितश्रद्धानो भावनाभिर्भावितात्मानुप्रेक्षाभिः स्थिरीकृतविषयानभिष्वगः संवृतात्मा निरास्त्रवत्वाद् व्यपगताभिनवकर्मोपचयः परीषहजया बाह्याभ्यन्तरतपोऽनुष्ठानादनुभवाच्च
अवस्थाको निरन्तर धारण करता हुआ उन कर्मों के बन्ध, संक्रम, उदय और उदीरणारूप परिणामों को निरन्तर अपने रूप करता हुआ, क्रोधोपयोग, मानोपयोग, मायोपयोग और लोभोपयोगरूपसे कालोपयोग एवं वर्गणाओंद्वारा और भावोपयोगरूप वर्गणाओंद्वारा पुनः-पुनः परिणमन करता हुआ, लता, दारु, अस्थि और शैलके समान कर्मोके अनुभाग स्थानोंको मन्द, मध्यम और उत्कृष्ट परिणामोंके वशसे निरन्तर प्रवर्ताता हुआ, नाना प्रकारके परिवर्तनोंद्वारा अनन्त बार परिभ्रमण करके तत्पश्चात् भीतर योग्यतारूपसे प्राप्त भव्यत्व शक्तिकी सहायतावश किसी प्रकार कर्मबन्धनोंके द्रव्यादि बाह्य चार प्रकारके कारणोंकी अपेक्षा शिथिलताको प्राप्त होनेपर संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकादि लक्षणवाली प्रायोग्यलब्धिको आत्मसात् करता हुआ, देशनालब्धि, क्षयोपशमलब्धि, विशद्धिलब्धि और करणलब्धिको क्रमसे प्राप्त करके उनके बलसे दर्शनमोहनीयकर्मके उपशमके प्राप्त होनेसे निसर्गज और अधिगमज अन्यतर तत्त्वार्थश्रद्धानरूप, शंकादि अतीचारोंसे रहित, प्रशमसंवेग-आस्तिक्यकी अभिव्यक्ति (ज्ञापक) लक्षणवाले विशुद्ध सम्यग्दर्शन परिणामको उत्पन्नकर, उसीके समान कालमें विशुद्ध (आत्मानुभूतिरूप) ज्ञानको प्राप्तकर, इस प्रकार बोधिलाभको प्राप्त करता हुआ निक्षेप, नय, प्रमाण तथा निर्देश अस्तित्व संख्या आदि उपायोंसे जीवादि प्रदार्थोके स्वतत्त्वको विधिवत् जानकर भोगोपभोगके साधनरूप चेतन और अचेतन पदार्थोंकी उत्पत्तिस्वभाव और प्रलयस्वभावका ज्ञानहोनेसे विरक्त व तृष्णारहित होता हुआ, तीन गुप्तियोंसे गुप्त (सुरक्षित) हुआ, पाँच समितियों और दशलक्षण धर्मके अनुष्ठानसे युक्त संसार और उनके कारणोंसे प्राप्त हुए चतुर्गतिपरिभ्रमणरूप फलके श्रद्धानको प्राप्त हुई विशुद्धिद्वारा बढ़ाता हुआ, भाई-गई आत्मानुप्रेक्षारूप बारह भावनाओंकेद्वारा विषयोंकी अभिलाषासे रहितपने को जिसने स्थिर कर लिया है ऐसा संवृत
१. प्रेसकापीप्रती लब्धिश्च इति पाठः। २. आ० प्रतौ परीषहचयात् इति पाठः ।
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शास्त्रार्थसंग्रहः ]
पूर्वोपचितं कर्म निर्जरयन् श्रेण्यारोहणात्पूर्वमेव क्षपितसप्तप्रकृतिकः संयमानुपालनविशुद्धिस्थानविशेषाणामुत्तरोत्तरप्रतिपत्या घटमानोऽत्यन्त प्रहीणार्त्तरौद्रध्यानाशुभलेश्यापरिणामः सुविशुद्धलेश्याधर्मध्यानपरिचयादवाप्तसमाधिबलः, उत्तमसंहननचरिमोत्तमदेहधारी मवन् उपशमश्रेणि प्रायोग्यान् परिणामान् यथाक्रममुल्लंघ्य मोक्षनिःश्रेणिनिविशेषां क्षपकश्रेणिमारोहंस्तत्रापूर्वानिवृत्तिकरण-सूक्ष्मसाम्परायक्षपक- गुणस्थानेषु प्रथमशुक्लध्यानेन प्रवर्तमानः पूर्वोक्तेनानुक्रमेण मोहनीयं क्षयं नीत्वा ततः क्षीणकषायभावमास्थाय तत्र द्वितीय शुक्लध्यानाग्निना ज्ञानदृगावरणान्तरायप्रकृतीरपुनर्भवाय पूर्वोदितेन विधिना भस्मसाद्भावमानीय स्वयंभूत्वपर्यायेण परिणतः सर्वज्ञेयज्ञानलक्ष्मीमनुभूय ततो यथाक्रममसंख्यातगुणश्रेण्या कर्मप्रदेशान्निर्जरयन् भव्यजनहितोपदेशाय विहृत्योपसंहृतविहारोऽन्तर्मुहूर्त शेषायुष्को यदा भवति तदा तीर्थकर केवली इतरकेवली वा समुद्धातेनान्यथा वा समीकृताघातिचतुष्टय स्थिति विशेषस्तृतीयशुक्लध्यानेन विशुद्धयोगत्वादन्तर्मुहूर्तमयोगिगुणस्थाने शैलेश्य मलेश्यभावेन प्रतिपद्य ततः शेषकर्मक्षयाद्भवबंधननिर्मुको निर्दग्धपूर्वोपादानेन्धनो निरुपदा इव वह्निः पूर्वोपात्तभववियोगात् हेत्वभावाच्चोत्तरस्याप्रादुर्भावादनन्त संसारदुःखमतिक्रान्तश्चरमदेहात् किंचिन्न्यूनजीवधन परि
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आत्मारूप होता हुआ निरास्रव होनेसे नये कर्मोंके उपचयसे रहित होता हुआ, परीषहजय और बाह्याम्यन्तर तपके अनुष्ठान के अनुभवसे पूर्व में उपचित हुए कर्मोंकी निर्जरा करता हुआ, श्रेणिपर आरोहण करनेके पूर्व ही दर्शनमोहनीयकी तीन और चार अनन्तानुबन्धी इन सात मोहनीयकर्मसम्बन्धी प्रकृतियों का क्षय करके संयमका अनुपालन और विशुद्धिस्थान विशेषोंकी उत्तरोत्तर प्राप्तिसे आर्तध्यान, रौद्रध्यान और अशुभ लेश्या परिणामोंको अत्यन्त क्षीण करके सुविशुद्ध लेश्यारूप धर्म्यध्यान परिणाम से समाधिको प्राप्त होकर उत्तम संहनन, उत्तम चारित्र और उत्तम देहका धारी होता हुआ उपशमश्रेणके योग्य परिणामोंको क्रमसे उल्लंघन करके मोक्षकी श्रोणिरूप भेदरहित क्षपक श्रेणिपर आरोहण करता हुआ उसमें अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायरूप क्षपक गुणस्थानों में प्रथम शुक्लध्यानरूपसे प्रवर्तमान होता हुआ पूर्वोक्त क्रमसे मोहनीय कर्मका क्षय करके उसके बाद क्षीणकषायभावको प्राप्तकर वहाँ दूसरे शुक्लध्यानरूप अग्निकेद्वारा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मकी प्रकृतियोंका पुनः वे उत्पन्न न हो जाँय इसलिये पूर्वोक्त विधिसे भस्मसाद्भावको प्राप्त करके स्वयम्भूरूप अपनी पर्यायपरिणत होता हुआ समस्त ज्ञेयरूपसे ज्ञानलक्ष्मीका अनुभव करके तत्पश्चात् क्रमसे असंख्यात गुणश्रेणिद्वारा कर्म प्रदेशों की निजरा करता हुआ भव्यजनों को हितका उपदेश देनेकेलिये विहार करके अन्त में विहारका उपसंहार करता हुआ जब अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आयु शेष रहती है तब तीर्थंकर केवली या सामान्य केवलो या समुद्धातसे या अन्य प्रकार चार अघाति कर्मों की स्थिति विशेषको समान करके तृतीय शुलध्यानकेद्वारा विशुद्ध योगरूप होनेसे अन्तर्मुहूर्तं कालतक अयोगिकेवली गुणस्थानमें अलेश्यपने और शोलके ईश्वरपनेको प्राप्तकर उसके बाद शेष कर्मोंका क्षय होनेसे भवबन्धनसे मुक्त होता हुआ, पहले प्राप्त किये गये ईंधनको प्रतिपक्षरहित वह्निके समान जलाकर पहले प्राप्त हुए भवका वियोग होनेसे, हेतुका अभाव होनेसे और उत्तर भवकी उत्पत्ति न होनेसे अनन्त संसार सम्बन्धी दुःखोंसे मुक्त होता हुआ तथा अन्तिम देह
२५
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१९.
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पच्छिमखंध-अत्थाहियार णामस्तदाकार एवमूर्तिः समयेन लोकशिखरमधितिष्ठन्नात्यंतिकमैकान्तिकं निरतिशयं निरुपमं निर्वाणसुखमव्याबाधमचलमनामयमवाप्य शीतीभृतो निवृतीति शास्त्रार्थसंग्रहः । उक्तं च--
अनादिकर्मसम्बन्धपरतंत्रो विमूढधीः । संसारचक्रमारूढो वंभ्रमीत्यात्मसारथिः ॥ १ ॥ स त्वन्तर्बाह्यहेतुभ्यां मन्यात्मा लब्धचेतनः । सम्यग्दर्शनसद्रत्नमादत्ते मुक्तिकारणम् ।। २ ।। मिथ्यात्वकईमापायात्प्रसन्नतरमानसः । ततो जीवादितत्त्वानां याथात्म्यमधिगच्छति ॥ ३ ॥ अहं ममात्रवो बन्धः संवरो निर्जरा क्षयः।। कर्मणामिति तत्वार्थस्तदा समवबुध्यते ॥ ४ ॥ हेयोपादेयतत्त्वज्ञो मुमुक्षुः शुभभावनः । संसारिकेषु भोगेषु विरज्यति मुहुर्मुहुः ॥ ५ ॥ 'एवं तत्त्वपरिज्ञानाद्विरक्तस्यात्मनो भृशं । निरास्रवत्वाच्छिन्नायां नवायां कर्मसन्ततौ ।। ६॥
किंचित् न्यून जीवधनपरिणामवाला तदाकार ही अमूर्तिरूपसे लोकके शिखरको प्राप्त होता हुआ आत्यन्तिक, ऐकान्तिक, निरतिशय, निरुपम, अव्याबाध, अचल और आमयरहित निर्वाण सुखको प्राप्तकर परमशान्त दशाको प्राप्त होता हुआ निर्वाणको प्राप्त होता है, यह पूरे शास्त्रका समुच्चयरूप अथं है। कहा है
अनादि कालसे एक क्षेत्रावगाहरूपसे चले आ रहे कर्मों के सम्बन्धसे परतन्त्र हुआ यह अज्ञानी जीव सारथि बनकर संसाररूपी चक्रपर आरुढ़ हुआ घूमता रहता है ॥ १ ॥
किन्तु जो भव्यात्मा है और जिसने आत्माके अस्तित्वको प्राप्त कर लिया है वह अन्तरंग और बहिरंग हेतुओंकेद्वारा मुक्तिके कारणरूप सम्यग्दर्शनरूपी सच्चे रत्नको प्राप्त करता है ॥२॥
मिथ्यात्वरूपी कीचड़के दूर होनेसे जिसका मानस अत्यन्त प्रसन्न हुआ है वह इस कारण जीवादि पदार्थोके यथार्थपनेको जाननेमें समर्थ होता है ।। ३ ॥
में ज्ञान-दर्शनरूप चेतनमूर्ति आत्मा हूँ, मेरे कर्मोंका आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और कर्मोंका पूरा क्षयरूप मोक्ष ये सात तत्त्वार्थ भले प्रकार जानने में आते हैं ॥ ४ ॥
जिस मुमुक्षुने हेय और उपादेय तत्त्वको जान लिया है तथा जो शुभ भावनावाला है वही सांसारिक भोगोंसे बार-बार विरक्त होता है ।। ५ ।।
इस प्रकार तत्त्वके परिज्ञानवश विरक्त हुए आत्माके निरास्रव हो जानेके कारण नई कर्मपरम्परा छिन्न हो जाती है अर्थात् नई कर्मपरम्पराका आस्रव रुक जाता है ।। ६ ।। १. इत आरम्यानेतनाः श्लोकाः तत्त्वार्थसारे मोक्षप्रकरणे २० तमाङ्कादुपलम्यन्ते ।
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शास्त्रार्थसंग्रहः ]
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पूर्वाजितं क्षपयतो यथोक्तैः क्षयहेतुभिः । संसारबीजं कात्स्येंन मोहनीयः प्रहीयते ॥ ७ ॥ ततोऽन्तरायज्ञानघ्नदर्शनघ्नान्यनन्तरम् प्रीयन्तेऽस्य युगपत्त्रीणि कर्माण्यशेषतः ॥ ८ ॥ गर्भसूच्यां विनष्टायां यथा बालो' विनश्यति । तथा कर्मक्षयं याति मीहनीय क्षयं गते ॥ ९ ॥ ततः क्षीणचतुष्कर्मा प्राप्तोऽथाख्यातसंयमम् । बीजबन्धननिमुक्तः स्नातकः परमेश्वरः ।। १० ॥ शेषकर्मफलोपेक्षः` शुद्धो बुद्धो निरामयः । सर्वशः सर्वदर्शी च जिनो भवति केवली ॥ ११ ॥ कृत्स्नकर्मक्षयादूर्ध्वं निर्वाणमधिगच्छति । यथा दग्वेन्धनो वह्निर्निरुपादानसन्ततिः ॥ १२ ॥ तदनन्तरमेवोर्ध्वमालोकान्तात्स गच्छति । पूर्वप्रयोगासङ्गत्वाद्बन्धच्छेदोर्ध्वगौरवैः
॥ १३ ॥
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तथा यथोक्त कर्मोके क्षयमें हेतुरूप कारणोंकेद्वारा संसारका मूल कारण मोहनीय कर्म पूरी तरह नष्ट हो जाता है ॥ ७ ॥
तदनन्तर इस जीवके अन्तरायकर्म, ज्ञानावरणकर्म और दर्शनावरणकर्म ये तीनों कर्म एक साथ पूरी तरह क्षयको प्राप्त हो जाते हैं ।। ८ ।
गर्भसूची के विनष्ट हो जानेपर जैसे बालक मर जाता है वैसे ही मोहनीय कर्मके क्षय हो जानेपर समस्त कर्म क्षयको प्राप्त हो जाते हैं ।। ९ ॥
उसके बाद जिसने चार घातिकर्मोंका क्षय कर लिया है और जो अथाख्यात संयमको प्राप्त हुआ है वह बोजबन्धनसे निमुक्त, स्नातक एवं परमेश्वर हो जाता है ॥१०॥
तथा वह शेष कर्मों के फलकी उपेक्षासहित होता हुआ शुद्ध, बुद्ध, निरामय (नीरोग) सर्वज्ञ और सर्वदर्शी केवली जिन होता है ॥ ११ ॥
उसके बाद यह जीव शेष कर्मोंका क्षय हो जानेसे निर्वाणको प्राप्त होता है जैसे कि ईंधन के दग्ध हो जानेपर उपादान सन्ततिसे रहित अग्नि बुझ जाती है ।। १२ ।।
तदनन्तर ही वह जीव पूर्वप्रयोग, असंगपना, बन्धच्छेद तथा ऊर्ध्वगौरवरूप धर्मके कारण लोकके अन्त तक जाता है ॥१३॥
१. आ० प्रती ० नालो इति पाठः ।
२. भा० ख० प्रत्योः फलापेक्षः इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पच्छिमखंध-अत्थाहियार कुलालचक्रे दोलायामिषौ चापि यथेष्यते । पूर्वप्रयोगात्कर्मेह तथा सिद्धगतिः स्मृता ।। १४ ।। मल्लेपसंगनिर्मोक्षायथा दृष्टाऽप्स्वलाचुनः । कर्मसंगविनिर्मोक्षात्तथा सिद्धगतिः स्मृताः ॥ १५ ॥ एरण्डयंत्रफेलासु बन्धच्छेदायथा गतिः । कर्मबन्धनविच्छेदात् सिद्धस्यापि तथेष्यते ॥ १६ ।। ऊर्ध्वगौरवधर्माणो जीवा इति जिनोत्तमैः । अधोगौरवधर्माणः पुद्गला इति चोदितम् ।। १७ ॥ यथाऽधस्तियंगूध्वं च लोष्ठवाय्वग्निवीचयः । स्वभावतः प्रवर्तन्ते तथोवंगतिरात्मनाम् ॥ १८ ॥ अतस्तु गतिवैकृत्यं तेषां यदुपलभ्यते । कर्मणः प्रतिघाताच्च प्रयोगाच्च तदिष्यते ॥ १९ ॥ अधस्तिर्यगावं च जीवानां कर्मजा गतिः । ऊर्ध्वमेव स्वभावेन भवति क्षीणकर्मणाम् ॥ २० ॥ उत्पत्तिश्च विनाशश्च प्रकाशतमसोरिह । युगपद्भवतो यद्वत्तथा निर्वाणकर्मणोः ॥ २१ ॥
जिस प्रकार क्रम्हारके चक्रमें, हिंडोलामें और वाणमें पूर्वप्रयोग आदि कारणवश क्रिया होती है उसी प्रकार सिद्धगति जाननी चाहिये ॥१४॥
जिस प्रकार पानीमें सिट्रोके लेपका सम्बन्ध छूट जानेसे, तूंवडीकी ऊर्ध्वगति देखी जाती है उसी प्रकार कर्मोंके बन्धनके पूरी तरहसे विच्छिन्न हो जानेके कारण सिद्धोंकी ऊर्ध्वगति जाननी चाहिये ॥१५॥
एरण्डको बोंडोके फूटनेपर बन्धनके छिन्न होनेसे जिस प्रकार एरण्डके बीजको ऊर्ध्वगति होती है उसी प्रकार कर्मबन्धनका विच्छेद होनेसे सिद्धोंको भी उर्ध्वगति स्वीकार की गई है ।।१६।।
जिनेन्द्रदेवने जीवोंको ऊर्ध्वगोरवधर्मवाला और पुग्दलोंको अधोगौरवधर्मवाला कहा है।।१७॥
जिस प्रकार ढेला, वायु और अग्निज्वालाकी क्रमसे नीचेकी ओर, तिरछी और ऊपरकी ओर स्वभावतः गति होती है उसी प्रकार आत्माओंको [मुक्त होनेपर] स्वभावतः ऊर्ध्वगति होती है ॥१८॥
इसलिये उन वस्तुओंमें जो गतिकी विकृति उपलब्ध होती है वह कर्मोंके कारण, प्रतिघातवश या प्रयोगवश कही जाती है ॥१९॥
कर्मोके विपाकके कारण जीवोंकी नीचेकी ओर, तिरछी और ऊपरको ओर [अनियमसे] गति होती है किन्तु जिनका कर्म क्षोण हो गया है ऐसे जीवोंको गति स्वभावसे ही ऊपरकी ओर होती है ।।२०।।
___ जिस प्रकार इस लोकमें प्रकाशको उत्पत्ति और अन्धकारका विनाश एक साथ होते हैं उसी प्रकार जीवका निर्वाण और कर्मोका विनाश एक साथ होते हैं ॥२१॥
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शास्त्रार्थसंग्रहः]
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दग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्कुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्कुरः ॥ २२ ॥ तन्वी मनोज्ञां सुरभिः पुण्या परमभास्वरा । प्राग्भारा नाम वसुधा लोकमूर्ध्नि व्यवस्थिता ॥ २३ ॥ नृलोकतुल्यविष्कम्भा' सितच्छत्रनिभा शुभा । ऊर्ध्वं तस्या क्षितेः सिद्धा लोकान्ते समवस्थिता ।। २४ ॥ तादात्म्यादुपयुक्तास्ते केवलज्ञानदर्शने । सम्यक्त्वसिद्ध तावस्था हेत्वभावाच्च निष्क्रियाः ॥ २५ ॥ ततोऽप्यूर्ध्वगतिस्तेषां कस्मान्नास्तीति चेन्मतिः । धर्मास्तिकायस्याभावात्स हि हेतुर्गतेः परः ।। २६ ।। संसारविषयातीतं सिद्धानामव्ययं सुखम् । अव्याबाधमिति प्रोक्तं परमं परमर्षिभिः ॥ २७ ॥ स्यादेतदशरीरस्य जन्तोनष्टाष्टकर्मणः । कथं भवति मुक्तस्य सुखमित्यत्र मे शृणु ।। २८ ।।
जिस प्रकार बीजके दग्ध हो जानेपर उससे अंकुर सर्वथा उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार कर्मरूपी बीजके जल जानेपर भवरूपी अंकूरकी उत्पत्ति नहीं होती ॥२२॥
लोकके अग्रभागमें जो पृथिवी अवस्थित है वह छोटी है, मनोज्ञ है. सुगन्धित है, पवित्र है और अत्यन्त देदीप्यमान है । उसका नाम प्राग्भार है ॥२३।।
मनुष्यलोकके समान विस्तारवाली है, सफेद छत्रके समान है और शुभ है। उस पृथिवीके ऊपर लोकके अग्रभागमें सिद्ध भगवान् विराजमान हैं ।।२४।।
तादात्म्य सम्बन्ध होनेके कारण वे सिद्ध परमेष्ठी केवलज्ञान और केवलदर्शनसे सदा उपयुक्त रहते हैं तथा सम्यक्त्व और सिद्ध अवस्थाको प्राप्त हैं। इसके साथ वे हेतुका अभाव होने से परिस्पन्दरूप क्रियासे रहित अर्थात् निष्क्रिय हैं ॥२५॥
लोकके अग्रभागके ऊपर उन सिद्ध भगवन्तोंकी गति किस कारणसे नहीं होती ऐसी यदि आपकी पृच्छा है तो उसका धर्मास्तिकायका अभाव कारण है क्योंकि गतिका वह निमित्तकारण है ।। २६ ॥
सिद्धोंका सुख संसारसम्बन्धी विषयोंसे रहित, अविनाशीक, अव्याबाध और सर्वोत्कृष्ट होता है ऐसा परम ऋषियोंने कहा है ॥ २७ ॥
कोई पृच्छा करे कि शरीररहित और आठ कर्मोंका नाश करनेवाले मुक्तजीवके सुख केसे हो सकता है तो इस पृच्छाका उत्तर सुनो |२८|| १. आ० प्रतौ० अनन्तानन्तविष्कम्भा इति पाठः ।
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[ पच्छिमखंध -अत्याहिवार
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
लोके चतुष्विहार्थेषु सुखशब्दः प्रयुज्यते । विषये वेदना मावे विपाके मोक्ष एव च ।। २१ ।।
सुखो वह्निः सुखो वायुविषयेष्विह कथ्यते । दुःखाभावे च पुरुषः सुखितोऽस्मीति भाषते ॥ ३० ॥ पुण्यकर्म विपाकाच्च सुखमिष्टेन्द्रियार्थजम् । कर्मक्लेशविमोक्षाच्च मोक्षे सुखमनुत्तमम् || ३१ ॥ सुषुप्त्यवस्थया तुल्यां केचिदिच्छन्ति निर्वृतिम् । तदयुक्तं क्रियावत्वात्सुखातिशयतस्तथा ।। ३२ ।।
श्रमक्लममदव्याधिमदनेभ्यश्च संभवात् । मोहापत्तेर्विपाकाच्च दर्शनघ्नस्य कर्मणः ।। ३३ ॥
लोके तत्सद्दशोऽह्यर्थः कृत्स्नेऽप्यन्यो न विद्यते । उपमीयेत तद्येन तस्मान्निरुपमं स्मृतम् ।।३४।।
इस लोक चार अर्थों में सुखशब्द प्रयुक्त होता है। एक इष्ट विषयकी प्राप्ति में, दूसरा वेदनाके अभावमें, तीसरा साता वेदनीय आदि कर्मोके विपाकमें और चौथा मोक्षकी प्राप्तिमें ||२९|
अग्नि सुखरूप है, वायु सुखरूप है। यहाँ इष्ट विषयोंकी प्राप्तिमें सुख कहा जाता है । दुःखके अभाव होनेपर पुरुष कहता है कि मैं सुखी हूँ । यहाँ वेदनाके अभाव में सुख शब्दका प्रयोग हुआ है ||३०||
पुण्य कर्मके उदयसे इन्द्रियाँ और इष्ट पदार्थों की अनुकूलतासे सुख उत्पन्न होता है । यहाँ विपाक अर्थमें सुख शब्दका प्रयोग हुआ है। तथा कर्मक्लेशके अभावसे मोक्षमें सर्वोत्कृष्ट सुख होता है। यहाँ मोक्षमें सुख शब्दका प्रयोग हुआ है ||३१||
कितने ही पुरुष मानते हैं कि निर्वाण सुषुप्त अवस्थाके समान है किन्तु उनका वैसा मानना अयुक्त है, क्योंकि सांसारिक सुखकी प्राप्तिमें क्रिया देखी जाती है जबकि मोक्षसुख निष्क्रिय आत्माका धर्म है । सांसारिक सुखके प्राप्त होनेके बाद पश्चात्ताप एवं अकुलता देखो जाती है जबकि मोक्षसुख आकुलतासे रहित है ||३२||
सुषुप्त अवस्थाकी उत्पत्ति श्रम, खेद, नशा, व्याधि और कामके अधोन होनेसे और इनके सम्भव होनेसे होती है । तथा उसमें दर्शनावरण, निद्रादि कर्मोंके विपाकसे मोहकी उत्पत्ति होती रहती है ||१३||
समस्त लोकमें मोक्षसुखके समान अन्य कोई भी पदार्थ नहीं पाया जाता जिसके साथ उस मोक्षसुखकी उपमा दी जाय, इसलिये वह निरुपम ( उपमारहित) सुख है ||३४|
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शास्त्रार्थसंग्रहः ]
प्रत्यक्षं तद्भगवतामहंतां तैश्च भाषितम् । गृह्यतेऽस्तीत्यतः प्राज्ञैर्न छद्मस्थपरीक्षया ||३५|| इति ।
एवमेत्तिएण पबंघेण णिव्वाणफलपज्जवसाणं खवणाविहिं सचूलियं परिसमाणिय तदो पच्छिमक्खंधे समत्ते खवणाहियारो समप्पइ त्ति जाणावणट्टमुवसंहारमाह
* खवणदंड
समत्तो ।
॥ इति ॥
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वह मोक्षसुख अरहन्त भगवन्तोंके प्रत्यक्ष है तथा उनके द्वारा उस सुखका कथन हुआ है, इसलिये विद्वज्जनोंके द्वारा 'वह है' इस प्रकार स्वीकार किया जाता है । किन्तु छद्मस्थोंकी परीक्षाके द्वारा वह स्वीकार नहीं किया जाता ||३५ ॥
इस प्रकार इतने प्रबन्धकेद्वारा निर्वाणफलको प्राप्ति तक चूलिका सहित क्षपणाविधिको समाप्त कर तदनन्तर पश्चिमस्कन्धके समाप्त होनेपर क्षपणा नामका अधिकार समाप्त होता है, इस बातका ज्ञान कराने के लिये उपसंहारपरक सूत्रको कहते हैं
* इस प्रकार 'क्षपणादण्डक' समाप्त हुआ ।
॥ इति ॥
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१. [ अ ] मूलगाथा और चूर्णिसूत्र
'एस कमो ताव जाव सुहुमसां पराइयस्स पढमट्ठिदिखंडयं चरिमसमयअणिल्लेपिदं । पढमे दिखंड पिल्लेपिदे उदए पदेसग्गं दिस्सदि तं थोवं । विदियाए हिदीए असंखेज्जगुणं । एवं ताव जाव गुणसेढिसीसयं । गुणसेढिसीसयादो अण्णा च एक्का ठिदित्ति असंखेज्जगुणं दिस्सदि । तत्तो विसेसहीणं जाव उक्कस्सिया मोहणीयस्स ठिदिति ।
सुहुमसां पराइयस्स पढमट्ठिदिखंडए पढमसमयणिल्लेविदे गुणसेसि मोत्तूणकेण कारणेण सेसिगासु ठिदीसु एगगोवुच्छासेढी जादा ति एदस्स साहणट्ठमिमाणि अप्पा बहुअपाणि ।
परिशिष्ट
पढमसमय सुहुमसांपराइयस्स मोहणीयस्स गुणसेढिणिक्खेवो विसेसाहिओ । अंतरष्ट्ठिदीओ संखेज्जगुणाओ । सुहुमसांपराइयस्स पेंढमट्ठिदिखंडयं मोहणीये संखेज्जगुणं पढमसमयसुहुमसां पराइयस्स मोहणीयस्स ठिदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं ।
“लोभस विदिय कि वेदयमाणस्स जा पढमट्ठिदी तिस्से पढमट्ठिदीए नाव तिणि आवलियाओ सेसाओ ताव लोभस्स विदियकिट्टीदो लोभस्स तदियकिट्टीए संभदि पदेसग्गं, तेण परं ण संभदि, सम्बं सुहुमसांपराइयकिडीसु संछुम्भदि ।
'लोभस्स विदियकट्टि वेदयमाणस्स जा पढमट्ठिदी तिस्से पढमट्ठिदीए आवलियाए समयाहियाए सेसाए ताघे जा लोभस्स तदियकिट्टी सा सव्वा णिरवयवा सुहुमसांपराइयकिट्टी संपत्ता । जा विदियकिड्डी तिस्से दो आवलिया मोत्तूण समयूणे उदयावलियपविद्धं च सेसं सव्वं सुहुमसांपराइय किट्टीसु संकतं । ताघे चरिमसमयबादरसांपराओ माहणीयस्स चरिमसमयबंधगो ।
से काले पढमसमयहुमसांपराओ । ताचे सुहुमसांपराइयकिट्टीणमसंखेज्जा भागा उदिण्णा । हेट्ठा अणुदिण्णाओ थोवाओ । उवरि अणुदिण्णाओ विसेसाहियाओ । 'मझे उदिण्णाओ सुहुमसांपराइय किट्टीओ असंखेज्जगुणाओ ।
३. पृ० ३ । ४. पृ० ४। ५. पु० ५ । ६. पृ० ७ ॥
१. पृ० १ । ७. पृ० ८ ।
२६
२. पृ० २ । ८. पृ० ९ ।
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जयधवलासहिदे कसा पाहुडे
[ मूलगाथा और चूर्णिसूत्र
सुहुमसां पराइयस्स संखेज्जेसु ठिदिखंडय सहस्सेसु गदेसु जमपच्छिमं ठिदिखंडयं मोहणीय तहि खिंडये उक्कीरमाणे जो 'मोहणीयम्स तस्स गुणसेढिणिक्खेवस्स अग्गग्गादो संखेज्जदिभागो आगाइदो ।
तहि ठिदिखंडये उक्कण्णे तदो पहुडि मोहणीयम्स णत्थि ठिदिघादो | जत्तियं सुहुमसांपराइयद्धाए सेसं तत्तियं मोहणीयस्स ठिदिसंतकम् सेसं ।
'इदाणि सेसाणं गाहाणं सुत्तफासो कायव्वो । तत्थ ताव दसमी सुत्तगाहा । ( १५४) किट्टीकदम्मि कम्मे कं बंधदि कं च वेदयदि अंसे । संकामेदि च के के केसु कामगो होइ ॥ २०७॥ . "एदिस्से पंच भासगाहाओ । तासि समुक्कित्तणा । (१५५) दससु च वस्सस्संतो बंधदि नियमा द सेसगे श्रंसे । देसावरणीयाई जेसिं श्रवणा अस्थि || २०८ ||
'एदिस्से गाहाए विहासा । एदीए गाहाए तिण्डं घादिकम्माणं द्विदिबंधों च अणुभागबंधो च णिद्दिट्ठो । तं जहा । कोहस्स पढमकिडिचरिमसमय वेदगस्स तिन्हं घादिकम्माणं द्विदि बंधो संखेज्जेहिं वस्ससहस्सेहिं परिहाइदूण दसहं वस्साणमंतो जादो। अथाणुभागबंधी तिन्हं घादिकम्माणं किं सव्वधादी देसघादिति । एदेसिं घादिकम्माणं जेसिमोवट्टणा अत्थि ताणि देसघादीणि बंधदि, 'जेसिमोवट्टणा णत्थि ताणि सव्वषादीणि बंधदि । ओवट्टणासण्णा पुव्वं परूविदा |
तो विदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा । तं जहा |
( १५६) चरिमो वादररागो णामागोदाणि वेदणीयं च ।
वस्सस्संतो बंधदि दिवस संतो य जं सेसं ॥ ॥ २०९ ॥ "विहासा । " चरिमसमयबादरसांपराइयस्स णामा - गोद-वेदणीयाणं द्विदिबंधो वस्सं देणं । तिडं घादिकम्माणं मुहुत्तपुधत्ते ट्ठिदिबंधों । एत्तो तदियाए भासगाहाएसमुत्तिणा । जहा ।
१९८
(१५७) चरिमो य सुहुमरागो णामा-गोदाणि वेदणीयं च ।
दिवस संतो बंधादि भिष्णमुहुत्तं तु जं सेसं ॥ २१० ॥ विहासा । चरिमसमय सुहुमसां पराइयस्स णामा - गोदाणं ट्ठिदिबंधो अट्टमुहुत्ता । बंध बारसमुहुत्ता । तिन्हं घादिकम्माणं द्विदिबंधो अंतोमुहुत्तो । एत्तो उत्थीए भासगाहाए समुक्कित्तणा ।
aritrea
१. पृ० १० ।
६. पृ० १६ ।
११. पृ० २० ।
२. पृ० १२ ।
७. पृ० १७ । १२. पृ० २१ ।
३. पृ० १३ ।
८. पृ० १८ ।
४. पृ० १४ ।
९. पृ० १९ ।
५. पृ० १५ ।
१०. पृ० १९ ।
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परिशिष्ट ]
( १५८) अध मदि-सुदयावरणे च अंतराइए च देसमावरणं । लद्धी य वेदयदे सव्वावरणं अलद्धी य ॥२११॥ ate विहासा । जदि सव्वेसिमक्खराणं खओवसमो गढ़ो तदो सुदावरणं मदिआवरणं च देसघादिं वेदयदि । अध एक्कस्स वि अक्खरस्स ण गदो खओवसमो तदो सुद-मदि -आवरणाणि सव्वधादीणि वेदयदि । एवमेदेसिं तिण्डं घादिकम्माणं जासं पयडीणं खओवसमो गदो तासिं पयडीणं देसघादिउदयो । जासि पयडीणं खओवसमो ण गदो तासि पयडीणं सन्त्रघादिउदओ ।
एतो पंचमीए भासगाहाए समुक्कित्तणा ।
(१५९) जस - णाममुच्चगोदं वेदयदि नियमला अनंतगुणं । गुणहीणमंतरायं से काले सेसगा भज्जा ।। २१२ ॥
"विहासा जस - णाममुच्चगोदं च अनंतगुणाए सेटीए वेदयदि । सेसाओ माओ कधं वेदयदि । 'जसणामं परिणामपच्चइयं मणुसतिरिक्खजोणियाणं । जाओ असुहाओ परिणामपच्चइगाओ ताओ अनंतगुणहीणाए सेटीए वेदयदि ति । अंतराइयं सव्वमणंतगुणहीणं वेदयदि । भवोपग्गहियाओं णामाओ छव्विहाए वड्डीए छव्विहाए हाणीए भजिदव्वाओ । 'केवलणाणावरणीयं केवलदंसणावरणीयं जदि सव्वधादिं वेदयदि णियमा अनंतगुणहीणं वेदयदि । सेसं चउव्विहं णाणावरणीयं जदि सव्वधादिं वेदयदि नियमा अनंतगुणहीणं वेदयदि । अध देसघादिं वेदयदि, एत्थ छव्विहाए वड्डीए छविहाए हाणीए भजिदव्वं । एवं चेव दंसणावरणीयस्स जं सव्वधादिं वेदयदि तं णियमा अनंतगुणहीणं । जं देसघादि वेदयदि तं छबिहाए वड्डीए छव्विहाए हाणीए भजिदव्वं । एवमेसा दसमी मूलगाहा किट्टीसु विहासिदा समत्ता । एत्तो एक्कारसमी मूलगाहा
- (१६०) किट्टीकदम्मि कम्मे कं वीचारो दु मोहणीयस्स । सेसागं कम्माणं तहेव के के दु वीचारो ॥ २१३॥
एदिस्स भासगाहा णत्थि । "विहासा । एसा गाहा पुच्छासुत्तं । तदो मोहणीयस्स पुव्वभणिदं । तदो वि पुण इमिस्से गाहाए फस्सकण्णकरणमणुसंवण्णेयव्त्रं । ठिदिघादेण १, ट्ठिदिसंतकम्मेण २, उदएण ३, उदीरणाए ४, ट्ठिदिखंडगेण ५, अणुभागघादेण ६, ठिदिसंतकम्मेण ७, अणुभागसंतकम्मेण ८, बंधेण ९, बंधपरि
१. पृ० २६ ।
६. पृ० ३२ ।
११. पृ० ३७ ।
२. पृ० २७ ।
७. पृ० ३३ ।
१२. पृ० ३८ ।
३. पृ० २८ ।
८. पृ० ३४ ।
४. पृ० २९ । ९. पृ० ३५ ।
१९९
५. पू० ३१ । १०. पृ० ३६ ।
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२००
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ मूलगाथा और चूर्णिसूत्र
हाणीए १० । सेाणि कम्माणि एदेहिं वीचारेहिं अणुमग्गियव्वाणि । अणुमग्गिदे समता एक्कारसमी मूलगाहा भवदि । एक्कारस्स होंति किट्टीए ति पदं समत्तं । 'एत्तो चत्तारि क्खवणाए ति । तत्थ पढममूलगाहा -
( १६१) किं वेदेंतो किटिं खवेदि किं चावि संछुहंतो वा । संछोहणमुदयेण च अणुपुव्वं श्रणणुपुव्वं वा ॥ २१४॥ एदिस्से एक्का भासगाहा । तं जहा ।
(१६२) पढमं विदियं तदियं वेदेंतो वावि संछुतो वा । चरिमं वेदयमाणो खवेदि उभयेण सेसा ॥ २१५ ॥
"विहासा । तं जहा । 'पढमं कोहस्स किट्टि वेदेतो वा खवेदि, अधवा अवेदेंतो संछुतो । जे वे आवलियबंधा दुसमपूणा ते अवेदेतो खवेदि केवलं संछुहंतो चेव । "पढमसमयवेदग पहुडि जाव तिस्से किट्टीए चरिमसमयवेदगो त्ति ताव एदं किट्टि वेदेतो खवेदि । एवमेदं पि पढमकिडि दोहिं पयारेहिं खवेदि किंचि कालं वेदेतो किंचि कालमवेदेंतो संछुतो । जहा पढमकिट्टि खवेदि तहा विदियं तदियं चउत्थं जाव एक्कारसमिति । 'कोहणी बादर सांपराइयकिट्टीए अव्वहारो । चरिमं वेदेमाणो त्ति अहिप्पायो जामसां पराइ किडी ता चरिमा, तदो तं चरिमकिट्टिं वेदेंतों खवेदि, ण संछुहंतो । "सेसाणं किडीणं दो दो आवलियबंधे दुसमपूणे चरिमे संछुहंतो चैव खवेदि, ण वेदेंतो । रिमकिडिं वज्ज दो आवलियदुसमपूणे च वज्जणं सेसकिट्टीणं तमुभयेण खवेदि । “किं उभयेणेत्ति वेदॆतो च संछुहंतो च एवमुभयं । "एतो विदियमूलगाहा ।
(१६३) जं वेदेंतो किहिं खवेदि किं चावि बंधगो तिस्से ।
जं चावि संछुहंतो तिस्से किं बंधगो चावि ॥ २१६ ॥ "एदिस्से गाहाए एक्का भासगाहा । जहा ।
(१६४) जं जावि संछुहंतो खवेदि किट्टि अबंधगो तिस्से । सुमम्हि सांपराए अबंधगो बंधनिद्दएसिं ॥ २१७ || "विहासा । जं खवेदि किट्टि णियमा तिस्से बंधगो मोत्तूण दो आवलियबंधे दुसमपूर्ण हुमसां पराइय किडीओ च ।
* एत्तो तदिया मूलगाहा । तं जहा ।
१. पृ० ४० ।
६. पु० ४५ ।
११. पृ० ५० ।
२. पृ० ४१ ।
७. पृ० ४६ । १२. पृ०५१ ।
३. पृ० ४२ ।
८. पृ० ४७ । १३. पृ० ५२ ।
४. पृ० ४३ ।
९. पृ० ४८ । १४. पृ० ५३ ।
५. ५० ४४ । १०. पृ० ४९ ।
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परिशिष्ट ]
२०१ (१६५) जं जं खवेदि किडिं हिदि-अणुभागेसु केसुदीरेदि ।
संछुहदि अण्णकिटिं के काले तासु अण्णासु ॥२१८।। 'एदिस्से दस मूलगाहाओ । तत्थ पढमाए भासगाहाए समुक्कित्तणाण । (१६६) बंधो व संकमो वा णियमा सव्वेसु हिदिविसेसेसु ।
सव्वेसु चाणुभागेसु संकमो मसिनो उदओ ॥२१९॥ 'बंधो व संकमो वा णियमा सव्वेसु हिदिविसेसेसु' ति एदं पुच्छासुत्तं । तं जहा । 'बंधो व संकमो वा णियमा सव्वेसु हिदिविसेसेसु त्ति एदं णव्वदि णिघि8 त्ति एदं पुण पुच्छिदे किं सव्वेसु द्विविविसेसेसु, आहो ण सव्वेसु । तदो वत्तव्वंण सव्वेसु त्ति। किट्टीवेदगे पगदं ति चत्तारि मासा एत्तिगाओ द्विदीओ वनंति । आवलियपविट्ठाओ मोत्तण सेसाओ संकामिज्जति । 'सव्वेसु चाणुभागेसु संकमो मज्झिमो उदयो त्ति एदं सव्वं वाकरणसुत्तं । सव्वाओ किट्टीओ संकमंति । "ज किट्टि वेदयदि तिस्से मज्झिमकिट्टीओ उदिण्णाओ। एत्तो विदियाए मासगाहाए समुक्कित्तणा । जहा(१६७) संकामेदि उदीरेदि चावि सव्वेहिं हिदिविसेसेहिं ।
किट्टीए अणभागे वेदेतो मजिसमो णियमा ।।२२०।।
"विहासा। एसा वि गाहा पुच्छासुतं । 'किं सव्वे द्विदिविसेसे संकामेदि उदीरेदि वा आहो ण वत्तव्वं । आवलियपविटुं मोत्तूण सेसाओ सव्वाओ द्विदीओ संकामेदि उदीरेदि च । जं किढि वेदेदि तिस्से मज्झिमकिट्टीओ उदीरेदि । एत्तो तदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा। (१६८) ओकड्डदिजे अंसे से काले किण्णु ते पवेसेदि ।
प्रोकड्डिदे च पुव्वं सरिसमसरिसे पवेसेदि ॥२२१॥ __. 'विहासा । एसा वि गाहा पुच्छासुत्तं । ओकडदि जे अंसे से काले किण्णु ते पवेसेदि आहो ण ? वत्तव्वं । पवेसेदि ओकड्डिदे च पुवमणंतरपुव्वगेण । °सरिसमसरिसे त्ति णाम का सण्णा । जदि जे अणभागे उदीरेदि एक्किस्से वग्गणाए सव्वे ते सरिसा णाम | अध जे उदीरिदे अणेगासु वग्गणासु ते असरिसा णाम । "एदीए सण्णाए से काले जे पवेसेदि ते असरिसे पवेसेदि। "एत्तो चउत्थीए भासगाहाए समक्कित्तणा। तं जहा।
१. पृ० ५५। ६. पृ० ६१ । ११. पृ० ६७ ।
२. पृ० ५७। ७. पृ० ६२ । १२. पृ० ६८।
३. पृ० ५८। ८. पृ० ६३।
४. पृ० ५९ । ९. पृ० ६५ ।
५. पृ० ६० । १०. पृ० ६६ ।
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जयधवलास हिदे कसाय पाहुडे
(१६९) उक्कड्डदि जे अंसे से काले किष्णु ते पवेसेदि । उक्कड्रिडदे च पुव्वं सरिसमसरिसे पवेसेदि ॥ २२२ ॥
२०२
एदं पुच्छासुतं । 'एदिस्से गाहाए किट्टीकरण पहुडि णत्थि अत्थो । हंदि किट्टीकारगो किट्टीवेदगो वा ट्ठिदि-अणुभागेण उक्कड्डुदिति । जो किट्टी कम्मं सिवदिरित्तो जीवो तस्स एसो अत्यो पुव्वं परुविदो । 'एतो पंचमी भासगाहा । (१७०) बंधो व संकमो वा उदयो वा तह पदेसु अभागे । थोवं जे अहेव पुव्वं तहेवेहि ॥ २२३ ||
बहुगं
विहासा । तं जहा । संकामगे च चत्तारि मूलगाहाओ तत्थ जा च मूलगाहा तिस्से तिणि भासगाहाओ तासि जो अत्थो सो इमिस्से व पंचमीए गाहाए अथो काव्वो । एत्तो छट्ठी भासगाहा ।
( १७१ ) जो कम्मंसो पविसदि पत्रोगसा तेण नियमसा अहिओ । पविसद ठिदिक्खएण दु गुणेण गणणादियंतेण ॥ २२४ ॥ " विहामा | जत्तो पाए असंखेज्जाणं समयबद्धाणमुदीरगो तत्तो पाए जमुदीरिज्जदि पदेसग्गं तं थावं । जमघट्ठिदिगं पविसदि तमसंखेज्जगुणं । असंखेज्ज - लोग भागे उदीरिणा अणुत्तसिद्धी । 'एत्तो सत्तमी भासगाहा । तं जहा ।
[ मूलगाथा और चूर्णिसूत्र
( १७२) आवलियं च पविद्वं पचगसा नियमसा च उदयादी | उदयादि पदेसग्गं गुणेण गणणादियंतेण || २२५॥
"विहासा । तं जहा । जमावलियपविङ्कं पदेसग्गं तमुदये थोवं । विदियट्ठी असंखेज्जगुणं । एवमसंखेज्जगुणाए सेढी जाव सव्विस्से आवलियाए । "ए तो अट्ठमी भासगाहा । तं जहा |
(१९७३) जा वग्गणा उदीरेदि अनंता तासु संकमदि एक्का । पुन्वपविट्ठा णियमा एक्किस्से होंति च अनंता ॥ २२६ ॥
विहासा । तं जहा । जा संगइकिट्टी उदिण्या तिस्से उवरि । असंखेज्जदिभागो हेट्ठा वि असंखेज्जदिभागो किट्टीणमणुदिण्णो । मज्झागारे असंखेज्जा भागा "तत्थ जाओ अणुदिण्णाओ किट्टीओ तदो एक्केक्का किट्टी
१३
कट्टणमुदिणा ।
१. पृ० ६९ । ६. पृ० ७५ ।
११. पृ० ८१ ।
२. पृ० ७० ।
७. पृ० ७६ । १२. पृ० ८४ ।
३. पृ० ७१ ।
८. पृ० ७८ ।
१३. पृ० ८५ ।
४. पृ० ७२ ।
९. पृ० ७९ ।
५. पृ० ७४ ।
१०. पृ० ८० ।
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२०३
परिशिष्ट ] सवासु उदिण्णासु किट्टीसु संकमदि । एदेण कारणेण जा वग्गणा उदीरेदि अणंता तासु संकमदि एक्का ति भण्णदि। एक्किस्से वि उदिण्णाए किट्टीए केत्तियाओ किट्टीओ संकमंति । 'जाओ आवलियपुवपविट्ठाओ उदयेण अधट्ठिदिगं विपच्चंति ताओ सव्वाओ एक्किस्से उदिण्णाए किट्टीए संकमंति । एदेण कारणेण पुव्वपविट्ठा एक्किस्से अणंता त्ति भण्णंति । एत्तो णवमी भासगाहा । (१७४) जे चावि य अणुभागा उदीरदा णियमसा पश्रोगेण ।
तेयप्पा अणुभागा पुवपविट्ठा परिणमंति ॥२२७॥
विहासा। जाओ किट्टीओ उदिण्णाओ ताओ पडुच्च अणुदीरिज्जमाणिगाओ वि किट्टीओ जाओ अधट्टिदिगमुदयं पविसंति ताओ उदीरिज्जमाणि याणं किट्टीणं सरिसाओ भवंति । एत्तो दसमी भासगाहा । (१७५) पच्छिम आवलियाए समयूणाए दुजे य अणुभागा।
उक्कस्स हेहिमा मज्झिमासु णियमा परिणमंति ॥२२८।।
"विहासा । पच्छिमआवलिया ति का सण्णा ? जा उदयावलिया सा पच्छिमावलिया। तदो तिस्से उदयावलियाए उदयसमयं मोत्तण सेसेसु समयेसु जा संगहकिट्टीवेदिज्जमाणिगा तिस्से अंतरकिट्टीओ सव्वाओ ताव धरिज्जंति जाव ण उदयं पविट्ठाओ त्ति । 'उदयं जाधे पविट्ठाओ ताधे चेव तिस्से संगहकिट्टीए अग्गकिट्टिमादिं कादण उवरि असंखेज्जदिभागो जहणियं किट्टिमादि कादण हेट्ठा असंखेज्जदिभागो च मझिमकिट्टीसु परिणमदि । खवणाए चउत्थीए मूलगाहाए समुक्कित्तणा । (१७६) "किट्टीदो किटिं पण संकमदि खएण किं पयोगेण ।
कि सेसगम्हि कीट्टीए संकमो होदि अणिस्से ।।२२९।। ‘एदिस्से वे भासगाहाओ। (१७७) किट्टीदो किडिं पुण संकमदे णियमसा पोगेण ।
किट्टीए सेसगं पुण दो श्रावलियाए जं बद्धं ॥२३०।।
'विहासा । जं संगहकिट्टि वेदेण तदो से काले अण्णसंगहकिट्टि पवेदयदि, तदो तिस्से पुव्वसमयवेदिदाए संगहकिट्टीए जे दो आवलियबद्धा दुसमयणा आवलियपविट्ठा च अस्सि समए वेदिज्जमाणिगाए संगहकिट्टीए पओगसा संकमंति ।
१.५० ८६ । ६. पृ० ९१ ।
२. १० ८७ । ७. पृ० ९ ।
३. पृ० ८८। ८. पृ० ९३ ।
४. पृ० ८९ । ९. पृ० ९४ ।
५. पृ० ९० । १०. पृ० ९५ ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ मूलगाथा और चूर्णिसूत्र
एसो पढमभासगाहाए अत्थो । एत्ता विदियभासगाहाए समुक्कित्तणा( १७८) 'समणा च पविट्ठा आवलिया होदि पढमकिहीए । पुण्णा जं वेदयदे एवं दो संकमे होंति ॥२३१॥
२०४
विहासा । तं जहा । अण्णं किट्टि संकममाणस्स पुण्ववेदिदाए समयूणा उदयावलिया वेदिज्जमाणिगाए किट्टीए पडिवुण्णा उदयावलिया; एवं किट्टीवेदगस्स उक्कण दो आवलियाओ । 'ताओ वि किट्टीदो किट्टि संक्रममाणस्स से काले एक्का उदयावलिया भवदि । चउत्थी मूलगाहा खवणाए समत्ता । एसा परूवणा पुरिसवेदगस्स कोण उवदिस्स ।
पुरिस वेदयस्स चैव माणेण उवट्ठिदस्स णाणत्तं वत्तहस्सामा । "तं जहा । अंतरे अकदे णत्थि णाणत्तं । अंतरे कदे णाणत्तं । अंतरे कदे कोहस्स पढमट्ठिदी णत्थि, माणस्स अस्थि । 'सा केम्महंती । जद्देही कोहेण उवदिस्स कोहस्स पढमट्ठिदी, कोहस्स चैव खवणद्धा तद्देही चैव एम्महंती माणेण उवदिस्स माणस पढमट्ठी । "म्हि कोहेण उवट्ठिदो अस्सकण्णकरणं करेदि, माणेण उवट्ठिदो तम्ह काले कोहं खवेदि । 'कोहेण उवदिस्स जा किट्टीकरणद्धा माणेण उवदिस्स तम्हि काले अस्सकण्णकरणद्धा । 'कोहेण उवट्ठिदस्स जा कोहस्स खवणद्धा माणेण उवट्ठिदस्स तम्हि काले किट्टीकरणद्धा । कोहेण उवट्ठिदस्स जा माणस्स खवणद्वा, माण दिस तम्हि चेव काले माणस्स खवणद्धा ।
तो पाए जहि जहा कोहेण उवदिस्स विही तहा माणेण उवदिस्स । "पुरिसवेदस्स मायाए उबट्ठिदस्स णाणत्तं वत्तइस्सामो । तं जहा । कोण Tags जम्महंती कोहस्स पढमट्टिदी | कोहस्स चैव खवणद्धा माणस्स च खवणद्धा मायाए उवट्ठिदस्स एम्महंती मायाए पढमट्ठिदी ।
"कोहेण उवट्ठिदो जम्हि अस्सकण्णकरणं करेदि, मायाए उवट्ठिदो सम्हि कोहं खवेदि । कोहेण उट्ठदो जम्हि किट्टीओ करेदि, मायाए उवट्ठिदो तम्हि माणं खवेदि । " कोहेण उवट्ठिदो जम्हि कोहं खवेदि, मायाए उवट्ठिदो तम्हि अस्सकण्णकरणं करेदि । कोहेण उवट्ठिदो जम्हि माणं खवेदि, मायाए उवट्ठिदों तम्हि किट्टीओ करेदि । "कोण उवट्ठिदो जम्हि मायं खवेदि तम्हि चेव मायाए उवट्ठिदो मायं खवेदि । एत्तो पाए लोभं खवेमाणस्स णत्थि णाणत्तं ।
१. पृ० ९६ ।
६. पृ० १०१ ।
११. पृ० १०६ ।
२. पृ० ९७ ।
७. पृ० १०२ । १२. पृ० १०७ ।
३. पृ० ९८ ।
८. ५० १०३ । १३. पृ० १०८ ।
४. पृ० ९९ । ९. पृ० १०४ ।
५. पृ० १०० । १०. पृ० १०५ ।
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परिशिष्ट]
२०५ पुरिसवेदस्स लोमेण उवद्विदस्स णाणत्तं वत्तइस्सामो। जाव अंतरं ण करेदि ताव णत्थि णाणत्तं । अंतरं करेमाणो लोभस्स पढमहिदि ठवेदि । सा केम्महंती। जद्देही कोहेण उवविदस्स कोहस्स पढमद्विदी, कोहस्स माणस्स मायाए च खवणाद्धा तद्देही लोमेण उवडिदस्स पढमद्विदी । कोहेण उवद्विदो जम्हि अस्सकण्णकरणं करेदि, लोभेण उवढिदो तम्हि माणं खवेदि । कोहेण उवढिदो जम्हि कोहं खवेदि, लोमेण उवद्विदो तम्हि माणं खवेदि । कोहेण उवद्विदो जम्हि माणं खवेदि, लोभेण उवद्विदो तम्हि अस्सकण्णकरणं करेदि । 'कोहए उवद्विदो जम्हि मायं खवेदि, लोभेण उवट्ठिदो तम्हि किट्टीओ करेदि । कोहेण उवद्विदो जम्हि लोभं खवेदि, तम्हि चेव लोभेण उवट्ठिदो लोभ खवेदि । एसा सव्वा सण्णिकासणा पुरिसवेदेण उवविदस्म ।
इथिवेदेण उवद्विदस्स खवगस्स णाणत्तं वत्तइस्सामो । तं जहा जाव अंतरंग करेदि ताव गस्थि णाणत्तं । अंतरं करेमाणो इत्थीवेदस्स खवणद्धा तद्दे ही इत्थीवेदस्स उवद्विदस्स इत्थीवेदस्स पढमहिदी। णव सयवेदं खवेमाणस्स पत्थि णाणत्तं, णवुसयवेदे खीणे इत्थीवेदं खवेइ । जम्महंती पुरिसवेदेण उवट्ठिदस्स इत्थीवेदखवणद्धा तम्महंती इत्थीवेदेण उवद्विदस्स इत्थीवेदस्स, खवणद्धा । तदो अवगदवेदो सत्तकम्मसे खवेदि । सत्तण्हं पि कम्माणं तुल्ला खवणद्धा । सेसेसु पदेसु णत्थि णाणत्तं ।
एत्तो णवुसयवेदेण उवढिदस्स खवगस्स णाणत्तं वत्तइस्सामो । जाव अंतरं ण करेदि ताव गत्थि णाणत्तं अंतरं करेमाणो णव सयवेदस्स पढमहिदि ठवेदि । 'जम्महंती इत्थीवेदेण उवद्विदस्स इथिवेदस्स पढमद्विदी तम्महंती णवुसयवेदण उवढिदस्स णवंसयवेदस्स पढमहिदी । तदो अंतर-दुसमयकदे णवुसयवेदं खवेदुमाढत्तो । जद्दे ही पुरिसवेदेण उवट्ठिदस्स णवुसयवेदस्स खवणद्धा तद्दे ही गवुसयवेदेण उवट्टिदस्स णव सयवेदस्स खवणद्धा गदा, ण ताव ण सयवेदो खीयदि । तदो से काले इत्थीवेदं खवेदुमाढत्तो, णव॒सयवेदं पि खवेदि । पुरिसवेदेण उवट्टिदस्स जम्हि इत्थीवेदो खीणो तम्हि चेव णवंसयवेदेण उवट्ठिदस्स इत्थवेद-णवुसयवेदा च दो वि खिज्जति । तदो अवगतवेदो सत्त कम्मंसे खवेदि। सत्तण्हं कम्माणं तुल्ला खवणवा । सेसेसु पदेसु जधा पुरिसवेदेण उवढिदस्स अहीणमदिरित्तं तत्थ णाणत्तं ।
"जाधे चरिमसमयसुहुमसांपराइओ जादो ताधे णामा-गोदाणं द्विदिबंधो अट्ठमुहुत्ता। वेदणीयस्स ट्ठिदिबंधोबारसमुहुत्ता। तिण्हं पादिकम्माणं द्विदिबंधो अंतोमुहुत्तं ।
१. पृ० १०९।
६. पृ० ११४ । ११. पृ० ११८ ।
२. पृ० ११०। ७. पृ० ११४ ।
३. पृ० १११। ८. पृ० ११५।
४. पृ० ११२ । ९. पृ० ११६ ।
५. पृ० ११३ । १०. पृ० ११७ ।
२७
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२०६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ मूलगाथा ओर चूर्णिसूत्र तिण्डं घादिकम्माणं ट्ठिदिसंतकम्मं अंतोमुहुत्तं । णामा-गोद - वेदणीयाणं ट्ठिदिसंतकम्ममसंखेज्जाणि वस्साणि । मोहणीयस्स द्विदिसंतकम्मं णस्सदि ।
'दो पढमसमयखीण कसायो जादो । ताधे चेव हिदि-अणुभाग- पदेसस्स अबंधगो । ' एवं जाव चरिमसमयाहियावलियछ्दुमत्थो ताव तिडं घादिकम्माणमुदीरगो । 'तदो दुरिमसमये णिद्दा - पयलाणमुदयसंतवोच्छेदो | "तदो णाणावरणदंसणावरण-अंतराइयाणमेगसमयेण संतोदय वोच्छेदो | एत्थु से खीणमोहद्धाए useद्धा एक्का मूलगाहा विहासियव्वा । तिस्से समुक्कित्तणा ।
( १७९) खीणेसु कसायेसु य सेसाणं के व होंति वीचारा । खवणा वा अखवणा वा बंधोदयणिज्जरा वापि ॥ २३२ ॥ संपत्थु से एक्का संगहणमूलगाहा विद्दासियन्वा । तिस्से समुक्कित्तणा (१८०) (संकामणमोवट्टण - किट्टीखवणाए खीणमोहंते । खवणाय श्रणुपुवी बोद्धव्वा मोहणीयस्स ॥ २३३ ॥ |
तदो अनंत केवल णाणदंसण-वीरियजुत्तो जिणो केवली सव्वहो सव्वदरिसी भवदि सनोगिजिणो त्ति भण्णइ । " असंखेज्जगुणाए सेटीए पदेसग्गं णिज्जरेमाणो बिहरदिति । "चरितमोहवखवणाति समत्ता । तदो - अनंत केवलणाण- दंसणवीरिजुदो जिणो केवल सव्वण्डो सव्वदरिसी भवदि सजोगिजिणो त्ति भण्णइ ।
१. पृ० ११९ ।
६. पृ० १२६ ॥
११. पृ० १४४ ।
[ब] खवणाहियारचूलिया
१३
" अणमिच्छमिस्ससम्मं अट्ठ व सित्थवेदछक्कं च ।
पुंवेदं च खवेदि दु कोहादीए च संजलणे ॥ १ ॥
१४
'अथ थीण गिद्धिकम्मं णिद्दाणिद्दा य पयलपयला य । अथ णिरय-तिरियणामा झीणा संछोहणादीसु || २ ||
१५
"सव्वस्स मोहणीयस्स आणुपुव्वी य संकमो होइ । लोभकसाये नियमा असंकमो होइ बोद्धव्वो ॥ ३ ॥
संहदि पुरिसवेवे इत्थवेदं णव सयं चेव । सत्तेव णोकसाये णियमा कोहि संछुहदि || ४ ||
२. पृ० १२० ।
७. पृ० १२८ । १२. पू० १३० ।
३. पृ० १२३ ।
८. पृ० १२८ । १३. पृ० १३९ ।
४. पृ० १२४ ।
९. पृ० १३० । १४. पृ० १४० ।
५. पृ० १२५ ।
१०. पृ० १३६ ।
१५. पृ० १४१ ।
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परिशिष्ट ]
कोहं संछुइ माणे माणं मायाए नियमसा छुइ । मायं च छह लोहे पडिलोमो संकमो णत्थि ॥५॥
१. पृ० १४२ ।
६. पृ० १५१ ।
११. पृ० १५६ ।
जो जम्हि संछुहंतो णियमा बंधम्हि होह संछुहणा | बंधे हीणदरगे अहिये वा संकमो णत्थि || ६ || 'बंधे होइ उदयो अहिओ उदयेण संक्रमो अहिओ । गुणसेढि अनंतगुणा बोद्धव्वा होइ अणुभागे ||७|| बंधे होइ उदयो अहिओ उदयेण संकमो अहिओ । गुणसेढि असंखेज्जा च पदेसग्गेण बोद्धव्वा ||८|| उदयो च अनंतगुणो संपहि बंधेण होइ अणुभागे । से काले उदयादो संपहि बंधो अनंतगुणो || १ || चरिमे वादररागे णामागोदाणि वेदणीयं च । वस्सस्संतो बंधदि दिवस संतो य जं सेसं ॥ १० ॥ जं चावि संछुहंतो खवेइ किट्टि अबंधगो तिस्से | सुडुमम्हि संपराये अबंधगो बंधमियराणं ॥ ११ ॥
"जाव ण छदुमत्थादो तिण्डं घादीण वेदगो होइ । अथ अंतरेण खइयो सव्वण्हू सव्वदरिसी य ॥ १२ ॥
[स] पच्छिमखंध - अत्थाहियार
૪
* पच्छिमक्खंधेत्ति अणियोगद्दारे तम्हि इमा मग्गणा । "अंतोमुहुत्ते आउगे सेसे तदो आवज्जिदकरणे कदे तदो केवलिसमुग्धादं करेदि । पढमसमये दंड करेदि । "तम्हि द्विदीए असंखेज्जे भागे हणइ । 'सेसस्स च अणुभागस्स अप्पसत्थाणमणता भागे हदि । तदो विदियसमए कवाडं करेदि । तम्हि सेसिगाए द्विदीए असंखेज्जे भागे हणइ । " " सेसस्स च अणुभागस्स अप्पसत्थाणमणंते भागे हणइ । तदो तदियसमये मंथं करेदि । "ट्ठिदि-अणुभागे तहेव णिज्जरयदि । तदोत्थसमये लोगं पूरेदि । लोगे पुणे एक्का वग्गणा जोगस्स त्ति समजोगो ति णायव्वो । लोगे पुणे अंतमुत्तं द्विदं वेदि । "संखेज्जगुणमाउआदो । एदेसु चदुसु समएस अप्प -
१२
२. पृ० १४३ ।
७. पृ० १५२ । १२. पृ० १५७ ।
३. पृ० १४५ ।
८. पृ० १५३ ।
१५८ ।
१३. पृ०
२०७
४. पृ० १४७ ।
९. पृ० १५४ ।
५. पृ० १४९ ।
१०. पृ० १५५ ।
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________________
२०८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पच्छिमखंध-अत्थाहियार सत्थकम्मंसाणमणुभागस्स अणुसमय-ओवट्टणा । 'एगसमइओ द्विदिखंडयस्स घादो। एत्तो सेसिगाए द्विदीए संखेज्जे भागे हणइ । सेसस्स च अणुभागस्स अणंते भागे हणइ । एत्तो पाए द्विदिखंडयस्स अणुभागखंडयस्स च अंतोमुहुत्तिया उक्कीरणद्धा ।
एतो अंतोमुहुत्तं गंतूण बादरकायजोगेण बादरमणजोगं णिरुंभइ । 'तदो अन्तोमुहुत्तेण बादरकायजोगेण बादरवचिजोगं णिरंभइ । तदो अन्तोमुहुत्तेण बादरकायजोगेण बादर-उस्सासणिस्सासं णिरुंभइ । तदो अन्तोमुहुत्तेण बादरकायजोगेण तमेव बादरकायजोगं णिरुंभइ।
तदो अन्तीमुहुत्तं गंतूण सुहुमकायजोगेण सुहुममणजोगं णिरुंभइ । तदो अंतोमुहुत्तेण सुहुमकायजोगेण सुहुमवचिजोगं णिरंभइ। तदो अंतोमुहुत्तेण सुहुमकायजोगेण सुहुमउस्सासं णिरुंभइ । तदो अन्तोमुहुत्तं गंतूण सुहुमकायजोगेण सुहुमकायजोगं णिरुंभमाणो इमाणि करणाणि करेदि ।
पढमसमये अपुज्वफद्दयाणि करेदि पुवफद्दयाणं हेह्रदो। ‘आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदाणमसंखेज्जदिभागमोकडदि। जीवपदेसाणं च असंखेज्जदिभागमोकड्डदि । "एवमंतोमुहुत्तमपुव्वफयाणि करेदि । 'असंखेज्जगुणहीणए सेढीए जीवपदेसाणं "च असंखेज्जगुणाए सेढीए। "अपुठवफद्दयाणि सेढीए असंखेज्जदिमागो । सेढिवग्गमूलस्स वि असंखेज्जदिभागो। पुव्वफद्दयाणं पि असंखेज्जदिमागो सव्वाणि अपुषफहयाणि । "एत्तो अन्तोमुहुत्तं किट्टीओ करेदि । "अपुन्वफद्दयाणमादिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदाणमसंखेज्जदिभागमोकड्डिज्जदि। जीवपदेसाणमसंखेज्जदिभागमोकड्डदि । “एत्थ अन्तोमुहुत्तं करेदि किट्टीओ असंखेज्जगुणाए सेढीए । जीवपदेसाणमसंखेज्जगुणाए सेढीए । किट्टीगुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। "किट्टीओ सेढीए असंखेज्जदिमागो। अपुव्वफद्दयाणं पि असंखेज्जदिभागो। किट्टीकरणद्धे णिट्ठिदे से काले पुव्वफहयाणि अपुव्वफहयाणि च गासेदि । अन्तोमुहुत्तं किट्ठीगदजोगो होदि। सुहुमकिरियापडिवादिद्माण प्रायदि । "किट्टीणं चरिमसमये असंखेज्जे भागे णासेदि । “जोगम्हि णिरुद्धम्हि आउअ-समाणि कम्माणि होति । तदो अन्तोमुहुत्तं सेलेसि य परिवज्जदि। "समुच्छिण्णकिरियमणियट्टिसुक्कज्माणं झायदि । सेलेसिं अद्धाए झीणाए सव्वकम्मविप्पमुक्को एगसमएण सिद्धिं गच्छइ । .
१. पृ० १५९ ।
६. पृ० १६५। ११. पृ० १६९ । १६. पृ० १७६।
२. पृ० १६१ । ७. पृ० १६६ । १२. पृ० १७० । १७. पृ० १८०।
३. पृ० १६२। ८. पृ० १६७। १३. पृ० १७१। १८. पृ० १८२ ।
४. पृ० १६३ । ९. पृ० १६८। १४. पृ० १७२ । १९. पृ० १८४ ।
५. पृ० १६४ । १०. पृ० १६९ । १५. पृ० १७४ ।
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२. अवतरणसूची
पृष्ठ संख्या
पृष्ठ संख्या
ज
अज्झप्पविज्जणिपुणा अतस्तुगतिवैकृत्यं अधस्तिर्यगधोवं अनादिकर्मसम्बन्ध अब्भमंडलं व सुत्तं असहायणाणदंसण अहं ममास्रवो बन्धः अंतोमुत्तमद्धं
१४६ जगते त्वया हितमवादि १९२ जे ते तिलोयमत्थय १९२ जे मोहसेण्णपच्छिम १९० जेसि णवप्पयारा १४५ जं एत्थत्थक्खलियं १३५
१३६ १४६ १४७ १४६ १४५
१९०
८०
इति पञ्चगुरूनेतान्
१४७
१९३ १९१ १९३ १३२ १४५
इय सुहुमदुरहिगम
१४५
ततोऽन्तरायज्ञानघ्न ततोऽप्यूवंगतिस्तेषां ततः क्षीणचतुष्कर्मा तन्वी मनोज्ञा सुरभिः तव वीर्यविघ्नविलयन तहविगुरुसंपदायं तादात्म्यादुपयुक्तास्ते तित्थयरस्स विहारो तृतीयं काययोगस्य ते उसहसेणपमुहा
उत्पत्तिश्चविनाशश्च
१९३
१३७
ऊर्ध्वगौरवधर्माणो
भव
१७९
१४५
एरण्डयन्त्रफेलासु एवं तत्त्वपरिज्ञानाद्
१६०
दण्डप्रथमे समये दग्धे बीजे यथात्यन्तं
१९३
कर्मबन्धनबद्धस्य कर्मबन्धनविच्छेदा कायवाक्यमनसां कुलालचक्रदोलाया कृत्स्नकर्मक्षयादूवं केवलणाणदिवायर क्षायिकमेकमनन्तं
नभस्तलं पल्लवयन्निव नृलोकतुल्यविष्कम्भा
१३८ १९३
१९२
१४६ १९५
१९४
ग
पद्धोरियधम्मपहा १३१ प्रत्यक्षं तद् भगवता
पुण्यकर्मविपाकाच्च १४५ पूर्वाजितं क्षपयतो १९१
मिथ्यात्वकर्दमापायात् १८५ मल्लेपसंगनिर्मोक्षा
गणहरदेवाण णमो गर्भसूच्यां विनष्टायां
१९१
१९०
१९२
चतुर्थस्यादयोगस्य
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________________
२१०
safai वं यथाबीजास्तित्वे
लोके चतुष्विर्थेषु लोके तत्सदृशोह्यर्थः
गर्भसूच्यां विनष्टायां
विरागहेतु प्रभवं विवक्षासन्निधानेऽपि
शब्दब्रह्मेति शाब्दः श्रमक्लममदव्याधि शेषकर्म फलोपेक्षां
य
ल
व
श
जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
पृष्ठ संख्या
१९२
१८६
१९४
१९४
१९१
१३३
१३७
सत्वन्तर्बाह्यहेतुभ्यां सपरं बाहासहियं
सुखो वह्निः सुखो वायुः
सुषुप्त्यवस्था तुल्या सेलेसि संपत्तो
संसार विषयातीतं
संहरति पंचमे
स्यादेतदशरीरस्य
१४६
१९४ हेयोपायतत्त्वज्ञो
१९१
होइ सुगमंपि दुग्गम
स
ह
[ २. . अवतरणसूची
पृष्ठ संख्या
१९०
१३३
१९४
१९४
१८४
१९०
१६०
१९३
१९०
१४५
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________________
३ ऐतिहासिक-नामसूची
पृष्ठ १५६
पृष्ठ १४५ १४५ १४५ १४५
उसहसेण (गणहर) गणहरदेव गाहासुत्तयार गोदम (गणहर) चुण्णिसुत्तयार जयधवलाकुसल
१५८
भट्टारक (वीरसेण) भणंत महावाचय अज्जभंखुखमण महावाचय णागहत्थिखमण विहासासुत्तयार वीरसेण तंतकार
४. ग्रन्थ-नामोल्लेख
पृ०
क
कसायपाहुड चुण्णिसुत्त
१४८ म १४७, १५८ व
महाकम्मपसडिपाहुड वग्गणा
२२-२३
लक
५. न्यायोक्ति अथेत्ययं निपातः पादपूरणेऽथवाणुवसमीकरणे इति शब्दोपादानं स्वोक्तिपरिच्छेदे द्रष्टव्यम् उपयुक्तादन्यच्छेदः इति वचनात् यथोद्देशः तथा निर्देशः इति न्यायात्
६. उपदेशभेद १५८ एत्य दुवे उवएसा अत्थित्ति के वि भणंति । तं कथं ?
महावाचयाणमज्जमखुखमणाणमुवदेसेण लोगे पूरिदे आउगसमं णामा-गोदवेदणीयाणं ठिदिसंतकम्मं ठवेदि महावाचयाणं णागहत्थिखवणाणमुवएसेण लोगे पूरिदे णामा-गोद-वेदणीयाणं द्विदिसंतकम्ममंतोमुहुत्तपमाणं होदि । होतं पि आउगादो संखेज्जगुणमेत्तं ठवेदि त्ति । णवरि एसो वक्खाणसंपदाओ चुण्णिसुत्तविरुद्धो । चुण्णिसुत्ते मुत्तकंठमेव संखेज्जगुणमाउआदो त्ति णिठ्ठित्तादो। तदो पवाइज्जतोवएसो एसो चेव पहाणभावेणावलंवेयव्वो, अण्णहा सुत्तपडिणियत्तावत्तीदो।
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________________
पुराना संस्करण
पृष्ठ पंक्ति
९
२४
५८
शुद्धिपत्र
जयधवला भाग १
प्रश्न या सुझाव
१६ " सो ऐसा भी निश्चय नहीं करना चाहिए", इसकी जगह ' सो ऐसा भी निश्चय नहीं करना चाहिए कि सरागसंयम ही गुणश्रेणिनिर्जरा का कारण है ।' ऐसा पाठ चाहिए ।
( नवीन संस्करण पृ० ८ पं० १५ )
१४ " केवलज्ञानावरण कर्म केवलज्ञान का पूरी तरह से घात नहीं कर सकता है, " इस कथन की जगह 'केवलज्ञानावरण कर्म ज्ञान का पूरी तरह घात नहीं कर सकता है'; ऐसा हो तो ठीक है । ( नवीन संस्करण पृ० २१, पं० २६-२७ ) १९ " यदि जीव और शरीर में एक क्षेत्रावगाहरूप सम्बन्ध नहीं माना जायगा तो जीव के गमन करने पर शरीर को गमन नहीं करना चाहिए ।" यहाँ 'एक क्षेत्रावगाहरूप सम्बन्ध' की जगह 'बन्ध-सम्बन्ध' ; ऐसा होना चाहिए ।
( नवीन संस्करण पृ० ५२, पं० २७-२८ )
२८
समाधान
यह वाक्य आचार्य ने इस अपेक्षा से लिखा है कि सरागसंयम के काल में जो रत्नत्रयरूप आत्मपरिणाम होता है वह असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा का कारण है । उस संयम में जितना रागांश है वह बन्ध का हेतु है, इसलिए उपचार से सरागसंयम को भी कर्मनिर्जरा का कारण कहा गया है । परमार्थ से देखा जाए तो रत्नत्रय - परिणाम स्वयं होता है और उस समय कर्म- निर्जरा स्वयं होती है, ऐसा इनमें अविनाभाव सम्बन्ध है । इस अपेक्षा से रत्नत्रय कर्मनिर्जरा का कारण है, यह यहाँ विवक्षित है । उसमें उपचार करके यहाँ सरागसंयम को भी कर्मनिर्जरा का कारण कहा गया है ।
सामान्य ज्ञानशक्ति का कभी घात होता नहीं, इसीलिए मूल में जो कथन आया है, वह ठीक है । उसी के अनुसार हमने उक्त वाक्य लिखा है । उसमें विवाद नहीं होना चाहिए ।
यहाँ एक क्षेत्रावगाह के विषय में जो शंका उपस्थित की गई है वह ठीक होकर भी प्रकरण के अनुसार उसका खुलासा हो जाता है। वह इस प्रकार है कि निमित- नैमितिकरूप से एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध है, इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए । यहाँ जीव का कर्म के साथ बन्ध, उदय आदि रूप निमित्त नैमित्तिक एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध है और धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्यों का जीव पुद्गल के गति, स्थिति और अवगाह में निमित्त नैमित्तिकरूप से एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध
। यहाँ कालद्रव्य की अपेक्षा कथन नहीं किया । प्रकरण के अनुसार यह उक्त संशोधन का खुलासा है । जीव और कर्म का बन्ध की अपेक्षा जो एकत्व कहा गया है वह असद्भूत व्यवहार नय से ही कहा गया है, परमार्थ से नहीं ।
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२१४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[जयधवला भाग १
पुराना संस्करण पृष्ठ पंक्ति प्रश्न या सुझाव
समाधान ६३ १४ यहाँ "अर्थात् स्थितिबन्ध का अभाव" के शंकाकार ने जो शंका उपस्थित की है वह इस
स्थान पर 'अर्थात् स्थिति का क्षय', अपेक्षा से ठीक नहीं है। क्योंकि वहाँ मूल में उद्धृत होना चाहिए। इसी तरह पं०१५-१६ गाथा का अर्थ मात्र किया गया है। यहाँ भाई कहना में "अर्थात् नवीन कर्मों में स्थिति नहीं चाहते हैं कि स्थिति के क्षय से कर्मों का क्षय होता पड़ती है", इसके स्थान पर 'अर्थात् है. सो केवल स्थिति के ही क्षय से कर्मों का अभाव स्थिति का क्षय होता है', ऐसा चाहिए। नहीं होता। परन्तु प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और
प्रदेशों के बन्ध के अभाव से कर्मों का क्षय होता है । यहाँ बन्ध से मतलब निमित-नैमित्तिकरूप से जीव के साथ चिरकाल से बन्ध को प्राप्त हुए कर्म लेना चाहिए; यहाँ नवीन बन्ध से मतलब नहीं है ।
६७ १० "यदि कहा जाय कि केवली अभूतार्थ यहाँ अभूतार्थ शब्द असत्य के अर्थ में ही आया
का प्रतिपादन करते हैं ....."।" यहाँ है, इसलिए जिज्ञासुओं को वैसा ही समझना चाहिए । 'अभूतार्थ' के स्थान पर 'असत्य' होना सुझाव प्रदाता ने जो समयसार गाथा ४६ का उद्घचाहिए।
रण देकर अपने कथन की पुष्टि करनी चाही है वह | नवीन संस्करण पृ० ६०५० २०] ठीक नहीं है। क्योंकि केवली भगवान् ने जैसा ज्ञेय
है वैसा ही जाना है।
१०५ १४ यहां इस पंक्ति में 'शुद्धयोग' शब्द जो
छपा है वह नहीं होना चाहिए। [ नवीन संस्करण पृ० ९६ पं० १३ ]
इस सम्बन्ध में "शुद्धमनोवाक्कायक्रियाः" इस वाक्य के आधार पर शुद्ध-योग यह अर्थ [गाथा का अर्थ करते हुए ] किया गया है। यह तो हम जानते हैं कि योग शुभ या अशुभ दो ही प्रकार का होता है तथा वह औदयिकभाव स्वरूप है, यह भी हम जनते हैं। पर प्रकृत में शुभ उपयोग के साथ शुद्ध योग यह अर्थ गाथा से फलित होने से हमने वैसा ही अर्थ किया है।
२३२ १७-२१ "एक समयवर्ती पर्याय अर्थपर्याय इस विषय में हमारा इतना कहना है कि
है और चिरकालस्थायी पर्याय पर्याय चाहे अर्थपर्याय हो या व्यञ्जनपर्याय हो, वह व्यञ्जनपर्याय है"; क्या यह हमारा प्रत्येक समय में बदलती है। व्यंजनपर्याय को जो चिन्तन ठीक है; संक्षेप में समझाए। चिरस्थायी कहा गया है वह प्रत्येक समय में होने [नवीन संस्करण पृ० २११ वाली पर्यायों में सदशपने की विवक्षा से ही कहा .० १९-२३ ]
गया है। ऐसा हो अन्यत्र जानना।
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शुद्धिपत्र ]
पुराना संस्करण पृष्ठ पंक्ति
प्रश्न या सुझाव २५१ ५-६ “ कार्य की पूर्ववर्ती पर्याय को प्रागभाव और उत्तरवर्ती पर्याय को प्रध्वंसाभाव कहते हैं "; इसकी जगह ऐसा लिखना उचित होगा : - ' कार्य से पूर्ववर्ती पर्याय में कार्य का प्रागभाव रहता है तथा कार्य से उत्तरकालवर्ती पर्याय में कार्यं का प्रध्वंसाभाव होता है' । [ नवीन संस्करण पृ० २२७ पं० ३१-३२]
२६२ ९-१० द्रव्यार्थिक नयों का विषय मुख्यरूप से द्रव्य होते हुए भी गौणरूप से पर्याय भी लिया गया है ।
सुझाव : - द्रव्यार्थिक नय का विषय गौणरूप से भी पर्याय नहीं है ।
[ नवीन संस्करण पृ० २३७० ३०-३१] २६४५ में "सुद्धे” के स्थान में 'असुद्धे' होना चाहिए ।
[नवीन संस्करण पृ० २४० पं० ४] २६६ ४ ६ २१६ से नया पेरा नहीं होना चाहिए [ नवीन संस्करण पृ० २४१ ]
२९४ २९ " पदार्थ की" के स्थान पर 'कार्य की' होना चहिए ।
[ नवीन संस्करण पु० २६८ पं० २-४ ] पंक्ति १ में " आवरणस्स" के स्थान पर 'आवारयस्स' पद चाहिए तथा पंक्ति ११ में " आवरण का" की जगह 'आवारक का'; ऐसा पाठ होना ठीक लगता है । [नवीन संकरण पृ० ३२६-२७-२८ ]
३५९
२१५
समाधान
जो पुस्तक में छपा है वह संक्षिप्त है । विस्तृत खुलासा इस प्रकार है- अव्यवहित पूर्ववर्ती पर्याययुक्त द्रव्य को प्रागभाव कहते हैं और अव्यवहित उत्तरपर्याय युक्त द्रव्य को कार्य कहते हैं । पूर्ववर्ती पर्याययुक्त द्रव्य का अव्यवहित उत्तरकालवर्ती पर्याययुक्त द्रव्य प्रध्वंसाभाव है ।
है । २८९४ मूल पाठ में 'भवा' है, किन्तु भवा के पश्चात् कोष्ठक में "भावा" बढ़ा दिया है । अर्थ करते हुए पंक्ति २१ में भवन लिखकर भाव लिख दिया है; सो क्यों ? [ नवीन संस्करण पृ० २६३ पं० २]
वर्तमानग्राही नंगम नय की दृष्टि को भी संगृहीत करने के अभिप्राय से ही हमने यह वाक्य लिखा है कि द्रव्यार्थिक नय का विषय मुख्यरूप से द्रव्य होते हुए भी गौणरूप से पर्याय भी लिया गया है ।
सुझाव ठीक है । पर प्रतियों में सुद्धे पाठ उपलब्ध हुआ, इसलिये वैसा रहने दिया है
विषय स्फोट का होने से नया पेरा किया गया
यहाँ प्रागभाव के विनाश की विवक्षा होने से द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव की अपेक्षा कथन करना मुख्य है । इसलिए भव के स्थान में भाव, यह संशोधन किया है । ऐसा करने पर गाथा से कोई विरोध भी नहीं आता; क्योंकि गाथा में जिन प्रकृतियों का उदय भव को निमित्त करके होता है, यह दिखाना मुख्य है । यहाँ वह विवक्षा नहीं है ।
दृष्टान्त को ध्यान में रखकर 'पदर्थ' अर्थ किया है । उसके स्थान में कार्य पद स्वीकार करने में हमें कोई आपत्ति नहीं है ।
प्रकृत में आवरण से ही आवरण करने वाले का ग्रहण हो जाता है, इसलिए मूलपाठ में संशोधन नहीं किया; मूल प्रति के अनुसार ही पाठ रहने दिया है ।
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२१६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[जयधवला भाग १
पुराना संस्करण पृष्ठ पंक्ति प्रश्न या सुझाव
समाधान ४०१ १३-१५ “सनाली के चौदह भागों में से कुछ मारणान्तिक समुद्घात तथा उपपाद की अपेक्षा
कम ६ भाग और एक भाग, दो भाग यह अतीतकालीन स्पर्शन जानना चाहिए । आदि रूप जो स्पर्श कहा है वह क्रम से सामान्य नारकी और दूसरी, तीसरी आदि पृथ्वियों के नारकियों का अतीतकालीन स्पर्शन जानना चाहिए।" [नवीन संस्करण पृ० ३६६ पं० १९) प्रश्न-यह अतीतकालीन स्पर्शन किस अपेक्षा से बनेगा ?
४०३ १४-१५ “मारणांतिक और उपपाद-पद-परिणत खुलासा इस प्रकार है-मारणांतिक समुद्घात
उक्त जीव ही त्रस नाली के बाहर और उपपात परिणत उक्न जीव वसनाली के बाहर पाय जातह, इस बात का ज्ञान कराने भी पाए जाते हैं इसका ज्ञान कराने के लिा उक्त के लिए उक्त जीवों का अतीतकालीन जीवों का अतीतकालीन स्पर्शन सर्व लोक कहा है स्पर्शन दो प्रकार का कहा है"। और विहारवत्स्वस्थान की अपेक्षा त्रसनाली के चौदह निवीन संस्करण पृ० ३६८] भागों में से ८ भाग स्पर्शन कहा है। इस प्रकार कृपया इसका खुलासा करें
अतीतकालीन स्पर्शन दो प्रकार का कहा है।
४०३ २६-२९ यहाँ दूसरे विशेषार्थ में लिखा है- बात यह है कि वैक्रियिक शरीर वालों द्वारा
"वैक्रियिकशरीर नाम कर्म के उदय से मारणांतिक समघात की अपेक्षा त्रसनाली के भीतर जिन्हें वैक्रियिक शरीर प्राप्त है उनका मध्यलोक से नीचे ६ राज और ऊपर ७ राज; इस मारणांतिक समुद्वात अस नाली के तरह तेरह राजू स्पर्शन बनता है। तथा विहारवत् भीतर मध्य लोक से नीचे ६ राजू और स्वस्थान की अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम ८ राजू [ऊपर ऊपर ७ राजू क्षेत्र में ही होता है, ६ राज, नीचे ८ राज़ ] बनता है। इस तरह कुछ इस बात का ज्ञान कराने के लिए कम १३ राजू तथा कुछ कम ८ राजू । इस तरह यहाँ अतीतकालीन स्पर्शन दो प्रकार अतीतकालीन स्पर्शन दो प्रकार का बन जाता है। का कहा है।
शेष सुगम है। नवीन संस्करण पृ० ३६८ पं० २६-२९] कृपया स्पष्ट खुलासा करिए।
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पृष्ठ पंक्ति
३६
५१
५६
अशुद्ध
२२ मरण और व्याघात की
६
जयधवला भाग २
वणफदि' के
५ 'सुहुमवाउ० अपज्ज० स्थान में सुझाव :"सुहुमवाउ० अपज्ज० बादरवणप्फदिपत्तेय० बादरवणप्फदिपत्तेय अपज्ज० बादरणिगोदपदिदि० बादरणिगोदपदिदि - अपज्ज० । वणफदि" ऐसा पाठ चाहिए ।
६३ ४
सुझाव - " संजदा० वत्तव्वं" के स्थान पर 'संजदा० ( जहाक्खाद०) वत्तव्वं' चहिए ।
५८ १० मनुष्यों में मोहनीय विभक्ति वाले मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनी कितने
६८ ४
"सुहुमपुढवि०" के स्थान में सुझाव -- '[ बादरवणफदि पत्तेय० बादरवणप्फदि पत्तेय अपज्ज० बादरणिगोदपदिट्ठिद० बादरणिगोदपदिट्टिद अपज्ज० ] सुहुमपुढवि०' ऐसा पाठ चाहिए ।
“खेत्तभंगो ।” के स्थान में सुझाव 'खेत्तभंगो [वेउब्विय विहत्ति० केवडिय० खे० पोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो; अट्ठ-तेरह चोद्दस भागा वा देसूणा ] '
--
शुद्ध
मरण की ।
मूल प्रति में संजदा० ऐसा पाठ । उसके स्थान में यह सुझाव है । समाधान यह है कि मणपज्जव ० संजदा० ऐसा पाठ है। इसमें मणपज्जव के आगे '0' ऐसा संकेत है । उससे जैसे केवलज्ञानियों का ग्रहण हो जाता है उसी प्रकार संजदा० के आगे जो '०' ऐसा संकेत है उससे अपनी विशेषतासहित संयत के उत्तरभेदों का भी ग्रहण हो जाता है; क्योंकि यहाँ उक्त जीवों में यथासम्भव सभी मार्गणाओं में मोहनीय की विभक्ति और अविभक्ति से युक्त संख्यात जोव ही होते हैं ।
सुझाव ठीक है । मूलताड़ प्रतियों से ही इसका निर्णय हो सकता है कि यह सुझाया गया अंश जोड़ना ठीक है, अथवा अन्य मार्गणाओं में इन्हें गर्भित समझा गया है ।
सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियों में मोहनीय विभक्ति वाले कितने
पृष्ठ ५६ पं०५ के सुझाव का जो समाधान किया है वही यहाँ पर समझना चाहिए।
मूल ताड़पत्रीय प्रतियों में सुझाव के अनुसार पाठ होना चाहिए तभी वह ग्राह्य हो सकता है । अन्यथा ओघ के अनुसार जानना चाहिए। किन्तु स्पर्शन प्ररूपणा में वैक्रियिककाययोगियों का स्पर्शन मूल में छूटा हुआ मान लें तो सुझाव के अनुसार "वैव्विय विहत्ति० केव० खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदि भागो, अट्ठ- तेरस चोद सभागा वा देसूणा", यह स्पर्शन बन जायगा। यह ताड़पत्रीय प्रतियों से विशेष मालूम पड़ सकता है ।
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
शुद्ध
पुरुषवेदी के समान है । सासादन को
X
२१८
पृष्ठ पंक्ति
९५ १२
१०१ २९ मिथ्यात्व को
१०८ २४-२५ विशेष की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त हैं ।
१२६ १
१३० १४
१३४ १०
१३४ २०
१५१ ४
१५१
२२
अशुद्ध
पुरुष वेद के समान है ।
एवं मणुसपज्ज०
पुरुषवेद के
कृष्ण आदि तीन
शेष का
एवं कायजोगि ओरालियमिस्स ०
इसी प्रकार काययोगी, औदारिक मिश्रकाययोगी
एवं पंचिदिय
इसी प्रकार पंचेन्द्रिय
१५८ ४
१५८ २२
१८० २३
१९४ ४
१९४ २०
२२८ २३
२२९ ९
२२९ ३१
२४२ २२ २४२ २५
२४२ २८
२४३ २८
२४३ ३०
२४३ ३१
२४९ २६
२५५
१८
२५८
५
२५८ ११
२६० १६
२६० २९
२६१ १
२६५ ४-५ २७५ २४ मिथ्यात्व में
२८७ १४ तीनों
२८७ १८ तीनों
२८७ २२ तीनों
२९२ २३ तीनों लेश्या वालों के
अविभक्ति वाले
[ अटुक० ]
आठ कषाय
किसी भी जीव के
एवं सामाइय-छेदोव ०
इसी प्रकार सामायिक
स्त्री वेद के किसी एक के
स्त्रीवेद
अतः अन्य वेद
या नपुंसक वेद
दो समय
दो समय
आयु के
जीव असंख्यातवें
सम्यक् प्रकृति की
सम्यग्मिथ्यात्व की
काल ओघ के
सम्यग्मिथ्यात्व
सम्यग्मिथ्यात्व की
ओघ के समान
X
X
एवं मणुस - मणुसपज्ज० पुरुषवेदी के
कापोत, पीत, पद्म; ये तीन
शेष दो का
एवं कायजोग - ओरालिय-ओरालिय- मिस्स ०
इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, ओदारिक
मिश्रकाययोगी
एवं पढमपुढवि-पंचिदिय
इसी प्रकार प्रथम पृथिवी, पंचेन्द्रिय
विभक्ति वाले
बारसक ०
बारह कषाय
किसी भी मिथ्यादृष्टि जीव के
एवं संजद - सामाइय-छेदोव०
इसी प्रकार संयत सामायिक
[ जयधवला भाग २
पुरुष वेद के स्त्रीवेद या नपुंसकवेद अतः पुरुषवेद
X
एक समय
एक समय
काल के
जीव पल्य के असंख्यातवें सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति की सम्यक्त्व प्रकृति की
काल तिर्यञ्च ओघ के
सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व
सम्यक् प्रकृति की
देव ओघ के समान
सासादन में
सब
सब
सब
x
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________________
शुद्धिपत्र ]
पृष्ठ पंक्ति
३१२ ३ संजदासंजद
३१२ ९
संयतासंयत
३१५ ११
अनाहारक काययोगियों में
३१५ २४
४९०४९
३१५ ३०
३२०
२३
१५ योनिमती
३२०
३२८ ३०
१९ ज्योतिषी देवों तक
स्त्रीवेदी मनुष्यों
३२८ ११ कृतकृत्यवेदक सम्य० २२
३२८ १२
३४५
२५ और नपुंसक वेद तेवीस-तेरस
३४८ ३
३४८ १४
३९७
अशुद्ध
३४८
२६
तेईस तेरह
३४९ २३ और नपुंसक वेदी
३४९ २४-२५ तथा नपुंसकवेदी जीव वर्षं पृथक्त्व
३५४ ३१ २१
३५५ ८ सात
३६४ २० दो तीन
३७६ ११ तथा सौधमं
३७९ ३
३७९
३८२
एक मास पृथक्त्व
संखेज्जगुणा
१५ संख्यातगुणे
67
सव्वत्थोवा एकवि०, चउवीसवि०
२३ है । अवस्थित
X
X
३१ अट्ठाईस प्रकृतियों की सता रूप से
अनाहारकों में
५९०४९
शुद्ध
१३
योनिनी ( इसी प्रकार सर्वत्र योनिमती के स्थान में योनिनी समझना, क्योंकि 'तिर्यच' पद के साथ 'योनि' पद लगाने का नियम है । अतः स्त्रीवेदी तियंचों के लिये तिर्यग्योनिनी कहा जायेगा ।
लब्ध्यपर्याप्तकों को छोड़कर ज्योतिषी देवों तक मनुष्यनियों (स्त्रीवेदी मनुष्यों की संज्ञा ही मनुष्यनी है । आगे भी इसी प्रकार समझना चाहिये । ) कृतकृत्यवेदक और क्षायिकसम्य०
२२ व २१
X
X
संखे० गुणा, एकवीस ०
३८२ २४-२५ एक विभक्ति वाले इनसे इक्कीस इक्कीस विभक्ति वाले इनसे एक०
३८६ ४ सत्तम
३८६ १७ सातवीं पृथिवी के
३९३ २७ अपर्याप्त
३९७
तेवीस-बावीस-तेरस ( स्त्रीवेदी का अर्थं द्रव्य से पुरुष हो और भाव से स्त्रीवेदी, ऐसा जानना । )
मास पृथक्त्व ( एक मास पृथक्त्व का भी वही अर्थ है । फिर भी स्पष्टता के लिये संशोधन में ले लिया है । ) तेईस - बाईस - तेरह
X
२१९
X
छह
तीन दो
तथा सामान्य देव व सौधर्म
असंखेज्जगुणा ।
असंख्यातगुणे
सव्वत्योवा एकवीस ० चउवीसवि० संखे० गुणा एक विह०
सत्त०
सातों पृथिवियों के पर्याप्त
X
है । अल्पतर विभक्ति का जघन्य अन्तर दो समय कम दो आवलि और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है । अवस्थित
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________________
शुद्ध
२२० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[जयधवला भाग २ पृष्ठ पंक्ति
अशुद्ध ४०७ १८ कृष्ण आदि तीन
पीत आदि तीन ४१० १० अपज्ज
अपज्ज० तसअपज्ज ४१० ३१ अपर्याप्तक जीवों में
अपर्याप्तक तथा त्रस अपर्याप्तक जीवों में ४११ ८ मणपज्जव० सामा
मणपज्जव० संजद० सामा४११ २८ मनःपर्ययज्ञानी
मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामा४१६ ८ अंतोमहत्तं
अंतोमहत्तं । एवं अपगदवे०। णवरि अप्प० जह०
एगसमओ, उक्क० संखेज्जा समया । ४१६ २८ अन्तर्मुहूर्त है।
अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार अपगतवेदी के जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अल्पतर विभक्ति स्थान वाले जीवों का जघन्य एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात
समय है। ४२२ २९, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, सामान्य पंचेन्द्रिय तिर्यंच सामान्य ४२७ ४ सण्णि
असण्णि ४२७ १३ संज्ञो
असंज्ञी ४२८ १५. देव० विकलेन्द्रिय
देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, ४४२ २९-३० प्रारम्भ में पल्य....उद्वेलना करावें प्रारम्भ में अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करावें ४५० ५ और पल्य का असंख्यातवाँ भाग कम x ४५१ ७ पञ्जत्त-औरालियमिस्स
पज्जत्त-तस अपज्ज० ओरालिय ४५१ २३ अपर्याप्त औदारिक-मिश्र
अपर्याप्त, बस अपर्याप्त, औदारिक-मिश्र ४५४ ३ संखेज्जभागहाणी जहण्णुक्क० संखेज्जभागहाणी-संखेज्जगुणहाणी जहण्णुक्क० ४५४ १५ संख्यातभागहानि का जघन्य संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि का जघन्य ४५५ ३ मंजदासंजद० । चक्खु०
संजदासंजद० । असंजद तिरिक्खभंगो चक्खु ४५५ १५ चाहिए । चक्षुदर्शनी
चाहिए । असंयत जीवों का तिर्यंचों के समान भंग है।
चक्षुदर्शनी ४६० ३ एवं मणपज्जव०
एवं अपगदवेदी-मणपज्जव० ४६० १५ इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी इसी प्रकार अपगतवेदी. मनःपर्ययज्ञानी ४६२ ८ सणित्ति०
सुक्क० सणित्ति० ४६२ २४ संजी जीवों का
शुक्ल लेश्या वाले और संज्ञी जीवों का ४६४ ८ सण्णि
असण्णि ४६४ २६ संज्ञी
असंज्ञी ४६४ ३० असंख्यातवें भाग
संख्यातवें भाग ४६८ ९ मिस्स०-आहार-मिस्स० अकसा० मिस्स० आहार० आहारमिस्स० अपगदवेद० अकसा. ४६८ २८ योगी, आहारमिथकाययोगी, अकषायी योगी, आहारककाययोगो, आहारकमिश्रकाययोगी
अपगतवेदी, अकषायी ४६०. ११ श्रुतज्ञानी
श्रुत अज्ञानी ४२८ १० जहाक्खाद० उवसम०,
जहाक्खाद० अभवसि० उवसम० ४२८ २६ यथाख्यातसंयत-उपशम
यथाख्यातसंयत अभवसिद्धिक, उपशम ४२८ २९-३१ अभव्यों के....नहीं किया है।
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________________
जयधवला भाग ३
ष्ठ पंक्ति १० ४
अशुद्ध पत्तेय अपज्ज०- तेउ
१० १४ जलकालिक १० १५ अग्निकायिक, वायुकायिक
११ ३ बादरे इंदियपज्ज०- बादरपुढवि०
बादर पुढविपज्ज. ११ ११ संयतासंयत ११ २० पर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक ११ २१ कायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक १२ २७ उत्कृष्ट १८ १८ बादर ऐकेन्द्रिय पर्याप्त १८ २७ उत्कृष्ट किसके. १९ १४-१५ मोहनीय की स्थिति १९ ३१ घात करके ३१ २१ सत्त्वकाल एक समय कम
शुद्ध पत्तेयअपज्ज- [सुहुमपुढवि० पज्जत्तापज्जत्त-सुहुमआउ० पज्जत्तापज्जत्त०] तेउजलकायिक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्मजलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, वायुकायिक बादरे इंदियपज्ज०- पुढवि, बादरपुढवि०- बादरपुढवि पज्ज०- आउ०असंयत सम्यग्दृष्टि या संयतासंयत पर्याप्त, पृथ्वीकायिक, बादरपृथ्वीकायिक कायिक पर्याप्त, जलकायिक, बादरजलकायिक, जघन्य बादर एकेन्द्रिय तथा उसके पर्याप्त उत्कृष्ट स्थिति किसके मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति घात न करके सत्वकाल एक समय है, अनुत्कृष्ट स्थिति का जघन्य सत्त्वकाल एक समय कम स्थिति का सस्वकाल
सासादन सम्यग्दृष्टि इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ ।
४२ १५ स्थिति का जघन्य सत्त्वकाल ४६ ३१ शेष ४६ ३२ मिथ्यादृष्टि ४७ ३२-३३ (बीच में) x ४८ ४ कायजोगि० ४८ १४ काययोगी ५० १४ सत्ता५४ ३४ मत्यज्ञानी, श्रतज्ञानी ७२ ७ एवं पंचकाय-सुहुम७२ ३०-३१ पांचो स्थावर काय ७७ ११ संयतासंयत के....इन गुणस्थानों को
पचा मत्यज्ञानी श्रुताज्ञानी एवं सुहुम
८३ २१-२२ और यहाँ मनुष्य जीव ही
मरकर उत्पन्न होते हैं। ८४ ६ चक्खु०- ओहिदसण° ८४ २८ चक्षुदर्शनी अवधि । ११० १२ सामान्य तिर्यञ्चों में
२९
संयतासंयत व शुक्ललेश्या वालों के .... इन मार्गणा स्थानों को और यह उत्कृष्ट स्थिति मिथ्यादृष्टि मनुष्यों से मरकर उत्पन्न होने वाले जीवों के ही संभव हैं । चक्खु०- अचक्खु०- ओहिदसण. चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधि सामान्य पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में
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२२२
पृष्ठ पंक्ति
अशुद्ध
१३४ २५ हानिवाले जीव सबसे....अवस्थान इन दोनों वाले जीव समान होते हानिवाले जीवों से विशेष अवस्थान वाले जीव सबसे
हानिवाले जीव संख्यात गुणे हैं । अवस्थान वाले जीव सबसे
१३४ २६
१३४ ३२
३३
१३५ २२
- १३४
१३५ २३ १३५ २९
१४२ २८. अन्तिम काण्डक की १४३ ३२
अन्तिम काण्डक को
हानिवाले जीव असंख्यात गुणे हैं । अवस्थान इन तीनों वाले जीव
समान हैं ।
१४७ १०
१४७ २९ १५० १८ २०९ १५
दो महिना में
२३५ ३२ अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक
२५४ ४
२५४ १६
२६४ २०
२८० २७
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
असंखे० भागहागी
असंख्यातभाग हानि का अन्तिम स्थिति-काण्डक की
पर्याप्त
२३५ ३३ वायुकायिक, वादर वायुकायिक
पर्याप्त
भवसि०- आहारए. भव्य और
असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय के
समय अन्तर्मुहूर्त
३७७ २१ पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के
३७७ २८-३१ तथा स्त्रीवेद.... कर लेना चाहिये
४९९ ५ [ अज० ]
५०० १०
.
४९९ १९ जीव के अप्रत्याख्यानावरण ४९९ २०-२१ नियम से........ या अजघन्य ?
४९९
३४ असंख्यातगुणी
कि ज० अज० ? अज०,
शुद्ध
हानि सबसे.... अवस्थान दोनों समान होते
हानि से विशेष
अवस्थान सबसे
हानि संख्यात गुणी है । अवस्थान सबसे
हान असंख्यातगुणी है । अवस्थान, ये तीनों समान हैं ।
काण्डक की काण्डक की
[ जयधवला भाग ३
"यदि अन्तिम काण्डक की अन्तिम फालि ) के समय ही संख्यातभाग हानि होती तो अपगतवेदी के संख्यातभाग हानि का • अन्तर अन्तर्मुहूर्तं न कहते ।
संखे० भागहाणी संख्यातभाग हानि का
स्थिति काण्डक की
X
अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक पर्याप्त
वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक पर्याप्त (
भवसि० सणि० आहारए
भव्य, संज्ञी, और
असंज्ञी के
समय कम अन्तर्मुहू पञ्चेन्द्रियों के
तथा स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवों का स्पर्श पञ्चेन्द्रियों के समान है ।
x ["तं तु" का अर्थं महाबंध पुस्तक ३ में यह किया है " जघन्य भी होती है अजघन्य भी । यदि अजघन्य होती है है तो एक समय से लेकर पल्य के असंख्यातवें भाग तक ] जीव के मिथ्यात्व और अप्रत्याख्यानावरण
X असंख्यातवें भाग
कि ज० अज० ( भय एवं जुगुप्सा के सम्बन्ध में [अज] पत्र ५०३, ५०४, ५०७, ५०९, ५१४ पर भी बढ़ाया गया है, सब सातों जगह ( अज०) लेखक से रहा गया हो ऐसा असंभव प्रतीत होता है । और ( अज० ) के बिना भी अर्थ ठीक हो जाता है )
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शुद्धिपत्र 1
पृष्ठ पंक्ति
अशुद्ध ५०० ३० नियम से अजवन्य होती
| जो
५०२ १९-२० स्थिति जघन्य होती है जो अपनी
५०३
१२
५०४ ११
५०४
१४
५०९ १०
५०९ ३०
५०४ ३२-३३ नियम से अजघन्य होती है, जो अपनी
सं० गुण भहिया
५१४
४
५१४ २१
५३१
२३
५३७ ९
कि० ज० अज०
५३७
जघन्य भी होती है अजघन्य भी । यदि अजघन्य होतो है तो वह अपनी
५०५ ३
असंखे गुणभहिया असंख्यातगुणी
५०५ १८ संख्यातगुणी
५०७ ८
तु
किं० ज० अज० १, तं तु
कि० ज० (अज० ) ? अज०, तं ५०७ २८ नियम से अजघन्य होती है ।
जघन्य भी होती है । अजघन्य भी । यदि अजघन्य होती है तो वह
फिर भी वह
कि० ज० [अज] ? अज०,
किं० ज० अज० ?
नियम से अजघन्य होती है फिर भी जघन्य भी होती है अजवन्य भी । यदि अजघन्य होती है तो वह
किं ज० अजह० ? तं तु
जघन्य भी होती है, अजघन्य भी । यदि अजघन्य होती है तो वह अपनी असंख्यातगुणी
X यत्स्थिति विशेष अधिक होती है संख्यातगुणी नहीं होती । यहाँ पर तो वह ही शब्द है जो पत्र ५३७ पंकि ११ व पत्र ५३८ पंक्ति १ में हैं जिनका अर्थ ५३५ पंक्ति ४ के अनुसार नीचे शुद्ध किया जा रहा है । यहाँ पर इसका कोई प्रयोजन नहीं ।
X
५३७ २७ इससे यत्स्थिति विभक्ति संख्यातगुणी है।
३१ पर यत्स्थिति संख्यातगुणी है ।
५४३
१४ ५४३ ३३
वह
कि ज० ( अजह० ) ? अजह० तं तु ० नियम से अजघन्य होती है । जो
अपनी
संख्यातगुणी
ज० ट्टिदि० संखे० गुणा ।
कि ज ० ( अज० ) ? अज,
नियम से अजवन्य होती है जो अपनी जघन्य भी होती है अजघन्य भी । यदि अजघन्य होती है तो वह अपनी
५३८ १५-१६
11
२२३
13
शुद्ध
जवन्य भी होती है, अजघन्य भी । यदि अजघन्य होती है तो
चक्खु० ओहिदंस ० चक्षुदर्शनवाले, अवधि -
स्थिति जघन्य भी होती है अजवन्य भी । यदि अजघन्य होती है तो वह अपनी ("तंतु” मूल में है । पत्र ५०१ १८४९ कहा है कि मिथ्यात्व की जघन्य के )
किं०ज० अज० ? ( सभय बारह कषाय, भय जुगुप्सा जवन्य भी होते हैं अर्थात् भय जुगुप्सा बारह कषाय तीनों एक साथ जघन्य भी होते हैं) किं ज० अज ० ?
पर यह स्थिति विभक्ति संख्यातगुणी है, क्योंकि इसमें निषेकों के समयों का ग्रहण किया है।
11
नोट - पृष्ठ ५३५ पंक्ति ४ का जो अभिप्राय हैं वह ही यहाँ पर है, किन्तु यहाँ पर संक्षेप कर दिया है । किन्तु जो अर्थ ५३५ पंक्ति १९ में किया है वह यहाँ पर होना चाहिए ।
चक्खु ० [ अचक्खु०-] ओहिदंस ० चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, अवधि
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________________
जयधवला भाग ४
पष्ठ पंक्ति अशुद्ध
शुद्ध ३० ३४ भंग तिर्यचों के
भंग पंचेन्द्रिय तिर्यचों के ३१ ४ णवरि मणुसपज्ज०
णवरि मणुस-मणुसपज्ज ३१ १२ मनुष्य इन
मनुष्यनी इन ३१ १५ मनुष्य पर्याप्तकों में
मनुष्य व पर्याप्तकों में ३३ ३ असंखे० भागो । सम्मत्त
असंखे० भागो । अवट्टि० ओघं । सम्मत्त३३ २० भागप्रमाण है । सम्यक्त्व भाग प्रमाण है। अवस्थित स्थितिविभक्ति का काल
ओघ के समान है । सम्यक्त्व ३६ २७ और अल्पतर
x ३६ २८ दो
तीन ५५ ९ असंखेज्जा भागा
संखेज्जा भागा ५५ ३६ असंख्यात
संख्यात ८९ १२ (कोष्टक ५) नहीं हैं । यदि हैं तो नहीं हैं । यदि हैं तो भुज० अल्प० अव० अवक्तव्य
भुज० अल्प० अव० ८९ १७ (कोष्टक ३) ,, १४४ २० एक सागर पृथक्त्व
सागर पृथक्त्व १४८ १६ मिथ्यात्व की स्थिति
मिथ्यात्व की जघन्य स्थिति १६७ २५ संख्यातभाग हानि
असंख्यातभाग हानि १६८ १८ असंख्यातवें
संख्यातवें १७७ १७ अपर्याप्तकों के समान
पर्याप्तकों के समान २१६ १२ मिच्छत्त० असंखे० गुणहाणी०
जहण्णुक्क० अंतोमु० २१६ १२ संखेज्जगुणहाणी०
असंखेज्जभागहाणी २१६ १३ उक्क० अंत्तोमु० । अणंताणु उक्क० अंतोमु०। मिच्छत्त० असंखे० गुणहाणी.
जहण्णुक्क० अंतोमु० । अणंताणु २१६ ३२ संख्यातगुणहानि का
असंख्यातभाग हानि का २३१ ४ सव्वेदिय पुढवि०
सव्वे इंदिय [सन्वसुहुम]-पुढवि० २३१ १६ सब एकेन्द्रिय, पृथ्विकायिक सब एकेन्द्रिय, सब सूक्ष्म, पृथ्वीकायिक २८१ २६ स्वस्थान में
शंका-स्वस्थान में २८१ २९ शंका-ऐसा रहते हए संख्यात भाग ऐसा रहते हए
हानि विभक्ति वालों से २९६ २८ तथा सब उपरिम भाग भी
उससे सब उपरिम भाग ३०० २३-२४ असंख्यातवें भाग प्रमाण
असंख्यात बहुभाग प्रमाण ३१९ ३४ स्थितिसत्कर्म
स्थिति सत्कर्मस्थान ३२२ २२ स्थितिसत्कर्म प्राप्त
स्थितिसत्कर्मस्थान प्राप्त
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________________
पृष्ठ पंक्ति
१५ १२
१६
२१
१७ २७
१९
८
२१
२७
४५
*
२२
१९
२८ ३४
३१ १३
३२ २० २२
३९
३९ २२-२३ साथ रहकर अजघन्य अनुभाग कर लेता है ।
अशुद्ध
जिसके
शरीरग्रहण के
शरीरग्रहण के
उपरिय ग्रैवेयक में
स पर्याप्तक
८२
५
८२ १९
९९ २०
१०० २१
१११ १९
२० पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों में
अवगत वेदियों में
४६ २१
७१ ४
सणक्कुमार
७१ २७
सनत्कुमार
७१ ३५ सनत्कुमार आदि
८०
२७
१६२
१६२
अनुत्कृष्ट
उत्कृष्ट काल
अपनी अपनी
अनुभाग से अधिक का बँध कर लिया अनुभागबन्ध कर मरण कर लिया अनन्तर नीचे उतर कर
अनन्तर नीचे सासादन में उतरकर
साथ रहकर मर जाता है
अनुभाग के काल में एक समय
शेष हो
जह० जहणेण
जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है
जयधवला भाग ५
शुद्ध
काल तक समान अनुभाग
ओ से तीनों ही
सब सबसे थोड़ी है ।
१२० २०
मनुष्य अपर्याप्त
१२४ ३२-३३ संख्यातगुणे हैं । असंख्यात गुणवृद्धि
विभक्ति वाले
१३२ १७ और क्रोध १४३ १८ भी नाश करके
१५३ १७ अनुनग
१९ क्योंकि जघन्य
२३ विशुद्ध से
किसके
शरीरपर्याप्ति के ग्रहण के
शरीरपर्याप्ति के ग्रहण के
देवों में
अपर्याप्तक
उत्कृष्ट
जघन्य काल
अपनी
पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकों में
अपगतवेदियों में
सहस्सार
सहस्रार
सहस्रार आदि
अनुभाग का बंध हुआ, वे अगले समय में मरण को प्राप्त होकर एकेन्द्रिय आदि में उत्पन्न होंगे
जह० जहण्णुक्कस्सेण
जघन्य व उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त है
काल तक असंज्ञी के समान अनुभाग ओध से तथा सामान्य तियंचों में तीनों ही सबसे थोड़ी है ।
मनुष्य पर्याप्त
संख्यातगुणे हैं । संख्यातगुणवृद्धि विभक्ति वाले जीव संख्यातगुणे हैं, असंख्यातगुणवृद्धि विभक्ति वाले
क्रोध
भी नाश करने के पूर्व
अनुभाग
क्योंकि नवीन बंध जघन्य
विशुद्धि से
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________________
२२६
जयधवलासहिदे कसायपाहडे
[जयधवला भाग ५
पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध १८० ९ एवं पढ़माए
१८० ३३ समान है । इसी प्रकार
१८३ ७ तप्पाओग्गविसुद्धस्स ।
१८३ २५ होता है।
१९४ २१ अर्थात् यद्यपि १९८ २० सम्यग्मिथ्यात्व में सम्यक्त्व के १९९ ९ सगहिदी । अणंताणु १९९ २७ स्थिति प्रमाण है । अनन्तानुबंधी
चतुष्क के २०२ १६ प्रकृति के २२१ ३४ ३४५ २२२ २०६३४६ २२२ ३० सर्वार्थसिद्धि तक के २२२ ३३ अनुभाग ही पाया २२२ ३५ ६ ३४७ अब २३१ ९ देसूणा : अणवाणु
[णवरि सम्मामिच्छत्तस्स अणुक्कस्साणभागो णत्थि ] एवं पढमाए समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्व का अनुत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्म नहीं होता] इसी प्रकार तप्पाओग्गविमुद्धस्स । [ सम्मत्त० सम्मामिच्छ० जह० णत्थि ] होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व का जघन्य अनुभाग सत्कर्म नहीं होता। अर्थात् सम्यग्मिथ्यात्व के समान सम्यक्त्व का सगद्विदो। [सम्मामि० उक्कस्स भंगो] अणंताणु० स्थिति प्रमाण है [सम्यग्मिथ्यात्व का उत्कृष्ट के समान भंग है] अनंतानुबंधीचतुष्क के प्रकृति विभक्ति के 8 ३४६ ६३४७ सर्वार्थसिद्धि के उत्कृष्ट अनुभाग ही पाया ६३४८ अब देसूणा०। (सम्मामिच्छत्ताणं एवं चेव । णवरि जहणं णत्थि) अणंताणु स्पर्शन किया है। सम्यग्मिथ्यात्व में भी इसी प्रकार जानना चाहिए । किन्तु जघन्य अनुभाग विभक्ति नहीं है । अनंतानुबंधी चतुष्क की सम्मत्त० (सम्मामिच्छ०) सिया शेष तीन अनन्तानुबंधी कषायों की सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व कदाचित् होता है सम्मत्त० (सम्मामिच्छ०)- बारसक० सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय नवक बंध के स्पर्धकपने को उससे अनन्तानबंधी लोभ का भीतर और उत्कृष्ट काल छब्बीस परिणामवाले दो आवली है। भंगा। [तिण्णि मणुसेसु सम्मामि० भंगा णव] पंचि० होते हैं। [तीन मनुष्यों में सम्यग्मिथ्यात्व के ९ भंग होते हैं ] पंचेन्द्रिय
२३१ ३० स्पर्शन किया है । अनन्तानुबंधी
चतुष्क की
२५३ ११ सम्मत्त० सिया २५३ १८ शेष तीन कषायों की २५३ ३३-३४ सम्यक्त्व कदाचित् होता है २५४ ३ सम्मत्त० बारसक० २५४ १७-१८ सम्यक्त्व, बारह कषाय २६१ १५ नरकबंध के २६१ २३ स्पर्धक अपने को २६४ ३२ लोभ का २७७ १४ भीरत २७८ २८ और छब्बीस ३०२ २७ परिणा वाले " ३१० ३० एक आवली है ३१७ ७ भंगा। पंचिं० ३१७ २४ होते हैं । पंचेन्द्रिय
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________________
२२७
शुद्धिपत्र ] पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध ३३३ १५ अनुभा स्थान ३३३ २८ संज्ञा है ? ३४० ३१ होता, क्योंकि ३४० ३२ अभाव है। ३४५ १२ आत ३४७ २४ प्रमाण परूवणा ३५१ १४ बंधने वाला अनुभाग ३५२ २८ उत्कष्ट ३५४ १५ प्रथम कृण हानि ३५४ ३५ प्रसाण से ३८८ २३ पञ्चादानुपूर्वी ३८९ ३ टाणाणंप माणुप्पत्तीदो । ३८९ २२ सर्वोत्कृष्ट परिणामों के
अनुभाग स्थान संज्ञा कैसे है ? होगा, क्योंकि अभाव है, किन्तु ऐसा है नहीं सात प्रमाण-प्ररूपणा बंधने वाला जघन्य अनुभाग उत्कृष्ट प्रथम गुणहानि प्रमाण से पश्चादानुपूर्वी ट्ठाणाणं पमाणुप्पत्तीदो। सर्वोत्कृष्ट विशुद्धि-परिणामों के
जयधवला भाग ६ पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध
शुद्ध ३६ ३३ प्रदेश विभक्ति
प्रदेश वृद्धि ६५ ३५ भव ८ होता हैं।
भाग ८ होता है। ११९ ३ संजल-पुरिस वेद
संजल०- [इत्थि०] -पुरिसवेद० ११९ ४ इत्थि णवंस०
णस० ११९ २० कषाय और पुरुषवेदकी
कषाय, स्त्रीवेद और पुरुषवेद को ११९ २१ स्त्रीवेद और नपुंसक वेद की नपुंसकवेद की १३७ ३ उत्पकर्षित
उत्कर्षित १४३ ३२ अन्योन्यान्यास
अन्योन्याभ्यास १४३ ३३ उत्सन्न
उत्पन्न १५६ २६ गोपुद्छा
गोपुच्छा १५८ २६ अनुसरण
अननुसरण २२१ ३० एम निषेक को
एक निषेक को २५८ ३३ विसंयोनारूप
विसंयोजनारूप २५८ २७ कये द्रव्य के
गये द्रव्य के २७६ ९ ओदारेद णि
ओदारेद-वाणि २७६ २५ नपुंसकवेद की दो समय की नपुंसकवेद की एक समय की २८५ २९ क्षपिरुकर्माश की
क्षपितकर्माश की
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२२८
पृष्ठ
पंक्ति
२९१ ३०
२९४ चरम पंक्ति
२९५ २४ द्विचरम
२९८ १९
वेदवले
३०६ २९
३४०१२२३४
३०६ २९ ८४ ४२५१४२८ = ३४०१२३३४
३०६ ३०० x ६४२५१५२८
३७६ १५ सद्रप
३८७
३४ बन्ध कर पुनः
पृष्ठ पंक्ति
विषय परिचय :
अशुद्ध
इसलिए इससे एक समय
पीछे जाकर
४२ ३१
४८
२५
४८
२७
१३ ९ तक न्यूतन १३ २२ ( एक सनय मूल ग्रन्थ :
४८ २९
४९ ६
४९
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
शुद्ध
इसलिए इस आवली के अन्त से एक समय पीछे जाकर
चार अंतिम समय
६३
१८
६५ ८
६५ २२ ६५ २२ ६५ २५
अशुद्ध
जघन्य प्रदेश विभक्ति वाले
वर अता
२७ कि अनंतानुबन्धी चतुष्क को
बारहवें कल्प तक तियंच भी
की जघन्य प्रदेश - विभक्तिवाले जीवों ने लोक के
चतुश्चरम समय
त्रिचरम
वेदवाले
जयधवला भाग ७
शुद्ध
नियम से अधिक
भागब्भहिया ।
प्रदेश विभक्ति होती है।
प्रदेश विभक्ति होती है।
असँख्यात्वें भाग अधिक
३४०१२२२४
८x४२५१५२८ = ३४०१२२२४
36
8 x४२५१५२८
सद्रूप
विसंयोजना कर पुन:
तक नूतन ( एक समय
[ जयधवला भाग ६-७
बारहवें कल्प तक मिध्यादृष्टि तिथंच भी की जघन्य और अजघन्य प्रदेश विभक्ति वाले
जीवों ने लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है । अजघन्य प्रदेश - विभक्ति वाले जीवों ने लोक के
जघन्य और अजघन्य प्रदेश विभक्ति वाले
वरि [सम्म० सम्मामि०] अनंताणु०
कि सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धो
चतुष्क की
नियम से विशेष अधिक गुणभहिया ।
प्रदेश विभक्ति भी होती है। प्रदेश विभक्ति भी होती है । असंख्यातगुणी अधिक
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________________
अशुद्ध
की
शुद्धिपत्र ]
२२९ पृष्ठ पंक्ति
७० २२ प्रदेश विभक्ति होती है । प्रदेश विभक्ति भी होती है। १०४ २४ प्रदेश गुहानि स्थानान्तर
प्रदेशगुणहानि स्थानान्तर ११२ १८ उसका संज्वलनों का
उसका चारों संज्वलनों का ११३ ३२ विबृति
विकृति १३५ १४ सम्मामि । अप्प० कस्स० अण्णद० । सम्मामि० अप्प० कस्स ? अण्णद० । १३५ ३४-३५ अन्यतर सम्यग्दृष्टि और अन्यतर के होती है । सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्व की
सम्यग्मिथ्यादष्टि के होती है १३७ २३ उपशम सम्यक्त्व के समय
उपशम सम्यक्त्व के और क्षपणा के समय १३८ १४ भी १४८ १९-२२ या अधिक से अधिक....पृथक्त्व
प्रमाण कहा है। १४८ २८ अन्तर वही है । अनंतानुबंधी चतुक अन्तर वही है (अर्थात् देशोन ३१ सागर है) अनन्तानु
बन्धी चतुष्क की १५१ २८ इनमें अवस्थित विभक्ति
इनमें छः नो कषायों की अवस्थित विभक्ति १६१ २० आठ बटे चौदह
आठ बटे और कुछ कम नौ बटे चौदह १६६ ९ भुज० जह
भुज० [अवत्त०] जह १६६ २७ भुजगार विभक्ति का जघन्य भुजगार विभक्ति और अवक्तव्य विभक्ति का जघन्य १७८ ३३ गुणितकौशिक
क्षपितकर्माशिक १८४ १५ गुण श्रेणियों के स्तिबुक संक्रमण के गुणश्रेणियों में स्तिबुक-संक्रमण के द्वारा उदय में आ
द्वारा उदय में आ गई है १८५ १३ आदेसेण मिच्छत्त
आदेसेण [रइय०] मिच्छत्त१८५ १४ उक्क० वड्डी । हाणी
उक्क० हाणी । वड्डी १८५ ३१ आदेश से मिथ्यात्व
आदेश से नारकियों में मिथ्यात्व १८५ ३३ उत्कृष्ट वृद्धि
उत्कृष्ट हानि १८५ ३३ उत्कृष्ट हानि
उत्कृष्ट वृद्धि १८७ १८ जुगुप्सा की जघन्य हानि
जुगुप्सा की जवन्य वृद्धि, हानि १८७ २६ अवक्तव्य वृद्धि है ।
अवक्तव्य विभक्ति है। १९१ १० आदेसेण मिच्छ०
आदेसेण [गेरइय०] मिच्छ० १९१ २७ आदेश से मिथ्यात्व की
आदेश से नारकियों में मिथ्यात्व की १९१ ३३ तब उसके
तब तक उसके २०३ ६ भागवड्डी० अवट्ठि
भागवड्डी हाणी० अवट्ठि० २०३ २२ भागवृद्धि और
भागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और २०६ ८ असंखे० गुणवड्डो० णत्थि संखे० गुणवड्डी णत्थि २०६ २६ असंख्यातगुणवृद्धि का ।
संख्यातगुणवृद्धि का २०६ ३० पुरुषवेद की असंख्यातगुणहानि पुरुषवेद और नपुंसकवेद की असंख्यातगुणहानि २०७ १ पलिदो० असंखे० भागहा० पलिदो० । असंखे० भागहा० २०७ १७ और एक समय है
और असंख्यातभागहानि का एक समय है
३०
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अशुद्ध
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [जयधवला भाग ७ पृष्ठ पंक्ति २१६ १३ गुणहाणि० अणंतागु०
गुणहाणि० [सम्मत्त-सम्मामि० अवत्त० असंखे० गुणवड्डि०
असंखे० भागवड्डि] अणंताणु २१६ ३३ वाले और अनन्तानुबन्धी वाले सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व की अवक्तव्य,
असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि वाले और अनन्ता
नुबन्धी २१७ १३ अवठि०-असंखे०
अवट्ठि-संखे० २१७ ३५ असंख्यातगुणवृद्धि वाले
संख्यातगुणवृद्धि वाले २१८ ४ सव्वपदा
[सम्वदेव.] सव्वपदा २१८ १९ तिर्यञ्च और सब मनुष्यों में तिर्यञ्च, सब मनुष्य और सब देवों में २२१ २६ नपुंसकवेद की
पुरुषवेद की २२६ १३ गुणवड्डि-हाणि०
गुणहाणि २२६ ३४ असंख्यातगुणवृद्धि २३५ २९ 'झीमझीणं'
'झीणमझीणं' २५४ २८ नकक बंध को
नवकबन्ध की २५६ २० ऊपर प्रथम स्थिति में
ऊपर द्वितीय स्थिति में २८५ २८ आवली प्रमाण गोपुच्छा
आवली-प्रमाण गुणश्रेणीरूप गोपुच्छा २९३ १४ अनन्तानुन्धी
अनन्तानुबन्धी ३०१ १२ यकि
यदि ३०१ १८ अम्तिम
अन्तिम ३२३ २९ स्वामिस्व
स्वामित्व ३४२ २६ काल लक
काल तक ३५८ २२ उत्कृष्ट द्रव्य
जघन्य द्रव्य ३६० १७ क्यों वैसा
क्योंकि वैसा ३६७ ३१ अधःनिषेक स्थिति प्राप्त
यथानिषेक-स्थिति प्राप्त ४०१ ३३ यथानिककाल
यथानिषेक संचयकाल ४०१ ३४-३५ यथानिषेक काल
यथानिषेक संचय काल ४०१ ३५
॥ ४३० १७ जघन्य सत्कर्म के
जघन्य स्थिति सत्कर्म के ४४० २८ उदयस्थिति प्राप्त
अनन्तानुबन्धी के उदय स्थिति प्राप्त ४४२ २६ यथानिषेक-स्थिति प्राप्त
बारह कषाय के यथानिषेक स्थिति प्राप्त
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जयधवला भाग ८
शुद्ध
पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध
१. एक समय बाकी है ७२ २१ चाहिये । किन्तु इतनी
एक समय अधिक उदयावली बाकी है चाहिये । दूसरी से सप्तम पृथ्वी तक भी इसी प्रकार जानना चाहिए । किन्तु इतनी तीसरा स्थान चौबीस प्रकृतियों सं० क्रोध और दो मान के बिना मं० मान और दो माया के बिना प्रतिग्रहस्थान मान संज्वलनरूप जीव ने क्रमशः तीन प्रकार के क्रोध तथा जो अन्तरकरण तक तथा मिश्रगुणस्थान में जानना परिमाणानुगम की होने पर पूरी आवली का
११२ २९ तीसरा स्थान इक्कीस प्रकृतियों १२३ १२ दो मान के बिना १२३ १३ दो माया के बिना १२६ १७ प्रतिग्रस्थान १३५ १९ मान संज्वलन का १३६ २३ जीव ने तीन प्रकार के क्रोध १३६ २५ क्योंकि जो १६५ २४ अन्तकरण १७८ २६ तक जानना २३३ १३ परिणामानुगम की २४५ ३० होने तक पूरी २५० २६ आवति का २५१ ३४ १५ -१ = १५ २५४ २० असंख्यतवा २५८ १७ स्थिति का २६४ ३२-३३ जघन्य स्थिति संक्रम अद्धाच्छेद
होने के बाद २८४ १८ मोहनीय की स्थिति का ३३५ १३ उपार्धपुद्गल परिवर्तन ३४५ ३४ सम्पन्न भंग है। ३५० २१ विशेष अधिक ३५० २८ सिथ्यात्व का ३७१ २४ कुल विशेषता ३८३ ११ वस्ससहस्साणि ३८३ २८ हजार ३८६ ३० जीवराशि के संख्यातवें ४११ ३० सर्वार्थसिद्धि तक के ४२८ २३ है किन्तु इनमें
असंख्यातवाँ अग्रस्थिति का असंक्रामक होकर
मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति का कुछ कम दो छ्यासठ सागर समान भंग है। असंख्यातगुणी मिथ्यात्व का कुछ विशेषता वस्साणि
जीवराशि के असंख्यातवें नववेयक तक के है कि इनमें
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________________
पृष्ठ पंक्ति
अशुद्ध
१८४ ३३ अनुभागविभक्ति के
33
१८५ २३ १८५ २६ अनुभाग विभक्तिसम्बन्धी
१९३ २६ आनरत
१९३
२८
१९५ १५
२०५ २६
२०८ २९
"}
२१६
३३ अनुदिशले
२१६ ३३ लेकस्सर्वार्थसिद्धि
मनुष्वों में
सत्कर्भ के
क्षपितकर्माशिक विधि से
अंतिम समय में द्विचरम स्थिति
काण्डक का
२१७ १३
सम्यक्त्व के
२१७ ३२
न्नौर
२१८ २०-२१ उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस
सागर है ।
२१८ २७
इसी प्रबार
२१८ ३२
सम्यक्त्व का
मिथ्यात्व में रखकर
२१९ १२ २१९ ३१
नोकबायों का
२२० ३४
मय और
२२१ ८ सम्यक्त्व
२२१ १६ सन्यक्त्व
२२१ २१
२२१ २५ पिशेष
२२१ २८
१५
२२२
२२२ १७
२२२ ३१
२२४ २२
२२७ २७
सम्यग्मिथ्यात्व
भोकषायों
नारकी के प्रथम
प्रवृत्तियों के
जयधवला भाग ९
शुद्ध
प्रदेशविभक्ति के
समय एक समय कम
जो सूत्रकार ने
उत्कृष्ट अन्त
जघन्य अन्तर काल
२३४ १५
२३५ १६ १७ सन्यग्मिथ्यात्व
२३५ २७ अन्तर कुछ कम तीन पूर्व
२३७ ३२ अनन्तगुणाहीन
२४० २३ असंख्यागुणे ३३१ १५ सव्वलहुं गंतुण ३३२ १५ जघन्य उद्वेलना
"
11
प्रदेश विभक्तिसम्बन्धी
आनत
मनुष्यों में
सत्कर्म के
कर्माशिक विधि से
द्विचरम स्थितिकाण्डक के अंतिम समय में
अनुदिश से
लेकर सर्वार्थसिद्धि
सम्यक्त्व के
और
उत्कृष्ट काल एक समय है । का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है कम तेतीस सागर है । इसी प्रकार
सम्यक्त्व का
X
नोकषायों का
भय और
सम्यक्त्व
सम्यक्त्व
सम्यग्मिथ्यात्व
विशेष
नोकषायों
देवों के प्रथम
प्रकृतियों के
समय कम
जो चूर्णिसूत्रकार ने
उत्कृष्ट अन्तर
अन्तरकाल
सम्यग्मिथ्यात्व
अन्तर कुछ कम पूर्व असंख्यातगुणाहीन
असंख्यात भाग
सव्वलहु मिच्छत्तं गंतूण
जघन्य काल द्वारा उद्वेलना
अजघन्य प्रदेश संक्रामक और उत्कृष्ट काल कुछ
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शुद्धिपत्र ] पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध ३४५ २८ कुछ कम तीन पल्य
साधिक तीन पल्य ३५५ १६ और एक नाना
और नाना २५८ २० संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । अवस्थित x
और अवक्तव्य संक्रामक जीव ३५८ ३२ कितने हैं ? सोलह
कितने हैं ? असंख्यात हैं। सोलह ३६० २ अवट्ठि० १
अक्त० ३६० १७ अवस्थित और अवक्तव्य संक्रामक अवक्तव्य संक्रामक और असंक्रामक जीवों ने
जीवों ने ३६२ ३० सम्यग्मिथ्यात्व की
सम्यक्त्व की ३६२ ३१ तथा ३६२ ३३ समान है । इसी प्रकार समान है । अनन्तानुबन्धी चतुष्क के भुजगार, अल्पतर
और अवस्थित संक्रामकों का काल सर्वदा है । अवक्तव्य
संक्रामकों का भंग मिथ्यात्व के समान है। इसी प्रकार ३६३ ३३ सम्यक्त्व
सम्यक्त्व ३६५ १५ अल्पतर संक्रामक
अवक्तव्य संक्रामक ४१५ २६ थोग के द्वारा
योग के द्वारा ४२७ २१ विरोषाधिक का
विशेषाधिक का ४५५ २४ फिर छासठ सागर
फिर दो छ्यासठ सागर ४५५ ३१ अकर्षण
अपकर्षण ४८१ २३ श्रेणि में
सम्यक्त्व में ४८१ ३१ अस्पबहुत्व
अल्पबहुत्व ४८२ २६ तसी के उत्कृष्ट
उसी के उत्कृष्ट ४८२ ३१ सम्यस्त्व
सम्यक्त्व ४८२ ३३ हीन हीता
हीन होती ४८३ २५ जतिन्म
अन्तिम ५०४ २२ असंख्यात लाक
असंख्यात लोक
शुद्ध
जयधवला भाग १० पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध ३१ ८ अणंताणु० ४
अणंताणु० क्रोध ३१ २७ अनन्तानुबन्धी चतुष्क,
अनन्तानुबन्धी क्रोध, १०५ ३३ यार्गणातक
मार्गणा तक
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________________
२३४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[जयधवला भाग १० पृष्ठ पंक्ति
अशुद्ध १०६ ८-९ अन्तर्मुहूर्त के भीतर....करने अन्तर्मुहूर्त के भीतर १० का उदीरक होकर वेदक लगता है।
सम्यक्त्वसहित संयमी हो पांच की उदीरणा करने
लगता है। १३४ १८ जघन्य काल
जघन्य व उत्कृष्ट काल १३५ ३२ वेवक सम्यक्त्त्व को
वेदक सम्यक्त्व को १३५ ३३ पक्चीस
पच्चीस १९१ २० सो क्षपक
सो उपशमक या क्षपक १९३ २९ आदेश से मोहनीय की
आदेश से नारकियों में मोहनीय की २१५ १ पुवकोडिपुधत्तं ।
पुवकोडिपुधत्तं । अप्प० ओघं । २१५ १२ पुर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है । पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है । अल्पतर ओघ के
समान है। २३२ २३ स्त्रीवेद की
नपुसकवेद की २३३ २१ एक सागर की
एक हजार सागर की २३७ २१ उत्कृष्ट
जघन्य २३९ १९-२० भय और जुगुप्सा की
अरति और शोक की २५६ १ सम्मामि
सम्म० २५६ १९ सम्यग्मिथ्यात्व
सम्यक्त्व २७६ २ एवं पुरिसवे०
एवं पुरिसवे० णवूस० २७६ १७ इसी प्रकार पुरुष वेद की
इसी प्रकार पुरुषवेद व नपुंसकवेद की २८९ ३१ स्त्रीवेद की
नपुंसकवेद की २९१ १८ कितने है ? असंख्यात है। कितने हैं ? संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट स्थिति के उदीरक
जीव कितने है ? असंख्यात हैं। २९२ ७ संखेज्जा
असंखेज्जा २९२ २५ संख्यात है।
असंख्यात है। २९४ १२ असंख्यातवें
संख्यातवें २९९ १ जह० अजह
जह० खेत्तं० । अजह. २९९ ३५ जघन्य और अजघन्य
जघन्य स्थिति के उदीरकों का स्पर्शन क्षेत्र के समान है,
अजघन्य ३०६ ९ असंखेज्जा
संखेज्जा ३०६ २९ असंख्यात
संख्यात ३१३ १५-१६ उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट
जघन्य और अजघन्य ३१९ २९ अल्पतर
अन्यतर ३२९ ३० ओघ के
स्त्रीवेद के ३३३ १६ अनन्तानुबन्धी चतुष्क और अनन्तानुबन्धी चतुष्क, चार संज्वलन और ३३७ ५ सम्मामि०
सम्म० सम्मामि० ३३७ २१ सम्यग्मिथ्यात्व
सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ३३८ ९ मिच्छ० सम्मामि०
मिच्छ० सम्म० सम्मामि० ३३८ २९ मिथ्यात्व, सम्बग्मिथ्यात्व
मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व
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________________
शुद्धिपत्र]
२३५
शुद्ध
पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध ३४१-३४-३५ जो तिर्यन....उत्पन्न होते हैं वे
जो सासादन तिथंच ऊपर की पथिवी में मारणान्तिक समुद्घात कर रहे है और वहाँ सासादन से च्युत होकर मिथ्यात्व में आ जाते हैं वे सम्यक्त्व अंगुल के ओघ और
गुणहाणि
३४५ २४ सम्यग्मिथ्यात्व ३४६ २० आवलिके ३५६ ३० और और ३५८ ११ गुणवडि-हाणि. ३५८ २९ असंख्यातगुण वृद्धि और ३६६ २४ दो स्थिति ३६७ १४ भव ३६८ २२ जघन्य ३७० १९ गुणवृद्धि ३७१ २२ मिथ्यात्व ३७४ २९ स्थिति उदीरणा नहीं है। ३८१ ९ अट्ठ३८१ २७ आठ भाग ३८४ २५ पल्य के ३९० ७ अवत्त० संखे० गुणा ३९० २३ उनसे अवक्तव्य....हैं । ३९२ २२ गुणहानि
दो हानि स्थिति भय उत्कृष्ट गुणहानि मिथ्यात्व की स्थिति उदीरणा का अन्तर नहीं है। अट्ठ-णवआठ तथा नौ भाग आवलिके
x
भागहानि
जयधवला भाग ११ पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध ६ २० उदीरणा और अजघन्य
उदोरणा, जघन्य अनुभाग उदीरणा और अजघन्य ३५ ३६ असंख्यात गुणे हैं ।
संख्यातगुणे हैं । ३९ १७ वेदों को
वेदों की ५५ २० यिशुद्ध ७८ १५ जीब
जीव ८० ८ वेसमया।
बेसमया ८० ८ सम्मामि०
सम्म०-सम्मामि० ८० २७ है। सम्यग्मिथ्यात्व के
है । सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व के ९५ १७ लोकषायों के
नोकषायों के
विशुद्ध
Page #269
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________________
२३६
जयधवलासहिदे
[जयधवला भाग ११
पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध ९६ १५ चाहिए । पहली
शुद्ध चाहिए। किन्तु अपना-अपना स्पर्शन कहना चाहिए । पहली तीन कषायों को इसी प्रकार सम्यक्त्व के साथ पुरुषवेद के विषय में
११३ ३४ तीन क्रोधों को १२१ १६-१७ इसी प्रकार पुरुषवेद की
मुख्यतया से १२१ २३ इसी प्रकार तीन १३८ १९ प्रवक्तव्य १४७ १७ और उपपाद पद की १४८ २७ किमा १५१ १२ काल सर्वदा है। १५५ ३३ हानि और १७९ ३३ सम्यक्त्व अनुभाग के १८८ २४ कायस्थिति पूर्व कोटि पृथक्त्व १९२ १४ भागगमाण २२६ १५ द्विचरम समय में २३२ ३२ तिर्यंच पर्याप्त; सामान्य २४३ ३५ कुल कम २५२ ३२ कल्प में होते हैं, २७० २७ अन्तरकाल वर्ष पृथक्त्व प्रमाण २७१ १३ कहा है । क्षपक श्रेणि के २७१ १९ वर्ष पृथक्त्व प्रमाण २९८ १९ असंख्यातगुणी ३०३ १५-१६ अनन्तगुण बृद्धि तथा
अनन्तगुण हानि के ३०५ ३५ अन्तर्मुर्त प्रमाण ३०७ २५ कर्मभूमिज तिर्यंचों में ही प्राप्त
होने से ३२२ २१ अपेक्षा जो ३२९ १८ क्षपक मिथ्यादृष्टि जीव के गे ३३८ २८ क्षपक के जघन्य ३४२ २९ अनन्तगुणी देखी ३४६ २२ यहां पद कारण का ३४९ १७ उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा ३४९ १९ उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध ३६४ २२ देवों और देवों में
इसी प्रकार मानादि तीन अवक्तव्य xxx [उपपाद पद नहीं होता है ।] किया काल संख्यात समय है। उत्कृष्ट हानि और सम्यक्त्व के अवक्तव्य अनुभाग के कायस्थिति से अधिक पूर्व कोटि पृथक्त्व भागप्रमाण चरम समय में तिर्यञ्च पर्याप्त, मनुष्य पर्याप्त, सामान्य कुछ कम कल्प तक होते हैं, अन्तरकाल साधिक एक वर्ष प्रमाण कहा है । दर्शनमोह क्षपक और क्षपकश्रेणि के साधिक एक वर्ष प्रमाण विशेषाधिक असंख्यातगुणवृद्धि तथा असंख्यातगुणहानि के
अन्तर्मुहूर्त प्रमाण नपुंसकवेद के उत्कृष्ट काल की अपेक्षा
अपेक्षा उत्कृष्टरूप से जो क्षपक जीव के मिथ्यात्व की दो क्षपक के चरम अनन्तगुणी हीन देखी यहां पर कारण का उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध देवियों और देवों में
Page #270
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________________
पृष्ठ पंक्ति
१३
३५
संख्यात हजार
३७
२६ संख्यात हजार
३८ १४ संख्यात हजार ५७
१८ गतियों में
२४
अशुद्ध
१० संखेज्जवारमुप्पज्जिय
ش
५७ २९ संख्यातबार
७७ ३
कसायोव
७७ २० और कषाय
८४ २४-२५ मानोपयोग काल में
१५८ ७ रुवेंतस्स १८६ २३ झंज्ञा १८६ २७ संज्ञा
१८९ २७ शास्वत २०७ १३ यह कर
थदि देव है तो
२२८ ३२ २६१ १४ - २० विशेषार्थं ....यहां पर ..... स्थितियों वाले बन जाते हैं । स्थितिकत्कर्म
जयधवला भाग १२
२९६ १९ ३१० १७-१८ मिथ्यात्व और सम्यर्गमथ्यात्व या तीनों कर्मप्रकृतियों
३२१
१७ सम्म दृष्टि
३२१ २९ षरमार्थं
३२२ ११ स्वीकार करता है
३२३
२६
अबस्था में
३०
शुद्ध
गतियों में
बहुत संख्यात
बहुत हजार
बहुत संख्यात असंखेज्जवारमुप्पज्जिय
असंख्यात बार
उक्कसकसायोव
और उत्कृष्ट कषाय
मायोपयोग काल में
पर्वतस्स
झंझा
झंझा
शाश्वत
यह
यदि देव है तो
X X X
स्थितिसत्कर्म
X X X
सम्यग्दृष्टि परमार्थ
स्वीकार नहीं करता है
अवस्था में
नोट :- इस उक्त जयधवला भाग “१२" में कुछ शुद्ध-अशुद्ध जवाहर लाल जी शास्त्री [भीण्डर ] के
भी निहित है ।
Page #271
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________________
पृष्ठ पंक्ति
२
*
६
३१
३४
२३
४१
१२
४१ ३१ ४५ ६
४५ २१
४५ ३१
४८ १५
४८ ३२
४८
३२
६३
१८
७ १०-११ तेजोलेश्या के जघन्य अंश रूप
९ १०
९ १८
११ २६
३१
१५
अशुद्ध
७४ १६
१०२
३७
१०३ ५
११४ २१
१२३ १३
अनुभवा
दर्शन मोननीय
१३० २५
१३०
३३
१३६
२५
१४८
२५
मिध्यात्व का पूरा संक्रम जहाँ
यह जीव सम्यग्मिथ्यात्व में
जयधवला भाग १३
इत
बन्ध तभी
अन्तर से एक
भाग प्रमाण है ।
६३ ३० होन होता है । इस प्रकार इस क्रम को
उपकर्षण
कोटिपृथक्त्व सागरोपम प्रमाण
संखेज्जे भागे
सत्कर्म में से संख्यात बहुभाग को
૬૪
१९
प्रत्येक
६६ ३२ गुणश्रेणिशीर्ष के अघस्तन समय के
७२ २८ ओर
प्रहण
२०००० : ५= ४००००
द्वारा मिथ्यात्व के
स्थिति काण्डक को
अनन्तगुणाहीन है । इस प्रकार
जब तक कि जघन्य
अन्तर्मुहूर्त कम एक
जघन्य और उत्कृष्ट
कारण परिणाम
स्थितिबन्ध तथा
संयत होता है।
संख्यातभाग हानिरूप
स्थितिकाण्डक का
संयतासंयत के अप्रतिपात
शुद्ध
देखा
दर्शन मोहनीय
सम्यग्मिथ्यात्व का पूरा संक्रम जहाँ यह जीव सम्यक्त्व में
जघन्य से तेजोलेश्यारूप
इन
बन्ध सभी
अन्तर से संख्यात
भाग प्रमाण है । उत्कृष्ट स्थिति सत्कर्म से उपस्थित जीव के सागरोपम - शतपृथक्त्व प्रमाण स्थितिकाण्डक होता है ।
उत्कर्षण
कोटि लक्ष पृथक्त्व सागरोपम प्रमाण असंखेज्जे भागे
सत्कर्म में से असंख्यात बहुभाग को
ग्रहण
२०००० ÷ ५ = ४०००
द्वारा जब तक मिथ्यात्व के
स्थिति काण्डक को नहीं प्राप्त होता अनन्तगुणाहीन है । इससे भी उदय समय में प्रवेश करने वाला अनुभाग अनन्तगुणाहीन है । इस प्रकार हीन होता है । इससे भी उदय समय में प्रवेश करने वाला अनुभाग अनन्तगुणाहीन है । इस प्रकार इस क्रम को
प्रत्येक
अघस्तन समय के गुणश्रेणिशीर्ष के
अर्थात्
जब तक कि स्थितिकाण्डक की जघन्य मो
जघन्य एक पल्य और उत्कृष्ट करण परिणाम स्थितिबन्धापसरण तथा
संयतासंयत होता है।
संख्यात भागवृद्धिरूप
स्थितिबन्ध का
संयतासंयत के जघन्य अप्रतिपात
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुद्धिपत्र ] पृष्ठ पंक्ति
१७२ १३
१७२ ३१
१७३ ३५ सामायिक - छेदोपस्थापना
शुद्धि संयत और
आदर ब
प्रतिबद्ध है ।
२२३ ३०
२२३ ३०
२२३ ३३
२२३ ३४
२३१ २१
२३४ २५ २३८ १६
अशुद्ध
मायाकसाय० । तेउ०
१९०
२१
१९१
२८
२०३ ३१
२०५ २७
२०६ ३
२११ २९ संख्यातगुणहानि और अनन्त गुणा २१७ ३
शुविशुद्ध
२२१ १८ तिर्यंचगति देवगति इन तीनों के २२१ १९-२१ कर्म की नरकगति.... साधारण
प्रकृतियाँ तथा स्थितिकाण्डक का
२४८ २३
२७६ १९
३१७ २७
३२० १८
जानना चाहिए ।
३२० २२ ३२० ३३
३३१ २४
अप्रस्त
वहाँ से लेकर
सत्याणे
वह स्थितिकाण्डक
जिस स्थितिकाण्डक का
वह काण्डक भी
अकर्षित
मोहनीय कमों का ग्रहण किया स्थितिबन्धापरण
असंख्य गुण
स्थिति को
एक समय आवली प्रमाण
दो त्रिभाग प्रमाण
कुछ कम दो भाग प्रमाण
सर्वप्रथम प्रथम समय में
इनका कदाचित्
शुद्ध
| एवं लोहकसाय० । णवरि सुहुम०
मायाकसाय ०
अत्थि । तेउ०
जानना चाहिए । इसी प्रकार लोभकषाय में भी जानना चाहिए । किन्तु वहाँ पर सूक्ष्मसाम्पराय संयत भी होता है ।
सामायिक - छेदोपस्थापना शुद्धिसंयत
परिहारविशुद्ध
संयत और
आदर न
प्रतिबद्ध है ।
अप्रशस्त
उसके बाद
सत्थाणे
संख्यात गुणाहीन और अनन्तगुणा हीन
सुविशुद्ध
तिर्यंचगति इन दोनों के
कर्म तथा
२३९
स्थिति समूह का
वह स्थिति समूह
जिस स्थिति समूह का
वह स्थिति समूह भी अपकर्षित
अन्तराय कर्मों का ग्रहण किया स्थितिबन्धापसरण
असंख्यातगुणा हीन हो द्रव्य को
एक आवली प्रमाण
दूसरे भाग (12) प्रमाण
कुछ कम अर्द्ध भाग प्रमाण
प्रथम समय में
इनका कदाचित् वेदक और कदाचित्
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठ पंक्ति
१० २६ उपशम
१० २८
उपशम
१९ १६
२३ १२
२४ ८ चव
२४
१६ उदयावलि
२८
२२
२९ १३
२९ १४-१५ दो छासठ सागरोपम, नाना गुणहानियोंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि
२९
१६
२९
१८
२९ २३
अशुद्ध
गुणसंक्रमणद्वारा णाणतपमाणत्त
गुणश्रेणि गोपुच्छा से
समयबद्धों का
२९
२४
३१
९ जाणिदू ण
३३ १९-२० नहीं होता है इसका
९५
९६
९७
और गुणसंक्रमभागहार के
उत्कर्षण - अपकर्षण से
ज्ञात नहीं होता ?
उसे उदय में
३२
गुणकार से गुणा
४१ ४ णात्थि
५४ चरम पंक्ति नीचे उत्कृष्ट
५५ २७ श्रेणि की प्ररूपणा की अपेक्षा अपने
५६ २२ अनानुपूर्वी
५९ चरम पंक्ति असंख्यातवाँ
६३ २७ प्राप्त न होने के
६६
१३
कायव्वो ।
६६
जाता है ।
७२
७४
२८
२८ दुगुणा 1
२८ होते समय यहाँ से
८३ २१ स्थितिबन्ध जाकर
८४ २८ स्थिति बन्ध जाकर
९५ १२-१३ मायामोकडिदे माणस्स
९५ १५ अवस्थितपने का
२९
१९
जयधबला भाग १४
शुद्ध
करने पर मान का
अपूर्वकरण जीव
प्रथम समय से लेकर
उपशामक
उपशामक
अघः प्रवृत संक्रमद्वारा
णाणं तप्पमाणत्त
चेव
उदयस्थिति
गोपुच्छा से
जघन्य समयप्रबद्धों का
दो छासठ सागरोपम की नानागुणहानियों की अन्योन्याभ्यस्त राशि के
उत्कर्ष - अपकर्षणभागहार से
ज्ञात नहीं होता, क्या कारण है ?
उसे अतिस्थापनावलि को छोड़कर उदय तक सब
स्थितियों में
भागहार से भाजित
जाणिदूण
नहीं होता है, इस प्रकार इस अर्थ विशेष को मूल प्रकृतियों का आश्रय कर
णत्थि
नीचे छोड़े गये
इस प्ररूपणा के तुल्य
आनुपूर्वी
संख्यातवां
प्राप्त होने के
कायव्वो ?
जाता है ?
द्वितीय भाग प्रमाण है ।
होते समय एक स्थानिक बन्ध समाप्त हो गया । यहाँ से
स्थितिबन्धोत्सरण करके
स्थिति-बन्धोत्सरण करके
मायामोकड माणस
अनवस्थितपने का
करने वाले के
अघः प्रवृत्तकरण संयतजीव
अपूर्वकरण के प्रथम समय से लेकर
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुद्धिपत्र ]
पृष्ठ पंक्ति
अशुद्ध
१०३ ११ कोहेणो बट्ठिदस्स १२० २१ पुरुवेद
१२० चरमपंक्ति समयसम्बन्धी
१२०
अन्तरकरण करने पर
27
१२४ २९ सूक्ष्मसाम्परायिक का
१२५ १० बादर लोभवेदगद्धाए
१२६ २५
निर्देश देखा जाता है
१२६
तणिद्दे सदंसणादो ।
७- ८ १३२ ६ असंखेज्जदि भागपडिभागत्तादो
१३२ २२ असंख्य । तवें
१३४ चरम पंक्ति चाहिये । यह
१३५ १२ ण, मोहणीयस्सेव
१३५ १३
मरणव सेण
१३५ ३१
नहीं, क्योंकि
१३५ ३१
समान ही है,
१३५ ३२ मरण
१३६ १९ अन्तर्मुहूर्तं
१५१ ५ अस्थि
१५३ २९ काल के भीतर स्थितिबन्धापसरणों को
अन्तर करता है।
नहीं होता ।
१६६ २१ १६७ २१
१७१
१७२
१२ स्थितिकाण्डक की
२७
होता है । ऐसा समझकर
भाग प्रमाण होता है ।
सदसहस्स ।
शुद्ध कोणोवट्ठदस्स
२१३ २५ स्थितिकाण्डकों के जाने पर २१५ ९-१० जहाकममसंखेज्जगुणहाणीए (१)
पुरुषवेद
X
अन्तरकरण किये जाते समय
बादरसाम्परायिक का
लोभवेदगद्धाए
निर्देश नहीं देखा जाता है ।
सासणादो | संखेज्जदिभागपडिभागत्तादो
संख्यातवें
चाहिए, परन्तु मोहनीय कर्मकी अनिवृत्तिकरण उपशामक के अन्तिम स्थितिबन्ध की जो आबाधा है उसे
ग्रहण करना चाहिए ।
ण मोहणीयस्सेव
करणवसेण
X
समान नहीं है,
करण
२४१
मुहूर्त
अत्थि
काल के भीतर संख्यात हजार स्थितिबन्वापसरणों को
१८० २३
१८२ १२
१८३ १५ लक्षण
लक्ष
१८७ १८ १९ अल्पबहुत्व इस अल्पबहुत्व विधि से स्थितिबन्ध
२१३ २४
जाता है । अब
अन्तर करेगा
नहीं होता । अनन्तर समय में ये दोनों ही घातप्रवृत्त होंगे ।
स्थिति-सत्कर्म की
होता है, क्योंकि इसके उपशमश्रेणिसम्बन्धी घात नहीं
प्राप्त हुआ है । ऐसा समझकर
भागप्रमाण अधिक होता है । सदसहस्सस्स ।
हो जाता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है । इस प्रकार इस स्थान पर समस्त कर्मों का स्थिति-बन्ध यथाक्रम संख्यातवर्षं प्रमाण हो गया । अब
. स्थितिकाण्डक पृथक्त्व के जाने पर जहाकमं संखेज्जगुणहाणीए
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४२
पृष्ठ पंक्ति
अशुद्ध
२१५ २५ असंख्यातगुणहानि
२२० १७ प्रतिबद्ध है । इस प्रकार
२२१ चरम पंक्ति समस्त द्रव्य के अनंतवें २२५ १८ अब जिसने एक आवलिप्रमाण
२२५ २१ है । द्वितीय स्थिति
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
शुद्ध
संख्यातगुणहानि
प्रतिबद्ध है । संक्रामण प्रस्थापक के पूर्वबद्ध कर्म कैसे अनुभाग में प्रवृत होते हैं । इस प्रकार
समस्त द्रव्य के अनुभाग के अनन्तवें
अब जिसने अन्तरकरण सम्पन्न करने के बाद एक आवलि प्रमाण
है । सामान्य से वह अवशिष्ट प्रथम स्थिति भी अन्तमुहूर्त प्रमाण ही होने से वह यहाँ अन्तर्मुहूर्तं कही गयी है । द्वितीय स्थिति
२२८ २३५ १५
१७ निर्जरित हुई और नहीं निर्जरित हुई संक्रान्त हुई अथवा सक्रान्त नहीं हुई
आया है, क्योंकि
उनका संक्रमद्रव्य
संक्रम में अल्पबहुत्व
तीसरी गाथा अनुभाग
प्रकृति का उत्कर्षण
२६४ २२
२७०
२० २७४ १६ २७८ १७ दो तीन
२९४ २०-२१ छोड़कर ऊपर
छोड़कर तथा ऊपर
२९५ १८-२२ नोट — मूल चूर्णिसूत्र के अर्थ को ९३६१ के बाद पढ़ना है ।
३१० २८ जितनी स्थिति
३१०
२८
३१० ३४ अनुसार प्ररूपणा ३२३ १८-१९ अर्थात् मूल से लेकर ३२३ २० हीन अनुभाग के ३२३ २२-२३ डिडोले के खम्भे और रस्सी अन्त
राल में त्रिकोण होकर कर्णरेखा के आकाररूप से दिखाई देते हैं । वहाँ से लेकर क्रोधादि
लोभ का अनुभाग सत्कर्म
३२३ ३५ ३२८ ३० ३३१ चरम पंक्ति पहली
३३५ १० अणंता भागा अनंताभागा
३३६ २७ अविशेष
३३७ २५ दो भाग
३३७ २६ दो भाग
३३७ ३० दो भाग अधिक
३३७ ३१ तीन
३३७ ३२
चार
३३८ १७ संख्यातभाग
आया है, अथवा वह अनुक्त के समुच्चय के लिए आया है, क्योंकि
[ जयधवला भाग १४
उनका गुणसंक्रमद्रव्य
संक्रम में स्वस्थान अल्पबहुत्य
तीसरी भाष्यगाथा प्रतिसमय अनुभाग दो त्रिभाग
जितने अनुभाग
प्रकृति का अनुभाग उत्कर्षण
अनुसार अर्थ - प्ररूपणा
मूल तक
हीन अनुभाग स्पर्धक के
हिण्डोले के स्तम्भ और रस्सी के अन्तराल में त्रिकोण होकर कर्णाकार रूप से दिखता है ।
वहाँ से लेकर काण्डकघातद्वारा क्रोधादि मान का अनुभाग सत्कर्म
पहले स्पर्धक की
अनंता भागा अनंतभागा अवशेष
द्वितीय भाग
द्वितीय भाग
द्वितीय भाग अधिक
तृतीय
चतुर्थ
संख्यातवें भाग
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२४३
शुद्धिपत्र ] पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध ३३८ २१ असंख्यातासंख्यात भाग ३४० ३० निर्जरा ३४३ ३१ ६६८० ३४४ ७ वग्गणाभागहारमेत्तं ३४४ २२ २१/१०५ ३४७ १८ एक गुणहानि ३४८ १७ जानना चाहिए। ३४९ २६ एक गुणहानिस्थानान्तर के ३४९ ३० वर्गणाएँ निक्षिप्त ३५१ ३१ पुनः द्वितीय ३५४ ३१ भागहीन है, किन्तु ३५७ २२ उदय एक स्थानीय रूप से उनमें ३५८ ३० के असंख्यातवें ३९६ २ पृष्ठ १५९ ४०१ २८ पृष्ठ ३४३
शुद्ध असंख्याता संख्यातवें भाग संक्रमण १६८० वग्गणा भागहारमेतं १०५ एक प्रदेशगुणहानिजानना चाहिए । वह कैसेएक प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर के वर्गणा में निक्षिप्त पुनः पूर्वोक्त द्वितीय भागहीन नहीं है, किन्तु उदय में एक स्थानीय रूप से के स्पर्धकों के असंख्यातवें पृष्ठ १२९ पृष्ठ ३४२
जयधवला भाग १५ पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध
शुद्ध २ ३८ यथा समय
यथा आगम ३ १४ संख्यातगुणा होता है।
संख्यातगुणाहीन होता है। ३ ३१ सत्कर्म के
काण्डक के ११ ३३ अतः ११ ३४ अनन्त कहे जाते हैं
अन्तर कहे जाते हैं १५ २० अनन्त
अन्तर १५ २४ अन्तिम अन्तर कृष्टि
अन्तिम कृष्टि १७ २५ प्रथम कृष्टि का
प्रथम संग्रह कृष्टि का २५ २५ गोपुच्छाओं
स्पर्धकों २६ २४ कृष्टियों को निष्पादित
कृष्टियों को द्वितीय समय में निष्पादित २७ ३३ पूर्व और अपूर्व कृष्टियों की अपेक्षा पूर्वानुपूर्वी की अपेक्षा ५६ २१ रहने है तक
रहने तक ७४ २५ द्रव्य कुछ
द्रव्य का कुछ ८० २१ प्रथम संग्रह
प्रथम अथवा द्वितीय संग्रह ९७ २७ चढ़ा हुआ जीव
चढ़े हुए जीव के
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२४४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ जयधवला भाग १५ पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध
शुद्ध १०३ २४ क्योंकि गोपुच्छाविशेषों का क्योंकि उतरे हुए अध्वान प्रमाण ही गोपुच्छाविशेषोंका १०९ २४ वेदक अवस्थित
वेदक होकर अवस्थित १०९ ३४ अश्वकरणकाल
अश्वकर्णकरणकाल १११ १८ शंक
शंका ११२ ३१ अधिक है उससे नपुंसकवेद का अधिक है उससे स्त्रीवेद का क्षपणाकाल विशेषाधिक है।
उससे नपुंसकवेद का ११३ २६ प्रदेशों तथा १३६ २१ आगता
असाता १४५ २२ अभनीय
अभजनीय १५२ २६-२७ का परमाणु इस क्षपक के उदय के परमाणु (कुछ परमाणु ही) इस क्षपक के उदय में में सक्षुब्ध होता है,
संक्षुब्ध होते हैं तो भी वह भवबद्ध निश्चय से उदय में संक्षुब्ध होता है, (अर्थात् वह भवबद्ध उदय में आया,
ऐसा कहलाता है) १५५ १९ उच्चारणा करके दूसरी भाष्यगाथा उच्चारणा नहीं करके दूसरी भाष्यगाथा के अर्थके संबंध से
सम्बन्ध से १५७ २६ उच्चारणा करके उसके अर्थ की उच्चारणा नहीं करके उसके अर्थ की ही दूसरी
दूसरी १६० ३६ विशेषों में होते
विशेषों में कियत्संख्यक (कतने) होते १६३ २५ शेष असंख्यात
शेष उत्कृष्टतः असंख्यात १६४ २७ जो प्रदेशपुंज
जो शेष प्रदेशपुंज १७१ २१ स्थिति में शेष
समय में शेष १७५ ३४ सामान्य स्थिति नहीं पायी जाती समयप्रबद्धशेष नहीं पाया जाता १७८ ३१-३२ इससे आगे जिस क्रम से वे स्थितियाँ x
बढ़ी हैं उसी क्रम से .... १७८ ३३ वहाँ असंख्यात
वहां से आगे असंख्यात १८४ ३१ भाष्यगाथा की
भाष्यगाथा के अवयवों के अर्थों की १८४ ३३ भागप्रमाण अन्तर
भागप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर १८५ १८ जानने चाहिए
जानने चाहिए, ऐसा सूत्र के अर्थ का सम्बन्ध है। १८५ २३ समयप्रबद्धशेष नियम से
समयप्रबद्धशेष और भवबद्धशेष नियम से १८६ ३१ स्थितियों का
स्थिति का १८८ २८ समयप्रबद्धों के
समयप्रबद्धशेषों के १९३ २३ निर्लेपन स्थानों
समयप्रबद्धों १९५ २५-२६ प्रत्येक अतीत
प्रत्येक के अतीत १९९ २३-२४ आचार्य व्याख्यान करते हैं । व्याख्यानाचार्य कहते हैं। २०० ३५ अल्पबहुत्व का
स्तोकत्व का २०४ २४ सामान्य और असामान्य दोनों समयप्रबद्धशेष एवं भवबद्धशेष
स्थितियाँ
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुद्धिपत्र ]
पृष्ठ पंक्ति
२०७ २२
२११ ३३ २१२ २६
२१२ ३४
२१४
२९
२१४
३४
२१५ १९
२१७ ११
अशुद्ध
समाधान — इसी सूत्र से जाना जाता है ।
जाते हैं
समयबद्ध की स्थिति के
भी तत्प्रायोग्य
अधिक पूर्व में
कि पूर्व में
हए हैं एक साथ
उदयट्ठिदी
उदयस्थिति
२१७ २८
२१८ २७ निर्लेपन काल है वह
२२२
३१ द्विगुण वृद्धिरूप २२६ १७ द्विगुणवृद्धि २३३
१२ अणुसिद्धीदो
२३५ १४ महा प्रमाण
२३६ २१ तीनों ही अघाति कर्मों का
२३७
२०५९६
२३७ ३०
२३९ २० काल तक
२३९
२१
२३९ ३१ २४० १६
३२
परिभाषारूप प्ररूपणा
रखने वाला संज्वलन
अनुभाग की अपवर्तना
होती है ।
२४२ १५
सम्भव है ।
२४५ ३२ प्रदेश के अग्रभाग २४६ २४ क्योंकि प्रथम २५१ २२ स्थानरूप २५३ १८-१९ प्राप्त होने तक
२५७ २२ असंख्यातासंख्यातवें
२६३ २१ असंख्यात
२६४ २१ प्रथम समय में
२७२ २८ रस स्थान
२७४ २९ जीद
२७८
२४
पुन: इसमें क्रोध की द्वितीय
संग्रह कृष्टि का
शुद्ध
समाधान — इसी सूत्र से जाना जाता है। और सूत्र अन्यथा नहीं होता; क्योंकि सूत्र के अन्यथात्व का विप्रतिषेध है ।
जायेंगे
समयबद्ध की कर्मस्थिति के
भी नियम से तत्प्रायोग्य
अधिक काल वाले निर्लेपन स्थान में पूर्व में
कि समस्त निर्लेपन स्थानों में पूर्व में
हुए हैं ऐसे अनन्त हैं; एक साथ
उदयदी [ उदयावलि ]
उदयावलि
निर्लेपन काल है वह अनुसमयनिर्लेपनकाल कहलाता
है । वह
X
द्विगुणहानि अणुत्तसिद्धीदो
माह प्रमाण
तीन अघातिया कर्मों का तथा तीन शेष घाति कर्मों का
६५९७
परिभाषा के अर्थ की प्ररूपणा
२४५
काल प्रमाण
रखने वाला अनुभागकाण्डकघात संज्वलन
अनुभाग की अनुसमय अपवर्तना
होती है उससे उसी समय बध्यमान उत्कृष्ट कृष्टि
अनन्तगुणी होन होती है ।
असम्भव है ।
प्रदेश समूह क्योंकि चारों प्रथम
अध्वानरूप
नहीं प्राप्त होने तक
असंख्याता संख्यात
अनन्त
द्वितीय समय में
इस स्थान
जीव
पुनः क्रोध की द्वितीय संग्रह कृष्टि में प्रथम संग्रह कृष्टि का
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[जयधवला भाग १५
पृष्ठ पंक्ति
शुद्ध
अशुद्ध आगे जैसा
स्थितिबन्ध क्रम से हीन होता हआ इस समय ३ वर्षों से ऊपर जैसा विभाग तब तीन
२५ तीन भाग २८७ ३१ तब इन २९७ २६ शंका २९७ २८ अनन्तगुणीहीन २९८ १२ संछुद्धमाणस्स २९८ २४ द्रव्य को संज्वलन २९८ ३१ क्रोध में संक्रमित होने वालो ३०० १६ अन्तर कृष्टियाँ ३०२ १६ असंख्यातवें भाग ३०२ २२ द्वारा एक ३०२ २७ बादरसूक्ष्मसाम्परायिक ३०२ २८ संख्यातगुणाहीन ३०५ १८ असंख्यातभाग ३०७ २१ हीन है। ३०७ २७ के अन्तिम समय तक बिना
अनन्तगुणी संछुद्धे माणस्स. द्रव्य को क्रोष-संज्वलन क्रोव के मान में संक्रमित होने पर मान की अन्तर कृष्टियों के असंख्यात बहुभाग द्वारा खंडित करने पर लन्ध एक बादर साम्परायिक असंख्यातगुणाहीन असंख्यातवें भाग
३१३ ३३ असंख्यातगुणा ३१५ ३१ उक्खेदि दो' ३२२ २० असंख्यातरूपों ३२३ १९ असंख्यातवें ३२४ ३३ अन्तर ३२६ १८ अनन्तर ३२८-२९ ३४ क्योंकि प्रवृत्त ३२९ २० असंख्यातवें भाग में ३२९ २४ अंतिमस्थिति काण्डक
कृष्टिकारक के प्रथम समय से लेकर चरम समयवर्ती बादरसाम्परायिक होने तक बिना असंख्यातगुणाहीन उक्खेदिदो' संख्यातरूपों संख्यातवें अनन्तर अन्तर क्योंकि गुणश्रेणि के प्रवृत्त असंख्यात बहुभाग को द्विचरमस्थिति काण्डक
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठ
१
४
६
७
७
w990vv
८
८
९
९
१०
११
११
११
११
१२
१२
१३
१३
१४
१४
१४
१९
२०
२१
२२
२२
२३
२३
२३
२४
२४
२५
२६
२६
२७
२७
२८
२९..
३१
३२
३२
३३
३४
३५
३६
6 X के के के १ ३ च
४३
४४
४४
४६
४७
४७
४८
५०
पंक्ति
८
११
१
११
२७
१७
३
८
१५
१
२३
२५
३१
४
१२
२२
२७
१०
२७
३१
६-७
१०
१५
१०
११
२
३
८
९
१०
१
२
१२
१३
१९
२१
११
९
७
२२
६
८
११
६
२५
४
६
१२
११
२४
१०
२०
अशुद्ध सोडसमो
- मणुगंतव्या
लोभस्य
चरमसमवबादरसांवराइओ
प्रदेशपुंज के
ट्टिम
पढमवसमय
कृष्टियो कां
सरूपपरूवणा ठिदिखडय
माकड्डियूण णिक्खव
अनिस्थापनावलि
श्रेणिरूपण
पल्यापम
विं
निजरा
अथ मुख से
पूवाक्त परिणमिदे
परिणमित होने पर
? परिणामिदे प्रे० का०
णिद्देसदेसणादो * चरमो य
गवसण दोसाणुवलभादो
अथेत्यय
देसघादि,
वुत्त
लद्धिकम्मसत्त
मदिआवरणदि
भयणिज्जसरू, वेणेदस्स
सामाणं
समाराहोणासंभवो
सुगम
संपत्ते
एक ही
जाति
देसाभासयं
परिणामप्पइय
देसाभासय
देखो
जयधवला भाग १६
शुद्ध पण्णारसमो
- मणुगंतव्वा लोभस
पंचण्हमंत्तराइयाणं
देसधादिं
पयाद
कम्माण
संग्रहकृष्टि
वेदेंते
किट्टिए
रसमि त्ति ।
चरिमकिट्टि
क्षपणा खवेदिज्जति
क्या
चरमसमयबादरसांपराइओ प्रदेशपुंज को
हेट्ठिमो
पढमसमय
कृष्टियों का
सरूवपरूवणा
ठिदिखंडय
दव्वमोकड्डिण
णिक्खिव
अतिस्थापनावलि
श्रेणिपरूपणा
पल्योपम
वि
निर्जरा
अर्थमुख से
पूर्वोक्त
परिणामिदे
परिणमा देने पर
X
णिदेसदंसणादो (१५७) * चरिमो य
वेस
दोसाणुवलंभादो अथेत्ययं देसघादि
वृत्तं
लद्धिकम्मंसत्तं
मदिआवरणादि
भयणिज्जसरूवेणेदस्स
सामण्णं
समारोहणासंभवो
सुगमं
संपत्तो
एकट्ठी के
जाती
देसामासयं
परिणामप्पच्चइय
देसामासय
देखी
पंचण्हमंतरायाणं
देसघादिं
पयद
कम्माणं
संग्रहकृष्टि
वेदेंतो
किट्टीए
रसमित्ति ।
चरिमकिट्टं
संक्रमण
खवेज्जति
X
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४८
५२
५२
५४
५४
५९
५९
५९
६०
६१
६५
६७
६८
६९
६९
७०
७१
७२
७८
८२
८४
८५
८७
८८
८९
९०
९२
९३
९७
९८
१०३
११२
११२
११३
११५
११५
११९
१२०
१२३
१२६
१३३
१३७
१३९
१४५
१४८
१४९
१५०
१५४
१५९
१६०
१७४
१७७
१८३
१८५
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३
११
हादि
सुगम
ए भणिदे
भासागाहाण
ण,
अणभागे
संभव नहीं है। उस काल में
मज्जिम
नियमो
पच्छासुतं
क्या अनन्तर
सुगम
किट्टी वेगम्म
खेद है ! कि
किट्टी कम्मंसि
वढ्ढीए
संकमगे
सत्तमा
उदी दि
उद्दीपणा
संकमेदि
ते यप्पा
परिणमर्ता
समयणाए
वेदिज्माणिगा,
पूर्ववेदित्
दुसभयूण
जान
एवमेतिएण
तुव्विल्ल
सुतमाह
पढमट्टी खवेमाणस्य
कुदो
६ २७६ एत्तो
अणुसमयमोट्टिज्जमाण ढक्कबिदियसमये
सपहि
कम्मोदय
ज्ञानवराग्यातिशय
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
होदि
सुगमं
एवं भणिदे
भासगाहाण
ही
पीरसमाप्ति में
दुग्गम-मणिवण
संबंधेणव णिक्खिमाणो
दिस्समाग
कवाउ
मवसंहरेमाणो
समय में लोकपूरण होदि । यत्थमेदं सुत्तं । ९ ३८३ अब कृष्टिगत शीलानामकाधिपत्य
पद के
मनोज्ञां तत्सद्दशो
ण
अणुभागे
संभव नहीं है। इस कारण से "ण सव्वेसु ठिदिविसेसेसु"
ऐसा कहा गया है।
मज्झिम
णियमा
पुच्छासुत्तं
क्या अनन्त
सुगमं
किट्टी वेदगम्मि
यह जानना चाहिए कि
किट्टी कम्मंसि
वड्डी
संकामगे
सत्तमी
उदीरेदि
उदिण्णा
संकमदि
तेयप्पा
परिणमती
समयूणाए
वेदिज्जमाणिगा
पूर्ववेदित
दुसमयूण
जाने
एवमेत्तिएण
पुव्विल्ल
सुत्तमाह
पढी
खवेमाणस्स
X
8 २७६ कुदो? एत्तो अणुसमयमोट्टिज्जमाण
ढुक्क दिय
संपि
कम्मोदयं
ज्ञानवैराग्यातिशय
भी
परिसमाप्ति में दुग्गममणिवण
संबंधेणेव
[ जयधवला भाग १६ शुद्धिपत्र
णिक्खिवमाणो दिस्समाण
कवाड
मुवसंहरेमाणो
समय में अन्तर अर्थात् लोकपूरण
होदि ।
६ ३८३ यह सूत्र गतार्थ है । अब कृष्टिगत शीलानामेकाधिपत्य
काल के
मनोज्ञा तत्सदृशो
Page #282
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