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________________ १२२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चारित्तक्खवणा २९० पुणो गुणसेढिसीसयादो उवरिमाणंतरविदीए वि असंखेज्जगुणं णिक्खिवदि, ओकड्डिददव्वस्सासंखेज्जे भागे गुणसेढिसीसयादो उवरिमद्धाणेण खंडिदेयखंडस्स तत्थ णिवदमाणस्स गुणसेढीसीसयदव्वादो असंखेज्जगुणत्तसिद्धीए बाहाणुवलंभादो। तदो उवरि सव्वत्थ विसेसहीणं चैव णिक्खिवदि जाव अप्पप्पणो चरिमट्ठिदिमइच्छावणावलियामेत्तेण अपत्तो ति । एवं बिदियादिसमयेसु वि अवविदगुणसेढिपरूवणा जाणिय कायव्वा । सेसं जहा दंसणमोहक्खवणाए सम्मत्तस्स भणिदं तहा चेव गिरवसेसमेत्थ वि घादिकम्माणं वत्तव्वं, विसेसाभावादो। ___$२९१ एवमेदीए परूवणाए खीणकसायद्धमणुपालेमाणस्स जाधे खीणकसायद्धाए संखेज्जदिभागो सेसो ताधे तिण्हं घादिकम्माणमपच्छिमडिदिखंडयमंतोमुहुत्तायामेण गेण्हमाणो खीणकसायद्धासेसमेत्तं मोत्तूण अवविदगुणसेढिसीसएण सह उवरिं संखेज्जगुणाओ द्विदीओ घेत्तूण चरिमट्ठिदिखंडयं णिवत्तेदि त्ति गेण्हियव्वं । तत्थ दिज्जमाण-दिस्समाणपरूवणाए सम्मत्तचरिमद्विदिखंडयभंगो । तदो चरिमट्ठिदिखंडये णिवदिदे तत्तो परं तिण्हं घादिकम्माणं गुणसेढिकिरिया णत्थि, केवलं तु उदयावलियबाहिरट्ठिदिपदेसग्गमसंखेज्जगुणाए मेढीए उदीरेमाणो गच्छदि जाव समयाहियावलियछमत्थो ति। तत्तो परमुदीरणा णत्थि ; ६२९० पुनः गुणश्रेणिशीर्षसे उपरिम अनन्तर स्थितिमें भी असंख्यातगुणे प्रदेशोंको निक्षिप्त करता है, क्योंकि अपकर्षित किये गये द्रव्यके असंख्यात बहुभागको गुणश्रेणिशीर्षसे जो उपरिम अध्वान (उपरितन स्थिति) है उससे भाजित करनेपर जो एक भाग प्राप्त हो उसको उपरिम अनन्तर स्थितिमें निक्षिप्त करनेपर वह गुणश्रेणिशीर्षसम्बन्धी द्रव्यसे असंख्यातगुणा सिद्ध होता है, इसमें कोई बाधा नहीं पायी जाती। इसके बाद ऊपर सर्वत्र तब तक विशेषहीन द्रव्यका निक्षेप करता है जब तक अतिस्थापनावलिप्रमाणरूपसे अन्तिम स्थितिको नहीं प्राप्त होता इसो प्रकार द्वितीयादि समयोंमें भी अवस्थित गुणश्रेणिकी प्ररूपणा करनी चाहिये। शेष कथन, जिस प्रकार दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें सम्यकत्वप्रकृतिका कहा गया है उस प्रकारसे यहाँ पर पूरी तरहसे घातिकर्मोका भी करना चाहिये, क्योंकि उससे इस कथनमें कोई विशेषता नहीं है। ६ २९१ इस प्रकार इस प्ररूपणाद्वारा क्षीणकषाय गुणस्थानके कालका पालन करनेवाले क्षपकके जब क्षीणकषाय गुणस्थानके कालमें संख्यातवां भाग शेष रहता है तब तीनों घातिकर्मोके अन्तमुहूर्तआयामरूप अन्तिम स्थितिकाण्डकको ग्रहण करता हुआ क्षीणकषाय गुणस्थानके कालप्रमाण शेषकालको छोड़कर अवस्थित गुणश्रेणिशीर्षके साथ उपरिम संख्यात गुणी स्थितियोंको ग्रहणकर अन्तिम स्थितिकाण्डकको रचना करता है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये। उसमें दिये जानेवाले और दिखनेवाले कर्मप्रदेशोंकी प्ररूपणा सम्यक्त्वप्रकतिके अन्तिम स्थितिकाण्डकके समान जानना चाहिये । तदनन्तर स्थितिकाण्डकके पतित होनेपर तत्पश्चात् तोनों घातिकर्मोकी गुणश्रेणिरचना नहीं होती, केवल उदयावलिके बाहरकी स्थितिके प्रदेशपुञ्जकी असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे उदोरणा, छद्मस्थ. के एक समय अधिक एक आवलिकाल शेष रहने तक, करता जाता है; उसके बाद उदीरणा नहीं
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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