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________________ गा. २२२] ६ १६७ सुगमं । संपहि एदीए गाहाए पुच्छिदत्थस्स किट्टीवेगम्मि णत्थि चेव संभवो त्ति पदुप्पायणट्ठमुवरिमं पबंधमाह * एविस्से गाहाए किट्टीकरणप्पहुडि णस्थि अत्थो । ६ १६८ किं कारणं ? उक्कड्डणाकरणस्स एदम्मि विसये अच्चंतासंभवेण परिसिद्धत्तादो, तम्हा उक्कडणाए संभवे संते उक्कड्डिदस्स पदेसग्गस्स से काले चेव किमोड्डियण पवेसेदुमत्थि संभवो आहो णत्थि त्ति एवंविहो विचारो पयट्टदे । एत्थ पुण उक्कड्डणाए चेव अच्चंताभावेण पयदविचारस्साणवसरो चेवेत्ति एसो एत्थ मुसत्थसम्भावो । संपहि एदस्सेवत्थस्स फुडीकरणमुत्तरसुत्तणिद्देसो।। के हंदि किटीकारगो किट्टीवेदगो वा हिदि-अणुभागे ण उक्कड्डदि त्ति। $ १६९ हंदि वियाण निश्चिनु किट्टीकारगो किट्टीवेदगो वा द्विदि-अणुभागे उक्कड्डिदणुवरि ण संहदि त्ति । कुदो एस णियमो चे? खवगपरिणामाणमेत्यत्तणाणंतविरुद्धसरूवेणावट्ठाण-णियमदंसणादो। जो पुण किट्टीकम्मंसियवदिरित्तो ६ १६७ यह सूत्र सूगम है । अब इस गाथाद्वारा पूछे गये अर्थका कृष्टिवेदकके विषय में किसी प्रकारके भी प्रयोजनकी सम्भावना नहीं है इस बातका कथन करनेके लिये आगेके प्रबन्धको कहते हैं * इस गाथाके [अर्थका] कृष्टिकरण प्रकरणसे लेकर कोई प्रयोजन नहीं है। ६१६८ शंका-इसका क्या कारण है ? समाधान--उत्कर्षणाकरण कृष्टिकरणके विषयमें अत्यन्त असम्भव है, इसलिये वह यहां प्रतिषिद्ध है। इस कारण उत्कर्षणके सम्भव होने पर उत्कर्षित किये गये प्रदेशपुंजका तदनन्तर समयमें हों क्या अपकर्षण करके उनका प्रवेश कराना क्या सम्भव है या उनका प्रवेश कराना सम्भव नहीं है ? इस तरह ऐसा विचार ख्यालमें आता है । परन्तु यहाँ पर उत्कर्षणका ही अत्यन्त अभाव होनेसे प्रकृत विचारका अवसर हो नहीं है यह यहाँ इस सूत्रका अर्थके साथ सद्भाव है। अब इसी अर्थको स्पष्टकरनेके लिये आगेके सूत्रका निर्देश करते हैं___ * खेद है ! कि कृष्टिकारक और कृष्टिवेदक स्थिति और अनुभागका उत्कर्षण नहीं करता। 6 १६९ 'हंदि' यह जानो और निश्चय करो कि कृष्टिकारक और कृष्टिवेदक स्थिति और अनुभागका उत्कर्षण करके उन्हें ऊपर नहीं संक्रमित करता है। शंका-यह नियम क्यों है ? समाधान---क्योंकि यहाँसम्बन्धी क्षषक परिणामोंके [उत्कर्षणको अत्यन्त विरुद्ध स्वभावरूपसे अवस्थानका नियम देखा जाता है। परन्तु जो कृष्टिकर्माशिकसे भिन्न जीव है उसके इस
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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