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________________ ७० [चारित्तक्खवणा जयधवलासहिदे कसायपाहुडे तस्थ एसो अत्यविचारो पयदि तत्थुक्कड्डणाए पडिसेहाभावादो। सो च पुव्वमेव सुविचारिदो त्ति पदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तमाह ___* जो किट्टो कम्मंसिगवदिरित्तो जीवो तस्स एसो अत्थो पुष्वं परूविदो $ १७० गयत्थमेदं सुत्तं; ओवट्टणचरिममूलगाहासंबंधेणेदस्स अस्थस्स पुव्वमेव सुविचारिदत्तादो। जइ एवं एसा गाहा गाढवेयव्वा एदम्मि विसये असंभवदोसदुसियत्तादो ति णासंका कायव्वा; तदसंभवस्सेव फुडीकरणट्टमेंदिस्से गाहाए अवयारस्स माफल्लदंमणादो। तम्हा ओकड्डणसंबंधेणुक्कड्डणाए वि संभवासंभवणिण्णयविहाणट्ठमेसा गाहा समोइण्णा ति ण किंचि विप्पडिसिद्ध। प्रकारके अर्थका विचार प्रवृत्त होता है, क्योंकि उस जोवके उत्कर्षण होने का निषेध नहीं है। और उसका पहले ही अच्छी तरहसे विचार कर आये हैं। इसप्रकार इस अर्थका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं * जो कृष्टिकर्माशिकसे अतिरिक्त जीव है उसके इस अर्थका पहले ही कथन कर आये हैं। ६ १७० यह सूत्र गतार्थ है, क्योंकि अपवर्तनासम्बन्धी अन्तिम मूल गाथाके सम्बन्धसे इस अर्थका पहलेही अच्छी तरह विचार कर आये हैं । शंका-यदि ऐसा है तो यह गाथा आरम्भ नहीं की जानी चाहिये, क्योंकि इस विषयमें यह गाथा असम्भव दोषसे दूषित हो जाती है ? समाधान--ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये क्योंकि उत्कर्षण प्रकृतमें असम्भव है, उसको स्पष्ट करने के लिये हो इम गाथाके अवतारको सफलता देखी जाती है। इसलिये अपकर्षणके सम्बन्धसे उत्कर्षणके भी सम्भव होने और सम्भव न होनेरूप निर्णयका विधान करने के लिये यह गाथा अवतीर्ण हुई है, इसलिये प्रकृतमें कुछ भी निषेधयोग्य नहीं है। विशेषार्थ-पहले मूल गाथा १११ (१६४) में यह स्पष्ट कर आये हैं कि अनिवृत्तिकरणमें जब यह जीव अनुभागकी अपेक्षा चारों संज्वलनोंकी कृष्टियोंकी रचना करता है और जब इनका वेदन करता है तब उन दोनों अवस्थाओंमें इसके अपकर्षण ही होता है, उत्कर्षण नहीं होता। ऐसी अवस्थामें प्रकृतमें 'उकाड्डदि जे अंसे' यह गाथा नहीं कहो जानी थी, क्योंकि कृष्टियोंके वेदन कालके समय इस गाथामें प्रतिपादित विषयका प्रकृतमें कोई प्रयोजन नहीं देखा जाता। यह एक शंका है, इसका समाधान करते हुए बतलाया है कि प्रकतमें इस गाथामें प्रतिपादित विषयको सम्भावना है या नहीं, इस बातको स्पष्ट करनेके लिये यहां इस गाथाका अवतार हआ है। और निष्कर्ष यह बातलाया गया है कि इस गाथामें प्रतिपादित विषयका प्रकृतमें कोई प्रयोजन नहीं है।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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