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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चारित्तक्खवणा १८५ एत्थ पुण गलिदसेमो चेव गुणसेढिणिक्खेत्रो, तेणुवरिमद्विदिम्मि णिसिच्चमाणामखेज्णगुणपदेसग्गं पुविल्लगुणसेढिमीसगे चव णिक्खिवदि । उवरिमद्विदीए पुण ण भवदि, अंतरं चैव तत्थ भवदि । अथपबोधण?मेव उवरिमट्ठिदिपदेसग्गमिदि भणिदं । एवं चेव समयं पडि गुणसेढिविण्णासकमो अणुगंतव्यो । तदो सिद्धं उदीरिज्जमाणपदेसग्गादो कम्मोदएण पविसमाणदव्यमसंखेज्जगुणमेव, णाण्णारिसमिदि । १८६ एवमेत्तिएण पबंधेण छट्ठ भासगाहाए अत्थविहासणं समाणिय संपहि जहावसरपत्ताए सत्तमीए भासगाहाए अत्थविहासणट्टमुवरिमो सुत्तपबंधो । के एतो सत्तमा भासगाहा । ६ १८५ परन्तु यहाँ पर गलितशेष हो गुणश्रेणिनिक्षेप है, इस कारण उपरिम स्थितिमें सींचे जाने वाले असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको पहलेके गुणश्रेणोशीर्ष में ही निक्षिप्त करता है । परन्तु उपरिम स्थितिमें वह नहीं पाया जाता, क्योंकि उस स्थितिमें अन्तर ही होता है । यहाँ पर अर्थका ज्ञान करानेकेलिए ही 'उवरिमट्टिदिपदेसग्गं' यह कहा है। इसी प्रकार प्रत्येक समयमें गुणश्रोणि की रचनाका क्रम जान लेना चाहिये । इस कारण सिद्ध हुआ कि उदीरित होने वाले प्रदेशपूजसे कर्मके उदयसे उदयमें प्रवेश करनेवाला द्रव्य असंख्यातगुणा ही होता है, अन्य प्रकारका नहीं होता। । अब यहाँ यह गा गया है। असं कर्षण विशेषार्थ-पूर्व में अन्तरकरण-क्रिया सम्पन्न करनेके पहले यह बतला आये हैं कि यह क्षपक जीव असंख्यात समयप्रबद्धोंका उदीरणाद्वारा क्षपणा करता है। अब यहाँ यह सब ऐसे जीवके उदय कितने समय प्रबद्धों का होता है ? इसी प्रश्न का उत्तर इस गाथा द्वारा दिया गया इस सूत्रगाथा में बतलाया है कि जितने द्रव्य की यह जोव उदीरणाद्वारा क्षपणा करता है उनसे भी द्रव्यका इस जीवके उदय होता है, क्योंकि इस जीवके प्रतिसमय जितने द्रव्यका अप उसमें असंख्यातलोकका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आता है उससे उदयमें आनेवाला द्रव्य असंख्यातगुणा होता है, क्योंकि इसमें गुणश्रेणिका द्रव्य भी है और अन्य द्रव्य भी है, ऐसा यहाँ जानना चाहिये। यहाँ प्रत्येक समयमें उदोरणा-द्रव्यसे उदय-द्रव्य असंख्यातगुणा कैसे होता है ? इसके कारणका निर्देश करते हुए वहाँ बतलाया है कि प्रथम समयमें जो उदयस्थिति होती है उससे अनन्तर उपरिम समय में जो प्रदेशपुंज निक्षिप्त हुए उस प्रदेशजसे उसी दूसरे समयमें उसी स्थितिविशेषमें उदीरणा होकर जो प्रदेशज निक्षिप्त होता है वह असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है, इसीलिये यहाँ उदयस्थिति में प्राप्त हुये : देशपुंजको उदोरणाकेद्वारा प्राप्त हुये प्रदेशपुजसे असंख्यातगुणा बतलाया है। ११८६ इस प्रकार इतने प्रबन्धद्वारा छठी भाष्यगाथाके अर्थकी विभाषा समाप्तकर अब यथावसरप्राप्त सातवीं भाष्यगाथाके अर्थकी विभाषा करनेकेलिये आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है * इससे आगे सातवीं भाष्यगाथाका कथन करते हैं ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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