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________________ गा० २११] निपातः पादपूरणेऽथवाणुवशमीकरणे वा द्रष्टव्यः । 'सुद-मदि आवरणे च' एवं मणिदे सुदणाणावरणीये मदिणाणावरणीये च अणुभागमेसो वेदंतो देसमावरणं देसघादि, सरूवमेदेसिमणुभाग वेदेदि त्ति वुत्तं होइ । ६५६ एत्थ च सद्दणिद्देसेण 'ओहि-मणपज्जवणाणावरणीयाणं चक्खु-अचक्खुओहिदंसणावरणीयाणं च गहणं कायव्वं, तेसि पि खओवसमलद्धिसंभववसेण देसघादिअणभागोदयसंभवं पडि विसेसाभावादो। ण केवलमेदेसिं चेव कम्माणमणभागमेसो देसघादिसरूवं वेदेदि, किंतु 'अंतराइए'च' पंचंतराइयपयडीणं पि देसावरणसरूवमणुभागमेसो वेदयदे, लद्धिकम्मसत्त पडि विसेसाभावादो त्ति वुत्तं होइ । कुदो एवमेदेसि कम्माणमणुभागोदयस्स देसघादित्तसंभवो जादो त्ति आसंकाए इदमाह-'लद्धी यं' जं जम्हा खओवसमलद्धी एदेसि कम्माणमेत्थ संभवइ, तम्हा देसघादिसरूवमेदेसिमणुभागं वेदेदि त्ति भणिदं होदि । ६५७ एवमेदेण एदेसि कम्माणमणुभागोदयस्स देसघादित्तसंभवं पदुप्पाइय संपहि तदेयंतावहारणणिरायरणमुहेण सव्वघादिसरूवो वि एदेसि वुत्तासेसकम्माणमणु अब इस चौथी भाष्यगाथाके अवयवोंके किंचित् अर्थकी प्ररूपणा करेंगे । यथा-इस भाष्यगाथा सूत्रमें 'अध' यह निपात पादपूरण अर्थमें जानना चाहिये या अनुपशमीकरण के अर्थमें जानना चाहिये । 'सुद-मदि आवरणे च' ऐसा कहने पर श्रुतज्ञानावरणीय और मतिज्ञानावरणीयके अनुभागको यह क्षपक वेदन करता हुआ देशावरणरूपसे ही वेदन करता है अर्थात् इन कर्मोका देशघाति स्वरूप अनुभागका वेदन करता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । 8 ५६ इस भाष्यगाथा सूत्रमें आये हुए 'च' शब्दके निर्देशसे अवधिज्ञानावरण, मन पर्ययज्ञानावरण कर्मोंका तथा चक्षदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण और अवधिदर्शना चाहिये क्योंकि इन कर्मोंका भी क्षयोपशमलब्धिके सम्भव होनेसे देशघाति अनुभागके उदयके सम्भव होनेके प्रति विशेषताका अभाव है। केवल इन्हीं कर्मोके अनुभागको यह क्षपक देशघातिस्वरूपसे वेदन नहीं करता है, किन्तु 'अंतराइए च' अन्तराय कर्मको पाँचों प्रकृतियोंका भी देशावरणस्वरूप अनुभागको यह क्षपक वेदन करता है, क्योंकि उनके उक्तकर्मोंके क्षयोपशमलब्धि कर्मांशरूप होनेके प्रति विशेषताका अभाव है। यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार इन कर्मोंके अनुभागका उदय देशघातिपनेको कैसे प्राप्त हो गया ऐसी आशंका होने पर उक्त भाष्यगाथासूत्र में यह वचन कहा है-'लद्धी य' यतः इन कर्मों की क्षयोपशमलब्धि यहाँ पर सम्भव है, इसलिये इन कर्मों के देशघातिस्वरूप अनुभाग को यह जीव वेदता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। ५७. इस प्रकार इस कथन द्वारा इन कर्मों के अनुभाग के उदय के देशघातिपने के संभव होने का कथन करके अब उन कर्मों के एकान्त के निश्चय के निराकरणद्वारा इन उक्त समस्त १. पादपूरणार्थवाणुवशमीकरणे प्रे० का० । पादपूरणाथ वाणुवशमीकरणे ता० । २. अंतराये आ० ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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