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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चारित्तक्खवणा भागोदयसंभवो अस्थि त्ति पदुप्पाएमाणो इदमाह-'सव्वावरणं अलद्धी य । ण केवलमेदेसि कम्माणमणुभागोदयं देसघादिसरूवं चेव वेदयदि, किंतु सव्वावरणं च' सव्वघादिसरूवं च एदेसिमणभागं वेदेदि । किं कारणं ? अलद्धी य, खओवसमलद्धीविरहो अलद्धी णाम । जदो एदेसि कम्माणं खओवसमविसेसो केसु वि जीवेसु णत्थि, तदो सव्वघादिसरूवो वि एदेसि कम्माणमणुभागोदओ कत्थइ ण विरुज्झदि त्ति वृत्तं होइ । ५८ एत्थ चोदओ भणइहोउ णाम ओहि-मणपज्जवणाणावरणीयाणमोहिदंमणावरणीयस्स च अण, भागोदयो केसु वि जीवेसु देसघादिसरूवो अण्णेसु च सव्वघादिमरूवो होदूण पयट्टदि त्ति, सव्वेसु जीवेसु एदासिं तिण्हं पयडीणं खओवसमलद्धीए णियमाणवलभादो। किंतु सुद-मदिआवरणदिपयडीणं देस-सव्वघादिसरूको अणुभागोदओ भयणिज्जसरू, वेणेदस्स खवगस्स होदि त्ति णेदं घडदे, तोसिं खओवसमलद्वीए सव्वजीवेसु अवस्सं, भाविणियमदंसणादो त्ति ? कर्मों के अनुभाग का उदय सर्वधातिस्वरूप भी सम्भव है इस बात का प्रतिपादन करते हुए उक्त भाष्यगाथा का यह वचन कहा है-'सव्वावरणं अलद्धी य' इन कर्मों के अनुभाग के उदय को केवल देशघातिस्वरूप ही वेदन नहीं करता, किन्तु 'सव्वावरणं च' इन कर्मों को सर्वघातिस्वरूप भी वेदन करता है। शंका-इसका कारण क्या है ? समाधान-क्योंकि 'अलद्धी य' ये कर्म क्षयोपशमलब्धि से रहित हैं । अलब्धिका अर्थ है कि यतः इन कर्मों का क्षयोपशमविशेष किन्हीं जीवों में नहीं पाया जाता इसलिये किन्हीं जीवों में इन कर्मों के अनुभाग का उदय सर्वघातिस्वरूप भी विरोध को प्राप्त नहीं होता। ६ ५८ शंका-यहाँ पर शंकाकार. कहता है कि अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण के अनुभाग का उदय किन्हीं जीवों में देशघातिस्वरूप होकर प्रवृत होवे तथा अन्य जीवों में उक्त तीन कर्मों का उदय सर्वघातिस्वरूप होकर प्रवृत होवे, क्योंकि सब जीवों में इन तोन प्रकृतियों की क्षयोपशमलब्धि होने का नियम नहीं पाया जाता । किन्तु मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण आदि प्रकृतियों के देशघाति और सर्वघातिस्वरूप अनुभाग का उदय भजनीयरूप से इस क्षपकके प्रवृत्त होता है यह बात घटित नहीं होती, क्योंकि उन प्रकृतियों के क्षयोपशमलब्धि के सब जोवों में अवश्य होनेका नियम देखा जाता है। १. सव्वावरणो आ०।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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