SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५ गा० २११] ६५९ एत्थ परिहारो वुच्चदे-सच्चमेदमेदेसि कम्माणं खओवसमलद्धिसामाणं सव्वजीवेसु णियमा संभवदि त्ति, किंतु खओवसमविसेसमस्सियूण पयदत्थसमत्थणा इत्थमणुगंतव्वा । तं जहा-मदि-सुदणाणावरणीयाणं ताव उच्चदे। दोण्हमेदासि पयडीणमसंखेज्जलोगमेत्तीओ उत्तरोत्तरपयडीओ अत्थेि पज्जायसुदणाणप्पहुडि जाव सब्वुक्कस्ससुदणाणे त्ति समवट्टिदणाणवियप्पेसु पडिबद्धाणमसंखेज्जलोगमेत्ताणमावरणवियप्पाणमुवलंभादो। ण च मदिणाणस्स आवरणवियप्पा एत्तियमेत्ता सुत्तणिबद्धा णत्थि त्ति आसंका कायव्वा; मदिपुव्वसुदणाणमेदेण भिण्णस्स मदिणाणस्स वि तेत्तियमेत्ताणमावरणवियप्पाणं संभवे विरोहाभावादो। एवं च संते तत्थ जो सव्वुक्कस्सखओवसमपरिणदो चोद्दसपुत्वहरो सव्वुक्कस्सकोटबुद्धिआदिमदिणाणविसेससंपण्णो खवगसेढिमारूढो तस्स देसघादिसरूवो चेव दोण्हमेदासि पयडीणमणुभागोदओ होदि, तदुत्तरपयडीणं सव्वासिमेव तत्थ देसघादिसरूवेण परिणमिय उदयविदीए समवट्ठाणदंसणादो । ___६६० जो पुण विगलसुदधारओ विगलमदिणाणी च सेढिमारुहदि तत्थ सन्वधादिसरूवो एदासिमणुभागोदओ दट्ठव्वो; हेट्ठिमावरणाणं तत्थ देसघादिपरिणामसंभवे वि उवरिमावरणवियप्पाणं सव्वघादिसरूवाणमेव तम्मि पत्तिदंसणादो। हंदि जइ वि एगवखरेण्णसयलसुदधारओ खवगसेढिमारुहदि, तो वि तत्थ सव्वधादिसरूवो ६ ५९ समाधान---अब यहाँपर इसका परिहार कहते हैं-यह बात सच है कि इन कर्मोकी क्षयोपशमलब्धि-सामान्य सब जीवोंमें नियमसे सम्भव है, किन्तु क्षयोपशम-विशेषका आश्रय करके प्रकृत अर्थका समर्थन इस प्रकार जानना चाहिये; यथा-सर्वप्रथम मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरणकी अपेक्षा कथन करते हैं-इन दोनों प्रकृतियों की असंख्यातलोकप्रमाण उत्तरोत्तर प्रकृतियाँ हैं, क्योंकि पर्याय श्रतज्ञानसे लेकर सबसे उत्कृष्ट श्रतज्ञान तक समवस्थित ज्ञानके भेदोंमें प्रतिबद्ध असंख्यात लोकप्रमाण आवरणके भेद उपलब्ध होते हैं। यहाँ पर मतिज्ञानके इतने आवरणके भेद सूत्रमें नहीं कहे गये हैं, ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञानके भेदसे भेदको प्राप्त हुए मतिज्ञानके भी उतने आवरणके भेदोंके सम्भव होनेमें विरोधका अभाव है। और ऐसा होनेपर उस विषयमें जो सबसे उत्कृष्ट क्षयोपशमसे परिणत चौदह पूर्वधर तथा जो सबसे उत्कृष्ट कोष्ठबुद्धि आदि मतिज्ञान विशेषसे सम्पन्न ऐसा जो क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ जोव है उसके इन दोनों प्रकृतियोंका देशघातिस्वरूप हो अनुभागका उदय होता है, क्योंकि उन दोनों प्रकृतियोंके सभी उत्तर भेदोंकी वहाँ देशघातिस्वरूपसे परिणमन करके उदयस्थितिका समवस्थान देखा जाता है। ६६० किन्तु जो विकल श्रुतधारक और विकल मतिज्ञानी जीव क्षपकश्रेणिपर आरोहण करता है उसके इन दोनों प्रकृतियोंके उत्तर भेदोंके अनुभागका सर्वघातिस्वरूप उदय जानना चाहिये । यद्यपि उक्त दोनों प्रकृतियोंके अधस्तन आवरणोंका देशघातिरूपसे परिणमन सम्भव होने १. लद्धि प्रे० का।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy