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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चारित्तक्खवणा ___तानो वि किट्टीदो किहि संकममाणस्स से काले एका उदयावलिया भवदि। ६२३५ गयत्थमेदं सुत्तं । णवरि एत्थ 'से काले एगा उदयावलिया' ति भणिदे समयणावलियमेत्तगोवुच्छेसु त्थिवुक्कसंकमेण वेदिज्जमाणकिट्टीए उवरि संकंतेसु तदणंतरसमयप्पहुडि एक्का चेव उदयावलिया होदि त्ति घेत्तव्वा । एसो च अत्थो सव्वासिं किट्टीणं वेदगस्स संधीए पादेक्कं जोजेयव्यो । एवं विदियभासगाहाए अत्थो समत्तो। तदो किट्टीखवणाए चउथी मूलगाहा समप्पदि त्ति जाणावणफलमुवसंहारवक्कमाह * चउत्थी मलगाहा खवणाए समत्ता। ६ (२३६) सुगममेदमुवसंहारवक्कं । एवमेतिएण पबंधेण सुहुमसांपराइयगुणट्ठाणमवहिं कादूण चरित्तमोहक्खवणाए किट्टीवेदगस्स परूवणाविहासणं तत्थेव सुत्तप्कासं च कादूण संपहि एसा सव्वा वि परूवणा पुरिसवेदस्स कोहसंजलणोदयेण सेढिमारुढस्स खवगस्स परूविदा ति जाणावणमुत्तरसुत्तमाह * एसा परूवणा पुरिसवेदगस्स कोहेण उवट्टिदस्स। * वे दोनों आवलियां भी एक संग्रह कृष्टिसे दूसरी संग्रह कृष्टिमें संक्रमण करनेवाले क्षपकके तदनन्तर समयमें अर्थात् एक समय कम उच्छिष्टावलिके गल जानेपर एक उदयावलिमात्र रह जाती है। ६ २३५ यह सूत्र गतार्थ है । इतनी विशेषता है कि इस सूत्रमें 'से काले एगा उदयावलिया' ऐसा कहने पर उसका अर्थ है कि एक समय कम उदयावलि प्रमाण गोपुच्छाओंके स्तिवुक संक्रमद्वारा वेदी जानेवाली संग्रह कृष्टिमें संक्रान्त होने पर तदनन्तर समयसे लेकर एक हो उदयावलि होती है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । और यह अर्थ सभी संग्रह कृष्टियोंका वेदन करनेवाले क्षपकके सन्धिकालमें प्रत्येकके योजित करना चाहिये। इस प्रकार दूसरी भाष्यगाथाका अर्थ समाप्त हुआ। तत्पश्चात् कृष्टिक्षपकको चौथी मूल गाथा समाप्त होती है इस बातका ज्ञान कराने. के फलस्वरूप उपसंहार वाक्य कहते हैं * इस प्रकार क्षपणामें चौथी मूल गाथा समाप्त हुई। ६२३६ यह उपसंहारवाक्य सुगम है। इस प्रकार इतने प्रबन्धद्वारा सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानको मर्यादा करके चारित्रमोहनीयको क्षपणामें संग्रह कृष्टिवेदकके प्ररूपणासम्बन्धी-विभाषा और उसी प्रसंगसे सूत्रस्पर्श करके अब यह सभी प्ररूपणा क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपक श्रेणिपर चढ़े हुए पुरुषवेदीके कही है, इस बातका ज्ञान करानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं___ * यह प्ररूपणा क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए पुरुषवेदी क्षपकके जाननी चाहिये।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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