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________________ गा० २३१ ] ९९ $ २३७ एसा सव्वावि अणंतरपरूविदा सुहुमसांपराइयगुणट्ठाणपज्जंता परूवणा पुरिसवेदोदयक्खवगस्स कोहसंजलणोदयेण खवगसेढिमुवट्ठिदस्स परूविदा त्ति वुचं हो । ९ २३८ संपहि पुरिसवेदोदयस्स चेव माणोदयेण सेढिमारुदस्स केरिसी परूवणा हो आसंका तव्विसयणाणत्तगवेमणट्ठमुवरिमं पबंधमाह * पुरिसवेदयस्स' चैव माषेण उवट्ठिदस्स गाणत्तं वत्तइस्सामी । $ २३७ यह अनन्तर पूर्व सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान पर्यन्त कही गई सभी प्ररूपणा क्रोध संज्वलन कषायके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए पुरुषवेद के उदयवाले क्षपक जीवके कही गई है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । विशेषार्थ — चौथी मूल गाथामें जो कहा गया है उसका भाव यह है कि एक संग्रहकृष्टिका वेदन करके जब अन्य संग्रहकृष्टिका अपकर्षण करके वेदन करनेवाले क्षपकके सन्धिस्थानमें पूर्व में वेदो गई संग्रहकृष्टिका जो भाग शेष बचता है उसको क्षपणा कैसे होती है ? क्या उदयद्वारा उसकी क्षपणा होती है या पर प्रकृतिसंक्रमद्वारा संक्रमण करके उसकी क्षपणा होती है तथा एक समयकम उच्छिष्टावलिप्रमाण जो गोपुच्छा शेष रहती है उसकी क्षपणा कैसे होती है ? यहाँ शेष पदद्वारा दो समय कम दो आवलि प्रमाण नवकबन्ध और एक समय कम एक आवलिप्रमाण उच्छिष्टावलिका ग्रहण किया गया है। इन प्रकार यह मूलगाथा पृच्छासूत्र है । आगे इसका स्पष्टीकरण करने के लिये दो भाष्यगाथाएं आई हैं । उनमेंसे पहली भाष्यगाथा में यह बतलाया गया है कि जो दो समय कम दो आवलिप्रमाण शेष बचता है तथा एक समय कम उच्छिष्टावलि प्रमाण जो शेष बचता है उसमेंसे एक समय कम उच्छिष्टावलिप्रमाण गोपुच्छाका तो स्तिक संक्रमणद्वारा उदयमें निक्षेप करके निर्जीण करता है तथा दो समय कम दो आवलि प्रमाण जो नवकबन्ध प्रमाण गोपुच्छा शेष रहती है उसको अधःप्रवृत्तसंक्रमद्वारा दूसरी संग्रहकृष्टिमें संक्रमित करके क्षपणा करता है । तथा दूसरी भाष्यगाथा में यह बतलाया गया है कि जब यह क्षपक एक संग्रहकृष्टिका वेदन करके दूसरी संग्रह कृष्टिका वेदन करता है तब इसके एक तो जो एक समय कम उच्छिष्टावलिप्रमाण गोपुच्छा शेष बचती है उसकी एक उदयावलि होती है । दूसरे इस समय अपकर्षण करके वेदी जाने वाली संग्रहकृष्टि है उसकी उदयावलि होती है । इस प्रकार संग्रहकृष्टियों के सब सन्धि स्थानोंमें दो उदयावलियाँ होती हैं । मात्र जब एक समय कम उच्छिष्टाप्रमाण गोपुच्छाका स्तिवुक संक्रमद्वारा उदय हो जाता है तब एक हो उदयावलि शेष बचती है ऐसा यहाँ समझना चाहिये । २३८ अब मानसंज्वलन कषायके उदयसे श्रेणि पर चढ़े हुए पुरुषवेदके उदयावलि क्षपक जीव कैसी प्ररूपणा होती है ? ऐसी आशंका होनेपर उस विषय में नानापन ( भेद) का अनुसन्धान करनेकेलिये आगे के प्रबन्धको कहते हैं * अब मान-संज्वलन के उदयसे श्रेणि पर चढ़नेवाले पुरुषवेदी क्षपकने जो विभिन्नता होती है उसे बतलावेंगे । १. पुसिवेदस्स ता० ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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