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________________ १०० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ चारित्तक्खवणा $ २३९ सुगमं । * तं जहा । $ २४० सुगमं । * अंतरे अकदे णत्थि णाणत्तं । $ २४१ एत्थ णाणत्तमिदि वुते मेदो विसेसो पृधभावों ति एयट्ठो । तदो अंतरकरणादो पुत्रवत्था वट्टमाणाणं कोह- माणोदयक्खवगाणं ण कोत्थि मेदसंभवो ति gists | * अंतरे कदे णाणत्तं । $ २४२ अंतरकरणे पुण समाणिदे तत्तो पहुडि केत्तिओ वि णाणत्तसंभवो अस्थि तमिदाणिं भणिस्सा मोति वृत्तं होदि । संपहि को सो विसेससंभवो त्ति आसंकाए इदमाह * अंतरे कदे कोहस्स पढमट्टिदी णत्थि, माणस्स अस्थि । १ २४३ पुब्विल्लक्खवगो पुरिसवेदेण सह कोहसंजलणस्स पढमट्ठिदिमंतो मुहुत्तायामेण ठवेदि । एसो वुण पुरिसवेदेण सह माणसंजलणस्स पढमट्टिदि ठवेदि त्ति एद $ २३९ यह सूत्र सुगम है । * वह जैसे । $ २४० यह सूत्र सुगम है | * अन्तरकरणद्वारा अन्तर नहीं करने तक कोई विभिन्नता नहीं है । $ २४१ इस सूत्रमें 'णाणत्त" ऐसा कहनेवर भेद, विशेष और पृथग्भाव ये तीनों एकार्थक हैं । अतएव अन्तरकरणसे पूर्व अवस्था में विद्यमान क्षपक जीवोंके क्रोधसंज्वलन और मानसंज्वलनके क्षपणा के समय कोई भेद सम्भव नहीं है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * अन्तरक्रिया के सम्पन्न करने पर विभिन्नता है । $ २४२ परन्तु अन्तरकरण क्रियाके सम्पन्न होने पर वहाँसे लेकर कितनी ही विभिन्नता सम्भव है उसे इस समय कहेंगे, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब वह कौन सा विशेष सम्भव है ऐसी आशंका होनेपर इस सूत्र को कहते हैं * अन्तरक्रिया के सम्पन्न करनेके बाद क्रोधसंज्वलन की प्रथम स्थिति नहीं होती, मानसंज्वलनकी प्रथम स्थिति होती है । § २४३ पहलेके क्षपक जीव अर्थात् क्रोधसंज्वलनके उदयके साथ क्षपक श्रेणिपर चढ़नेवाला क्षपक जीव पुरुषवेदके साथ क्रोधसंज्वलनकी प्रथम स्थितिको अन्तर्मुहूर्त आयाम रूपसे
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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