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________________ केवलसमुग्वाद ] १५१ एवमेत्युद्दे से गुणसेढिणिक्खेवस्स विसरिसभावो जादो त्ति १ किं कारणं ? वीयरागपरिणाममेदाभावे वि अंतोमुहुत्त सेसा उसव्वपेक्खाणमंत रंगपरिणाम विसेसाणं किरिया भेदसाहणभावेण पयट्टमाणाणं पडिबंधाभावादो | $ ३३२ एवमंतोमुहुत्तमेत्त कालमावज्जिदकरणविसयं वावारविसेसमणुपालिय तम्मि णिट्ठिदे तदो से काले केवलिसमुग्धादं करेदि ति सुत्तत्थसंबंधो को केवलिसमुग्धादो नाम ? वुच्चदे उद्गमनमुद्धातः, जीवप्रदेशानां विसर्पणमित्यर्थः । समीचीन उद्घातः समुद्घातः । केवलिनां समुद्धातः केवलिसमुद्घातः । अघातिकर्म स्थितिशमीकरणार्थं केवलिजीवप्रदेशानां समयाविरोधेन ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च विसर्पणं केवलिसम्मुद्धात इत्युक्तं भवति । अत्र ‘केवलि' विशेषणं शेषाशेषसमुद्धात विशेषव्युदासार्थमवगंतव्यम्, तेषामिहानधिकारात् । स एष केवलिसमुद्धातो दंड- कपाट- प्रतर- लोकपूरणमेदेन च चतुरवस्थात्मकः प्रत्येतव्यः । तत्र तावद्दंडस मुद्धातस्वरूपनिरूपणार्थमुत्तरसूत्रमाह * पढमसमये दंड करेदि । - शंका —– स्वस्थानकेवलीके या आवर्जित क्रियाके अभिमुख हुए केवली के अवस्थित एक रूप परिणामके रहते हुए इस स्थानमें गुणश्रेणिनिक्षेपका इस प्रकार विसदृशपना कैसे हो गया है, इसका क्या कारण है ? समाधान -- यहाँ पर ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि वीतराग परिणामों में भेदका अभाव होने पर भी वे अन्तरंग परिणामविशेष अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आयुकी अपेक्षा सहित होते हैं और आवर्जितकरण क्रिया के भेदरूप साधनभावसे प्रवृत्त होते हैं, इसलिये यहाँ पर गुणश्रेणिनिक्षेपके विसदृश होने में प्रतिबन्धका अभाव है । $ ३३२ इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त प्रमाणकाल तक आवर्जितकरणविषयक व्यापार विशेषका अनुपालनकर उसके समाप्त होनेपर इसके बाद अनन्तर समयमें केवलसमुद्धातको करता है यह इस सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है | शंका - केवलिसमुद्धात किसका नाम है ? समाधान - कहते हैं, उद्गमनका अर्थ उद्धात है । इसका अर्थ है - जीवके प्रदेशों का फैलना । समीचीन उद्धातको समुद्धात कहते हैं । केवलियोंके समुद्धातका नाम केवलिसमुद्धात है । अघातिकर्मों की स्थितिको समान करनेके लिये केवली जीवके प्रदेशों का समयके अविरोधपूर्वक ऊपर, नीचे और तिरछे फैलना केवलिसमुद्धात है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहाँ केवलसमुद्धात पदमें 'केवलि' विशेषण शेष समस्त समुद्धात विशेषोंके निराकरण करनेके लिये जानना चाहिये, क्योंकि उन समुद्धातों का प्रकृतमें अधिकार नहीं है । वह यह केवल समुद्धात दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूराणके भेदसे चार अवस्थारूप जानना चाहिये। उन भेदोंमेंसे सर्वप्रथम दण्डसमुद्धातके स्वरूपका निरूपण करनेके लिये आगेके सूत्रको कहते हैं * केवली भगवान् प्रथम समय में दण्डसमुद्धात करते हैं ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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