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________________ केवलिसमुग्धाद] १५३ $३३४ तम्हि दंडसमुग्घादे वट्टमाणो आउगवज्जाणं तिहमघाइकम्माणं पलिदोवमस्सासंखेज्जदिमागमेत्तहिदिसंतकम्मस्स तकालमुवलब्भमाणस्स असंखेज्जे भागे घावेदणासंखेज्जदिमागं ठवेदि त्ति वृत्तं होइ। कुदो एवमेक्कसमयेणेव एवंविहो द्विदिघादो जादो त्ति णासंकियव्वं, केवलिसमुग्धादपाहम्मेण तदुववत्तीए बाहाणुवलंभादो। ३३५ संपहि एत्थेवाणुभागधादमाहप्पपदंसणमिदमाह-- * सेसस्स च अणुभागस्स अप्पसत्थाणमणंता भागे हणदि । $३३६ खीणकसाय दुचरिमसमएं घादिदण परिसेसिदो जो अणुभागो तस्स अणंते भागे धादिदूण अणंतिमभागे अप्पसत्थपयडीणमणभागसंतकम्म ठवेदि त्ति वुत्तं होइ । पसत्थपयडीणमेत्थ द्विदिघादो चेव, अणुभागपादो पत्थि त्ति घेत्तव्वं । एत्थ गुणसेढिणिज्जरा जहा आवज्जिदकरणे परूविदा, तहा चेव वत्तव्वा, विसेसाभावादो । एवं दंडसमुग्पादं कादण तदो से काले कवाडसमुग्धादेण परिणममाणस्स सरूवविसेसणिद्धारणट्टमुत्तरसुत्तावयारो-- ३३३४ उस दण्डसमुद्धातमें विद्यमान केवली जिन आयुकमंको छोड़कर तीन आघातिकर्मों की पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिसत्कर्मकी तत्काल उपलभ्यमान स्थितिके असंख्यात बहुभागका घात करके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिको स्थापित करते हैं, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। शंका--इस प्रकार एक समयद्वारा ही इस प्रकारका स्थितिघात केसे हो गया ? समाधान--ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि केवलिसमुद्धात की प्रधानतासे उसकी उपपत्ति होने में कोई बाधा उपलब्ध नहीं होती। $ ३३५ अब यहींपर अनुभागघातका माहात्म्य दिखलानेकेलिये इस सूत्रको कहते हैं * तथा शेष अनुभागसम्बन्धी अप्रशस्त अनुभागोंके अनन्त बहुभागोंका घात करते हैं। ३३६ उक्त क्षपक क्षीणकषाय गुणस्थानके द्विचरम समयमें घात करके जो अनुभाग शेष रहा उसके अनन्त बहुभागका घात कर अनन्तवें भागमें अप्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभाग सत्कर्मको स्थापित करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। प्रशस्त प्रकृतियोंका यहाँपर स्थितिघात ही होता है, अनुभागघात नहीं होता ऐसा ग्रहण करना चाहिये । गुणश्रेणिनिर्जराका जिस प्रकार आवजितकरणमें प्ररूपण किया है उसी प्रकार यहाँपर भी प्ररूपण करना चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। इस प्रकार केवलो जिन दण्डसमुद्धात करके उसके बाद अनन्तर समयमें कपाटसमुद्धातसे परिणमन करनेवालेके स्वरूपविशेषका निर्धारण करनेकेलिये उत्तर सूत्रका अवतार होता है१. प्रेसकापीप्रती संखेज्जे इति पाठः । ता० प्रत्यनुसारेण संशोधनमिदं विहितम् । २, आ० प्रती खीणकसायचरिमसमए इति पाठः । २०
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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