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________________ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ चारित्तक्खवणा * संखेज्जगुणाए सेढीए पदेसग्गं णिज्जरेमाणो विहरदित्ति । $ ३११ प्रतिसमयमसंख्यातगुणश्रेण्या कर्मप्रदेशानेव निधुन्वन् धर्मतीर्थप्रवर्तनाय यथोचिते धर्मक्षेत्रे देवासुरानुयातो महत्या विभूत्या विहरति प्रशस्तविहायोगतिसव्यपेक्षात्तत्स्वाभाव्यादिति सूत्रार्थः । स्यान्मतम् - - अभिसंधिपूर्वक एवास्य व्यापारव्याहारातिशयो भवतुमर्हति, अन्यथा यत्किंचन कारित्वदोषानु षंजनात्तदभ्युपगमे चच्छत्वादसर्वज्ञ एवायं स्यात् अनिष्टं चैतदिति ? नैतदेवमभिसंधिविरहेऽपि कल्पतरुवदस्य परार्थसंपादन सामर्थ्योपपत्तेः प्रदीपवद्वा, न वै प्रदीपः कृपालुतयाऽऽत्मानं परं वा तमसो निर्वर्तयति, किंतु तत्स्वाभाव्यादेवेति न किंचित् व्याहन्यते । यथोक्तं-हिमवादि १३६ जगते त्वया न च विवदिषा कल्पतरुरनभिसंधिरपि प्रणयिभ्य ईप्सितफलानि जगद्गुरो । यच्छति ॥ * भगवान् अर्हत्परमेष्ठीदेव असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे प्रदेश पुंजकी निर्जरा करते हुए विहार करते हैं । ३११ प्रतिसमय असंख्यातगुणी श्रेणिरूप से कर्मप्रदेशों को ये भगवान् धुनते हुए धर्मतीर्थंकी प्रवृत्तिकेलिये यथायोग्य धर्मक्षेत्रमें देवों और असुरोंसे अनुगत होते हुए बड़ी भारी विभूतिके साथ प्रशस्त विहायोगतिके निमित्तसे या विहार करनेरूप स्वभाववाले होनेसे विहार करते हैं, यह इस सूत्रका अर्थ है । शंका - - कदाचित् यह मत हो कि इन अर्हत्परमेष्ठी भगवान्‌का व्यापारातिशय और उपदेशरूप अतिशय अभिप्राय पूर्व कही हो सकता है, अन्यथा यत्किचित् करनेरूप दोषका अनुषंग प्राप्त होता है और ऐसा माननेपर इच्छासहित होनेसे ये भगवान् असर्वज्ञ ही प्राप्त होते हैं । किन्तु ऐसा स्वीकार करना अनिष्ट ही है ? समाधान - - किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि अभिप्रायसे रहित होनेपर भी कल्पवृक्षके समान इन भगवान् के पदार्थ के सम्पादनकी सामथ्यं बन जाती है । अथवा प्रदीपके समान इन भगवान्की वह सामर्थ्य बन जाती है क्योंकि दोपक नियमसे कृपालुपनेसे अपने और परके अन्धकारका निवारण नहीं करता, किन्तु उस स्वभाववाला होनेके कारणही वह अपने और परके अन्धकारका निवारण करता है । जैसा कहा है हे जगद्गुरो ! आपने जगत् केलिये जो हितका उपदेश दिया है वह कहने की इच्छाके बिना ही दिया है, क्योंकि ऐसा नियम है कि कल्पवृक्ष बिना इच्छाके ही प्रेमीजनोंको इच्छित फल देता है । १. ता० प्रती निर्धनं (निर्धुवन् ) । आ० प्रती निर्धन । म० प्रती निर्धनं इति पाठः ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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