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________________ गा० २३३ ] कायवाक्यमनसां प्रवृत्तयो नाभवंस्तव नासमीक्ष्य भवतः प्रवृत्तयो धीर, विवक्षासन्निधानेऽपि वाग्वृत्तिर्जातु नेक्ष्यते । वच्छन्तो वा न वक्तारः शास्त्राणां मन्दबुद्धयः || इत्यादि । ६ ३१२ तस्मादस्य परमोपेक्षालक्षणां संयमविशुद्धिमास्थितवतो व्यापारव्याहारादयोऽतिशय विशेषाः स्वाभाविकत्वान्न पुण्यबन्धहेतव इति प्रतिपत्तव्यम् । यथोक्तमार्षे -- मुनेश्चिकीर्षया । तावकमचिन्त्यमीहितम् ॥ तित्थयरस विहारो लोयसुहो णेव तस्स पुण्णफलो । वयणं च दाणपूजारंभयरं तं ण लेवेइ ।। १३७ ६ ३१३ स पुनरस्य विहारातिशयो भूमिमस्पृशत एव गगनतले भक्तिप्रेरितामरगणविनिर्मितेषु कनकाम्बुजेषु प्रयत्नविशेषमंतरेणापि स्वमाहात्म्यातिशयात् प्रवर्तत इति प्रत्येतव्यं, योगिशक्तीनामचिन्त्यत्वादिति । उक्तं च- हे मने ! आपकी शरीर, वचन और मनको प्रवृत्तियाँ बिना इच्छाके ही होती हैं, पर इसका अर्थ यह नहीं कि आपकी मन, वचन और कायसम्बन्धी प्रवृत्तियाँ बिना समीक्षा किये होती हैं । हे धीर! आपकी चेष्टायें अचिन्त्य हैं । कहने की इच्छाका सन्निधान होनेपर ही वचनकी प्रवृत्ति नहीं देखी जाती, क्योंकि यह हम स्पष्ट देखते हैं कि मन्दबुद्धि जन इच्छा रखते हुए भी शास्त्रोंके वक्ता नहीं हो पाते । इत्यादि । $ ३१२ इसलिये परम-उपेक्षालक्षणरूप संयमकी विशुद्धिको धारणकरनेवाले इन भगवान्का बोलना और चलनेरूप व्यापार आदि अतिशयविशेष स्वाभाविक होनेसे पुण्यबन्धके कारण नहीं है, ऐसा यहाँ जानना चाहिये । जैसा कि आर्षमें कहा है तीर्थंकर परमेष्ठीका विहार लोकको सुख देनेवाला है, परन्तु उसका वह कार्य पुण्यफलवाला नहीं है । और उनका वचन दान-पूजारूप आरम्भको करनेवाला तो है फिर भी उनको कर्मोंसे लिप्त नहीं करता । १. आ० प्रतौ वीक्ष्यते इति पाठः । २. आ० प्रती वण्ण इति पाठः । ३. आ० प्रती माहात्म्यातिशयाम् इति पाठः । १८ § ३१३ पुनः इस महात्माका वह विहारातिशय भूमिको स्पर्श न करते हुए ही आकाशमें भक्तिवश प्रेरित हुए देव समूहकेद्वारा रचे गये स्वर्णकमलोंपर प्रयत्न विशेषके बिना ही अपने माहात्म्य विशेषवश प्रवृत्त होता है, ऐसा जानना चाहिये, क्योंकि योगियोंकी शक्तियाँ अचिन्त्य होती हैं । कहा भी है
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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