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________________ १३८ [चरित्तक्खवणा जयधवलासहिदे कसायपाहुडे नमस्तलं पल्लवयन्निव त्वं, सहस्रपत्राम्बुजगर्भचारैः। पादाम्बुजैः पातितमारदपर्यो, भूमौ प्रजानां विजहर्थ' भूत्यै । इति ३३१४ एत्थ सजोगिनिणस्स पढमसमयप्पहुडि जाव समुग्धादाहिमुहकेवलिपढमसमयो त्ति ताव गुणसेढिणिक्खेवकमो अवडिदेगरूपो त्ति घेत्तव्यो; परिणामेसु पडिसमयमवट्ठिदेसु तण्णिबंधणपदेसोकडुणाए गुणसेढिणिक्खेवायामस्स च सरिसत्ते मोत्तूण विसरिसभावाणुववत्तीदो। णवरि खीणकसायेण गुणसेढिणिमित्तमोकडिज्जमाणदव्वादो सजोगिकेवलिणा ओकडिज्जमाणदव्वमसंखेज्जगुणं, तत्थतणगुणसेढिणिक्खेवायामादो एत्थतणगुणसेढिणिक्खेवायामो संखेज्जगुणहीणो त्ति घेत्तव्वो, छदुमत्थपरिणामेहितो केवलिपरिणामाणमइविसुद्धत्तादो एक्कारसगुणसेढिपरूवणाए तहा भणिदत्तादो च । तम्हा आउगवज्जाणं तिहमघादिकम्माणं पदेसग्गमसंखेज्जगुणाए सेढीए णिज्जरेमाणो एसो उक्कस्सेण देसूणपुव्वकोडिमेत्तकालं धम्मतित्थं पवत्तेमाणो विहरदि त्ति सुणिरूविदं । हजार पाँखडीवाले कमलोंके मध्य चलते हए चरणकमलोंसे आकाशतलको पल्लवित करते हुएके समान कर्मभूमिक्षेत्रमें प्रजाजनोंमें मोक्षमार्गको समृद्धिकेलिये कामदेवके दपंका पतन करनेवाले आपने विहार किया । इति ॥ ६ ३१४ यहाँपर सयोगीजिनके प्रथम समयसे लेकर समुद्धातके अभिमुख हुए केवली जिनके प्रथम समय तक गुणश्रेणिके निक्षेपका क्रम अवस्थित एकरूप होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि परिणामोंके प्रतिसमय अवस्थित रहनेपर उनके निमित्तसे होनेवाला प्रदेशोंका अपकर्षण और गणश्रेणिनिक्षेपका आयाम सदशपनेको छोडकर विसदशरूप नहीं होता। इतनी विशेषता है कि क्षीणकषाय जीवकेद्वारा गुणश्रेणिके निमित्त अपकर्षित हुए द्रव्यसे सयोगिकेवली जिनकेद्वारा अपकर्षित होनेवाला द्रव्य असंख्यातगुणा होता है तथा वहाँ हुए गुणश्रेणिनिक्षेपके आयामसे यहाँके गुणश्रेणिनिक्षेपका आयाम संख्यातगुणाहीन ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि एक तो छद्मस्थके परिणामोंसे केवली जिनके परिणाम अतिविशुद्ध होते हैं तथा दूसरे ग्यारह गुणश्रेणिप्ररूपणामें वैसा कहा गया है । इसलिये आयुकर्मको छोड़कर तीन अघातिकर्मोंके कर्मप्रदेशोंकी असंख्यातगुणीश्रेणिरूपसे निर्जरा करता हुआ यह केवली जिन उत्कृष्टसे कुछ कम पूर्वकोटिप्रमाण कालतक धर्मतीर्थको प्रवृत्त करता हुआ विहार करता है, यह अच्छी तरहसे निरूपण किया है। १. आ० प्रती विजहर्ष इति पाठः ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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