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________________ खवरणाहियारचूलिया $ ३१५ एत्थ तित्थयरकेवलीणमियरकेवलीणं च जहण्णुकस्सविहारकालाणं पमाणाणुगमो तित्थयराणं विहाराइसओ समवसरणविभूदिवण्णणं च भणियण गेण्हिदव्वं । अत्र सूत्रपरिसमाप्ताविति शब्दोपादानं स्वोक्तिपरिच्छेदे द्रष्टव्यम्, एतावति प्ररूपणाप्रबंधे सविस्तरं प्ररूपिते ततः प्रकृतार्थाधिकारस्य परिसमाप्तिरिति स्वोक्तिपरिच्छेदस्यात्र विवक्षितत्वात् । एवमेत्तिएण परूवणापबंधेण सत्थाणसजोगिकेवलिविसयं परूवणाविसेसं परिममाणिय संपहि एत्थेव चरित्तमोहणीयपुरस्सराणं घादिकम्माणं खवणाविही समप्पदि त्ति कयणिच्छओ एदस्सेव खवणाहियारस्स चूलियापरूवणडमुवरिमाओ सुत्तगाहाओ पढइ-तत्थ ताव पढमा सुत्तगाहा * अणमिच्छमिस्ससम्म अट्ठ एसित्थिवेदछक्कं च । पुंवेदं च खवेदि दु कोहादीए च संजलणे ॥१॥ $ ३१६ एसा गाहा सणचरित्तमोहपयडीणं खवणापरिपाडिं पुव्वुत्तमेव सव्वोवसंहारमुहेण पदुप्पाएदुमोइण्णा । तं कथं ? 'अण' एवं भणिदे अणंताणुबंधिचउक्कस्स गहणं कायव्वं, णामेगदेसणिद्देसेण वि णामिल्लविसयसंपच्चयस्स सुपसिद्धत्त क्षपणाधिकार-चूलिका ६ ३१५ यहाँपर तीर्थंकरकेवलियों और अन्य केवलियोंके जघन्य और उत्कृष्ट विहारकालोंके प्रमाणका अनुगम और विहारसम्बन्धी अतिशयका तथा समवसरणविभूतिका वर्णन कहकर ग्रहण करना चाहिए। यहाँपर सूत्रकी पीरसमाप्तिमें 'इति' शब्दका ग्रहण अपनी उक्तिके ज्ञानरूप अर्थमें जानना चाहिये क्योंकि इतने प्ररूपणा प्रबन्धके विस्तारके साथ प्ररूपित कर देनेपर उससे प्रकृत अर्थाधिकारको परिसमाप्ति होती है। यह अपनी उक्तिका परिच्छेद यहाँपर विवक्षित है। इसप्रकार इतने प्ररूपणारूप प्रबन्धकेद्वारा स्वस्थान सयोगिकेवलोविषयक प्ररूपणाविशेषको समाप्त करके अब यहींपर चारित्रमोहनीय-प्रमुख घातिकर्मो की क्षपणाविधि समाप्त होती है, ऐसा किये गये निश्चय पूर्वक इसी क्षपणाधिकारकी चूलिकाका कथन करनेकेलिये आगेको सूत्र गाथाओंको पढ़ते हैं। उनमें प्रथम सूत्रगाथा यह है ___ * यह मोक्षमार्गपर आरूढ़ हुआ जीव अनन्तानुबन्धीचतुष्क, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक प्रकृतिमिथ्यात्व, मध्यकी अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क और प्रत्याख्यानावरणचतुष्क ये आठ कषाय, नपुसकवेद, स्त्रीवेद, छह नोकषाय, पुरुषवेद और क्रोध, मान, माया तथा लोभ ये चार संज्वलन कषाय इनका क्रमसे क्षय करता है। 8 ३१६ यह सूत्रगाथा दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी पहले कही गई ही क्षपणाकी परिपाटीका सबका उपसंहारद्वारा कथन करनेकेलिये अवतीर्ण हुई है। शका--वह कैसे ?
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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