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________________ १४० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [खवणाहियारचूलिया दंसणादो। तदो अगं ताणुबंधिचउक्कं विसंजोयणकिरियाए पुव्वमेव णासेदि त्ति भणिदं होइ । 'मिच्छ' एवं भणिदे तदो दसणमोहक्खवणमाढविय पुव्वं मिच्छत्तं खवेदि त्ति वृत्तं होइ। 'मिस्स' एवं भणिदे तदो पच्छा सम्मामिच्छत्तं खवेदि त्ति घेत्तव्वं । 'सम्म एवं भणिदे तदो पच्छा सम्मत्तं खवेदि ति मणिदं होदि । 'अट्ठ' एवं मणिदे पुव्वुत्तसत्तपयडीओ हेट्ठा चेव अप्पप्पणो ठाणे खवेयूण तदो खवगसेढिमारूढो संतो अणियट्टिगुणट्ठाणे अंतरकरणादो हेट्ठा चेव अट्ठकसाये णिदुवेदि त्ति वुत्तं होइ । एवं गत्सयवेदादिपयडीणं पि खवणापरिवाडीगाथाणुसारेण वत्तव्वा । एत्तो विदिया सुत्तगाहा * अथ थीणगिद्धिकम्मं णिहाणिद्दा य पयलपयला य । अध पिरय-तिरियणामां झीणा संछोहणादीसु ॥२॥ ६३१७ एसा विदिया सुत्त गाहा अट्ठकसायक्खवणादो पच्छा खविज्जमाणाणं थीणगिद्धिआदिसोलसपयडीणं णामणिद्देसकरणट्ठमोइण्णा सुगमा च । एदिस्से अस्थ समाधान-'अण' ऐसा कहनेपर अनन्तानुबन्धीचतुष्कका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि नामके एकदेशके निर्देशद्वारा भी नामवाले विषयके ठीक ज्ञानकी प्रसिद्धि हुई देखी जाती है। इसलिये अनन्तानुबन्धीचतुष्कका विसंयोजनक्रियाद्वारा पहले ही नाश करता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। 'मिच्छ' ऐसा कहनेपर तदनन्तर दर्शनमोहनीयको क्षपणाका आरम्भकर पहले मिथ्यात्वकी क्षपणा करता है, यह कहा गया है। 'मिस्स' ऐसा कहनेपर उसके बाद साम्यग्मिथ्यात्वकी क्षपणा करता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। 'सम्म' ऐसा ग्रहण करनेपर उसके बाद सम्यक्त्वकी क्षपणा करता है, यह कहा गया है। 'अट्ठ' ऐसा कहनेपर पूर्वोक्त सात प्रकृतियोंके बाद ही अपनेअपने स्थानमें आठ कषायोंको क्षपणा प्रारम्भ कर तदनन्तर क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ होता हुआ अनिवृत्तिगुणस्थानमें अन्तरकरणक्रियाके करनेके बाद ही आठ कषायोंकी क्षपणाका निष्ठापन करता है, यह कहा गया है। इसप्रकार नपुंसकवेद आदि प्रकृतियोंकी भी क्षपणासम्बन्धीपरिपाटी गाथाके अनुसार करनी चाहिये । अब आगे दूसरी सूत्रगाथा कहते हैं * अब मध्यकी आठ कषायोंकी क्षपणा करनेके पश्चात् स्त्यानगृद्धिकर्म, निद्रानिद्रा और प्रचलाप्रचला तथा नरकगति और तिर्यञ्चगति नामवाली तेरह प्रकृतियाँ, इसप्रकार ये सोलह प्रकृतियाँ संक्रामकप्रस्थापककेद्वारा अन्तर्मुहूर्त पूर्वही सर्व संक्रमण आदिमें क्षीण की जा चुकी हैं ॥२॥ ३१७ यह दूसरी सूत्रगाथा आठ कषायोंको क्षपणाके अनन्तर क्षयको प्राप्त होनेवाली स्त्यानगृद्धि आदि सोलह प्रकृतियोंका नामनिर्देश करनेकेलिये अवतीर्ण हुई है और इसकी अर्थ १. (७५) १२८ भा० १५.
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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