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________________ गा०२३३] १३५ केवलणाणदिवायरकिरणकलावप्पणासियण्णाणो।। णवकेवल-लडुग्गमसुजणियपरमप्पववएसो ॥४॥ असहायणाणदंसणसहिओ इदि केवली हु जोगेण । जुत्तो त्ति सजोगो इदि अणाइणिहणारिसे वुत्तो ॥५॥ $ ३१० यत्पुनरिहाशङ्कान्तरं-सर्वज्ञो वीतरागो वा न कश्चित् पुरुषविशेषः समस्ति, सर्वपुरुषाणां रागाद्यविद्योपद्रुतस्वभावत्वाद्रथ्यापुरुषवदित्यादि कैश्चिन्मिथ्यादर्शनाकुलीकृतहृदयैः स्वपरविद्वेषिभिरनाप्तैरादृतं, तदपि शास्त्रादावेव सुनिर्लो ठितमिति न पुनरुपन्यस्यते । तदेवं ज्ञानावरणादिकर्मणां निश्चयव्यवहारापायातिशयानंतरमाविभूताचिन्त्यज्ञानदर्शनसाम्राज्यप्राप्त्यतिशयस्य परमकाष्ठामात्मसात्कृत्य कृतकृत्यतामपाकृतकृतान्तकृतनिकृतिमकृतिको स्वसाकुर्वस्त्रिदशासुरमनुजमुनिपतिभिरभिगमनीयत्वात् प्राप्तपूजातिशयबहिर्विभूतिः सयोगकेवली भूत्वा स्वयं निष्ठितार्थोपि मगवानहत्परमेष्ठी परार्थप्रवृत्तिस्वाभाव्याद्धर्मामृतवृष्टिमासन्नभन्यजगते हिताय प्रवर्षन्नबुद्धिपूर्वमेव सर्वसत्वाभ्युद्वारभावनातिशयप्रेरितो भव्यजनपुण्येन शेषकर्मफलस व्यपेक्षेण विहारातिशयमनुभवतीत्येतत्प्रतिपादयितुकामः सूत्रमुत्तरं पठति-- जिसने केवलज्ञानरूपीदिवाकरकी किरणकलापकेद्वारा अज्ञानका नाश कर दिया है तथा नौ केवल लब्धियोंकी उत्पत्ति होनेसे जिसने परमात्मसंज्ञाको प्राप्त कर लिया है। वह असहायज्ञानदर्शनसे सहित होता है, इसलिये केवली कहा जाता है तथा योगसहित होनेसे सयोगी कहलाता है, ऐसा अनादि-अनिधन आर्षमें कहा गया है ।।४-५॥ ६३१० जो यहाँ दूसरी आशंका की जाती है कि कोई पुरुषविशेष सर्वज्ञ वीतराग नहीं है, क्योंकि सभी पुरुष रागादि अविद्यासे उपद्रुत स्वभाववाले हैं, रथ्यापुरुषके समान; इत्यादि रूपसे जिनका हृदय मिथ्यादर्शनसे आकुलित किया गया है और जो अपने और दूसरोंके वैरी अनाप्त हैं उनकेद्वारा यह बात आदरपूर्वक कही जाती है किन्तु वह बात भी शास्त्र आदिमें भी अच्छी तरहसे खण्डित कर दी गई है, इसलिये उसका यहाँ पुनः उपन्यास नहीं करते । अतः इस प्रकार ज्ञानावरणादि कर्मोंके निश्चय-व्यवहाररूप अपायातिशयके अनन्तर प्राप्त हुए अचिन्त्यज्ञान-दर्शनरूप साम्राज्यकी प्राप्तिको अतिशयको परमकाष्ठाको आत्मसात् करके जिसने यमकृतछलनाके दूर किये जानेसे अकृतिक कृतकृत्यताको स्वाधीन करते हुए देवेन्द्र, असुरेन्द्र और चक्रवतियों और गणधरोंके द्वारा अभिगमनीय होनेसे जिसने पूजातिशयरूप बाह्य विभूतिको प्राप्त किया है, ऐसे जिनदेव सयोगकेवली होकर स्वयं सम्पन्न प्रयोजन होते हुए भी भगवान् अर्हत्परमेष्ठो परार्थप्रवृत्तिरूप स्वभाववाले होनेसे आसन्नभव्य जीवोंके हित के लिये धर्मामृतवृष्टिका प्रवर्तन करते हुए अबुद्धिपूर्वक ही समस्त प्राणियों के सब प्रकारके उद्धारको भावनाके अतिशयसे प्रेरित होते हुए भव्य जोवोंके पुण्यके निमित्तसे शेष अघाति कर्मोंके फलकी अपेक्षा विहारातिशयका अनुभव करते हैं । इस प्रकार इस तथ्यके प्रतिपादन करनेकी इच्छासे युक्त आचार्यवयं आगेके सूत्रको कहते हैं
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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