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________________ १३४ जयधवलासहिदे कसपाहुडे [ चारित्तक्खवणा प्रतिव्यूढः, तत्र तदुदयस्य सहकारिकारणवैकल्येन परघातोदय व दकिंचित्करत्वात् । तस्मादनन्तज्ञानदर्शनवीर्यविरतिसुखपरिणामत्वान्न के सयोगकेवली, सिद्धपरमेष्ठिवदिति सिद्धम् । $ ३०९ अनन्तदानलाभभोगोपभोगलब्धयश्च वीर्येणोपलक्षणीय निरवशेषान्तरायप्रक्षयजन्यत्वं प्रत्यविशिष्टत्वात् । ताः पुनरशेषप्राणिविषयाभयप्रदानसामर्थ्यात् त्रैलोक्याधिपतित्वसम्पादनात् सति प्रयोजने स्वाधीनाशेषभोगोपभोगवस्तुसम्पादनाच्च सोपयोगा एवेति प्रत्येतव्यम् । तस्मात्प्रागेव द्वितयमोहनीयप्रक्षयाद्दर्शनचारित्रशुद्धिमात्यन्तिकमवगाढो ज्ञानदृगावरणमूलोत्तरप्रकृतिसंक्षयानन्तरविजृम्भितक्षायिकानन्तकेवलबोधदर्शन पर्यायः, अन्तराय परिक्षयात्समासादितानन्तवीर्यदानलाभ भोगोपभोगसामर्थ्यो, नवकेवललब्धिपरिणतः कृतार्थतायाः परमकाष्ठामधितिष्ठन्नईत्परमेष्ठी स्वयम्भूर्जिनः केवली सर्वज्ञः सर्वदर्शी सयोगकेवली चेति तदा संशब्द्यते । जिनादि - संशब्दानां पदार्थव्याख्या सुगमेति न पुनः प्रतन्यते । भवति चात्र सयोगिकेवलिनः स्वरूपनिरूपणे गाथाद्वयम् — उदय सहकारी कारणों की विकलताके कारण परधातके उदयके समान अकिंचित्कर है । इसलिये उनके अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, अनन्तविरति और अनन्तसुखपरिणामपना होने से सयोगकेवली भगवान् सिद्धपरमेष्ठीके समान भोजन नहीं करते हैं, यह सिद्ध होता है । § ३०९ अनन्तवीर्यको उपलक्षण करके पूरे अन्तरायकर्मके क्षयसे अनन्तदान, अनन्तलाभ, अनन्तभोग और अनन्त - उपभोगरूप लब्धियाँ उत्पन्न हुई हैं, क्योंकि अनन्तवीर्य के समान उन for उत्पत्तिप्रति कोई विशेषता नहीं है । परन्तु वे लब्धियाँ समस्त प्राणीविषयक अभयदानकी सामर्थ्यंके कारण, तीनों लोकोंके अधिपतित्वका सम्पादन करनेसे तथा प्रयोजनके रहते हुए स्वाधीन अशेष भोगोपभोगसम्बन्धी वस्तुओंका सम्पादन होनेसे उपयोगसहित ही हैं, ऐसा जानना चाहिये | इसलिये पहले ही दोनों प्रकारके मोहनीय कर्मके क्षयसे जिसने आत्यन्तिक सम्यग्दर्शन और सम्यक्चरित्र की शुद्धिको प्राप्त किया है, ज्ञानावरण और दर्शनावरणरूप मूल और उत्तर प्रकृतियोंके क्षयके अनन्तर हो जिसकी क्षायिक अनन्तकेवलज्ञान और क्षायिक अनन्तकेवलदर्शन पर्याय वृद्धिको प्राप्त हुई है, तथा अन्तराय कर्मके क्षयसे जो अनन्तवोर्य, अनन्तदान, अनन्तलाभ, अनन्तभोग और अनन्त-उपभोगरूप नो केवल - लब्धियोंरूपसे परिणत हुआ है, वह कृतार्थताकी परमकाष्ठाको प्राप्त होता हुआ अर्हत्परमेष्ठी, स्वयम्भू, जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और सयोगकेवली इस रूपसे कहा जाता है । यहाँ जिनादिरूप सब्दों की पदार्थ व्याख्या सुगम है, इसलिये उनका पुनः विस्तार नहीं करते हैं । यहाँपर सयोगिकेवलीके स्वरूपके निरूपण करनेमें दो गाथाएँ हैं १. आ० प्रतौ प्रतिपत्तव्यम् इति पाठः ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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